विरासत (पारम्पर्यम्) (मलयालम कहानी) : तकषी शिवशंकर पिल्लै

Virasat (Malayalam Story in Hindi) : Thakazhi Sivasankara Pillai

एक दिन सवेरे वह भिखारी धानी पर पीठ लगाये मृत दिखाई दिया। धानी में एक छोटी-सी पोटली और उस पर एक तलवार रखी थी। बाजार के दुकानदार और दूसरे लोग वहाँ जमा हो गये। सभी सहानुभूति के दो-चार शब्द कहने लगे।

बेचारा निरुपद्रवी था, पता नहीं किस जगह का है! वहाँ आये दो साल हो गये थे उसे। किसी से बोलता नहीं था। 'नायर' जाति को छोड़कर किसी का कुछ खाता-पीता नहीं था। धानी पर अंकित वाक्य पढ़ने की वह कोशिश किया करता। रात को चबूतरे पर सो जाता। कपड़े में लिपटी एक तलवार योद्धा की तरह पकड़े वह चलता था और इसे छोड़कर उसमें पागलपन का दूसरा कोई लक्षण नहीं था।

पुलिस ने आकर लाश की परीक्षा की।

वही एक पुरानी तलवार थी। पोटली में एक ताँबे का पट्ट और एक खत था। ताँबे के पट्ट पर कुछ लिखा था। किसी पुरानी लिपि में, पढ़ा नहीं जाता। खत में लिखा था-

उस भिखारी की लाश राहगीरों को झंझट बन जाती है, जो रास्ते के किनारे मर जाता है। वह चाहे सीधा लेटा हो या सिकुड़कर या फिर बन्द आँखें और खुले मुँह पड़ा हो, राहगीर के मुँह पर बल पड़ जाते हैं। भिखारी एक बड़ा प्रश्नचिह्न है, जो कई जवाबों से भी नहीं मिट पाता।

उस भिखारी का जीवन-चरित्र वैसे अज्ञात नहीं कहा जा सकता जो रास्ते के किनारे मर जाता है। हर अनाथ-प्रेत को कोई-न-कोई सन्देश देना होगा। अन्तिम प्यास में खुला हआ मुँह-एक बूंद पानी न मिलने से बन्द नहीं हो पाया, कौओं ने आँखें चिकोर डालीं-दुनिया को अच्छा सबक मिल जाता है इनसे। रास्ते के किनारे ऐसे दृश्य कम ही देखे जाते हैं।

मुझे भी अपनी मृत्यु के द्वारा एक सन्देश देना है। मैं जन्मा था और जिन्दा रहा-मरने के लिए, इसलिए मेरे जीवन का उद्देश्य वही है। मेरा सन्देश युगों से, आगे की पीढ़ियों के कानों तक पहुँचेगा।

मेरा जन्म हुआ था, आठ कमरोंवाले तलघर में। मुझे अन्नप्राशन कराया था, मेरे बड़े मामा ने, लोगों के बाबूजी ने, जिसने मुझे सोने का हार और करधनी पहनाये थे, जो लाखों की तादाद में धान और रुपये का कारोबार करते थे।

मेरे घर का इतिहास, इतिहास से भी पुराना है। मेरे घर में सोने का धान और सोने का ही 'कदली' था। जब मैं छोटा बच्चा था, दादी माँ मुझे गोद में बिठाकर कहानियाँ सुनाया करती थीं, हमारे परिवार के परदादाओं की कहानियाँ।

जादूगर मामाजी ने अमावस्या की रात को चन्द्रमा को चढ़ाया था। उन्हीं को अखाड़े के पीछे बिठा दिया गया है। अखाड़े में रखी वह तलवार मेरे उन मामाजी की है, जो चेरमान पेरुमाल (केरल के पुराने राजा) के साथ लड़ने गये थे। सोने का धान और दस वजन सोना उन्हीं का लाया हुआ है! एक मामाजी चम्पकशेरि राजा के सेवक थे जिनके कारण इतनी जमीन करमुक्त मिली थी। तहसीलदार मामाजी को दादीमाँ ने देखा है।

मैं उन्हीं मामाओं का भानजा हूँ। मुझे लगा कि जिसने भी मुझे देखा, उसकी स्मृति में ये पुरानी बातें रही होंगी। इसलिए सब लोग मुझे 'सॉब' कहकर पुकारते हैं।

