विशाख (नाटक) : जयशंकर प्रसाद

Vishakh (Hindi Play) : Jaishankar Prasad

परिचय : विशाख (नाटक)

भारत के प्राचीन इतिहास की जैसी कमी है वह पाठकों से छिपी नहीं है। यद्यपि धर्म-ग्रन्थों में सूत्र-रूप से बहुत-सी गाथायें मिलती हैं किन्तु वे क्रमबद्ध और घटना-परम्परा से युक्त नहीं है। संस्कृत-साहित्य में इतिहास नाम से लब्ध-प्रतिष्ठ केवल राजतरंगिणी नामक ग्रन्थ ही उपलब्ध होता है। कल्हण पण्डित ने अपने पूर्व के कई इतिहासों का और उनके लेखकों का उल्लेख किया है पर वे अब नहीं मिलते। यह नाटक, राजतरंगिणी की एक ऐतिहासिक घटना पर अवलम्बित है जिसका समय निर्धारण करना एक कठिन और इस नाटक से स्वतन्त्र विषय होगा। फिर भी उसका कुछ दिग्दर्शन करा देना इस परिचय का एक अंग होगा।

राजतरंगिणी का क्रम-बद्ध इतिहास तृतीय-गोनार्द से प्रारम्भ होता है जिसे कि कल्हण से पहले के विद्वानों ने लिखा है। इसके पहले के बावन राजाओं का नाम नहीं मिलता, क्योंकि युधिष्ठिर के समकालीन आदि गोनर्द से काश्मीर का इतिहास क्रम-बद्ध करने के लिये इतने राजा जान-बूझ कर भुला दिये जाते है, अथवा वे कोई वास्तविक राजा थे ही नहीं, केवल समय को पूरा करने के लिए उनके अस्तित्व की कल्पना कर ली गयी है। कल्हण के पहले से विद्वानों ने इस विस्तृत समय को 2268 वर्ष रक्खा है। कल्हण ने, कल्यब्द के 652 वर्ष बीतने पर भारत-युद्ध हुआ, ऐसा मान कर, उस समय को 1266 वर्ष की संख्या में घटा दिया है। और, आदि-गोनर्द से लेकर दूसरे गोनर्द तक और लव से लेकर शनीचर तक, फिर अशोक से लेकर अभिमन्यु तक कुल 17 राजाओं की सूची उन बावन विस्मृत राजाओं में से खोज निकाली गयी है, जिसे सम्भवतः पद्ममिहिर, हेलाराज इत्यादि पण्डितों ने ताम्रशासन विजयस्तम्भ, आज्ञापत्र तथा दानपत्र इत्यादि देखकर जैसे-जैसे ठीक किया था। इनके राज्यकाल जो कि इस ग्रन्थ में निर्धारित है, कहाँ तक ठीक है इसकी समीक्षा करनी होगी।

नवाविष्कृत ऐतिहासिक युग का प्रसिद्ध सम्राट् अशोक मौर्य अब अनजाने हुए इतिहास का बनावटी राजा न रहा। इसका समय अच्छी तरह निर्धारित हो चुका है। राजतरंगिणी के मत से इसका राज्य-काल गत-कलि 1734 से आरम्भ होकर गत-कलि 1795 तक है। कलि-संवत् ई. सन् से 3101 वर्ष पहले आरम्भ होता है। 3101 में से 1734 घटा देने से प्रकट होता है कि ईसा से 1367 वर्ष पहले राजतरंगिणी के मत से अशोक हुआ। अशोक आदि दो-चार प्रसिद्ध और ऐतिहासिक राजाओं का समय 150 वर्ष उन माने हुए 1266 विस्मृत वर्ष में से निकाल कर यदि वह काल्पनिक 1100 वर्ष इस 1367 बी. सी. में से निकाल दिया जाय तो 267 बी. सी. अशोक का राज्यकाल आधुनिक ऐतिहासिकों के मत से मिलता-जुलता-सा दिखाई पड़ता है।

एक लेखक महोदय ने राजतरगिणी के अशोक को अशोक मौर्य न होने का कोई प्रमाण ने देकर केवल 1100 वर्ष का अन्तर देखकर उसे एक दूसरा अशोक मान लेना चाहा है जिसका कि कोई प्रमाण नहीं है और जब कि उसके बाद पाँच-छः राजाओं के अनन्तर कनिष्क का नाम आता है जिसे कि अब ऐतिहासिक लोग प्रसिद्ध कुशन सम्राट् मानते हैं और नागार्जुन का उसका समकालीन होना बौद्ध लोग भी स्वीकार करते है जैसा कि राजतरंगिणी में भी मिलता है, तब हम इस राजतरगिणी के 1367 बी. सी. वाले अशोक को इतिहास सिद्ध 267 बी. सी. का क्यों न मान लें। क्योंकि मेरी समझ में विस्मृत राजाओं का 1100 वर्ष का समय ही यह भ्रम डाले हुये है। इतिहास को, प्राचीन सम्पन्न करने का प्रयत्न-रूपी 1100 वर्ष का काल्पनिक समय निकाल देने से यह इतिहास क्रम से चला चलेगा। आगे भी चलकर क्षति-पूर्ति स्वरूप 100 से लेकर 300 वर्ष काल्पनिक समय राजतरंगिणी में कई जगह मिलेंगे। जैसे रणादित्य का 300 वर्ष तक राज्य करना। इसी रणादित्य के बाद विक्रमादित्य और बालादित्य का नाम आता है जिनका समय 495 और 537 बी. सी. मिलता है।

