वरना हम भी आदमी थे काम के (कहानी) : भगवतीचरण वर्मा

Varna Ham Bhi Aadmi The Kaam Ke (Hindi Story) : Bhagwati Charan Verma

लोग मुझे कवि कहते हैं, और गलती करते हैं; मैं अपने को कवि समझता था और गलती करता था। मुझे अपनी गलती मालूम हुई मियाँ राहत से मिलकर, और लोगों को उनकी गलती बतलाने के लिए मैंने मियाँ राहत को अपने यहाँ रख छोड़ा है।

मियाँ राहत वास्तव में कवि हैं। वह नामी आदमी नहीं हैं। उनका कोई दीवान अभी तक नहीं छपा, और शायद कभी छपेगा भी नहीं। मुशायरों में वह नहीं जाते, या यों कहिए कि मुशायरों में वह नहीं पढ़ते। एक बार मुशायरे में उन्होंने अपनी गजल पढ़ी, तो उनको इतनी दाद मिली कि बेचारे घबरा गए, और उस दिन से मुशायरों में न पढ़ने की कसम खा ली। और, दूर की नहीं हॉँकते, पर फिर भी वह कवि हैं, इतने बड़े कि आजकल के नामी-नामी शायर सब एक साथ उन पर न्यौछावर किए जा सकते हैं।

यदि आप चालीस-पचास साल के एक ऐसे आदमी को मेरे बंगले के बरामदे में देखें, जो लम्बा सा और किसी हद तक मोटा सा कहा जा सके, जिसका चेहरा गोल, भरा हुआ और उस पर चेचक के दाग, मूँछ नदारद, लेकिन दाढ़ी तोंद तक पहुँचती हुई, सिर पर पट्टे और बाल बीच से खिंचे हुए, आँखें बड़ी-बड़ी, ऊपर उभरी हुई और उनमें सुरमा लगा हुआ, चिकन का कुरता और लंकलाट का गरारेदार पाजामा पहने हुए हों तो आप समझ लें कि यही मियां राहत हैं। वह आपसे झुककर सलाम करेंगे, अदब के साथ आपका नाम पूछेंगे, आपको कुर्सी पर बिठालकर मुझे आपकी इत्तिला देंगे, और फिर धीरे से वहाँ से खिसक जाएँगे। आप उनको मेरा नौकर किसी हालत में नहीं समझ सकते, और मैं उनसे मालिक का बर्ताव करता भी नहीं हूँ। मैं उनकी इज्जत करता हूँ, बुजुर्ग की तरह उन्हें मानता हूँ।

मियाँ राहत से मेरी मुलाकात तीन साल पहले हुई थी। यों तो इसके पहले से मैं उन्हें देखता आता था, पर उस समय मुझे उनके नाम और उनकी खूबियों का पता न था। इलाहाबाद के स्टेनली रोड और कैनिंग रोड के चौराहे पर, खाकी वर्दी पहने और लाल पगड़ी बाँधे हुए मियाँ राहत को मैंने सवारियों को रास्ता बतलाते हुए देखा था। इक्केवाले झुककर मियाँ राहत को सलाम करते थे और उनकी कुशल-क्षेम पूछते थे, और मियाँ राहत मुस्कुराकर उन सबको जवाब देते थे। साथ ही इक्के और ताँगेवाले, उलटे-सीधे, दाएँ-बाएँ जहाँ से तबीयत होती थी, इक्का-ताँगा ले जाते थे।

मुझे शक था कि मियां राहत शायर अवश्य होंगे। कभी-कभी सवारियों को अपने भाग्य पर छोड़कर मियाँ राहत एक नोटबुक और एक पेंसिल लिये हुए चौराहे के एक कोने में नजर आते थे। कभी-कभी वह अपनी पेंसिल से नोटबुक में कुछ दर्ज भी कर लेते थे। पहले तो मैंने समझा, मियाँ राहत किसी का चालान कर रहे हैं, लेकिन जब मैंने उनका गुनगुनाना सुना, तो बात समझ में आ गई।

