वैशाली की नगरवधू (बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

Vaishali Ki Nagarvadhu (Novel) : Acharya Chatursen Shastri

101. विदा : वैशाली की नगरवधू

सात दिन के अनवरत प्रयत्न से चित्र बनकर तैयार हो गया । इसके लिए अम्बपाली को प्रत्येक भाव -विभाव के लिए अनेक बार नृत्य करना पड़ा। जो चित्र सम्पूर्ण हुआ वह साधारण चित्र न था , वह मूर्तिमती कला थी । देवी अम्बपाली की अलौकिक शरीर - छटा और कला का विस्तार ही उस चित्र में न था , उसमें अम्बपाली की असाधारण संस्कृत आत्मा तक प्रतिबिम्बित थी । वह चित्र वास्तव में सम्पूर्ण रीति पर आंखों से नहीं देखा जा सकता था । उसे देखने के लिए दिव्य भावुकता की आवश्यकता थी । चित्र को देखकर अम्बपाली स्वयं भी चित्रवत् हो गईं ।

चित्र की समाप्ति पर सान्ध्य भोजन के उपरान्त जब युवक गुफा में शयन के लिए जाने लगा , तब उसने कहा

“ प्रियतमे , आज इस कुटी में तुम्हारी अन्तिम रात्रि है, कल भोर ही में हम नगर को चलेंगे। मैं अश्व लेता आऊंगा प्रिये ! तनिक जल्दी तैयार हो जाना । मैं सूर्योदय से प्रथम ही तुम्हें नगर - पौर पर छोड़कर लौट आना चाहता हूं । दिन के प्रकाश में मैं नगर में जाना नहीं चाहता । ”

कल उसे इस कुटिया से चला जाना होगा, यह सुनकर अम्बपाली का हृदय वेग से धड़क उठा; वह कहना चाहती थी - कल क्यों प्रिय , मुझे अभी और यहीं रहने दो , सदैव रहने दो , पर वह कह न सकीं । उनकी वाणी जड़ हो गई ।

युवक ने कहा - “ कुछ कहना है प्रिये ? ”

“ बहुत कुछ, परन्तु कहूं कैसे ? ”

“ कहो प्रिय , कहो ! ”

“ तुम छद्मवेशी गूढ पुरुष हो , मुझे अपने निकट ले आओ, प्रिय मुझे परिचय दो। ” युवक ने सूखी हंसी हंसकर कहा

“ इतना होने पर भी परिचय की आवश्यकता रह गई प्रिये ? मैं तुम्हारा हूं यह तो जान ही गईं; और जो ज्ञेय होगा, यथासमय जानोगी; उसके लिए व्याकुलता क्यों ? ”

कुछ देर चुप रहकर अम्बपाली ने कहा

“ तुमने कहां से यह अगाध ज्ञान - गरिमा प्राप्त की है भद्र, और यह सामर्थ्य ? ”

“ ओह, मैं तक्षशिला का स्नातक हूं प्रिये , तिस पर अंग -बंग , कलिंग, चम्पा , ताम्रपर्णी और सम्पूर्ण जम्बूद्वीपस्थ पूर्वीय उपद्वीपों में मैं भ्रमण कर चुका हूं और मेरा यह शरीर - सम्पत्ति पैतृक है । ”

क्षण - भर स्तब्ध खड़ी रहकर अम्बपाली युवक के चरणों में झुक गईं , उन्होंने कहा

“ भद्र , अम्बपाली तुम्हारी अनुगत शिष्या है। ”

“ और गुरु भी ! ”युवक ने अम्बपाली को हृदय से लगाकर कहा ।

“ गुरु कैसे ? ”

“ फिर जानोगी प्रिये, अभी विदा, सुप्रभात के लिए। ”

“ विदा प्रिय ! ”

“ युवक अन्धकार में खो गया और देवी अम्बपाली अपने - आप में ही खो गईं ।

वह रात- भर भूमि पर लेटी रहीं , युवक की पद- धूलि को हृदय से लगाए ।

एक दण्ड रात रहे, युवक ने कुटी - द्वार पर आघात किया ।

“ तैयार हो प्रिये ! ”

“ हां भद्र ! ”

युवक भीतर आ गया ।

“ क्या रात को सोईं नहीं प्रियतमे ? ”

“ सोना -जागना एक ही हुआ प्रिय ! ”

युवक कुछ देर चुप रहा । फिर एक गहरी सांस छोड़कर उसने कहा - “ अश्व बाहर है । क्या कुछ समय लगेगा ? ”

“ नहीं , चलो ! ”

युवक ने वह चित्र और वीणा उठा ली । उसने सिंह की खाल आगे रखकर कहा

“ यह उसी सिंह की खाल है । कहो तो इसे तुम्हारी स्मृति में रख लूं ? ”

“ वह तुम्हारी ही है प्रिय । इस अधम शरीर की खाल , हाड़ , मांस , आत्मा , भी । ” अम्बपाली की आंखों से मोती बिखरने लगे ।

दोनों धीरे -धीरे कुटी से बाहर हुए। अम्बपाली के जैसे प्राण निकलने लगे। नीचे आकर देखा - एक ही अश्व है ।

“ एक अश्व क्यों ? ”

“ तुम्हारे लिए। ”

“ और तुम ? ”

“ मैं तुम्हारा अनुचर पदातिक। ”

“ परन्तु पदातिक क्यों ? ”

“ तुम्हारे गुरुपद के कारण । ”

“ यह नहीं हो सकेगा, प्रिय ! ”

“ अच्छी तरह हो सकेगा, आओ, मैं आरोहण में सहायता करूं । ”

“ परन्तु तुम पदातिक क्यों भद्र ?

“ मुझे देवी अम्बपाली के साथ - साथ अश्व पर चलने की क्षमता नहीं है। प्रिये, देवी अम्बपाली लोकोत्तर सत्त्व हैं । ”

युवक का कण्ठ - स्वर कांपने लगा ।

अम्बपाली ने उत्तर नहीं दिया , वह चुपचाप अश्व पर चढ़ गईं। युवक पदातिक चलने लगा। दोनों धीरे- धीरे उपत्यका में उतरने लगे ।

उषा का प्रकाश प्राची दिशा को पीला रंग रहा था , वृक्ष और पर्वत अपनी ही परछाईं के अनुरूप अन्धकार की मूर्ति बने थे। उसी अन्धकार में से , वन के निविड़ भाग में होकर वह अश्वारोही और उसका संगी , दोनों धीरे - धीरे वैशाली के नगर - द्वार पर आ खड़े हुए ।

अभी द्वार बन्द थे। युवक ने आघात किया , प्रश्न हुआ

“ कौन है यह ? ”

“ चित्रभू, मित्र ! ”

“ ठीक है ठहरो , खोलता हूं। ”भारी सूचिका-यन्त्र के घूमने का शब्द हुआ और मन्द चीत्कार करके नगर - द्वार खुल गया ।

युवक ने अश्व के निकट जा अम्बपाली से मृदु कण्ठ से कहा -

“ विदा प्रिये! ”

“ विदा प्रियतम ! ”

दोनों ही के स्वर कम्पित थे, वीणा और चित्र देवी को देकर यवक तीव्र गति से लौटकर वन के अन्धकार में विलीन हो गया और अम्बपाली धीरे - धीरे अपने आवास की ओर चली ।

102. वैशाली की उत्सुकता : वैशाली की नगरवधू

जैसे देवी अम्बपाली के सिंह द्वारा आक्रान्त होकर निधन का समाचार आग की भांति वैशाली के जनपद में फैल गया था , वैसे ही देवी के अकस्मात् लौट आने से नगर में हलचल मच गई। सप्तभूमि प्रासाद के चमकते स्वर्ण - कलशों के बीच विविध मीन -ध्वज वायु में लहराने लगे। प्रासाद के सिंहपौर पर महादुन्दुभि अनवरत बजने लगी । उसका गम्भीर घोष सुनकर वैशाली के नागरिक निद्रा से जागकर आंखें मलते हए सप्तभूमि - प्रासाद की ओर दौड़ चले । देवी की आज्ञा से सम्पूर्ण प्रासाद फूलों , पताकाओं, तोरणों और रत्नजटित बन्दनवारों से सजाया गया । भृत्य और बन्दी चांदी के तूणीरों द्वारा बारम्बार गगनभेदी नाद करने लगे।

नागरिकों का ठठू प्रासाद के बाहरी प्रांगण और सिंहपौर पर एकत्रित हो गया था । सभी देवी के इस प्रकार अकस्मात् लोप हो जाने और फिर अकस्मात् ही अपने आवास में लौट आने की रहस्यपूर्ण अद्भुत कहानी विविध भांति कह रहे थे । सर्वत्र यह बात प्रसिद्ध हो गई कि देवी अम्बपाली को गहन वन में क्रीड़ारत गन्धर्वराज चित्ररथ गन्धर्वलोक में ले गए थे, वहां गन्धर्वराज ने मंजुघोषा वीणा स्वयं बजाई थी और समस्त दिव्यदेहधारी गन्धों के सम्मुख देवी अम्बपाली ने अपार्थिव नृत्य किया था । उसकी प्रतिच्छवि गन्धर्वराज ने स्वयं निर्मित की है तथा दिव्य मंजुघोषा वीणा भी देवी को गन्धर्वराज ने दी है ।

दिन - भर अम्बपाली अपने शयन - कक्ष में ही चुपचाप पड़ी रहीं । उन्होंने सन्ध्या से प्रथम किसी को भी अपने सम्मुख आने का निषेध कर दिया था । इससे बहुत से सेट्ठिपुत्र , राजवर्गी और सामन्तकुमार आ - आकर लौट गए थे। कुछ वहीं प्रांगण और अलिन्द में टहलने लगे थे। तब विनयावनत मदलेखा ने उन सबको स्फटिक कक्ष से मृदु- मन्द मुस्कान के साथ सन्ध्या के बाद आने को कहा । अभी देवी श्रान्त - क्लान्त हैं यह जानकर किसी ने हठ नहीं किया। किन्तु आज के सन्ध्या उत्सव की तैयारियां बड़े ठाठ से होने लगीं ।

स्फटिक के दीप - स्तम्भों पर सुगन्धि तेल से भरे स्नेह -पात्र रख दिए गए । तोरण और वन्दनवारों एवं रंग -बिरंगी पताकाओं से स्वागत - गृह सजाया जाने लगा। कोमल उपधान युक्ति से रख दिए गए। शिवि , कोजव , क्षौम बिछाए गए । आसन्दी सजाई गई । रत्नजटित मद्य- पात्रों में सुवासित मद्य भरा गया । स्थान - स्थान पर चौसर बिछाई गईं । सुन्दर दासियां चुपचाप फुर्ती से सब काम करतीं दौड़ - धूप कर रही थीं ।

सन्ध्या की लाल प्रभा अस्तंगत सूर्य के चारों ओर फैल गई और वह धीरे -धीरे अन्धकार में व्याप्त हो गई। सप्तभूमि प्रासाद सहस्र दीप - रश्मियों से आलोकित हो उठा । उसका प्रकाश रंगीन गवाक्षों से छन - छनकर नीलपद्म सरोवर पर प्रतिबिम्बित होने लगा । धीरे - धीरे नागरिक अपने - अपने वाहनों पर चढ़ - चढ़कर प्रासाद के मुख- द्वार पर आने लगे । दण्डधर और दौवारिक विविध व्यवस्था करने लगे । युवक नागरिक कौतूहल और उत्साह से भरे अम्बपाली को एक बार देख भर लेने को व्याकुल हो उठे । परन्तु प्रहर रात गए तक भी देवी अपने एकान्त कक्ष से बाहर नहीं निकलीं। इस समय वैशाली के श्रीमन्त तरुणों से अतिथि - गृह भर गया था । डेढ़ दण्ड रात बीतने पर अम्बपाली ने प्रमोद - गृह में प्रवेश किया । इस समय उनका परिधान बहुत सादा था । उनका मुख अभी भी सफेद हो रहा था । नेत्रों में विषाद और वेदना ने एक अप्रतिम सौन्दर्य ला दिया था । सेट्ठिपुत्र और सामन्त युवक देवी का स्वागत करने को आगे बढ़े। देवी अम्बपाली ने आगे बढ़कर मृदु- मन्द स्वर में कहा

“ मित्रो, आपका स्वागत है , आप सब चिरंजीव रहें ! ”

“ देवी चिरंजीवी हों - ” अनेक कण्ठों से यही स्वर निकला । देवी मुस्कराईं और आगे बढ़कर स्फटिक की एक आधारवाली पीठ पर बैठ गईं । उन्होंने स्वर्णसेन को देखकर आगे हाथ बढ़ाकर कहा

“ युवराज, आगे आओ; देखो, किस भांति हम पृथक् हुए और किस भांति अब फिर मिले, इसको जीवन का रहस्य कहा जा सकता है। ”

स्वर्णसेन ने द्रवित होकर कहा - “ किन्तु देवी , मैं साहस नहीं कर सकता । देवी की आपदा का दायित्व तो मुझी पर है। ”

“ आपदा कैसी मित्र ? ”

“ आह, उसे स्मरण करने से अब भी हृदय कांप उठता है! कैसा भयानक हिंस्र जन्तु था वह सिंह। ”

“ किन्तु वह तो एक दैवी प्रतारणा थी , मित्र , उसके बाद तो जो कुछ हुआ वह अलौकिक ही था ? ”

“ तब क्या यह सत्य है देवी , कि आपका वन में गन्धर्वराज से साक्षात् हुआ था ? ” एक अपरिचित युवक ने तनिक आगे बढ़कर कहा । युवक अत्यन्त सुन्दर, बलिष्ठ और गौरांग था , उसके नेत्र नीले और केश पिंगल थे, उठान और खड़े होने की छवि निराली थी , उसका वक्ष विशाल और जंघाएं पुष्ट थीं ।

देवी ने उसकी ओर देखकर कहा - “ परन्तु भद्र, तुम कौन हो ? मैं पहली ही बार तुम्हें देख रही हूं। ”

स्वर्णसेन ने कहा -

“ यह मेरा मित्र मणिभद्र गान्धार है, ज्ञातिपुत्र सिंह के साथ तक्षशिला से आया है । वहां इसने आचार्य अग्निदेव से अष्टांग आयुर्वेद का अध्ययन किया है और अब यह कुछ विशेष रासायनिक प्रयोगों का क्रियात्मक अध्ययन करने आचार्य गौड़पाद की सेवा में वैशाली आया है। ”

“ स्वागत भद्र! ”अम्बपाली ने उत्सुक नेत्रों से युवक को देखकर मुस्कराते हुए कहा -“ प्रियदर्शी सिंह तो मेरे आवास के विरोधी हैं । उन्होंने तुम्हें कैसे आने दिया प्रिय और आचार्य से कैसे प्रयोग सीखोगे ? ”

“ लौहवेध और शरीरवेध- सम्बन्धी। ”

“ क्या वे सब सत्य हैं , प्रिय भद्र ? आचार्य गौड़पाद से तो मैं बहुत भय खाती हूं। ”

“ भय कैसा देवी ? ”

“ आचार्य की भावभंगी ही कुछ ऐसी है। ”वह हंस पड़ी। युवक भी हंस पड़ा ।

अम्बपाली ने अपना हाथ फैला दिया । युवक ने देवी के हाथ को आदर से थाम कर कहा -

“ तो देवी , क्या यह सत्य है कि ..... ”

“ हां सत्य ही है प्रिय , उसी भांति जिस भांति तुम्हारे लौह वेध और शरीरवेध के वे विशिष्ट प्रयोग । ”

स्वर्णसेन ने शंकित - सा होकर कहा -

“ तो सिंह का आक्रमण क्या प्रतारणा थी ? ”

“ निस्सन्देह युवराज, क्या तुमने वह दिव्य वीणा और चित्र देखा नहीं ? ”

“ देख रहा हूं, देवी ! तो इस सौभाग्य पर मैं आपको बधाई देता हूं। ”

मणिभद्र ने कहा - “ मैं भी आर्ये! ”

“ धन्यवाद मित्रो, आज अच्छी तरह पान करो । आज मैं सम्पूर्ण हूं, कृतकृत्य हूं, मैं धन्य हूं। मित्रो, मैं देवजुष्टा हूं। ”

चारों ओर देवी अम्बपाली की जय - जयकार होने लगी और तरुण बारम्बार मद्य पीने और ‘ देवी अम्बपाली की जय चिल्लाने लगे ।

103. दो बटारू : वैशाली की नगरवधू

चम्पा , वैशाली और राजगृह का मार्ग जहां से तीन दिशाओं को जाता है, उस स्थान पर एक अस्थिक नाम का छोटा - सा गांव था । गांव में बस्ती बहुत कम थी , परन्तु राजमार्ग के इस तिराहे पर होने के कारण इस गांव में आने-जाने वाले बटारू सार्थवाह और निगमों की भीड़ - भाड़ बनी ही रहती थी । गांव राजमार्ग से थोड़ा हटकर था परन्तु राजमार्ग पर ठीक उस स्थान पर , जहां से तीन भिन्न दिशाओं के तीन मुख्य मार्ग जाते थे, सेट्टियों और निगमों ने अनेक सार्वजनिक और व्यक्तिगत आवास - अटारी आदि बनवाए थे। एक पान्थागार भी था , जिसका स्वामी एक बूढ़ा व्रात्य था । इन सभी स्थानों पर यात्री बने ही रहते थे।

सूर्य मध्याकाश में चमक रहा था । पान्थागार के बाहर पुष्करिणी के तीर पर एक सघन वृक्ष की छाया में एक ब्राह्मण बटारू सन्ध्या - वन्दन कर रहा था । स्थान निर्जन था । ब्राह्मण प्रौढ़ावस्था का था । उसका वेश ग्रामीण था । वह पान्थागार में भरी हुई यात्रियों की भीड़ से बचकर यहां एकान्त में आकर पूजा कर रहा था । इस बटारू ब्राह्मण का वेश ग्रामीण अवश्य था , परन्तु मुख तेजवान् और दृष्टि बहुत पैनी थी ।

इसी समय एक और बटारू ने उसके निकट आकर थकित भाव से अपने इधर - उधर देखा और वृक्ष की छाया में बैठकर सुस्ताने लगा । ऐसा प्रतीत होता था कि उसका तन -मन दोनों ही थकित हैं । सुस्ताकर उसने वस्त्र उतार पुष्करिणी में स्नान किया और पाथेय निकाल आहर करने बैठा तो उसने ब्राह्मण की ओर देख प्रणाम किया और पूछा

“ कहां के ब्राह्मण हैं भन्ते ? ”

“ मगध के । ”

“ तो भन्ते, मेरे पास पाथेय है- भोजन करिए! ”

“ जैसी तेरी इच्छा गृहपति ! तू कौन है ? ”

“ सेट्ठी। ”

“ कहां का गृहपति ? ”

“ वीतिभय का । ”

“ स्वस्ति गृहपति ! कहकर ब्राह्मण मौन हो गया ।

जिसे ब्राह्मण ने गृहपति कहकर सम्मानित किया था , उसने कुत्तक की गांठ खोल उसमें से एक बड़ा - सा मधुगोलक निकालकर श्रद्धापूर्वक ब्राह्मण के आगे धर दिया । दूसरा मधुगोलक वह वहीं वृक्ष की छाया में बैठकर खाने लगा । ब्राह्मण की ओर उसने पीठ कर ली ।

ब्राह्मण भी भूखा था । नित्यकर्म से वह निवृत्त हो चुका था । उसने भी मधुगोलक को खाना प्रारम्भ किया । परन्तु ज्यों ही उसने मधुगोलक को तोड़ा - उसमें से मुट्ठी- भर तेजस्वी रत्न निकल पड़े । ब्राह्मण आश्चर्यचकित हो उस बटारू के मलिन वेश और दीन दशा की ओर देखने लगा । आश्चर्य बढ़ता जा रहा था । यदि यह वास्तव में इतना श्रीमन्त है कि इस ब्राह्मण को गुप्त दान देना चाहता है तो फिर इस प्रकार इसका भिक्षुक - वेश क्यों है ?

क्यों पदातिक एकाकी यात्रा कर रहा है ? फिर ऐसे मूल्यवान रत्नों के दाम तो बहुत हैं । ब्राह्मण सोचने लगा , इसमें कोई रहस्य है ।

जब दोनों भोजन कर चुके तब ब्राह्मण ने प्रसन्नदृष्टि से कहा

“ बैठ गृहपति , तेरा नाम क्या है ? ”

बटारू ने निकट बैठते हुए कहा - “ मैं कृतपुण्य हूं, वीतिभय के सेट्ठि धनावह का पुत्र । ”

“ अहा , सेट्टि धनावह ! अरे, वह तो मेरा यजमान था भन्ते ! तेरी जय रहे गृहपति , पर तू एकाकी कहां इस तरह दरिद्र बटारू की भांति यात्रा कर रहा है ? ”

“ मैं चम्पा जा रहा हूं भन्ते ! ”

“ चम्पा ? इस भांति साधन - रहित ? सुनूं तो क्यों ? ”

“ क्या कहूं , आर्य, मैं बड़ी विपन्नावस्था में हूं । ”

“ कह भद्र , मैं तेरा पुरोहित हूं, ब्राह्मण हूं।

“ तो आर्य, दुष्टा माता ने मुझे घर से बहिष्कृत किया है, अब मैं चम्पा जा रहा हूं । वहां मेरी मध्यमा पत्नी का पिता रहता है , वहीं उसके आश्रम में । ”

“ परन्तु इस अवस्था में क्यों ? ”

“ मेरे पास धन नहीं है आर्य! ”

“ पाथेय कहां पाया ? ”

“ माता से छिपाकर मध्यमा ने दिया । ”

ब्राह्मण कुछ-कुछ मर्म समझ गया । वह सन्देह की तीखी आंखों से बटारू को देखता रहा । फिर एकाएक अट्हास करके हंस पड़ा ।

उस हंसने से अप्रतिभ हो बटारू ने कहा -

“ आर्य के इस प्रकार हंसने का क्या कारण है ? ”

“ यही, कि गृहपति , तू भेद को छिपा नहीं सका। ” बटारू ने सूखे कण्ठ से कहा - “ भेद कैसा ? ”

“ तो तू सत्य कह , भद्र , तू कौन है ? ”

“ जो कहा, वह क्या असत्य है ? ”

“ असत्य ही है भद्र ! ”

“ कैसे जाना आर्य ? ”

“ तेरे नक्षत्र देखकर , तू तो सामन्तपुत्र है। ”

ब्राह्मण ने अपनी पैनी दृष्टि से बटारू के वस्त्रों में छिपे खड्ग की नोक की ओर ताकते हुए कहा।

बटारू ने इस दृष्टि पर लक्ष्य नहीं किया । उसने पृथ्वी में गिरकर ब्राह्मण को प्रणाम किया और कहा - “ आप त्रिकालदर्शी ब्राह्मण हैं , मैं सामन्तपुत्र ही हूं - उस दुष्टा सेट्टनी ने मुझे अपनी चार पुत्र - वधुओं में नियुक्त किया था , तथा यथेच्छ शुल्क देने का वचन दिया था । अब पांच संतति उत्पन्न कर मुझे उस मेधका ने छूछे-हाथ खदेड़ दिया । मध्यमा ने मुझे पाथेय दे चम्पा का संकेत किया है, वहां मैं उसकी प्रतीक्षा करूंगा। ”

“ परन्तु तू कौन है आयुष्मन् , अपना वास्तविक परिचय दे, मैं तेरी सब इच्छा पूरी करने में समर्थ हूं। ”

“ तो आर्य, मैं लिच्छवि हूं; और वैशाली से प्रताड़ित हूं। मैंने वैशाली को उच्छेद करने का प्रण किया है। ”

ब्राह्मण चमत्कृत हुआ । उसने उत्सुकता को दबाकर कहा -“ तू लिच्छवि होकर वैशाली पर ऐसा क्रुद्ध क्यों है ? ”

“ आर्य, वैशाली के गणों ने मेरी वाग्दत्ता अम्बपाली को नगरवधू बनाकर मेरे नागरिक अधिकारों का हरण किया है । ”

“ तो आयुष्मन्, तू कृतसंकल्प होकर कैसे नियुक्त हुआ ? और अब फिर तू उसी मोह में है। ”

“ तो आर्य, मैं क्या करूं ? ”

“ तू वैशाली का उच्छेद कर । ”

“ किस प्रकार आर्य ? ”

“ मेरा अनुगत होकर। ”

“ तो मैं आपका अनुगत हूं। ”

“ तो भद्र, यह ले। ”ब्राह्मण ने वस्त्र से निकालकर वे मुट्ठी- भर तेजस्वी रत्न उसके हाथ पर रख दिए।

