वार्धक्य भत्ता (उड़िया कहानी) : प्रतिभा राय

Vardhkya Bhatta (Oriya Story) : Pratibha Ray

पूरा मकान किराये पर चढ़ा है। मकान से सटकर बाथरूम-जुड़ा एक लम्बा कमरा है। उतने में ही मकान-मालिक सेवा-निवृत्त अध्यापक अखिलमोहन और उनकी पत्नी रमारानी रहते हैं। मकान को दो मंजिला बनाने की योजना शायद कभी रही होगी। आज वह बात नहीं रही। जरूरत भी क्या है? तीनों लड़के पढ़-लिखकर विदेश में रहने लगे हैं। विदेश यानी कि देश से बाहर, समुद्र पार । अति उपयुक्त लोग ही विदेशों में रह जाते हैं, फिर अपना देश उनके लिए उपयुक्त नहीं रह जाता। वे लोग दूसरे देश के लिए उपयुक्त हो जाते हैं। उन्नत लोग उन्नत देश में ही शोभा पाते हैं, देश की उन्नति फिर उन्हें शोभा नहीं देती।

यह बात जानते थे अध्यापक अखिलमोहन। इसीलिए अपनी आय की सीमा में उन्होंने एक छोटा-सा मकान बनवाया था। रमारानी को इस बात का पता नहीं था, इसलिए मकान बनाने से लेकर अब तक वे मकान के बारे में अपना असन्तोष प्रकट करके चिक्-चिक् करती रहतीं, "बच्चे छोटे हैं। एक ही कमरे में सो जाते हैं। कुछ दिनों के बाद वे लोग बड़े हो जाएंगे। लक्ष्मी-सी बहुएँ आएँगी। कभीकभी जवाँई भी आएँगे। कुछ दिन तो जरूर रहेंगे। तब क्या करेंगे? छत पर सोएँगे?"

अखिलमोहन निश्छल मुस्कुराहट बिखेरते हुए स्वभाव-सुलभ शान्त स्वर में कहा करते, "तुम्हारे सिवा कोई नहीं रहेगा इस मकान में। यह मकान तुम्हारा है। बच्चे कहाँ-कहाँ रहेंगे, कौन कह सकता है। वे जहाँ रहेंगे वहीं मकान बनवाएँगे। ठीक तुम्हारी तरह। शहर में मकान बनवाने के बाद तुम कितने दिन गाँव में जाकर रहती हो?"

रमारानी बड़े आत्मविश्वास से कहती, "देख लेना, कोई कहीं भी रहे, कितना ही बड़ा मकान बनवा ले, सभी यहीं आएँगे, मेरे हाथ का बना खाना खाने के लिए। खाने के बाद मेरे पल्लू से मुँह पोंछे बिना उन्हें तृप्ति नहीं मिलेगी। अपने बच्चों को मैं नहीं जानती? मैं उनकी माँ जो हूँ..." 'माँ' शब्द को गर्व और गौरव के साथ कुछ लम्बा तानकर कहती रमारानी, जिसका अर्थ होता "तुम बाप हो, माँ होने का महत्त्व कैसे समझोगे? भला इस जीवन में तुम कभी माँ होने का सौभाग्य पाओगे? माँ बनना सात जन्मों की तपस्या का फल है।"

अखिलमोहन रमारानी के मातृत्व के गहरे विश्वास को तोड़कर चूर-चूर नहीं करना चाहते। बेचारी! पति की सीमित आय के अपर्याप्त बजट में चारचार बच्चों को कितनी मुश्किल से पाल-पोसकर बड़ा कर रही है, यह बात वह अच्छी तरह जानते हैं। जितने दिनों तक आत्म-सुख में डूबी रहती है, डूबी रहे। क्या वह जानती है कि सभी माताओं में एक दिन इसी तरह अपने बच्चों पर उस जैसा अखण्ड अधिकार व अगाध विश्वास होता है और वह अधिकार एक दिन किसी और नारी के हाथ में चला जाता है। उस विश्वास के घरौंदे को समय और सभ्यता की धारा अपनी चपेट में लेकर निश्चिह्न जो कर देती है!

