वेणियाँ : सुखबीर

Veniyan : Sukhbir

स्वदेश छुट्टी होने पर दफ्तर से निकला।
बाहर भागे-दौड़े जा रहे अनगिनत लोग, बड़ी-बड़ी इमारतें, बेरंग शाम और मैला आसमान, जो किसी तने हुए बहुत बड़े तम्बू की तरह लग रहा था।
आज फिर यह शाम बिताने का मसला था।
दफ्तर से निकल कर स्वदेश को कभी घर जाने की जल्दी नहीं हुई थी। घर का उसे आकर्षण नहीं था। घर का एक कड़वा स्वाद था जो हमेशा उसके दिल में घुला रहता।
उसका वैवाहिक जीवन सुख भरा नहीं था। काफी अरसे से उसकी अपनी पत्नी से एकसुरता नहीं थी। न ही उसकी पत्नी उसके साथ एकसुर होकर रही थी। छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई-झगड़ा हो जाता था। मामूली चीजों पर अनबन हो जाती थी। और फिर दोनों का अलग-अलग जलना, भुनना, कुढ़ना। स्वदेश को समझ नहीं आता था कि वह क्या करे।
स्वदेश हैरान था कि देखने पर पत्नी का चेहरा कितना मासुम लगता था। पर उसकी जबान थी कि असली स्टील की कैंची थी और दिल में हमेशा रिसता रहने वाला जहर। कितना शक्की स्वभाव था उसका! बात-बात पर शक । बात-बात पर शिकायतें। दूसरे पर विश्वास करना तो वह जानती ही नहीं थी। और जब वह जली-भुनी हुई बोल रही होती तो उसके चेहरे की सारी मासूमियत गायब हो जाती। उस समय उसका चेहरा एक कँटीला फूल लगता जो शहद की बजाय जहर से भरा होता।

स्वदेश को ऐसे कड़वाहट-भरे जीवन से बचने का आखिर एक ही रास्ता मिला था कि वह अधिक-से-अधिक समय घर से बाहर रहे। सो वह सुबह घर से निकल जाता और रात होने पर घर पहुँचता। घर पहुँचने पर ठंडे भोजन और पत्नी की
जली-कटी बातों का स्वाद चखता और चुप रहता। फिर थका-टूटा हुआ बिस्तर पर जाता और कई बार आधी-आधी रात तक नींद में से काँटे चुनता रहता।

सड़क पर चलते हुए स्वदेश सोच रहा था, आज कोई भी दोस्त नहीं मिला, यह शाम कैसे कटेगी? इस इलाके में अकेले घूमने पर तो अकेलापन और भी बढ़ जाता था।
वह अलसाया हुआ हौले-हौले चलता रहा।

आगे जाकर वह चौक में एक बैंच पर बैठ गया। उसके हाथ में सुबह की अखबार थी। वह उसके पहले पृष्ठ पर पढ़ी हुई खबरों को फिर से पढ़ने लगा।
शाम बीत नहीं रही थी। चने बेचने वाला एक लड़का उसके पास आया, "गरमा गरम बाबू जी" उसका दिल नहीं चाह रहा था, फिर भी उसने एक आने के चने ले लिए।

वह एक-एक दाना मुँह में डालता हुआ चने चबा रहा था कि बूट पालिश करने वाला एक लड़का उसके पास आया, “बूट पालिश"
स्वदेश ने इनकार में सिर हिलाया। पर उस लड़के ने फिर कहा। स्वदेश के दूसरी बार सिर हिलाने पर फिर कहा। आखिर स्वदेश ने सामने की इमारत की ओर देखते हुए लड़के की ओर अपने बूट बढ़ा दिए।