ऊपर के विवरण से निर्धारित किया गया है कि विस्मृत राजाओं का काल्पनिक काल (जैसा कि अशोक और कनिष्क का समय-मिलान करने से स्पष्ट होता है) मन-गढ़न्त सा है।

राजतरगिणी के मत से इस नाटक के प्रधान पात्र नरदेव का राज-काल वि. पू. 970 है। उसमें 57 वर्ष जोड़ देने से 1027 ई. पू. समय निकलता है। वह काल्पनिक 1100 वर्ष का काल घटा देने से यह घटना ईसा की पहली शताब्दी की प्रतीत होती है। या, इसके एक या आधी शताब्दी और पीछे की हो सकती है।

इस प्रकार यह घटना संवत् 1800 वर्ष पहले की है। उस समय की रीति-नीति का परिचय होना कठिन तो है, फिर भी जहाँ तक हो सका है उसी काल का चित्रण करने का प्रयत्न किया गया।

पात्रों में प्रेमानन्द और महापिंगल आदि दो-एक कल्पित हैं, जो मुख्य काल के विरुद्ध नहीं।

- लेखक

पात्र-परिचय : विशाख (नाटक)

नरदेव : काश्मीर का राजा

महापिंगल : राजा का सहचर

सुश्रवा : नागसरदार

विशाख : ब्राह्मण नागरिक

प्रेमानन्द : संन्यासी

सत्यशील : कानीर विहार का बौद्ध महन्।

चन्द्रलेखा : सुश्रवा की कन्या

इरावती : चन्द्रलेखा की बहिन

रमणी : सुश्रवा की बहिन

तरला : महांपिंगल की स्त्री

रानी : नरदेव की स्त्री

सरला : गायिका

नाग, भिक्षु, दौवारिक, दासी, सैनिक, प्रहरी इत्यादि।

प्रथम अंक-प्रथम दृश्य : विशाख (नाटक)

(स्थान - काश्मीर का एक कुंज, पास ही हरा-भरा खेत, शिला-खण्ड पर बैठा हुआ स्नातक विशाख)

विशाख - (आप-ही-आप) -

वरूणालय चित्त-शान्त था,
अरुणा थी पहली नयी उषा;
तरुणाब्ज अतीत था खिला,
करुणा की मकरन्द वृष्टि थी;
सुषमा वनदेवता बनी-
करती आदर थी अनन्त की,
कल कोकिल कल्पनावली,
मुद में मंगल गान गा रही,
स्मृतियाँ सब जन्म-जन्म की-
खिलती थी सुमनावली बनी;
वह कौन ? कहाँ ? न ज्ञाता था,
सुख में केवल व्यस्त चित्त था।
वह बीत गया अतीत था,
तम-सन्ध्या उसको छिपा गयी,
न भविष्य रहा समीप में-
किसको चंचल चित्त सौंप दूँ ?

शैशव ! जब से तेरा साथ छूटा तब से असन्तोष, अतृप्ति और अटूट अभिलाषाओं ने हृदय को घोंसला बना डाला। इन विहंगमों का कलरव मन को शान्त होकर थोड़ी देर भी सोने नहीं देता। यौवन सुख के लिये आता है - यह एक भारी भ्रम है। आशामय भावी सुखों के लिए इसे कठोर कर्मों का संकलन ही कहना होगा। उन्नति के लिए मैं भी पहली दौड़ लगाने चला हूँ। देखूँ, क्या अदृष्ट में है। थोड़ा विश्राम कर लूँ, फिर चलूँगा। (वृक्ष के सहारे टिक जाता है)

(चन्द्रलेखा अपनी बहिन इरावती के साथ मलिन वेश में उसी खेत में आती है, सेम की फलियाँ तोड़ती है, विशाख उसे देखता है)

विशाख - (मन में)-

ऐसा सुन्दर रूप और वेश ऐसा मलिन !
सलोने अंग पर पट हो मलिन भी रंग लाता है।
कुसुम-रज से ढँका भी हो कमल फिर भी सुहाता है।।

विधाता की लीला ! ठीक भी है, रत्न मिट्टियों में से ही निकलते हैं। स्वर्ण से जड़ी हुई। मंजूषाओं ने तो कभी एक ही रत्न उत्पन्न नहीं किया। (फिर देखकर) इनकी दरिद्रता ने इन्हें सेम की फलियों पर ही निर्वाह का आदेश किया है।

(फलियां तोड़कर वृक्षों के नीचे विश्राम करती हुई दोनों गाती हैं)

चन्द्रलेखा -

सखी री ! सुख किसको हैं कहते ?
बीत रहा है जीवन सारा केवल दुख ही सहते ।।
करुणा, कान्त कल्पना है बस; दया न पड़ी दिखायी।
निर्दय जगत, कठोर हृदय है, और कहीं चल रहते।।
सखी री ! सुख किसको हैं कहते ?

विशाख - (सामने जाकर) - देवियों! आप कौन है? क्या कृपा करके बतावेंगी कि आपका दुःख किस प्रकार बाँटा जा सकता है? सौन्दर्य में सुर-सुन्दरियों को भी लज्जित करने वाली आप लोग क्यों दुखी हैं? और, ये फलियाँ आप क्यों एकत्र कर रही है?

इरावती - (भयभीत होकर) - क्षमा कीजिए, मैं अब कभी न इधर आऊँगी। दरिद्रता ने विवश किया है इसी से आज सेम की फलियाँ, पेट भरने के लिए, अपने बूढ़े बाप की रक्षा करने के लिए, तोड़ ली हैं। यदि आज्ञा हो तो इन्हें भी रख दूँ।

(सब फलियाँ उझल देती हैं)

चन्द्रलेखा - हां निर्दय दैव !