एक दिन वाकई वह विश्वास टूट गया रमारानी का, मानो सभी माताओं का अपने योग्य बेटों पर से विश्वास टूट जाता है। उसी के बाद से पूरा मकान किराये पर चढ़ा दिया था रमारानी ने।

लेकिन अन्त तक आशा थी कि कोई न कोई बेटा लम्बी छुट्टी लेकर आएगा, काफी दिनों तक रहेगा। बेटी अपने पति के साथ विदेश की नागरिक होकर रहने लगी थी। दोनों बेटे जर्मनी और अमेरिका की विदेशी लड़कियों से शादी करके वहीं घर बसा चुके थे।

परन्त बेटों ने विवाह का सन्देश भेजने में लापरवाही नहीं की थी। बडे बेटे ने विवाह से ठीक पहले, छोटे ने विवाह के तुरन्त बाद। तब तक रमारानी मन ही मन एक सौ एक लड़कियों को अपने बेटों से तुलना करके नापसन्द कर चुकी थीं। अखिलमोहन शुरू से ही सांसारिक जिम्मेवारियों से बचने में माहिर रहे हैं। उन्होंने चैन भरी साँस लेते हुए कहा, "चलो, एक चिन्ता मिटी। तुम जैसी लड़कियाँ ढूँढ़ रही थीं, लगता था लड़के कहीं कुँवारे ही न रह जाएँ। देखना, लड़कों ने तुम्हारे मन मुताबिक लड़कियाँ चुनी होंगी। आखिर लड़के किसके हैं! उनके चुनाव में गलती नहीं हो सकती।"

तब भी रमारानी मातृत्व का अहंकार छोड़ने वाली नहीं थीं। उन्होंने खुद को बहुत सँभाला था। मन को दिलासा देते हुए बोली, "क्यों नहीं, वे मेरे बेटे हैं। खून को पानी करके मैंने उन्हें आदमी बनाया है। मेरे बेटों ने कभी कोई बड़ी गलती नहीं की। आज इसे भी उनकी गलती कौन कहेगा? जैसा देश, वैसा वेश। हमारी इण्डियन लड़कियाँ कितना ही क्यों न पढ़-लिख लें, कितना ही आधुनिक क्यों न बन जाएँ, ये लोग भला मेरे बेटों की प्रगतिशील विचारधारा के साथ ताल मिलाकर चल सकती हैं? प्रिया को ही देखो! इंगलिश मीडियम स्कूल में पढ़ाई की। दिल्ली यूनिवर्सिटी से एम.ए. करने के बाद कनाडा से डॉक्टरेट की। फिर भी कोई बात करने पर कान में जूं तक नहीं रेंगती उसके। कोई बात जरा जोर से कह दो तो बड़ी-बड़ी आँखें छलछला आएँगी आँसुओं से। मैंने उसे क्या कुछ नहीं सिखाया, पढ़ना-लिखना, किस गुण में वह किसी से पीछे है? पर उसमें दुनिया-भर का डर-लाज-भय-कुण्ठा भरा पड़ा है। छि:-छिः, सारी इण्डियन लड़कियाँ एक-सी हैं। चलो, लड़कों की ओर से अब मैं निश्चिन्त हो गयी।"

इतने पर भी मकान किराये पर नहीं चढ़ाया गया था। उस छोटे से मकान में सात-सात बार पोंछा लगाती थीं रमारानी। कभी तो आएँगे बेटा-बहू। जरूर आएँगे। जन्मस्थान न आने की कूवत किसमें है? दोनों बेटों के एक के बाद एक लड़का-लड़की हुए। बड़े बेटे के दो लड़के हुए। छोटे के एक बेटा, एक बेटी। चिट्ठी आयी, फोटो आया। बेटे माँ के साथ हमेशा से खुले हैं।

बड़े बेटे ने चिट्ठी लिखी, "बहू और पोता-पोती एक साथ देखने का सौभाग्य तेरे सिवा और किसे होगा?" छोटे बेटे ने लिखा, "माँ, तुम्हारी बहू कहती है कि तुम एक साथ कई पार्टियाँ मिस कर चुकी हो। हमारी शादी की पार्टी, बच्चों के जन्मदिन की पार्टियाँ। इण्डिया आने पर एक साथ सारी पार्टियाँ देने की जिद कर रही है तुम्हारी बहू। नीबू का पानी पिये रहना। हम जल्दी इण्डिया आ रहे हैं।"

बेटे की चिट्ठी के उस 'जल्दी' शब्द की 'दूरी' कितनी है, यह रमारानी अपनी छोटी बुद्धि से नाप नहीं पातीं। साल-दर-साल बीतते जाते हैं। पोता-पोती की तुतली बातचीत के टेप किये हुए कैसेट्स पार्सल से आते। बहुओं की आवाज बह आती कैसेट के फीतों से, "गुड मॉर्निंग ममि! वी आर ओ.के. हिअर। 'अभि' इज़ ऑल राइट। नेवर बॉदर फॉर हिम..." इत्यादि। अभिजात बड़ा बेटा है। छोटी बहू का उलाहना बह आता समुद्र पार से कैसेट रिकॉर्ड के जरिये, “आइ ब्लेम यू ममि! यू हैव स्पॉएल्ड अमि! हि इज़ सो डिपेण्डेण्ट! हाव सिलि!" अमियकान्त छोटा लड़का है।