पालिश हो चुका तो स्वदेश ने बूटों की ओर देखा नहीं। उसी तरह सामने इमारत की ओर देखते हुए उसने जेब में से एक आना निकाल कर लड़के को दिया और वह चला गया।
फिर कुछ देर के बाद उसके कानों में एक और आवाज आई, “दो-दो आने वेणी लोगे बाबू जी?"
स्वदेश तंग पड़ गया और उसने सिर हिलाकर कहा, "नहीं।" पर वह आवाज़ उसके पास से हटी नहीं।
आखिर स्वदेश ने मुँह फेर कर देखा। एक लड़की हाथ में आठ-दस वेणियाँ लिए खड़ी थी और उसे एक तरस भरे लहजे में वेणी खरीदने के लिए कह रही थी।
स्वदेश ने फिर कहा, "नहीं चाहिए। भला किसके लिए लूँगा मैं?"
लड़की को कुछ आशा हुई और उसने कहा, “किसी के लिए भी सही, एक ले लो। अभी तक एक भी नहीं बिकी। तुम्हारे हाथ से ही बोहनी होनी है।"

स्वदेश ने एक नजर उन वेणियों की ओर देखा। फिर बोझल पलकें उठाकर उस लड़की की ओर देखा-एक मैला-सा, मासूम-सा चेहरा, चमकीली आँखें, गेहुँए रंग में किसी लाज की आभा"।

लड़की उसकी ओर देख रही थी। उसने पलकें झुका लीं। "लाओ फिर एक दे दो,” स्वदेश ने वेणियों की ओर देखते हुए कहा। लड़की ने एक वेणी उसकी ओर बढ़ाई। स्वदेश ने जेब में से निकाल कर एक चवन्नी उसे दी। "छुट्टे पैसे तो नहीं हैं। यह पहली ही बिकी है।"
स्वदेश ने जेब में फिर हाथ डाला और पैसे निकाले । एक चवन्नी थी और एक आना।
लड़की देखकर उलझन में पड़ गई। कहीं वेणी वापस ही न कर दे। तभी स्वदेश ने कहा, "लाओ, एक और दे दो। चवन्नी पूरी हो जाएगी।" लड़की ने खुश होकर एक और वेणी उसे दे दी।
और जब वह जाने लगी तो स्वदेश ने कहा, “ज़रा ठहरो। मैं दो क्या करूँगा? एक तुम ले लो। अपने बालों में लगा लो!" और स्वदेश ने हल्का-सा मुस्करा कर वेणी उसकी ओर बढ़ाई।

लड़की का चेहरा लाल हो गया। उस पर की सारी मैल जैसे उतर गई और स्वदेश को उसकी आँखें बहुत काली लगी और पलकें बहुत लम्बी।
स्वदेश को हैरानी हुई कि यह लड़की जो बचपन और यौवन की दहलीज पर खड़ी हुई दिख रही थी, कैसे देखते-देखते उस दहलीज को लाँघ गई थी।
तभी स्वदेश सँभला और उसने हल्का-सा हँसकर कहा, “लो रख लो। मैंने तो यूँ ही कहा था। अगर बालों में नहीं लगानी तो फिर किसी दिन दे देना। या छुट्टे पैसे मिल जायें तो दुअन्नी वापस कर जाना।"

लड़की ने हौले से वेणी उसके हाथ से ले ली और फिर आहिस्ता-आहिस्ता कदम रखती हुई वहाँ से चली गई।
स्वदेश ने एक क्षण के लिए उसे जाते हुए देखा और फिर पहले की तरह सामने की इमारत को देखने लगा-उसकी चौथी मंजिल पर नीले पर्दे वाली खिड़की को जिसके सामने खड़ी एक औरत अपने भूरे रंग के बालों में कंघी कर रही थी।

स्वदेश कुछ देर वहाँ बैठा रहा। फिर उठकर कुछ देर इधर-उधर घूमता रहा। उसका दिल नहीं लग रहा था। आखिर उसने घर का रास्ता लिया।
घर पहुँचा तो पत्नी रसोई में थी। वह पतीले में जोर-जोर से कलछी घुमा रही थी। सारा घर कर्णवेधी आवाज़ से भरा हुआ था।

स्वदेश चुपचाप अपने कमरे में गया। कपड़े उतारने लगा तो उसे पेंट की जेब में पड़ी हुई वेणी का ख्याल आया। एक बार सोचा कि जेब में ही पड़ी रहने दे। पर नहीं, पत्नी ने देख ली तो सोचेगी, पता नहीं किसे देने के लिए खरीदी है। सौ-सौ शक करेगी। अच्छा हो जेब में से निकाल कर कहीं और रख दे।

स्वदेश के कदमों की आहट सुनते ही पत्नी उठ खड़ी हुई थी। पता नहीं, आज वह इतनी जल्दी कैसे आ गया है। शाम से ही वह किसी बात पर गुस्से से भरी हुई बैठी थी। सोच रही थी कि एक बार स्वदेश घर आए तो सात काम छोडकर पहले उसे पूछेगी कि आखिर उसने उसे समझ क्या रखा है? वह उसे ब्याह कर लाया है या खरीद कर"?