विशाख - डरो मत, डरो मत। मैं इस कानन या क्षेत्र का स्वामी नहीं हूँ। मैं तो एक पथिक हूँ। आप लोगों का शुभ नाम क्या है, परिचय क्या है ?

इरावती - हम दोनों सुश्रवा नाग की कन्यायें है। किसी समय मेरा पिता इस रमाण्याटवी प्रदेश का स्वामी था; और तब सब तरह के सुखों ने हम लोगों के शैशव में साथ दिया था। पर हा !

विशाख-उन बीती बातों को सोच कर हृदय को दुखी न बनाओ। अपना शुभ नाम बताओ।

इरावती - मेरा नाम इरावती है और इस मेरी छोटी बहिन का नाम चन्द्रलेखा है।

विशाख - सच तो-

घने घन-बीच कुछ अवकाश में यह चन्द्रलेखा-सी।
मलिन पट में मनोहर है निकष पर हेम-रेखा-सी।

(चन्द्रलेखा लज्जित होती है और हट जाती)

इरावती - भद्र, हम लोग दारिद्रय पीड़िता हैं, फिर आप भी उपहास करके अपमानित करते हैं !

विशाख - देवी, क्षमा करना मेरा अभिप्राय ऐसा कभी नहीं था - (रुक कर) - हाँ आप लोगों की यह दशा कैसे हुई ?

इरावती - देव ! हम नागों की सारी भू-सम्पत्ति हरण करके इस क्षत्रिय राजा ने एक बौद्धमठ में दान कर दिया है !

विशाख - (स्वगत) क्यों न हो, इसी को तो आजकल धर्म कहते हैं। किसी भी प्रकार से उपार्जित धन को धर्म में व्यय करने का अधिकार ही कहाँ है। ऐसों को धर्मात्मा कहें कि दुष्टात्मा ! क्योंकि वे यह नहीं जानते कि दूसरों का गला काट कर कोई धर्मशाला, मठ या मन्दिर बना देने से ही उनका पाप नहीं घुल जाता है। अच्छा फिर -

इरावती - हम लोग तबसे अन्नहीन, दीन-दशा में, कष्टमयी स्थिति में जीवन व्यतीत कर रही हैं। इन क्षेत्रों का अन्न यदि गिरा पड़ा भी कभी बटोर ले जाती हूँ तो भी डर कर, छिपकर ।

विशाख - आप लोगों के पिता से कहाँ भेंट हो सकती है ? अभी तो मैं तक्षशिला से पढ़कर लौटा आ रहा हूँ, संसार में मेरा अभी कुछ समझा हुआ नहीं है। इसलिये व्यवहार की दृष्टि से यदि मेरा कोई प्रश्न अनुचित भी हो तो, देवियों ! क्षम्य है।

इरावती - फिर आप क्यों इस पचड़े में पड़ते हैं ?

विशाख - उपाध्याय ने यह उपदेश दिया है कि दुखी की अवश्य सहायता करनी चाहिए। इसलिये ये मेरी इच्छा है कि मेरी सेवा आप लोगों के सुख के लिये हो।

इरावती - भद्र ! आपकी बड़ी दया है। किन्तु आप इस झंझट में न पड़े।

विशाख - (स्वगत) - मैं तो कभी न पड़ता यदि संसार में पदार्पण करने की प्रतिपदा तिथि में यह चन्द्रलेखा न दिखलाई पड़ती। (प्रकट) संसार में रह कर कौन इससे अलग हो सकता है !

चन्द्रलेखा - (स्वगत) - धन्य पर-दुःख-कातरता !

इरावती - रमणकहृद पर मेरे पिता रहते हैं, वहीं आप उनसे मिल सकते हैं। (बौद्ध महन्त को आते देख) - यह महन्त बड़ा ही भयानक है। आप इससे सचेत रहियेगा। वह देखिये आ रहा है। अब हम लोग चली जायें, नहीं तो...

विशाख - घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है, आप लोग जायें। मैं अभी कुछ उससे बातचीत करूँगा।

(चन्द्रलेखा और इरावती जाती है, बौद्ध भिक्षु का प्रवेश)

महन्त - (आप-ही-आप) ऐसा खेत किसी का भी नहीं है। किन्तु हाँ, जानवरों से बढ़कर उन लोगों से इसकी रक्षा होनी चाहिए जो दो पैर के पशु है ! (गाता है।)

जीवन भर आनन्द मनावे,
खाये पीये जो कुछ पावे।
लोग कहें छोड़ो यह तृष्णा - लिपट रही है साँपिन कृष्णा,
सुखद बना संसार कुहक है, क्यों छुटकारा पावे।
जननी अपनी हाथों से जब बालक को ताड़न करती,
रोकर करुणाप्लुत हो सुत फिर माँ को उसी बुलावे।
उसी तरह से दुख पाकर भी, मानव रोकर या गाकर भी ।
संसृति को सर्वस्व मानता, इसमें ही सुख पावे।

विशाख - (सामने आकर) - महास्थविर, अभिवादन करता हूँ।

भिक्षु - धर्म-लाभ हो। किन्तु यह तो कहो, इस तरह तुम यहाँ क्यों छिपे हो ! मेरा खेत तो...