मेरा बचपन बीत रहा था। उन दिनों मेरे घर पर कुछ उलझनें आ पड़ी थीं। मुझे पता नहीं था कि क्या हुआ है। कुछ घटनाएँ याद हैं। माँ और मामाओं के बीच झगड़ा हो गया था। उस दिन भोजन नहीं बना था। फिर किसी दिन बड़े मामा छोटे मामा को मारने जा पहुँचे। छोटे मामा ने विरोध किया। उस जमाने में हर साल मेष महीने में प्राप्त धान कम होता चला गया। धीरे-धीरे नौकर भी खिसक गये। छोटे मामा तब से खेती के लिए नहीं गये। नाव और चक्र कोई उठा ले गया।

साँप-वन की मूर्तियाँ गिर गयी थीं। गन्धर्व का मन्दिर टूट चुका था। वहाँ हर साल मनाया जाने वाला गाने का त्यौहार मनाये तीन साल हो गये। अखाड़ा एक ओर से गिरने वाला था। जहाँ रहते थे, उस घर की मरम्मत न हो पाने से पानी अन्दर गिरने लगा था। घर पर खाने को भी कुछ नहीं रह गया था।

उन केरलीयों को वह कहानी बतानी नहीं है, जिन्होंने 'नायर' परिवारों का पतन देखा है। अपने यौवनारम्भ

के साथ, घर को बेचने के कागज पर मैंने हस्ताक्षर किये। हम वहाँ से अलग हो गये।

पर युद्ध के लिए गये मामाजी की तलवार और हमारे परिवार को मिला ताँबे का पट्ट मैंने ले लिया। अगले दिन हुई घटना की मुझे आज भी याद है। मन्दिर के आँगन में तीन-चार लोग बातें कर रहे थे। मैं वहाँ से गुजरा। किसी ने मुझे बुलाया। जमीन बेचने की बात पूछी। मैंने सारी बात बतायी। आखिर एक सज्जन ने पूछ ही लिया।

“अब क्या करोगे, बेटा?"

मैंने ईमानदारी से जवाब दिया, “युद्ध के लिए गये मामाजी की तलवार और ताँबे का यह पट्ट मैंने ले लिया है।"

वे ठहाका मारकर हँस पड़े। मैं सन्न रह गया। आज भी वह ठहाका मेरे कानों में गूंज रहा है।

हम कई स्थान, घर बदल-बदल कर रहे। परिवार के सभी सदस्य एक-एक कर परलोक सिधार गये। आखिर मैं और एक सयानी बुआ ही बचे। अपनी मृत्यु के समय विवश होकर बुआ ने पूछा, “अब तू क्या करेगा, बेटा?"

जीवन में पहली बार मैंने भी यह सवाल खुद से पूछा।

दुनिया बड़ी विशाल है न? मुझे जीने का रास्ता नहीं मिलेगा क्या? मेरी महान् विरासत मेरा साथ नहीं देगी? तलवार और ताँबे का पट्ट लेकर मैं अपने श्मशान की खोज में आम रास्ते पर चलने लगा।

एकान्त रास्तों से होकर जाते समय मैं उन मामा की याद करता जो लड़ने गये थे। उन्हें मैं अपनी आँखों के सामने देखता। कमर कसकर लड़ाई के लिए जाना! घमासान लड़ाई में उठते-कूदते, लपकते-झपटते समय यह तलवार बिजली की तरह चमक उठती...मैं गर्व से सिर ऊँचा करता। मैं उसी मामा का भानजा हूँ।

पुराने जमाने से गुजरते समय भी वह सवाल बराबर मुझे घूरकर देखता-अब कैसे जीऊँगा? पर जल्दी ही मन में मीठे सपने उठने लगते।

घर छोड़ने के तीसरे दिन भूखा-प्यासा मैं रास्ते के पास के एक घर में गया। ठण्डा पानी माँगा। रसोईघर से सब्जी की गन्ध आ रही थी। एक औरत ने पानी पिलाने के बाद मुझे सिर से पैर तक देखा और पूछा, “तुम कहाँ के हो?”

मुझे वह सवाल अच्छा नहीं लगा। मुझे अब तक 'सॉब' ही पुकारते थे सब। औरत ने आगे पूछा-

“क्या तुम लकड़ी चीर सकते हो? मजदूरी के साथ नाश्ता भी मिलेगा।"

मुझे रास नहीं आया। मैं वहाँ से चल पड़ा। मेरे दिवंगत योद्धा मामा इसे सह पाएँगे?