और जब वह चूल्हे पर उसी प्रकार पतीला-कलछी छोड़कर दूसरे कमरे में गई तो स्वदेश के हाथ में वेणी देखकर एक क्षण के लिए खड़ी हो गई।
स्वदेश ने अचानक उसे सामने देखा तो सँभाल न सका। वेणी वाला हाथ आगे बढ़ाकर कहने लगा, “यह वेणी...मैं यूँ ही ले आया हूँ।"
पत्नी आगे बढ़ी और उसने उसके हाथ से वेणी ले ली। एक बार उसे सूंघा। फिर सूंघा। और फिर शीशे के सामने खड़ी होकर उसे अपने जूड़े पर बाँधने लगी।
स्वदेश अब सँभल चुका था और उसे देखने लगा।
वह मुड़ी। उसका चेहरा स्वदेश को बहुत ही मासूम लगा। उसने कहा, "खूब महकती है। सारा कमरा सुगंध से भर गया है। ताजा कलियों की बनी लगती है।"
"हाँ, बिलकुल ताजा कलियों की है। तभी तो सोचा ले चलूँ।"
रसोई में प्याज के जलने की गंध आई तो पत्नी दौड़ी, “हाय, छोंक लगाती-लगाती मुआ पतीला तो मैं चूल्हे पर ही छोड़ आई थी।"

स्वदेश ने सोचा, आज तो खैर लगती है। कहाँ तो महँगे हार भी नाक तले नहीं आते और कहाँ आज दुअन्नी की वेणी पर ही रीझ गई है। औरत को भी ईश्वर ही समझे।
उस दिन, कई दिनों के बाद, पहली बार स्वदेश ने गर्म-गर्म भोजन और पत्नी की ठंडी बातों का स्वाद चखा।

दूसरे दिन फिर स्वदेश शाम को छुट्टी होने पर दफ्तर से निकला तो उसके साथ उसका एक दोस्त था। दफ्तर में काम करते हुए स्वदेश ने एक-दो बार सोचा था कि अगर आज कोई दोस्त न मिला तो वह सीधा घर चला जायेगा। पर दोस्त के मिलने पर घर जाने का सवाल ही नहीं पैदा होता था।

दोनों दोस्तों ने पहले एक बढ़िया रेस्तोरों में चाय पी, फिर वह बाजार में घूमते रहे, आ जा रहे लोगों पर फिकरे कसते रहे, इस शहर की मशीनी किस्म की जिन्दगी को गालियाँ देते रहे, पर साथ ही कहते रहे कि कुछ भी हो इस शहर का जवाब नहीं है।
आखिर वे समुद्र के किनारे जाकर बैठ गए। सूरज ने डूबने से पहले समुद्र के पानी को आग लगा दी थी और समुद्र में कई रंग पिघल गए थे।
स्वदेश दार्शनिक अंदाज में कहना चाहता था कि जीवन समुद्र की तरह है जिसे प्यार आग लगा जाता है।
पर उसका ध्यान टूटा। वही कल वाली लड़की हाथ में वेणियाँ लिए उसके सामने खड़ी उसे वेणी लेने के लिए कह रही थी।

स्वदेश जरा-सा चौंका, पर उसी क्षण सँभल गया। लड़की से उसने वेणी ले ली और जेब में से दुअन्नी निकाल कर उसे दी। लड़की दुअन्नी लेते समय कुछ झिझकी पर फिर उसने हाथ बढ़ा कर ले ली और चली गई।

