यह गली बिकाऊ नहीं (उपन्यास) : ना. पार्थसारथी

Yeh Gali Bikau Nahin (Novel) : Na. Parthasarathy

'यह गली बिकाऊ नहीं' साहित्य अकादेमी पुरस्कार-प्राप्त तमिल उपन्यास है। इसके अनुवादक रा. वीलिनाथन हैं ।

यह गली बिकाऊ नहीं : आठ

माधवी की विनती मानकर मुत्तुकुमरत् ने उसके बारे में गोपाल से कुछ नहीं पूछा। पहले तो उसने मन में ठान लिया था कि गोपाल को आड़े हाथों ले और कह दे कि माधवी के हाथों खाना परोसवाना और जूठे बरतन उठवाना मुझे क़तई. पसन्द नहीं। पर माधवी की मिन्नतों ने उसे ऐसा करने से रोक दिया।

"मेरा तो उनसे बहुत दिनों का परिचय है। आप तो अभी नये-नये आये हैं, आप उनके लाख लंगोटिया पार ही क्यों न हों। मेरे साथ उनके बरताव का आप खंडन करने जायेंगे तो न जाने क्या फल निकलेगा ! सो वह ख्याल छोड़ दीजिए !"

मुतुकुमरन् माधवी की इन बातों का आशय समझते हुए इस निर्णय पर पहुँचा कि माधवी के खाना परोसने और जूठे बरतत उाने की बात की तह में जाने से माधवी के जीवन में खलल पड़ा। अत: अपने इन विचारों से उसने अपना हाथ खींच लिया।

इसके अलावा अब वह धीरे-धीरे गोपाल को समझ पा रहा था । मद्रास आने पर पहले दिन की मुलाकत में उसने गोपाल को उदारमना पाया था। पर वह निर्णय अब गलत निकल रहा था। बाहर से देखने पर गोपाल दरियादिल लगता था। पर अन्दर से तो दिल का खोटा, कपटी और घमंडी दीख पड़ रहा था।

मद्रास जैसे बड़े शहरों में रहनेवाले लोगों को बाहर से आनेवाला औसत दर्जे का आदमी प्रथम दर्शन में उदारचेता पाता है। पर देखते-देखते उसकी धारणा मिथ्या हो जाती है। उनके सौहार्द, करुणा और प्रेम के मूल में जो कारण छिपे हैं जब उनका पता लगता है तो अपने अनुमान और निर्णय पर उसे पछताना पड़ता है। गोपाल के बारे में अब मृत्तकुमरन् की यही दशा हो गयी।

यद्यपि शहर के अभिजात समाज की सड़कें सुन्दर और सजी हुई दिखायी दे रही थीं, फिर भी उन सड़कों में, और उन सड़कों पर स्थित घरों में कुशल अवसरवादी, हिंस्र पशु जैसे क्रूर व्यक्ति, असहाय और इन्साफ़ चाहने वाले नेक चलन लोग भी विवेक-हीन दृष्टि और विषम बल लेकर आपस में निरंतर लड़ते- भिड़ते-से उसे नजर आये।

चिन्तातिरिसेझै में अंगप्पन की चित्रशाला से दृश्यवन्ध वगैरह चुनकर लौटने के बाद से, गोपाल से हिलने-मिलने और बातचीत से दूर रहने का एक सुअवसर स्वयं मुत्तुकुमल् के हाथ लगा।

दूसरे ही दिन, किसी फ़िल्म के बाह्य दृश्यांकन के सिलसिले में गोपाल को वायुयान से अपनी मंडली के साथ, कश्मीर के लिए रवाना होना पड़ा । जाते वह मुत्तुकुमरन और माधवी से कह गया कि मुझे लौटने में दोहाते लगेंगे । उसके पहले नाटक पूरा हो जाय और रिहर्सल के लिए तैयार रखा जाए तो अच्छा हो।

अतः मुत्तुकुमरन् समुद्र-तट या कहीं बाहर जाना छोड़कर नाटक का आलेख पूरा करने में पूरी तरह से जुट गया । माधवी भी उसकी पांडुलिपि की टंकित प्रति निकालने में अधिक ध्यान देने लगी । उन दिनों में मुत्तुकुमरन् काफ़ी रात गये जाग- जागकर भी नाटक लिखता रहा । वह रात को जो कुछ लिखता, उसे भी माधवी दिन में हो टाइप करती। अंतः उसका काम दुहरा हो गया । इस तरह दस-बारह दिन न जाने कैसे बीत गये, कश्मीर जाने के बारहवें दिन गोपाल के पास से मुत्तुकुमरन् के नाम पत्र आया, जिसमें उसने पूछा था कि नाटक की प्रगति कहाँ तक हुई है ? उस दिन मुत्तुकुमरन् नाटक के अंतिम चरण में था । इस दृश्य में एक सामूहिक गान का आयोजन था । दूसरे दिन सवेरे, जहाँ तक मुत्तुकुमरन् का सम्बन्ध है, नाटक पूरा तैयार हो गया था। सिर्फ माधवी का टाइप करना भर बाकी रह गया था । वह भी इतना ही कि सबेरे बैठती तो दोपहर को पूरा हो जाता।

टाइप करने के लिए जब माधवी आयी, तब मुत्तुकुमरन् बाल बनवाने के लिए सैलून जाने के उपक्रम में था। मद्रास आने के एक महीने पहले से ही उसके बाल बढ़े हुए थे। इसलिए उस दिन उस काम से निवृत्त होने को उसने ठान लिया था। जाते हुए वह माधवी से कह गया कि मेरे वापस आने तक तुम्हारे लिए टाइप करने का काम पड़ा है । तुम्हारे टाइप करने के पहले ही शायद मैं आ जाऊँगा।

गोपाल के ड्राइवर ने मुत्तुकुमरन् को पांडि बाजार के एक आधुनिक वातानु- कूलित सैलून के सामने उतारा । अन्दर जाने पर, मुत्तुकुमरन् को थोड़ी देर के लिए बाहरी बैठक में इन्तजार करना पड़ा। वहाँ तमिळ के दैनिक, साप्ताहिक, मासिक और फ़िल्मी दुनिया की पत्र-पत्रिकाओं के अंबार लगे थे। एक छोटा-मोटा वाचनालय ही था।

ऊपर, दीवार के चारों ओर. युवतियों के मनमोहक 'बाथरूम पोज' वाले कैलेंडर लगे थे । न नहाते हुए भी बहुत ही थोड़े लिबास में कुछ लड़कियों की तस्वीरें ऐसी बनी थीं कि देखकर नहानेवालियाँ भी लजा जायें । कैलेंडर बनाने- वालों का शायद यह विचार रहा हो कि सारी दुनिया की लड़कियों को या तो नहाने के सिवा कोई काम नहीं या नहाना मात्र ही सार्वभौम स्त्री-संस्कृति है।

उन चित्रों को देखते-देखते : मुत्तुकुमरन् ऊब गया था । मेज़ पर पड़ी रंगीन चित्रों वाली एक साप्ताहिक पत्रिका उठाकर उलटने-पुलटने लगा। बाहर के कवर- चित्र से लेकर धारावाही उपन्यास और लंधुकथाओं के चित्रों में भी स्त्रियाँ नहा ही रही थीं। अच्छा हुआ कि उसका धैर्य जवाब दे दे-इसके पहले अंदर से बुलावा आ गया। अंदर जाकरं कुरसी पर बैठा तो देखा कि अगल बगल और आमने-सामने उसके चेहरे के प्रतिबिंब दसेक आईनों में दिखायी देने लगे। अपने ही प्रतिबिंबों पर गर्व करने का जी हो रहा था । दो आईनों के बीच, गोपाल की एक तस्वीर सुन्दर 'फम' में सजी टंगी हुई थी। नाई का उस्तरा जब सिर पर चल रहा था, तब उसकी आँखों में मीठी नींद भरने लगी। अधमुंदी-अधखुली आँखों से गोपाल का चित्र देखते हुए उसके मन में गोपाल के बारे में एक-एक कर विचार : भी उभरते चले गये।

'गोपाल जी से मेरा बहुत दिनों का परिचय' है । नाम के वास्ते मुझे 'इन्टरव्यू के लिए बुलाया और नये आये हुए लोगों की तरह सवाल भी किया ! सब कुछ ढोंग था, नाटक था.!' माधवी ने तो उसके सामने गोपाल का सारा कच्चा-चिट्ठा खोलकर रख दिया था । पर गोपाल ने तो यूं तक नहीं की और छुपा भी रहा था, मानो 'इन्टरव्यू के समय ही माधवी को देखा है। माधवी को टाइप करने के लिए भेजते. हुए भी उसने बात घुमा-फिराकर कही थी कि माधवी ने 'इंटरव्यू में बताया था कि वह टाइप करना भी जानती है। इसलिए उसीको नाटक टाइप करने को बुलवा भेजूंगा।

गोपाल ने कभी इस बात का भान होने नहीं दिया कि वह पहले से ही माधवी को जानता है।

मुत्तुकुमरन को विश्वास हो गया कि गोपाल उससे यह सब छुपाता रहा। उसे सैलून से लौटते हुए सुनह के ग्यारह बज चुके थे । माधवी टाइपिंग का काम पूरा कर, शुरू से टाइप किये हुए काग़ज़ों को हाथ में लेकर अशुद्धियाँ सुधारने में लगी हुई थी।

मुत्तुकुमरन् सीधे स्नानागार गया और नहा-धोकर कपड़े बदलकर लौटा। माधवी उसपर दृष्टि फेरकर बोली, "एकाएक आप बड़े दुबले लगने लगे हैं। शायद बाल छोटे करवा लिये हैं !"

"गौर नहीं किया ! बाल बनवाते समय मुझे बड़ी नींद आ गयी ! मैं सो गया !"

"नाटक तो बहुत अच्छा बन पड़ा है ! अभी तक शीर्षक नहीं दिया है । क्या शीर्षक देंगे?"

"सोचता हूँ कि 'प्रेम-एक नर्तकी का' रखू ! तुम्हारा क्या ख़याल है?"

"मेरे ख़याल से भी अच्छा है !".

"न जाने, गोपाल क्या कहेगा?"

"वे परसों आ जायेंगे। देखें, वे क्या बताते हैं ?"

"हो सकता है कि वह दूसरा----कोई फड़कता-सा नाम रखना चाहे !"

"तब तक के लिए इस पांडुलिपि और टंकित लिपि में 'प्रेम-एक नर्तकी का' ही लिख रखूगी !

मुत्तुकुमरन् ने हामी भरी । भोजन के बाद दोनों बैठकर बातें कर रहे थे कि मुत्तुकुमरन ने पूछा, "आज तो नाटक लिखना पूरा हो गया है । इस खुशी में हम दोनों कोई सिनेमा देखने क्यों न चलें?"

'मैटिनी शो' के लिए चलें तो मैं साथ आऊँगी-"माधवी ने हामी भरी। मुत्तुकुमरन् मान गया और तुरन्त चल पड़ा।

दोनों एक नयीं तमिळ फिल्म देखने गये । वह एक सामाजिक फ़िल्म थी।

'टाइटिल' में उसे एक बांग्ला कहानी पर आधारित बताया गया था जिसके लिए क्षमा-याचना भी की गयी थी। पट-कथा, संवाद, गीत और निर्देशन का पूरा भार एक ही व्यक्ति ने अपने पर लिया था। गोपाल की तरह ही प्रसिद्ध एक-दूसरे अभिनेता ने उसकी भूमिका की थी। पुराने जमाने के 'वल्लि-विवाह' नाटक में वेलन् (कुमार कार्तिकेय) व्याध और वृद्ध के भेष में जैसे एक ही व्यक्ति आया करता था, वैसे ही इस सामाजिक चित्र में भी पंजाबी, पठान और मारवाड़ी के भेष में उक्त अभिनेता ने तिहरी भूमिका निभायी थी।

फ़िल्म देखते-देखते मुत्तुकुमरन् ने माधवी से एक सवाल किया, "सभी चित्रों में न जाने क्यों एक ही आदमी अपने को सभी विधाओं में पारंगत दर्शाना चाहता है, जबकि हर विधा में अपने को अधूरा ही साबित करता है बेचारा !"

"तमिळ सिने-जगत का यह अभिशाप है, जो मिटाये नहीं मिटता । यहाँ अचानक कोई 'डाइरेक्टर' अपने चित्र के लिए कहानी लिखने लगेगा । उनका उद्देश्य यह दिखाने का होता है कि उन्हें कहानी लिखना भी आता है। तारीफ़ करनेवाले यह मानकर तारीफ करते हैं कि तारीफ़ करना उनका कर्तव्य है। देखनेवाले इसलिए देखते हैं कि देखना उनका कर्तव्य है। समालोचना करनेवाले इसलिए समालोचना करते हैं कि समालोचना करना या तारीफ़ का पुल बाँधना उनका कर्तव्य है।"

"रुक क्यों गयी? बोलो ! डाइरेक्टर को कहानी लिखते देखकर अभिनेता के मन में यह धुन सवार क्यों नहीं होगी कि हम भी कोई कहानी लिखें ? तो वह कोई कहानी लिख मारेगा ! फिर तारीफ करनेवालों और समालोचना करनेवालों के कर्तव्य जोर मारेंगे तो झख मारकर सब-के-सब मैदान में उतरेंगे।"

"बाद को इनकी. देखादेखी स्टूडियो का 'लाइट ब्वॉय' भी एक दिन लव- . स्टोरी लिखेगा । लोकतन्त्र में तो जिसको जो जी में आये, करने की स्वतन्त्रता है.! उसकी कहानी पर फ़िल्म भी बनेगी। हो सकता है, वह डाइरेक्टर और अभिनेता की लिखी हुई कहानियों से बढ़कर कहीं ज्यादा 'रियल' और 'प्रैक्टिकल भी हो!"

पीछे की सीट पर बैठे किसी परम रसिक महोदय को मुत्तुकुमरन् और माधवी के वार्तालाप से फिल्म देखने में बाधा महसूस हुई तो ने गुस्से में बड़बड़ाने-से लगे। दोनों ने बोलना बन्द कर दिया ।

सामने पर्दे पर नायिका का स्वप्न-दृश्य चल रहा था । चमाचम चमकते सुनहरे वृक्षों पर चांदी के फल लगे थे । नायिका हर पेड़ पर चढ़ती और झूलती। लेकिन किसी पेड़ की शाखा तक नहीं टूटती । भारी-भरकम देह वाली नायिका एक बड़ा लम्बा गाना भी गाती रही। वह इतना लम्बा था कि सभी पेड़ों पर चढ़ने और झूलने के बाद ही कहीं जाकर समाप्त हुआ। 'डंगरी डुंगाले, डुंगरी डंगाले' वाली जो पंक्ति बार-बार आयी, न जाने, वह किस जुबान की थी ! मुत्तुकुमरन् ने समझ न पाने के कारण माधवी से पूछा तो वह मुत्तुकुमरन के कानों में फुसफुसायो—“लगता है, यह फ़िल्म की जुबान है, प्रेमियों की भाषा है !"

"आप इस तरह बोलते रहेंगे तो हम फ़िल्म कैसे देख सकते हैं ? बोलना ही है तो बाहर जाकर बोलिए !"--पीछे की सीट से कैंची-सी जुबान चली तो दोनों ने अपनी जुवान खींच ली।

फ़िल्म के समाप्त होने तक उनसे वहां रहा नहीं गया। बीच में ही उठकर चल पड़े। वहाँ से चलकर वे माउंट रोड स्थित एक पश्चिमी ढंग के वातानुकूलित होटल में नाश्ता करने के लिए घुसे । सीट पर बैठकर नाश्ते के लिए ऑर्डर देने के बाद मुत्तकुमरन ने माधवी से पूछा, "जब तुम भी मेरी तरह इन अधकचरी फ़िल्मों से नफ़रत करती हो तो ऐसी स्थिति में, इस क्षेत्र में कैसे रह पा रही हो ?"

"दूसरा चारा भी बया है ? पढ़ी-लिखी होने के कारण इसका बुरा-भला-- सब-कुछ समझ में आ जाता है। पर किसी दूसरे के सामने हम इसकी बुराई मुँह से नहीं निकालते । इस क्षेत्र में, चापलूसी और सच्ची स्तुति के बीच कोई विशेष अन्तर नहीं है। सब चापलूस हैं, सच्ची स्तुति कुछ नहीं है। इसलिए फ़िक्र की कोई बात नहीं । अपने से जो बन पड़े, उसे ईमानदारी से करना चाहिए और बाकी दूसरों पर छोड़ देना चाहिए । यह भलमनसाहत इस क्षेत्र में ढूंढे नहीं मिलती। यहां यही मनोभावना काम करती है कि हर कोई हर काम कर सकता है । इस भावना को उतनी आसानी से कोई उखाड़ नहीं सकता!"

"इन सबमें गोपाल कैसा है?"

"आप पूछ रहे हैं इसलिए सतही बातें नहीं करना चाहिए !"

"सच्ची बात ही बताओ!".

"इस फील्ड' में जब आये थे, तब दिल लगाकर बड़ी ईमानदारी के साथ काम किया था। अब तो दूसरों की तरह हो गये। सच्चाई विदा हो गयी !"

"कला के क्षेत्र में आत्म-वेदना होनी चाहिए !"

"माने?"

"सच्ची-श्रद्धा होनी चाहिए !"

"बहुत से लोग शरीर को कोई कष्ट हो-ऐसा कोई काम नहीं करते । आप तो एक सीढ़ी ऊपर चढ़कर कहते हैं कि आत्म-वेदना होनी चाहिए !"

"हाँ, हृदय की बात, अन्दर की बात कहता हूँ। बिना आत्म-वेदना के मुझसे कविता की एक पंक्ति भी नहीं लिखी जाती, बिना आत्म-वेदना के मुझसे कहानी की एक पंक्ति भी नहीं लिखी जाती । बिना आत्म-वेदना के तो मैं संवाद की एक पंक्ति भी नहीं लिख पाता !"

"हाँ, सम्भव है। क्योंकि कला के प्रति आप की ऐसी श्रद्धा है, जिसके लिए आप में तड़प है. और आप आत्म-वेदना का अनुभव करते हैं। लेकिन यहाँ कइयों को यह भी मालूम नहीं है कि आत्म-वेदना किस चिड़िया का नाम है ? पूछेगे कि कितने का एक किलो आता है ?"

"बड़े अफ़सोस की बात है ! देखकर आश्चर्य होता है कि इतने नक़ली लोग मिलकर लाखों में रुपये कैसे पैदा करते हैं ?"