हँसते-हँसते लोटपोट हो जाती रमारानी। अधिक हँसी यन्त्रणा बनकर आँखों से पानी निकाल देती है। हँसी रोकते हुए टूटे-फूटे स्वर में कहतीं, "सुन लो, कितनी शरीर लड़कियाँ हैं। न मेल-मुलाकात, न जान-पहचान। कितने अपनत्व भरे आश्वासन हैं, और कितने उलाहने भी, और सचमुच कितनी मीठी है उनकी आवाज।"

उदार हृदय में सारे छोटे-बड़े झटके सह जाने की यह असाधारण शक्ति रमारानी में देखकर पत्नी की तारीफ मन-ही-मन करते हैं अखिलमोहन।

रमारानी दिन गिना करतीं, किसी भी दिन कोई भी बेटा आ सकता है। अभी कल ही जैसा तो लग रहा है, पलक झपकने-सा, पिछली रात के मीठे सपने-सा हाथ बढ़ाकर छू सकने-सा। लड़के जब कॉलेज हॉस्टल में रहकर पढ़ते थे, किस तरह चिट्ठियाँ लिखा करते थे, 'माँ यहाँ खाने का इन्तजाम खूब अच्छा है। पर तुम्हारे हाथ की बनी रसोई जैसा नहीं। कितना ही खाओ, तृप्ति नहीं होती, पेट नहीं भरता। कहीं कुछ कमी जो रह जाती है हॉस्टल के खाने में। माँ, यहाँ कड़ाके की ठण्ड पड़ती है। गरम कपड़े जितने हैं, सब पानी हो जाते हैं। तुम्हारे पास सोने में कितना आराम मिलता है। कितना ऊष्म लगता है। यहाँ तुम्हें ढूँढ़ने से कहाँ पाऊँगा? माँ, यहाँ बेइन्तहा गरमी पड़ती है! वाकई तुम्हारे हाथ जाड़े में जितने ऊष्म होते हैं, गरमी में उतने ही ठण्डे-स्निग्ध! तुम्हारे हाथ ऐसे कैसे हैं माँ, एयर कण्डिशन जैसे! माँ, कल तुम्हारे बारे में एक खराब सपना देखा। पढ़ाई छोड़कर भागकर तुम्हें देख आने को जी अधीर हो रहा है। पर पिताजी नाराज होंगे। किन्तु मैं पहुंच रहा हूँ, माँ! पिताजी से कह देना तुमने चिट्ठी लिखकर बुलाया था।'

सचमुच घर चले भी आते। हालाँकि बच्चों की पढ़ाई का नुकसान सोचकर उनके पिता नाराज भी होते। पर उस खीझ में भी छुपा होता कितना स्नेह, कितना आत्मसन्तोष, कितना गौरव।

रमारानी का दिन गिनना खत्म नहीं होता। अब लड़के ठण्डी जलवायु में रहकर उनके ऊष्म स्नेह का स्पर्श नहीं ढूँढ़ते। उनके खाने-पीने की रुचि बदल गयी है। माँ की रसोई का स्वाद शायद भूल चुके हैं। माँ के बारे में अब बुरे सपने भी नहीं देखते। जिन बेटों को उन्होंने योग्य सन्तान के रूप में पाला-पोसा था, उनकी आँखों में सिर्फ सुख और सपने हैं। फिर भी रमारानी उस चार कमरे के छोटे मकान को सजाती-सँवारती रहती दिन-रात, कभी तो आएँगे वे लोग?

वे लोग आये भी। अमियकान्त और एंजेला। पाँच साल का लड़का रिंकू और तीन साल की लड़की एनी। रमारानी ने दस बार पोंछा लगाया घर का। बैठक में ताजे फूलों का गुलदस्ता सजाया। सोने के कमरे के दरवाजे और खिड़कियों में खसखस के पर्दे लगाये ताकि विदेशी सुकुमारी बहू को धूप का धमसा न सताये। बेटे को प्रिय खाने की चीजें बनायीं। माँ-बाप किराये की टैक्सी लेकर एरोड्रॉम पहुँचे। अटपटा लगने पर भी पति के कहने पर दो पुष्प गुच्छ लिये। पहली मुलाकात में बहू को दे देना, सभ्य समाज का रिवाज है। जिस चीज से बहू को खुशी होगी, भले ही वह कितना ही अटपटा क्यों न लगे, रमारानी वह सब करने को तैयार हैं। बहू की मर्जी का ध्यान रखना ही उनका एकमात्र कर्तव्य था। विदेशी बहू को किसी भी तरह का कष्ट देना अन्याय है, जबकि उनके जमाने में सास की मर्जी का ध्यान रखा जाता था। सब समय का फेर है। मानों मनुष्य समय का अबोध आज्ञाकारी है। मन की सहमति हो या न हो, समय का हुक्म मानना पड़ेगा।