लड़की का चेहरा आज भी कल जैसा ही मासूम था जिसके गेहुँए रंग में किसी लाज की आभा थी, पर आज वह कल जैसा मैला नहीं था। वह निखरा हुआ चेहरा था। दोस्त ने कुछ हैरान होकर कहा, “क्यों भई, लगता है भाभी से कुछ सुर मिल गई है। खूब वेणियाँ खरीद रहे हो उसके लिए।"
स्वदेश मुस्कराया, “बस यूँ ही खरीद ली है। उस से क्या सुर मिलती है! अच्छा अब चलें न? काफी देर हो गई है।"
दोनों उठे।

और जब स्वदेश घर पहुँचा तो उसकी पत्नी जैसे उसकी प्रतीक्षा में बैठी थी। उसके आते ही कहने लगी, “आज तो बड़ी देर कर दी। सोच रही थी, जरा बाजार घूमने चलेंगे। आते हुए शीला के घर से भी हो आयेंगे।"

स्वदेश ने कहा, "देर ही हो गई," और जेब में से वेणी निकालकर उसकी ओर बढ़ाई। उसने बड़े चाव से वेणी ली और सूंघी। फिर शीशे के सामने खड़ी होकर अपने जूड़े पर बाँधने लगी। स्वदेश ने देखा, उसके बाल ताज़ा ही सँवारे गए थे और उसका नई शक्ल का जूड़ा था जैसा तीन-चार दिन पहले उसने अपने दफ्तर में काम करने वाली 'रिसेप्शनिस्ट' लड़की का देखा था।

स्वदेश ने कपड़े उतारे। पत्नी ने कपड़े उसके हाथ से लेकर हैंगर पर टाँगे। और फिर तौलिया और पाजामा उसे देते हुए कहा, "हाथ-मुँह धो लो। मैं रोटी बनाती हूँ, गर्म-गर्म खा लो। फिर बाजार चलेंगे।"

आज भोजन का अलग ही स्वाद था। पत्नी की बातों का भी अलग ही स्वाद था।
स्वदेश समझ नहीं पा रहा था कि पत्नी में यह परिवर्तन कैसे आ गया है। कोई खास ही बात होगी। वेणी? वेणी तो मामूली-सी चीज़ है। किसी दिन उससे पूछेगा। कोई खास ही बात होगी।

फिर दिन बीतने लगे। शाम को कभी कोई दोस्त न मितता तो स्वदेश जल्दी ही घर चला जाता। पत्नी बहुत खुश होती। जिन्दगी ने एक नया रुख अख्तियार कर लिया था। इन दिनों में यद्यपि कुल एक बार स्वदेश और पत्नी की अनबन हुई थी, नाराजगियाँ पैदा हुई थीं, पर अब वह पहले वाला जलना, भुनना, कुढ़ना नहीं था। कुछ नए संबंधों ने जन्म लिया था, कुछ नए पारस्परिक शौक जागे थे। स्वदेश को लग रहा था कि पत्नी में दिन-ब-दिन परिवर्तन आ रहा था। उसे स्वयं में भी कुछ परिवर्तन आ रहा प्रतीत हो रहा था।

और इन दिनों स्वदेश दफ्तर से घर जाते समय एक दिन भी पत्नी के लिए वेणी लेना नहीं भूला था। अब तो उसकी यह जैसे एक आदत ही बन गई थी।

वैसे तो वेणियाँ बेचने वाली और भी लडकियाँ वहाँ होती, पर स्वदेश हमेशा उसी लड़की से वेणी खरीदता जिससे उसने पहले दिन ली थी। हर बार एक जगह से खरीदने पर चीज अच्छी मिलती है। तभी तो वह लड़की स्वदेश को हर बार सब से बढ़िया वेणी दिया करती थी-चमेली की सफेद मोतियों जैसे कलियों की वेणी, जो रात ही रात में खिलकर सुबह फूल बन जाती थीं।

स्वदेश को लगता था कि वेणियाँ बेचने वाली लड़की भी खिलकर फूल बन गई थी। यौवन की दहलीज पर खड़ा बचपन कैसे देखते-देखते दहलीज लाँघ जाता है, पता ही नहीं लगता।