नाश्ता आ गया। बिना कुछ बोले दोनों ने नाश्ता पूरा किया। कॉफ़ी के आने में थोड़ी देर लगी। उस होटल में 'ऑर्डर' लेनेवाला कछुए की गति से आता और नाश्ता लानेवाला कछुए को पछाड़ देता था। इसलिए नाश्ता पूरा कर उठने में उन्हें एक घण्टे से अधिक का समय लग गया । लौटते हुए मुत्तुकुमरन् माधवी को उसके घर पहुँचा कर लौटा। . दूसरे दिन सवेरे, बिना किसी पूर्व-सूचना के, एक दिन पहले ही गोपाल लौट आया । आते ही नाटक के बारे में पूछकर अपनी उतावली दिखाई। कश्मीर से लौटने के दिन गोपाल कहीं बाहर नहीं गया। नाटक की एक प्रति ले जाकर अपने कमरे में बैठकर पड़ता रहा। शाम को छः बजे मुत्तुकुमरन को देखने आउट हाउस में आया । वहाँ माधवी और मुत्तुकुमरन् बैठे बातें कर रहे थे। गोपाल को अचानक वहाँ देखकर माधवी भय-भक्ति के साथ उठ खड़ी हुई । मुत्तुकुमरन् को माधवी का यह भय नहीं भाया।

"नाटक पढ़ लिया!"

"........."

"शीर्षक बदलना चाहिए । कोई दिलकश नाम ढूँढ़ना चाहिए । हास्य का कोई 'स्कोप' नहीं है। उसके लिए भी कुछ करना चाहिए।"

"......."

"अरे, उस्ताद ! मैं कहता चला जा रहा हूँ। तुम तो जवाब ही नहीं देते !" "इसमें जवाब देने को क्या है ? तुम्ही सब कुछ जानते हो !" "तुम्हारा जवाब चुभता-सा लगता है !"

"........"

"दिलकश शीर्षक देने में और बीच-बीच में हास्य को घुसेड़ने में हमारा जिल-जिल बड़ा फ़नकार है ! सोच रहा हूँ कि उसके हाथ स्क्रिप्ट' देकर दुरुस्त करवाऊँ!"

"छि:-छि: ! वह किस लिए? मेरे ख़याल में जिल-जिल से बढ़कर ऐसे कामों के लिए तुम्हारे पांडि बाजार के वातानुकूलित सैलून बाले हमाम ही ज्यादा काबिल हैं !"

"तुम खिल्ली उड़ा रहे हो!"

"गोपाल "तुमने क्या समझ रखा है ? यह नाटक है या कोई तमस्सुक ?"

सिंह की दहाड़ की तरह मुत्तुकुमरन का स्वर सुनकर गोपाल स्तंभित रह गया।

उसके मुख से शब्द नहीं फूटे। फटे तो कैसे फूटे ? काफी देर तक बिना कुछ कहे सुने क्रोध-भरा मौन धारण किये हुए वह खड़ा रहा । नुत्तुकुमरन के मुंह से जैसे ज्वालामुखी फूट पड़ी थी ! उसके सामने गोपाल का क्या वश था? मुत्तुकुमरन् के चेहरे पर क्रोध का तूफ़ान बरसा देखकर माधवी भी सहम गयी।

"जिल-जिल से बढ़कर पांडि बाजार के तुम्हारे सैलून वाला..." भुत्तुकुमरन् का जवाब गोपाल पर बाबुक की तरह पड़ा तो वह सकपका गया था। उसके संभलने के पहले मुत्तुकुमरन् सँभल गया और ऐसे स्वाभाविक ढंग से बोला, मानो कुछ भी नहीं हुआ हो!

"कल से नाटक का रिहर्सल यहीं इसी आउट हाउस में होगा ! तुम भी आ जाना!"--मानो आदेश जारी किया।

गोपाल चुप था, वह कुछ भी बोल नहीं पाया।

यह गली बिकाऊ नहीं : नौ

"आज तुम्हारे पास पैसा है, हैसियत खड़ी हो गयी है। इसलिए मैं यह नहीं मानूंगा कि तुम नाटक के मामले में भी पारंगत हो गये हो । नाटक के बारे में मैं जो जानता हूँ, वह तुम नहीं जानते। मेरी बात मानकर चलो। मेरी बात से आगे मत बढ़ो। एकाएक तुम्हें बुद्धिमानी की सीढ़ी पर चढ़ने की कोई जरूरत नहीं। समझे?" वह कुछ इस तरह गोपाल को आड़े हाथों लेना चाहता था । पर माधवी के सामने उसका सिर नीचा नहीं करना चाहता था।

वहाँ से चलते हुए गोपाल ने नाटक की एक प्रति हाथ में ली तो मुत्तुकुमरन् ने ऊँचे स्वर में फटकारते हुए कहा, "उसे कहाँ लिये जा रहे हो? यहीं रख दो।" गोपाल उसकी बातों का उल्लंघन नहीं कर सका।

इस दशा में माधवी को वहाँ रहना उचित नहीं जेंचा तो घर चल दी। उसके जाने के थोड़ी देर बाद गोपाल भी अपने बँगले में चला गया। जाते हुए उसने मुत्तुकुमरन् से विदा नहीं ली । मुत्तुकुमरम् को लगा कि गोपाल नाहक रूठ रहा है। पर रूठे को मनाने से उसके अहंकार ने उसे मना कर दिया। रात को सात बजे नायर छोकरा खाना लाया और मुत्तुकुमरन् के हाथ एक बन्द लिफ़ाफ़ा देते हुए कहा, "मालिक ने भेजा है !"

मुसुकुमरन् जिज्ञासा से उसे खोलकर पढ़ने लगा। लड़के ने मेज पर खाना रखकर गिलास में पानी भरा और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये वापस बंगले को चल पड़ा।

"प्रिय मुत्तुकुमरन्,

माधत्री के सामने तुम्हारा मेरे साथ बेपरवाही बरतना, खिल्ली उड़ाना या फिर डाँट-फटकार आदि जैसी बातें नहीं सोहतीं । मेरे हुक्म पर चलनेवाले नौकरों के सामने तुम्हारे इस तरह पेश आने को मैं स्वीकार नहीं कर सकता। तुम्हारे मुंह के सामने ऐसा कहने को संकोच हो रहा था। इसीलिए लिखकर भेजना पड़ रहा है । तुम समझो तो ठीक ! नाटक तुम्हारा लिखा हुआ है तो उसका मंचन करने- वाला और भूमिका निभानेवाला मैं हूँ। आशा है, यह याद रखोगे ।

तुम्हारा'

-गोपाल

मुत्तुकुमरन ने उस पत्र को मरोड़कर कोने में फेंक दिया। धीरे-धीरे गोपाल के असली रूप का उसे पता चलने लगा। उसके सामने बुजदिल बनकर और दुभ दवाकर चलनेवाला गोपाल उसके पीठ-पीछे क्या-क्या सोचता है ? यह पत्न उसी का खुलासा करता-सा लगा। गोपाल पर इतना गुस्सा चढ़ आया कि उसे खाने की इच्छा ही नहीं हो रही थी। फिर भी, किसी तरह खाने की रस्म पूरी कर बिस्तर पर जा लेटा । अब उसे मालूम हो गया कि माधवी का उससे मिलना-जुलना और नेह बढ़ाना गोपाल को.एक आँख भी नहीं भाता ।

रात को बड़ो देर तक उसे नींद नहीं आयी तो अपने बारे में, माधवी के बारे में, गोपाल के बारे में और मंचित होने वाले अपने नये नाटक के बारे में सोचता हुआ बिस्तर में करवटें लेता रहा।

अब वह यह देखना चाहता था कि कल नियत समय पर गोपाल नाटक के रिहर्सल के लिए आता है कि नहीं ? अगर उसके कहे हुए वक्त पर गोपाल नहीं आये तो? उसके दिल में प्रतिहिंसा की यह भावना उठी कि बिना कहे-सुने अपने नाटक की प्रतियों के साथ उस घर से निकल जाना चाहिए।

लेकिन दूसरे दिन सवेरे ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसने रिहर्सल के लिए जो समय बताया था, उसके आधे घण्टे पहले ही गोपाल आउट हाउस में हाजिर हो गया नियत समय पर आ गयी थी।

गोपाल बात को तूल दिये बगैर मान गया था-इस बात से मुत्तुकुमरन् को आश्चर्य हो रहा था। पर उसने उसे प्रकट होने नहीं दिया और स्वाभाविक ढंग से काम शुरू कर दिया।

नाटक कंपनियों में जैसा कि प्रचलन है, सारी औपचारिकताएं पूरी की गयीं। पूजा के बाद, नाटक का रिहर्सल शुरू करने के पहले कथा और कथा-पात्रों के विषय में एक खाका खींचा गया। फिर पात्रों की सूची देकर गोपाल से कहा कि उनके सामने अभिनेताओं के नाम भर दे । यथा नर्तकी- माधवी

पांडिय-गोपाल

कवि-शगोपन्

कवि मित्र-जयराम

इस तरह सूची में अठारह पान थे। उनके सामने अठारहों अभिनेताओं के नाम लिखकर गोपाल ने सूची मुत्तुकुमरन् के सामने बढ़ायी।

"इन अठारहों में तीन ही पानों को हमारी टाइप की हुई प्रतियाँ मिलेगी। बाकी लोगों को याद करने के लिए संवाद लिख लेने होंगे !" मुत्तुकुमरन ने कहा !

"हाँ हाँ ! वही ठीक रहेगा ! मैं इसका इन्तजाम कर दूंगा ! सब लिख लेंगे !" गोपाल ने कहा।

गोपाल और माधवी के लिए रिहर्सल का वक्त सुबह और बाकी लोगों के लिए जाम का समय तय हुआ।..

रिहर्सल करते-करते गोपाल ने नाटक के संवाद के विषय में एक संशोधन सुझाने का उपक्रम किया । वह यह था कि कथानायिका नर्तकी का नाम कमलवल्ली रखा गया है। संबोधन में हर बार 'कमलवल्ली, कमलवल्ली' कहकर कथानायक को पुकारना पड़ता है । "मेरे ख़याल में 'कमला' कहकर पुकारे तो अच्छा रहेगा। छोटा नाम सुन्दर रहेगा और बुलाने में भी सहूलियत रहेगी।"

"नहीं, कमलबल्ली ही बुलाना चाहिए !"

"क्यों ? कमला बुलाने में क्या हर्ज है ?"

"यह ऐतिहासिक नाम है। कमलचल्ली को 'कमला' कहकर पुकारने से सामाजिक नाटक का आभास हो जायेगा !"

"तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आती !"

"तुम्हारी समझ में आयेंगी भी कैसे?"

मुत्तुकुमरन की इस टिप्पणी से गोपाल का मुंह लाल हो गया । मुत्तुकुमरन ने यह महसूस किया कि उसके प्रतिवाद को गोपाल का घमंड हजम नहीं कर पा रहा है। फिर भी रिहर्सल जारी थी।

मुत्तुकुमरन् ने गोपाल को खातिर न तो अपना विचार बदला और न समझौते का प्रयत्न किया । संवाद और अभिनय के मामले में अपनी ही बातों पर जोर देता रहा।

पहले दिन के रिहर्सल में गोपाल के साथ मुत्तुकुमरन् की कोई ज्यादा मुठभेड़ नहीं हुई। बर्ता माधवी तो गोपाल के आगे इस तरह डरती थी जैसे बांघ के आगे हिरनी । उसे साथ रखकर मुत्तुकुमरन् भी गोपाल से कड़ाई से पेश आने या हद से बाहर होने को हिचकता था। पिछली रात को गोपाल ने जो पत्र भेजा था, वह सिर उठाकर उसे सतर्क करता रहा। पर गोपाल अंडबंड सवाल कर बैठता तो उसे ऐसा गुस्सा आता कि एक की चार खरी-खोटी सुना दे। लेकिन किसी तरह अपने को सम्हाल लेता।

उस दिन गोपाल दो बजे के पहले ही यह कहकर चला गया कि उसे कोई 'कॉलशीट' है। केवल माधवी रह गयी। उसने मुत्तुकुमरन् को टोकते हुए कहा, "आप फ़िजूल के बखेड़ों में क्यों पड़ते हैं ? आपने नाटक लिख दिया। वे जैसे चाहें, खेलें। इसमें आपका क्या आता-जाता है ?"

"मैं नाटककार हूँ ! इसे क्या आसानी से भूला जा सकता है?"

"मैं भूलने को नहीं कह रही ! पूछती हूँ कि व्यर्थ का हठ क्यों ठानते हैं ?"

"नहीं ! हठ से ही आजकल भले-बुरे की रक्षा की जा सकती है !"

"आजकल भले-बुरे की रक्षा कौन करना चाहता है ? सब पैसा ही बनाना चाहते हैं।"

"हाँ, पैसे की बात गोपाल पर लागू हो सकती है ! अच्छा, छोड़ो ! शाम को दूसरों के लिए रिहर्सल की बात कह गया न? वे दूसरे कौन हैं ? कब आयेंगे ? कैसे आयेंगे? इसका तो कोई पता-ठिकाना नहीं चलता !"

"सबका इन्तज़ाम किया होगा। 'दैन' जाकर उन्हें बटोर लायेगी। नाटकों में 'साइड रोल' की भूमिका करने के लिए यहाँ कितने ही घराने पड़े हैं, जो बड़ा कष्टकर जीवन बिता रहे हैं । ऐसे पात्रों का यहाँ कोई अकाल नहीं है।"

"हो सकता है कि अकाल न पर अकालग्रस्त लोगों से कला-भावना की रक्षा हो सकती है कहीं ?"

"कला की साधना के लिए कोई शहर नहीं आता । पेट पालने के लिए ही सब शहर आते हैं और आये भी हैं।"

"तभी शहरों में कला की हालत खस्ता है !"

इसका माधवी ने कोई उत्तर नहीं दिया। लेकिन जैसा कि उसने बताया था, थोड़ी देर में दस-पन्द्रह स्त्री-पुरुषों से खचाखच भरी एक 'वैन' आयी; जिसमें से सभी हाट-बाजार का-सा शोरगुल मचाते हुए उतरे। मुत्तुकुमरन और माधवी को सामने देखते ही उनकी बोलती बन्द हो गयी । उन्हें आउट हाउस के बरामदे में ले जाकर यह फैसला करने में आधे घण्टे से भी अधिक का समय लग गया कि किसे किस पात्र की भूमिका दी जाए।

एक युवक जो दूत की भूमिका करने के लिए चुना गया था; मुत्तुकुमरन ने यह संवाद देकर पढ़ने को कहा, "हमारे महाराज तलवार लेकर घुमायें तो सारे दुश्मन जमीन चूमेंगे।' तो उसने पढ़ा, "हमारे महाराज तलवार लेकर घूम आयें तो सारे '. दुश्मन जमीन झूमेंगे।"

"अरे भाई ! 'घूम आना' नहीं, 'घुमाना', 'झूमना' नहीं 'चूमना' ।"- मुत्तुकुमरन् ने 'घुमाने' और 'चूमने पर जितना ज़ोर दिया, उतना ही उसने 'धूम हो आने और 'झूमने पर जोर दिया, मानो कुत्ते की दुम हो ।

"अरे भाई ! लड़ाई का मैदान है यहाँ घूमने के लिए कोई बाग-बगीचा नहीं!" मुत्तुकुमरन् के हास-परिहास को उसने क्या समझा ? खाक समझा !

मुत्तुकमरन् को सिर पीटने के सिवा कोई चारा नजर नहीं आया। उनमें अधिकांश साफ़ संवाद बोलने, भाव-प्रदर्शन करने और भूमिका समझने में अयोग्य ही सिद्ध हुए। मुत्तुकुमरन को अब यह समझते देर न लगी कि मद्रास में मजदूरों की तरह ही नाटकों के उन पानों की भूमिका करने के लिए आदमी मिल रहे हैं।

माधवी ने सबको कागज़-पेन्सिल देकर अपना-अपना संवाद लिख लेने को कहा । उनमें से कुछेक तो बिना गलती के लिखना तक नहीं जानते थे ।

"हमारी वायस् कंपनी में गरीबी की भूख सताती थी। लेकिन कला के विषय में न गरीवी थी और न ज्ञान-शून्यता । यहाँ की हालत को देखते हुए लगता है, वह जमाना कहीं अच्छा था।" माधवी को अन्दर ले जाकर मुत्तुकुमरन ने अपनी मनो- व्यथा सुनायी।

"क्या करें? यहाँ की हालत ऐसी ही है । कष्ट भोगने वाले ही इस तरह काम की तलाश में आते हैं । कला की साधना के मुकाबिले इस क्षेत्र को आने वाले जीविका का साधन मानकर, ही अधिक हैं " माधवी ने कहा।

रिहर्सल के समय, मुत्तुकुमरन् ने उन अभिनेताओं में एक और तरह के संक्रामक रोग को फैले हुए पाया ! फ़िल्मी क्षेत्र के किसी नामवर अभिनेता की आवाज़, बोलने के तौर-तरीके, भाव-प्रदर्शन आदि की नकल करना ही उनका ध्येय और सामर्थ्य- दर्शन था। कला और कला के भविष्य की चिंता तो उनमें थी ही नहीं।

... मुत्तु कुमरन ने उन्हें अभ्यास कराने में दो-तीन घण्टे लगाया । हर एक अभि- नेता में उसने इस विचार को सिर उठाये हुए पाया कि मंच पर एक मिनट भी सिर धुसाने का मौका मिले तो उस मौके पर कथा-नायक से भी अपने को प्रमुख मान ले और प्रभाव पैदा कर चला जाय । कला की किसी भी विधा में आत्म-वेदना नहीं के बराबर थी और केवल स्वयं को प्रदर्शित करने की इच्छा तीव्रतम थी। हर उप- अभिनेता यही सपना देखता था कि हम भी फ़लाने मशहूर अभिनेता की भाँति पैसा कमायें, नाम-यश पायें; कार-बँगले खरीदें और सुख भोगें । मेहनत से काम करने और सामर्थ्य बढ़ाने का उत्साह किसी में नहीं दीखा । मुत्तुकुमरन् जानता था कि कला के क्षेत्र के लिए यह हानिकारक है । पर वह कर ही क्या सकता था ?

दूसरे दिन भी रिहर्सल के लिए आने को कहकर उसने उन्हें विदा किया तो शाम के छः बज गये थे । पहले जो 'वैन उन्हें भरकर लायी थी, अब उन्हें भरकर बँगले से बाहर ले गयी। जाती हुई 'वैत' को देखते हुए मुत्तुकुमरन्' ने माधवी से कहा, "लगता है कि हरेक अभिनेता ने अपने दस-पन्द्रह आदमियों को काम दिलाने के लिए ऐसी ही कोई नाटक-मंडली खोल रखी है !"

"बात सही है ! लेकिन जो लोग कला की साधना के उद्देश्य से यह कार्य शुरू करते हैं, वे भी धीरे-धीरे इसी चक्कर में पड़ जाते हैं । कला का ध्यान छू मंतर हो जाता है !"

"उप-अभिनेताओं को मासिक वेतन दिया जाता है या दैनिक मजदुरी ? यहाँ कौन-सा रिवाज चलता है ?"