दिन बीतते-बीतते वह सवाल मुझे ज्यादा परेशान करने लगा कि मैं कैसे जीऊँगा। मुझे लगा कि मेहनत करके जीना गर्व की बात है। पर कौन-सा काम?

एक रोज मैं रास्ते के पास वाले एक घर पर पहुँचा। गृहस्वामी बाहर द्वार पर बैठे थे। उन्होंने पूछा कि मैं क्यों आया हूँ। मैं उलझ गया। युद्ध के लिए गये मामाजी की गाथा मैं उन्हें बताने लगा। उन्होंने उसे ध्यान से सुना। पता नहीं, उन्होंने मुझे पागल या कुछ समझा, मुझसे पूछा, “पर तू इधर क्यों आया?"

“मुझे...मुझे जीना है।”

“तू कुछ काम कर सकता है?"

मैंने कहा कि मैं कुछ नहीं जानता, तो चले जाने का आदेश दिया उन्होंने।

उस तलवार को हाथ में लिये मैं फिर आम रास्ते पर आ गया। पुरानी गाथाओं को याद कर भूख-प्यास को किसी हद तक मिटा सका। पर वह क्या रोज सम्भव है? आखिर मजबूर होकर, मैंने एक घर जाकर काँजी माँगी। घरवालों ने बर्तन साफ करके नीचे रखने को कहा। पर...मैं अपने देश की सबसे श्रेष्ठ जाति का हूँ।

उसी दिन से मैं भिखारी हो गया। पर वहाँ भी मैं हार गया। सफलता के लिए भिखारी को यह जानना जरूरी है कि भीख कैसे माँगी जाती है। मैं नहीं जानता कि किसी के घर गया तो कहाँ जाकर बैठना है, कैसे सहानुभूति प्राप्त की जाए। सब घरों में जाने का डर भी है। अगर वह 'नायर' घर नहीं है तो? यों पन्द्रह लम्बे साल मैंने बिताये। मैं भूखे पेट चलता रहा। आखिर यहाँ आया। यह धानी और सराय मेरे घर वालों ने बनवायी थी। अपने परिवार के आखिरी सदस्य को लेटकर मरने के लिए बनवायी होगी।

इस धानी पर पीठ लगाये बैठे मैं कई बातें सोचता रहा हूँ। मेरा सोचने का ढंग बहुत बदल गया है। पर मेरा स्वभाव नहीं बदलता, शायद बदलेगा भी नहीं।

यह तलवार और ताँबे का यह पट्ट परिवार में रखा नहीं जा सकता था। जैसे जो भिखारी रास्ते के किनारे मर जाता, उसकी लाठी भी उसी के साथ दफनायी जाती, वैसे इस तलवार का उस मामा के साथ ही संस्कार होना चाहिए था। इतना जानना ही काफी था कि यह तलवार पुराने जमाने का एक हथियार थी। लेकिन उसके साथ कुछ कहानियाँ जुड़कर उसे एक अयथार्थ प्रसिद्धि मिली। मेरी और अपने मामाओं की कल्पना इससे गुमराह हो गयी। मेरा वह रूप परिहास्य बन जाता, जब मैं सदियों पहले बनायी किसी तलवार को पकड़े गर्व से आधुनिक दुनिया के आम रास्ते से जा रहा होता। फिर भी मैं इस तलवार की पूजा करता हूँ। उसके लिए मैंने पढ़ा था।

इस धानी पर पीठ लगाये हुए मैं अपनी विरासत के बारे में सोचता हूँ। मेरा अपना एक ढंग है। मैं क्यों इतना कष्ट उठा रहा हूँ? शायद उन मामाओं के पापों का फल मैं भोग रहा हूँ।

पाप? जी हाँ; वह योद्धा मामाजी लड़ाई के बाद लौटे तो सोने का धान और सोना लाये थे। लड़ाई वाले देश पर डाका डाला होगा। उन्हें डाकू पुकारूँ तो कैसा रहेगा? और वह जादूगर मामा-जादू तो अधर्म है। और, पिछली पीढ़ी के तहसीलदारों को तो आप जानते ही हैं।

मेरी एक विनती है। यह तलवार और ताँबे का यह पट्ट मैं ढोता रहा। आगे इसे ढोने वाला कोई नहीं है। इसी सराय में इन्हें स्मारक बनाकर रखा जाए। आगामी पीढ़ियों को इसके बारे में-लड़ाकू नायरों की तलवार के बारे में-एक दारुण कहानी ही सुनानी होगी!