उपयुक्त पात्र : बांग्ला/बंगाली लोक-कथा

Upyukta Patra : Lok-Katha (Bangla/Bengal)

जयसेन नामक एक राजा थे। उनके राज्य का नाम था चंद्रद्वीप । राजा के हाथीसाल में हाथी, घुड़साल में घोड़ा, धन-दौलत, लाव-लश्कर आदि इतने थे, जो साधारणतः किसी राजा के पास नहीं होते थे । आस-पास के क्षेत्रों में उनका खूब दबदबा था।

राजा बहुत धर्मपरायण थे। उनके न्याय में भी कोई खोट नहीं होती थी । इसीलिए उनका यश सर्वत्र फैल गया था।

एक दिन राजा जयसेन अपने दरबार में बैठे हुए थे । दरबार में उनके मित्र, सभासद आदि भी बैठे हुए थे। उसी समय एक युवक ने राजदरबार में प्रवेश किया। उसने कहा, “महाराज, मैं आपके पास किसी भी प्रकार का कोई काम पाने के लिए आया हूँ। आशा करता हूँ कि आप मुझे निराश नहीं कीजिएगा । "

युवक देखने में सुंदर था एवं ज्ञानवान लग रहा था। राजा ने उसका परिचय पूछा। युवक बोला, “महाराज, मेरा नाम दीपंकर है। आपके राज्य के काजलगढ़ नगर में मैं रहता हूँ। मैं क्षत्रिय जाति का हूँ । बहुत पढ़ा-लिखा न होने के बावजूद अपनी बुद्धि के बल पर किसी को जानने का अवसर नहीं देता हूँ कि मैं अल्प शिक्षित हूँ। आप मुझे जो भी काम सौंपेंगे, मैं उसे सुसंपन्न करूँगा ही।"

राजा ने पूछा, "तुम कितना वेतन चाहते हो ?"

युवक ने कहा, "मुझे प्रतिदिन एक हजार स्वर्णमुद्राएँ देनी होंगी। यदि किसी दिन ऐसा नहीं हुआ, तो मैं चला जाऊँगा।"

दीपंकर की यह माँग सुनकर राजा, उनके मित्र, सभासद सभी आश्चर्यचकित रह गए। लेकिन राजा की सोच थोड़ी भिन्न थी । उनकी बुद्धि भी अन्य प्रकार की थी। उन्होंने मन-ही-मन सोचा कि निश्चय ही इस युवक में कोई अद्भुत शक्ति है, इसीलिए प्रतिदिन यह एक हजार स्वर्णमुद्राओं की माँग कर रहा है। बहुत सोच-विचार के बाद राजा जयसेन बोले, “ठीक है दीपंकर, तुम्हें वही मिलेगा। आज से तुम नियुक्त हुए। तुम्हारा कार्य होगा देहरक्षी होकर तुम सर्वदा मेरे साथ रहोगे। रात में जब मैं सोने जाऊँगा, तब तुम राजभवन में पहरा दोगे ।"

युवक उसी दिन से राजा जयसेन के आदेशानुसार कर्तव्य पालन हेतु जुट गया। रोज सुबह एक हजार स्वर्णमुद्राएँ लेता था। आधी स्वर्णमुद्राएँ ब्राह्मणों, वैष्णवों को दान कर देता। शेष अपने परिवार के लिए जमा करता। कुछ ही दिनों में उसकी आर्थिक अवस्था अच्छी हो गई।

इसी तरह दिन कटने लगे । हठात् एक दिन आधी रात को एक नारी का करुण रुदन सुनाई पड़ा। राजभवन के सारे लोगों ने भी रोने की आवाज सुनी। राजा और रानी को आश्चर्य हुआ । इस आधी रात में कौन रो रही है ? राजा दीपंकर के पास गए। दीपंकर बोला, “महाराज, मैंने भी रोने की आवाज सुनी है। आप निश्चिंत होकर सो जाइए। मैं पता लगाकर आता हूँ कि कौन इतनी रात को इस तरह रो रही है ? सबकुछ जानकर आपको संवाद दूँगा ।"

राजा ने दीपंकर को कहा, "अच्छी बात हैं। मैं जगा हुआ रहूँगा। तुम आकर मुझे समाचार दो।"

दीपंकर ने प्रस्थान किया । राजा भी दीपंकर के पीछे चुपके-चुपके चले | दीपंकर रोने की आवाज की दिशा में बढ़ा। राजभवन के पीछे कुछ दूरी पर एक छोटी सी नदी थी । उसके तट पर एक बड़ा श्मशान था। वहाँ पहुँचकर दीपंकर ने देखा - श्मशान में एक युवती खड़ी है। ऐसा लगता था कि कोई पगली हो, पर वह अपूर्व सुंदरी थी। त्रयोदशी अथवा चतुर्दशी के चाँद की चाँदनी के समान उसका रूप प्रस्फुटित हो रहा था। ज्योत्स्ना की रात्रि होने के बावजूद पेड़ों की वजह से कहीं-कहीं अंधकार एवं कहीं-कहीं क्षीण उजाला था। दीपंकर जब उस युवती के सामने जाकर खड़ा हो गया, तब भी उस युवती का रोना बंद नहीं हुआ। दीपंकर ने उससे पूछा, “माँ, तुम कौन हो ? इस आधी रात में एकाकिनी श्मशान में खड़ी होकर रो क्यों रही हो?"