"अगर अपने आदमी कोई काम न भी करें तो वे मासिक वेतन दे देते हैं। दूसरे हों तो सिर्फ़ नाटक में भाग लेने के दिन के ही पैसे देते हैं। दस रुपये से लेकर पचास रुपये तक । आदमी, हैसियत और घनिष्ठता के अनुसार इनमें फर्क पड़ता है !"

"नाटक ज्यादातर कैसे चलते हैं ? अकसर कौन देखने आते हैं ? पैसा वसूल कैसे होता है ?"

"मद्रास में ऐसी सभाओं को छोड़कर दूसरा चारा नहीं है । हर समुदाय की कोई-न-कोई सभा होती है। मद्रास के बाहर भी, बम्बई, कलकत्ता, दिल्ली जैसे शहरों में जहाँ हमारे लोग हैं, वहाँ ये मण्डलियाँ जाती हैं। इनके अलावा नगर- पालिका की प्रदर्शनियों, मन्दिरों के मेलों और राजनीतिक दलों के अधिवेशनों में भी तरह-तरह के नाटक होते हैं । दूसरे शहरों में नाटक मंडली और सारी सज्जा- सामग्री को ले जाना होता है। यह तो ऐसा कठिन काम है कि जान ही निकल जाती है !"

"इतनी सारी सभाओं, प्रदर्शनियों और रंगमंचों के बढ़ने पर भी लगता है कि इस कला को समर्पित कलाकारों में उस जमाने की तरह श्रद्धा या आत्मवेदना नहीं है । पेट की भूख तो है। किन्तु कला की भूख नहीं है। अगर है तो उसको पेट की भूख खा जाती है !"

"आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं।' माधवी ने लम्बी साँस खींची । थोड़ी देर बाद बात जारी रखते हुए उसने कहा, "कलकत्ता में ऐसे थियेटर हैं, जहाँ रोज़ नाटक चलते हैं । वहाँ के लोगों में नाटक के प्रति श्रद्धा है और कला के प्रति आत्म- वेदना भी । मैं एक बार गोपालजी के साथ कलकत्ता गयी थी, तब हमने 'भूख' नामक एक बांग्ला नाटक देखा था । बड़ा अच्छा था । संवाद बहुत कम थे लेकिन हाव-भाव और भंगिमाएँ ही ज्यादा थीं। नाटक इतना नपा-तुला था कि क्या कहें ?"

“गोपाल के साथ तुम कलकत्ता क्यों गयी थी?" यह सवाल मुत्तुकुमरन् के होंठों तक आ गया था। पर उसने न जाने क्या सोचकर उसे निगल लिया ! : थोड़ी देर तक दोनों में कोई बात-चीत नहीं हुई और मौन छाया रहा। गोपाल के साथ अपने कलकत्ता हो आने की बात कहने की क्या जरूरत थी?-- माधवी अपनी भूल को महसूस कर, कुछ क्षणों के लिए सिर झुकाये चुप बैठी रही। मानो कोई कलाकार अनजाने ही बाजे में बेसुरा तार छेड़कर शमिन्दा हो । श्रोता तो यहाँ और भी असमंजस में पड़ गया था। इस दमघोंटू बातावरण से छूटने के विचार से माधवी ने बात बदलकर पूछा, "कल हम दोनों का रिहर्सल तो सवेरे ही है न ? दिन तो बहुत कम बचे हैं !"

"किसके लिए दिन बहुत कम हैं ?

"नाटक के मंचन के लिए ! मंत्री ने तो तारीख़ दे दी है न?"

"नाटक के मंचन से बढ़कर मंत्री के 'डेट' पर ही यहाँ सबका ध्यान केन्द्रित रहता है !"

"कसूर हो तो माफ़ कीजिए ! मैंने उस अर्थ में नहीं कहा।"

"चाहे किसी माने में भी कहो ! लगता है कि आजकल कोई कला कला के लिए नहीं बल्कि मन्त्री महोदय की अध्यक्षता और अखबारों में खबर छपने के लिए ही है।"

"एक और बात' 'बड़ी विनम्रता से कहना चाहती हूँ। आप बुरा न मानें तो कहूं।

"बात न बताकर इस तरह कहती रहोगी तो मैं कैसे जवाब दूं?"

"आपको गुस्सा नहीं करना चाहिए, सब्र से सुनना चाहिए । मुझे संकोच हो रहा है कि मैं अपनी वह बात कैसे शुरू करूँ ? अच्छा हुआ कि आज पहले दिन के रिहर्सल में वैसे कुछ नहीं हुआ !"

"कुछ नहीं हुआ का मतलब ?"

"कुछ नहीं ! रिहर्सल के समय गोपाल साहब मेरा तन स्पर्श करें या मुझे छेड़ें तो मैं न तो उसका विरोध कर सकती हूँ और न ही मुंह फेर सकती हूँ। आपको इसका बुरा नहीं मानना चाहिए। मैं एक अबला हूं । आपको यह नहीं समझना चाहिए कि अपने स्पर्श करनेवालों को मैं भी छूना चाहती हूँ।”

यह कहते हुए माधवी की आवाज़ ऐसी रुंध गयी, मानो रो पड़ेगी । उसके सजल नेत्र गिड़गिड़ाते-से लगे। उसने उसे घूरकर देखा। उसकी विनती में सतर्कता और स्वरक्षा की भावना नज़र आयी। उसकी इस सतर्कता ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि वह उसपर अपना दिल न्योछावर कर चुकी है और उसके प्यार के बंधन में बंध चुकी है। उसकी बातों में बच्चों की निरीहता और स्त्रियोचित भोलापन देखकर वह खुश हुआ। उसे गौरव-सा महसूस हुआ । उसके जी में आया कि उसे आड़े हाथों ले, उसपर गुस्सा उतारे या कि उसे दिलासा देकर दिल से लगा ले।

उसकी ओर आँखें उठाकर उसने दुबारा देखा तो उसकी गिड़गिड़ाती आँखें डबडबा आयी थीं। माधवी का चेहरा निहारते हुए मुत्तुकुमरन ने कहा, "न जाने क्यों, तुम लोग गोपाल से यों ही डरते हो, मानो वह कोई चक्रवर्ती राजा हो !"

"शायद आप यह भूल गये कि समाज की ऊंची     चोटियों पर धनी-मानी, नामी-गिरामी व्यक्ति ही राजे-महाराजों की तरह अव भी बैठे हैं !"

"कहीं किसी चक्रवर्ती-महाराज की धौंस से डर मरने की मेरी आदत नहीं रही है। मैं खुद अपने को किसी चक्रवर्ती राजा से कम नहीं मानता।"

"शायद इसीलिए मुझे आजकल आप से भी डरना पड़ रहा है।"

“गोपाल से डरने और मुझसे डरने में कोई फ़र्क महसूस करती हो तो मुझे गर्व होगा!" कहकर मुत्तुकुमरन ने उसकी ओर देखा तो उसकी आँखों और अधरों पर मुस्कराहट खेल रही थी।

"आप बड़े 'वो' हैं !"

"लेकिन लगता है कि मुझसे बड़े 'वोओं' से ही तुम डरोगी!"

"प्रेम के बंधन में बंधते हुए डरने और हुकूमत के बंधन में डरने में बड़ा फ़र्क ' होता है !"

उसकी बातों की तह में सच्चे प्यार और लगन की गूंज सुनते हुए मुत्तुकुमरन मन-ही-मन बहुत खुश हुआ।

यह गली बिकाऊ नहीं : दस

दूसरे दिन सवेरे से रिहर्सल खूब जोर-शोर से चलने लगा। गोपाल चाहता था कि चाहे जो कुछ भी हो, मंत्री महोदय के दिये हुए 'डेट' पर उनकी अध्यक्षता में नाटक का मंचन हो जाये। नियत दिन के बहुत पहले ही रिहर्सल पूरा कर नाटक को पक्का रूप देने के प्रयत्न होने लगे। पार्श्वगायक-गायिकाओं द्वारा गीतों का गोपाल ने 'प्री-रिकार्ड करवा लिया : फिल्मी जगत के एक संगीत निर्देशक ने गीतों की धुनें बनाकर बड़ा दिलकश अन्दाज़ पैदा किया था ।

नाटक ठीक कितने समय का होगा, इसका ठीक-ठीक पता लगाने के लिए 'फाइनल स्टेज रिहर्सल' का इन्तजाम एक स्थायी नाटक थियेटर में ही किया गया । गोपाल ने उसी दिन 'प्रेस प्रीव्यू' रखने का निश्चय किया।

नाटक के प्रथम मंचन और उसके बाद के प्रदर्शनों में 'हाउस फुल होने के लिए सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रशस्ति मूलक शब्द ही छपें-गोपाल ने इसकी भी पूरी व्यवस्था कर रखी थी।

इसके अलावा एक और योजना भी गोपाल के मन में उभर आयीं । मलेशिया के पिनांग से अब्दुब्ला नाम के एक धनी रसिक मद्रास आये हुए थे। वे वहाँ के प्रसिद्ध व्यापारियों में से थे। उनका एक पैशा यह भी था कि भारत की नाटक-मंडलियों को अनुबंध द्वारा मलाया ले जाते और जगह-जगह नाटक का मंचन कर पैसे बनाते और बनवाते । गोपाल नाटक-मंडली के प्रथम नाटक 'प्रेम-एक नर्तकी का' जिसका प्रथम मंचन मंत्री महोदय की अध्यक्षता में होना था-उसी दिन पिनांग के अब्दुल्ला को नाटक में बुलाने का भी निर्णय हुआ । यह आशा की गयी कि नाटक देखने के बाद वह गोपाल और गोपाल की नाटक-मंडली को इस नाटक के मंचन हेतु कम-से-कम एक महीने के लिए मलाया-सिंगारपुर में अनुबंध पर बुलायेंगे। अतः नाटक-मंडलीवालों की यह कोशिश रही कि नाटक पूरी तरह सफल हो ताकि अब्दुल्ला भी इस अनुबंध के लिए बाध्य हो ।

नाटक नाटक के लिए सफल हो या न हो, दूसरे कई कारणों के लिए सफल हो-गोपाल का यह प्रयास मुत्तुकुमरन को नहीं भाया।

मंचन के प्रथम दिन 'जिल जिल' संपादक कनियळकु मुत्तुकुमरन् से भेंट करने के लिए आ गया । इस समय भेंट-वार्ता छपे तो बड़ा अच्छा रहेगा-गोपाल की योजना का इसके पीछे हाथ था। लेकिन मुत्तुकुमरन् ने जिल जिल पर ऐसी फबती कसी कि वह सकपका गया। उसके हर सवाल का जवाब टेढ़ा-मेढ़ा ही मिला।

उसके प्रति मुत्तुकुमरन का कोई आदर-भाव नहीं रहा ।

"मैंने कितने ही बड़े-बड़े लोगों से भेंट की है। त्यागराज भागवतर, पि० यु० चिन्नप्पा, टी० आर० राजकुमारी-सबको मैं अच्छी तरह जानता हूँ।"

"लेकिन मैं उतना बड़ा आदमी नहीं !"

"हमारे 'जिल जिल' में आपकी एक भेंट-वार्ता छप जाए तो आप अपने आप बड़े हो जायेंगे !"

"तो कहिए कि बड़े आदमी बनाने का काम आप बहुत दिनों से कर रहे हैं।"

"हमारे जिल जिल की यह नियामत है !"

"हाँ, जिल जिल भी तो एक नियामत है !"

"अच्छा, छोड़िये उन बातों को ! अब हम काम की बात करेंगे !"

"हाँ-हाँ ! कहिए, आपको क्या चाहिए?"

"आपने कला के जगत में कब पदार्पण किया?"

"कला-जगत कहने का क्या मतलब है ?. पहले यह बताइये । बाद में मैं आपको जवाब दूंगा । मेरा जाना-माना जगत एक ही है। उसमें भूख-प्यास, अमीरी-गरीबी, तोष-रोष, सुख-दुख, शोक-संताप-सब सम्मिलित हैं । आप तो किसी दूसरी दुनिया की बात कर रहे हैं !"

"आप यह क्या कह रहे हैं ? कला की ही दुनिया में तो आप, मैं और गोपाल साहब रहते हैं !"

"वह कैसे ? आप और मैं मिलकर जिस किसी दुनिया में रह सकते हैं, वैसी कोई दुनिया रह ही नहीं सकती।"

"अजी साहब! हम दोनों इस तरह बोलते रहें तो भेंट-वार्ता की एक पंक्ति भी नहीं लिखी जा सकती!"


"चिंता मत कीजिए । आपको जो चाहिए, पूछिए, बता देता हूँ !"

"वह तो मैंने पूछ ही लिया ! आप ही ने अब तक कोई उत्तर नहीं दिया !

नहीं तो मैं एक काम करता हूँ ! मैं एक ऐसी भेट-वार्ता लिखकर लाता हूँ, जिसमें आप जवाब देते हैं और मैं सवाल करता हूँ। सवाल-जवाब मैं फिट कर लूंगा।

उसमें आप अपना दस्तखत भर कर दीजियेगा, बस !"

"पढ़कर दस्तखत करूँ, या बिना पढ़े ही कर दूं?"

"आपकी मर्जी ! पढ़ना चाहें तो पढ़ कर कीजिएगा।"

मुत्तुकुमरन् को यह सुनकर बड़ा गुस्सा आया लेकिन ' जिल जिल' जैसे चापलूस को एक आदमी मानकर, उसपर अपना क्रोध उतारने के विचार तक को वह मन में नहीं लाना चाहता था । पर 'जिल जिल' का मुंह खुलवाकर गप्पें लड़ाने की इच्छा जोर मार रही थी। उसके पहले, सवाल के जवाब में अपनी जन्म-तिथि, कुटुंब की गरिमा, मदुरै की बाय्स् कंपनी की नौकरी आदि का विवरण दिया और अगले सवाल की उससे प्रतीक्षा की। दूसरा सवाल करने के पहले ही जिलजिल' ने थके-हारे मन से जेब से सिगरेट की डिब्बी निकाली और एक सिगरेट निकालकर मुत्तुकूमरन् के आगे बढ़ायी । मुत्तुकुमरन ने इनकार करते हुए कहा, "नहीं, धन्यबाद ! बहुत दिनों तक यह आदत पाले रहा । अब कुछ दिनों से छोड़ दी है।"

"अरे, रे ! कला की दुनिया में जिन योग्यताओं की जरूरत होती है, उनमें एक भी आप में नहीं है !"

"मिस्टर जिल जिल ! अभी आपने जो कुछ कहा, उसका क्या मतलब है ?"

"सुधनी, पान-सुपारी, तम्बाकू, सिगरेट, शराब, औरत-इनमें एक भी न हो तो कोई कलाकार कैसे हो सकता है ?"

"कोई हो तो नहीं मानेंगे क्या?"

"नहीं, ऐसी बात नहीं है ! मेरा मतलब है ..." कहते हुए 'जिल जिल' ने सिगरेट सुलगायी।

उस' कूबड़ शरीर वाले 'जिल' जिल' को धुआँ निगलते-उगलते देखकर मुत्तुकुमरन को तमाशा-सा लगा । इस बीच' 'जिल जिल' ने अपना दूसरा सवाल 'शुरू किया, "आपका लिखा या खेला हुआ पहला नाटक कौन-सा है ?"

"इतना जरूर याद है कि मैंने कोई नाटक लिखा है और खेला है ! पर वह कौन-सा रहा होगा, यही याद नहीं आता !"

"सर, इस तरह के जवाब का हम क्या करेंगे? आपके सभी जवाब एक जैसे मालूम होते हैं । पाठकों को दिलचस्पी होनी चाहिए न?"

"निश्चय ही ऐसे जवाब नये होंगे, मिस्टर जिल जिल ! क्योंकि सभी भेंट--

वार्ताओं में एक ही. जैसे सवाल और जवाब' पढ़कर पाठक उकता गये होंगे !"

कहकर मुत्तुकुमरन् ने अपनी आवाज़ धीमी कर पूछा, "अब तक तो ये सवाल और जवाब दोनों आप ही के लिखे हुए होते हैं न ?"

"हाँ, बात तो सच है !"

"कागज़ पर कुछ लिख लेने के बाद 'जिल जिल' ने अगला सवाल किया, "आपके पसंद के नाटककार कौन हैं ?"

"क्यों ? मैं खुद हूँ !

"ऐसा कहेंगे तो क्या होगा ? जवाब जरा नम्र हो तो अच्छा होगा।"

"मुझी को मैं पसंद नहीं आया तो और किसको पसंद आऊंगा?"

"अच्छा, छोड़िए ! अगला सवाल सुनिए ! क्या आप यह बता सकते हैं कि कला के क्षेत्र में आपके क्या आदर्श हैं ?"

"आदर्श तो बहुत बड़ा शब्द है ! आपके मुँह से इतनी सहजता और धैर्य के साथ इस शब्द का प्रयोग देखकर मुझे भय हो रहा है, मिस्टर जिल जिल ! मुझे इस बात का संदेह है कि इस शब्द का उच्चारण तक करने की योग्यता रखने- वाला व्यक्ति आज के कला के क्षेत्र में कोई होगा भी या नहीं !"

मुत्तुकुमरन और 'जिल जिल' इन बातों में उलझे थे कि माधवी वहाँ आयी ।

"आप आती हैं तो सचमुच बहार ले आती हैं !" कहकर 'जिल जिल' हँसा।

किसी फोड़े की तरह उसका थोबड़ा उभर आया। यह देखकर मुत्तुकुमरन् को उबकाई आयी।

"अच्छा ! अगला सवाल है मेरा ! कहिए, आपने अभी तक शादी क्यों नहीं की?"

"किसी मर्द से इस तरह के सवाल पूछने और जवाब छापने से आप किसी भी तरह पाठकों को बाँध नहीं सकते, मिस्टर जिल जिल!"

"परवाह नहीं, आप जवाब दीजिये !"

"जबाब दूं?"

"हां, दीजिये !"

.." माधवी की ओर इशारा कर, मुत्तुकुमरन् बोला, "कोई बहार आयें तो शादी करने का विचार है।

"ऐसा ही लिख लूं ?"

"ऐसा ही का क्या मायने?".

"माधवी जैसी सर्वांग-सुन्दरी मिले तो शादी करूंगा।'नाटककार मुत्तुकुमरन् की यह प्रतिज्ञा है।...लिख लूँ ?"

"यह इच्छा मात्र है । इच्छा और प्रतिज्ञा अलग-अलग हैं । इसे प्रतिज्ञा कहना गलत है !"

"पत्रिका की भाषा में हम ऐसा ही कहते हैं !"

"पत्रिका की इस भाषा को भाड़ में झोंकिए !"

"गुस्सा मत कीजिये !"

"छि:-छि: ! यह कोई गुस्सा है ? मैं सचमुच गुस्सा करूँ तो थरथरा जायेंगे आप?"

"मेहरबानी करके मेरे अगले सवाल का, बिना गुस्सा किये जवाब दीजियेगा।

आपकी अगली योजना क्या है ?"