एरोड्रॉम में उतरे अमि, एंजेला, रिंकू और एनी। बहू की सुन्दरता देख वाकई पति-पत्नी मुग्ध हो गये। रमारानी फुसफुसाकर पति से कह रही थीं, "मैं कह नहीं रही थी कि मेरे बेटे का चुनाव गलत नहीं हो सकता।" अखिलमोहन आनन्दित हो कह रहे थे, "दोनों बच्चों को देखो! इतने सुन्दर केवल बहू की वजह से हैं! तुम भले ही नाराज हो जाओ, पर तुम्हारे बच्चों से जरा भी मेल नहीं खाते।" रमारानी विह्वल हो मुस्कराते हुए कह रही थीं, "ये लोग आखिर बच्चे किसके हैं? क्या मेरा खून नहीं है इनमें?"

एक बड़ी गाड़ी इन्तजार कर रही है सड़क के किनारे। सुसज्जित सम्भ्रान्त गाड़ी। अखिलमोहन टैक्सी करके आने की वजह से अन्दर-ही-अन्दर खूब खुश थे। उनका बेटा उनके इस कार्य की मन-ही-मन सराहना करेगा। पेट्रोल की कीमत देखते हुए कटक से भुवनेश्वर टैक्सी करके आना-जाना कोई मजाक नहीं।

किन्तु यह क्या ! उनका बेटा-बहू और बच्चों के साथ उस बड़ी गाड़ी की ओर जा रहे हैं। एंजेला ने झेंपते हुए कहा, "आप लोगों को कष्ट न देने के लिए ही यह इन्तजाम किया है। चार-चार लोगों का काम, वह भी एकाध दिन नहीं, दो सप्ताह तक, क्या कष्टदायक काम नहीं। आजकल इण्डिया में महँगाई इतनी बढ़ गयी है कि आपका इतना खर्च कराना वाकई आपके प्रति अन्याय होगा, माँ..."

अमि ने इशारे से पत्नी को चुप कराया और आतुर हो बोला, "वह बात और है, पर एंजेला का स्किन इतना डेलिकेट है कि वातानुकूलित कमरे के बिना उसके पूरे बदन पर फुसियाँ उभर आएँगी। बच्चे भी वैसे ही हैं, बल्कि जितने दिनों के लिए आये हैं, उतने दिनों तक स्वस्थ रहें। क्यों माँ? बीमार पड़ गये तो इण्डिया आना बेकार हो जाएगा। इसलिए होटल 'माधवी' में एक वातानुकूलित कमरे का इन्तजाम करवा लिया था।" रमारानी ने सिर हिलाते हुए धीरे से कहा, "जगन्नाथ की कृपा से किसी की तबीयत खराब न हो। घूम-फिरकर ठीक-ठीक वापस लौट जाओ।"

अखिलमोहन ने गम्भीर गले से सवाल किया, "सिर्फ दो सप्ताह के लिए आया है? तूने तो लिखा था कि दो महीने के लिए आ रहा हूँ?"

"आया तो दो माह के लिए ही हूँ, पर ओड़िसा में दो सप्ताह रहूँगा। क्या ओड़िसा के दर्शनीय स्थलों को देखने के लिए दो सप्ताह काफी नहीं हैं? भारत के अन्य स्थान एंजेला और बच्चों को घुमाना होगा। इण्डिया के बारे में एंजि कुछ नहीं जानती। वह सोचती है इण्डिया में सिर्फ जंगल, साधु, भिखारी, साँप, डायन और वनमानुष रहते हैं। इसके अलावा दोनों बच्चों को भी अपने पूर्वजों की घर-देहरी के बारे में बहुत कुछ सन्तोषजनक धारणा बनाना भी आवश्यक है। आखिर मिट्टी है तो माँ ही..."

अखिलमोहन ने सिर हिलाते हुए कहा, "गुड! अपनी मातृभूमि के बारे में उनके मन में सम्मानबोध जगाना बहुत जरूरी है। मातृभूमि के लिए माँ का बलिदान भी किया जा सकता है, यह बात आजकल के कितने लड़के समझते हैं?"