उस दिन मैं सिविल लाइंस में घूमने जा रहा था। शाम का समय था, इलाहाबाद के शौकीन रईस अपनी-अपनी मोटरें लेकर घूमने को निकल पड़े थे। स्टेनली रोड और कैनिंग रोड के चौराहे पर जब मैं पहुँचा, तब पैर आप-ही-आप रुक गए। आँखों ने मियाँ राहत को ढूँढ़ ही तो निकाला। एक किनारे खड़े हुए मियाँ राहत कागज पर अपनी पेंसिल चला रहे थे। रुककर मैं मियाँ राहत को देखने लगा। इसी समय चौक की तरफ से एक कार तेजी के साथ आई और अपनी दाहिनी ओर आई मियाँ राहत पर चढ़ती हुई। कार की स्पीड साठ मील प्रति घंटे से कम न रही होगी।

मियाँ राहत अपनी नोटबुक और पेंसिल के साथ इतने मशगूल थे कि उन्हें कार के आने की जरा भी ख़बर न थी। मैंने खतरे को देखा और जोर से चिल्ला उठा-मियाँ भागो, नहीं तो जान गई।

मियाँ राहत उछले लेकिन कार इस तेजी के साथ चल रही थी कि उनके हटते-हटते उसके अगले मडगार्ड का झोंका मियाँ राहत के लग ही तो गया, और राहत 'लाहौल विलाकूबत' कहते हुए जमीन पर आ गए। मैं दौड़ा और कार भी थोड़ी दूर चलकर रुक गई। मैंने मिया राहत को उठाया, चोट न आई थी, सिर्फ घुटने और कोहनी कुछ छिल गए थे। उठते ही मियाँ राहत ने अपनी पगड़ी दुरुस्त की और वर्दी से धूल झाड़ी। उस समय कार से एक चौबीस-पच्चीस वर्ष की युवती उतरकर मियाँ राहत के पास आई। बहुत सुन्दर, गोरी और यौवन-भार से लदी हुई। मुस्कुराते हुए उसने मियाँ राहत से पूछा-“चोट तो नहीं लगी ?”

मियाँ राहत ने प्रायः दस सेकेंड तक बड़ी गम्भीरतापूर्वक उस युवती को देखा, इसके बाद वह भी मुस्कुराए-“'नहीं, चोट तो कोई ऐसी नहीं लगी, लेकिन जरा देख-भालकर मोटर चलाया कीजिए।”

युवती ने पाँच रुपए का नोट मियाँ राहत को देते हुए कहा-“हाँ, अभी हाल में ही मोटर चलानी सीखी है। लो, अपने बचने की खैरात बॉँट देना।”

अपने हाथ हटाकर जेब में डालते हुए मियाँ राहत ने अपना मुँह फेर लिया--“मिस साहब, मेरी क्या ? मैं तो आप लोगों का गुलाम हूँ, आप लोगों पर अपनी जान न्यौछावर करने में भी मैं फख्र समझूँगा। आप ही, अपनी इस ख़ुशकिस्मती पर कि इस चौराहे पर मैं था, यह खैरात बाँट दीजिएगा।”

वह युवती मुस्कुराती हुई चल दी। मियाँ राहत ने उसे झुककर सलाम किया, इसके बाद उन्होंने अपनी नोटबुक और पेंसिल उठाई। मैंने पूछा-“मियाँ, तुमने इनका चालान क्‍यों नहीं किया ?”

मियां राहत बोले-“क्या करूँ बाबू साहब, दिल गवाही नहीं देता। इन परीजादों की तो परस्तिश करनी चाहिए, और आप चालान करने की बात कहते हैं,” इतना कहकर मियाँ राहत और कोने में खिसल गए, और नोट-बुक तथा पेंसिल का झगड़ा सुलझाने लगे। मैं वहाँ से चल दिया, पर चलते-चलते मुझे ये दो पंक्तियाँ सुनाई पड़ीं, जो शायद मियाँ राहत ने उसी समय बनाकर नोटबुक में दर्ज की थी :

किसी हसीन की मोटर से दब के मर जाना
ये लुत्फ यार, हमारे नसीब ही में न था।

न जाने क्‍यों उस दिन के बाद से मेरे हृदय में मियाँ राहत के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो गई। मियाँ राहत मेरे यहाँ प्रायः आया करते थे और घंटों मुझे अपनी कविता सुनाते थे। मैं उनकी कविता समझता भी था, और उनकी काफी दाद देता था।

इस घटना को हुए दो मास हो गए थे। सत्याग्रह-संग्राम जोर से चल रहा था। कई दिनों से मियाँ राहत मेरे यहाँ न आए थे। एक दिन शाम के वक्‍त मैं बरामदे में बैठा हुआ एक किताब पढ़ रहा था कि मियाँ राहत आए। उनकी मुद्रा देखकर मैं घबरा गया-आँखें डबडबाई हुईं, चेहरा पीला और पैर लड़खड़ा रहे थे। मैंने पूछा-“मियाँ राहत ! खैरियत तो है ? यह तुम्हारी क्या हालत, कया बीमार तो नहीं रहे ?”