"वह तो मेरा भविष्य ही जाने ! मैं क्या जानूँ ?"

"आप भी खूब मजाकिया बातें करते हैं।"

"मजाकिया?"

"हाँ, हास्य की।"

"इसमें कौन-सा बड़ा हास्य हो गया?"

मुत्तुकुमरन् माधवी की ओर देखकर मुस्कराया । जिल जिल झुककर कुछ लिखने लगा।

“एक मिनट इधर, अंदर आइए !" माधवी ने मुत्तुकुमरन को आउट हाउस के बरामदे से अंदर बुलाया तो वह उसके साथ अंदर चला गया ।"

"इस आदमी के सामने ऐसी बातें क्यों की ?"

"कैसी बातें?"

"इनकी तरह कोई बहार आये तो शादी करने का विचार है !"

"तो कहो कि तुम्हारे ख़याल से मुझे यह कहना चाहिए कि शादी करूँ तो मैं 'इसी से शादी करूंगा । मेरी ग़लती माफ़ कर दो !"

"मेरे कहने का मतलब वह नहीं !"

"तो फिर क्या ?"

"उन्होंने यह लिख लिया है कि माधवी-जैसी मनोहर सुन्दरी मिले तो शादी करूंगा।' 'नाटककार मुत्तुकुमरन् की यह प्रतिज्ञा है । अब इसे गोपाल साहब पढ़ेंगे तो क्या समझेंगे?"

"तो फिर तुम्हारा छुटकारा नहीं होने का । तुम्हें गोपाल का डर लग रहा है ?"

"डर किस बात का? आप मेरी बात समझते नहीं !"

“समझता खूब हूँ ! शेरों से डरनेवाली हिरनियाँ मुझे पसन्द नहीं !"

"मुझे डरानेवाला शेर और कहीं नहीं, इधर है।" कहकर माधत्री ने मुस्कुराते हुए उसकी मीठी चुटकी ली। बदले में मुत्तुकुमरन् भी मुस्कुराया। पर उसे इस बात का पता था कि वह मन-ही-मन गोपाल से डर रही है। इसका फायदा उठाकर वह हद से ज्यादा उसका इम्तहान लेना या डराना नहीं चाहता था। इसलिए हँसकर रह गया। माधवी भी उसके गांभीर्य के सामने अपने को डरपोक साबित करना नहीं चाहती थी। उसने अपनी वेबसी को हंसकर टाल दिया। जिल जिल ने और कुछ वेतुके और उबाऊ सवाल किये, मुंह-तोड़ जबाब पाये और अपनी भेटवार्ता पूरी कर चल पड़ा।

उस रात को नारद गान सभा के मंच पर स्टेज़-रिहर्सल हुआ, जो बड़ा सफल रहा । रात के ग्यारह बज गये। नाटक आठ बजे शुरू हुआ और ठीक ग्यारह बजे खत्म हुआ।

नाटक तीन घंटे का ही रहे या ढाई घंटे का बनाया जाए ? गोपाल ने मुत्तकुमरन्, माधवी और अन्य कुछ मिन्नों से सलाह-मशविरा किया।

"जो लोग तीन या साढ़े तीन घंटे बैठकर सिनेमा देखते हैं, वे अच्छे सुरुचिपूर्ण नाटक देखने में आना-कानी नहीं करेंगे। किसी भी दृश्य को काटना नहीं चाहिए। नाटक जैसे का तैसा रहे। कहीं कैंची चली तो वह अपना प्रभाव - खोकर हल्का- .. फुल्का हो जाएगा !" मुत्तुकुमरन् अपनी बात पर अड़ा रहा तो गोपाल को लाचार होकर चुप हो जाना पड़ा।

दूसरे दिन शाम को मन्त्री महोदय की अध्यक्षता में नाटक का मंचन होना था। इसलिए सबको जल्दी घर जाकर इस रिहर्तल की रात को थकान सोकर उतारनी भी थी। उन्हें कहा गया कि अगले दिन शाम को पांच बजे अण्णामलै मन्ड्रम में हाजिर हो जाना चाहिए। ठीक छः बजे नाटक शुरू होगा। मंत्री महोदय अंतिम दृश्य के पहले अध्यक्ष का आसन ग्रहण कर नाटक की प्रशंसा में कुछ कहेंगे। अगली रात का सारा कार्यक्रम पूरा होते-होते रात के दस बज ही जायेंगे।

नाटक देखने के लिए शहर के कई प्रमुख व्यक्ति, अन्य नाटक-मंडलियों के सदस्य, पिनांग के अब्दुल्ला आदि विशेष रूप से निमंत्रित थे।

इसलिए स्टेज-रिहर्सल के पूरे होने की रात या दूसरे दिन की सुबह नाटक को घटाने-बढ़ाने या परिमार्जित करने के विषय में सोचने तक को किसी को समय नहीं मिला। स्टेज-रिहर्सल देखने वालों में सिर्फ 'जिल जिल' ही ऐसा था जो सबसे यही कहते हुए नजर आया, "नाटक में हास्य कम है। थोड़ा ज्यादा होता तो अच्छा होता।"

"मेरे विचार से पर्याप्त हास्य है । अगर कहीं कमी-बेशी नज़र आयेगी तो दर्शकों की गैलरी से आपको बुला लेंगे !" मुत्तुकुमरन् ने उसे टोका तो 'जिल जिल' का मुंह आप ही आप बंद हो गया।

दूसरी शाम को अण्णामले मण्ड्रम 'हाउस फूल' हो गया। अनेक व्यक्तियों को टिकट नहीं मिला-फलतः निराश होकर घर लौटना पड़ गया। नाटक ठीक छ:: बजे शुरू हुआ। मंत्री महोदय और पिनांग के व्यापारी अब्दुल्ला पौने छः बजे ही आ गये थे।

हर दृश्य में संवाद, अभिनय और गीत-प्रस्तुति के लिए तालियाँ बजती रहीं।

मध्यांतर में पिनांग के व्यापारी अब्दुल्ला ने 'ग्रीन रूम' जाकर गोपाल से कहा-"जनवरी में तमिऴों का त्योहार है। पोंगल के समय आप मलेशिया आ जाइए और एक महीने के लिए विभिन्न स्थानों पर यही नाटक खेलिए। दो लाख रुपये का 'कांट्रेक्ट' है। आने-जाने का खर्च, ठहरने की व्यवस्था—यह सब हमारे जिम्मे है। उम्मीद करूँ कि आप हमारी गुज़ारिश पर ज़रूर आयेंगे?"

यह सुनकर गोपाल फूला न समाया। अपनी इच्छा को पूरा होते हुए देखकर उसका दिल बल्लियों उछलने लगा।

मध्यांतर के बाद नाटक ने नाटकीय मोड़ लिया और उसमें और भी चमकभरी गति आयी। माधवी के नृत्य, अभिनय और गान को सुनकर ऐसी करतल ध्वनि हुई कि सभा भवन हिल उठा।

अंतिम दृश्य के समापन के पूर्व मंत्री महोदय और अब्दुल्ला मंच पर आये। मंत्री के सामने 'माइक' रखी गयी। हार पहनाया गया। इसके बाद वे बोले, "तमिळ समुदाय के स्वर्णिम युग का यह नाटक यह प्रतिपादन करता है कि इसके पहले हमें ऐसा कोई नाटक देखने को नहीं मिला। भविष्य में भी इसकी ओई आशा नहीं कि मिलेगा। 'न भूतो न भविष्यति' की सूक्ति को यह नाटक चरितार्थ करता है। वीर्य, शौर्य और प्रेम से परिप्लावित इस दृश्य-काव्य के प्रणेता का मैं हृदय से अभिनंदन करता हूँ। भूमिका में उतरे पात्रों को साधुवाद देता हूँ। और अंत में, आज के दर्शकों और भविष्य के दर्शकों के भाग्य की सराहना करता हूँ।"

इस संस्तुति-माला पहनाने के साथ ही मंत्री महोदय ने गोपाल को फूल-माला पहनायी। गोपाल को तत्काल मुत्तुकुमरन् का ख़याल हो आया। कहीं मुत्तुकुमरन् बुरा न मान जाए-इस डर से दर्शकों की गैलरी में पहली पंक्ति में सामने बैठे हुए मुत्तुकुमरन् को मंच पर बुलवाया और पिनांग के अब्दुल्ला के हाथ में एक माला देकर उसे पहनाने की प्रार्थना की।

मुत्तुकुमरन् ने भी मंच पर आकर तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अब्दुल्ला के हाथों माला स्वीकार की।

इतने से ही संतोष कर नाटक का अन्तिम दृश्य आरंभ हो गया होता तो अच्छा होता। 'तुम भी दो शब्द बोलो उस्ताद'-कहकर गोपाल ने मुत्तुकुमरन् के आगे माइक बढ़ायी।

मुत्तुकुमरन् उस समय घमंड के नशे से चूर था। उसके भाषण में भी वह नशा खूब उभर आया-

"मुझे अभी-अभी यह माला पहनायी गयी। पता नहीं क्यों, मुझे-हमेशा ही माला पहनाने की बात से नफ़रत-सी होती रही है। क्योंकि माला पहनते हुए माला पहनानेवाले के आगे, एक पल के लिए ही सही, सिर झुकाना पड़ता है। मेरा सिर झुकवाकर कोई मेरा आदर-सत्कार करे-इसे मैं कतई पसन्द नहीं करता। मैं सिर तानकर रहना ही पसंद करता हूँ। मेरे गले में माला पहनाने के बहाने साधारण से साधारण व्यक्ति भी अपने सामने मेरा सिर झुकवाने की हैसियत रखे, यह कैसी विडंबना है! धन्यवाद!"

मुत्तुकुमरन् के भाषण से पिनांग के अब्दुल्ला का मुँह जरा-सा हो गया। गोपाल सकपका गया।

मुत्तकुमरन किसी बात की चिंता किये बिना, सिंह की चाल से मंच से उतरकर अपने आसन की ओर बढ़ा।

यह गली बिकाऊ नहीं : ग्यारह

मंच पर मुत्तुकुमरन् का इस तरह पेश आना, गोपाल को कतई पसंद नहीं आया। उसे दिल-ही-दिल में यह डर काटने लगा कि पिनांग के अब्दुल्ला के दिल को चोट पहुँची तो मलेशिया की यात्रा और नाटक के आयोजन में बाधा पड़ेगी। नाटक के अंतिम दृश्य में अभिनय करते हुए भी वह इन विचारों और चिताओं से मुक्त नहीं हो पाया।

नाटक के अंतिम दृश्य को देखकर दर्शक कुछ ऐसे गद्गद हो गये कि परदा गिरने के बहुत देर बाद भी तालियों की गड़गड़ाहट नहीं रुकी। मंत्री महोदय विदा होते हुए गोपाल और मुत्तुकुमरन की प्रशंसा कर गये। अब्दुल्ला भी दाद देता हुए विदा हुए। गोपाल ने दूसरे दिन रात को अपने घर में भोज के लिए उन्हें आमंत्रित किया।

मंच पर पहनायी गयी गुलाब की माला के बिखरने की तरह भीड़ भी वहाँ से धीरे-धीरे छंट गयी।

कार्यक्रम के समाप्त होने पर कितने ही लोग गोपाल की प्रशंसा करने और हाथ मिलाकर विदा होने को आये। खिलते चेहरे से गोपाल जन सबसे विदा लेकर चल पड़ा! कार में घर चलते हुए उसने माधवी और मुत्तुकुमरन् से अपती मनोव्यथा सुनायी--

"दूसरों का दिल दुखाने के लिए बोलना कभी अच्छा नहीं। अब्दुल्ला को हमने यहाँ एक बड़े काम की आशा में बुलवाया था। मुझे डर है कि उनके दिल को चोट पहुँचे तो हमारा काम बिगड़ जायेगा।"

उसकी बातों का किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया । गोपाल ने स्वयं अपनी बात जारी रखी, "मंच पर मर्यादा निभाना या संयम वरतना कोई बुरा काम नहीं है !"

मुत्तुकुमरन् अपना संयम खो बैठा और चुटकी लेते हुए बोला, "जो कमजोर होते हैं उनकी रगो में खून नहीं बहता, भय दौड़ता है।"

गोपाल के गालों पर मानो थप्पड़ पड़ी। माधवी ने यह सोचकर चुप्पी साधी कि दोनों में किसी भी एक का पक्ष लेने पर दूसरे का कोप-भाजन बनना पड़ेगा। कार के बंगले में पहुँचने तक गोपाल के क्रोध का पारा भी कुछ ऐसा चढ़ा हुआ था कि उसका मौन टूटा ही नहीं। मुत्तकुमरन ने उसकी जरा भी परवाह नहीं की।

रात को खाते समय भी कोई किसी से अधिक नहीं बोला । खा चुकने के बाद माधवी घर को चल पड़ी । मुत्तुकुमरन् ने भी आउट हाउस में जाकर बत्ती बुझायो और बिस्तर पर लेट गया। दस मिनट के अंदर टेलिफोन की घंटी बजी । नायर छोकरे ने बताया, "बाबूजी पूछ रहे हैं कि ज़रा यहाँ आ सकेंगे?"

"उनसे कहो कि नींद आ रही है। सवेरे मिलेंगे !" कहकर मुत्तुकुमरन ने टेलिफोन रखा। थोड़ी देर में टेलिफ़ोन की घंटी फिर से बज उठी । उठाया तो माधवी बोली, "न जाने दूसरों को मूली-गाजर समझते हुए मजाक उड़ाने में आपको कौन-सा मजा आता है ? नाहक दूसरों का दिल दुखाने से क्या फायदा?".

"तुम मुझे अकल सिखा रही हो?"

"नहीं-नहीं ! ऐसी बात नहीं। आप अगर वैसा समझें तो मुझे बड़ा अफसोस होगा !"

"हो तो हो ! उससे क्या ?"

"मेरा दिल दुखाने में ही आपको चैन मिलता हो तो खुशी से दुखाइए।"

"बात बढ़ाओ मत । मुझे नींद आ रही है !"

"मैं बोलती रहूँ तो शायद आपको नींद आ जायेगी !"

"हाँ, तुम्हारी बोली मेरे लिए लोरी है ! सबेरे इधर आओ न !"

"अच्छा, आऊँगी!"

मुत्तुकुमरन् ने फोन रख दिया। पहले दिन के स्टेज-रिहर्सल में बड़ी देर हो जाने और अधिक जागरण की वजह से मुत्तुकुमरन् को सचमुच बड़ी नींद आ रही थी। लेटते ही वह ऐसी गहरी नींद सो गया कि सपने भी उसकी नींद में दखल देते हुए डर गये। सवेरे उठते ही उसे गोपाल का ही मुंह देखना पड़ा। गोपाल हँसता हुआ बड़ी आत्मीयता से बात कर रहा था, मानो पिछली रात कुछ हुआ ही न था। बह बता रहा था-

"आज सवेरे उठने के पहले चार-पाँच सभाओं के सचिवों और अधिकारियों ने फोन किया था । एक ही दिन में हमारे नाटक की बड़ी माँग हो गयी है !"

"अच्छा !" मुत्तुकुमरन के मुख से इस एक शब्द को छोड़कर कुछ नहीं निकला। गोपाल के इस असमंजस को मुत्तुकुमरन् अच्छी तरह देख पा रहा था । गोपाल एक ओर उसपर गुस्सा उतारने की तैयारी कर रहा था और इस कोशिश में हारकर दूसरी ओर उसी की शरण में आ रहा था।

"अगले दो हफ्तों में हमें मलेशिया जाना होगा। अपनी नाटक-मंडली के साथ जाकर एक महीना वहाँ नाटक खेलना है तो बहुत-सारा प्रबंध करना पड़ेगा । काम अभी से शुरू करें, तभी पूरा हो सकता है !" गोपाल ने ही बात आगे बढ़ायी।

"हाँ, बुलाने पर जाना ही है !" अव भी मुत्तुकुमरन् के मुख से नपा-तुला उत्तर ही मिला।

सुनकर गोपाल के मन में न जाने क्या हुआ ! बोला, "मैं डर रहा था कि तुम्हारी बातों का अब्दुल्ला बुरा मान गये तो क्या हो ? भला हुआ कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। पर अब ऐसा लगता है कि मेरी बातों से तुम्हारे दिल को चोट पहुँची हैं।

"....."

कुछ बुरा तो नहीं कहा !"

"मैंने तो कल ही कह दिया न कि कमजोर लोगों की रगों में खून नहीं, भय दौड़ता है ।"

"कोई बात नहीं ! तुम मुझे कायर कहो, डरपोक कह लो, मैं मान लेता हूँ।"

"मैंने तुम्हें या और किसी को बुरा नहीं कहा ! दुनिया की रीति की बात ही दुहरायी, बस !"

"छोड़ो, उन बातों को ! तुम्हें भी मलेशिया चलना चाहिए ! माधवी, तुम और मैं-तीनों हवाई जहाज से चलेंगे। बाकी लोग समुद्री जहाज़ से चले जायेंगे। सीन-सेट वगैरह को भी जहाज से भेज देना पड़ेगा।"

"मैं वहाँ जाकर क्या करूँगा? तुम लोग तो अभिनेता हो। तुम लोगों के न जाने से नाटक ही नहीं चलेगा। मेरे जाने से किसे क्या लाभ होगा?" मुत्तुकुमरन् ने पूछा।

"ऐसा न कहो ! तुम्हें भी ज़रूर जाना चाहिए। कल ही पासपोर्ट के लिए. अर्जी दे देने का प्रबंध कर दूंगा। आज रात अब्दुल्ला को अपने यहाँ दावत पर बुलाया है। बात पक्की हो गयी तो यह समझो, सारा काम बन गया !"

"हाँ-हाँ ! किसी तरह काम बन जाये तो ठीक !"

"इस तरह उखड़ी बातें करोगे तो कैसे काम चलेगा ? सबमें तुम भी हो !"

'मुत्तुकुमरन ने देखा कि सहसा गोपाल में सबको अपने साथ कर लेने की भावना बढ़ी है। किसी काम की आशा में इस प्रकार की कृत्रिमता बरतने, दावत देने आदि बातों से मुत्तुकुमरन् को चिढ़ थी।

ऐसी बातों में मुत्तुकुमरन को मनोभावना क्या होगी? गोपाल भी अच्छी तरह से जानता था। फिर थोड़ी देर इधर-उधर की बातें कर गोपाल चला गया ।

उसके जाने के थोड़ी देर बाद माधवी आ पहुँची। उसने भी आते ही पिनांग के अब्दुल्ला ही की बात उठायी। दावत की बात कही और यह भी कहा कि वे बड़े भारी रईस हैं। 'करोड़पति है।

"दस-पन्द्रह साल पहले दो गायक या दो नाटकवाले आपस में मिलते थे तो अपनी-अपनी कला की बातें किया करते थे, पर अब बात यह होती है कि किसे दावत देने से किसका काम कैसे बनेगा?---इसी पर विचार-विमर्श हो रहा है । कला की दुनिया सड़ गयी है-इराका सबूत इससे बढ़कर और क्या चाहिए ?"

