वर्क फ्रॉम होम (व्यंग्यात्मक लेख) : स्वप्निल श्रीवास्तव (ईशू)

Work From Home (Hindi Satire) : Swapnil Srivastava Ishoo

नमस्ते!! आज बात पुरुष प्रधान युग में गृहकार्य कुशलता के लिए तैयार होती नई खेप की । जी हाँ बात हमारे जैसे लाखों पुरुषों की जो इस करोना काल में ना चाहते हुए भी घरेलू कामकाज करने को मज़बूर हैं । वैसे दबाव सिर्फ घर का होता तो कोई बात ना थी, आई-गयी सी होती, पर यहाँ तो दबाव सामाजिक है । पड़ोसी, दोस्त, आफ़िस के सहयोगी सभी अपनी गृहकार्य कुशलता का बखान कर रहे हैं । और तो और नयी- नयी डिश, नये- नये पैतरे आग में घी का काम कर रहें है । एक मिडिल क्लास आदमी के लिए बात यहाँ तक भी होती तो भी चल जाती पर जब से फ़िल्मी जगत के जाने माने सितारे ऐसा ही कुछ काम करते सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगें तो मज़बूरी को पैशन बनाना भी मज़बूरी हो जाती है । आप बोलेंगे लेखक महोदय आप इतने मज़बूर कब से हो गए? तो मैं साफ़ कर दूँ, यहाँ बात हमारी नहीं हमारे जैसे लाखों पुरुषों की हो रही है । रही बात हमारी तो, अंडे उबालने और मैगी बनाने का हुनर तो हमने लड़कपन में ही सीख लिया था । घर में बनने वाली बैगन की सब्ज़ी ने रेबलियन बनने पर मज़बूर किया और अंडे और मैगी ने पैरों पर खड़े होने में मदद की ।

समय बीता छोटे शहर से निकल कर थोड़े बड़े शहर में एम.बी.ए करने पहुच गए और वहां से निकल कर “बम्बई” । आप बोलोगे बम्बई नहीं “मुंबई”! तो साहब बम्बई शब्द से लगाव हमको तब से है जब हम गरमी की छुट्टीयों में व्यापार खेला करते थे, जी हाँ मोनोपोली का देसी वर्ज़न ।

खैर बम्बई में दोस्तों के साथ खाना बनाना भी सीख लिया । समय बीतता गया और सब्जियों में स्वाद खाने लायक आने लगा, रोटियाँ भी अब बहुआयामी ना हो कर थोड़ी गोल सी होने लगी थीं ।

खेल नेक्स्ट लेवल पर आ गया था, भिंडी का चिपचिपापन और अरबी का गला खुजाना कौतुहल का विषय बन गया था । फिर वही हुआ, जब जब फसे मम्मी की याद आई । मोबाइल नया नया चलन में आया था और आउट गोइंग अफोर्ड करने लायक हो गए थे, हर समस्या के समाधान के लिए फोन अ फ्रेंड मे मम्मी ही याद आती थी । वो बताती गयी और कुछ शुरुवाती झटकों के बाद हुनर खिल के आने लगा। गाहें बगाहे झाड़ू पोछा भी कर लिया करते ।

समय बीता हम एक से दो और दो से तीन हो गए, घर का मोर्चा श्रीमती जी ने सम्भाल लिया और हमारे घरेलु कामकाज का हुनर हमने ठन्डे बस्ते में डाल दिया ।

इस पुरुष प्रधान समाज में, “आदमी दिन भर काम कर के आया है, थका है, थोडा रेस्ट करने दो” जैसे डायलाग अक्सर हम मारते रहे है…..खैर महिलाएं भी इतने सालों तक इसी फितूर में फसी थी । शादी से पहिले पिता को और शादी के बाद पति को यही तो कहते सुना था, पर खेल से असली पर्दा तो अब उठा जब करोना नें लॉकडाउन करा दिया और “वर्क फ्रॉम होम” चलन में आ गया ।

दो चार साल पहिले जब किसी को वर्क फ्रॉम होम करते सुनते थे तो जलन होती थी, असलियत तो अब समझ में आई….बेचारे।

असलियत तो सामने आई- आई, हकीकत भी सामने आ गयी, बड़े शौख़ से सुबह सुबह प्रोटीन शेक, लैपटॉप और टिफिन ले कर ऑफिस जाना, गॉसिप, टी- ब्रेक, मेल-बाज़ी, सुट्टा-ब्रेक, लंच-ब्रेक, स्नेक्स- ब्रेक और शाम को घर, इसे ही हम असल काम समझते रहे और इतना थका महसूस करते की कुछ और काम की गुंजाईश ना रहती । वर्क फ्रॉम होम में यही काम तीन चार घंटे में ख़तम और अब सिर्फ हम, हमारा लैपटॉप, बच्चे और श्रीमती जी……कैसे जस्टिफाई करते अपना नाइन टू एट वाला शेडयूल ।
शर्मिंदगी में आ के श्री मती जी से पूछ ही लिया बताओ “घर में कोई मदद कर सकते है ?”, ज़वाब मिला बच्चों को सम्हाल लीजिये बाकि हम कर लेंगे । हमसे रहा ना गया, सोचते रहे कौन सा काम है जो काम भी लगे और आसान भी हो। खाना पकाना, कपड़े धोना, बच्चे सम्हालना, झाड़ू पोछा जैसे कई कामों की लिस्ट बनायीं गयी और एनालिसिस कर के पोछा लगाने को सबसे आसान काम समझा गया । डंडे पे लगे कपड़े को बाल्टी में भिगोना और हॉकी की तरह ड्रिबल करना कौन सा बड़ा काम था ।

अगले दिन सुबह सुबह नाश्ते की टेबल पर ही ऐलान कर दिया, “आज पोछा हम लगायेंगे”, श्रीमती जी ने भी कुछ ना कहा और सहमती मे सर हिला दिया । समय आ चुका था, हमने बाल्टी उठाई, पोछा भिगोया और लगे ड्रिबल करने । तभी पीछे से आवाज़ आई, “अरे इतना गीला पोछा मत लगाइए”……
“गीला पोछा”!…, डीमोनाटाइजेशन, क्वारनटाइन, मोराटोरियम जैसे नए शब्दों की तरह यह शब्द भी कुछ अजीब सी सिहरन पैदा कर गया । मन ही मन हमने पूछा, इस निर्दयी समाज ने बेचारे पोछे को भी “गीले” और “सूखे” में बांट दिया क्या? खैर कौतूहलवश हमने श्रीमती जी को इस नए से लग रहे शब्द पर अधिक प्रकाश डालने को कहा, श्रीमती जी ने भी एक कुशल कोच की तरह पूरा प्रैक्टिकल करवा के समझाया ।

फिर तो क्या गीला, क्या सूखा, क्या चाय, क्या दाल, क्या छोला, श्रीमती जी प्रैक्टिकल करवाती गयीं और हमारे अंदर का पुरुष गृहकार्य की बारीकियों को सीखता चला गया । अब तो श्रीमती जी भी हमारे हाथ की चाय की मुरीद हैं ।

तो ज़नाब, अभी भी देर नहीं हुई है, यही समय है, अपने अंदर के पुरुष को एक विद्यार्थी मे बदलिए और घर में बैठी महिला से दो- चार गुण गृहकार्य के भी सीख लीजिये । जिस हिसाब से सेलिब्रिटी इन सब कामों को ट्रेंड करा रहे हैं कल को ऐसा न हो, आप की श्रीमती जी चार दोस्तों में बैठें और आप के इस हुनर कौशल का बखान न कर पाये ।

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