कुर्सी पर बैठते हुए उन्होंने कहा-“बाबू साहब ! उफ्‌ बाबू साहब !” इसके बाद वह लगातार ठंडी सांस भरने लगे।
मैं वास्तव में घबरा गया। मैंने पूछा-“क्या कुछ तबीयत खराब है ?”
“नहीं,” मियाँ राहत ने एक ठंडी साँस ली।
“तुम्हारे बीवी-बच्चे तो अच्छी तरह हैं ?”
“हाँ,” मियाँ राहत ने फिर एक ठंडी साँस ली।
“अरे भाई, बतलाते क्यों नहीं कि क्या हुआ ?”

मियाँ राहत ने बहुत करुण स्वर में आरम्भ किया-“बाबू साहब, उस दिन की बात तो आपको याद है, जिस दिन मैं मोटर से दबते-दबते बचा था।”
“हाँ-हाँ। भला, उस दिन की बात मैं भूल सकता हूँ !”
“बाबू साहब, उस दिन जो मिस साहब मोटर चला रही थीं, वह कांग्रेस में काम करती हैं !”
“हाँ, यह तो मैं जानता हूँ। उनका नाम सुशीलादेवी है न ?”
"हैं बाबू साहब ! यही नाम है। आज वह गिरफ्तार हो गईं।”
“तो फिर इससे क्‍या ?”

“क्या बतलाऊँ बाबू साहब ! मुझे भी दारोगा साहब के साथ उन्हें गिरफ्तार करने के लिए जाना पड़ा था,” मुझे ऐसा मालूम पड़ा कि मियाँ राहत रोनेवाले हैं।

थोड़ी देर तक चुप रहने के याद मियौँ राहत ने फिर कहा-“बाबू साहब ! यह सरकारी नौकरी बड़ी खराब है। इसमें अपनी रूह को चाँदी के चन्द टुकड़ों पर बेच देना पड़ता है। जानते हैं बाबू साहब, आज मैंने अपनी रूह का गला घोंटकर कितना बड़ा गुनाह किया ?”

मैंने कहा-“मियाँ राहत ! इस सोच-विचार से कुछ फायदा नहीं। तुम नौकर हो, तुमने अपना फर्ज अदा किया। इसी के लिए तो तुम तनख्वाह पाते हो !”
मियाँ राहत चिल्ला उठे-“मैं यह तनख्वाह नहीं चाहता, इस गुलामी से मैं आजिज आ गया हूँ।”
मैंने देखा, मियाँ राहत की भावुकता जोरों के साथ उमड़ी हुई है, और रंग बिगड़ा हुआ है।

मैंने कहा-'“मियाँ, तुम्हारी बीवी है, बच्चे हैं। उनका पेट भरना तुम्हारा फर्ज है। उनसे भी कभी पूछा है कि वे तनख्वाह चाहते हैं या नहीं। जाओ, अपना काम करो ।”

बीवी और बच्चों का नाम सुनते ही मियाँ राहत की उमड़ती हुई भावुकता पर ब्रेक लग गया। “क्या करूँ बाबू साहब, कुछ समझ में नहीं आता।” इस बार उन्होंने एक बहुत गहरी साँस ली, और उनकी आँख से दो आँसू टपक पड़े।

दूसरे दिन शाम के समय जब मैं काम से लौट रहा था, तो मियां राहत के मकान के सामने से निकला। वहाँ जो दृश्य देखा वह जीवन-भर कभी न भूलूँगा। मियाँ राहत जमीन पर सिर झुकाए बैठे थे और उनकी बीवी उनके सिर पर बिना गिने हुए तड़ातड़ चप्पलें लगा रही थी। बीवी रो-रोकर कह रही थी-“निगोड़ा, कलमुँहा कहीं का। नौकरी छोड़ आया, हम लोगों को भूखा मारने के लिए। ले, नौकरी छोड़ने का मजा ले !”

मियाँ राहत की आँखों से टप-टप आँसू गिर रहे थे, और वह यह शेर बेर-बेर गा-गाकर पढ़ रहे थे :

इश्क ने हमको निकम्मा कर दिया;
वरना हम भी आदमी थे काम के।

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