स्वदेश इस लड़की को देखता था तो उसके दिल में एक अजीब-सी करुणा जागती थी। इन लोगों की किस्मत! यह इसी तरह वेणियाँ बेचते-बेचते बूढ़ी हो जाएगी...शादी हो जायेगी (शायद हो ही चुकी हो), बच्चे हो जाएंगे, बूढ़ी हो जाएगी।

एक दिन स्वदेश चौक में बैठा सामने की इमारत को देख रहा था कि वेणियाँ बेचने वाली लड़की आई। स्वदेश ने रोज की तरह जेब में से दुअन्नी निकालकर उसकी ओर बढ़ाई और उसके हाथ से वेणी ले ली। पैसे लेकर लड़की एक क्षण वहीं रुकी रही। स्वदेश ने देखा, उसके चेहरे पर एक संकोच था। वह जैसे कुछ कहना चाह रही थी।
स्वदेश ने उसकी झिझक दूर करने के लिए पूछा, “कितनी बिक गई अब तक?"
लड़की ने कहा, “चार बिक गई हैं। अभी ही आई हूँ। आजकल तो बहुत जल्दी सभी बिक जाती हैं।"
“अच्छा ।" "तुम्हारे हाथ से बोहनी होने पर देखते-देखते सभी बिक जाती हैं।"
"फिर तो सबसे पहले मेरे पास ही बेचा करो," स्वदेश ने हल्का हँस कर कहा-
तुम तो कभी कभी बहुत देर से आते हो, लड़की के कहने में एक हल्की सी शिकायत थी।
स्वदेश आगे से चुप रहा। फिर उसने पूछा, "तुम कहां रहती हो ?"

लड़की ने अपने रहने का ठिकाना बताया और कहा, "वहाँ हमारी छोटी-सी । झोंपड़ी है। अपनी दादी के साथ रहती हूँ । उसे आँखों से दिखता नहीं । पर वह वेणियाँ बहुत सूंदर गूँथ लेती है। हमारी झोपड़ी के सामने दो चमेली के पौधे हैं।"
"दो ही ?" स्वदेश ने कहा । "उनसे इतनी वेणियों के लिए फूल उत्तर आते हैं।
"नहीं" लड़की ने कहा "फूल तो हम बहुत करके बाजार से लाते हैं। हमारे पौधों से तो मुश्किल से एक या दो वेणियों के ही पूल उतरते हैं। जो वेणी मैं तुमको देती हूँ वह हमारे पौधों की कलियों की ही होती हैं।"
स्वदेश ने तारीफी लहजे में कहा "अच्छा ! खूब मोटी कलियाँ होती हैं उनकी।"
लड़की का चेहरा खिल उठा ।
"वह मैं अपने हाथ से ही गूंथती हूँ ।" लड़की हल्की-सी लाज से कहा ।
"अच्छा" स्वदेश के मुँह से सिर्फ इतना ही निकला।
लड़की के चेहरे पर फिर पहले जैसा संकोच था । वह एक क्षण चुप रही। फिर पूछा, "तुम रोज़ वेणी खरीदते हो, इसका क्या करते हो?"
स्वदेश मुस्कराया। वह कुछ कहने को हुआ पर फिर चुप हो गया ।
लड़की फिर कुछ न बोली। उसके चेहर पर एक लालिमा दौड़ गई। स्वदेश हल्का सा मुस्कराता हुआ चुप रहा । आखिर लड़की ने कहा, "अच्छा, मैं जाती हूँ ।"
स्वदेश ने कहा "अच्छा।"
लड़की एक क्षण और वहां खड़ी रही और फिर धीमे धीमे कदम उठाती वहां से चली गई।

स्वदेश समुद्र के थिरकते हुए प्रसार को देखने लगा जिस पर सूर्य की किरणों से बनी लम्बी सुनहरी सड़क को एक छोटी सी कश्ती पार कर आगे निकल गई। कश्ती दूर चली गई तो उसका मात्र एक छोटा-सा सफेद बिंदु दीखने लगा। फिर वह बिंदु जामुनी रंग के आसमान के सामने गायब हो गया।