"क्या आप यह समझते हैं कि उस सड़ी हुई चीज़ को आप अकेले में सुधार सकते हैं ?"

"कतई नहीं । दुनिया को सुधारने के लिए मैंने अवतार नहीं लिया। लेकिन दो पुश्तों को एक साथ देखकर विचार कर रहा हूँ । राजाधिराजों को अपने द्वार पर आकर्षित करने वाले वे पुराने गंभीर कलाकारों और मंत्रियों और 'नाम बड़े पर दर्शन छोटे' वाले व्यक्तियों के दरवाजोंपर मारे-मारे फिरने वाले आज के बौने कलाकारों में मुक़ाबला कहाँ ? तुलना कर देखता हूँ तो दिल को ठेस पहुंचती है, माधवी !"

"यह सब कहते-कहते मुत्तुकुमरन् भाव-विभोर हो गया तो माधवी की समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दे ? थोड़ी देर के मौन के बाद बात पलटती हुई बोली, "नाटक लोगों को बहुत भा गया है । सभी बड़ी प्रशंसा कर रहे हैं ! सभा वालों में 'डेट' के लिए होड़-सी लग गयी है। सब आपकी क़लम का कमाल है !"

"तुम्हारा अभिनय भी कहाँ कुछ कम था? मुझे चापलूसी की बातें ज़्यादा पसंद नहीं। तुमने प्रसंग छेड़ दिया तो मुझे भी बराबर होकर तुम्हारे कदम पर चलना पड़ रहा !"

"अच्छी बात को अच्छा कहना क्या कोई गलत काम है ?"

"आजकल तो लोग बुरी-से बुरी चीज़ को ही अच्छी-से-अच्छी चीज्र साबित करने की कोशिश क्या, उसे साबित ही कर देते हैं ! इसलिए सचमुच की अच्छी चीज़ों के विषय में मुँह पर लगाम लगानी पड़ रही है !"

- "लगानी पड़े तो पड़े । पर मैं तो आपकी तारीफ़ सुनकर अवाती नहीं । मेरा जी चाहता है कि चौबीसों घंटे मेरे सामने कोई आपकी तारीफ़ करता रहे !" माधवी उसके पास ऐसी खड़ी थी, मानो पूर्ण यौवना मदालसा ही साकार खड़ी हो । उसकी आँखों की चमक और होंठों की नमी में मुत्तुकुमरन् मानो नहा ही गया। उसकी देह पर लगी पाउडर की महक, उसके केशों पर लगे तेल की भीनी खुशबू और उसके बालों में गुंथे बेले की सुगंध; नासारंध्र से प्रवेश कर उसकी नस-नस में फैल गयीं । सुमधुर संगीत की तरह उसकी सुंदरता ने उसे बाँध लिया । फिर क्या था? मुत्तुकुमरन् ने उसे अपने आलिंगन में बाँध लिया। माधवी भी माधवी लता की तरह उससे लिपट गयी । उसके कानों में अपने फूल-से होंठ से जाकर वह गद्गद् कंठ से बोली, "ऐसे ही रह जाने को जी चाहता है !"

"ऐसे ही रह जाने का जी करने से ही आदिम नर-नारी के बीच संसार का सृजन हुआ ।"

उसकी बांहें माला बनकर पीठ को लपेटती हुई मुत्तुकुमरन् के मजबूत कंधों पर आ रुकी और कसने लगी।

इसी समय थोड़ी दूर पर बंगले से आउट हाउस को आनेवाली वीथी पर किसी के जूतों की चरमर सुनायी दी।

"हाय, हाय ! लगता है कि गोपाल जी आ रहे हैं। छोडिए, छोड़िए !"

माधवी घबराकर अपने को छुड़ाने लगी। मुत्तुकुमरन् को यह नहीं भाया । उसकी आँखें लाल हो गयीं। माधवी को घूरकर देखते हुए उसपर अपना गुस्सा उतारा।

"कल रात को नाटक से लौटते हुए मैंने गोपाल से जो कुछ कहा था-

उसीको तुम्हारे सामने भी दुहराता हूँ कि कमजोर की रंगों में खून नहीं, भय का भूत दोड़ता है।"

गोपाल यह सुनते हुए अंदर आया और बोला, "कल रात से ही कविता की भाषा में कोस रहे हो, गुरु !"

माधवी ने झट से सँभलकर, होंठों पर स्वाभाविक हँसी लाकर गोपाल का स्वागत किया।

"माधवी ! तुम्हारी तस्वीरों को दो प्रतियाँ चाहिए; 'पासपोर्ट' के 'आवेदन' के लिए। सोच रहा हूँ, कल ही सारे आवेदन भेज दूं ! मुत्तुकुमरन् साहब को भी फोटो स्टूडियो में जाकर फोटो खिंचवाना चाहिए। दोपहर तक तुम्हीं ले जाकर 'फोटो का इंतजाम कर दो। दिन बहुत कम हैं !" गोपाल ने कहा ।

"कहाँ ? पांडि बाजार के सनलाइट स्टूडियो में ही ले जाऊँ न?"

"हाँ-हाँ ! वही ले जाओ । वहीं जल्दी तैयार कर देगा !"

माधवी और गोपाल के बीच की इन बातों में मुतुकुमरन् शामिल नहीं हुआ। थोड़ी देर बाद गोपाल वहाँ से चलने लगा तो द्वार तक जाकर मुड़ा और आँखें 'मारकर बोला, "माधवी ! एक मिनट ।" उसे इस तरह आँखें मारते देखकर मुत्तुकुमरन का दिल कचोटने लगा।

माधवी की दशा साँप-छछूंदर की-सी हो गयी। जाये या न जाये । इस असमंजस में पड़कर गोपाल और मुत्तुकुमरन् को बारी-बारी से देखने लगी। गोपाल ने ज़ोर से उसका नाम लिया और ड्योढ़ी फलौंग गया । माधवी को जाने के सिवा और कोई रास्ता नहीं दीखा। मुत्तुकुमरन् की आँखों में उत्तर आयी नफ़रत का सामना करने का वह साहस नहीं कर सकी ! गोपाल उसे वहीं नहीं छोड़कर बँगले तक ले गया।

गोपाल के आँखें मटकाकर बुलाने और उसके । उसके साथ बंगले तक जाने की बात पर मुत्तुकुमरन् के दिल में कैसे-कैसे विचार आयेंगे? इस विचार ने माधवी को धर दबोचा। गोपाल की बातों पर उसका ध्यान नहीं जमा !

"सुना है, पिनांग के अब्दुल्ला तबीयत के बड़े शौकीन आदमी हैं । उनका तुम्हें खयाल रखना होगा। होटल 'ओशियानिक' से उन्हें बुला लाने का भी काम तुम्हीं को सौंपनेवाला हूँ !"

"........."

"यह क्या ? मैं कहता जा रहा हूँ और तुम अनसुनी करती जा रही हो?"

"नहीं तो ! मैं आपकी बात सुन ही रही हूँ। होटल ओशियानिक से अब्दुल्ला को बुला लाना है और..."

"और क्या ? उनकी खुशी का ख्याल भी रखना । तुम्हें सुरगे की तरह पढ़ाने की ज़रूरत नहीं है। तुम खुद समझदार हो।"

"........."

"दावत में किन-किनको बुलाया है---उनकी लिस्ट सेक्रेटरी के पास है । उसे लेकर देखो और अपनी जुबानी सबको 'रिमाइंड' कर दो तो बड़ा अच्छा रहेगा !"

दुबारा आँखें मटकाकर गोपाल ने उसकी पीठ पर थपकी दी। माघबी ने आज तक किसी मर्द के इस तरह थपकी देने पर शील-संकोच का अनुभव नहीं किया था। पर आज वह लज्जा से गड़-सी गयी । गोपाल के कर-स्पर्श से उसे उबकाई होने लगी। मुत्तुकुमरन् ने उसे इस हद तक बदल दिया था।

गोपाल ने पाया कि पीठ पर थपकी देते हुए या आँखें मटकाकर बातें करते हुए उसमें जो उत्साह भरता था और सिहरन-सी दौड़ती थी, उसका कोई नामो- निशान तक नहीं। उसने पूछा भी, "आज उखड़ी-उखड़ी-सी क्यों हो?"

"नहीं, मैं तो हमेशा की तरह वैसी ही हूँ।" माधवी हँसने का उपक्रम करने लगी।

"अच्छा, मैं स्टूडियो जा रहा हूँ ! मेरी बातों का ख्याल रखना !" कहकर गोपाल चला गया।

माधवी के मन में एक छोटा-मोटा युद्ध ही छिड़ गया । पिनांग के अब्दुल्ला को गोपाल ने रात की दावत के लिए ही बुलाया था। उन्हें लिवा लाने के लिए शाम को सात बजे के करीब जाना काफ़ी था। लेकिन गोपाल के बात करने के ढंग से यह ध्वनि निकल रही थी कि पहले ही जाकर उनसे हँसी-खुशीभरी चुहल करती रहो और उसे लिवा लाओ।

माधवी के मन में, इस लमहों में वे सारी पुरानी स्मृतियाँ उभर आयीं, जब कभी भी गोपाल ने आँखें मटकाकर, 'एक मिनट इधर आओ' कहकर बुलाया है और इसी प्रकार का काम सौंपा है। वहाँ जाकर उसने क्या-क्या नहीं किया ! ओह !

उन्हें दुबारा सोचते हुए उसे संकोच हो रहा था और वह शरम से गड़ी जा रही थी । मुत्तुकुमरन् जैसा, कला-गर्व में फूला रहनेवाला गंभीर नायक उसके जीवन में नहीं आया होता तो उसे आज भी ऐसा शील-संकोच नहीं हुआ होता । दुनिया में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जिनके संपर्क में आने पर उसके पहले के जीवन के बेहूदा तरीकों को याद करते हुए संकोच महसूस होता है। याद आये तो चुल्लू भर पानी में मरने को जी करता है । माधवी और मुत्तुकुमरन् का संपर्क ऐसा ही था।

गोपाल की बातों में जो ध्वनि थी, उसके अनुसार तो माधवी को उसी समय होटल जाकर अब्दुल्ला से मिलना होता। शाम को सात बजे तक उसके साथ रहकर लिवा लाना होता । लेकिन माधवी ने उस दिन ऐसा नहीं किया। वह सीधे मुत्तुकुमरन के सामने जा खड़ी हुई । लेकिन उसकी आँखें उसपर अंगार उगलने लगीं । आवाज़ में बिजली कड़क उठी--

"क्या हो आयी ? उसने आँखें मारकर बुलाया था न !"

"न जाने, मैंने क्या पाप किया कि आप भी मुझ पर नाराज होते हैं।"

"उसका इस तरह आँखें मटकाने का तरीका मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है।"

"तो मैं क्या करूँ?"

"क्या करूँ, पूछती हो ? पालतू कुतिया बनकर उसके पीछे-पीछे भागती रहो, इससे बढ़कर और करने को क्या रखा है ?"

"गालियाँ दीजिए, खूब गालियाँ दीजिए ! मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी। मैं सब कुछ सुनने को तैयार हूँ, सहने को तैयार हूँ-कुतिया-चुडैल "मान-मर्यादा ही न हो तो सब कुछ सुना जा सकता है, संहा जा सकता है। कुछ असर नहीं पड़ता।"

"आपके संपर्क में आने पर मैं बहुत कुछ बदल चुकी हूँ। जब आप ही दोष थोपेंगे तो मैं क्या करूँगी भला ! डूब मरूं कहीं ?"

"पहले मेरी बातों का जवाब दो ! उस धूर्त ने तुम्हें बुलाया क्यों ?"

"बात कुछ नहीं ! अब्दुल्ला को दावत के लिए बुला लाना है !"

"जाना किसे है ?"

"और किसे ? मुझी को !"

"तुम क्यों जाओगी? वही जाये ! या फिर वह अपने सेक्रेटरी-वेक्रेटरी को भेजकर बुला ले !"

"जब मुझे बुलाकर कहा है तब ! मैं ना कैसे कह दूँ ?"

"हाँ, नहीं कह सकती ! इसीलिए मैं कल से रट लगा रहा हूँ कि कमजोर की रगों में खून नहीं, भय ही दौड़ता है..."

"कला के हर क्षेत्र में आज व्यापार की बाज़ारी मिलावट आ गयी है । अब इसे सुधारा नहीं जा सकता । जैसे लोग अकालग्रस्त बेची न जानेवाली चीजें भी बेचकर पेट भरते हैं, वैसे ही आज के कलाकार किसी भी हालत में न खोई जानेवाली चीजें गँवाकर अपने वौने अस्तित्व को बचाने के लिए पैसे के पीछे मारे- 'मारे फिर रहे हैं। मैं मद्रास में ऐसे ही कलाकारों को देख रहा हूँ, जिनमें अपनी कला को लेकर गर्व अनुभव करने की तनिक भी मनोदृढ़ता बाक़ी नहीं रह गयी है। यह इस युग की महामारी ही है।"

"आपकी इन बातों को सुनने के लिए काश, मैं दस साल पहले आपसे मिली होती !" कहते-कहते माधवी का स्वर भर गया। मुत्तुकुमरन् उसके पश्चात्ताप से प्रभावित हुआ। उसके संताप से उसका दिल पिघल गया । बात करने को कोई 'सिरा नहीं मिला तो वह कुछ देर तक टकटकी लगाये उसे देखता रह गया।

माधवी ने उसका मौन तोड़कर पूछा, "कहिए, अब मैं क्या करूँ ?"

"मुझसे क्यों पूछती हो?"

"आपको छोड़कर और किससे पूछू ? उन्होंने जैसा कहा, मैं अब्दुल्ला से मिलने अभी नहीं जाऊँगी । अगर गयी भी तो शाम को जाऊँगी । और मैं अकेली नहीं, आप को भी साथ लेकर जाऊँगी."

"मुझे ? मुझे क्यों ?"

"मेरे साथ आप नहीं जायेंगे तो और कौन जाएगा ?" -यह वाक्य सुनकर मुत्तुकुमरन् का तन-मन पुलकित हो उठा।

यह गली बिकाऊ नहीं : बारह

मुत्तुकुमरन् ने महसूस किया कि नारी की सुकुमारता अपने प्रेम प्रदर्शन में विलक्षणता और चातुरी लाने से चमक उठती है। 'मेरे साथ भाप नहीं जायेंगे तो और कौन जाएगा..?' इस वाक्य ने उसपर जादू-सा कर दिया ! उसमें कैसी आत्मीयता टपकती थी? 'उसके साथ चलने और उसका साथ देने को उसे छोड़- कर दूसरा कोई व्यक्ति योग्य नहीं है' यह आशा उसमें कहाँ से बँधी ? यह भरोसा कहाँ से पैदा हुआ ? जहाँ यह सोचकर वह आत्म-विभोर हुआ वहाँ यह विचार करते हुए उसे यह हैरानी भी हुई कि मैं कौन हूँ कि उसपर, बेतरह अपना गुस्सा उतारूँ? उसका-मेरा परिचय कितने दिनों का है ?

उसके अधिकारों पर अधिकार जमाने का, उसे अपने इशारों पर नाचने का, या ढीला छोड़कर तमाशा देखने का अधिकार मुझे कहाँ से मिला और कैसे मिला? .. यह सोचते-सोचते वह इस नतीजे पर पहुँचा कि अनन्य प्रेम की कोई डोर दोनों को गठबंधन में बाँध रही है, बल्कि बाँध चुकी है।

शाम को अब्दुल्ला को बुलाने जाने के पहले माधवी ने मुत्तुकुमरन को स्टूडियो हो आने के लिए बुलाया।

"मुझे तो मलेशिया नहीं जाना । फिर फोटो खिंचवाने की क्या जरूरत है ?" मुत्तुकुमरन ने कहा।

"आप नहीं चलेंगे तो मैं भी नहीं जाती!" माधवी ने कहा। "तुम तो नाटक की कथा-नायिका हो । तुम न जाओगी तो नाटक  नहीं चलेगा! इसलिए. तुम्हें जाना ही पड़ेगा!" मुत्तुकुमरल् ने हँसते हुए उसकी बातों का विरोध किया।

'कथानायक ही जब नहीं जा रहा तो कथानायिका के जाने से क्या फायदा?"

"गोपाल तो जा रहा है न?"

"मैं अब गोपाल की बात नहीं करती ! अपने कथानायक की बात करती हूँ।"

"वह कौन है ?"

"समझकर भी नासमझ बननेवालों को कैसे समझाया जाये ?"

माधवी की इस आल्मीयता पर वह फिर न्योछावर हो गया। थोड़ी देर बाद माधवी ने स्टूडियो जाने के लिए बुलाया तो उसने कोई आपत्ति नहीं की। स्टूडियो जाकर पासपोर्ट' के लिए फोटो खींचने के बाद दोनों ने एक साथ मिलकर एक फोटो खिंचवाया। शाम को अब्दुल्ला को लाने के लिए 'ओशियानिक' जाते हुए माधवी अकेली नहीं चली। उसकी मानसिकता से परिचित होने के लिए मुत्तुकुमरन् को भी साथ लेकर कार में रवाना हुई।

इधर इनकी कार फाटक के बाहर हो रही थी और उधर गोपाल की कार बँगले में घुस रही थी। गोपाल को यह समझते देर नहीं लगी कि माधवी अभी अब्दुल्ला को लाने के लिए जा रही है। उसके आदेश के अनुसार अकेली न जाकर मुत्तुकुमरन को भी साथ लिये जा रही है । इससे उसे दुहा. क्रोध चढ़ आया और वह मुंह चिढ़ाकर बोला, "मैंने तो तभी जाने को कहा था, पर तुम अभी जा रही हो !"