विशाख - चर नहीं गया, आप घबरायें नहीं।

भिक्षु - नहीं, नहीं; इससे हमारे-जैसे अनेक धार्मिक और निरीह व्यक्तियों का निर्वाह होता है, इसलिए इसकी रक्षा करनी उचित है।

विशाख - आपको यह भूमि किसने दी है ? आपका इस पर कैसा अधिकार है ?

भिक्षु - (क्रोध से) - तू कौन ? राजा का साला कि नाती कि घोड़ा; तुझसे मतलब?

विशाख - मैंने अच्छी तरह विचार कर लिया है कि आपको इतनी भूमि का अन्न खाकर और मोटा होने की आवश्यकता नहीं।

भिक्षु - और तुझे है ? चला जा सीधे यहाँ से, नहीं तो अभी खेत की चोरी में पकड़ा दूँगा, यह लम्बी चौड़ी बहस भूल जायेगी। अरे दौड़ो-दौड़ो !

विशाख - (एक ओर देखकर) - अरे वह देखो भेड़िया आया !

(भिक्षु घबरा कर गिर पड़ता है और विशाख चला जाता है)

भिक्षु - (इधर-उधर देखकर उठता हुआ) - धत्तेरे की ! धूर्त बड़ा दुष्ट था। चला गया, नहीं तो मारे डण्डों के मारे डण्डों के - (डण्डा पटकता) - खोपड़ी तोड़ डालता !

(सुश्रवा नाग गाता हुआ आता है - )

उठती है लहर हरी-हरी पतवार पुरानी, पवन प्रलय का, कैसा किए पछेड़ा है
उठती है लहर हरी-हरी।
निस्तब्ध जगत है, कहीं नहीं कुछ फिर भी मचा बखेड़ा है
उठती है लहर हरी-हरी
नक्षत्र नहीं हैं कुहू निशा में, बीच नदी में बेड़ा है
उठती है लहर हरी-हरी।
‘हाँ पार लगेगा घबराओं मत’ किसने यह स्वर छेड़ा है?
उठती है लहर हरी-हरी।

भिक्षु - ऐ बेड़ा बखेड़ा ! खेत मत रौंद, नहीं तो पैर तोड़ दूंगा।

सुश्रवा - नहीं महाराज, मैं तो पगडंडी से जा रहा हूँ।

भिक्षु - मुझी को अन्धा बनाता है।

सुश्रवा - हां दुर्दैव ! यह हमारे पितृ-पितामहों की भूमि थी ? उसी पर चलने में यह कदर्थना !

भिक्षु - क्या ! क्या ! क्या ! यह हमारे पितृ-पितामहों की भूमि थी ? अरे मूर्ख, भूमि किसकी हुई है ? यदि तेरे बाप-दादों की थी तो मेरे भी लकड़दादा, नकड़दादा या किसी खपड़दादा की रही होगी। क्या तू इस पर चल-फिर कर अपना अधिकार जमाना चाहता है ? निकल जा यहाँ से, चला जा - (उसे ढकेलता है, सुश्रवा गिरकर उठता है)

सुश्रवा - जब तुमको इतनी तृष्णा है तो फिर मैं तो बाल-बच्चों वाला गृहस्थ हूँ; यदि मेरे मुँह से दबी हुई आत्मश्लाघा निकल ही पड़ी तो फिर उस पर इतना क्रोध क्यों? तुम जानते हो, मैं वही सुश्रवा नाग हूँ जिसके आतंक से यह रमणक प्रदेश थर्राता था ! अभी भी तुम्हारे जैसे कीड़ों को मसल डालने के लिए इन वृद्ध बाँहों में कम बल नहीं है!

भिक्षु - (डरता हुआ भी घुड़क कर) - चुपचाप चला जा, नहीं तो कान सीधे कर दिए जायँगे।

सुश्रवा - क्या मैंने कुछ अपराध किया है जो दबकर चला जाऊँ ? ठहर जा, अभी कचूमर निकालता हूं ?- (डंडा उठाता है)

भिक्षु - (स्वगत) डण्डा तो मेरे पास भी है पर काम गले से लेना चाहिए। (प्रकट) अरे दौड़ो, यह मुझे मारता है; कोई विहार में है कि नहीं ई ई ई ? (पाँच सात युवा भिक्षु निकल पड़ते हैं और उस वृद्ध सुश्रवा को पकड़ लेते हैं। दौड़ती हुई चन्द्रलेखा आती है)

चन्द्रलेखा - मैं तो खोज रही थी, अभी ही घर से निकल पड़े है। जाने दो। क्षमा करो। मुझे मार लो। मेरे बूढ़े पिता को छोड़ दो।

(घुटने के बल बैठ जाती है)

भिक्षु - अर र, र, यह कहाँ से आ गई ! छोड़ों जी, उस बूढ़े को छोड़ दो ! जब यह स्वयं कहती है तो उसे छोड़ दो, इसे ही पकड़ लो !

(सब भिक्षु आपस में इंगित करते हुए बूढ़े को छोड़कर चन्द्रलेखा को पकड़ ले जाते हैं। महन्त भी जाता है। सुश्रवा मूर्छित होकर गिर पड़ता है)

[पट-परिवर्तन]

प्रथम अंक-द्वितीय दृश्य : विशाख (नाटक)

(स्थान-राजद्वार के समीप छोटा-सा उपवन)

(महापिंगल और विशाख)

महा. - क्यों, हमको जानते हो - हम कौन हैं ?