अब स्वदेश की अधिकतर शामें घर में ही बीतने लगी थीं। दोस्त शिकायत भी करते थे कि अब वह बहुत कम मिलता था, पर खुश भी थे कि उस का घरेलू जीवन सुखद बन गया था। अब वह फिर दोस्तों को घर बुलाता पत्नी के साथ उनके घर जाता। कभी वह दोस्तों को दार्शनिक अंदाज में कहता, "विवाहित जीवन एक गाड़ी है जिसके पहियों को ठीक रास्ते पर चलना चाहिए । बीस रास्ता छोड़ा नहीं कि गाड़ी हिचकोले खाने लगती है। बस गाड़ी का ठीक रास्ते पर चलना ज़्यादातर औरत के बस में है।"

एक दिन स्वदेश ने पत्नी के साथ सिनेमा देखने का प्रोग्राम बनाया। उसकी पत्नी शाम को उसके दफ्तर में पहुँच गई। वहाँ से वे सिनेमा देखने चल पड़े। सिनेमा देखकर आए तो अँधेरा हो चुका था। पत्नी ने कहा, "एक चक्कर समुद्र का न लगा आएँ। बहुत देर के बाद आई हूँ इधर।"
स्वदेश उसके साथ समुद्र की ओर चल पड़ा।

समुद्र पर घूमते हुए सामने वेणियों वाली लड़की दिखी। वह उनकी तरफ ही आ रही थी। उसके हाथ में एक ही वेणी थी। कलियों की बजाए वह फूलों की बनी हुई थी। साधारण-सी वेणी थी वह।

उसके पास आने पर स्वदेश ने पत्नी से कहा, "लो. आज वेणी लेना तो भूल ही गया था। एक ही रह गई है। जैसे हमारे लिए ही बची हो। मैं हमेशा इसी से लिया करता हूँ। मेरे लिए खास तौर पर मोटी-मोटी कलियों की बना कर लाती है।
पत्नी ने तीखी नज़र से उस लड़की की तरफ देखा। लड़की उसके सामने आँखें न उठा सकी।

स्वदेश ने वेणी लेने के लिए लड़की की ओर हाथ बढ़ाया। पर लड़की ने हाथ में की वेणी देने की बजाए अपनी साड़ी के आँचल की गाँठ खोली और उसमें से एक वेणी निकाली-मोटी-मोटी कलियों की बहुत बढ़िया वेणी, जैसी रोज स्वदेश लेकर जाया करता था।
स्वदेश का चेहरा खिल उठा। पर पत्नी अभी भी तीखी नज़र से लड़की को देख रही थी।
अचानक स्वदेश का उसकी ओर ध्यान गया। ओह, इसे क्या हो गया है?
फिर उसने लड़की की ओर देखा। एक खिला हुआ फूल जैसे बंद हो गया था। एक उदास मैला चेहरा।

स्वदेश ने उसके हाथ से वेणी ले ली और जेब में से दुअन्नी निकालकर उसकी ओर बढ़ाई। पर लड़की ने दुअन्नी नहीं ली और उदास आवाज में धीमे से कहा, "पिछली बार की दुअन्नी देनी रहती है। हिसाब पूरा हो गया।" और उसी समय वह वहाँ से एक तरफ को चल पड़ी। उसकी चाल बहुत थकी हुई लग रही थी। स्वदेश उसे कुछ देर एकटक देखता रहा।
पत्नी ने वहीं खड़े-खड़े ही जुड़े पर वेणी बाँधकर स्वदेश को दिखाते हुए कहा, "देखो तो, ठीक बँधी है?"
“बिल्कुल । आज के जूड़े पर तो बहुत सुन्दर लग रही है।"
“सुन्दर चीज़ हर जगह सुंदर लगती है," पत्नी ने जरा चंचलता से कहा। पर स्वदेश के होंठों पर मुस्कराहट न आई।

और जब वे वहाँ से घर जाने के लिए चले तो स्वदेश को अपनी चाल में एक अजीब-सी थकावट महसूस हुई। उसका दिल चाहा कि वहीं किसी बैंच पर बैठ जाए। पर वह बैठा नहीं। बोझल कदम उठाता हुआ चलता रहा, चलता रहा।