अमियकान्त अपनी प्रशंसा सुनकर मुस्कुरा रहा था। प्रवीण अध्यापक पिता ने उसकी बात का समर्थन किया है, यह कम बड़ी बात नहीं।

दोनों कारें अलग-अलग दिशाओं में चल पड़ीं-बेटा-बहू होटल... अखिलमोहन-रमारानी खाली मकान की ओर।

ओडिसा में दो सप्ताह रहने के दौरान बहू-बेटे को चार बार गार्डन पार्टी दी थी अखिलमोहन और रमारानी ने, क्योंकि उस छोटे-से मकान में एंजेला को कष्ट हो, यह वे लोग नहीं चाहते थे। इसके अलावा एंजेला को दिखाने लायक वैभव था ही क्या उस मकान में।

माँ के हाथ की बनी सारी चीजें परम तृप्ति से खायी थीं अमियकान्त ने। खाने के बाद माँ के पल्लू से मुँह पोंछ रहा था। एंजेला ने धीरे से कहा, "दिस् इज़ अन हाइजिनिक, अमु!"

"सॉरी"-कहकर अमियकान्त ने माँ का पल्लू छोड़ दिया था। रमारानी सोच रही थीं, कुछ भी हो, उनकी बहू उनके बेटे के स्वास्थ्य के प्रति काफी सजग है। इससे तो उन्हें खुश होना चाहिए।

रिंकू और एनी को अधिकतर माँ के पास छोड़कर अमियकान्त और एंजेला ने पूरा ओडिसा घूमा था। लौटने से पहले अमियकान्त ने कहा था, "आप दोनों हमारे पास चले आइए, नाहक यहाँ क्यों पड़े रहेंगे? भैया भी यही कहते हैं। कुछ दिन मेरे पास, कुछ दिन उनके पास। बहुत आराम है उन देशों में। जीवन-भर कम मेहनत नहीं की आप लोगों ने।"

रमारानी ने विस्मय भरी आवाज में पूछा, "घर-द्वार किसे दे जाएँगे?"

"घर-द्वार?" ऊँची आवाज में हँसा अमियकान्त । मधुर आवाज में कहा था उसने, "माँ, तुम्हें कम-से-कम एक बार तो देख ही आना चाहिए मेरा फ्लैट। तब जाकर कहीं समझोगी कि तुमने कैसा आदमी बनाया है। क्या तुम अपने बेटे की करामात नहीं देखोगी?"

रमारानी ने सहज रूप से जवाब दिया था, "भगवान तुम लोगों को ठीक से रखे। मेरे देखने न देखने में क्या रखा है? बस, ऊपरवाला देखता रहे। पर बेटे! देख तो रहा है न, घर-द्वार, पेड़, बाड़ी सब किस तरह मुस्करा रहे हैं। बिना आदमी के भला ये सब जी सकेंगे? नीबू के पेड़ में फूल-ही-फूल भरे हैं, केले का घौंद निकला है, असंख्य सहजन लगे हैं, फूलों के पौधों पर कलियाँ भरी पड़ी हैं-इन सबको छोड़कर कैसे रहूँगी, बता?"

एंजेला पति से कह रही थी, "ठीक है अमि! किसी की स्वाधीनता पर अंकुश लगाना अच्छा नहीं। ये लोग अपने घर में रहें। हमेशा के लिए हमारे घर में रहना इन्हें अच्छा नहीं लगेगा। किन्तु तुम्हारे देश में जब सरकार की ओर से 'वार्धक्य भत्ता' की कोई व्यवस्था नहीं है, तो तुम्हें कम-से-कम हर महीने इनके लिए कुछ वार्धक्य भत्ते का इन्तजाम करना चाहिए। इन लोगों ने तो काफी समय तक तुम्हारे लिए रुपये खर्च किये हैं। मुझे लगता है, पिताजी की आर्थिक हालत इन दिनों अच्छी नहीं है।"

अमि ने कुण्ठा और लज्जा से धीरे से कहा, "एंजी! तुम्हारी लेंगुएज हमारे देश से मेल नहीं खा रही है। 'वार्धक्य भत्ता' शब्द यहाँ अति कटु शब्द है।"

अखिलमोहन ने बात चलती-फिरती करने के लिए कहा था, "मैं हमेशा से भाषा से अधिक भाव पर जोर देता आया हूँ। बहू की बात का भावार्थ मैं समझ गया हूँ। वह हमारी मदद करना चाहती है। मैंने तुम पर जो रुपये खर्च किये हैं, उनका हिसाब-किताब निपटाना चाहती है। उसे क्या मालूम कि हमारे देश में बापबेटे में व्यावसायिक सम्बन्ध किसी सूरत में नहीं होता।"

रमारानी आँखों में आँसू भरे अवाक् हो सुन रही थीं सारी बातें। एक लम्बी साँस छोड़ते हुए बोलीं, “भगवान की कृपा से हमें किसी तरह की कमी नहीं है। हमारा गुजारा हो जाता है। तुम लोग अच्छी तरह रहो। इसी में हमारी खुशी है, आनन्द है।"

विदा लेकर जाने से एक दिन पहले एंजेला ने एक लिफाफा सास की ओर बढ़ाते हुए कहा था, "यहाँ का चार्ज मैं नहीं जानती। देख लीजिए, ठीक तो है?"