"हाँ, इन्हें फ़ोटो-स्टूडियो ले गयी थी। देर हो गयी। अब जाकर निकल पायी।"

"सो तो ठीक है। लेकिन इन्हें क्यों कष्ट दे रही हो? अब्दुल्ला को लाने के लिए सिर्फ तुम्हारा जाना काफी नहीं ?" गोपाल ने मुत्तुकुमरन् को काट देने का विचार किया। माधवी को धर्म-संकट से बचाने के विचार से मुत्तुकुमरन् स्वयं आगे बढ़कर बोला, "बात यह है कि मैं भी ओशियनिक देखना चाहता था। इसलिए मैं स्वयं इसके साथ चल पड़ा।"

गोपाल की समझ में नहीं आया कि इस हालत में मुत्तुकुमरन् को गाड़ी से कैसे उतारे। वह झींककर बोला, "अच्छा, तो दोनों ही हो आओ। लेकिन गाड़ी में लौटते उनसे बातों में न उलझना। उनके ज़रिये ही हमारा काम होना है । उनका दिल दुखाने का कोई बहाना नहीं ढूंढ़ लेना।"

वह माधवी को आगाह कर धड़ाधड़ अन्दर चला गया। माधवी को उसकी चाल से ही उसके क्रोध का पता चल गया। पर मुत्तुकुमरन के सामने उसने इसे प्रकट नहीं किया।

मुत्तुकुमरन् गुस्से की हँसी हँसते हुए बोला, "इसका जी तो मेरा हाथ खींचकर कार से उतारने को हो रहा था, पर वह हो नहीं पाया।"

संयोग से उस समय माधवी कार चला रही थी। तीसरे व्यक्ति के न होने से वे दोनों खुलकर बातें कर पा रहे थे।

पिनांग के अब्दुल्ला के कमरे में जब वे गये, तब उनके साथ चार-पांच मुलाकाती और थे। अब्दुल्ला ने दोनों का स्वागत कर कमरे में ही विठा लिया।

"गोपाल साहब ने रात. की 'डिनर' के लिए ही तो बुलाया है। साढ़े आठ बजे के करीब आना काफ़ी नहीं होगा क्या ? अभी साढ़े छः ही बज रहे हैं !" अब्दुल्ला ने घड़ी देखकर कहा।

"गोपालजी के विचार से आप अभी आ जाते तो थोड़ी देर बातचीत भी हो जाती। बाद में डिनर तो है ही। बातों में समय कटते कितनी देर लगती है ? पल भर में आठ बज' जायेंगे !" माधवी ने उत्तर दिया।

"सचमुच आपका कल का अभिनय बहुत अच्छा था । मलेशिया में आपका बड़ा नाम होगा।" अब्दुल्ला ने माधवी के मुख के सामने माधवी की ऐसी तारीफ़ की कि वह शरमा गयी।

आये हुए मुलाकाती एक-एककर विदा हुए।

मुत्तुकुमरन् को पास बिठाकर अब्दुल्ला को इस तरह तारीफ़ करते देखकर माधवी सिकुड़-सी गयी और बोली, "सारा-का-सारा श्रेय तो इनका है। इन्होंने नाटक इतना अच्छा लिखा है कि हम आसानी से अभिनय कर नाम पा गये।"

"पर यह भी हो सकता है न कि अभिनेताओं की किरदारी से लिखनेवाले का नाम भी रोशन हो जाये !"-अब्दुल्ला ने फिर वही चक्की पीसी ।

मुत्तुकुमरन्' इस विवाद में पड़ना नहीं चाहता था। क्योंकि उसके विचार से कला का महत्त्व न जाननेवाले व्यापारी ऐसे दूंठ थे, जिनपर हज़ार कोशिश करने पर भी कील न चढ़ती। वह अपने विचारों को 'भैंस के आगे बीन होते नहीं देना चाहता था। अब्दुल्ला की कदर करते हुए वह उससे कला की बात करे तो वह कला के प्रति द्रोह हो जाएगा और कला की हत्या का पाप सिर पड़ेगा-यह सोचकर वह पैर-पर-पैर चढ़ाये चुपचाप बैठा रहा ।

उसकी इम मनोदशा को माधवी ने पढ़ लिया। अब्दुल्ला की बातों की लीक बदलने के विचार से बोली, "पिछले महीने 'गंगा नाटक-मंडली' मलेशिया गयी थी न ? सुना है कि आप ही की 'कांट्रेक्ट' पर वहाँ गयी थी। वह वहाँ नाम-यश भी प्राप्त कर पायी?"

"अब्दुल्ला की कांट्रेक्ट हो तो नाम आप-ही-आप हो जाता है । हमारी कंपनी पचीस सालों से नाट्य-मंडली या नाटक कंपनियों को तमिळनाडु से ले जाती है और वहाँ प्रोग्राम चलाती है। मलेशिया में अब्दुल्ला कंपनी का एक भी प्रोग्राम अब तक नाकामयाब नहीं हुआ। इसे बड़ी-बड़ी बात न मानिए तो अब्दुल्ला कंपनी की यह खुसूसियत है !"

"कंपनी के बारे में हमने बहुत कुछ सुन रखा है ।"

"हम पेशे से डायमंड मर्चेट हैं, जौहरी हैं । कला के प्रोग्राम तो शौक के लिए करते हैं।"

मुत्तुकुमरन् उन बातों से ऊब गया तो उसने माधवी को इशारा किया। "चलिए ! गोपाल साहब आपका इंतजार करते होंगे ! जल्दी चलें तो अच्छा हो।"

माधवी के कहने पर अब्दुल्ला कपड़े बदलने अंदर चले गये।

कमरे में ड्रेसिंग टेबुल में आईने के पास विभिन्न सेंटों की छोटी-बड़ी शीशियाँ करीने से सजी थीं। अब्दुल्ला कपड़े बदलकर एक आईने के सामने जाकर खड़े हुए और एक शीशी खोलकर शरीर पर 'सेंट लगाने लगे। इन्न की खुशबू सारे कमरे में बिजली की तरह फैल गयी। एक दूसरी शीशी में लगे 'स्त्रे' से गले और कुरते के कॉलर में 'सेंट छिड़क ली। कपड़े बदलने और तैयार होने में उनमें जेम्स बांड की-सी फुर्ती थी। उनकी एक-एक बात और अदा में शौक चर्रा रहा था।

उन्होंने होटल के बैरे को बुलाकर चाय मँगवायी। मना करने पर भी नहीं माना। चाय तैयार कर वे तीनों प्यालों में डालने लगे तो माधवी मदद को आगे बड़ी। यह देखकर अब्दुल्ला बहुत खुश हुए।

मुत्तुकुमरत् सब से बैठा था । चाय पीते ही तीनों चल पड़े। जाते-जाते माधवी ने उस स्प्रे वाली शीशी के बारे में पूछा । "लीजिए, इस्तेमाल कीजिए!" कहते हुए अब्दुल्ला ने वह शीशी उठाकर माधवी को दे दी।

नहीं, मैंने यों ही पूछा था !" कहकर माधवी ने लेने से इनकार किया तो, नो, नो ! कीप इट': 'डोंट रिफ्यूज " कहकर उसके हाथ में थमाकर ही अब्दुल्ला ने दम लिया। मुत्तुकुमरन् को माधवी पर क्रोध आया। यदि माधवी अपनी जुबान पर काबू रखती और अब्दुल्ला से सेंट की बात नहीं पूछती तो क्या वे भिखमंगों को भीख देने की तरह उसके हाथों में 'सेंट' की शीशी उठाकर थमाते ? भड़कते क्रोध में भी उसका विचार औरतों की इस आम कमजोरी पर गया कि सारी दुनिया में विरला ही ऐसी कोई औरत होगी, जो सुगंधित वस्तुओं, पुष्पों और साड़ियों के मामले में उद्विग्न और चंचल न हो उठती हो ! पर अपनी इच्छित वस्तुओं को माँगने की एक मर्यादा होती है। जैसे एक कुलीन स्त्री का सुगंध, पुष्प, साड़ी आदि के विषय में अन्य पुरुषों से पूछना वेहूदा है, वैसे ही माधवी का अब्दुल्ला से इस बारे में पूछना भी उसे अशिष्ट लगा।

यह सब सिने जगत में जाने का नतीजा है। यह सोचकर उसने उसे दिल-ही- दिल में माफ़ भी कर दिया।

कार में मांबलम जाते हुए अब्दुल्ला मलेशिया की यात्रा के विषय में एक-पर- एक सवाल करते जा रहे थे।

"तुम्हारी मंडली के साथ कुल कितने लोग आयेंगे? कौन-कौन ह्वाई जहाज से आयेंगे ? कौन-कौन समुद्री जहाज से आयेंगे ?"

माधवी जो कुछ जानती थी, बताये जा रही थी। कार की अगली सीट पर मुत्तुकुमरन् माधवी के साथ बैठा था और अब्दुल्ला. पिछली सीट पर अकेले बैठे थे।

बँगले के द्वार पर पोटिको में गोपाल ने अब्दुल्ला का स्वागत किया और स्वागत करते हुए हाथी की सूंड जैसी भारी गुलाब के फूलों की माला अब्दुल्ला को पहनायी । फिर दावत में आये हुए अभिनेता-अभिनेत्रियों, प्रोड्यूसरों और सिनेमा- जगत् के दूसरे व्यक्तियों से अब्दुल्ला का परिचय कराया। दावत के पहले सब बैठकर हँसी-खुशी बातें करते रहे। . गोपाल के दावत का इन्तजाम और उसका ठाठ-बाट देखकर अब्दुल्ला दंग रह गये और एक तरह से मोहित भी हो गये। न जाने क्यों, गोपाल उस दिन मुत्तुकुमरन और माधवी से कुछ खिचा-सा रहा ।

दावत के समय अब्दुल्ला अभिनेत्रियों और एक्स्ट्राओं के झुंड के मध्य बैठाये

गये। लगा कि कोई अमीर शेख अपने हरम में बैठा हो ।   अभिनेत्रियों की खिल- खिलाती हँसी के बीच अब्दुल्ला के ठहाके पटाखे की तरह छूट रहे थे। दावत के बाद यह प्रश्न उठा कि लौटते हुए अब्दुल्ला को ओशियानिक पर पहुँचाने कौन जाये ? माधवी हिचकते हुए गोपाल के सामने जाकर खड़ी हुई कि शायद उसी को पहुँचाना पड़ेगा।

"न, तुम्हें नहीं जाना है । जाकर अपना काम देखो ! तुम्हें तमीज़ नहीं ! सारी दुनिया को साथ लेकर चलोगी !" गोपाल ने जरा कड़े शब्दों में कहा तो माधवी को यह तमाचा-सा लगा। 'आ बला, गले से लग' कहकर जानेवाली के सामने से आयी बला गले से टल गयी तो वह मन-ही-मन खुश हो रही थी। उसने देखा कि किसी उप-अभिनेत्री के साथ अब्दुल्ला को गोपाल ओशियानिक भेज रहा है। उसने चैन की सांस ली। अब्दुल्ला हाथ जोड़कर सबसे विदा हुए ।

यह गली बिकाऊ नहीं : तेरह

खाना खाने के तुरन्त बाद मुत्तुकुमरन आउट हाउस चला आया था। सिर्फ माधवी सबको विदा करने के लिए 'पोटिको' में खड़ी थी। उस समय माधवी के मन में यह विचार उठ रहा था कि मुत्तुकुमरन् मेरी परीक्षा लेने के लिए ही जल्दी-जल्दी आइट हाउस चला गया है कि मैं अब्दुरुला को पहुँचाने अकेली ओशियानिक जाती हूँ कि नहीं?

अब उसके मन में इस बात की खुशी हो रही थी कि अब्दुल्ला के साथ मेरे अफेले न जाने से मुत्तुकुमरन को खुशी होगी।

एक-एक करके सब गोपाल से विदा लेकर चले । कुछेक माधवी से भी विदा हुए। सबको हाथ जोड़कर उसने विदा किया । सबके जाने के बाद, घर में काम करने वाले, गोपाल के सेक्रेटरी और माधवी ही वहाँ बाकी रह गये थे । नायर छोकरा टेलिफोन के पास विनम्रता का पुतला बनकर खड़ा था। अचानक उन लोगों के सामने गोपाल माधवी पर कहर भरा जहर उगलने लगा । जिस अदम्य क्रोध को उसने अबतक दबा रखा था, वह फूट पड़ा-

"बड़ी चरित्रवान बन गयी है, मानो मैं निया-चरित समझता नहीं ! चर्बी चढ़ गयी है। मैंने पढ़ा-पढ़ाकर कहा था कि दो या तीन बजे अब्दुल्ला के यहाँ जाओ, थोड़ी देर बातें करके फिर बुला लाओ। मेरी बातों पर कान न देकर अपनी मर्जी की कर रही है । यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं देखता आ रहा हूँ कि उस्ताद के इस घर में आने के बाद तुम्हारी चाल बदल रही है।"

भाधवी बिना कोई जवाब दिए सिर झुकाकर खड़ी रही। उसकी आँखों में आँसू छलक आए । इसके पहले चार जनों के मध्य गोपाल ऐसी बातें करता था तो भी उसके दिल पर उसका कोई असर नहीं होता था। सब झाड़-पोंछकर गोपाल. से पहले की तरह मिलने-जुलने लग जाती थी । अब वह जिसके बश में हो चुकी थी, उसका अहम और स्वाभिमान भी अब उसके मन में घर कर बैठे थे। गोपाल के इन वार्तावों के खिलाफ ज्वार-भाटा तो उठे। पर मादत पड़ जाने से गोपाल के. मुंह के सामने कुछ कह नहीं पायी। पहले ऐसी बातों को सुनती हुई काठ की तरह खड़ी रहती। पर आज तन-बदन में आग-सी लग गयी।

गोपाल कोई दस मिनट तक अपनी बेलगाम जबान को हाँककर अंदर चला गया।

माधवी इतनी लाल-पीली हो गयी कि उसे रुलाई आ गयी। वह सीधे आउट हाउस की ओर बढ़ी। ड्राइवर ने बीच में ही आकर कहा, "मालिक ने आपको घर छोड़ आने को कहा है !"

माधवी ने गोपाल पर का गुस्सा ड्राइवर पर उतारा, "कोई जरूरत नहीं। तुम अपना काम देखो। मुझे अपने घर का रास्ता मालूम है !"

"अच्छा! मालिक को यही कह दूंगा !"कहकर ड्राइवर चला गया। आउट हाउस में जाते-जाते माधवी को रुलाई आ गयी। मुत्तुकुमरन् को देखते ही वह फूटकर रो पड़ी। रोते-रोते वह मुत्तुकुमरन के सीने से मुरझायी माला की भौति लग गयी !

"क्या है ? क्या हुआ ? किसने क्या कहा ? इस तरह क्यों रो रही हो?"

मुत्तुकुमरन् ने घबराकर पूछा । कुछ देर तक वह कुछ बोल नहीं पायी। बोल फूटने के बदले सिसकी ही फूटी । मुत्तुकुमरन् ने बड़े प्यार से उसकी पीठ पर थपथपाकर सांत्वना दी तो वह अपने को सँभालकर बोली, "मुझे घर जाना है । बस का टाइम हो गया है । टैक्सी के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं । आप मेरा साथ दें तो मैं पैदल ही घर चलूंगी। मेरा और कोई साथी नहीं है । मैं अकेली हूँ 'अबला ...हूँ।"

"क्या हुआ? क्यों ऐसी बातें करती हो ? साफ़-साफ़ बतानो !

"वह कहते हैं कि मैं त्रिया-चरित्र खेल रही हूँ । अब्दुल्ला को बुला लाने के ‘लिए मैं अकेली क्यों नहीं गयी? आपके आने पर मेरा बर्ताव ही बदल गया है !"

"कौन कहता है ? गोपाल ?"

"उनके सिवा और कौन...?"

मुत्तुकुमरन् की आँखें क्रोध से लाल हो उठीं । कुछ पल वह कुछ बोल नहीं 'पाया । थोड़ी देर बाद उसका मुंह खुला, "अच्छा, चलो ! मैं तुम्हें घर छोड़कर आता हूँ !"

मुत्तुकुमरन् उसे साथ लेकर चल पड़ा । उन दोनों के बँगले की चारदीवारी के अन्दर ही गोपाल नेआकर उनका रास्ता रोका !

"तुमने गुस्से में आकर जो कहा, ड्राइवर ने आकर बता दिया है। मैंने कुछ गलत तो नहीं कहा । हमारा परिचय आज या कल का नहीं है। कितनी ही ऐसी बातें मैंने कही हैं । अब कुछ दिनों से गुस्सा तुम्हारी नाक पर चढ़ा रहता है। अजनवी समझकर मुझपर सारा गुस्सा निकालने लगो तो मेरे लिए कहने को कुछ नहीं है।"

माधवी उसकी बातों का कोई जवाब दिए बिना सिर झुकाए खड़ी रही ।

मुत्तुकुमरन् भी कुछ बोला नहीं। गोपाल ने ताली बजाकर किसी को बुलाया। 'ड्राइवर ने कार लाकर माधवी के नजदीक खड़ी की।

मुत्तुकुमरन् चुपचाप यह देखता खड़ा रहा कि माधवी अब क्या करती है ।

"बैठो ! घर पर उतरकर कार वापस भिजवा देना । मेरा दिल न दुखाओ !" गोपाल मानों गिड़गिड़ाया। माधवी ने मुत्तुकुमरन् को यों देखा, मानो उसकी सलाह चाह रही हो। मुत्तकुमरन् ने उसे अनदेखा कर और कहीं देखा।

"तुम ही कहो उस्ताद ! माधवी मुझपर नाहक नाराज हो रही है । तुम्हीं समझाकर घर भेजो"-गोपाल ने मुत्तुकुमरन् से विनती की।

मुनुकुमरन ने उसकी बातों पर भी कान नहीं दिया। होंठों पर हंसी लाकर चुप रह गया। लेकिन वह इस तरह खड़ा था कि आज माधवी के चित्त की टोह लेकर ही रहेगा।

एकाएक गोपाल ने एक काम किया। इशारे से ड्राइवर को उसकी सीट से उतारकर बोला, "आओ ! मैं ही तुम्हें 'डाप' कर आऊँ ।"

माधवी 'न' ...'नहीं कह सकी। हिचकते-हिचकते मुत्तकुमरन की ओर देखती हुई कार की अगली 'सीट' का द्वार खोलकर वैठ गयी।

गोपाल ने कार 'स्टार्ट' की तो माधवी ने मुत्तुकुमरन् से विदा लेने की मुद्रा में हाथ हिलाया । पर उसने बदले में हाथ नहीं हिलाया । इतने में कार बंगले का फाटक पार कर सड़क पर हो गयी। वह समझ गयी कि मुत्तुकुमरन उसके इस व्यवहार से असंतुष्ट अवश्य हुआ होगा। घर पहुँचने तक वह गोपाल से कुछ नहीं बोली; गोपाल ने भी उसकी उस समय की मनोदशा का अनुमान करके उससे बात करने की कोशिश नहीं की । लाइडस रोड तक आकर उसे उसके घर छोड़ कर गोपाल लौट गया। घर के अंदर जाते ही माधवी ने धड़कते दिल से मुत्तुकुमरन्. को फोन किया।

"आप बुरा तो नहीं मान गए ! उनकी इस गिड़गिड़ाहट पर मैं इनकार नहीं पायी!"

"हाँ, पहले से भी अच्छा साथी मिल कार तो इनकार कैसे कर पाओगी?" एक-एक शब्द पर जोर देते हुए मुत्तुकुमरन् ने पूछा । आवाज़ में दबा हुआ क्रोध गुंज उठा!