विशाख - क्षमा कीजियेगा, अभी तक पूरी जानकारी नहीं है। फिर भी आप मनुष्य हैं, इतना तो अवश्य कह सकूंगा।

महा. - मूर्ख, महामूर्ख; विदित होता है कि अभी तक कोरे बछड़े हो। पाठशाला का जूआ फेंक कर या तोड़-ताड़ कर भागे हो ! राजसभा के विनय-पाठ तुमको सिखाये नहीं गए क्या ? बताओ तो तुम्हारा कौन शिक्षक है, उसे अभी शिक्षा दूंगा !

विशाख - मेरे शिक्षक आपकी तरह कोई दुमदार वा उपाधिधारी जीव नहीं है। उन्हीं के यहाँ तुम्हारे ऐसे कोड़ियों पशु, राजमान्य मनुष्य बनाये जाते हैं।

महा. - मैं उन महाराज की, जिनके यहाँ बुद्धि नाटकों के स्वगत की तरह रहती हैं, आँख, नाक और कान हूँ, तुम नहीं जानते ?

विशाख - आँख, नाक और कान ? कदापि नहीं, हाँ चरण-रज हो सकते हो।

महा. - चुप रह, क्या बड़-बड़ करता है।

विशाख - धन्य ! ऐसे शब्द मुँह से निकालना आप ही को आता है। भला कहिए, बुद्धि नाटकों के स्वगत की तरह कैसी ?

महा. - जैसे नाटकों के पात्र स्वगत जो कहते हैं, वह दर्शक-समाज वा रंग-मञ्च तो सुन लेता है, पर पास का खड़ा हुआ दूसरा पात्र नहीं सुन सकता, उसको भरत बाबा की शपथ है; उसी तरह राजा की बुद्धि, देश भर का न्याय करती है, पर राजा को न्याय नहीं सिखा सकती।

विशाख - फिर आप लोगों का कैसे निर्वाह होता है ?

महा. - अरे लण्ठ ? अभी मूर्खता का क, ख, ग, घ, पढ़ रहा है ! तुझे यह पूछना चाहिए कि हमारे ऐसे दुमदारों के बिना बिचारे राजा की क्या स्थिति होती ? वे कैसे रहते? उठ-बैठ सकते कि नहीं ? उनकी समझ की ज्वाला में आहुति पड़ती कि नहीं ?

विशाख - अस्तु वस्तु, वही कहिये, वही कहिये।

महा. - महाराज को हमारे ऐसे यदि दो-चार चाटुकार सामन्त न मिलते तो उन्हें बुद्धि का अजीर्ण हो जाता - और उनकी हाँ-में-हाँ न मिलने से फिर भयानक वात की संग्रहणी हो जाती और निरीह प्रजा से अनेक विधानों से कर न मिलने के कारण उन्हें उपवास करके ही अच्छा होना पड़ता।

विशाख - (बात को दूसरे रुख पर ले जाने के लिए) - मेरा मन गाना सुनना चाहता है।

महा. - तो क्या तुमने यह कोई नाट्य-गृह समझ रखा है।

विशाख - खेद, साहित्य और संगीत तो सुयोग्य नागरिकों को ही आता है। मैंने आपके गाने की बड़ी प्रशंसा सुनी है, इसी से - हाँ।

महा. - (प्रसन्न होकर) तुम रसिक भी हो। अच्छा-अच्छा, सुनाऊँगा, ठहरो, चित्त उसके अनुकूल हो जाय - (खाँसता है)

विशाख - (अलग) - मुझे तो बच्चा, तुमसे काम निकालना है। (प्रकट) चित्त को भी स्वर के साथ मिलाना पड़ता है। संगीत क्या साधारण...

महा. - तुमने भी कैसी अच्छी संगीत-विज्ञान की बात कही है, वाद्य तो पीछे मिलता है, पहले मन तो मिले।

विशाख - मन मिलने से कण्ठ मिलता है।

महा. - यथार्थ है, क्या कहा - वाह वाह ! अच्छा गाता हूँ - (खाँसता है।)

(महापिंगल भीषण स्वर में गाता है - )

मचा है जग भर में अन्धेर।
ऊल्टा-सीधा जो कुछ समझा वहीं हो गया ढेर।
बुद्धि अन्ध के हाथों जैसे कोई लगी, बटेर,
किसी तरह से करो उड़न्छू औरों का धन ढेर।
बक-बक करके चुप कर दो बस चतुर हुये, क्या देर?
चलती है यह चला करेगी चालें इसकी घेर।
चतुर सयाने किया करेंगे इसमें हेराफेर।
मचा है जग भर में अन्धेर।

विशाख - धन्य धन्य, क्या गाया !

महा. - तुम्हारा सिर ! और क्या ? ऐसा मूर्ख तो देखा नहीं। कहाँ से यहाँ चला आया; निकल जा जहाँ से ! कोई है ?

विशाख - क्षमा हो, मुझसे अपराध क्या हुआ ? मैं तो एक क्षुद्र-जीव आपका शरणागत हूँ।

महा. - हाँ बच्चा ! अब तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। बड़े लोगों का चित्त अव्यवस्थित रहता है, वह अपना भूला हुआ क्रोध कभी अचानक ध्यान कर लेने पर, इसी तरह बिगड़ बैठते हैं। उस समय उनकी बातों से इसी तरह ठण्डा करना चाहिए। अब तुमको राजा का दर्शन मिलेगा।

विशाख - (अलग) - हे भगवान, तो क्या ये आदमी भी काटने वाले कुत्तों से कम हैं ! उनको क्रोध का रोग होता है या अभिमान और गर्व दिखलाने का यह बहाना है ? (प्रकट) श्रीमन् कब ?