लिफाफे में कुछ रुपये देखकर रमारानी ने कहा, "ये किस बारे में कह रही हो? ये रुपये किसलिए हैं?"

एंजेला ने सहज रूप से कहा, "आपने बच्चों को इतने दिनों तक रखा था। उसी के हैं..'बेबी सीटर' चार्ज..."

रमारानी निश्चल प्रतिमा-सी खड़ी थीं। वे क्या जवाब दें?

अमियकान्त ने सहसा पहुँचकर कहा, "यह क्या कर रही हो एंजी! हमारे देश में यह सब नहीं चलता...।" माँ को यह बात समझाने के लिए अमियकान्त ने कहा, "बुरा मत मानना माँ, एंजी किसी खराब मायने में पैसे नहीं दे रही है। उसके देश में यही रिवाज है। हर काम का हिसाब-किताब करना पड़ता है, बच्चे बड़े हो जाने पर माँ-बाप के साथ व्यावसायिक सम्बन्ध हो जाता है। बल्कि वहाँ यह सब न करना अभद्रता है।"

रमारानी ने लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा, "अच्छी बात है। हमारे देश के रिवाज में पोता-पोती के हाथों में कुछ रखा जाता है। वह और कुछ नहीं, स्नेह प्रकट करना है।" रमारानी ने रुपये का लिफाफा रिंकू के हाथ में पकड़ा दिया।

वे लोग लौट गये। उनके जाते ही सिर्फ एक कमरा छोड़कर पूरा मकान किराये पर चढ़ा दिया अखिलमोहन ने। उनके इस छोटे-से मकान में वातानुकूलन की व्यवस्था नहीं है। बेटे जब भी आएँगे यहाँ नहीं टिकेंगे। शहर में कई सम्भ्रान्त होटल खुल गये हैं। टूरिस्टों के लिए होटल में अच्छी व्यवस्था है। उनके बेटे टूरिस्ट नहीं तो और क्या हैं?

मकान किराये पर चढ़ गया। किरायेदार कोई केरल के सज्जन हैं। रमारानी का लम्बे समय से शान्त मकान बच्चे की किलकारी से गूंज उठा। रमारानी को सूरज में अभि, अमि और प्रिया दिखाई देते थे। सूरज की मुस्कान, तुतली बातें, ठुकुर-टुकुर चलना, शरारत करना, सबकुछ मानो उनके बच्चों का हू-ब-हू प्रतिबिम्ब है।

सूरज की माँ कोई शिक्षित 'आया' ढूँढ़ रही थी। उसके फिर बच्चा होनेवाला था। पति-पत्नी के तौर-तरीके विदेशी थे। व्यवहार, बातचीत, अदब-कायदा लाजवाब था। किन्तु ओडिसा में शिक्षित आया मिलना आसान नहीं। दो महीने के अन्दर तीन आया नियुक्त हुईं और उन्हें अनुपयुक्त पाकर कुछ-कुछ दिनों में हटा दिया मिसेज वर्गीज ने। अब सूरज को सँभालना उसके वश का नहीं। प्रसव का समय करीब था। उधर मनचाही आया मिलना असम्भव लग रहा था। सूरज के लिए लगातार एक आदमी का होना आवश्यक था।

रमारानी ने सूरज को सँभाल लिया। मिसेज वर्गीज को सान्त्वना देते हुए बोलीं, "देखो वैजयन्ती, तुम मेरी बेटी की उम्र की हो। सूरज मेरा नाती है। उसके लिए कैसी चिन्ता? तुम्हें जब तक अच्छी आया नहीं मिलती है तब तक सूरज की जिम्मेदारी मेरी है। जब तक तुम अस्पताल में रहोगी, सूरज मेरे पास रहेगा। उसे कोई दिक्कत नहीं होगी। मुझसे अच्छी शिक्षित आया तुम्हें नहीं मिलेगी? समझीं? तीन-तीन बच्चों को मैंने पाल-पोसकर बड़ा किया है। अब सभी विदेश में प्रतिष्ठित नागरिक हैं। मेरी दक्षता समझ गयीं न?" रमारानी ने आत्म-प्रशंसाभरी मुस्कान छोड़ी।