"आपकी बात समझ में नहीं आती। लगता है कि आप गुस्से में बोल रहे हैं।"

"हाँ, ऐसा ही समझ लो !" कडे स्वर में जवाब देकर मुत्तुकुमरन ने चोंगा पटक दिया। माधवी के दिल पर ऐसी करारी चोट पड़ी कि वह किंकर्तव्य विमुढ़ होकर फोन हाथ में लिये खड़ी रही। फिर फोन रखकर बिस्तर पर जा पड़ी और सुबक-सुबक कर रोने लगी। उसे लगा कि उसकी बदकिस्मती से ही मुत्तुकुमरन् भी उसे गलत-सलत समझ रहा है। साथ ही, उसके मन में यह बात भी आयी कि इसमें मेरा ही दोष बड़ा है। उसके पास जाकर रोयी-धोयी। फिर साथ चलने को मना लायी और आधे रास्ते में ही उसे छोड़कर गोपाल की कार में चली आयी ! इस हालत में हर कोई बुरा ही मानेगा।

उस रात वह सोयी ही नहीं । आँसुओं से तकिया गीला हो गया। वह यह अनुमान नहीं लगा सकी कि उसका मन कैसे और कहाँ से कमजोर हुआ कि मुत्तुकुमरन को घर पहुँचाने के लिए साथ चलने की प्रार्थना करने और उसके तुरन्त मानकर साथ चले आने के बाद भी वह उसे ठुकराकर, गोपाल के साथ कार में चल पड़ी थी। अब अपनी करनी पर सोचते हुए उसे स्वयं ग्लानि का अनुभव हो रहा था।

वह इस सोच में पड़ गयी कि कल कौन-सा मुंह लेकर मुत्तुकुमरन् से मिलूंगी! गोपाल के स्वयं घर पहुंचाने के लिए तैयार हो जाने पर, मैं उसका मन रखने के लिए कैसे मान गयी ? यह सोचते हुए अपनी करनी पर उसे हैरानी हो रही थी।

मुबह उठने पर उसे एक दूसरी हैरानी का सामना करना पड़ा। उसकी वजह से गोपाल से मिलने में भी उसे संकोच का अनुभव हो रहा था। दरअसल डर लग रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करे? कारण आज की पहली डाक से उसके नाम 'जिल जिल' का ताजा अंक आया था, जिसमें मुत्तुकुमरन् से कनियन की भेंट-वार्ता छपी थी। 'जिल जिल' कनियळकन ने भेंटवार्ता के बीच एक फ़ोटो भी छपवाया था। मुत्तुकुभरत् और माधवी के अलग- अलग चित्रों को कैची की करामात से काट-छाँटकर ऐसा एक ब्लाक बनवाया गया था, जिसमें दोनों सटकर खड़े थे । भेंट के बीच मुत्तुकुमरन की जुबानी यह बात छापी गयी थी कि माधवी जैसी लड़की मिले तो मैं शादी करूँगा । इसे पढ़कर उसे कनियळकन पर क्रोध चढ़ आया । माधवी ने सोचा कि जिस प्रकार मेरे नाम 'जिल . जिल' का यह अंक आया है, उसी प्रकार गोपाल और मुत्तकुमरन के नाम भी गया होगा । उसने यह अनुमान लगाने का भी प्रयत्न किया कि इसे पढ़कर गोपाल के मन में कैसी-कैसी भावनाएँ सिर उठाती होंगी !

उसका मुत्तुकुमरन के साथ एक चित्र में सटकर खड़े होने और मुत्तुकुमरन् के मुँह से उस जैसी लड़की से शादी की बातों को देख-पढ़कर गोपाल कसे जल उठेगा? यह बात वह एक भुक्तभोगी की भाँति जानती थी। इसलिए उस दिन उन दोनों से मिलने में उसे भय-संकोच हो रहा था।

उसने मन में निश्चय किया कि आज माबलम की तरफ़ न जाना ही अच्छा है ताकि मुत्तुकुमरन् या गोपाल से मुलाकात नहीं हो पाये। लेकिन अप्रत्याशित रूप से ग्यारह बजे के करीब गोपाल ने उसे फोन पर बुलाया और बोला, "पासपोर्ट जैसे कुछ जरूरी कागजात पर दस्तखत करना है। एक बार आ जाओ।"

"मेरी तंबीयत ठीक नहीं है। अगर जल्दी हो तो किसी के हाथ भिजवा दीजिए। हस्ताक्षर कर दूंगी।" उसके यहाँ जाने से बचने के लिए उसने यह बहाना बताया। उसे इस काम में सफलता मिली। गोपाल यह मान गया कि वह ड्राइवर के हाथा आवेदन आदि पर हस्ताक्षर करने को भेज देगा।

उसे मालूम था कि मुन्तकुमरन् फोन नहीं करना चाहेगा। लेकिन उसे भी फोन करने से भय-संकोच होता था। पिछली रात को मुत्तकुमरन ने जो उत्तर दिया था, वह अब भी उसके मन में खटक रहा था। मुत्तकुमरन की कड़ी बातों से बढ़कर उसे अपनी ही ग़लती कहीं ज्यादा अखर गयी। मुत्तुकुमरन के क्रोध की वह कल्पना भी नहीं कर सकी।

उस दिन वह बड़ी उधेड़बुन में पड़कर घर पर ही रह गयी। बाहर कहीं नहीं गयी। गोपाल का ड्राइवर दो बजे के बाद आया और कागजों पर हस्ताक्षर ले चला गया। उसे इस बात की चिंता सताने लगी कि फॉर्म आदि भरकर मुत्तकुमरन से इस तरह के हस्ताक्षर लिये होंगे कि नहीं? क्योंकि उसे इस बात का डर सताने लगा था कि पिछली रात की घटना से मुत्तकुमरन उससे और गोपाल से नाखुश हैं। इसलिए संभव है कि मलेशिया जाने से इनकार कर दे। एक ओर निष्कलंक वीर के आत्माभिमान और कवि के विद्या-गर्व से भरे मुत्तकुमरन की याद में उसका दिल द्रवित हो रहा था और दूसरी ओर उसके निकट जाते हुए डर भी लग रहा था। उस पर अपार प्रेम होने से और उस प्रेम के भंग हो जाने के डर से वह बड़ी दुविधा में पड़ गयी। उसने यह निश्चय किया कि यदि मुत्तकमरन मलेशिया जाने के डर से इनकार कर दे तो उसे भी वहाँ नहीं जाना चाहिए। इस तरह का निर्णय लेने की। हिम्मत उसमें थी। लेकिन उस हिम्मत को कार्य रूप देने की हिम्मत नहीं थी।

जनवरी के प्रथम सप्ताह से तीसरे सप्ताह तक मलेशिया और सिंगापुर में भ्रमण करने का आयोजन हुआ था। मुत्तुकुमरन को साथ लिये बिना, सिर्फ गोपाल के साथ विदेश भ्रमण करने को उसका मन नहीं हो रहा था। जीवन में पहली बार और अभी अभी उसके हृदय में गोपाल के प्रति भय और भेदभाव के अंकुर फुटे थे।

गोपाल के बंगले में काम करनेवाले छोकरे नायर को फ़ोन पर बुलाकर माधवी ने पूछा, "तुम्हें यह पता है कि नाटक लिखने वाले बाबू मलेशिया जा रहे हैं या नहीं?" पर उसे इस बात का कुछ अधिक पता नहीं था। ज्यादा पूछने पर, 'आप ही पूछ लीजिये कहकर वह आउट हाउस का फ़ोन मिला देगा। ऐसी हालत में वह क्या बोले ओर कैसे बोले। यह भय-संकोच अब भी उसके मन से नहीं गया था।

मुत्तुकुमरन् से घर पहुँचाने की प्रार्थना करके, गोपाल के साथ घर लौटने की अपराधी भावना उसके दिल में कुंडली मारे बैठ गयी थी और बाहर होने का नाम ही नहीं लेती थी! तो बेचारी क्या करे? दूसरे दिन भी तबीयत खराब होने के बहाने मांबलम की ओर नहीं गयी।

"कोई जल्दी नहीं। तबीयत ठीक होने पर आ जाना । बाक़ी ठीक है।" गोपाल ने तो फ़ोन कर दिया। लेकिन वह जिस फ़ोन की प्रतीक्षा में थी, वह नहीं आया। मुत्तुकुमरन् को फोन करने के लिए वह तड़प उठी। पर भय ने हाथ रोक दिया। वह तो हठ आने बैठा था, फ़ोन क्यों करने लगा!

माधवी को लगा कि उससे बातें किये बिना वह पागल हो जाएगी । 'आउट हाउस' में हाथ भर की दूरी पर फ़ोन होते हुए भी वह कुछ कहता क्यों नहीं ? वह तड़प उठी कि अभी जाकर मुत्तुकुमरन् से क्यों न मिल लूँ ? उन आदेग में वह यह 'भूल गयी कि उसने गोपाल से झूठमूठ का बहाना किया था कि तबीयत ठीक नहीं है। शाम को पांच बजे तक वह अपने मन को काबू में रख पायी । पर साढ़े पांच बजते-न-बजते वह हार गयी और हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदलकर चल पड़ी।

बह चाहती तो गोपाल से कहकर कार मँगवा सकती थी। लेकिन टैक्सी पर जाने के विचार से चल पड़ी । जब वह टैक्सी स्टैड' पर पहुंची, तब वहाँ कोई टैक्सी नहीं थी। टैक्सी मिलने में बड़ी देर हो गयी। उस तनाब में उसे लगा कि सिर्फ मुत्तुकुमरन ही नहीं, सारी दुनिया उससे रूठ गयी है। हर कोई किसी-न-किसी बात पर उसी पर गुस्सा उतार रहा है और उसी से बदला ले रहा है। उसे अपने आप पर भी खीझ-सी हो आयी।

धर से अजंता होटलं तक पहुँचते हुए उसने देखा कि रास्ते पर पैदल चलने वाले लोग उसे धूर-घूरकर देखते जा रहे हैं। टैक्सी की प्रतीक्षा में खड़ी रहते हुए, उसे इतनी परेशानी हुई थी कि वह आत्मग्लानि से गड़ गयी थी ।

कद-काठी से ऊँची, गदराय बदन वाली किसी औरत को रास्ते चलते देखकर ही रास्ते पर चलती आँखें उसे निगल जाती हैं। सिने-सितारे जैसी नपे-तुले नाक- नक्श वाली किसी सुन्दरी पर नजर पड़ जाए तो पूछना क्या? नोचकर न खा लेंगी ? माधवी पर भी ऐसी नजरें उठीं कि शरम से वह नज़र ही नहीं उठा पायी।

आधे घंटे के बाद एक टैक्सी मिली। इधर टैक्सी बोग रोड का मोड़ ले रही थी कि उधर गोपाल की कार कहीं बाहर जा रही थी। माधवी ने गोपाल को देख लिया। पर भाग्य से गोपाल ने माधवी को नहीं देखा। माधवी ने टैक्सी को बँगले. के द्वार पर नहीं, आउट हाउस के द्वार पर रुकवाया। 'आउट-हाउस' के झरोखों से बत्ती की रोशनी आ रही थी। भला हुआ कि मुत्तुकुमरन कहीं बाहर नहीं गया था । यहाँ आते हुए जिस झंझट का सामना करना पड़ा था, उसकी पुनरावृत्ति न हो इसलिए माधवी ने टैक्सी को रुकवा लिया।

छोकरा नायर द्वार पर मानो रास्ता रोके खड़ा था। वह बोला, "बाबूजी ने किसी को अन्दर आने को मना किया है।"

माधवी ने आँखें तरेरी तो वह रास्ता छोड़कर हट गया। अन्दर जाते ही वह हिचककर खड़ी हो गयी।

मुत्तुकुमरन् सामने एक तिपाई पर बोतल, गिलास, सोडा और ओपनर वगैरह लिये डटा था । लगा कि वह पीने की तैयारी कर रहा है।

द्वार पर ही से माधवी ने हिचकते हुए पूछा, "लगता है आपने बहुत बड़ा काम शुरू कर दिया है। मैं अन्दर आ सकती हूँ कि नहीं ?"

"सबको अपना-अपना काम बड़ा ही लगता है !"

"अन्दर आऊँ?" "विक्ष लेकर जानेवालों को इजाजत लेकर आना पड़ता है। बिना कहे-सुने हर किसी के साथ यहाँ-वहाँ-जहाँ कहीं भी जानेवालों के बारे में कहने को क्या रखा ३ "अभी तक आपने अन्दर बुलाया नहीं !" "बुलाना कोई जरूरी है क्या ?"

"तो मैं जाती हूँ !"

"खुशी से ! वह तो अपनी-अपनी मर्जी है !"

पता नहीं, उसने वहाँ से चले जाने की बात किस हिम्मत से उठा दी। लेकिन एक पग भी बाहर नहीं रख सकी। उसकी नाराजगी और बेपरवाही पर वह तड़प उठी। चेहरा लाल हो गया और आँखें गीली हो गयीं। बह जहाँ-की-तहां खड़ी रही।

मुत्तुकुमरन् पीने के उपक्रम में लगा। अचानक अप्रत्याशित ढंग से वह तेजी से अन्दर गयी और झुककर उसके पाँव पकड़ लिये। मुत्तुकुमरन् ने पैरों में आँखों की नमी महसूस की।

"मानती हूँ कि मैंने उस दिन जो किया, ग़लत किया ! मेहरबानी करके मुझे माफ़ कर दीजिये !"

"किस दिन ? क्या किया ? अरे "अचानक यह नाटक क्यों ?"

"मानती हूँ मैंने आपको साथ चलने को बुलाया था और गोपाल की कार में घर चली गयी थी। मैंने यह ठीक नहीं किया। मैं अपनी विवशता को क्या कहूँ ? सहसा मैं उनसे वैर न ठान सकी और न मुंह मोड़ पायी।"

"मैंने तो उसी दिन कह दिया न ? चाहे जो भी साथी मिलें, उनके साथ तुरन्त चल पड़नेवालों के लिए; वह चाहे जिस किसी के भी साथ जाये, इससे मेरा क्या आता-जाता है ?"

"वैसा मत कहिए। पहले मैं ऐसी रही होऊँगी लेकिन अब मैं वैसी नहीं हूँ। आपसे मिलने और परिचय पाने के बाद मैं आप ही को अपना साथी मानती हूँ !"

"......"

"मेरा यह अनुरोध तो मानिए ! मेरे सिसकते-बिलखते आँसुओं पर विश्वास कीजिए। मैं दिल से आपको निश्चय ही धोखा नहीं दे रही।"

इतना कहकर उसने अपना सिर झुका लिया। उसके होंठ मुत्तुकुमरन् के पाँव चूमने लगे और आँसू उन्हें धोने लगे । मुत्तुकुमरन् का दिल पसीज गया। उसे भूलने के लिए ही तो उसने मदिरा का आश्रय लिया था ! लेकिन कुछ ही क्षणों में उसने मदिरा को भुला दिया। उसने अपने आँसुओं से उसका दिल इस तरह पिघला दिया था कि उसे इस बात का अब भान ही नहीं रहा कि सामने शराब पड़ी है।

अपने पैरों में पड़ी हुई उसकी केश-राशि और उसकी देह से लिपटी सुगंध में मदिरा से भी अधिक मादकता पाकर वह निहाल हो गया। माधवी के अश्रुपूरित नेत्रों ने उसके हृदय-पटल पर अमिट भाव-चित्र खींच दिये थे।

"आप साथ चलने को तैयार हों तो हम पैदल ही घर चले जायेंगे" ---कहते हुए जो आत्माभिमान था, वह न जाने कहाँ बहकर चला गया?

"आप तनिक शांति से सोचेंगे तो स्वयं जान जायेगे। जव वे कार पास खड़ी करके जिद करने लगे कि चलो चलें.."तो कैसे इनकार किया जा सकता था भला !"

"हाँ, जब किसी का गुलाम हो गये तो अस्वीकार करना मुश्किल ही है !"

"कोई किसी का गुलाम न भी हो तो भी तकल्लुफ़ बरतना पड़ता है !" कहते हुए वह उठी और द्वार पर जाकर नायर लड़के को बुलाया। उसके अन्दर आने पर, मुत्तुकुमरन् की अनुमति के बिना ही उसे बोतल, गिलास वगैरह उठा ले जाने को कहा । यद्यपि लड़का उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सका, फिर भी ज़रा हिवका कि, मुत्तुकुमरन् कहीं मना न कर दे । ऐसा लगा जैसे विना मुत्तुकुमरन् की आज्ञा के वह नहीं ले जायेगा। मुत्तुकुमरन ने मुँह खोलकर कुछ नहीं कहा। थोड़ी देर वहां वैसा ही मौन छाया रहा।

लगभग पाँच मिनट बाद, मुत्तुकुमरन् ने हाथ से सारी चीजें ले जाने का इशारा किया । लड़का 'ट्रे' सहित सब कुछ उठा ले गया तो माधवी बोली, "यह लत क्यों पालते हैं ? आदत पड़ गयी तो तन्दुरुस्ती खराब हो जायेगी !" "माना कि तुम बड़ी अच्छी आदतों वाली हो और मेरी सारी बुरी आदतों को दूर करने का कौशल जानती हो !"

"नहीं, मैं ऐसा नहीं कहती ! आप मुझे जितना भी बुरा कहें, पर आप मेरे लिए अच्छे हैं !"

"तो कहो कि तुम्हें चापलूसी भी खूब आती है !"

"हाँ, आपके दिल में स्थान जो बनाना है।"

"मुंहजोरी भी कम नहीं आती।"

"आपके सामने मैं डरपोक भी हूँ और मुँहज़ोर भी 'एक म्यान में दो तलवार' वाली कहावत झूठी हो सकती है भला?"

वह थोड़ी देर में दोनों सहज-स्वाभाविक हो गये थे। अपने मन की आशंका दूर करने के लिए उसने पूछा, “मलेशिया जाने के लिए पासपोर्ट के कागजात पर हस्ताक्षर कर दिये कि नहीं ?"

"मैं साथ न जाऊँ तो आप लोगों को सुविधा होगी कि नहीं ?"

"यों क्यों दिल छेदते हैं ? आपके साथ जाने पर ही मेरे लिए सहूलियत होगी!"

मुत्तुकुमरन के कानों में मानो शहद की फुहार-सी पड़ी। उसने माधवी के गदराये कंधों को ऐसा दबाया कि वह मधुर-पीड़ा के सुख में चिहुँक उठी और अपनी फूल- माला-सी बांहों से उसे जकड़ लिया। दोनों की साँस जुगलबंदी करके चलने लगी। माधबी उसके कानों में फुसफुसायी-"उस पत्रिका में हमारी तस्वीर छपी थी, आपने देखी?"

"हाँ, देखी ! उसमें क्या रखा है ?"

"तो इसमें क्या रखा है ?"