महा. - अच्छा फिर कभी आना। क्या राजा लोग इस तरह शीघ्र किसी से भेंट करते हैं। हाँ तुम्हारा अभीष्ट क्या है ? सो तो कहो।

विशाख - कुछ नहीं, एक सुन्दरी की कुछ करुण कथा निवेदन करनी है। उसके दुःख मोचन की प्रार्थना है।

महा. - क्या विरह-निवेदन ! तब तो महाराज से तुम्हें शीघ्र मिला दूँगा। किन्तु कुछ गड़बड़ बातें न कहना।

विशाख - श्रीमान् राज-सहचर है। बौद्ध साधु की कुकर्म-कथा राजा के कानों तक पहुँचाना मेरा अभीष्ट है, उसने एक सुन्दरी को अपने मठ में बन्द कर रखा है।

महा. - सुन्दरी और साधु का सरस प्रयोग है - साधु वर्ण विन्यास है, सु... सा...साहित्य का सुन्दर समावेश है। फिर तुम्हारे-से अरसिक उसमें गड़बड़ क्यों मचाना चाहते हैं?

विशाख - श्रीमान् ! आपके कानों ने आपकी बुद्धि को मूर्ख बनाया है। साधु ने सुन्दरी को पकड़ मंगाया है, कुछ सुन्दरी ने साधुता नहीं ग्रहण की है।

महा. - सत्य है क्या ? बौद्ध भिक्षु होकर अपने मठ में उसने स्त्री रख ली है !

विशाख - वे तो उसे मठ नहीं, विहार कहते हैं !

महा. - अच्छा चलो, तुम्हें राजा से मिलाता हूँ।

[पट-परिवर्तन]

प्रथम अंक-तृतीय दृश्य : विशाख (नाटक)

(स्थान - राज-सभा; महाराज नरदेव सिंहासनासीन हैं। नर्तकी नाचती और गाती है -)

कुञ्ज में वंशी बजती है !
स्वर में खिंचा जा रहा मन, क्यों बुद्धि बरजती है,
संध्या रागमयी, तानों का भूषण सजती है,
दौड़, चलूँ, देखूँ लज्जा अब मुझको तजती है,
कुञ्ज में वंशी बजती है !

नरदेव - वाह वाह ! कुछ और गाओ -

(नर्तकी नमस्कार करके फिर गाती है-)

आज मधु पी ले, यौवन बसन्त खिला !
शीतल निभृत प्रभात में बैठ हृदय के कुञ्ज,
कोकिल कलरव कर रहा, बरसाता सुख पुञ्ज,
देख मञ्जरित रसाल हिला?
आज मधु पीले, यौवन, वसन्त खिला?
चन्दन-वन की छाँह में, चलकर मन्द से मीर,
अब मेरा निःश्वास हो, करता किसे अधीर,
मधुप क्यों मञ्जु मुकुल से मिला?
आज मधु पी ले, यौवन वसन्त खिला!

नरदेव - प्रतीहारी ! इन्हें पुरस्कार दिलाओ।

प्रतीहारी - जो आज्ञा । (नर्तकी जाती है)

नरदेव - आज महापिंगल दिखाई नहीं देता, कहाँ है ?

सभासद - महाराज, आज उसके यहाँ प्रीति-भोज है। हम सबों का न्योता है। उसी में व्यस्त होगा।

महा. - (दौड़ा हुआ आता है) दोहाई महाराज, झूठ बिल्कुल झूठ ! यह सब हमारा घर खा डालना चाहते हैं। लम्बी-चौड़ी प्रशंसा करके, तुम्हारे नाम जो है सो, सब खा गए। और न्योता सिर पर। हम बुलायें या नहीं, ये सब आप ही नायी बनकर अपने को न्योंत लेते हैं।

सभासद - पृथ्वीनाथ ! यह बड़ा कंजूस है। नित्य कहता है कि आज खिलायेंगे, कल खिलायेंगे, कभी इसने हाथ भी न धुलाया।

महा. - कोई है जी, लाओ पानी, इनका हाथ धुला दो, तनिक मुँह तो देखो, पहले उसे धो लो ! कहीं से माल उठा, लाए हैं, जो है सो तुम्हारे नाम, खिलाओ ! खिलाओ! और जब खा-पी चुके तब बड़े भारी शास्त्री की तरह आलोचना करने लगे ! उसमें नमक विशेष था, खीर में मीठा कुछ फीका था। लड्डू गीला था ऐं ?

सभासद - वह तो जब हम लोग संध्या को पहुंचेंगे तब मालूम होगा ?

महा. - अरे बाबा, तुम्हें प्रीति-भोज ही लेना है तो उन मालदार महन्तों के यहाँ क्यों नहीं जाते, जहाँ नित्य मालपुए और लड्डू बना करते हैं। यदि कुत्ते की तरह बाहर भी बैठे रहोगे तो जूठी पत्तलों से पेट भर जाएगा।

सभासद - तुम बड़े असभ्य हो !

महा. - और यह बड़े सभ्य हैं, जो बिना बुलाए भोजन करने को प्रस्तुत हैं। जाओ-जाओ, बड़े-बड़े बिहारों में यदि तुम मिट्टी फेंकते तो भी लड्डू के लिए लालायित न रहते।

नरदेव - आज तो बौद्ध महंत और विहारों के पीछे बहुत पड़ रहे हो! कुशल तो है?