मिसेज वर्गीज ने कृतज्ञता व्यक्त की, "धन्यवाद आण्टी! अब मैं निश्चिन्त हो गयी। किन्तु यह लड़का आपको परेशान कर डालेगा। मैं बहुत जल्दी कोई अच्छी आया ढूँढ लँगी। विज्ञापन दिया है मैंने सभी पत्र-पत्रिकाओं में।"

रमारानी ने सिर हिलाते हुए कहा, "ठीक है, ठीक है। तुम निश्चिन्त होकर आराम करो। ऐसे समय में मानसिक चिन्ता, अस्थिरता और उद्वेग बिलकुल ठीक नहीं। मैं हूँ तो। परेशान क्यों होती हो?"

वाकई अब मिसेज वर्गीज परेशान नहीं रहतीं। रमारानी और अखिलमोहन के तरंगहीन दिन सूरज के चपल कौतुक से स्पन्दित हो उठे।

रमारानी की सुबह शुरू होती सूरज की तोतली आवाज से, रात को रमारानी के ऊष्म बिछौने से सोते हुए सूरज को खूब सावधानी से अपने सोने के कमरे में उठा ले जाती मिसेज वर्गीज। रमारानी भूल गयी हैं कि सूरज भी एक विदेशी अतिथि है। वह किसी भी दिन चला जाएगा उनकी एकान्त जिन्दगी की यन्त्रणा को अनदेखा करके। कम्पनी के अफसर मिस्टर वर्गीज आखिर कितने वर्षों तक रहेंगे यहाँ?

सूरज...सूरज...सूरज। मानो सूरजमय हो यह पृथ्वी। सूरज की हँसी सूर्य से भी उज्ज्वल, सुन्दर, पवित्र है। इस पृथ्वी की समस्त कलुषताओं से परे है। सूरज, वह एक निष्पाप फूल है। सूरज में अभि, अमि, प्रिया के अतीत से जुड़े सपनों में पूरी तरह खो चुकी थी रमारानी।

वैजयन्ती अस्पताल चली गयी। पन्द्रह दिन बाद नवजात शिक्षु को गोद में लिये हुए वापस लौटी। सूरज ने एक बार भी माँ को नहीं ढूँढा इतने दिनों में। रमारानी सूरज को गोद में लिये खड़ी थीं। गर्व से बोली, "देख बैजू, तेरा सूरज ठीक है न?" मिसेज वर्गीज ने सूरज को गोद में लेने के लिए हाथ बढ़ाया। सूरज ने नहीं-नहीं की मुद्रा में सिर हिलाकर मना कर दिया और रमारानी को दोनों हाथों से भींचकर पकड़ लिया।

रमारानी होठ दबाकर मुस्कुराने लगीं। फिर बोली, "समझ गयी न, सूरज किसका बेटा है? सूरज मेरा बेटा है, मेरा नाती है, सूरज मेरा अभि, अमि, प्रिया, रिंकू, एनी है..." उनकी आँखें छलछला आयीं पवित्र आनन्द से।

मिसेज वर्गीज ने बनावटी गुस्सा प्रकट किया, "यह लड़का कितना बेईमान है? कुछ ही दिनों में मुझे भूल गया!" रमारानी ने मधुर उल्लास में कहा, "केवल बच्चे ही स्नेह, ममता की उचित कीमत दे सकते हैं। लाभ-हानि, पाना-खोना आदि व्यावसायिक हिसाब से वे कोसों दूर हैं..."

पाँच तारीख को मकान के किराये का चेक सफेद लिफाफे में डालकर रमारानी को दे दिया मिसेज वर्गीज ने। चेक के साथ सौ रुपये का एक नोट भी। रमारानी ने लिफाफे से नोट बाहर निकालकर दिखाते हुए कहा, "देखो बैजू, तुम कितनी पगला गयी हो! चेक के साथ ये रुपये कैसे? बात क्या है?"

मिसेज वर्गीज ने व्यावसायिक स्वर में कहा, "देखिए, आपका पारिश्रमिक इससे बहुत ज्यादा है। पर मेरी क्षमता जितनी है..."

"पारिश्रमिक?" रमारानी ने आश्चर्य से सवाल किया।

मिसेज वर्गीज ने ठण्डे गले से कहा, "जी आण्टी! आपका दो महीने का बेबी सीट चार्ज। आजकल घर-घर बेबी सीटिंग का काम शुरू कर दिया है आप जैसी निर्जंजाली महिलाओं ने। यदि आप और दो-चार बच्चों की भी देखभाल करें तो अच्छी-खासी कमाई हो जाएगी। मेरे मुँह से आपकी प्रशंसा सुनकर मेरी कई सहेलियाँ भी चाहती हैं आपके पास अपने बच्चे छोड़ना। इससे मुझे भी कुछ कम देना पड़ेगा, आपके समय का सदुपयोग भी हो जाएगा। सच ही तो है, आप मुफ्त में दूसरों के बच्चों के लिए इतनी शक्ति और समय क्यों बर्बाद करेंगी?"