रत्नों की ज्योति देख बटारू की आंखों में चकाचौंध लग गई। उसने कहा - “ ये रत्न , मैं क्या करूं ? ”

“ इन्हें ले , और यहां से तीन योजन पर पावापुरी हैं वहां जा । वहां मेरा सहपाठी मित्र इन्द्रभूति रहता है, उसे यह मुद्रिका दिखाना, वह तेरी सहायता करेगा। वहां उसकी सहायता से तू रत्नों को बेचकर बहुत - सी विक्रेय सामग्री मोल के दास -दासी - कम्मकर संग्रह कर ठाठ - बाट से एक सार्थवाह के रूप में चम्पा जा और अपने श्वसुर गृहपति का अतिथि कृतपुण्य होकर रह । परन्तु वहां तू मध्यमा की प्रतीक्षा में समय नष्ट न करना ! सब सामग्री बेच, श्वसुर से भी जितना धन उधार लेना सम्भव हो , ले भारी सार्थवाह के रूप में बिक्री करता और माल मोल लेता हुआ बंग, कलिंग, अवन्ती , भोज , आन्ध्र, माहिष्मती , भृगुकच्छ और प्रतिष्ठान की यात्रा कर। यह लेख ले और जहां - जहां जिन -जिनके नाम इसमें अंकित हैं , उन्हें यह मुद्रिका दिखा , उनके सहयोग से वैशाली के अभियान में अपना पूर्व परिचय गुप्त रख ‘ कृतपुण्य सार्थवाह होकर प्रवेश कर । आदेश मैं तुझे वहीं दूंगा । ”

ब्राह्मण की बात सुन और लक्षावधि स्वर्ण- मूल्य के रत्न उसके द्वारा प्राप्त कर उसने समझा कि यह ब्राह्मण अवश्य कोई छद्मवेशी बहुत बड़ा आदमी है। परन्तु वह उससे परिचय पूछने का साहस नहीं कर सका। उसने विनयावनत होकर कहा - “ जैसी आज्ञा , परन्तु आपके दर्शन कैसे होंगे ? ”

“ भद्र , वैशाली के अन्तरायण में नन्दन साहू की हट्ट है, वहीं तू बटारू ब्राह्मण को पूछना । परन्तु इसकी तुझे आवश्यकता नहीं होगी । यहां प्रतिष्ठा - योग्य स्थान लेकर अन्तरायण में निगम - सम्मत होकर हट्ट खोल देना । तेरा वैशाली में आगमन मुझ पर अप्रकट न रहेगा। ”

यह कहकर ब्राह्मण ने उसे एक लिखित भूर्जपत्र दिया और कहा - “ जा पुत्र अपना कार्य सिद्ध कर! ”

बटारू ने अपना मार्ग लिया । ब्राह्मण भी अपना झोला कंधे पर डाल , दण्ड हाथ में ले दूसरी ओर चला ।

104. दस्यु बलभद्र : वैशाली की नगरवधू

वैशाली में अकस्मात् ही एक अतर्कित भीति की भावना फैल गई। नगर के बाह्य और अन्तरायण सभी जगह बलभद्र की दु: साहसिक डकैतियों की अनेक आतंकपूर्ण साहसिक कहानियां जगह- जगह सुनी जाने लगीं । जितने मुंह उतनी ही बातें थीं । सभी परिजन और राजवर्गी उत्तेजित हो उठे । परिषद् का वातावरण भी क्षुब्ध हो गया था ।

पर दस्यु बलभद्र और उसके दुर्धर्ष दस्युओं को कोई पकड़ नहीं सका । अट्टी -रक्खकों को बारम्बार सावधान करने पर भी इधर - उधर राह चलते धनपति लुटने लगे। ग्रामों से अशान्त सूचनाएं आने लगीं। एक दिन परिषद् का राजस्व नगर में आते हुए मार्ग में लुट गया और उसके कुछ दिन बाद ही दिन - दहाड़े अन्तरायण भी लूट लिया गया । इस घटना से वैशाली में बहुत आतंक छा गया । लोग नगर छोड़कर भागने लगे। बहुतों ने अपने रत्न पृथ्वी में गाड़ दिए । परन्तु नगर के सामन्त पुत्र इन सब झंझटों से उदासीन थे। वे दिन - भर अलस भाव से सन्ध्या होने की प्रतीक्षा में आंखें बन्द किए पड़े रहते , सन्ध्या होने पर सज - धजकर अलंकृत हो स्वर्ण रत्न कुर्वक - कोष में भरकर और उत्सुक - आकुल भाव से सप्तभूमि प्रासाद के स्वर्ग- लोक में जाकर सुरा - सुन्दरी - संगीत के सुख- भोग और द्यूत -विनोद में आधी रात तक डूबते - उतराते। फिर आधी रात व्यतीत हो जाने पर सूना कुर्वककोष , सूने हृदय से उनींदी

आंखों को खोलते -मींचते मद्य के मद में लड़खड़ाते अपने - अपने भृत्यों के कंधों का सहारा लिए , अपने - अपने वाहनों में अर्ध मृतकों के समान पड़कर अपने घर जाते और मृतक - से अत्यन्त गर्हित भाव से बेसुध होकर दोपहर तक पड़े रहते थे । विश्व में कहां क्या हो रहा है , यह जैसे वे भूल गए थे। उन्हें एक वस्तु याद रह गई थी , अम्बपाली की मन्द मुस्कान , उसका स्वर्गसदन सप्तभूमि प्रासाद, सुगन्धित मदिरा और अनगिनत अछूते यौवन ।

105 .युवराज स्वर्णसेन : वैशाली की नगरवधू

स्वर्णसेन ने मद्य पीकर रिक्तमद्य-पात्र दासी की ओर बढ़ा दिया और अर्धनिमीलित नेत्रों से उसे घूरकर कहा - “ और दे! दासी पात्र हाथ में लिए अवनत - वदन खड़ी रही। इस बार उसने मद्य पात्र भरा स्वर्णसेन ने कहा - “ मद और दे हला ! ”

“ अब नहीं । ”

युवराज ने कुछ अधिक नेत्र खोलकर कहा- “ अब और क्यों नहीं, दे हन्दजे, मद

“ वह अधिक हो जाएगा भन्ते, ” दासी ने कातर वाणी से कहा ।

युवराज उठकर बैठ गए। उन्होंने कुछ उत्तेजित होकर “ दे हला , मद दे ” कहते हुए वेग से हाथ हवा में हिलाया ।

दासी ने एक बार फिर कातर नेत्रों से युवराज को देखा और फिर चुपचाप पात्र भरकर युवराज के हाथ में दे दिया । इसी समय एक दण्डधर ने आकर महाअट्टवी -रक्खक सूर्यमल्ल के आने की सूचना दी । सूर्यमल्ल स्वर्णसेन के अन्तरंग मित्र थे। उनके लिए कोई रोक-टोक नहीं थी । वे दण्डधर के पीछे ही पीछे चले आए। स्वर्णसेन ने उद्योग करके अपनी आंखें खोलकर जिज्ञासा - भरी दृष्टि से उनकी ओर देखा। उस देखने का अभिप्राय यह था कि इस असमय में क्यों ?

सूर्यमल्ल ने साभिप्राय दासी की ओर देखा। दासी नतमस्तक वहां से चली गई ।

सूर्यमल्ल ने कहा - “ सुना है तुमने स्वर्ण , आज अन्तरायण लुट गया है ? ”

मद्यपात्र अभी भी स्वर्णसेन के होंठों से लगा था । अब उन्होंने आंखें बन्द कर लीं । सूर्यमल्ल ने उत्तेजित होकर कहा

“ मैं महाबलाधिकृत का सन्देश लाया हूं। ”

“ महाबलाधिकृत ने असमय में क्या सन्देश भेजा है मित्र ? ”स्वर्णसेन ने लड़खड़ाती वाणी से पूछा ।

“ यही , कि हम अभी तत्काल दस सहस्र सेना लेकर मधुवन को घेर लें । ”

“ अभी क्यों ? फिर कभी क्यों नहीं ? ”उन्होंने मद्यपात्र एक ओरफेंकते हुए कहा ।

“ चर ने सन्देश दिया है कि दस्यु बलभद्र मधुवन में छिपा है । ”

“ दस्यु से तुम डरते हो सूर्यमल्ल ? धिक्कार है! ”

“ किन्तु गणपति का आदेश है कि हम अभी दस सहस्र सैन्य .... ”

“ परन्तु हम क्यों , तुम क्यों नहीं ? ”

“ मैं भी साथ चलता हूं। ”

“ तो चल मित्र , तनिक सहारा देकर उठा तो । ”

सूर्यमल्ल ने स्वर्णसेन को उठाकर खड़ा किया । स्वर्णसेन ने लड़खड़ाते हुए कहा - “ चलो अब। ”

“ कहां ? ”

“ देवी अम्बपाली के आवास को ! ”

“ और महाबलाधिकृत का आदेश ? ”

“ वह कल सूर्योदय के बाद देखा जाएगा । ”

“ परन्तु दस्यु .... ”

“ उस भाग्यहीन दस्यु को अभी कुछ क्षण मधुवन में विश्राम करने दो मित्र, सूर्योदय होने पर मैं उसे अपने खड्ग से खण्ड- खण्ड कर दूंगा । ”

सूर्यमल्ल ने कुद्ध होकर कहा - “ ऐसा नहीं हो सकता , महाबलाधिकृत का आदेश है। ”

“ होने दे मित्र , मेरी बात मान - चल अम्बपाली के आवास में , पी सुवासित मद्य , चख रूपसुधा , संगीतालाप और भोग स्वर्ग- सुख । चल मित्र ! ”उसने कसकर सूर्यमल्ल का हाथ पकड़ लिया ।

सूर्यमल्ल ने विरक्ति से कहा - “ तब तुम जाओ देवी के आवास की ओर , मैं अकेला ही मधुवन जाऊंगा। ”

“ अरे मित्र, तू नितान्त अरसिक है, यह चन्द्रमा की ज्योत्स्ना, यह शीतल मन्द सुगन्ध समीर , यह मादक यौवन , यह तारों- भरी रात ! चल मित्र , चल ! ”

युवराज एकबारगी ही सूर्यमल्ल के कंधे पर झुक गया और वे दोनों अंधकार पूर्ण राजपथ पर धीरे - धीरे चले अम्बपाली के आवास की ओर।

106 . प्रत्यागत : वैशाली की नगरवधू

कृतपुण्य सेट्ठी की वैशाली के अन्तरायण में धूम मच गई । सेट्रियों के निगम ने उसका स्वागत - सत्कार करने को गणनक्षत्र मनाया । नगरसेट्ठि ने उसे घर बुलाकर गंधमाल दे सम्मानित किया । उसके ठाठ -बाट , धनवैभव तथा विक्रेय सामग्री को देख वैशाली का सेट्ठिनिगम सन्न रह गया । सर्वत्र यही चर्चा होने लगी कि चम्पा का यह महासेट्ठि चम्पा के पतन के बाद राजकुल की संपूर्ण संपदा लेकर वैशाली में भाग आया है और अब वह वैशाली ही में रहकर व्यापार- वाणिज्य करेगा। सेट्ठि कृतपुण्य के साथ दासों , कम्मकरों , सेवकों की बड़ी भरमार थी । उनकी धन - सम्पत्ति , वाहन और अवरोध का वैभव विशाल था । घर - घर इस भाग्यवान् सार्थवाह के सौभाग्य की चर्चा थी , कि कालिका द्वीप में उसे स्वर्ण- रत्न की एक खान मिल गई थी और वह उससे अपना जहाज़ भर लाया है। परन्तु सबसे अधिक चर्चा की वस्तु उसके आठ समुद्री अश्व थे, जो वायु- वेग के समान चंचल और मूर्ति की भांति सुन्दर थे। इन अश्वों में से एक पर चढ़कर जब उसका पुत्र प्रात : और सन्ध्या समय वायु - सेवनार्थ अपने शिक्षकों और सेवकों के साथ राजमार्ग पर निकलता था , तो सब कोई अपने - अपने काम छोड़ - छोड़कर उन्हीं अश्वों की , अश्व के आरोही साक्षात् कार्तवीर्य के समान सुन्दर किशोर सेट्ठिपुत्र की और गृहपति कृतपुण्य सेट्ठि की चर्चा सत्य - असत्य काल्पनिक करने लगते । बहुत लोग बहुविध अटकल अनुमान लगाते ।

पाठक इस ‘ कृतपुण्य को भूले न होंगे । यह भाग्य -विदग्ध हर्षदेव का नूतन संस्करण था ।

वन में बटारू ब्राह्मण से विदा लेकर हर्षदेव पावापुरी गया और इन्द्रभूति ब्राह्मण से मिला। इन्द्रभूति ने उसे आदरपूर्वक अपने यहां ठहराकर विविध वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर अपने परिचितों, मित्रों और नगरनिगमों से उसका परिचय कराया तथा उसे सेट्ठिपुत्र कहकर उन्हें परिचय दिया । वहां उसने इन्द्रभूति की सहायता और सम्मति से बहुत - सी मूल्यवान् विक्रेय सामग्री मोल ली और उसे पचास अश्वतरियों पर लाद तथा चार दास और उत्तम अश्व मोल ले , अश्वारूढ़ हो वह चम्पा में जा पहुंचा। चम्पा के गृहपति सागरदत्त के घर पर पहुंच उसने कृतपुण्य कहकर अपना परिचय दिया । सागरदत्त सेट्ठि के अनेक जलयान ताम्रलिप्त और स्वर्णद्वीपों में विविध व्यापार की सामग्री लेने - बेचने जाते रहते थे और वह अतिसमृद्ध श्रीमन्त निगमपति सेट्ठि था । उसके कोई पुत्र न था , केवल एक वही मृगावती नाम की पुत्री थी जो कृतपुण्य को ब्याही थी । उसका चिरकाल से उसे कोई समाचार नहीं मिला था । अब वह अकस्मात् अपने जामाता को देख परम हर्षित हुआ । उसने बड़े प्रेम - सम्मान से उसका स्वागत किया । उसकी सहायता से उसका सब माल अच्छे मूल्य में बिक गया और महान् धनराशि उसे प्राप्त हुई । श्वसुर से कहकर उसने वीतिभय नगरी से मृगावती और उसके पुत्र को भी बुलवा लिया और वह कुछ काल स्त्री - पुरुष और ससुराल का परिपूर्ण आनन्द भोगता रहा। फिर ब्राह्मण की बात को स्मरण कर तथा वैशाली को लौटने की उत्सुकता से श्वसुर से आग्रह कर विविध बहुमूल्य वस्तुओं से तीन जहाज़ भर अपनी स्त्री मृगावती , पुत्र पुण्डरीक और दास - दासियों - कम्मकरों को संग ले जल -यात्रा को निकल पड़ा ।

वह माल लेता -बेचता , लाभ उठाता बंग, कलिंग, अवन्ती , भोज , आन्ध्र , माहिष्मती , भृगुकच्छ और प्रतिष्ठान, जल- थल में जैसा सुयोग मिला, घूमता फिरा । उसने ब्राह्मण की दी हुई सूची के अनुसार बंग में वैश्रमणदत्त , कलिंग में वीरकृष्ण मित्र, अवन्ती में श्रीकान्त , भोज में समुद्रपाल, आन्ध्र में स्यमन्तभद्र , माहिष्मती में सुगुप्त, भृगुकच्छ में सुदर्शन और प्रतिष्ठान में सुवर्णबल से मिलकर ब्राह्मण का गूढ़ सन्देश दिया और उनका गूढ़ सन्देश ब्राह्मण के लिए प्राप्त किया ।

इसी यात्रा के बीच जब वह पूर्वीद्वीप - समूहों में विचरण करता हुआ हस्तिशीर्ष द्वीप में पहुंचा, तो उसकी भेंट कई अन्य सार्थवाहों से हो गई , जो उसी की भांति विक्रेय वस्तु द्वीप- द्वीपान्तरों में बेचने जा रहे थे। हस्तिशीर्ष द्वीप से उसने उनके साथ ही मिलकर यात्रा की । दैवसंयोग से कुछ दिन समुद्र में यात्रा करते हुए उनके समुद्रयान झंझावात में फंस गए, वे सब यान टूट -फूटकर आरोहियों सहित समुद्र में डूब गए। केवल एक पोत , जिसमें कृतपुण्य और उसके पत्नी - पुत्र दास और धन -स्वर्ण था , किसी भांति कई दिन तक लहरों पर उथल - पुथल होता समुद्र-बीच अज्ञात और निर्जन कालिका द्वीप के किनारे जा टकराया । किसी प्रकार भूस्पर्श करने से उन लोगों को ढाढ़स हुआ । द्वीप में मीठा जल पी और स्वादिष्ट फल - मूल खाकर उन्होंने कई दिन की भूख -प्यास तृप्त की । परन्तु द्वीप जनरहित है, यह देख उन्हें दुःख हुआ। फिर भी स्वादिष्ट फल - मूल और मीठे जल की बहुतायत से उन्हें बड़ा सहारा मिला । उन्होंने अपने समुद्रयान की मरम्मत की तथा अनुकूल वायु की प्रतीक्षा में वहीं पड़े रहे।

इसी द्वीप में फल - मूल की खोज में घूमते - भटकते उसे माणिक्य और स्वर्ण की खाने मिल गईं। इस प्रकार दुर्भाग्य में से भाग्योदय देखकर वह उन्मत्त की भांति हर्ष से नाचने लगा । उसने दासों और कम्मकरों की सहायता से स्वर्ण और रत्न की राशि अपने जहाज में भर ली । इतना अधिक बेतोल स्वर्ण तथा सूर्य के समान तेजवान् त्रिलोक- दुर्लभ कुडव -प्रस्थ भार के माणिक्य पाकर उसके रक्त की एक - एक बूंद उसकी नाड़ियों में नाचने लगी । अब वह पृथ्वी पर सबसे बड़ा धन कुबेर था । मनुष्य की दृष्टि से न देखे गए रत्न उसके चरणों में

परन्तु उसके सौभाग्य की समाप्ति यहीं पर नहीं हुई । पूर्णिमा को चन्द्रोदय होने पर ज्यों ही समुद्र में ज्वार आया, बहुत - से अद्भुत समुद्री अश्व जल में बहकर द्वीप के तट पर आए और द्वीप में विचरण करने लगे । उन अद्भुत और विद्युत्वेग के समान चपल तथा मनुष्य - लोक में दुर्लभ महाशक्ति - सम्पन्न वाडव अश्वों को देख प्रथम तो कृतपुण्य और उसके संगी-साथी भयभीत होकर एक योजन दूर भाग गए, परन्तु जब समुद्र में ज्वार उतर गया और वे अश्व भी समुद्र - गर्भ में चले गए, तब वे लोग फिर समुद्र- तट पर आकर पराक्रमी अश्वों को देखते रहे ।

कृतपुण्य ने इन अश्वों को पकड़कर ले जाने का निश्चय किया । अन्तत : वह साहसिक सामन्त था । उसमें सुप्त आखेट - वासना जाग्रत हई और अश्वों को पकड़ने का सम्पर्ण आयोजन विचारकर वह आगामी पूर्णिमा तक समुद्र में ज्वार आने की प्रतीक्षा में उसी द्वीप में ठहर गया ।

समुद्र में पूर्ण चन्द्रोदय होने पर फिर ज्वार आया । फिर वैसे ही अनगिनत वाडव अश्व समुद्र की तरंगों पर तैरते हुए द्वीप में घुस आए। कृतपुण्य ने एक ऊंचे स्थान पर बैठकर वीणा बजानी प्रारम्भ की । वीणा की मधुर झंकृति से विमोहित हो वे अश्व उसी शब्द की ओर आकर्षित हो अपने लम्बे - लम्बे कान खड़े कर खड़े- के - खड़े रह गए । तब कृतपुण्य के संकेत से उसके दासों ने उन्हें विविध सुगन्ध - द्रव्य सुंघाए , विविध स्वादिष्ट मधुर खाद्य - पेय खाने को दिए। इस प्रकार वीणा की ध्वनि से विमोहित तथा विविध गन्ध - खाद्य - पेय से लुब्ध बने वे अश्व उन मनुष्यों से परिचित की भांति बारम्बार मुंह उठाकर खाद्य - पेय मांगने तथा खड़े- खड़े कनौतियां काटने लगे । समुद्र के पीछे लौटने का उन्हें भान ही न रहा। ज्वार उतर गया और कृतपुण्य के दासों ने उन्हें युक्ति से दृढ़ बन्धन से बांध लिया तथा जलयान पर चढ़ा लिया ।

इस अद्भुत और अतर्कित रीति से देव - मनुष्य - दुर्लभ वाडव अश्व और अमोघ रत्ननिधि इस अक्षेय द्वीप से लेकर कृतपुण्य ने अनुकूल वायु देख , जल - ईंधन और फल - मूल आदि भरकर प्रस्थान किया तथा देश - देश में होता हुआ वह भृगुकच्छ पहुंचा। भृगुकच्छ में उसने बहुत - सा माल क्रय किया , तथा स्थल - मार्ग से सार्थवाह ले चला । इस समय उसका सार्थवाह एक चतुरंगिणी सेना की भांति था । भृगु कच्छ में ठहरकर उसने चतुर, गुणी और शास्त्रज्ञ अश्वपालों एवं अश्वमर्दकों को नियुक्त किया जिन्होंने अश्वों के मुंह - कान बांध , वल्गु चढ़ा , तंग खींच, चाबुक और वेत्र की मार - मारकर विविध भांति आज्ञा पालन और चाल चलने की शिक्षा दी । इस प्रकार शिक्षण प्राप्त कर और बहुमूल्य रत्नाभरणों से सुसज्जित होकर जब ये अश्व लोगों की दृष्टि में पड़े, तब सब उन्हें देखते ही रह गए ।

इस प्रकार भाग्य की नियति से विक्षिप्तावस्था में वैशाली को त्यागने के सात वर्ष पश्चात् हर्षदेव ने महासेट्ठि सार्थवाह कृतपुण्य के रूप में वहां प्रवेश किया और उत्तरायण में सहस्र स्वर्णशिखरों वाला श्वेतमर्मर का हर्म्य बनवा , दास- दासियों, कम्मकरों , लेखकों , कर्णिकों, दण्डधरों, द्वारपालों , रक्खकों से सेवित हो देखते - ही - देखते सर्वपूजित हो वह वहां निवास करने लगा और अपनी दिनचर्या से ऐश्वर्य - चमत्कार दिखा-दिखाकर नगर , नागर और जनपद को चमत्कृत करने लगा , तो कुछ दिन तक तो लोग सब - कुछ भूलकर सेट्टि कृतपुण्य की ही चर्चा वैशाली में घर - घर करने लगे ।

107 . वैशाली में मगध महामात्य : वैशाली की नगरवधू

वैशाली के जनपद में इस बार फिर भूकम्प हुआ। वैशाली के महान् राजमार्ग पर एक दीर्घकाय ब्राह्मण पांव -प्यादा धीर - मन्थर गति से संथागार की ओर बढ़ रहा था । उसके पांव नंगे और धूलि - धूसरित थे, कमर में एक शाण - साटिका और कन्धे पर शुभ्र कौशेय पड़ा था , जिसके बीच से उसका स्वच्छ जनेऊ चमक रहा था । इस ब्राह्मण का वर्ण गौर, मुख मुद्रा गम्भीर और तेजपूर्ण नेत्र, दृष्टि पैनी, ललाट उन्नत , कन्धे और ग्रीवा मांसल , होंठ संपुटित , भालपट्ट चन्दन - चर्चित नंगे सिर पर शतधौत हिमश्वेत चोटी । वह अगल - बगल नहीं देख रहा था , उसकी दृष्टि पृथ्वी पर थी ।

उसके निकट आने तथा साथ चलने की स्पर्धा वैशाली में कोई नहीं कर सकता था । उससे पचास हाथ के अन्तर पर दो सहस्र ब्राह्मण नंगे पैर , नंगे बदन , नंगे सिर , केवल शाटिका कमर में पहने और जनेऊ हाथों में ऊंचे किए चुपचाप चल रहे थे। उनके पीछे सहस्रों नागरिक, ग्रामीण , सेट्ठि , सामन्त , विश, कम्मकर और अन्य पुरुष थे। घरों के झरोखों से मिसिका और अलिन्दों से कुलवधू , गृहपति पत्नियां आश्चर्य, कौतूहल और भीत मुद्रा से इस सूर्य के समान तेजस्वी ब्राह्मण को देख रहे थे । सब नि : शब्द चल रहे थे। सभी मन - ही -मन भांति - भांति के विचार कर रहे थे। कोई कानों - कान फुसफुसाकर बात कर रहे थे ।

यह ब्राह्मण विश्वविख्यात राजनीति का ज्ञाता, मगध का पदच्युत दुर्धर्ष अमात्य वर्षकार था । उसके राजविग्रह , राजकोप तथा राजच्युति के समाचार प्रथम ही विविध रूप धारण करके वैशाली में फैल गए थे।

संथागार के प्रांगण में वैशाली - गण - संघ के अष्टकुल - प्रतिनिधियों ने महामात्य का स्वागत किया और वे सब तेजस्वी ब्राह्मण को आगे कर संथागार में ले गए, जहां महासन्धिविग्रहिक जयराज और विदेश - सचिव ने आगे बढ़कर अमात्य का प्रति सम्मोदन करके अभ्यर्थना की । फिर उन्होंने उससे एक निर्दिष्ट आसन पर बैठने का अनुरोध किया । अमात्य ने अनुरोध नहीं माना और वह दो पग आगे बढ़कर वेदी के सम्मुख आ खड़े हुए । तब अमात्य ने जलद - गम्भीर वाणी से कहा - “ हुआ , बहुत शिष्टाचार सम्पन्न हुआ , परन्तु वज्जी के अष्टकुल भ्रम में न रहें । मैं आज मगध का अमात्य नहीं एक दरिद्र ब्राह्मण हूं । उदर के लिए अन्न की याचना करने आया हूं। अष्टकुल के गण - प्रतिनिधि ब्राह्मण को अन्न दें , तो यह ब्राह्मण राजसेवा करने को प्रस्तुत है। ”

विदेश - सचिव नागसेन ने आसन से उठकर कहा - “ आर्य अपने व्यक्तित्व में ही सुप्रतिष्ठित हैं । यह मगध का दुर्भाग्य है कि उसे आपकी राजसेवा से वंचित रहना पड़ा है , परन्तु राजसेवा के प्रतिदान का कोई प्रश्न नहीं है , वज्जीसंघ आर्य का वज्जी - भूमि में सम्मान्य अतिथि के रूप में स्वागत करता है। ”

“ सुनकर आश्वस्त हुआ , अष्टकुल का कल्याण हो ! यद्यपि मैं ब्राह्मण हूं , किन्तु भिक्षोपजीवी नहीं । वज्जीगण यदि राजसेवा लेकर अन्न दें तो मैं लूंगा, नहीं तो नहीं। ”

“ यह आर्य का गौरव है, परन्तु आर्य यह भली- भांति जानते हैं कि वज्जी - शासन में मात्र अष्टकुल के प्रतिनिधि ही सक्रिय रह सकते हैं -वर्णधर्मी आर्य नहीं । यह हमारी प्राचीन मर्यादा है । ”विदेश- सचिव नागसेन ने कहा ।

“ यह मैं नहीं जानता हूं । आयुष्मान् को सशंक और सावधान रहना चाहिए , यह भी ठीक है। परन्तु शासन में सक्रिय होने की मेरी अभिलाषा नहीं है । मैं तो अन्न का मूल्य देना चाहता हूं । ”

“ क्यों आर्य यह आज्ञा करते हैं , जबकि वज्जियों का यह संघ आर्य का सम्मान्य अतिथि के रूप में स्वागत करने को प्रस्तुत है ? ”

“ ठीक है, परन्तु आयुष्मान् पूज्य - पूजन की भी एक मर्यादा है। मैं अतिथि तो हूं नहीं, जीविकान्वेषी हूं अर्थी हूं! ”.