महा. - महाराज ! अब तो मैं तपस्या करूँगा कि यदि पुनर्जन्म हो, तो मैं किसी विहार का महन्त होऊँ। राज-कर से मुक्ति, अच्छी खासी जमींदारी, बड़े-बड़े लोग सिर झुकावें और चेली लोग पैर दबावें, तुम्हारे नाम जो है सो।

नरदेव - चुप मूर्ख ! भिक्षुओं के साथ हंसी ठीक नहीं, वे पूजनीय हैं।

महा. - क्षमा हो पृथ्वीनाथ, उसी झगड़े में देर हुई है। अभी उनकी साधुता का सुन्दर नमूना ड्योढ़ी पर है। यदि आज्ञा हो तो बुलाऊँ।

नरदेव - क्यों कोई आया है ?

महा. - हाँ एक दुःखी विनती सुनाने आया है।

नरदेव - उसे बुलाओ।

महा. - जो आज्ञा - (जाता है, विशाख को लेकर आता हैं)

विशाख - जय हो देव ! राज्य-श्री बढ़े ! प्रजा का कल्याण हो।

नरदेव - प्रणाम ब्राह्मण देवता - कहिए क्या काम है ?

विशाख - राजन् ! पुण्य को पाप न होने देना, आप ही से प्रबल प्रतापी नरेशों का कर्तव्य है।

नरदेव - उसका अर्थ, सविस्तार कहिए।

विशाख - कानीर विहार का बौद्ध महन्त जिसे राज्य की ओर से बहुत-सी सम्पत्ति मिली है, प्रमादी हो गया है। दीन-दुखियों की कुछ नहीं सुनता - मोटे निठल्लों को एकत्र करके विहार में बिहार कर रहा है। एक दरिद्र नाग की कन्या को अकारण पकड़ कर अपने मठ में बन्द कर रखा है। उसका वृद्ध पिता दुःखी होकर द्वार-द्वार विलाप कर रहा है।

नरदेव - क्या ? मेरे राज्य में ऐसा अन्याय और सो भी राजधानी के समीप ही ! भला वह किसकी कन्या है ?

विशाख - पृथ्वीनाथ, सुश्रवा नाग की। उसी की भूमि अपहृत करके - आपके स्वर्गीय पिता ने विहार में दान कर दिया था।

मंत्री - चुप मूर्ख, राज-सभा में तुझे बोलना नहीं आता, अपहृत कैसी ? भूमि का अधिपति तो राजा है, वह जब जिसे चाहे दे सकता है।

विशाख - क्षमा मंत्रिवर ! क्षमा ! बोलना तो आता है; परन्तु क्या राजसभा में सत्य उपेक्षित रहता है? यदि ऐसा हो, तो हम क्षम्य हैं, क्योंकि हम अभी गुरुकुल से निकले हैं, राज्य-व्यवहार से अनभिज्ञ हैं।

नरदेव - बस ब्राह्मणदेव पर्याप्त हुआ (मंत्री से) क्यों मन्त्रिवर; क्या यही प्रबन्ध राज्य का है ? खेद की बात है। अभी इस ब्राह्मण की बातों की खोज की जाय, और गुप्त रीति से। देखो आलस न हो ! हम स्वयं इसका न्याय करेंगे।

महा. - स्वामी, ये भी तो ‘ग्राम कण्टक’ हैं। इनकी अवश्य खोज लेनी चाहिए। शास्त्र में लिखा भी है ‘कण्टकेनैव कण्टक’ जो है सो।

नरदेव - चुप रहो, तुम्हारी बातें अच्छी नहीं लगतीं। मंत्री शीघ्र प्रबन्ध करो, बस जाओ।

(मंत्री और विशाख तथा महापिंगल जाते हैं)

[पट-परिवर्तन]

प्रथम अंक-चतुर्थ दृश्य : विशाख (नाटक)

(स्थान - विहार के समीप का पथ)

(एक रंगीला साधु गाता हुआ आता है)

साधु -

तू खोजता किसे, अरे आनन्दरूप है।
उस प्रेम के प्रभाव ने पागल बना दिया।
सब को ममत्त्व मोह का आसव पिला दिया।।
अपने पै आप मर रहा यह भ्रम अनूप है।।
यह सत्य यही स्वर्ग यही पुण्य-घोष है।
सत्कर्म कर्मयोग यही विश्व कोश है।।
किसने कहा कि झूठ है संसार कूप है।।
सेवा, परोपकार, प्रेम सत्य कल्पना।
इनके नियम अमोघ और झूठा जल्पना।।
हो शान्ति की सत्ता वही शक्ति-स्वरूप है।।
आसक्ति अन्य पर न किसी अन्य के लिये।
उसका ममत्व घूम रहा चेतना के लिये।
सर्वस्व उसी का वही सब का स्वरूप है।।
वह है कि नहीं है ? विचित्र प्रश्न मत करो।
इस विश्व दयासिन्धू बीच सन्तरण करो।।
वह और कुछ नहीं, विशाल विश्व-रूप है;
तू खोजता किसे अरे आनन्दरूप है।।

भिक्षु - (विहार से निकल कर) - वन्दे !

साधु - स्वस्ति ! आनन्द ! कहो जी, इस विहार का क्या नाम है और इसके स्थविर कौन हैं ?

भिक्षु - महाशय, आर्य सत्यशील इस विहार के स्थविर हैं और कानीर विहार इसका नाम है।

साधु - वाह, क्या यहाँ आतिथ्य के लिये भी कोई प्रबन्ध है ? क्या कोई श्रमण अतिथि रूप से यहाँ थोड़ा विश्राम कर सकता है ?