रमारानी हतप्रभ-सी सोच रही थीं, 'मातृ-हृदय से वात्सल्य-ममता की धारा तो अनायास ही बहती है। उसके लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती। स्नेह-दान से शक्ति कम नहीं होती, बल्कि शक्ति की बचत होती है। हालाँकि आजकल के वस्तुवादी लोगों के आगे ये सब बातें अर्थहीन हैं।'

इतने बड़े आघात का धक्का रमारानी ने किसी तरह सँभाल लिया। रुपये लौटाते हुए ठण्डे स्वर में कहा, “मिसेज वर्गीज! क्या सिर्फ इतना ही है मेरा पारिश्रमिक? इससे तो अच्छा है कि आप कुछ न दें। इतना कम पारिश्रमिक देकर आप मार्किट में मेरा रेट कम कर रही हैं। मैंने तो इससे बहुत अधिक की उम्मीद की थी। मेरी उम्मीद के मुताबिक न दे सकें तो बल्कि सूरज को मेरे पास न भेजें।" रमारानी का गला रुंध गया।

मिसेज वीज चुपचाप लौट गयीं सौ रुपये का नोट लिये हुए। धड़ से किवाड़ बन्द करके धम्म से बिस्तर पर गिर गयीं रमारानी। क्या उन्होंने वाकई सूरज के लिए इतनी शक्ति खत्म की है? वरना अचानक उनमें इतनी थकान कहाँ से आ गयी।

उसके दूसरे दिन मिस्टर वर्गीज को मकान मालिक से तुरन्त मकान खाली करने का मासिक नोटिस मिल गया।

मिसेज वर्गीज दूसरे से कहती थी, "आखिर बुढ़िया कितना पारिश्रमिक चाहती थी? लाख रुपये? अगर कहती तो क्या दस-बीस रुपये और दे नहीं देती उसे? क्या करेगी इतने पैसों का? इसी कंजूसीपन की वजह से ही तो इसके लड़के आते नहीं, इन्हें पूछते नहीं। आते भी हैं तो घर होते हए भी होटल में रहते हैं..."

रमारानी सोच रही थीं, 'मेरे स्नेह का मूल्य लाख रुपये से कहीं अधिक है, उसका अन्दाजा तुम लोगों के हिसाबी मन के ब्याज निकालने वाले सूत्र से नहीं लगाया जा सकता...'

जिस दिन सूरज मकान छोड़कर जा रहा था, रमारानी सुबह-सुबह काम के बहाने कहीं चली गयी थीं...

दूसरे दिन अखबार में 'किराये पर मकान' शीर्षक से विज्ञापन छपा था। अन्य विवरण के साथ अखिलमोहन ने लिखा था, "ध्यान रहे, जिनके बच्चे होंगे उन्हें मकान किराये पर नहीं दिया जाएगा।" अखिलमोहन जानते थे कि आजन्म बच्चों को चाहने वाली रमारानी दूसरों के बच्चों को बेतहाशा चाहेंगी और उसका उचित प्रतिदान नहीं पा सकेंगी। फलस्वरूप उन्हें बार-बार ठेस पहुँचेगी और वे टूटती चली जाएंगी।

विज्ञापन पढ़कर जानकार लोग बतियाने लगे, "बुढ़िया इतनी नीच औरत है कि बच्चों को फूटी आँखों नहीं देख सकती। इसीलिए इतने वर्षों बाद बहू-बेटा आये थे, पर अपना मकान होते हुए भी होटल में टिके थे। क्या विज्ञापन से नहीं लगता ऐसा?" र

मारानी के श्रुतिपटल पर इन सब मृदुगुंजन के साथ और भी कई शब्द नितान्त असंलग्न रूप से चक्कर काट रहे थे, पारिश्रमिक, बेबी सीटर, उचित चार्ज, लाभ-हानि, हिसाब-किताब, वार्धक्य भत्ता इत्यादि-इत्यादि...

किन्तु उनके मातृ-हृदय के सहज सरल शब्दकोश में इन सब जटिल, अत्याधुनिक शब्दों का नामोनिशान तक नहीं था। इसलिए ये सारे शब्द उनके लिए अर्थहीन हैं, भले ही उन्हें कोई कुछ भी कहे।

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