“ तो आर्य प्रसन्न हों , वज्जीगण संघ को आशीर्वाद प्रदान करते रहें , आर्य की यही यथेष्ट सेवा होगी। ”

“ भद्र, मैं राजपुरुष प्रथम हूं और ब्राह्मण पीछे। मैं आशीर्वाद देने का अभ्यासी नहीं . राजचक्र चलाने का अभ्यासी हूं । ”

जयराज सन्धिविग्रहिक ने गणपति सुनन्द का संकेत पाकर खड़े होकर कहा

“ तब आर्य यदि वज्जीगण के समक्ष मगध- सम्राट् पर आर्य के प्रति कृतघ्नता अथवा अनाचार का अभियोग उपस्थित करते हैं , तो गण- सन्निपात उस पर विचार करने को प्रस्तुत हैं । ”

“ मगध- सम्राट् वज्जीगण का विषय नहीं है आयुष्मान्, इसलिए वज्जीगण सन्निपात इस सम्बन्ध में विचार नहीं कर सकता । फिर मेरा कोई अभियोग ही नहीं है, मैं तो अन्न का इच्छुक हूं। ”

“ तब यदि आर्य वजीसंघ में राजनियुक्त हों और वज्जीसंघ यदि मगध पर अभियान करे , तब आर्य कठिनाई में पड़ सकते हैं । ”

“ कठिनाई कैसी, आयुष्मान् ? ”

“ द्विविधा की , आर्य! ”

“ परन्तु वज्जीसंघ मगध पर अभियान क्यों करेगा ? उसकी तो साम्राज्य-लिप्सा नहीं है। ”

“ नहीं वज्जीसंघ न अभियान करे, मगध ही वजी पर अभियान करे , तब आर्य क्या करेंगे ? ”

“ जो उचित होगा, वही!

“ और औचित्य का मापदण्ड क्या होगा -विवेक , न्याय या राजनीति ? ”

“ राजनीति आयुष्मान् ! ”

“ किसकी राजनीति, आर्य ? ”जयराज ने हंसकर कहा।

कुटिल ब्राह्मण क्रोध से थर - थर कांपने लगा, उसने कहा

“ मेरी ही राजनीति , आयुष्मान् ! ”

“ तो आर्य क्या ऐसी आज्ञा देते हैं कि भविष्य में वज्ज़ियों का गण - शासन आर्य की राजनीति का अनुगमन करें ? ”

“ यदि यह ब्राह्मण उसके लिए हितकर होगा तो उसे ऐसा ही करना चाहिए। ”

“ तो आर्य, यह गण-नियम के विपरीत है । यह साम्राज्य -विधान में सुकर है गण शासन में नहीं। गण - शासन सन्निपात के छन्द के आधार पर ही शासित हो सकता है । ”

“ तो वज्जीसंघ आश्रित ब्राह्मण को आश्रय नहीं दे सकता है ? ”

अब गणपति सुनन्द ने कहा -

“ आर्य, आप भलीभांति जानते हैं कि हमारा यह संघशासित तन्त्र सर्वसम्मति से चलता है, इसलिए इस सम्बन्ध में सोच-विचारकर जैसा उचित होगा , आर्य से परामर्श करके निर्णय कर लिया जाएगा । तब तक आर्य वज्जी -गणसंघ के प्रतिष्ठित अतिथि के रूप में रहकर संघ की प्रतिष्ठा - वृद्धि करें । ”

“ तो गणपति राजन्य , ऐसा ही हो ! ”

आर्य वर्षकार ने हाथ ऊंचा करके कहा - “ तब तक मैं दक्षिण -ब्राह्मण- कुण्डग्राम सन्निवेश में आयुष्मान् सोमिल श्रोत्रिय का अन्तेवासी होकर ठहरता हूं । ”

विदेश - सचिव ने कहा - “ जिसमें आर्य प्रसन्न हों ! तब तक आर्य की सेवा के लिए सहस्र स्वर्ण प्रतिदिन और यथेष्ट दास -दासी संघ की ओर से नियुक्त किए जाते हैं ! ”

वर्षकार ने मौन हो स्वीकार किया और संथागार त्यागा ।

108. भद्रनन्दिनी : वैशाली की नगरवधू

बहुत दिनों बाद वैशाली में अकस्मात फिर उत्तेजना फैल गई । उत्तेजना के विषय दो थे, एक मगध महामात्य आर्य वर्षकार का मगध - सम्राट् से अनादृत होकर वैशाली में आना; दूसरा विदिशा की अपूर्व सुन्दरी वेश्या भद्रनन्दिनी का वैशाली में बस जाना । जिस प्रकार आर्य वर्षकार उस समय भू - खण्ड पर विश्व -विश्रुत राजनीति के पण्डित प्रसिद्ध थे , उसी प्रकार भद्रनन्दिनी अपने रूप , यौवन और वैभव में अपूर्व थी । देखते ही देखते उसने वैशाली में अपने वैभव का एक ऐसा विस्तार कर लिया कि अम्बपाली की आभा भी फीकी पड़ गई । नगर - भर में यह प्रसिद्ध हो गया कि भद्रनन्दिनी विदिशा के अधिपति नागराज शेष के पुत्र पुरञ्जय भोगी की अन्तेवासिनी थी । वह नागकुमार भोगी के असद्व्यव्हार से कुपित होकर वैशाली आई है । उसके पास अगणित रत्न , स्वर्ण और सम्पदा है । उसका रूप अमानुषिक है और उसका नृत्य मनुष्य को मूर्छित कर देता है । सभी महारागों और ध्वनिवाद्य में उसकी असाधारण गति है। वह चौदह विद्याओं और चौंसठ कलाओं की पूर्ण ज्ञाता , सर्वशास्त्र -निष्णाता दिव्य सुन्दरी है । वह अपने यहां आनेवाले अतिथि से केवल नृत्य -पान का सौ सुवर्ण लेती है। वह अपने को नागराज भोगी पुरञ्जय की दत्ता कहती है और किसी पुरुष को शरीर -स्पर्श नहीं करने देती । वैशाली के श्रीमन्त सेट्टिपुत्र और युवक सामन्त उसे देखकर ही उन्मत्त हो जाते हैं । उसका असाधारण रूप और सम्पदा ही नहीं , उसका वैचित्र्य भी लोगों में कौतूहल की उत्पत्ति करता है । नागपत्नी को देखने की सभी अभिलाषा रखते हैं । जो देख पाते हैं वे उस पर तन - मन वारने को विवश हो जाते हैं , परन्तु किसी भी मूल्य पर वह किसी पुरुष को अपना स्पर्श नहीं करने देती है । उसकी यह विशेषता नगर - भर में फैल गई है। लोग कहते हैं , इसने देवी अम्बपाली से स्पर्धा की है। कुछ कहते हैं , नागराज ने देवी अम्बपाली से प्रणयाभिलाषा प्रकट की थी , सो देवी से अनादृत होकर उनका मनोरंजन करने को यह दिव्यांगना छद्मवेश में नागराज ने भेजी है । भद्रनन्दिनी का द्वार सदा बन्द रहता था । द्वार पर सशस्त्र पहरा भी रहता था , पहरे के बीच में एक बहुत भारी दर्दुर रखा हुआ था , जो आगन्तुक सौ सुवर्ण देता , वही दर्दुर पर डंका बजाता , प्रहरी उसे महाप्रतिहार को सौंप देता और वह आगन्तुक को भद्रनन्दिनी के विलास कक्ष में ले जाता, जहां सुरा , सुन्दरियां और कोमल उपधान उसे प्रस्तुत किए जाते । एक नियम और था , सौ स्वर्ण लेकर एक रात्रि में वह केवल एक अतिथि का मनोरंजन करती थी । तरुण श्रीमन्तों का सामूहिक स्वागत करने का उसका नियम न था ।

कृष्णपक्ष की चतुर्दशी थी । रात अंधेरी थी , पर आकाश स्वच्छ था । उसमें अगणित तारे चमक रहे थे। माघ बीत रहा था । सर्दी काफी थी । नगर की गलियों में सन्नाटा था । डेढ़ पहर रात्रि व्यतीत हो चुकी थी । एक तरुण अश्व पर सवार धीर - मन्थर गति से उन सूनी वीथिकाओं में जा रहा था । भद्रनन्दिनी के सिंह- द्वार पर आकर वह अश्व से नीचे उतर पड़ा ।

ड्योढ़ी के एक दास ने आगे बढ़कर अश्व थाम लिया। प्रहरियों के प्रधान ने आगे बढ़कर कहा - “ भन्ते सेनापति , आप चाहते क्या हैं ? ”

जिस तरुण को सेनापति कहकर सम्बोधित किया गया था , उसने उस प्रतिष्ठित सम्बोधन से कुछ भी प्रसन्न न होकर एक भारी- सी किन्तु छोटी थैली उसकी ओर फेंक दी और आगे बढ़कर डंका उठा दर्दुर पर चोट की । दूर - दूर तक वह शब्द गूंज उठा । प्रहरी ने आदरपूर्वक सिर झुकाकर द्वार खोल दिया ।

प्रहरी विदेशी था । वह जितना शरीर से स्थूल था , वैसी ही स्थूल उसकी बद्धि भी थी । उसने डरते - डरते झुककर पूछा - “ सौ ही स्वर्ण हैं भन्ते , कम तो नहीं ? ”

“ कुछ अधिक ही है।

“ सौ तेरी स्वामिनी के लिए और शेष तेरे लिए हैं । ”तरुण ने मुस्कराकर कहा ।

प्रहरी खुश हो गया । उसने हंसकर कहा - “ आपका कल्याण हो भद्र, यह मार्ग है , आइए! ”

भीतर अलिन्द में जाकर उसने महाप्रतिहार पीड़ को पुकारा । प्रतिहार अतिथि को भद्रनन्दिनी के निकट ले गया । भद्रनन्दिनी ने उसे ले जाकर बहुमूल्य आसन पर बैठाया और हंसकर कहा - “ भद्र , कैसा सुख चाहते हैं - पान , नृत्य , गीत , द्यूत या प्रहसन ?

“ नहीं प्रिये, केवल तुम्हारा एकान्त सहवास , तुम्हारा मृदु- मधुर वार्तालाप । ”

“ तो भन्ते, ऐसा ही हो ! ”उसने दासियों की ओर देखा । दासियां वहां से चली गईं । द्वारों और गवाक्षों पर पर्दे खींच दिए गए। एक दासी एक स्वर्ण- पात्र में गौड़ीय स्फटिक पानपात्र और बहुत - से स्वादिष्ट भूने शल्य मांस -श्रृंगाटक रख गई ।

भद्रनन्दिनी ने कहा - “ अब और तुम्हारा क्या प्रिय करूं प्रिय ? ”

“ मेरे निकट आकर बैठो प्रिये !

नन्दिनी ने पास बैठकर हंसते -हंसते कहा -किन्तु भद्र! तुम जानते हो मैं नागपत्नी हूं, अंग से अस्पृश्य हूं। ”

“ सो मैं जानता हूं प्रिये , केवल तुम्हारे वचनामृत का ही आनन्द लाभ चाहता हूं। ”

नन्दिनी ने मद्यपात्र में सुवासित गौड़ीय उड़ेलते हुए पूछा

“ किन्तु भद्र, यह मुझे किस महाभाग के सत्कार का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है ? ”

“ वैशाली के एक नगण्य नागरिक का भद्रे! ”

“ वैशाली में ऐसे कितने नगण्य नागरिक हैं प्रिय , जो एक वीरांगना से केवल वाग्विलास करने का शुल्क सौ सुवर्ण दे सकते हैं ? ”

“ यह तो भद्रे, गणिकाध्यक्ष सम्भवत : बता सके , परन्तु उसके पास भी आगन्तुकों का हिसाब-किताब तो न होगा ।

“ जाने दो प्रिय , किन्तु , इस प्रियदर्शन नगण्यनागरिक का नाम क्या है ? ”

“ विदिशा की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी आज के शुभ मुहूर्त में उसका जो भी नाम निर्धारित करे , वही। ”

“ उस नाम को वैशाली का गणपद स्वीकार कर लेगा ? ”

“ न करे , उसकी क्या चिन्ता ! किन्तु विदिशा की सुन्दरी के आवास के भीतर तो उसी नाम का डंका बजेगा । ”

नन्दिनी ने हंसकर मद्यपात्र युवक के हाथ में दे दिया और हंसते हुए कहा - “ समझ गई प्रिय, आप छद्म-नाम धारण करना चाहते हैं , किन्तु इसका कारण ? ”

“ यदि यही सत्य है तो छद्म- नाम धारण करने का कारण भी ऐसा नाम धारण करने वाला भलीभांति जानता है, ” उसने मद्य पीते हुए कहा ।

“ ओह, तो मित्र , तुम कोरे तार्किक ही नहीं हो ? ”

“ नहीं प्रिये , मैं तुम्हारा आतुर प्रेमी भी हूं “ उसने खाली पात्र देते हुए कहा ।

नन्दिनी जोर से हंस दी और पात्र फिर से भरते हुए बोली - “ सत्य है मित्र, तुम्हारे प्रेम का सब रहस्य तुम्हारी आंखों और सतर्क वाणी में दीख रहा है। ”उसने दूसरा चषक बढ़ाया ।

चषक लेकर हंसते हुए युवक ने कहा - “ इसी से प्रिये, तुम चषक पर चषक देकर मेरे नेत्रों का रहस्य और वाणी की सतर्कता को धो बहाना चाहती हो । ”

“ नहीं भद्र, मेरी यह सामर्थ्य नहीं, परन्तु गणिका के आवास में आकर भी पान करने में इतना सावधान पुरुष वैशाली ही में देखा। ”

“ मगध में नहीं देखा प्रिये ? ”उसने गटागट पीकर चषक नन्दिनी को दिया । नन्दिनी विचलित हुई। रिक्त चषक लेकर क्षण - भर उसने युवक की ओर घूरकर देखा ।

युवक ने हंसकर कहा - “ यदि कुछ असंयत हो उठा होऊं तो यह तुम्हारे मद्य का दोष है; किन्तु क्या तुम्हें मैंने असन्तुष्ट कर दिया भद्रे ? ”

“ नहीं भद्र, किन्तु मैं मगध कभी नहीं गई। ”

“ ओह, तो निश्चय ही मुझे भ्रम हुआ , नीचे तुम्हारे प्रहरियों के नोकदार शिर - स्त्राण मागध व्रात्यों के समान थे इसी से । ”उसने मुस्कराकर तीखी दृष्टि से युवती को देखा ।

युवती क्षण - भर को चंचल हुई, फिर हंसती हुई बोली - “ हां , उनमें एक - दो मागध हैं , किन्तु । ”

बीच ही में उस युवक ने हंसते हुए कहा - “ समझ गया प्रिये, उन्हीं में से किसी एक ने राजगृह के चतुर शिल्पी का बना यह कुण्डल तुम्हें भेंट किया होगा! ”

नन्दिनी के होठ सूख गए । हठात् उसके दोनों हाथ अपने कानों में लटकते हुए हीरे के बहुमूल्य कुण्डलों की ओर उठ गए । उसने हाथों से कुण्डल ढांप लिए ।

युवक ठठाकर हंस पड़ा । हाथ बढ़ाकर उसने मद्यपात्र उठाकर आकण्ठ भरा और नन्दिनी की ओर बढ़ाकर कहा - “ पियो प्रिये, इस नगण्य नागरिक के लिए एक चषक । ”

नन्दिनी हंस दी । पात्र हाथ में लेकर उसने युवक पर बंकिम कटाक्षपात किया, फिर कहा - “ बड़े धूर्त हो भद्र । ”और मद्य पी गई ।

युवक ने हाथ बढ़ाकर जूठा पात्र लेते हुए कहा

“ आप्यायित हुआ प्रिय ! ”

“ क्या गाली खाकर ? ”

“ नहीं पान देकर । ”

नन्दिनी ने दूसरा चषक लेकर उसमें मद्य भरा और युवक की ओर बढ़ाकर कहा - “ अब और भी आप्यायित होओ प्रिय! ”

“ नागपत्नी की आज्ञा शिरोधार्य, ” उसने पात्र पीकर कहा - “ तो प्रिये, अब मैं चला । ”

“ किन्तु क्या मैं तुम्हारा और कुछ प्रिय नहीं कर सकती ? ”

“ क्यों नहीं प्रिये , इस चिरदास को स्मरण रखकर ! ”

युवक उठ खड़ा हुआ । नन्दिनी ने ताम्बूल - दान किया , गन्धलेपन किया और फिर उसके उत्तरीय के छोर को पकड़कर कहा - “ फिर कब आओगे भद्र ? ”

“ किसी भी दिन , नाग -दर्शन करने ! ” युवक हंसकर चल दिया । नन्दिनी अवाक् खड़ी रह गई ।

युवक ने बाहर आ दास को एक स्वर्ण दिया और वह अश्व पर सवार हो तेज़ी से चल दिया । नन्दिनी गवाक्ष में से उसका जाना देखती रही । वह कुछ देर चुपचाप सोचती रही। फिर उसने दासी को बुलाकर कहा- “ मैं अभी नन्दन साह को देखना चाहती हूं। ”

“ किन्तु भद्रे, रात तीन पहर बीत रही है , नन्दन साहु को उसके घर जाकर इस समय जगाने में बहुत खटपट होगी। ”

“ नहीं - नहीं , तू पुष्करिणी तीर पर जाकर वही गीत गा जो तूने सीखा है । साहु के घर के पीछे गवाक्ष है, वहीं वह सोता है। तेरा गीत सुनते ही वह यहां आएगा और कुछ करना नहीं होगा।

“ किन्तु भद्रे, यदि प्रहरी पकड़ लें ? ”

“ तो कहना भिखारिणी हं . भिक्षा दो । इच्छा हो तो वे भी गीत सनें । ”दासी ने फिर कुछ नहीं कहा। वह चुपचाप गुप्त द्वार से बाहर चली गई ।

नन्दिनी ने अपने भीतर कक्ष में जा यत्न से एक भोजपत्र पर कुछ पंक्तियां लिखीं और उसे मोड़कर उस पर गीली मिट्टी की मुहर कर दी । फिर वह चिन्तित होकर साहु के आने की प्रतीक्षा करने लगी।

109. नन्दन साहु : वैशाली की नगरवधू

वैशाली के अन्तरायण में नन्दन साह की हट्ट खूब प्रसिद्ध थी । उसकी हट्ट में जीवन सामग्री की सभी जिन्स बिक्री होती थी । हल्दी-मिरच और लहसुन से लेकर अन्त : पुर को सुरभित करने योग्य दासियों तक का क्रय -विक्रय होता था । प्रात : सूर्योदय से लेकर रात के दो पहर तक उसकी दुकान पर ग्राहकों की आवाजाही रहती थी । बढ़िया और काम - लायक सौदों की बिक्री का समय रात्रि का पिछला पहर ही होता था । उसकी विस्तृत दुकान में अनेक जिन्स अव्यवस्थित रूप से भरी रहती थी । उनकी कभी सफाई न होती थी । रात को एक दीपक हट्ट में जलता रहता था , जिसकी पीली और धीमी ज्योति में हट्ट की सभी वस्तुएं कांपती हुई - सी प्रतीत होती थीं । हट्ट, हट्ट का स्वामी , हट्ट का सारा सामान बहुत अशुभ और बीभत्स - सा लगता था , परन्तु गर्जू ग्राहक फिर भी वहां आते ही थे । एक पण में सात मसाले से लेकर सौ दम्म तक के सम्भ्रान्त ग्राहक वहां बने ही रहते थे।

इस हट्ट में भरी हुई असंख्यनिर्जीव वस्तुओं में चार सजीव वस्तु थीं , चारों में एक स्वयं गृहपति नन्दन साहु, दूसरी उसकी पत्नी ‘ भद्रा , तीसरी बेटी शोभा और चौथा पुत्र दामक । साह की आय साठ को पार कर गई थी , गंजे सिर पर गिनती के दो - चार बाल खड़े रहते थे। सम्भव है- उसने जीवन भर पेट भरकर भोजन नहीं किया था । उसी से उसका शरीर एक प्रकार से कंकाल -मात्र था । वह कमर में एक मैली धोती लपेटे प्रात : काल से आधी रात तक अपने थड़े पर बैठा - बैठा तोलता रहता था । कभी वह रोगी नहीं हुआ , कभी अपने आसन से अनुपस्थित नहीं हुआ, कभी किसी पर क्रोध नहीं किया । वह सबसे हंसकर बोलता , सावधानी से सौदा बेचता और कमाई के पणों को गिन -गिनकर सहेजता , यही उसके जीवन का नित्यकर्म था । वह मितभाषी भी पूरा था और बात का धनी भी । वह छोटे बड़े सबकी आवश्यकताएं पूरी किया करता । इसी से वैशाली में सब कोई नन्दन साहु के नाम से परिचित थे। परन्तु इन सब व्यवसायों के अतिरिक्त उसका और भी गूढ़ एक व्यवसाय था , जिसे कोई नहीं जानता था ।

110. दक्षिणा -ब्राह्मणा- कुण्डपुर - सन्निवश : वैशाली की नगरवधू

वैशाली नगर का बड़ा भारी विस्तार था । उसके अन्तरायण में तीन सन्निवेश थे, जो अनुक्रम से उत्तम , मध्यम और कनिष्ठ के नाम से विख्यात थे। उत्तम सन्निवेश में स्वर्ण कलशवाले सात सहस्र हर्म्य थे। यहां केवल सेट्ठि गृह- पति और निगमों का निवास था । मध्यम सन्निवेश में चौदह सहस्र चांदी के कलशवाली पक्की अट्टालिकाएं थीं । इनमें विविध व्यापार करनेवाले महाजन और मध्यम वित्त के श्रेणिक जन रहते थे। तीसरे कनिष्ठ सन्निवेश में तांबे के कलश -कंगूरवाले इक्कीस सहस्र घर थे। जहां वैशाली के अन्य पौर नागरिक उपजीवी जन रहते थे।

इस अन्तरायण के सिवा वैशाली के उत्तर -पूर्व में दो उपनगर और थे। एक तो उत्तर -ब्राह्मण - क्षत्रिय - सन्निवेश कहा जाता था । यह ज्ञातृवंशीय क्षत्रियों का सन्निवेश था । इसके निकट उनका कोल्लाग - सन्निवेश था , जिसे छूता हुआ ज्ञातृ- क्षत्रियों का प्रसिद्ध द्युतिपलाश नामक उद्यान एवं चैत्य था । दूसरे उपनिवेश का दूसरा भाग दक्षिण -ब्राह्मण कुण्डपुर - सन्निवेश कहलाता था । इसमें केवल श्रोत्रिय ब्राह्मणों के घर थे, जो परम्परा से वहीं पीढ़ी - दर - पीढ़ी रहते चले आए थे। वैशाली की पश्चिम दिशा में वाणिज्य - ग्राम था । इसमें विश जन और कम्मकर रहते थे जो अधिकतर कृषि और पशुपालन का धन्धा करते थे। इस सम्पूर्ण बस्ती को वैशाली नगरी कहा जाता था ।

दक्षिण -ब्राह्माण - कुण्डपुर - सन्निवेश में सोमिल ब्राह्मण रहता था । वह ब्राह्मण धनिक, सम्पन्न और पण्डित था । ऋगादि चारों वेदों का सांगोपांग ज्ञाता और ब्राह्मण -कार्य में निपुण था । बहुत - से सेट्ठिजन और राजा उसके शिष्य थे। बहुत - से बटुक देश- देशान्तरों से आकर उसके निकट विद्यार्जन करते थे। वह विख्यात काम्पिल्य शाखा का यजुर्वेदी ब्राह्मण था । वेदाध्यायियों से उसका घर भरा रहता था । उसके घर की शुक - सारिकाएं ऋग्वेद की ऋचाएं उच्चरित करती थीं । वे पद- पद पर विद्यार्थियों के अशुद्ध पाठ का सुधार करती थीं । उसका घर यज्ञ - धूम से निरन्तर धूमायित रहता था । सम्पूर्ण दक्षिण -ब्राह्मण- कुण्डपुर सन्निवेश में यह बात प्रसिद्ध थी कि श्रोत्रिय सोमिल के ऋषिकल्प पिता ऋषिभद्र के होमकालीन श्रमसीकर साक्षात् वीणाधारिणी सरस्वती अपने हाथों से पोंछती थीं । श्रोत्रिय सोमिल उषाकाल ही में हवन करने बैठ जाते ; दो दण्ड दिन चढ़े तक वे यज्ञ करते , बलि देते , फिर धुएं से लाल हुई आंखों और पसीने से भरा शरीर लिए, अध्यापन के लिए कुशासन पर बैठ जाते । वेदपाठी होने के साथ ही वे अपने युग के दिग्गज तार्किक भी थे। उनकी विद्वत्ता और ब्राह्मण्य का वैशाली के गणप्रतिनिधियों पर बड़ा प्रभाव था । राजवर्गी तथा जानपदीय सभी उनका मान करते थे।

इन्हीं सोमिल ब्राह्मण के यहां मगध के निर्वासित और पदच्युत महामात्य कूटनीति के आगार आर्य वर्षकार ने आतिथ्य ग्रहण कर निवास किया था । विज्ञापन के अनुसार लिच्छवि - राजकीय -विभाग से उनके लिए नित्य एक सहस्र सुवर्ण और आहार्य सामग्री आती। नगर के अन्य गण्यमान्य सेट्ठि -सामन्त भी इस ब्राह्मण के सत्कार के लिए वस्त्र , फल, स्वर्ण, पात्र निरन्तर भेजते रहते । पर यह तेजस्वी ब्राह्मण इस सब उपानय - सामग्री को छूता भी न था । वह उस सम्पूर्ण सामग्री को उसी समय ब्राह्मणों और याचकों में बांट देता था । इससे सूर्योदय के पूर्व ही से सोमिल ब्राह्मण के द्वार पर याचकों, ब्राह्मणों और बटुकों का मेला लग जाता था ।

देखते- ही - देखते इस तेजपुञ्ज ब्राह्मण के प्रतिदिन सहस्रसुवर्ण- दान - माहात्म्य और वैशिष्ट्य की चर्चा वैशाली ही में नहीं , आसपास और दूर - दूर तक फैल चली । याचक लोग याचना करने और भद्र संभ्रान्त जन इस ब्राह्मण का दर्शन करने दूर - दूर से आने लगे। ब्राह्मण स्वच्छ जनेऊ धारण कर विशाल ललाट पर श्वेतचन्दन का लेप लगा एक कुशासन पर बहुधा मौन बैठा रहता । एक उत्तरीय मात्र उसके शरीर पर रहता । वह बहुत कम भाषण करता तथा सोमिल की यज्ञशाला के एक प्रान्त में एक काष्ठफलक पर रात्रि को सोता था । वह केवल एक बार हविष्यान्न आहार करता । वह यज्ञशाला के प्रान्त में बनी घास की कुटीर के बाहर केवल एक बार शौचकर्म के लिए ही निकलता था ।

सहस्र सुवर्ण नित्य दान देने की चर्चा फैलते ही अन्य श्रीमन्त भक्तों ने भी सुवर्ण भेंट देना प्रारम्भ किया - सो कभी - कभी तो प्रतिदिन दस सहस्र सुवर्ण नित्य दान मिलने लगा । ब्राह्मण याचक आर्य वर्षकार का जय - जयकार करने लगे और अनेक सत्य - असत्य , कल्पित - अकल्पित अद्भुत कथाएं लोग उसके सम्बन्ध में कहने लगे । बहुमूल्य उपानय के समान ही यह ब्राह्मण भक्तों की तथा राजदत्त सेवा भी नहीं स्वीकार करता था । वज्जीगण के वैदेशिक खाते से जो दास - दासी और कर्णिक सेवा में भेजे गए थे, बैठे - बैठे आनन्द करते । ब्राह्मण उससे वार्ता तक नहीं करते, पास तक नहीं आने देते । केवल ब्राह्मण सोमिल ही आर्य वर्षकार के निकट जा पाता, वार्तालाप कर पाता । वही उन्हें अपने हाथ से मध्याह्नोत्तर हविष्यान्न भोजन कराता - जो सूद -पाचकों द्वारा नहीं, स्वयं गृहिणी , सोमिल की ब्राह्मणी, रसोड़े से पृथक् अत्यन्त सावधानी से तैयार करती थी , और जिसे सोमिल - दम्पती को छोड़ कोई दूसरा छु या देख भी नहीं सकता था । ऐसी ही अद्भुत दिनचर्या इस पदच्युत अमात्य ब्राह्मण की वैशाली में चल रही थी ।

111. हरिकेशीबल : वैशाली की नगरवधू

इस समय वैशाली में एक और नवीन प्राणी का आगमन हुआ था । यह एक आजीवक परिव्राजक था । वह अत्यन्त लम्बा, काला , कुरूप और एक आंख से काना था । उसकी अवस्था बहुत थी - वह अति कृशकाय था ; परन्तु उसकी दृष्टि पैनी , वाणी सतेज और शरीर का गठन दृढ़ था । वह कभी स्नान नहीं करता था , इससे उसका शरीर अत्यन्त मलिन और दूषित दीख पड़ता था । उसने अंग पर पांसुकुलिक धारण किए थे, जो श्मशान में मुर्दो पर से उतारकर फेंक दिए गए थे। वे भी फटकर चिथड़े-चिथड़े हो गए थे और गंदे होकर मिट्टी के रंग भी मिल गए थे।

यह आजीवक निर्द्धन्द्ध विचरण करता । गृहस्थों के द्वार पर , वीथी- हट्ट पर , राजद्वार , और राजपथ पर सर्वत्र अबाध रूप में निरन्तर घूमता था । उसका सोने - बैठने ठहरने का कोई स्थान न था । उसकी जीवन -यात्रा में सहायक सामग्री भी कुछ उसके निकट न थी । इस प्रकार यह कृशकाय , घृणित और कुत्सित मलिन भूत - सा व्यक्ति जहां जाता , वहीं लोग उसे तिरस्कारपूर्वक दुत्कार देते , उसे अशुभ रूप समझते। परन्तु उसे इस तिरस्कार घृणा की कोई चिन्ता न थी । वह जहां से भिक्षा मांगता , वहां जाकर कहता - “ मैं चाण्डालकुलोत्पन्न हरिकेशीबल हूं । मैं सर्वत्यागी संयमी ब्रह्मचारी हूं। मैं अपने हाथ से अन्न नहीं रांधता , मुझे भिक्षा दो । भिक्षा मेरी जीविका है । ”बहुत लोग उसे मारने दौड़ते , बहुत मार बैठते , बहुत उसे दुत्कार कर भगा देते ; पर वह किसी पर रोष नहीं करता था । वह मार , तिरस्कार और धक्के खाकर हंसता हुआ दूसरे द्वार पर वही शब्द कहकर भिक्षा मांगता था । कभी -कभी लोग उस पर दया करके उसे कुछ दे भी देते थे, पर उसे बहुधा निराहार ही किसी वृक्ष के नीचे पड़े रहना पड़ता था ।

वह घूमता हुआ एक दिन कुण्डग्राम के दक्षिणब्राह्मण - सन्निवेश में सोमिल श्रोत्रिय के द्वार पर जा पहुंचा। वहां ब्राह्मणों, ब्रह्मचारियों , श्रोत्रियों और वेदपाठी बटुकों की भीड़ लगी थी । आर्य वर्षकार एक छप्पर के नीचे बांस की बनी मींड पर बैठे अपनी आंखों स्वर्ण वस्त्र का बांटा जाना देख रहे थे। अनेक श्रोत्रिय बटुक इस आयोजन में हाथ बंटा रहे थे। इसी समय आजीवक हरिकेशीबल उन ब्राह्मणों की भीड़ में मिलकर जा खड़ा हुआ ।

इस अशुभ , अशुचि , घृणित श्मशान से उठाए हुए चीथड़े अंग पर लपेटे , काणे मनुष्य को देखकर सब ब्राह्मण , बटुक एवं श्रोत्रिय दूर हट गए । बहुतों ने मारने को दण्ड हाथ में लेकर कहा

“ तू कौन है रे भाकुटिक ? कहां से तू ब्राह्मणों में घुस आया ? भाग यहां से! ”

उसने सहज - शान्त स्वर में कहा - “ मैं चाण्डाल - कुलोत्पन्न हरिकेशीबल हूं। मैं सर्वत्यागी ब्रह्मचारी हूं । मैं अपना अन्न रांधता नहीं । भिक्षा मेरी जीविका है, मुझे भिक्षा दो । ”

बहुत ब्राह्मण अपना स्वच्छ जनेऊ हाथ में लेकर उसे मारने दौड़े – “ भाग रे चाण्डाल, भाग रे , भाकुटिक , ब्राह्मणों में घुस आया पतित ! ”

परन्तु हरिकेशी भागा नहीं । विचलित भी नहीं हुआ । उसने कहा - “ मैं संयमी हूं , दूसरे लोग अपने लिए जो अन्न रांधते हैं , उसी में से बचा हुआ थोड़ा अन्न मैं भिक्षाकाल में मांग लेता हूं । आप लोग यहां याचकों को बहुत स्वर्ण, वस्त्र , अन्न दे रहे हैं । मुझे स्वर्ण नहीं चाहिए , उससे मेरा कोई काम नहीं सरता । वस्त्र मैं श्मशान से उठा लाता हूं, मैं तो दिगम्बर आजीवक हूं, मुझे अन्न चाहिए । मुझे अन्न दो । आपके पास बहुत अन्न हैं , आप लोग खा - पी रहे हैं , मुझे भी दो , थोड़ा ही दो । मैं तपस्वी हूं , ऐसा समझकर जो बच गया हो वही दो ।

एक ब्राह्मण ने क्रुद्ध होकर कहा - “ अरे मूर्ख, यहां ब्राह्मणों के लिए अन्न तैयार होता है, चाण्डालों के लिए नहीं, भाग यहां से । ”

“ अतिवृष्टि हो या अल्पवृष्टि, तो भी कृषक ऊंची-नीची सभी भूमि में बीज बोता है और आशा करता है खेत में अन्न - पाक होगा । उसी भांति तुम भी मुझे दान दो । मुझ जैसे तुच्छ चाण्डाल मुनि को अन्न - दान करने से तुम्हें पुण्य - लाभ होगा। ”

इस पर बहुत - से ब्राह्मण एक बार ही आपे से बाहर होकर लगुड - हस्त हो उसे मारने को दौड़े । उन्होंने कहा - “ अरे दुष्ट चाण्डाल , तू अपने को मुनि कहता है! नहीं जानता , पृथ्वी पर केवल हम ब्राह्मण ही दान पाने के प्रकृत अधिकारी हैं , ब्राह्मण ही को दिया दान पुण्यफल देता है। ”

“ क्रोध , मान, हिंसा, असत्य, चोरी और परिग्रह से युक्त जनों को जाति तथा विद्या से रहित ही जानना चाहिए। ऐसे जन दान के पात्र नहीं हो सकते । वेद पढ़कर भी उसके अभिप्राय को न जाननेवाला पुरुष कोरा गाल बजाने वाला कहाता है, परन्तु ऊंच-नीच में समभाव रखनेवाला मुनि दान के योग्य सत्यपात्र है । ”

“ अरे काणे चाण्डाल , तू हम ब्राह्मणों के सम्मुख वेदपाठी ब्राह्मणों की निन्दा करता है ! याद रख, हमारा बचा हुआ यह अन्न सड़ भले ही जाए और फेंकना पड़े , पर तुम निगंठ चाण्डाल को एक कण भी नहीं मिल सकता , तू भाग । ”

“ सत्यवृत्ति एवं समाधि - सम्पन्न मन - वचन - कर्म से असत् -प्रवृत्तियों से मुक्त , जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी को यदि तुम अन्न नहीं दे सकते , तो फिर तुम पुण्य भी नहीं पा सकते हो । ”

इतनी देर बाद श्रोत्रिय ने चिल्लाकर कहा -

“ अरे कोई है, इसे डंडे मारकर भगाओ यहां से, मारो धक्के! गर्दन नापो, गर्दन ! ”

इस पर कुछ बटुक दण्ड ले - लेकर हरिकेशी को मारने लगे । हरिकेशी हंसता हुआ निष्क्रिय पिटता रहा ।

इसी समय एक परम रूपवती षोडशी बाला, बहुमूल्य मणि - सुवर्ण-रत्न धारण किए विविध बहमूल्य वस्त्रों से सुसज्जित दौड़ी आई और हरिकेशी के आगे दोनों हाथ फैलाकर खड़ी हो गई। उसे इस प्रकार खड़ी देख हरिकेशी को मारनेवाला ब्राह्मण बटुक रुक गया । युवती ने कहा - “ अलम्- अलम् ! मैं पूर्व विदेह की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा महापद्म की पुत्री जयन्ती हूं ; मेरे पिता ने मुझे इस महात्मा को प्रदान कर दिया था , परन्तु इस इन्द्रिय -विजयी ने स्वीकार नहीं किया । यह महातपस्वी , उग्र ब्रह्मचारी, घोर व्रत और दिव्य शक्तियों का प्रयोक्ता है । इसे क्रुद्ध या असन्तुष्ट न करना नहीं तो यह तुम सब ब्राह्मणों को अपने तेज से जलाकर भस्म कर डालेगा । ”

उस तथाकथित राजकुमारी षोडशी बाला की ऐसी अतर्कित वाणी सुनकर सब ब्राह्मण आश्चर्यचकित रह गए । बहुत - से भयभीत होकर उस घृणित चाण्डाल मुनि को देखने लगे । बहुत - से अब भी अपशब्द बकते रहे । इसी समय नन्दन साहु बहुत - सी खाद्य - सामग्री गाड़ी में भरे वहां आ उपस्थित हुआ । जब से आर्य वर्षकार का वहां सदाव्रत लगा था - नन्दन साहु सब रसद पहुंचाता था । साहु ने ज्यों ही वहां खड़े निगंठ चाण्डाल मुनि को देखा , वह दौड़कर उसके चरणों में लोट गया । उस महाकलुषित अशुभ चाण्डाल के चरणों में साहु को लोटता हुआ देख ब्राह्मणों को और भी आश्चर्य हुआ । उनके आश्चर्य तथा भीति को बढ़ाता हुआ साहु बोला - आर्यो, यह साक्षात् तेजपुंज तपस्वी हैं । आप जानते नहीं हैं , मन्द कान्तार यक्ष की चौकी पर यह उग्र मुनि तप करते हैं । वह भीषण यक्ष, जिसके भय से वैशाली का कोई जन रात्रि को उस दिशा में नहीं जाता , इस मुनि की नित्य चरण - सेवा करता है। यह मैंने आंखों से देखा है। आपने अच्छा नहीं किया , जो भिक्षाकाल में इस मुनि को असन्तुष्ट कर दिया । आर्यो, मेरा कहा मानो , आप इन महातेजोपुञ्ज तपस्वी के चरणों में गिरकर इनकी शरण जाओ, नहीं तो आपकी जीवन - रक्षा ही कठिन हो जाएगी। ”

परन्तु साहु की ऐसी भयानक बात सुनकर भी ब्राह्मण जड़वत् खड़े रह गए । इस काणे चाण्डाल के चरण छूने का किसी को साहस नहीं हुआ ।

साहु ने फिर चाण्डाल मुनि के चरण छुए और कहा - “ क्षमा करो, हे महापुरुष , इन ब्राह्मणों को जीवनदान दो । आइए समर्थ भदन्त , मेरे साथ मेरी भिक्षा ग्रहण कर मेरे कुल को कृतार्थ कीजिए। ”

इतना कहकर नन्दन साहु उस काणे तपस्वी चाण्डाल को बड़े आदरपूर्वक राह मार्ग को अपने उत्तरीय से झाड़ता हुआ अपने साथ ले चला । सब ब्राह्मण तथा पौरगण जड़वत् इस व्यापार को देखते रहे। प्रतापी मगध महामात्य भी निश्चल बैठे देखते रहे ।

112 . चाण्डाल मुनि का कोप : वैशाली की नगरवधू

हरिकेशीबल के वहां चले जाने पर भी वह तथाकथित राजकन्या वहां से नहीं गई । बहुत प्रकार से ब्राह्मणों को डराती - धमकाती रही। उसने कहा - “ हे ब्राह्मणो, तुमने अच्छा नहीं किया जो चाण्डाल मुनि को भिक्षा के काल में भिक्षा नहीं दी , उसे अपशब्द कहे , पीटा , उसे विरत किया । अब भी समय है, तुम उसके चरणों में पड़कर प्राण-भिक्षा मांग लो , नहीं तो मन्द कान्तार का यक्ष आज आप लोगों को जीवित नहीं छोड़ेगा। ”

बहुत से ब्राह्मण डर गए। बहुत संदिग्ध भाव से उस रूपसी बाला की बात सुनते रहे । कुछ ही देर में वे सब फिर कहने लगे - “ वाह, यह सब माया यहां नहीं चलेगी । हम ब्राह्मण वेदपाठी क्या उस काणे चाण्डाल के पैर छुएंगे! ”

सुन्दरी क्रुद्ध होती हुई चली गई । बहुत जन रूपसी के रूप की और कुछ उसकी अद्भुत वार्ता की आलोचना करते रहे। भोजन की वेला हुई और ब्राह्मण पंक्ति में बैठे ; ब्राह्मण- भोजन प्रारम्भ हुआ । भोजन के बाद स्वर्णवस्त्र उन्हें बांटे गए । परन्तु यह क्या आश्चर्य - चमत्कार हुआ , देखते - ही - देखते सभी ब्राह्मण उन्मत्तों की - सी चेष्टा करने लगे । वे हंसने -नाचने और अट्टहास करने लगे , अपने भूषण- वस्त्र उतार - उतारकर नंगे हो , बीभत्स और अश्लील चेष्टाएं करने लगे । बहुत लोग रक्त -वमन कर मूर्छित होने लगे। बहुत जन कटे काष्ठ के समान भूमि पर गिरकर पटापट मरने लगे ।

सोमिल ने भयभीत होकर आर्य वर्षकार से कहा- “ आर्य, यह सब क्या हो गया । ”

“ ठीक नहीं हुआ सोमिल , चाण्डाल मुनि का कोप ब्राह्मणों पर हुआ। सम्भवत : यक्ष ने कुपित होकर ब्राह्मणों को मार डाला है। ”

“ तो आर्य, अब क्या करना चाहिए। ”

“ सोमिल , सब ब्राह्मणों को लेकर तुम नन्दन साहु के घर पर जाकर जितेन्द्रिय मुनि की स्तुति करके उसे प्रसन्न करो, इसी में कल्याण देखता हूं। ”

तब सोमिल बहुत - से ब्राह्मणों को संग ले नन्दन साहु के घर पहुंचा जहां वह कुत्सित चाण्डाल मुनि उच्चासन पर बैठा आनन्द से विविध पक्वान्न और मिष्टान्न खा रहा था । उसे देख , हाथ जोड़, सोमिल को आगे कर सब ब्राह्मणों ने कहा

“ हे भदन्त , हमें क्षमा करो , हम मूढ़ और अज्ञानी बालक के समान हैं । हम सब मिलकर आपकी चरण - वन्दना करते हैं । हे महाभाग , हम आपका पूजन करते हैं । आप हम सब ब्राह्मणों के पूज्य हैं । यह हम विविध प्रकार के व्यंजन , अन्न और पाक आपके लिए लाए हैं । इन्हें ग्रहण कर हमें कृतार्थ कीजिए । हे भदन्त ! हे महाभाग! हम सब ब्राह्मण आपकी शरणागत हैं । ”

चाण्डाल मुनि ने सुनकर कहा - “ हे घमण्डी ब्राह्मणो! यदि सत्य ही तुम्हें अनुताप हुआ है, तो जाओ, मन्दकान्तार जा , साणकोष्ठक चैत्य में शूलपाणि यक्ष की अभ्यर्थना- पूजन करो। उसे प्रसन्न करो । नहीं तो सम्पूर्ण वैशाली ही का नाश हो जाएगा । हे ब्राह्मणो ! अपने पाप से वैशाली को नष्ट न करो। ”

यह सुनकर सब ब्राह्मण, बटुक ब्रह्माचारी , वेदपाठी श्रोत्रिय जन सहस्रों , भीत विस्मित , चमत्कृत नागर पौरजनों की भीड़ के साथ विकट विजन मन्दकान्तार वन में साणकोष्ठ चैत्य में जा अतिभयानक शूलपाणि यक्ष की मूर्ति के सामने भूमि पर गिरकर त्राहि माम् त्राहि माम् ! कहने लगे। तब उस अन्ध गुफा से मूर्ति के पीछे से रक्ताम्बर धारण किए और शूल हाथ में लिए वही सुन्दरी बाला बाहर आई और उच्च स्वर से कहने लगी - “ अरे मूढ़ जनो ! मैं तुम सब ब्राह्मणों का आज भक्षण करूंगी। मैं यक्षिणी हूं। तुमने ब्राह्मणत्व के दर्प में मनुष्य - मूर्ति का तिरस्कार किया है ; क्या तुम नहीं जानते कि ब्राह्मण और चाण्डाल दोनों में एक ही जीवन सत्त्व प्रवाहित है, दोनों का जन्म एक ही भांति होता है, एक ही भांति मृत्यु होती है, एक ही भांति सोते हैं , खाते हैं ; इच्छा , द्वेष , प्रयत्न के वशीभूत हो सुख - दुःख की अनुभूति करते हैं । अरे मूर्यो! तुमने कहा था कि तुम्हारा तप: पूत अन्न फेंक भले ही दिया जाए, पर चाण्डाल याचक को नहीं मिलेगा ? तुम मनुष्य -हिंसक , मनुष्य हितबाधक हो , तुम मनुष्य -विरोधी हो । मरो तुम आज सब ! ”

“ त्राहि माम् , त्राहि माम् ! हे देवी , हे यक्षिणी मात :, हमारी रक्षा करो! हमने समझा था - हमारा पूत अन्न .....। ”