"इसी में तो सब कुछ रखा है !" उसकी बाँहें और कसने लगीं।

"चलो, बगीचे में चलकर घास पर बैठकर बातें करेंगे !" माधवी ने हौले-से कहा । मुत्तुकुमरन् को लगा कि माधवी डर रही है कि एकाएक कोई यहाँ आ जाए तो क्या हो? लेकिन उसकी बात मानकर उसके साथ वह बगीचे में गया ।

बे जब बगीचे में बैठकर बातें कर रहे थे, तब गोपाल लौट गया था। 'आउट हाउस' में जाकर खोजने के बाद वह वहीं आ गया, जहां वे दोनों बैठे थे। उसके हाथ में भी वही पत्रिका थी।

"देखा उस्ताद ! तुम्हारे बारे में जिल जिल ने कितना बढ़िया लिखा है !"

"वढ़िया क्या लिख दिया? मैंने जो कहा है, सो लिखा है ! अगर कुछ बढ़िया हो तो वह मेरी बात है !"

"अच्छा, तो यह कहो कि तुमने जो कुछ कहा है, वही लिखा है !"

गोपाल की बातों में चुभता व्यंग्य था। उसकी बातों में अभिधा, लक्षणा और 'व्यंजना-तीनों इस तरह घुली-मिली थी कि उन्हें समझने में थोड़ी देर लग गयी। मुत्तुकुमरन माधवी से शादी करना चाहता है इस बात का पुष्टीकरण मुत्तुकुमरन् के मुह से गोपाल चाहता था।

थोड़ी देर तक तीनों खामोश रहे।

"इस साक्षात्कार में छपा चिन भी नया-नया खिंचवाया मालूम होता है !" गोपाल ने उन दोनों को चित्र दिखाकर पूछा। पत्रिका में छपे उस चित्र से गोपाल का ध्यान बँटाने के प्रयत्न में माधवी लगी रही। पर मुत्तुकुमरन ने गोपाल की बातों पर ध्यान दिया ही नहीं। उसने एक तरह से लापरवाही बरती। दोनों के पास आकर गोपाल का उस तरह बातें करना बड़ा बचकाना लगा। मुत्तुकुमरन और गोपाल दोनों रुष्ट हो जाएँ तो क्या हो? इस नाजुक स्थिति को टाल देने का माधवी का प्रयत्न उतना सफल नहीं रहा ।

थोड़ी देर की बातों के बाद, गोपाल ने पूछा, "आज रात को अब्दुल्ला यहाँ से जा रहे हैं। मैं उन्हें विदा करने 'एयरपोर्ट' तक जानेवाला हूँ। आप में से कोई चलना चाहेंगे ?"

मुत्तुकुमरन् और माधवी ने एक-दूसरे का मुंह देखा । गोपाल की बातों का किसी ने उत्तर नहीं दिया। उनको हिचकिचाहट देखकर गोपाल, 'अच्छा ! मैं जा रहा हूँ !' कहते हुए उठा । जाते हुए वह पत्रिका ऐसे छोड़ गया, हो!

गोपाल के जाने के बाद मुत्तुकुमरन् ने माधवी की खिल्ली उड़ाते हुए पूछा, "अब्दुल्ला को विदा करले तुम गयी क्यों नहीं ?"

इतने में छोकरा नायर दौड़ता हुआ आया और बोला, "टैक्सी बड़ी देर से 'वेटिंग' में खड़ी है । ड्राइवर चिल्ला रहा है।"

तभी माधवी को यह बात याद आयी कि अरे वह तो टैक्सी में यहाँ आयो थी और वह बड़ी देर से उसके लिए खड़ी है। उसने मुत्तुकुमरन् की ओर मुड़कर ऐसी दृष्टि फेरी, कि मानो पूछती हो कि अब मैं जाऊँ या और थोड़ी देर ठहरूँ ?"

"टेक्सी खड़ी है तो जाओ। कल मिलेंगे !" मुत्तुकुमरन ने कहा।

वह बुझे दिल से वहाँ से चली मानो और ढेर सारी बातें कहने को रह गयी हों । मुत्तुकुमरन भी बगीचे से चलकर आउट हाउस' में गया ।

यह गली बिकाऊ नहीं : चौदह

दूसरे दिन सवेरे गोपाल ने माधवी को फोन किया कि वह अपने लिये कुछ रेशमी साड़ियाँ खरीद ले। पांडि बाज़ार में एक वातानुकूलित कपड़े की दूकान में गोपाल का खाता चलता था । नाटक आदि के लिए जो साड़ियाँ खरीदनी होती थीं, माधवी वहीं से जाकर लिया करती थी। बिल वहाँ से सीधे गोपाल के पास पहुँच जाता था।

"दूकान वालों को मैं इत्तिला कर दूंगा कि तुम ग्यारह बजे वहाँ पहुँच रही हो।" गोपाल ने बताया और उसने भी स्वीकार लिया था । अतः जल्दी से नहा धोकर, कपड़े बदलकर वह चलने को तैयार हो गयी।

सिंगापुर जाने में कुछ ही दिन बाकी रह गये थे। उसके पहले सारा प्रबन्ध कर लेना था । सीन-सेटिंग जैसे भारी सामान, जो हवाई जहाज से नहीं लिये जा सकते थे, उन्हें साथ लेकर, दो दिनों में दस-पन्द्रह आदमी समुद्री जहाज़ पर जाने वाले थे। हवाई जहाज पर हल्के-फुल्के सामान ही लिये जाने की बात थी । अतः संभव था कि जरूरत से ज्यादा के कपड़े-लत्ते और साड़ियाँ भी जहाज के जरिये ही भेजे जाएँ । इसलिए उसने गोपाल की बात न टालकर जल्दी कपड़े की दूकान हो आने की बात मान ली थी।

गोपाल की नाटक-मंडली को मुत्तुकुमरन् के लिखे हुए नये नाटक के अलावा मलेशिया में एक-दो अन्य सामाजिक नाटक भी मंचित करने की योजना थी। उन नाटकों में कभी बहुत पहले गोपाल और माधवी ने भूमिका की थी। उनकी पुनरा- वृत्ति के लिए भी उन्हें तैयार रहना था ।

हालाँकि अब्दुल्ला ने 'प्रेम एक नर्तकी का'-इसी ऐतिहासिक नाटक के लिए अनुबन्ध किया था, फिर भी, विदेश के नगरों में लगातार इसी नाटक के खेलने में कठिनाइयाँ संभब थीं। इस विचार से बीच-बीच में दूसरे नाटक भी सम्मिलित किये गये। सामाजिक और ऐतिहासिक दोनों प्रकार के नाटकों में माधवी को ही बारी-बारी से नायिका की भूमिका अदा करनी थी। इसलिए उन पात्रों के अनुरूप आधुनिकतम रेशमी साड़ियाँ लेनी थीं । ग्यारह बजे जाने पर भी साड़ियाँ चुनते-चुनते दोपहर का एक तो बज ही जायेगा।

माधवी ने सोचा कि बोग रोड के बँगले पर जाकर, मुत्तुकुमरन् को भी साथ ले जाये तो अच्छा रहे। इसके साथ ही वह इस सोच में पड़ गयी कि मुत्तुकुमरन् कहीं इनकार कर दे तो क्या हो ?

"मालिक ने आपको कपड़े की दुकान पर ले जाने को कहा है।" कहते हुए ड्राइवर सवा दस बजे के करीब गाड़ी के साथ आ गया।

उसके कार में बैठते ही ड्राइवर ने पूछा, “सीधे पांडिं बाजार चलूं ?"

"नहीं ! पहले बँगले पर चलो। आउट हाउस से नाटककार को भी साथ ले जायेंगे।" माधवी ने कहा तो कार बोग रोड की तरफ़ बढ़ी।

उस समय मुत्तुकुमरन् 'आउट हाउस' के बरामदे में बैठकर उस दिन का समाचार-पढ़ रहा था। माधवी कार से उतरकर उसके सामने जा खड़ी हुई तो उसने समाचार-पत्र से सिर उठाकर देखा और पूछा, 'बड़ी खुशबू आ रही है। यह अब्दुल्ला की दी हुई 'सेंट तो नहीं ?"

"अच्छा ! इस खुशबू में इतनी बड़ी तासीर हैं कि देने वाले आदमी का नाम भी बतला दे।"

"अन्यथा मैं उसका नाम कैसे ले पाता?" वह कोई उत्तर नहीं देकर मुस्करायी।

"कहीं बाहर जा रही हो क्या?"

"हाँ ! आपको भी साथ ले जाने के विचार से आयी हूँ !"

"मुझे ? मुझे क्यों ? साथ ले जाकर आधी दूर जाने के बाद किसी की कार में बैठकर चल पड़ने के लिए?"

"आपको मुझ पर जरा-सा भी तरस नहीं आता क्या? बार-बार उसी बात की सूई चुभाते हैं !"

"जो होता है, सो कहता हूँ !"

"बार-बार उलाहना देते हुए आपको न जाने क्या मज़ा आता है ?"

"वहीं, जो तुम्हें तंग करने से आता है !

"कहते हैं कि कसूर माफ़ करना भलमनसाहत हैं !"

"समझ लो कि वह भलमनसाहत मुझमें नहीं है !"

"कैसे मान लूं ? यों हठ न पकड़िये । मैं प्रेम से बुला रही हूँ। इनकार कर मेरा जी मत दुखाइये चलिये..."

"उफ़ ! इन औरतों से पार पाना..."

".."बड़ा मुश्किल है !" उसने उसका अधूरा वाक्य पूरा किया।

मुत्तुकुमरन् हँसता हुआ उठा और कुर्ता पहनकर उसके साथ चल पड़ा। द्वार की सीढ़ियां उतरते हुए उसने पूछा, "कहाँ ले जा रही हो?"

"चुपचाप मेरे साथ चलते चलिये तो पता चलेगा।" उस पर अपना रोब जमाते हुए उसने कहा।

दूकान के सामने उतरने के बाद ही, उसे पता चला कि उसे वह कपड़े की दूकान में लायी है।

"ओहो ! अब तो हालत यहाँ तक बढ़ गयी कि जोर-जबरदस्ती खींचकर मुझे कपड़े की दूकान तक लाओ ! भगवान जाने, आगे क्या हाल होगा!" मुत्तुकुमरन् ने दिल्लगी की। माधवी को वह दिल्लंगी अच्छी लगी।

"आप देखकर जो पसन्द करेंगे, उन्हें मैं आँख मूंदकर ले लूंगी।"

"साड़ी पहननेवाला मैं नहीं हूँ ! पहननेवालों को ही अपनी पसंद की लेनी चाहिए!"

"आपको पसंद मेरी पसंद है !"

दूकानवालों ने बड़े तपाक से उनका स्वागत किया।

"गोपाल साहब ने फ़ोन किया था। हम तब से आँखें बिछाये आपकी राह देखे खड़े हैं !" दूकान के मालिक ने बत्तीसी दिखाते हुए कहा।

नीचे बिछी नयी कालीन पर ढेर सारी साड़ियों का अंबार-सा लगा था। मुत्तुकुमरन और माधवी कालीन पर बैठे थे।

"आप हैं हमारे नये नाटक के लेखक ! बड़े भारी बिद्वान और कवि।" माधवी उसका उन्हें परिचय देने लगी तो मुत्तुकुमरन् ने उसके कानों में फुसफुसाया, "बस, बस! अपना काम देखो!"

ठंडे 'रोज़ मिल्क' के दो गिलास उनके सामने रखे गये।

"इन सबकी क्या ज़रूरत है ?" माधवी ने कहा!"

"आप जैसे ग्राहक बार-बार थोड़े आते हैं !" दुकान के मालिक ने हाथ ऐसे जोड़े कि उँगलियों में फंसी अंगूठियाँ चमक उठीं ।

रेशमी धोती, रेशमी कुरता, पान-सुपारी की लाली से रंगी मुस्कान, मुलायम रेशम को मात करनेवाली चिकनी-चुपड़ी बातें और बात-बात में चमत्कृत करने की कोशिश।

रंग, चमक, किनारी, वनावट आदि में एक से बढ़कर एक बढ़िया साड़ियाँ उनके सामने बिछायी गयीं।

"यह आपको पसंद है?" सुआपंखी रंग की साड़ी निकालकर दिखाते हुए माधवी ने पूछा।

"शुक-सा यूरिकाओं को अपने रंग से मोह हो तो आश्चर्य की क्या बात है ?" मुत्तुकुमरन् होंठों में मुस्कान फेरते हुए बोला।

माधवी साड़ियों से नजर उठाकर मुत्तुकुमरन् को देखते हुए बोली, "हास- परिहास छोड़िये न?"

"साड़ी के बारे में मर्द बेचारा क्या जाने !"

घंटे तक साड़ियों को उलट-पलटकर देखने के बाद माधवी ने दर्जन भर साड़ियाँ चुनीं।

"आप कोई रेशमी धोती लीजिये ना?"

"नहीं !"

"जरीवाली. धोती आए' पर खूब फबेगी !" दूकानदार ने कहा । पर मुत्तुकुमरन ने इनकार कर दिया।

उन्हें लौटते हुए दोपहर के दो बज गये थे । जब वे बंगले पर पहुँचे; तब गोपाल के सेक्रेटरी 'पासपोर्ट' के क्षेत्रीय कार्यालय से पासपोर्ट ला चुके थे। थोड़ी देर में पासपोर्ट सम्बन्धित व्यक्तियों के हाथ सौंपे गये । जहाज पर पहले जानेवाले अपनी यात्रा की तैयारी में लगे थे। सीन, सेट और नाटक के अन्य सामान आदि "जहाज से भेजे जाने के योग्य ढंग से बांधे गये।

कलाकार संघ ने विदाई समारोह का आयोजन भी किया था। गोपाल की नाटक मंडली की मलेशिया यांना के बारे में भड़कीला विज्ञापन निकाला गया। उस समारोह में जहाज से जानेवाले कलाकारों के साथ गोपाल, माधवी और मुत्तुकुमरन् भी सम्मिलित हुए थे ! संघ के अध्यक्ष ने गोपाल की मंडली की सांस्कृतिक विजय-यात्रा की कामना करते हुए उसकी तारीफ़ के पुल भी बाँधे।

जैसे-जैसे यात्रा के दिन निकट होते गये--वैसे-वैसे घनिष्ठ मित्रों के यहाँ विदाई-दावतों का तांता लग गया। कुछेक में मुत्तुकुमरन् शामिल नहीं हुआ। एक दिन माधवी ने स्वयं जोर दिया कि मेरी अभिनेत्री-सहेली पार्टी दे रही है। आपको उसमें अवश्य शामिल होना चाहिए। पर वह गया नहीं। जिस दिन हवाई जहाज़ की यात्रा थी, उसके पहले दिन रात को माधवी ने स्वयं अपने घर में मुत्तुकुमरन्औ र गोपाल को दावत के लिए बुलाया था।

मुत्तकृमरन् उस दिन शाम को ही माधवी के घर आ गया था। शाम का नाश्ता भी वहीं किया। उसके बाद माधवी और वह दोनों बैठे बातें कर रहे थे।

उस दिन माधवी सुरमई रेशम की साड़ी पहने हुए थी, जिसपर बीच-बीच में ज़री के सितारे चमक रहे थे, जिससे उसकी सुनहली देह की सुन्दरता में चार-चाँद लग गये थे! मुत्तुकुमरन् उसकी मोहिनी सूरत पर मोहित होकर कवित्वमयी भाषा में कह उठा, “अंधकार की साड़ी पहने, विद्युल्लता विचरती हैं, विश्व के प्रांगण में।"

"वाह वाह! क्या खूब! इस पर तो कुबेर का भंडार उड़ेला जा सकता है!"

"सच कहती हो या मेरी तारीफ़ की तारीफ़ में तुम मेंरी तारीफ़ करती हो?"

"सच कह रही हूँ। आपने मेरी तारीफ़ की। बदले में मैंने आपकी तारीफ़ कर दी।"

इस तरह दोनों बातें कर ही रहे थे कि गोपाल का फोन आया। माधवी ने रिसीवर उठाया।

"आयकर के एक मामले में मुझे एक अधिकारी से अभी तुरत मिलना है। मैं आज वहाँ नहीं आ सकता। माफ़ करना!"

"आप भी ऐसा कहें तो कैसे काम चलेगा? आपको जरूर आना है। मैं और लेखक महोदय काफ़ी देर से आपका इन्तजार कर रहे हैं।"

"नहीं-नहीं, आज यह मुमकिन नहीं लगता। मुत्तकुमरन् जी से भी कह देना।"

उसका चेहरा स्याह पड़ गया। फ़ोन रखकर मुत्तुकुमरन् से बोली, "आज वे नहीं आ रहे हैं। कहते हैं, किसी आयकर अधिकारी से मिलना है।"

"जाये तो जाये! उसके लिए तुम उदास होती क्यों हो?"

"उदास नहीं होती! कोई आने की बात कहकर सहसा न आने की बात कहे तो दिल हताश हो जाता है न?"

"माधवी! मैं एक बात पूछूँ! बुरा तो नहीं मानोगी?"

"क्या है भला?"

"आज की दावत में गोपाल आता और मैं नहीं आता तो क्या समझती?"

"ऐसी कोई कल्पना मैं कर ही नहीं सकती!"

"वैसा हुआ होता तो तुम क्या करती? यही मैं पूछना चाहता हूँ !"

"वैसा हुआ होता तो मेरे चेहरे पर उल्लास की रेखा तक फूटी नहीं होती।

एक तरह से मैं जीवित लाश ही दीख पड़ती।"

"जो भी कहो, गोपाल के न आने से तुम्हें निराशा ही हुई है ।"

"जैसा आप समझें!"

"मेरे आने पर तुम्हारा क्या बड़प्पन रहा ? गोपाल जैसा 'स्टेटस्' वाला कलाकार आता तो तुम्हारा बड़प्पन बढ़ता और अड़ोस-पड़ोस के लोग भी गर्व का अनुभव करते।"

"आप चुप न रहकर मेरा मुंह खुलवाना चाहते हैं। गोपाल जी के न आने का मुझे ज़रूर दुख हुआ है । पर उनके न आने के दुख को आपके आने के सुख ने कोसों दूर भगा दिया है !"

"मुझे खुश करने के लिए यों ही कह रही हो !"

"आप मेरे प्रेम पर सन्देह करें तो निश्चय ही आपका भला नहीं होगा।"

"शाप देती हो मुझे?"

"मैं शाप देनेवाली कौन होती हूँ? आप मेरे साथ जा रहे हैं केवल इसी आश्वासन पर मैं इस यात्रा में सम्मिलित हो रही हूँ !"

"नाराज न होओ। यों ही तुम्हें उकसाकर तमाशा देखना चाहता था।"

मुत्तुकुमरन् ने उसकी आँखों में आँखें डालकर देखा तो उसे यह पूरा विश्वास हो गया कि सच ही वह उसपर मन-प्राण न्योछावर कर चुकी है । दावत से बड़ा उपहार पाकर खुश कौन नहीं होता ? खुशी से वह दावत खाने बैठा।

यह गली बिकाऊ नहीं : अध्याय (15-20)

यह गली बिकाऊ नहीं : अध्याय (1-7)