युवती बोली, “मैं चंद्रद्वीप के राजा जयसेन के राज्य की राजलक्ष्मी हूँ। मेरा अति प्रिय पुत्र है वह । आज से सात दिनों के अंदर राजा जयसेन की मृत्यु हो जाएगी। इसी दुःख में मैं रो रही हूँ ।"

दीपंकर ने पूछा, “माँ ! राजा जब आपके इतने प्रिय हैं, तब उनकी मृत्यु न हो, ऐसा कोई उपाय किया जा सकता है ?"

राजलक्ष्मी ने कहा, “उपाय एकदम नहीं है, ऐसा नहीं है। अगर राजा के लिए कोई अपने प्राण उत्सर्ग करे, तो राजा जयसेन बच सकते हैं। "

दीपंकर ने पूछा, "किसके प्राण उत्सर्ग करने से राजा की रक्षा हो पाएगी ?"

राजलक्ष्मी बोली, “सात दिनों के अंदर तुम यदि अपने पुत्र की उसकी माँ के द्वारा बलि दिलवा सको, तब राजा डेढ़ सौ वर्षों की परमायु प्राप्त करेंगे।"

दीपंकर राजलक्ष्मी को प्रणाम करके बोला, "ऐसा ही होगा माँ ! "

उसके बाद दीपंकर राजभवन न जाकर काजलगढ़ स्थित अपने घर गया। राजा जयसेन भी भेस बदलकर उसके पीछे-पीछे जाकर दीपंकर के घर के पीछे छुप गए । दीपंकर ने घर पहुँचकर अपनी पत्नी, पुत्र-पुत्री सबको जगाकर राजलक्ष्मी की सारी बातें बताईं। इसपर दीपंकर के एकमात्र पुत्र वीरसेन ने कहा, “पिताजी, जिनका नमक खाकर हम लोग आज अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उनके लिए प्राण देना पड़े तो अति उत्तम । चलिए, मैं जाऊँगा राजलक्ष्मी के पास ।" उसके बाद सब राजलक्ष्मी के कथनानुसार श्मशान की ओर रवाना हुए।

राजलक्ष्मी के समक्ष पुत्र की बलि देकर वीरसेन की माँ ने उसी खड्ग से अपना सिर भी काट लिया । भाई और माँ की बलि के बाद दीपंकर की पुत्री ने भी उसी खड्ग से अपना सिर काट लिया। दीपंकर पत्थर बनकर सब देख रहा था। उसने सोचा और जीकर क्या लाभ? पत्नी, पुत्र-पुत्री तीनों का बलिदान देखकर दीपंकर ने भी उसी खड्ग से अपना सिर काट लिया। राजा जयसेन श्मशान में स्थित एक वट- वृक्ष की आड़ से सब देख रहे थे। जब उन्होंने देखा कि उनके लिए एक पूरा परिवार खत्म हो गया, तब उन्होंने उन लोगों के गिरे खड्ग को उठाकर अपनी बलि भी देनी चाही। उसी समय राजलक्ष्मी ने राजा के हाथ से खड्ग को छीन लिया, फिर बोली, “धन्य हो तुम! मैं तुमसे बहुत संतुष्ट हूँ। अभी तुम जो वर माँगोगे, मिलेगा ।"

राजा ने कहा, “देवी! यदि मुझ पर आपकी दया - दृष्टि है, तो मुझे यह वर दीजिए कि दीपंकर अपने पूरे परिवार के साथ पुनः जी जाए। "

राजलक्ष्मी ने कहा, "ऐसा ही होगा।" यह कहकर वह अंतर्धान हो गई।

देखते-ही-देखते दीपंकर सहित उसका सारा परिवार जी उठा । राजा जयसेन ने दीपंकर को आलिंगन में ले लिया उसके बाद उसके पुत्र वीरसेन को अपने हृदय से लगा लिया।

राजा जयसेन को कोई पुत्र नहीं था । एकमात्र पुत्री थी। राजा ने अपनी पुत्री का विवाह वीरसेन से करवा दिया। वीरसेन चंद्रद्वीप राज्य का एकच्छत्र सम्राट् बन गया।

राज्य की सारी प्रजा दीपंकर के अद्भुत बलिदान की प्रशंसा कर मनोमुग्ध हो गई। सब बोलने लगे, “राजा जयसेन ने उपयुक्त पात्र को ही राज्य एवं अपनी पुत्री का दान किया है। "

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