“ अरे मूर्यो, तुम जल से शरीर की बाह्य शुद्धि करके उसे ही महत्त्व देते हो , तुम अन्तरात्मा की शुद्धि को नहीं जानते । अरे, यज्ञ करने वाले ब्राह्मणो, तुम दर्भयज्ञ , यूप , आहवनीय , गन्ध , तृण, पशुबलि , काष्ठ और अग्नि तक ही अपनी ज्ञानसत्ता को सीमित रखते हो ; तुमने असत्य का , चोरी का , परिग्रह का त्याग नहीं किया। तुम स्वर्ण, दक्षिणा और भोजन के लालची पेटू ब्राह्मण हो , तुम शरीर को महत्त्व देते हो , शरीर की सेवा में लगे रहते हो । तुम सच्चे और वास्तविक यज्ञ को नहीं जानते । ”

“ तो यक्षिणी मात:, हमें यज्ञ की दीक्षा दीजिए।

“ अरे मूर्ख ब्राह्मणो! कष्ट सहिष्णुता तप है, वही यज्ञाग्नि है, जीवन - तत्त्व यज्ञाधिष्ठान है । मन -वचन - कर्म की एकता यज्ञाहुति है । कर्म समिधा है और आत्मतुष्टि पूर्णाहुति है। विश्व के प्राणियों में आत्मानुभूति का अनुभव कर समदर्शी होना स्वर्ग- प्राप्ति

“ धन्य है मात :! धन्य है यक्षकुमारी! हम सब ब्राह्मण तेरी शरण हैं , हमारी रक्षा करो! हमारी रक्षा करो !! ”

इसी प्रकार रुदन करते , वे सब ब्राह्मण फिर भूमि पर उस सुन्दरी के चरणों में गिर गए । तब ब्राह्मण सोमिल के सिर को शूल से छूकर उस यक्षकुमारी ने कहा - “ उठ रे ब्राह्मण , अभी तुम्हें जीवन दिया है । ”

इतना कहकर वह तेजी से यक्षमूर्ति के पीछे गुहाद्वार में जा अन्धकार में लोप हो गई; और वे ब्राह्मण तथा पौर जानपद भय , भक्ति और विविध भावनाओं से विमूढ़ बने नगर की ओर लौटे ।

113. सन्निपात -भेरी : वैशाली की नगरवधू

फसल कट चुकी थी और वर्षा आरम्भ होना चाहती थी । वैशाली में युद्ध की चर्चा फैलती जाती थी । मगध- सम्राट बिम्बसार की भीषण तैयारियों की सूचना प्रतिदिन चर ला रहे थे। परिषद् की गणसंस्था ने युद्ध- उद्वाहिका के संयुक्त सन्निपात - भेरी की विशिष्ट बैठक का आवाहन किया था । संथागार में वज्जीगण के अष्टकुल - प्रतिनिधि , नौ मल्ल -संघों के और अठारह कासी -कोलों के गण राज्यों के राजप्रमुख आमन्त्रित थे। सम्पूर्ण उद्वाहिका - सदस्य उपस्थित थे।

गणपति ने उद्वाहिका का उद्घा1टन किया । उन्होंने खड़े होकर कहा - “ भन्ते गण सुनें , आज जिस गुरुतर कार्य के लिए वज्जी - मल्लकोल के गणराज्यों का यह संयुक्त सन्निपात हुआ है उसे मैं गण को निवेदन करता हूं । गण को भलीभांति विदित है कि मगध- सम्राट बिम्बसार वज्जी के अष्टकुलों के गणतन्त्र को नष्ट करने पर कटिबद्ध हैं । वज्जीगण के साथ मल्लों के नौ संघराज्यों से कासीकोलों के अठारह गणराज्यों का भाग्य बंधा है । गण को संधिवैग्राहिक आयुष्मान् जयराज बताएंगे कि शत्रु ने किन -किन कूट चालों से हमें युद्ध के लिए विवश किया है । कोसलपति महाराज प्रसेनजित् से परास्त होकर सम्राट् बिम्बसार का उत्साह भंग हो जाएगा , हमने यही आशा की थी परन्तु ऐसा नहीं हुआ । हमें अभी ये सुविधाएं हैं कि पड़ोसी राज्यों के समाचार हमें समय पर ठीक -ठीक मिल जाते हैं । इसी से हमसे मगध की यह विकट समर - सज्जा छिपी नहीं रही है । भन्तेगण, आज वज्जीगण के अष्टकुल पर और मल्ल - कासी - कोल गणराज्यों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं और हम कह सकते हैं कि अब किसी भी क्षण वज्जीसंघ की राजधानी वैशाली पर मगधसेना का आक्रमण हो सकता है। ”

इतना कहकर गणपति बैठ गए । परराष्ट्रसचिव नागसेन ने अब खड़े होकर कहा

“ भन्तेगण सुनें , गणपति ने जो सत्य विभीषिकापूर्ण सूचना दी है, उसकी गम्भीरता एक और घटना से और बढ़ जाती है । भन्तेगण जानते हैं कि कौशाम्बी नरेश शतानीक ने पूर्वकाल में चम्पा पर आक्रमण करके उसे आक्रान्त किया था ; आप यह भी जानते हैं कि चम्पा की तटस्थता एवं मित्रता का वज्जी के साथी गणराज्यों से कैसे गम्भीर स्वार्थ हैं । साथ ही यह बात भी नहीं भुलाई जा सकती कि चम्पा का स्वतन्त्र राज्य मगध की आंखों का पुराना शूल था , क्योंकि वह उसकी पूर्वी सीमा से मिला था और जब तक वह स्वाधीन था , मगध- सम्राट् बंग , कलिंग की ओर आंख उठाकर भी देख नहीं सकता था । अंग -बंग- कलिंग वास्तव में राजनीतिक एकता में पूरे आबद्ध हैं । इधर हमारा लगभग आधा वाणिज्य चम्पा ही के मार्ग से स्वर्णद्वीप और मलयद्वीप - पुञ्ज तक पहुंच जाता है। इससे अंग की राजधानी चम्पा हमारे वाणिज्य ही के लिए केन्द्र नहीं थी , प्रत्युत मगध- सम्राट के लिए भी कण्टक रूप थी । इसी से कौशाम्बीपति उदयन से जब हमारी संधि हुई, तब हमने उन्हें विवश किया था , कि वे अंग को स्वतंत्र राज्य घोषित करें । और उन्होंने भी प्रसेनजित् और मगध सम्राट के बीच व्यवधान रखने ही में कल्याण समझकर हमारा प्रस्ताव मान लिया था और दधिवाहन को अंगपति मानकर चम्पा में उसका अभिषेक कर दिया था । अब मगध - सम्राट ने चम्पा के इस दुर्बल असहाय राजा दधिवाहन को मारकर अंग - राज्य को मगध - साम्राज्य में मिला लिया है । इससे न केवल पूर्व में बंग और कलिंग के लिए भय उत्पन्न हो गया है , प्रत्युत हमारा पूर्वी वाणिज्य ही समाप्त हो गया है । ”

नागसेन यह कहकर बैठ गए । अब सन्धि - वैग्राहिक जयराज ने खड़े होकर कहा

“ भन्तेगण , आपने गणपति और परराष्ट्रसचिव के भाषण सुने । मैं गण का ध्यान अपने अष्टकुल के संगठन और उस पर आने वाली विपत्ति की ओर आकर्षित करना चाहता हूं । मगध- साम्राज्य में अब से कुछ ही वर्ष प्रथम केवल अस्सी सहस्र ग्राम थे और उसकी परिधि तेईस कोस थी । परन्तु आज उसका विस्तार आसमुद्र सम्पूर्ण भरतखण्ड पर है। उसके साम्राज्य में दो - चार छिद्र हैं , उनमें हमारे गणराज्य ही सबसे अधिक उसकी आंख में खटक रहे हैं । प्रसेनजित् ने उसे हरा दिया था , पर वास्तव में उसका कारण बन्धुल मल्ल और उसके पुत्रों का पराक्रम था । बूढ़ा कामुक प्रसेनजित् आज आकाश से टूटे तारे की भांति लोप हो गया । इसी से बिम्बसार को इतना साहस हुआ कि हम पर अभियान कर रहा है। अब तक हमारे अष्टकुलों में मिथिला के विदेह, कुण्यपुर के क्षत्रिय , कोल्लाग के उग्र ऐक्ष्वाकु लिच्छवि आदि अपना ठीक संगठन बनाए रहे हैं । पावा और कुशीनारा के मल्लों के नौ गण संघ भी आज हमारे साथ हैं और कासी - कोलों के अष्टदश गणराज्य भी । इस प्रकार कासी कोल - राज्य, वज्जी -गणराज्य - संघ और मल्ल गणराज्य संघों का त्रिपुट हमारा सम्पूर्ण संगठन है । मगध - सम्राट् ने हमारे संयुक्त गणराज्य पर अब अभियान किया है,इसी से हमने आज मल्लों, अष्टकुल - वज्जियों तथा कासी - कोलों के अठारह गणराज्यों की इस सन्निपात भेरी का आवाहन किया है। ”

इतना कहकर सन्धिवैग्राहिक जयराज कुछ देर चुप रहे , फिर उन्होंने उपस्थित गण - सन्निपात की ओर देखकर कहा

“ भन्तेगण, आप जानते हैं कि आज भरतखण्ड में षोडश महा जनपद हैं । इन षोडश जनपदों से कासी , कोल , वज्जी, मल्ल इन चारों गणसंघों के छत्तीस राज्यों का हमारा संयुक्त सन्निपात एक ओर है । अब चेतिक के दोनों उपनिवेशों के उपचर - अपचर से हमें सन्धि करने की आवश्यकता है । चेतिक की राजधानी सुत्तिमती को जो मार्ग कासी होकर जाता है , उसमें दस्युओं का भय है और हमें वहां सुरक्षा का सम्पूर्ण प्रबन्ध करके अपना चर भेजना आवश्यक है ।

“ रही कौशाम्बीपति उदयन की बात , वे भी हमारे मित्र हैं । कुरु के कौरव प्रधान राष्ट्रपाल और पांचाल ब्रह्मदत्त हमारे गण के समर्थक हैं । ये दोनों गण भलीभांति सुगठित हैं । निस्सन्देह मथुरा के महाराज अवन्तिवर्मन और अवन्ती के चण्डमहासेन हमारे पक्ष में नहीं हैं । परन्तु चण्डमहासेन कभी भी अपने जामाता उदयन के विरोधी नहीं होंगे। फिर इन दोनों से मगध का विग्रह है। यद्यपि मगध सम्राट ने भी उदयन को अपनी कन्या देकर भारी राजनीति प्रकट की है और कुटिल वर्षकार ने यौगन्धरायण को भरमाकर मैत्री सूत्र में बांधा है, फिर भी अनेक गम्भीर कारण ऐसे हैं कि वत्स के महामात्य यौगन्धरायण के कुशल कौटिल्य से ये दोनों महाराज इस युद्ध में सर्वथा उदासीन ही रहेंगे । परन्तु हमें इसी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। महाराज उदयन से हमारी मित्रता के सूत्र और भी दृढ़ रहने चाहिए और इसके लिए हमें भन्तेगण, देवी अम्बपाली का अनुरोध प्राप्त करना होगा । देवी अम्बपाली ही का ऐसा प्रभाव महाराज उदयन पर है कि वे आंखें बन्द करके यौगन्धरायण के परामर्श की अवहेलना कर सकते हैं ।

“ भन्तेगण, अब मैं आपका ध्यान सुदूर राज्यों की ओर आकर्षित करना चाहता हूं , दक्षिण के अस्सकराज अरुण और गान्धार के महागणपति पुक्कणति । आप जानते हैं कि गान्धारपति पुक्कणति ने मगध- सम्राट् बिम्बसार को पठौनी भेजी थी । वे चाहते थे , कि पशुपुरी के शासानुशास को बिम्बसार सहायता दे। उनकी कठिनाइयां भी बड़ी पेचीली एवं दु: खप्रद हैं । उनका छोटा - सा गण पार्शवों का अब देर तक सामना नहीं कर सकता । पार्शव शासानुशास दारयोश ने पश्चिम गान्धार को अभी- अभी अपने साम्राज्य में मिला लिया है । वह अब सम्पूर्ण तक्षशिला और गान्धार के जनपद को आक्रान्त किया चाहता है। वास्तव में पशुपति दारयोश पश्चिम का बिम्बसार है । इसी से सहायता की इच्छा से गांधार के गणपति ने मगध - सम्राट् बिम्बसार को पठौनी भेजी थी । परन्तु मगध - सम्राट् के लिए अपनी ही उलझनें थोड़ी नहीं थीं । गान्धार का मगध पर कुछ ऋण भी है। मगध के अनेक मागध तरुण तक्षशिला के सर्वोत्कृष्ट स्नातक हैं । उन्होंने गान्धार राज को बहुत - कुछ आश्वासन वहां से आती बार दिया था , परन्तु मित्र सिंह ने भी उन्हीं के साथ तक्षशिला छोड़ा था और उन्होंने गान्धारपति को समझा दिया था , कि मगध- सम्राट् बिम्बसार पूर्व का दारयोश है । ऐसे साम्राज्य लोलुपों से आशा मत कीजिए। वज्जियों का अष्टकुल पूर्वी गांधारतन्त्र है और वह आपका मित्र है । इसलिए वैशाली गांधार के अपने ऋण को उतारेगा । ”

कुछ देर चुप रहकर जयराज फिर बोले - “ इसलिए मित्रो , हमने मित्र सिंह के परामर्श से गांधारपति को जो सम्भव हुआ , सहायता भेजी और आपको अभी मित्र काप्यक बताएंगे , कि जिस काल मगध - सम्राट् चम्पा और श्रावस्ती में व्यस्त थे - वैशाली के तरुणों ने सुदूर सिन्धुनद के तीर पर अपने खड्ग की धार से वज्जियों के अष्टकुल का कैसा मनोरम इतिहास लिखा था ।

“ परन्तु मैं अभी कुछ और भी बातें कहूंगा; भन्तेगण सुनें ! - अस्सक का राजा अरुण कलिंग गणपति सत्तभू पर आक्रमण करना चाहता है । कलिंग- गणपति ने वज्जियों के अष्टकुलों की सहायता मांगी है और पूर्व समुद्र में अपनी स्थिति ठीक रखने के विचार से हमने उसे स्वीकार कर लिया है तथा कलिंग राज्य से हमारी सन्तोषप्रद सन्धि हो गई है । रहा अस्सक , सो कभी वैशाली के तरुणों के खड्ग से उसका भी निर्णय हो जाएगा । अब काम्बोजों के बर्बरों का ही वर्णन रह गया है । वे थोड़े से स्वर्ण और उत्तम शस्त्र पाकर ही अपना रक्तदान हमें दे सकते हैं । इस प्रकार भन्तेगण, हमने सोलह महाजनपदों में अपनी स्थिति यथासम्भव ठीक कर ली है। ”

जयराज महासन्धिवैग्राहिक यह कहकर बैठ गए। अब गांधार काप्यक ने खड़े होकर कहा - “ भन्तेगण सुनें , अष्टमहाकुल के वज्जियों ने जो कुछ सिन्धुनद पर अपनी कीर्ति विस्तार की है, उसी का बखान करने मैं यहां आया हूं , गान्धारगणपति की ओर से साधुवाद और कृतज्ञता का सन्देश लेकर ।

“ वज्जीगणों के नागरिकों की सेना में सम्मिलित होने का मुझे सम्मान मिला था । आचार्य बहुलाश्व ने स्वयं उसका निरीक्षण किया था । अश्व - संचालन और शार्ग धनुष , खड्ग , शल्य , गदा और शक्ति के युद्ध में वैशाली - संघ के तरुण गान्धार तरुणों से किसी प्रकार कम न थे। भन्तेगण, ऐसे मित्रों को पाकर हमें गर्व हुआ । आचार्य बहुलाश्व ने उन्हें पुष्कलावती से आनेवाले राजमार्ग से सम्पूर्ण सिन्धुतट की रक्षा का भार सौंपा था । शास ने शिरभी, सौवीर, पख्त , भलानस और वक्षु नदी के उत्तर तथा पर्शपुरी के पूर्व के सम्पूर्ण जनपद को ध्वंस करने की बड़ी भारी तैयारी की थी । परन्तु उसकी सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि वह सिन्धु को जहां से चाहे पार नहीं कर सकता था । उसे वैशाली के तरुणों से रक्षित - गोपित घाटों ही से नदी पार करना अनिवार्य था । भन्ते, मैं अत्युक्ति नहीं करता, इन वीर तरुण वज्जियों के कौशल और शौर्य ही के कारण वह अपने सम्पूर्ण जनबल से लाभ नहीं उठा सका और हमने उसके खण्ड - खण्ड करके सदैव के लिए उसको दलित कर दिया । वह बहुत कम बल लेकर पीछे लौट सका। वज्जी वीरों ने गांधार तरुणों के साथ सिन्धु पार कर पुष्कलावती , सुवास्तु और कुभा तक उसका पीछा किया और शत्रुवाहिनी - पति को जीवित पकड़ लिया । तब हमारे प्रधान सेनानायक प्रियमेघ ने अश्रु-गद्गद होकर कहा था तक्षशिला सदा के लिए वैशाली का ऋणी रहेगा .... और आज अपने सेनापति के वे ही शब्द मैं भी संथागार में दुहराता हूं। ”

प्रचण्ड करतल - ध्वनि और साधु- साधु की ध्वनि के बीच काप्यक चुपचाप खड़े रहे । फिर ठहरकर बोले - “ गान्धार में वज्जियों के अष्टकुलों की कीर्ति -ध्वजा फहरानेवाले, शासनुशास के वाहिनीपति को जीवित बन्दी बनानेवाले मेरे सुहृद् प्रियदर्शी सिंह यहां आपके सम्मुख उपस्थित हैं , जिनके नेतृत्व में वैशाली तन्त्र के तरुणों ने वह कीर्ति कमाई थी । वहां हमारे संघ ने वयस्य सिंह को गान्धार जनपद का नागरिक और गांधार गण- संघ का आजन्म सदस्य चुना था । परन्तु भन्तेगण , मुझे और भी कुछ कहना है। जब हर्षध्वनि के बीच आचार्य बहुलाश्व ने गांधारगण के समक्ष यह घोषणा की कि उनकी सुकुमारी कुमारी रोहिणी का वीरवर सिंह के प्रति सात्त्विक प्रेम है और वे उसका अनुमोदन करते हैं , तब सम्पूर्ण गणजन में आनन्द और उल्लास का समुद्र हिलारें लेने लगा और गणजन ने इच्छा प्रकट की कि रोहिणी और सिंह का पाणिग्रहण गण के समक्ष वहीं हो ।

“ गणपति की इस आज्ञा का पालन करने जब सुश्री रोहिणी वक्षकोष्ठक में बैठी सखियों के बीच से उठ लज्जा और हर्ष से आरक्त - अवनतमुखी अपनी माता के पीछे-पीछे शाला के भीतर आई, तो सदस्यों की उत्सुक दृष्टियों के भार से जैसे वह दब गई। उसके सुनहरे तार के समान बालों में अंगूर के ताजे गुच्छों का और जवाकुसुमों का शृंगार था , उसने कण्ठ में मुक्तामाल और कान में हीरक - कुण्डल पहने थे। वह सुन्दर कौशेय और काशिक के उत्तरीय अन्तर्वासक और कंचुक से सुसज्जिता थी । उस समय वह गान्धार जनपद की कुलदेवी - सी प्रतीत होती थी । गान्धारराज ने अपने हाथों उसे सिंह को समर्पित किया ; और समस्त जनपद ने दूसरे दिन गण -नक्षत्र मनाया , जो हम जातीय त्योहार के दिन ही मनाते हैं । भन्ते, इस प्रकार गान्धार जनपद ने अष्टकुल के वज्जियों की वीरता का जो अधिक- से - अधिक सम्मान किया जा सकता था -किया । परन्तु फिर भी गान्धार गणपति ने घोषित किया था कि यह यथेष्ट नहीं है। और फिर गांधार गणसंघ ने एक नागरिक शिष्टमंडल इस अकिंचन की अध्यक्षता में इसलिए भेजा है कि हम लोग वैशाली गणतन्त्र के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करें । भन्ते , अन्त में मैं यह और कहना चाहता हूं कि दो ही चार दिन में युद्ध में भाग लेने गान्धार से चिकित्सकों और तरुणों का एक सुदृढ़ दल वैशाली में आ रहा बड़ी देर तक हर्षध्वनि होती रही। काच्यक गान्धार चुपचाप आसन पर बैठ गए । अब गणपति उठे और सर्वत्र सन्नाटा छा गया । उन्होंने कहा

“ भन्तेगण सुनें , आयुष्मान् नाग व जयराज और काप्यक के वक्तव्य आपने सुने । आयुष्मान् सिंह के शौर्य की जितनी प्रशंसा की जाय , थोड़ी है । परिस्थिति पर आपने विचार किया है । अब मैं आपके सामने प्रस्ताव रखता हूं । प्रथम , प्रान्त और कोष की रक्षा । दूसरे , अश्वारोही, पदातिक और नौसेना का संगठन । तीसरे, राजस्व - कोष और युद्धोत्पादन उत्पादन । चौथा , कूटनीति , प्रचार और गुप्तचर । ।

“ भन्तेगण , प्रथम बार मैं प्रस्ताव करता हूं कि प्रान्त और कोष की रक्षा के लिए आयुष्मान् सूर्यमल्ल का निर्वाचन हो । आयुष्मान् सूर्यमल्ल महाअट्टवी - रक्खक के पद पर सुचारु कार्य करते रहे हैं । वे समस्त सीमाप्रान्तों , नगर - दुर्गों एवं घाटों तथा राजमार्गों से परिचित हैं । अब जो आयुष्मान् को इस पद पर चुनते हैं वे चुप रहें । ”

परिषद् में सन्नाटा था । गणपति ने थोड़ा ठहरकर कहा - “ दूसरी बार भी भन्तेगण सुनें -जिसे यह पद आयुष्मान् के लिए स्वीकृत हो , वे चुप रहें । ”

थोड़ी देर फिर सन्नाटा रहा । गणपति फिर बोले - “ तीसरी बार भी भन्तेगण सुनें जिसे प्रान्त और कोष्ठ की रक्षा के लिए आयुष्मान् सूर्यमल्ल का निर्वाचन स्वीकृत हो , वे चुप रहें , न बोलें । ”

क्षण - भर ठहरकर गणपति ने घोषित किया कि सूर्यमल्ल उस पद पर चुन लिए गए।

अब गणपति ने कहा - “ अब भन्तेगण , प्रथम बार सुनें , मैं आयुष्मान् सिंह को छत्तीस गणराज्यों की संयुक्त समस्त चतुरंगिणी , पदाति , अश्वारोही और नौसेना के लिए सेनापति का प्रस्ताव रखता हूं । जो सहमत हों , वे चुप रहें ।

सभा में सन्नाटा था । क्षण- भर ठहरकर गणपति ने फिर कहा - “ भन्तेगण , दूसरी बार फिर सुनें , मैं आयुष्मान् सिंह को सेनापति पद के लिए चुनने का प्रस्ताव रखता हूं । जो सहमत हों , चुप रहें । ”

इस पर भी सन्नाटा रहा । गणपति ने कहा - “ तीसरी बार भन्तेगण सुनें , समस्त सेनापति के पद पर आयुष्मान् सिंह के लिए मैं प्रस्ताव करता हूं । ”

इसी समय सिंह धीरे से परिषद्- भवन के बीचोंबीच आ खड़े हुए । गणपति ने कहा - “ आयुष्मान् कुछ कहना चाहते हैं , कहें । ”

सिंह ने कहा - “ भन्तेगण सुनें , गणपति और जनसंघ जो सम्मान मुझे देना चाहते हैं , उसके लिए मैं आभार मानता हूं । परन्तु मेरी अभिलाषा है कि इस पद के उपयुक्त पात्र वज्जीगण के महाबलाध्यक्ष सुमन हैं । अत : मैं प्रस्ताव करता हूं कि इस सेनापति पद पर वही रहें और हम लोग उनकी अधीनता में युद्ध करें । ”

एक- दो सदस्यों ने कहा - “ साधु-साधु! ”

तब गणपति ने कहा - “ परिषद् में सेनापति पद के लिए थोड़ा मतभेद है। इसलिए छन्द लेने की आवश्यकता है । भन्तेगण, आप सावधान हों । शलाकाग्राहक छन्द शलाकाएं लेकर आपके पास आ रहे हैं । उनके एक हाथ की डालियों में लाल शलाकाएं हैं , दूसरी में काली। लाल शलाका हां के लिए है और काली नहीं के लिए । अब जो आयुष्मान् मेरे मूल प्रस्ताव का अनुमोदन करते हैं , अर्थात् सिंह को प्रधान सेनापति - पद देना चाहते हैं , वे लाल शलाका लें । और जो आयुष्मान् सिंह द्वारा संशोधित प्रस्ताव के अनुसार सेनापति सुमन को चाहते हैं , वे काली शलाका लें । ”

सिंह ने फिर खड़े होकर कुछ कहने की इच्छा प्रकट की । गणपति ने कहा - “ आयुष्मान् फिर कुछ कहना चाहता है , कहे । ”

सिंह ने कहा - “ भन्तेगण सुनें । मेरा प्रस्ताव गणपति के मूल प्रस्ताव का विरोधी नहीं है। सेनापति सुमन हमारे श्रद्धास्पद, वृद्ध अनुभवी सेनानायक हैं । उनका अनुभव बहुत भारी है। उन्होंने बड़े- बड़े युद्ध जीते हैं । वैशाली के लिए उनकी सेवाएं असाधारण हैं । इसलिए हम सब तरुणों को उनके वरदहस्त के नीचे युद्ध करना सब भांति शोभा - योग्य है , उचित भी है । कम - से - कम मेरे लिए उनकी अधीनता में युद्ध करना सेनापति होने की अपेक्षा अधिक सौभाग्यमय है । इससे मैं अनुरोध करता हूं कि आप भन्तेगण काली शलाका ही ग्रहण करें । ”

परिषद् में फिर ‘ साधु -साधु की ध्वनि गूंज उठी। शलाका - ग्राहक छन्दशलाका लेकर एक - एक सदस्य के पास गए । सबने एक - एक शलाका ली । लौटने पर गणपति ने गिना । काली कम लौटी थीं । गणपति ने घोषित किया - “ काली शलाकाएं कम लौटी हैं । तो भन्ते गण , आयुष्मान सिंह के प्रस्ताव से सहमत हैं । तब सेनानायक सुमन सम्पूर्ण संयुक्त सेना के सेनापति निर्वाचित हुए ।

“ अब भन्तेगण सुनें , प्रथम बार मैं राजस्व, कोष और युद्धोत्पादन के लिए आयुष्मान् भद्रिय का प्रस्ताव करता हूं । ”

फिर तीन बार गणपति ने परिषद् की स्वीकृति लेने पर कूटनीति और गुप्त विभाग का अधिपति संधिवैग्राहिक जयराज को बनाया ।

इसके बाद सिंह उपसेनापति, गान्धार काप्यक नौसेनापति , आगार- कोष्ठक स्वर्णसेन नियत हुए। यह सब कार्य - सम्पादन होने पर गणपति ने कहा - “ भन्तेगण सुनें , हमने युद्ध उद्वाहिका का संगठन कर लिया । अब हमें धन और अन्न की आवश्यकता है । राजकोष में युद्ध- संचालन के योग्य यथेष्ट धन नहीं है । यदि राजकोष का स्थायी कोष सन्तोषजनक न हुआ तो इसका परिणाम अच्छा न होगा । ”

सूर्यमल्ल ने खड़े होकर कहा - “ तब धन आएगा कहां से ? धन के बिना शस्त्र , नौका , अश्व और दूसरे उपादान कैसे जुटेंगे ? ”

“ नहीं जुटेंगे, इसी से भन्तेगण, हमें सेट्टियों से धन ऋण लेना होगा । ”भद्रिय ने कहा।

“ सेट्ठिजन ऋण क्यों देंगे ? ”स्वर्णसेन ने कहा ।

“ क्यों नहीं देंगे , क्या गण के साथ उनकी सुख- समृद्धि संयुक्त नहीं है ? क्या वे गण की व्यवस्था ही से अपने वाणिज्य - व्यापार नहीं कर रहे हैं ? क्या श्रेणिक बिम्बसार का

उदाहरण हमारे सम्मुख नहीं है ? ”

महासेनापति सुमन ने कहा - “ भन्तेगण सुनें , जो संकट आज हमारे सम्मुख है, ऐसा वैशाली पर कभी नहीं आया था । शत्रु को यही छिद्र मिल गया है, कि हमारी सेना और कोष अव्यवस्थित और अपर्याप्त हैं , तभी वह साहस कर रहा है; और यह झूठ भी नहीं है । हमें नियमित राजस्व नहीं मिल रहा है। दुर्ग -प्राकारों और नगर -प्राकारों का भी संस्कार कराना आवश्यक है। परिखा में जल नहीं है और उसमें मिट्टी भर गई है, वे खेत हो रही हैं । ”

भद्रिय ने खड़े होकर कहा - “ भन्तेगण सुनें , सेट्टि और सार्थवाह परिषद् को दस कोटि सुवर्ण धन ऋण दे और यह ऋण उन्हें बारह वर्ष में चुकाया जाएगा । मैं आशा करता हूं कि वे गण को प्रसन्नता से धन देंगे । ”

सिंह ने खड़े होकर कहा - “ भन्तेगण सुनें , धन की व्यवस्था हो जाए तो और विषयों का युद्ध- उद्वाहिका अपने मोहनगृह के गुप्त अधिवेशनों में निर्णय करे , जिससे शत्रु को छिद्रान्वेषण का अवसर न मिले । ”

इस पर कोलियगण राजप्रमुख विश्वभूति ने कहा - “ कासी - कोलों के अठारह गणराज्य इस युद्ध में अर्ध अक्षौहिणी सेना और तीन कोटि सुवर्ण- भार देंगे। अपने सैन्य की रसद -व्यवस्था वे स्वयं करेंगे ।

सन्निपात ने प्रसन्नता प्रकट की । मल्लों के प्रमुख रोहक ने कहा - “ तो एक सहस्र हाथी , इतने ही रथ , बीस सहस्र अश्वभट और पचास सहस्र पदाति मल्लों के नौ गणराज्य देंगे तथा अपना सब व्यय- भार उठाएंगे । मल्ल युद्ध- उद्वाहिका को अपने सम्पूर्ण तटों , दुर्गों और युद्धोपयोगी स्थलों को उपयोग करने का भी अधिकार देते हैं । ”

महाबलाधिकृत ने अब युद्ध- उद्वाहिका का इस प्रकार संगठन किया

“ महाबलाधिकृत सुमन सेनापति , सिंह उपसेनापति , नौबलाध्यक्ष गान्धार काप्यक , राजस्व- कोष और युद्धोत्पादन भद्रिय , रसदाध्यक्ष स्वर्णसेन , प्रान्तकोष्ठ रक्षक सूर्यमल्ल । कासीकोल -प्रतिनिधि विश्वभूति और मल्ल - प्रतिनिधि रोहक । ”

इसके बाद सन्निपात- भेरी का कार्य समाप्त हुआ ।

114. मोहनगृह की मन्त्रणा : वैशाली की नगरवधू

संथागार के पिछले भाग से संलग्न निशान्त हर्म्य थे, जिसमें चारों ओर अनेक अट्टालिकाएं ऐसी चतुराई से बनाई गई थीं , जिनकी भीत और निकास के मार्गों का सरलता से पता ही नहीं लगता था । एक बार एक अपरिचितजन उन टेढ़े-तिरछे मार्गों में फंसकर फिर निकल ही नहीं सकता था । इसी निशान्त के बीचों-बीच भूगर्भ में यह मोहनगृह था । इसके द्वार के समीप ही चैत्य देवता का थान था । इस चैत्य में आने -जानेवालों का तांता लगा ही रहता था । इससे इस ओर आने -जाने वालों की ओर किसी की दृष्टि नहीं जाती थी । चैत्य के देवता की विशाल मूर्ति पोली धातु-निर्मित थी । इसी मूर्ति के पृष्ठ भाग में सिंहासन के नीचे मोहनगृह का गुप्त द्वार था जो यन्त्र के द्वारा खुलता था तथा जिसे यत्नपूर्वक गुप्त रखा जाता था । इस गुप्त द्वार के अतिरिक्त द्वारा था तथा था । इस द्वार मोहनगृह में आने जाने के लिए अनेक सुरंगें भी थीं जिनका सम्बन्ध उच्च राजप्रतिनिधिजनों के आवास से था । उनके आवास में से इन सुरंगों का मार्ग या तो किसी खम्भे के भीतर था , या भीत के भीतर होकर । ये द्वार इतने गुप्त थे कि निरन्तर सेवा करने वाले दास -दासी और भृत्य भी उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते थे। वज्जी संघ का यह कठोर विधान था कि मंगल- पुष्करिणी में स्नात लिच्छवि राजपुरुष को छोड़ अन्य जो कोई भी किसी भांति इन द्वारों से परिचित हों , इन द्वारों के भीतर चरण रखे, तो तुरन्त उसी समय उसका वध कर दिया जाए , फिर वह अपराधी चाहे राजपुत्र ही क्यों न हो । इन सब कारणों से इस मोहनगृह के सम्बन्ध में विविध किंवदन्तियां कहते थे। वह किस उपयोग में आता है, यह भी लोग नहीं जानते थे । वहां जाने की चेष्टा करनेवालों, जिज्ञासा करनेवालों को जिन्होंने मृत्यु -दण्ड पाते देखा था , वे वहां की विविध काल्पनिक विभीषिकाएं सुना - सुनाकर लोगों को भयभीत करते रहते थे ।

इसी मोहनगृह में आज वज्जीसंघ के विशिष्ट जनों की मंत्रणा बैठी थी । मन्त्रणागृह में सात दीपाधारों पर घृत के दीप जल रहे थे और सब मिलाकर कुल नौ पुरुष वहां गम्भीर भाव से मंत्रणा में व्यस्त थे। इन नौ पुरुषों में एक गणपति सुनन्द, दूसरे महाबलाध्यक्ष सुमन ,तीसरे सेनापति सिंह, चौथे विदेश सचिव नागसेन ,पांचवें संधिवैग्राहिक जयराज, छठे नौबलाध्यक्ष काप्यक , सातवें अर्थ सचिव भद्रिय , आठवें आगारकोष्ठक स्वर्णसेन और नौवें महाअट्टवीरक्खक सूर्य मल्ल थे। विदेशसचिव नागसेन ने मन्त्रणा का आरम्भ किया । उन्होंने कहा - “ भन्तेगण सुनें , यह मोहन - मन्त्रणा अत्यन्त अनिवार्य होने पर मैंने आमन्त्रित की थी । मेरे पास इस बात के पुष्ट प्रमाण संगृहीत हैं कि अतिनिकट भविष्य में मगध सम्राट् वैशाली पर आक्रमण करने की योजना बना रहे हैं और उनके अमात्य ब्राह्मण वर्षकार मन्त्रयुद्ध का संचालन करने वैशाली में आए हैं । सम्राट् द्वारा उनका कलह और बहिष्कार केवल कपट योजना है, उन्होंने मन्त्रयुद्ध का वैशाली में प्रारम्भ कर दिया है और वे उसमें सर्वतोभावेन सफल होते जा रहे हैं । उनके सैकड़ों गुप्तचर विविध रूप धारण कर वैशाली में आ बसे हैं ।

अनेक नट, विट, वेश्याएं , कुटनियां , विदूषक तथा सती और तीक्ष्ण सभ्य नागरिकों के वेश में शिल्पी दूत , वणिक , सार्थवाह , सेट्ठि बनकर वैशाली में फैल गए हैं । विविध प्रकार के धूर्त चर चारों ओर भर गए हैं और यह ब्राह्मण कुण्डग्राम के ब्राह्मण - सन्निवेश में एक टूटे छप्पर के नीचे बैठ उनके द्वारा मन्त्रयुद्ध का संचालन कर रहा है। ”

गणपति सुनन्द ने कहा - “ आयुष्मान् के पास इन सब बातों के सम्बन्ध में क्या - क्या प्रमाण है ? ”

“ क्या , भन्तेगणपति , आपने कुण्डग्राम के ब्राह्मण- सन्निवेश में अभी जो घटना हुई, उसे नहीं सुना है ? ”

“ क्या आयुष्मान् उस चाण्डाल मुनि और यक्ष कन्या की बात कह रहा है ? ”

“ वही बात है भन्ते ! मैं कहता हूं , यह इस कुटिल ब्राह्मण का कोरा मन्त्र - युद्ध है । इसमें वैशाली जनपद के सौ से अधिक व्यक्तियों की मृत्यु हो गई और अब सम्पूर्ण वैशाली भयभीत हो उस काणे कपटमुनि के चरणों में गिर-गिरकर अपनी सुख- दु: ख भावना , आकांक्षा तथा गोपनीय बातें भी बता रही है । क्या आप यह नहीं सोच सकते, कि ये सब छिद्र और जन - जन की जीवनगाथा उस कुटिल ब्राह्मण के कान में पहुंचकर वैशाली के विनाश का साधन बन रही है ? ”

“ परन्तु आयुष्मान् इसका क्या प्रमाण है, कि वह भदन्त कोई भाकुटिक वंचक है, त्यागी समर्थ ब्रह्मचारी नहीं ? ”

“ भन्ते , वह जो कुछ है उसे हमने जान लिया है । ”

“ तो कौन है वह ? ”

“ यह जयराज कहेंगे, इन्होंने वैशाली से अनुसंधान- सूत्र ग्रहण किया है। ”

“ तो आयुष्मान् जयराज कहें ! ”

“ भन्ते , वह काणा राजगृह का प्रसिद्ध नापित धूर्त प्रभंजन है । वैशाली के बहत जनों ने राजगृह में उससे बाल मुंडवाए हैं । ”- जयराज ने कहा ।

“ क्या कहा ? राजगृह का नापित! ”

“ हां भन्ते , उसका नाम प्रभंजन है और वह महाधूर्त है । ”

“ और वह यक्षिणी ? ”

“ वह राजगृह की प्रसिद्ध वेश्या मागधिका है। ”

“ किन्तु ब्राह्मण- उपनिवेश के ब्राह्मणों के उन्मत्त होकर मरने का कारण क्या है ? ”

“ पूर्व-नियोजित योजना; नन्दन साहु ने विष - मिश्रित खाद्य उन्हें दिया है। वह दुष्ट इसी कुटिल ब्राह्मण का चर है और उसकी सम्पूर्ण योजनाओं का माध्यम वाहक है। ”

“ यह तो बड़े आश्चर्य की बात है! ”

“ यही नहीं भन्ते , आपने क्या विदिशा की वेश्या भद्रनन्दिनी का नाम नहीं सुना , जिसके हाथ में आज वैशाली के प्राण हैं ? ”

“ वह कौन है ? ”

“ मागध विषकन्या कुण्डनी। उसमें ऐसी सामर्थ्य है भन्ते, कि जिस पुरुष का वह चुम्बन करेगी , उसकी तुरन्त मृत्यु हो जाएगी । चम्पा की विजय का श्रेय इसी विषकन्या को है, इसी ने चम्पा के महाराज दधिवाहन के प्राण लिए हैं हन्ते! ”

“ ओह, ऐसी भयंकर सूचना ! क्या तुमने उसके सम्बन्ध में यथातथ्य जाना है । भद्र ? ”

“ भन्ते, मैं उससे मिल लिया हूं। अब तक जो लिच्छवि उसके द्वारा मरे नहीं, यह उसकी कृपा है; नहीं तो कोई दिन ऐसा नहीं जाता, जिस दिन वह सौ सुवर्ण देनेवाले किसी लिच्छवि तरुण का अपने आवास में स्वागत न करती हो । यह भी सम्भव है कि वह किसी महती योजना की प्रतीक्षा में है। ”

“ यह तो अति भयंकर बात है आयुष्मान् !

नागसेन ने कहा- “ अभी अर्थसचिव भद्रिय और महाअट्टवी - रक्खक सूर्यमल्ल भी कुछ सूचनाएं देंगे । ”

“ आयुष्मान् भद्रिय कहें ! ”

“ भन्ते, आपको ज्ञात है कि चम्पा का कोई धनकुबेर कृतपुण्य सेट्ठि गृहपति अन्तरायण में कहीं से आकर बस गया है । ”

“ उसके ऐश्वर्य और सम्पदा तथा वाड़व अश्वों के सम्बन्ध में मैंने सुना है; उसकी क्या बात है ? ”

“ वह भी इसी कुटिल ब्राह्मण का चर है, वह देश - देशान्तरों से वैशाली निगम के नाम हंडियां मोल लेकर संचित कर रहा है । उसका विचार किसी भी दिन ब्राह्मण का संकेत पाते ही वैशाली के सब सेट्ठियों के टाट उलटवाने का है। ”

“ यहां तक भद्र ? ”

“ अब भन्ते , सूर्यमल्ल की सूचना भी सुनें ! ”

“ आयुष्मान् बोलें ! ”

“ भन्ते , मुझे यह सूचना देनी है कि जिस दस्यु बलभद्र के आतंक से आजकल वैशाली आतंकित है, वह भी एक मागध सेनानी है और उसके अधीन दस सहस्र साहसी भट मधुवन में छिपे हैं एवं पचास सहस्र सैन्य वज्जीगण के विविध वन्य प्रान्तों में गुप्त रूप से व्यवस्थित हैं । उसके सेनानायक, सामन्त और नायकगण वैशाली के उत्तर - क्षत्रिय - कुण्डपुर सन्निवेश , वाणिज्य- ग्राम , चापाल - चैत्य , सप्ताह- चैत्य , बहुपुत्र - चैत्य , कपिना - चैत्य आदि स्थानों में छद्मवेश और छद्म नामों से बस रहे हैं । ”

“ तो इसका अभिप्राय यह है कि अब वैशाली में कौन शत्रु है और कौन मित्र , इसका जानना ही कठिन है! ”– महाबलाधिकृत सुमन ने कहा ।

“ भन्ते ! ”नागसेन ने कहा - “ अब वैशाली विजय करने को सम्राट् के यहां आने की और सैन्य - अभियान की आवश्यकता ही नहीं है। जो कुछ हो गया है, वैशाली को जय करने के लिए वही यथेष्ट है। ”

अब सेनापति सिंह ने खड़े होकर कहा -

“ भन्ते गणपति , यह आपने शत्रुओं की विकट योजना का एक अंश सुना , अब अपने बल को भी देखिए । वैशाली का सम्पूर्ण राष्ट्र आज मदिरा और विलास में डूबा हुआ है । उसके प्राण अम्बपाली के आवास में पड़े रहते हैं । ये सेटिजन , जो असंख्य सम्पदा के साथ सम्पूर्ण व्यापार- विनिमय के भी एकमात्र स्वामी हैं , आवश्यकता पड़ने पर हमें युद्ध में कोई सहायता नहीं देंगे। हमारे कोष की दशा शोचनीय है, अर्थसचिव इस पर प्रकाश डाल सकते हैं । सैन्य -संगठन का ढांचा ढीला है, तरुण कामुक और विलासी हैं । ”उन्होंने तीखी दृष्टि स्वर्णसेन पर डाली, जो चुपचाप विमन भाव से सब बातें सुन रहे थे।

गणपति ने कहा - “ भद्र, भद्रिय क्या कुछ कहेंगे ? ”

भद्रिय ने कहा - “ केवल यही , कि यदि हमें तत्काल ही युद्ध करना पड़ा तो राजकोष की कोई सहायता नहीं मिल सकती । बलि - संग्रह नहीं हो रहा ; और जब से दस्यु बलभद्र का आतंक बढ़ा है , इसमें और भी वृद्धि हो गई है। सम्भव है, आगारकोष्ठक मित्र स्वर्णसेन , सेना को अन्न और सामग्री दे सकें । ”उन्होंने भी मुस्कराकर स्वर्णसेन की ओर देखा ।

स्वर्णसेन ने खड़े होकर कहा - “ दस्यु बलभद्र का दमन यदि तत्काल नहीं हुआ तो फिर आगार की सारी व्यवस्था नष्ट हो जाएगी । ”

अब नौबलाध्यक्ष काप्यक ने खड़े होकर कहा -

“ भन्ते गणपति, एक महत्त्वपूर्ण सूचना मुझे भी देनी है; मागधों ने गंगा के उस पार पाटलिग्राम में सेना का एक अड्डा बनाया है । वे जब- तब आकर ग्रामवासियों को घर से निकालकर स्वयं वहां रहने लगते हैं और वे गंगा और मिट्टी के तीर पर दो - दो लीग के अन्तर पर काष्ठ के कोट बनवाते जा रहे हैं । पाटलिग्राम का गंगा तट नौकाओं से पटा पड़ा है। इस प्रकार वैशाली की ऐन नाक के नीचे यह पाटलिग्राम मागधों का सैनिक स्कंधावार बनता जा रहा है और कभी वह वैशाली के नौ बल के लिए बहुत बड़ी बाधा प्रमाणित हो सकता है। ”

“ तो आयुष्मान् नागसेन कहें , कि सब बातों का विचार कर हमें क्या करणीय है ? ” स्वर्णसेन ने बीच ही में खड़े होकर कहा

“ मेरा मत है कि इस कुटिल ब्राह्मण को तुरन्त बन्दी बना लिया जाए और उन सब गुप्तचरों को भी । ”

“ यह तो खुला रण -निमन्त्रण होगा आयुष्मान्! ”– महाबलाधिकृत सुमन ने कहा,

“ और इसका परिणाम भीषण हो सकता है । ”

नागसेन ने कहा “ मेरा मत है कि हमें त्रिसूत्रीय योजना विस्तार करनी चाहिए। एक सूत्र यह कि हमें निसृष्टार्थ दूत मगध को प्रेरित करना चाहिए । यह दूत कुलीन , बहुश्रुत , बहुबान्धव , बहुकृत , बहुविद्य , बुद्धि -मेधा-प्रतिभा - सम्पन्न , मधुर भाषी, सभाचगुर , प्रगल्भ , प्रतिकार और प्रतिवाद करने में समर्थ, उत्साही , प्रभावशाली , कष्टसहिष्णु , निरभिमानी तथा स्थिर स्वभाववाला पुरुष हो । उसके साथ सब यान -वाहन पुरुष - परिवार हो , करणीय विषय का ऊहापोह करने योग्य हो ।

“ वह सम्राट को मैत्री - सन्देश दे, उसकी गतिविधि देखे , शत्रु के आटविक , अन्तपाल , नगर तथा राष्ट्र के निवासी प्रमुख जनों से मैत्री- सम्बन्ध स्थापित करे , मागध सैन्य का संगठन , व्यूह -परिपाटी, संख्या देखे- समझे। शत्रु के दुर्ग, उसका कोष , आय के साधन , प्रजा की जीविका और राष्ट्र की रक्षा एवं उसके छिद्रों को भी देखे ।

“ दूसरा सत्र यह है कि हमें अपने इंगित , चेष्टा , आचार एवं विचार किसी से भी ऐसा प्रकट नहीं करना चाहिए , जिसमें वैशाली में व्याप्त मागध दूतों को यह ज्ञात हो जाए कि हम सावधान हैं और हमारी योजना क्या है। ”

“ तीसरा सूत्र यह है कि हमें कोष, अन्न और सैन्य का भलीभांति संगठन और व्यवस्था करनी चाहिए । ”

महाबलाधिकृत ने कहा - “ मुझे योजना स्वीकृत है। आयुष्मान् नागसेन का कथन यथार्थ है । मैं प्रस्ताव करता हूं कि स्वयं नागसेन ही मगध जाएं । ”

“ नहीं भन्ते , यह ठीक नहीं होगा , मैं यहां नियुक्त हूं। मेरी अनुपस्थिति तुरन्त प्रकट हो जाएगी। मेरा प्रस्ताव है कि मित्र जयराज जाएं । ”

“ मैं स्वीकार करता हूं; परन्तु योजना मेरी अपनी होगी । प्रकट में कोई अन्य व्यक्ति बहुत - सी उपानय-सामग्री लेकर चले और मैं गुप्त रूप में । दूत का जाना वर्षकार की सम्मति से उनके लिए सम्राट से अनुनय करने के लिए हो । हम लोग सब भांति से दबे हुए हैं , भयभीत हैं , असंगठित हैं , असावधान हैं , यही भाव प्रकट हो । मेरी अनुपस्थिति भी प्रकट न हो । मेरे स्थान पर मेरा मित्र काप्यक , मेरा अभिनय करे। ”

“ यह उत्तम है आयुष्मान्! ”– महाबलाधिकृत सुमन ने कहा - “ सैन्य - संगठन का कार्य मैं आयुष्मान् सिंह को सौंपता हूं ।

“ मैं स्वीकार करता हूं। मेरी भी अपनी स्वतन्त्र योजना होगी और अभी वह गुप्त रहेगी। ”

“ तो ऐसा ही हो आयुष्मान्! अब रह गया कोष , धान्य और साधन; इसके लिए आयुष्मान् भद्रिय उपयुक्त हैं । फिर हम सबकी सहायता करेंगे । आयुष्मान् जयराज एक मास में लौट आएं, तभी दूसरी बार मोहनगृह - मन्त्रणा हो । - गणपति सुनन्द ने कहा तथा मन्त्रणा समाप्त हुई ।

115 . पारग्रामिक : वैशाली की नगरवधू

काप्यक गान्धार ने बहुत - सी बहुमूल्य उपानय - सामग्री ले , दास , सैनिक और पथप्रदर्शकों के साथ ठाठ और आडम्बर के साथ राजगृह को प्रस्थान किया । सम्राट से महामात्य वर्षकार का विग्रह शमन कराने के लिए यह आयोजन किया गया है, यह सुनकर ब्राह्मण वर्षकार ने एक शब्द भी हां या ना नहीं कहा। हर्ष-विषाद भी कुछ उसने नहीं प्रकट किया । परन्तु उसी दिन उसने मध्यरात्रि में कुछ आदेश लेख लिखे और उन्हें ब्राह्मण सोमिल को देकर कहा - “ यह लेख नन्दन साहु के पास अभी पहुंचना चाहिए । नन्दन साहु ने वह लेख पाकर उसी रात्रि को एक दण्ड रात्रि रहते अपने घर से प्रस्थान किया और वैशाली उपनगर में आकर उपालि कुम्भकार के घर आया । उपालि कुम्भकार श्रावस्ती से आकर अभी कुछ दिन हुए यहां बसा था । नन्दन साहू ने वह लेख उसे दिया और कुछ भाण्ड उपालि से क्रय कर उनका मूल्य चुका, सूर्योदय से पूर्व ही घर लौट आया । परन्तु वैशाली के तीन द्वारों से तीन पुरुष सूर्योदय के साथ ही तीन दिशाओं को निकले । तीनों पदातिक थे। एक ने उत्तर - पूर्व में कुण्डपुर जाकर एक हर्म्य में मगध सेनापति उदायि को एक लेख दिया । दूसरे ने पश्चिम में वाणिज्य - ग्राम जाकर मागध सन्धिवैग्राहिक ध्रुववर्ष को एक लेख दिया । तीसरे ने कोल्लोग - सन्निवेश में स्थित मागध सेनानायक सुमित्र को तीसरा लेख दिया । वे अपना अपना कार्य पूर्ण करके अपने - अपने स्थान पर फिर वैशाली में लौट आए । परन्तु इन तीनों ही व्यक्तियों के पीछे छाया की भांति तीन और व्यक्ति भी उपर्युक्त स्थानों पर उनके पीछे पीछे जा पहुंचे थे। वे तीनों वैशाली नहीं गए। पूर्वोक्त व्यक्तियों के वैशाली लौट जाने पर वे लम्बा चक्कर काटकर टेढ़े-तिरछे मार्गों में घूमते -फिरते हुए द्युतिपलाश चैत्य में एकत्रित हुए। वहां एक ग्रामीण तरुण वृक्ष की छाया में बैठा सुस्ता रहा था । तीनों ने उसके निकट पहुंचकर अभिवादन करके अपने - अपने सन्देश दिए। ग्रामीण तरुण ने उनमें से प्रत्येक को कुछ मौखिक सन्देश देकर भिन्न - भिन्न दिशाओं में चलता किया । फिर वह कुछ देर बैठा कुछ सोचता रहा। उसने वस्त्र से कुछ लेख-मानचित्र निकालकर उन्हें ध्यान से भलीभांति देखा , फिर उन्हें नष्ट कर दिया ! इसके बाद वह मन - ही - मन बड़बड़ाकर हंसा और उसके मुंह से निकला - “ बस , खड्ग और मैं ! ”एक बार उसने अपने चारों ओर देखा, फिर उठकर राजगृह के मार्ग पर चल दिया । इस समय दो पहर दिन चढ़ गया था और वह मार्ग विजन वन में होकर था । दूर - दूर तक बस्ती का नाम न था - कहीं सघन वन और कहीं एकाध ग्राम । परन्तु वह सूर्यास्त तक बिना कहीं रुके चलता ही चला गया । उसने यथेष्ट मार्ग पार किया । अन्ततः वह भिण्डि - ग्राम की सीमा में आया। यहां एक चैत्य में उसने विश्राम करने का विचार किया । वह बहुत थक गया था , साथ ही भूख-प्यास से व्याकुल भी था । चैत्य के निकट ही एक गृहस्थ का घर था । वहां जाकर उसने कहा - “ गृहपति , क्या मैं तेरे यहां आज ठहर सकता हूं ? मैं पारग्रामिक हूं, मुझे भोजन भी चाहिए । मेरे पास पाथेय नहीं है। परन्तु तुझे मैं स्वर्ण दे सकता हूं । ”

गृहपति ने कहा - “ तो तेरा स्वागत है मित्र , वहां गवाट में और भी दो पारग्रामिक टिके हैं , वहीं तू भी विश्राम कर! वहां स्थान यथेष्ट है । आहार्य मैं तुझे दूंगा । स्वर्ण की कोई बात ही नहीं है। ”

“ तेरा जय रहे गृहपति ! ”ग्रामीण ने कहा और धीरे - धीरे गवाट में चला गया । गवाट के प्रांगण के एक ओर छप्पर का एक ओसारा था । वहां दो पुरुष बैठे बातें कर रहे थे! उन्हीं के निकट जाकर उसने कहा - “ स्वस्ति मित्रो ! मैं भी पारग्रामिक हूं आज रात - भर मुझे भी आपकी भांति यहीं विश्राम करना है। ”

“ तो तेरा स्वागत है मित्र, बैठ । ”दोनों में से एक ने कहा। ”परन्तु उन्होंने परस्पर नेत्रों में ही एक गुप्त सन्देश का आदान -प्रतिदान किया । आगत ने भी उसे देखा । परन्तु निकट बैठते हुए कहा - “ कहां से मित्रो ? ”

“ वाणिज्य - ग्राम को ! ”

“ किन्तु कहां से ? ”

“ ओह , चम्पा से ? ”

“ परन्तु चम्पा से इस मार्ग पर क्यों ? ”

“ प्रयोजनवश मित्र ! ”

“ ऐसा है तो ठीक है। ”ग्रामीण ने हंसकर कहा ।

उस हंसी से अप्रसन्न हो एक ने कहा -

“ इसमें हंसने की क्या बात है मित्र ? ”

“ बात कुछ नहीं मित्र, मुझे कुछ ऐसी ही टेव है। हां , क्या मित्रो , आप में से

“ कहानी ? ”

“ कहानी सुनने की भी मुझे टेव है। ”वह फिर हंस दिया ।

इस पर दोनों चिढ़ गए। उनके चिढ़ने पर भी वह ग्रामीण हंस दिया । एक ने तीखा होकर कहा - “ यह बात -बात पर हंसना क्या ? तू मित्र , ग्रामीण है ? ”

“ ग्रामीण तो हूं और तुम ? ”

“ हम नागरिक हैं । ”

इस बार ग्रामीण ज़ोर से हंस पड़ा । उस नागरिक ने उस पर क्रुद्ध होकर पास का दण्डहत्थक उठाया । उसके साथी ने उसे रोककर कहा - “ यह क्या करता है, उसे हंसने दे , उससे हमारा क्या बनता-बिगड़ता है! ”

साथी की बात मानकर वह व्यक्ति नवागन्तुक को क्रुद्ध दृष्टि से देखने लगा ।

इसी समय गृहपति भोजन -सामग्री लेकर वहां आया । उसने कहा - “ भन्तेगण , कुछ सैनिक ग्राम के उस ओर किन्हीं को खोजते फिर रहे हैं , कहीं वे आप ही को तो नहीं खोज रहे ?”

सुनकर तीनों व्यक्ति चौकन्ने हो शंकित दृष्टि से एक - दूसरे को देखने लगे । इस पर पीछे आए पुरुष ने कहा - “ मैं उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहा हूं मित्र, हम लोग उन छद्मवेशी मागध गुप्तचरों को ढूंढ़ रहे हैं जिन्हें सूली पर चढ़ाने का आदेश वैशाली से प्रचारित हुआ है। ”उसने तिरछी दृष्टि से दोनों पुरुषों को देखा जो शंकित- से उसे देख रहे थे ।

पारग्रामिक ने कहा - “ मित्र, वे किधर गए हैं मुझे बता , मैं उन्हें अभी लाता हूं । ”

इतना कह वह द्रुतगति से गृहपति की बताई दिशा की ओर चल दिया । उसके बाद ही दोनों बटारू भी उद्विग्न- से हो – “ हम भी देखें , कौन है। कहकर उठकर उसकी विपरीत दिशा को भाग खड़े हुए । गृहपति अवाक् खड़ा यह अद्भुत व्यापार देखता रहा ।

116. छाया – पुरुष : वैशाली की नगरवधू

इन्हीं दिनों वैशाली में एक और नई विभीषिका फैल गई । लोग भयविस्फारित नेत्रों से एक - दूसरे को देखते हुए परस्पर कहने लगे - “ एक भयानक और अद्भुत काली छाया उन्होंने कभी -कभी नगर के बाहर प्रान्त - भाग में सन्ध्या के धूमिल अन्धकार में घूमती -फिरती देखी है। ”ज्यों - ज्यों दिन बीतते गए, लोग इसका समर्थन करते गए । बहुत जन भय से दबे हुए स्वर में कहने लगे कि उस छाया में केवल गति है, किन्तु वह अशरीरी है। किसी ने कहा- वह छाया बोलती भी सुनी गई है। वह मनुष्याकार तो है, किन्तु मनुष्य कदापि नहीं है। इतना लम्बा मनुष्य होता ही नहीं । अशरीरी होने पर भी वह छाया वायु वेग से अधर में उड़ती है , पृथ्वी को छूती नहीं , उसकी गति अबाध है; पर्वत , नद, गह्वर कुछ भी उसकी गति में बाधक नहीं हो सकता । अनेक ने देखा है, कि स्वच्छ चांदनी रात में वह छाया सुदूर पर्वत - श्रृंगों के ऊपर से होती हुई , वायु में तैरती - सी वैशाली के निकट आती और कभी धीरे- धीरे और कभी अति वेग से नगर के चारों ओर चक्कर काटती हुई लोप हो जाती है । बहुत लोग बहुत भांति की अटकलें उसके सम्बन्ध में लगाने लगे । जिन्होंने देखा नहीं था वे अविश्वास करते ; और जिन्होंने देखा वे प्रतीति कराने लगे । फिर भी विश्वास हो चाहे न हो , यह सूचना कहने वालों और सुनने वालों सभी के लिए भय का कारण बन गई थी । स्त्रियों में से भी कुछ ने देखा और वे भय से चीत्कार करके मूर्छित हो गईं। बच्चे उस छाया की बात सुनते ही सकते की हालत में हो गए। एक बात अवश्य थी , इस छाया ने किसी का अनिष्ट नहीं किया था । नगर - अन्तरायण में भी वह नहीं घुसी थी । उसका दर्शन अधिकतर मर्कट - ह्रद, पलाशवन और वैघंटिक -यक्षनिकेतन के निकट ही बहुधा होता था । किसी -किसी ने उसे यक्षनिकेतन में प्रविष्ट होते भी देखा था । इससे लोग उसे यक्ष भी कहने लगे थे। युद्ध की विभीषिकाएं दिन -दिन बढ़ती जाती थीं , इससे वैशाली में घर - बाहर सर्वत्र एक घबराहट- सी फैल जाती थी ; और यह लोकचर्चा होने लगी थी कि कोई- न - कोई अप्रिय अशुभ घटना होनेवाली है।

एक बात इस सम्बन्ध में और विचारणीय थी , प्रतिदिन चंपा के सेट्ठि कृतपुण्य का पुत्र भद्रगुप्त सान्ध्य भ्रमण के लिए जिस ओर वड़वाश्व पर घूमने जाया करता था , उसी ओर वह छाया बहुधा देखी जाती थी । सबसे प्रथम सेट्टिपुत्र के साथियों ही ने उसे देखा भी था । सेट्टिपुत्र उसे देख अति भयभीत हो गया था । एक बार तो वह छाया सेट्टिपुत्र के निकट आकर उसे छू भी गई थी । उस स्पर्श ही से सेट्ठिपुत्र भय से मूर्छित हो गया था । कृतपुण्य ने बहुत उपचार कराया , तब वह स्वस्थ हुआ था । तब से सेट्ठिपुत्र ने बाहर भ्रमणार्थ जाना ही बन्द कर दिया था । इससे वह छाया - पुरुष जैसे अति उद्विग्न हो वेग से बहुधा वैशाली के चारों ओर घूमा करता था । हाल ही में चाण्डाल मुनि और यक्षकन्या के प्रादुर्भाव और कृत्य प्रभाव से भयभीत वैशाली की जनता इस छाया - पुरुष से अत्यधिक भयभीत , शंकित और उद्विग्न हो गई थी ।

117. विलय : वैशाली की नगरवधू

कृतपुण्य सेट्ठि ने पुत्र के विवाह का आयोजन किया । आयोजन असाधारण था । वैशाली ही के सेट्ठि जेट्ठक धनञ्जय की सुकुमारी कुमारी से कृतपुण्य सेट्ठि के पुत्र का विवाह नियत हुआ था । कृतपुण्य सेट्ठि के धन - वैभव का अन्त नहीं था । उधर सेट्ठि जेट्ठक धनञ्जय भी उस समय जम्बूद्वीप भर में विख्यात धन - कुबेर था । उसकी किशोरी कन्या मृणाल केले के नवीन पत्ते की भांति उज्ज्वल , कोमल और सुशोभनीय किशोरी थी । सेट्ठि जेट्ठक के रत्न -भंडार में सहस्र कोटि - भार -स्वर्ण था , ऐसा सारा ही वैशाली का जनपद कहता था । इस विवाह की वैशाली में बड़ी धूम थी । बड़ी चर्चा थी । दूर - दूर के कलानिपुण पुरुष , नृत्य संगीत में विलक्षण वेश्याएं और विविध भांति के आमोद -प्रमोद और शोभा के आयोजन एकत्र किए गए थे । इस विवाह की धूमधाम , मनोरंजन और व्यस्तता के कारण एक बार वैशाली की जनता का ध्यान उस छाया - पुरुष से सर्वथा ही हट गया था ।

विवाह सम्पन्न हो गया । कृतपुण्य पुत्रवधू को लेकर मंगल - उपचार करता और वधू पर रत्न लुटाता हुआ घर आ गया । पुत्र और पुत्रवधू की मधु- रात्रि मनाने के लिए उसने सर्वथा नवीन एक कौमुदी-प्रासाद का निर्माण कराया था । उस प्रासाद में उसने समस्त जम्बूद्वीप में प्राप्य सुख - सामग्री संचित की थी । उसी कौमुदी प्रासाद में वधू के गृह-प्रवेश का उत्सव मनाया जा रहा था । नगर के गण्यमान्य सेट्ठि - सामन्त पुत्र और राजपुरुष आ - आकर हंस -हंसकर सेट्टिपुत्र को बधाई देते , भेंट देते और गंध- पान से सत्कृत होते अपने - अपने घर जा रहे थे । पौर जानपद जनों का षडरस व्यंजन परोसकर भोज हो रहा था । ब्राह्मणों को कौशेय , शाल , दुधारू गाय , स्वर्णालंकृता दासियां और स्वर्णदान बांटा जा रहा था । कृतपुण्य सेट्ठी के वैभव और चमत्कार एवं दानशीलता को देख - देखकर लोग शत - सहस्त्र मुखों से प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। अन्त : पुर में सेट्टिनी नागरिक महिलाओं से घिरी पुत्रवधू का परछन कर रही थी । स्त्रियां वधू पर रत्नाभरण न्योछावर कर रही थीं । मंगलगान की मधुर ध्वनि अन्त : पुर की रत्नखचित भीतों को आन्दोलित करती - सी प्रतीत हो रही थी । सेट्टिपुत्र समवयस्कों के बीच विविध हास्यों और व्यंग्यों का घात -प्रतिघात मुस्कराकर सह रहा था । गुणीजन, बांदी और वर -वधुएं अपनी - अपनी कलाओं का विस्तार कर रहे थे।

एक दण्ड रात्रि व्यतीत हो गई । आगत - समागत जन अपने - अपने घर विदा होने लगे। जानेवाले वाहनों का तांता बंध गया । धीरे- धीरे भीड़ कम होते- होते कौमुदी -प्रासाद में केवल परिजन, परिचारक और घनिष्ठ मित्र ही रह गए। मधरात्रि के उपचार होने लगे । कौमुदी- प्रासाद के शयनगृह और मधुशय्या पर श्वेत पुष्पों का मनोरम शृंगार किया गया था । मित्रों से विदा होकर सेट्टिपुत्र सुवासित ताम्बूल चबाता हुआ शयनकक्ष में प्रविष्ट हुआ । अनंगदेव का प्रथम प्रहार उसके प्राणों को विह्वल कर रहा था । उसके स्वस्थ सुन्दर -स्वर्ण अंग पर धवल कौशेय और धवल ही पुष्पमाला सुशोभित थी । उसके नेत्र औत्सुक्य , आनन्द और काम - मद से विह्वल हो रहे थे। नववधू को समवयस्का सखियों ने लाकर शयनकक्ष में एक प्रकार से धकेल दिया , वे कपाट - सन्धि से झांककर एक - दूसरों को नोचने लगीं । पुष्पभार से नमिति धनंजय सेट्ठि - जेट्ठक की सुकुमार कुमारी द्वितीया के चन्द्र की शोभा धारण करती हुई - सी शयन- कक्ष में बीड़ा से जड़- सी खड़ी रह गई । आंख उघारकर प्रियदर्शन पति को देखने का उसका साहस ही न हुआ ।

इसी समय कौमुदी -प्रासाद में एक भीति का आभास हुआ । गान -वाद्य एकबारगी ही रुक गए, लोगों का जनरव भी स्तब्ध हो गया । जो जहां था , वहीं जड़ हो गया । किसी के मुंह से हल्की चीत्कार - सी निकली। ऐसा प्रतीत होने लगा, जैसे कौमुदी-प्रासाद में कोई जीवित सत्त्व उपस्थित ही नहीं है। सबने भय और आतंक से देखा , छायापुरुष ने कौमुदी प्रासाद में प्रवेश किया है। छाया को देखकर बहुत लोग मूर्छित होकर गिर पड़े, बहुत पत्थर की मूर्ति की भांति जड़ हो गए। लोगों की जीभ तालु से सट गई । छाया - मूर्ति धीरे धीरे स्थिर चरणों से पृथ्वी से कुछ ऊपर ही वायु में तैरती हुई - सी एक के बाद दूसरा कक्ष और अलिंद पार करती हुई सेट्टिपुत्र के शयनकक्ष के द्वार पर आ पहुंची। उसे देखते ही सखी , दासी और कन्या जो जहां थीं , भयभीत एवं मूर्छित हो , भूमि पर गिर गईं ।

नवदम्पती ने भी , प्रासाद में कोई अशुभ बात हुई है, इसका आभास अनुभव किया । सेट्टिपुत्र ने आगे बढ़कर द्वार खोला , द्वार खोलते ही छाया पुरुष शयनकक्ष में आ प्रविष्ट हुआ । उसे देखते ही सेट्टिपुत्र भय से आंखें फाड़े निर्जीव की भांति पीछे हटकर भीत में चिपक गया । वधू चीत्कार करके मूर्छित हो गिर पड़ी । छायापुरुष ने उसी भांति पृथ्वी से अधर , स्थिर गति से जाकर सेट्टिपुत्र को छुआ। उसके छूते ही सेट्टिपुत्र मूर्छित होकर नीचे गिर गया । छायापुरुष ने उसे अनायास ही दोनों हाथों में उठाकर पुष्प - शय्या पर लिटा दिया । इसके बाद उसने द्रुत गति से शयन - कक्ष में चारों ओर चक्कर लगाना प्रारम्भ किया । चक्कर लगाते - लगाते वह शय्या की परिक्रमा- सी करने लगा । प्रत्येक बार उसकी परिक्रमा परिधि छोटी होने लगी । अन्तत: वह शैय्यातल्प को चारों ओर से छूता हुआ नथुने फुला फुलाकर कुछ सूंघता हुआ - सा घूमता रहा। इस समय नेत्रों से विद्युत् -प्रवाह के समान एक सचेत धारा प्रवाहित हो -होकर सेट्ठिपुत्र के शरीर में प्रविष्ट होने लगी; बीच -बीच में वह रुक - रुककर , सेट्ठिपुत्र के बिलकुल ऊपर झुककर देखता और फिर द्रुत वेग से शय्या के ऊपर नीचे चारों ओर घूम जाता । प्रासाद में ऐसा सन्नाटा था जैसे यहां एक भी जीवित पुरुष न हो । अब उसने मुंह से एक प्रकार हुंकृति -ध्वनि प्रारम्भ की । फिर वह कन्दुक की भांति एक बार ऊपर को उछला । उसने धुएं के बादल के समान सिकुड़कर मूर्छित सेट्ठिपुत्र के ऊपर अधर में लटककर अपना मुंह उसके मुंह के एकदम निकट लाकर , मुंह से मुंह मिलाकर , उसके मुंह में फूंक मारना प्रारम्भ किया । फूंक मारने से सेट्टिपुत्र का मुंह खुल गया ; वह अधिकाधिक खुलता चला गया । तब अद्भुत चमत्कारिक रूप से वह छायापुरुष एक द्रव सत्व की भांति समूचा ही सेट्ठिपुत्र के मुंह में धंस गया । सेट्ठिपुत्र अति गहन नींद में सो गया । धीरे- धीरे उसके सफेद मृतक के समान मुंह पर लाली दौड़ने लगी । लकड़ी के समान अकड़े हुए अंग हिलने - डुलने और सिकुड़ने लगे। उसके मुंह की विकृति भी दूर हो गई। उसने सुख से करवट ली और सो गया । मूर्च्छित वधू भूमि पर पड़ी रही । छायापुरुष का कोई चिह्न कक्ष में न रह गया । इस अद्भुत - अतयं घटना का कोई साक्षी भी न था ।

118. असमंजस : वैशाली की नगरवधू

बहुत भोर में वधू की निद्रा , तंद्रा या मूर्छा भंग हुई। वह हड़बड़ाकर उठ बैठी । उसने अचकचाकर रात की अकल्पनीय घटना पर विचार किया , फिर उसने भयभीत दृष्टि कक्ष में घुमाई। कोई भी अप्रिय- असाधारण बात नहीं थी । रात में देखे हुए छायापुरुष का वहां कोई चिह्न भी न था । उसकी दृष्टि सब ओर से हटकर मृदुल पुष्पशय्या पर सोते हुए सेट्ठिपुत्र पर गई, उसे गाढ़ निद्रा में सोता देख वह आश्वस्त हुई । उसने अपने वस्त्र ठीक किए, कक्ष के एक गवाक्ष से झांककर देखा , उषा का उदय हो रहा था । वह डरती - डरती सेट्टिपुत्र की शय्या के निकट गई। जब उसे भली- भांति विदित हो गया कि वह प्रगाढ़ निद्रा में सो रहा है, तो आंख भरकर पति को देखती रही। उसके सौन्दर्य पर वह मोहित हो गई , उसकी सुख निद्रा से भय की रेखाएं दूर हो गईं। वह वहां से हटकर गवाक्ष के निकट बड़े - से मुकुर के सामने आ खड़ी हुई। पुष्पिता लता के समान अपनी ही शोभा पर मन - ही - मन वह गर्वित हुई । उसने एक बार शय्या पर सोते हुए पति के सुकुमार शोभा के खान अंग पर दृष्टि डाली , एक मधुर उज्ज्वल हास्य रेखा उसके होठों में फैल गई । इसी हास्य -रेखा से उसकी उस भयानक मधुरात्रि का सब लेखा -जोखा समाप्त हो गया । वह शांत , स्निग्ध और शुभ दृष्टि से कक्ष की बहुमूल्य सजावट को देखने लगी । इसी समय दासी ने द्वार पर आघात किया , वधू ने धीरे से आकर द्वार खोल दिया । वधू को मुस्कराता तथा सेट्टिपुत्र को सोता देख दासी ने मृद - हास्य हंसकर वधू को बाहर आने का संकेत किया । बाहर आने पर स्त्रियों के झुरमुट ने उसे घेर लिया । सबके मुंह पर औत्सुक्य , घबराहट और चिन्ता की रेखाएं थीं , सभी ने एक - दूसरे से आंखों में ही कुछ पूछा ; सभी ने वधू की भाव - भंगिमा से समझा , कि रात की विभीषिका से वधू सर्वथा अज्ञात प्रतीत होती है । इसी समय सेट्ठि कृतपुण्य हा पुत्र , हा पुत्र करता हुआ वहां आया और पुत्र के शयनकक्ष में घुस गया । वहां पुत्र को सुख से सोते हुए और वधू को स्वाभाविक देख वह हर्षोन्माद से नाच उठा । प्रथम संकेत से और फिर खुलकर अब रात की बातें होने लगीं । जिस -जिसकी मूर्छा भंग होती गई, उठकर वहीं एकत्र होने लगा । प्रश्न यह था कि वह छाया - मूर्ति थी क्या ? वह वहां वास्तव में आई भी थी , या भ्रम या स्वप्न था । यदि वह आई थी तो गई कहां ? सारा ही घर प्रथम फुसफुसाहट और फिर कोलाहल से भर गया । उस कोलाहल को सुनकर सेट्ठिपुत्र की नींद भी खुल गई । वह मद्यपों- जैसे भारी - भारी डग भरता हुआ , अपरिचितों की भांति आंखें फाड़ - फाड़कर इधर उधर देखता वहां आया । कृतपुण्य पुत्र को देखकर दोनों हाथ फैलाकर उसकी ओर दौड़ा और उसका आलिंगन करके कहा - “ पुत्र, क्या तूने भी रात को कोई विभीषिका देखी ? ”

सेट्ठिपुत्र ने विचित्र दृष्टि से सेट्ठि की और देखा , तनिक मुस्कराया। ब्राह्मण पुरोहित ने कहा - “ गृहपति , वह छायापुरुष वास्तव में एक दु: स्वप्न था , मैं अभी पुरश्चरण करता हूं तथा अथर्व- पाठ करके उसकी शान्ति करता हूं। तुम पुत्र और वधू को अधिक असुविधा में मत डालो। ”

सेट्टि ने बहुत ऊंच- नीच दिन देखे थे। उसने भी जब देखा कि घर में सब- कुछ ठीक ठाक है, तो कुछ कहना - सुनना ठीक नहीं समझा , वह पुत्र और वधू के अंग - संस्कार, स्नान आदि की सुविधा देने के विचार से अपने कक्ष में चला गया ।

पीठमर्दकों , अवमर्दकों और सेवकों द्वारा सेवित स्नान - वसन - भूषण से सज्जित सेट्टिपुत्र जब प्रासाद के बाहर अपने कक्ष में आया , तब सब वयस्कों ने उसका सस्मित प्रीति सम्मोदन किया । कुछ ने संकेत से रात्रि का हालचाल पूछा। उनमें से जो रात की विभीषिका से अवगत थे, उन्होंने संकेत से सेट्टिपुत्र से रात की बात पूछने से निषेध किया । सेट्टिपुत्र ने केवल मन्द मुस्कान ही से मित्रों के प्रश्नों का उत्तर दिया , परन्तु उसकी दृष्टि में कुछ विचित्रता सभी ने लक्ष्य की ।

एक ने कहा - “ मित्र , क्या इतना आसव ढाल लिया ? ”

दूसरे ने कहा - “ नहीं - नहीं रे, जागरण का प्रभाव है। कह मित्र , सुख से रात बीती ? ”

अब सेट्टिपुत्र ने मुंह खोला, उसने कहा - “ वड़वाश्व । ”

यह शब्द सुनकर अब समुपस्थित चौंक उठे । बिल्कुल अपरिचित स्वर था , उसका घोष भी अमानुष था , जैसे सुदूर पर्वत - श्रृंगों को चीरकर कोई ध्वनि आई हो । मित्रगण सेट्टिपुत्र के मुंह की ओर देखने लगे ।

उसने एक बार फिर उसी भांति वड़वाश्व कहा और उठ खड़ा हुआ । उसकी रुखाई और चेष्टा ऐसी थी , जैसे वह किसी को नहीं पहचानता हो , अथवा वह उन सबकी उपस्थिति ही से अज्ञात हो । सभी एक - दूसरे के मुंह की ओर देखने लगे, पर सेट्ठिपुत्र उठकर कक्ष से बाहर चल दिया । दो - एक पाश्र्वद पीछे दौड़े । उसके चलने का ढब भी निराला था । पाश्र्वदों ने समझा कि सेट्रिपत्र ने बहत मद्य ढाल ली है , इसी से पैर डगमगा रहे हैं । वह कहीं गिर न जाए, इसी से एक ने उसे थाम लिया ! उसे संकेत से निवारण करके उसने उसी स्वर में फिर कहा - वड़वाश्व ।

इधर जब से छायापुरुष की विभीषिका फैली थी तथा भ्रमण- काल में एक बार छायापुरुष ने उसे छू लिया था ; तब सेट्टि कुमार का वड़वाश्व पर वायुसेवनार्थ भ्रमण रोक लिया गया था । आज अकस्मात् ही अतर्क्स रीति से वड़वाश्व की इच्छा इस आग्रह से व्यक्त करने पर सेवक विमूढ़ हो गया । एक बात और थी , सेट्ठिपुत्र में पूर्व का मार्दव -विनय - शील संकोच न था , एक अभूतपूर्व दबंगपन और दुर्धर्ष वेग उसकी वासना - शक्ति का उसके नेत्रों से प्रवाहित हो रहा था । सेवक उस आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सका, वह अश्व लाने को दौड़ गया । दूसरा सेवक भयभीत होकर गृहपति को सूचित करने दौड़ गया । गृहपति सेट्ठि दौड़ा आया , उसने पुत्र को भ्रमण के लिए जाने का निषेध किया , पर सेट्ठिपुत्र ने मुस्कराकर गृहपति की ओर देखा । उस विलक्षण दृष्टि से सेट्टि घबरा गया । वह सोचने लगा - क्या मेरा पुत्र उन्मत्त हो गया है ? यह कैसी दृष्टि है ? इतने ही में सेट्ठिपुत्र पिता की उपस्थिति की अवहेलना करके अश्व की ओर चल दिया । सेवक अश्व ले आया था , एक अभूतपूर्व लाघव से सेट्टिपुत्र अश्व पर चढ़ गया और द्रुत गति से उसने अश्व छोड़ दिया ।

ऐसा पहले कभी भी नहीं हुआ था । पुत्र का यह परिवर्तन कैसा है ? क्या उसने रात अधिक मद्य पी है ? या कोई और बात है ? छायापुरुष की विभीषिका मन में होते हुए भी किसी ने भी यह नहीं सोचा कि इस घटना से वह छाया भी किसी भांति सम्बन्धित है ।

परन्तु सहसखियों से सेट्टिपुत्रवधू ने इस भयानक छाया का शयनकक्ष में आना वर्णित किया। सहसखियां सहम गईं । उन्होंने कहा - “ तब यह स्वप्न नहीं , सत्य है, वह छायामूर्ति हमारे सामने ही शयन - कक्ष में गई थी , ” परन्तु फिर उसका क्या हुआ ? वह कहां गई ? इसका कोई उत्तर न दे सका। वधू ने लजाते हुए कहा कि वह उसे देखते ही मूर्छित हो गई थी और रात भर वह मूर्छित ही भूमि पर पड़ी रही । तब सब स्त्रियां तथा सेट्टिनी भी चिन्ता से व्याकुल हो गईं । प्रासाद में सभी कोई मूर्छित हो गए थे और सभी रात्रि भर माया - मूर्च्छित रहे यह तो अद्भुत बात है । इसी समय सेट्टि कृतपुण्य ने भीतर आकर पत्नी से एकान्त में कहा - “ कह नहीं सकता क्या बात है, पर पुत्र में बड़ा अन्तर पाता हूं । क्या उसने रात बहुत मद्य पी थी ? ”सेट्टिनी ने शयन - कक्ष का जो विवरण वधू से सुना वह सेट्टि को सुना दिया । सुनकर सेट्ठि बहुत भयभीत हुआ । उसने कहा - “ आर्य वर्षकार को सूचना देनी होगी, मैं अभी नन्दन साहु को बुलाता हूं। ”

119. देवजुष्ट : वैशाली की नगरवधू

वह सेट्ठिपुत्र पुण्डरीक वड़वाश्व पर चढ़कर अतक्र्य वेग से निकल गया , अश्व संचालन में ऐसा नैपुण्य कभी उसका देखा नहीं गया था । पाश्र्वचर, अनुचर अपने - अपने अश्वों को ले उसके पीछे दौड़े ; परन्तु सेट्टिपुत्र को न पा सके। सेट्ठिपुत्र का वह वाड़व अश्व आज शतगुण वेग से वन , पर्वत और कन्दरा पार करता वायु में तैर रहा था । अनुचर चिन्तित - थकित वन - उपत्यका में खड़े निरुपाय सुदूर पर्वतों के मध्य में वायु में तैरते सेट्ठिपुत्र को देखते रहे । किसी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था । बहुत देर बाद अश्व लौटा । निकट आने पर सेट्ठिपुत्र ने अश्व की गति सरल की । उसने मुस्कराकर अनुचरों की ओर देखा , सब आश्वस्त हो उसे घेरकर चल दिए। अश्वारोहण का यह अभूतपूर्व कौशल उन्होंने सेट्ठि को जाकर बताया । सेट्टि अधिक चिन्तित हो गया । पुत्र का असाधारण परिवर्तन वह स्पष्ट देख रहा था । एक - दो बार उसने पुत्र से बात करने की भी चेष्टा की , पर वह पिता को देख मुस्करा दिया । उसकी अनोखी दृष्टि से ही घबराकर वह भाग गया । सेट्टिनी ने यह कहकर समाधान किया — विवाह के काम - ज्वर का यह आवेश है, सब ठीक हो जाएगा । उसने पुत्र के विश्राम - शयन - आहार की ओर भी यत्न से व्यवस्था करने के आदेश दिए । महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उसने मित्र - मण्डली से मिलना भी बन्द कर दिया । अनेक मित्र रुष्ट हो गए । अनेक ने हंसकर कहा - “ यह सुहागरात का उन्माद है। ”माता -पिता और निकटवर्ती पाश्र्व दासियों से वह कम बोलता , केवल मुस्कराता। उसकी दृष्टि तो सहन ही नहीं होती थी । एकाध वाक्य , जो वह बोलता, स्वर अपरिचित , उच्चारण विचित्र । उसने शयन - कक्ष में ही डेरा जमाया , उसमें नववधू को छोड़ और किसी का आना - जाना निषिद्ध कर दिया । बहुत खोद- खोदकर पूछने पर वधू ने बताया - “ केवल सोते हैं , आसवपान करते हैं , बहुत कम बोलते हैं , बहुत कम खाते हैं । ”

नन्दन साहु के द्वारा यह समाचार यथासमय ब्राह्मण वर्षकार के पास भी पहुंच गया । सब घटना सुनकर वर्षकार भी विचार में पड़ गए । छाया पुरुष का वैशाली के प्रान्त भाग में चक्कर लगाना उन्होंने सुना था । बहुत विचार करने पर उन्होंने सोमिल को एकान्त में बुलाकर कहा - “ भद्र सोमिल , क्या वह छाया अब भी वैशाली में कहीं घूमती दीख पड़ती है ? ”

“ नहीं आर्य , सुना तो नहीं। ”

“ तो तुम इसका ठीक-ठाक पता लगाओ और नन्दन साहु से कहो, कि वह सेट्ठि कृतपुण्य से कहें कि पुत्र पर कड़ी दृष्टि रखें । ”

सेट्रिपत्र पुण्डरीक का यह परिवर्तन एक कण्ठ से दूसरे कण्ठ में होता हआ वैशाली भर में फैल गया , विशेषकर उसका अद्भुत अश्वारोहण वैशाली की चर्चा का विषय बन गया । उसका समय - एकान्त , अत्यल्प भाषण, मर्मभेदिनी दृष्टि सब कुछ कृत -विकृत होकर घर - घर की चर्चा का विषय हो गए। बहुत निषेध करने पर भी सेट्ठिपुत्र ने सान्ध्य - भ्रमण सम्बन्धी पिता की बात नहीं मानी । पुत्र के दुर्विनय पर खिन्न हो सेट्ठि नाना प्रकार की चिन्ताओं में लीन हो गया ।

120 . कीमियागर गौड़पाद : वैशाली की नगरवधू

विश्वविश्रुत कीमियागर गौड़पाद अपनी प्रयोगशाला में बैठे देश -विदेश के आए वटुकों को रसायन के गूढ़ रहस्य बता रहे थे। विविध भ्राष्टियों और कूप्यकों पर अनेक रसायन सिद्ध किए जा रहे थे। वटुकों में चीन , तातार , गान्धार , तिब्बत , तपिशा , शकद्वीप , पारसीक , यवन , ताम्रपर्णी,सिंहल , आदि सभी देशों के वटुक थे।

कपिशा के वटुक धन्वन् ने कहा - “ भगवन् इस विस्तृत संसार के सब सजीव और निर्जीव पदार्थकिस प्रकार बने हैं ? ”.

आचार्य ने कहा - सौम्य धन्वन् वे सब मूल तत्त्वों के परस्पर संयोग से बने हैं । इनके तीन वर्ग हैं ; कुछ पदार्थ तत्त्व रूप ही में विद्यमान हैं , इनमें एक ही जाति के परमाणु मिलते हैं ; इन्हें मूलतत्त्व कहते हैं । कुछ दो या अधिक तत्त्वों के रासायनिक संयोग से बने हैं , ये यौगिक कहाते हैं । कुछ अधिक तत्त्वों और यौगिकों के भौतिक मिश्रणों से बने हैं , ये भौतिक मिश्रण कहाते हैं । ”

“ और भगवन् , अणु - परमाणु क्या हैं ? ”लम्बी चोटी वाले पीतमुख चीनी वट्क ने कहा।

“ पदार्थ के कल्पनागम्य सूक्ष्मतम उस विभाग को , जिसमें उस पदार्थ के सब गुण धर्म उपस्थित हों , किन्तु उसके फिर विभाजन से मूल पदार्थ के वे गुण - धर्म नष्ट होकर उसके अवयवों के परमाणु में मिल जाएं , वह अणु कहाता है । ‘ परमाणु का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । वे सदा संयुक्त अवस्था में ‘ अणु के रूप ही में रहते हैं । प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व अणु की अवस्था ही में रहता है, परमाणु की अवस्था में नहीं। ये अणु, परमाणु भारयुक्त हैं और भिन्न -भिन्न परमाणुओं और तत्वों में बन्धनक्षमता है, जो परिस्थिति के अनुरूप बदलती रहती है । एक तत्त्व का दूसरे तत्त्व से उसकी ‘ परमाणु - बन्धन - क्षमता की समानता होने पर ही स्थिर संयोग बन सकता है। ”

“ तो भगवन् ? इस प्रकार भूमण्डल के समस्त पदार्थ, जो परमाणुओं के संयोग से बने हैं , क्या हमें सुलभ हैं ? वे हमारे लिए सतत व्यवहार्य हैं ” – एक सिंहल छात्र ने श्रद्धांजलि -बद्ध होकर पूछा ।

“ नहीं भद्र, इनमें से कुछ हमें सुलभ हैं और कुछ विरल। ”

“ तो भगवन् , क्या परमाणु नित्य अविभाज्य है ? ”– एक युवक वटुक ने पूछा ।

“ नहीं -नहीं भद्र, कुछ परमाणु स्वयं ही टूटकर दूसरी जाति के परमाणु बन जाते हैं तथा उन्हें रासायनिक रीति से तोड़ा जा सकता है, नाग - परमाणु तोड़कर हम उसे पारदीय रूप दे सकते और पारद से सुवर्ण बना सकते हैं , आवश्यकता यही है कि लघु परमाणु- भार को अपेक्षित गुरु परमाणु - भार में स्थापित किया जाए! ”

“ किन्तु भगवन्, परमाणु कैसे खण्डित किया जा सकता है ? कैसे लघु - भार परमाणु को गुरु- भार परमाणु के रूप में व्यवस्थित किया जा सकता है ? ”गान्धार छात्र कपिश ने पूछा।

“ रश्मिक्षेपण द्वारा। पदार्थों और अणु - परमाणुओं के संगठन -विघटन का प्रकृति साधन परमाणु में विद्युत - सत्त्व है, तथा उस संगठन को स्थायित्व प्राप्त होता है रश्मिपुञ्ज से । जब परमाणु का विस्फोट किया जाएगा , तो विद्युतसत्त्व और रश्मिपुंज - क्षेपण करना होगा। उसके बाद जब फिर से परमाणु संगठन करना होगा तो विद्युत - आवेश और रश्मिपुञ्ज का विकास होगा। ”

“ यह किस प्रकार भगवन् ? ”

“ इस प्रकार कि प्रत्येक तत्त्व का प्रत्येक परमाणु एक छोटी - सी सूर्यमाला है। तुम जानते हो भद्र कि पृथ्वी आदि सम्पूर्ण ग्रह अपने विशिष्ट वृत्तों में सूर्य की परिक्रमा करते हैं । सूर्य - रूप भी स्थिर नहीं है । इसी प्रकार समस्त विद्युतसत्त्व रश्मिपुञ्ज की परिक्रमा करते रहते हैं । इससे रश्मिपुञ्ज और विद्युत -तत्त्व परमाणुओं का अत्यल्प स्थान व्याप्त कर पाते हैं । उस व्याप्त स्थान की अपेक्षा परमाणु का बहुत - सा अन्तराकाश ठोस से ठोस परमाणु में शून्य रहता है। इसी से तो हम कहते हैं - “ अणोरणीयान् महतो महीयान् । ”

“ भगवान्, हम क्या शून्य को ही आकाश समझें ? शून्य तो नहीं है पर तत्त्व नहीं नहीं है; आकाश यदि तत्त्व है तो वह नहीं नहीं। है है। फिर भगवन् , वही आकाश परमाणु में भी व्याप्त व्याख्यात हुआ है । सो यदि वह शून्य है तो वह आकाश - तत्त्व नहीं है । ”– एक मागध छात्र ने शंका की ।

“ नहीं भद्र , आकाश शून्य का नाम नहीं है । आकाश तत्त्व एक अतिसूक्ष्म तरल पदार्थ है । यह तरल पदार्थ भूमण्डल के बाहर भी व्याप्त है, भीतर भी है। ग्रहों, नक्षत्रों और उनके मध्यवर्ती आकाश से लेकर ठोस - से -ठोस पदार्थों के अणओं में , यहां तक कि परमाण में भी वह व्याप्त है । यह सब सचराचर विश्व उसी द्रव - सत्त्व के अथाह समुद्र में रह रहा है । उसी से विद्युत - सत्त्व में शक्ति , प्रकाश में आलोक -प्रवाह और भूतत्त्व में स्थिर आकर्षण स्थापित है । ”

“ तो भगवन्, जड़ पदार्थ और शक्ति में सामञ्जस्य किस प्रकार है ? ”-तिब्बत के एक छात्र ने पूछा ।

“ पदार्थों के पुत्र, दो ही तो स्वरूप हैं या तो जड़- स्वरूप या शक्ति -स्वरूप । जड़ पदार्थ वे हैं , जिनमें भार और विस्तार , ये दो गुण समवाय सम्बन्ध में रहते हैं । शक्ति में कार्यक्षमता है, पर वह जड़ पदार्थ के आश्रय से रहती है । प्रत्येक पदार्थ की तीन अवस्थाएं हो सकती हैं : घन , द्रव और वाष्प । ये तीनों अवस्था ताप - शक्ति के कारण हैं । घन का प्रधान गुण काठिन्य है, द्रव का गुण समतल होना और वाष्प का जितना स्थान उसे मिले , सबमें व्याप्त हो जाना । ये जड़ पदार्थ अविनाशी हैं । उनके केवल रूपों का परिवर्तन होता है। ”

“ शक्ति -स्वरूप पदार्थ क्या है भगवन् ? ”ताम्रपर्णी के एक छात्र ने कहा।

“ बल , ताप, प्रकाश और विद्युत - सत्त्व ये चार प्रमुख शक्ति - पदार्थ हैं । पदार्थ के अणुओं की गतिज शक्ति को ताप कहते हैं । प्रकाश सीधी रेखा में गमन करता है, उस रेखा को रश्मि कहते हैं । विद्युत - सत्त्व और बल नियामक पदार्थ हैं । ”

“ तो भगवन् ! जब हम विद्युतसत्त्व और रश्मिपुञ्ज - क्षेपण से नाग ‘परमाणु तोड़कर पारद और पारद से सुवर्ण बना सकते हैं , तो फिर पारद ही से सुवर्ण क्यों न बना लिया जाए ? पारद तो सुलभ है। ”

“ है, किन्तु सौम्य, जब नाग- परमाणु विघटित होगा तो हमें पारद- परमाणु उसमें विघटित प्राप्त होगा , पारद में वह संगठित है । अत : उसे विघटित करने में हमें बड़ी बाधा यह है कि वह विघटित होते - होते और ताम्र में लय होते - होते , रश्मिपुञ्ज - क्षेपण - प्रक्रिया के कारण उड़ जाता है । उसे अग्नि -स्थिर करने में अधिक परिश्रम करना पड़ता है, इसी से नाग परमाणु विघटित करके और उसे पारद - परमाणु का रूप देकर ताम्रविलय करना अधिक उपादेय है । फिर वह नाग पारद -विघटित परमाणु विद्युत - सत्त्व एवं रश्मिपुञ्ज प्रतिवाहति हो शक्ति बल और अवस्थान के अनुक्रम से शत - सहस्र- लक्ष कोटि वेधी हो जाता है। ”

“ किन्तु यदि पारद ही को अग्नि -स्थिर किया जाए ? ”

“ तो पहले उसे क्षार, अम्ल , लवण, मूत्र , पित्त , वैसा , विषवर्ग में स्नान कराना होगा , उसे केंचुली - रहित और बुभुक्षित करना होगा । बुभुक्षित होने पर उसे स्वर्णजीर्ण कराकर उसका बीजकरण करना होगा। तब वह भी शत - सहस्र - लक्ष- कोटि वेधी होगा । उसके लिए उसे खोटबद्ध करना होगा! फिर वह ताम्र -तार - वंग को वेध करेगा । ”

“ लोह - वेध क्या रसायन की इति है भगवन् ? ”

“ नहीं पुत्र , वह तो परीक्षण-माप है। रस सिद्ध होने पर जब देखो कि उसने लोहवेध कर लिया तब उसे भक्षण करो, देहवेध सिद्ध हो गया । ”

“ देहसिद्ध पुरुष के क्या लक्षण हैं भगवन् ? ”

“ पुत्र , देहसिद्ध पुरुष अत्यक्त - शरीर होते हैं , यह शरीर ही भोगों का आश्रयस्थल है , परन्तु वह स्थिर नहीं है। यह देहलोहसिद्ध रसायन ही उसे स्थैर्य देता है, काष्ठौषधनाग में , नाग वंग में , वंग ताम्र में , ताम्र तार में , तार स्वर्ण में और स्वर्ण पारद में लय होता है , सो यह सिद्ध धातुवेधी - शरीर- वेधी पारद शरीर को अजर - अमर करता है,स्थिर- देह पुरुष अभ्यासवश अष्टसिद्धियों का अनुष्ठाता, परम ज्योति -स्वरूप , अमल, गलितानल्प -विकल्प , सर्वार्थविवर्जित होता है । उसकी भृकुटि के मध्य में प्रकाश - तत्त्व और विद्युत्सत्त्व अधिष्ठित हो जाता है। उसी में दृष्टि को केन्द्रित करके वह सचराचर सब जगत् को प्रत्यक्ष देख पाता है । वह सब क्लेशों से रहित , शान्त और स्वयं वंद्य और अमितायु हो जाता है । ”

“ किन्तु भगवन् , क्या वृद्धावस्था और मृत्यु जीवन का अवश्यम्भावी परिणाम नहीं ? क्या वह नियत समय पर शरीर को आक्रान्त नहीं करती ? क्या वह किसी प्रकार टाली जा सकती है ? ”तिब्बत के पीतकेशी एक वटुक ने प्रश्न किया ।

आचार्य ने कहा - “ सौम्य , वृद्धावस्था और मृत्यु एक रोग है, शरीर के अवश्यम्भावी परिणाम नहीं । वे युक्ति और रसायन द्वारा टाले जा सकते हैं । शरीर जिन अवयवों से बना है, उनमें अनेक धातु और खनिज पदार्थ हैं , जिनका शरीर के पोषण में निरन्तर व्यय होता रहता है। सौम्य , युक्ति से इन पदार्थों के मूल अवयव शरीर में जीर्ण करने से यही शरीर चिरकाल तक स्थिर अमितायु हो जाता है ।

वैशाली की नगरवधू : अध्याय (81-100)

वैशाली की नगरवधू : अध्याय (121-140)