भिक्षु - आर्य, आपका शुभ नाम सुनूँ, फिर जाकर स्थविर से निवेदन करूँ।

साधु - कह देना कि प्रेमानन्द आया है।

(भिक्षु भीतर जाकर लौट आता है।)

भिक्षु - चलिये, आतिथ्य के लिए हम लोग प्रस्तुत हैं।

(बड़बड़ाता हुआ विशाख आता है)

विशाख - (आप ही) - सिर घुटाते ही ओले पड़े। कोई चिन्ता नहीं। इसी में तो आना था। झञ्झट जितनी जल्द आवे और चली जावे तो अच्छा ! अच्छा हम जो इस पचड़े में पड़े तो हमको क्या ? परोपकार ! ना बाबा ! झूठ बोलना पाप है। चन्द्रलेखा को यदि न देखता, तो सम्भव है कि यह धर्म-भाव न जगता। मैंने सुना है कि मेरे गुरुदेव श्री प्रेमानन्दजी आये हैं और इसी अधर्म विहार में ठहरे हैं। वह भिक्षु तो मुझे देखते ही काटने को दौड़ेगा; फिर भी कुछ चिन्ता नहीं, गुरुदेव का तो दर्शन अवश्य करूँगा (उच्च स्वर में) अजी यहाँ कौन है ?

भिक्षु - (बाहर निकल कर) क्या है जी, क्या कोलाहल मचाया है ?

विशाख - गुरुजी यहाँ पधारे है, मैं उनका दर्शन करना चाहता हूँ।

भिक्षु - कौन ? तुम्हारे गुरुजी कौन हैं ; एक प्रेमानन्द नाम का संन्यासी आया है। क्या वही तो तुम्हारा गुरु नहीं है ?

विशाख - क्या तुम उसी स्थविर के चेले हो, जिसने कि एक अनूढ़ा कन्या को पकड़ कर रखा है।

भिक्षु - क्या तुम झगड़ा करने आये हो ?

विशाख - क्या तुम को शील और विनय की शिक्षा नहीं मिली है ?

भिक्षु - अशिष्ट पुरुषों के लिये अन्य प्रकार का शिष्टाचार है। और अब तुम यहाँ से सीधे चले जाओ, इसी में तुम्हारी भलाई है ?

विशाख - बस ! मिट्टी के बर्तन थोड़ी ही आँच में तड़क जाते हैं। नये पशु एक ही प्रहार में भड़क जाते हैं। यह राजपथ है, यहां से हटाने का तुम्हें अधिकार नहीं है । वस अब तुम्हीं अपने विहार-बिल में घुस जाओ !

भिक्षु-(कमर बाँधता हुआ) तो क्या तुम नही जाओगे ?

विशाख-समझ लो, कही गांठ पड़ जायगी तो कमर न खुलेगी, और तुम्हें ही व्यथा होगी (हंसता है)।

[सत्यशील और प्रेमानन्द निकल पड़ते हैं]

सत्यशील-क्या है ? क्यों झगड़ते हो ? (विशाख को देखता है)

प्रेमानन्द-विशाख । यह क्या है ? (विशाख अभिवादन करता है)

विशख-गुरुदेव, आपका यहाँ आना सुनकर मैं भी चला आया।

प्रेमानन्द-क्या तुम अभी अपने घर नही गये ?

विशाख -गुरुकुल से निकलते ही कर्तव्य सामने मिला। आपकी आज्ञा थी कि सेवा, परोपकार और दुखी की महायता मनुष्य के प्रधान कर्तव्य है ।

प्रेमानन्द -भला ! तुम्हारे कार्य का विवरण तो सुनूं ।

विशाख-मुझे कहते संकोच होता है।

प्रेमानन्द- नहीं । संकोच की क्या आवश्यकता है, स्पष्ट कह सकते हो।

विशाख-आपने जिनका आतिथ्य ग्रहण किया है, इन्हीं महात्मा ने एक कुटुम्ब को बड़ा दुखी बनाया है, और उसकी कन्या को अपने विहार में बन्द कर रक्खा है।

प्रेमानन्द-सत्यशील, क्या यह सत्य है ?

सत्यशील-तुम कौन होते हो। अजी तुमने किस संघ मे उपसम्पदा ग्रहण की है ? केवल सिर घुटा लेने से ही श्रमण नही होता, हाँ । पहले अपनी तो कहो, तुम्हें प्रश्न करने का क्या अधिकार है ? क्या आतिथ्य का यही प्रतिकार है ? बस चले जाओ सीधे, हाँ !

प्रेमानन्द-मैं शाश्वत संघ का अनुयायी हूँ । प्रेम की सत्ता को संसार में जगाना मेरा कर्तव्य है। तो भी संसारी नियम, जिसमें समाज का सामंजस्य बना रहे, पालनीय हैं, और तुम उससे उपेक्षा दिखलाते हो। क्या तुम उस कन्या को न छोड़ दोगे ? क्या धर्म की आड़ में प्रभूत पाप बटोरोगे ?

सत्यशील--तुम्हें यहाँ से जाना है या नहीं ?

विशाख-गुरुदेव सहनशीलता की भी सीमा होती है। अब आप इस पाखण्डी से बात न कीजिये । घड़ा भर गया है ! स्वतः फूटेगा।

(अधूरी रचना)

  • मुख्य पृष्ठ : जयशंकर प्रसाद; सम्पूर्ण हिन्दी कहानियाँ, नाटक, उपन्यास और निबन्ध
  • मुख्य पृष्ठ : सम्पूर्ण काव्य रचनाएँ ; जयशंकर प्रसाद
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां