टावर और मानव की नन्हीं अपेक्षाएँ (मलयालम कहानी) : ई.पी. ज्योति

Tower Aur Manav Ki Nanhi Apekshayen (Malayalam Story in Hindi) : E. P. Jyothi

आकाश में बादलों का नामोनिशान तक नहीं था। आसमानी, नीला...खिला-खिला आसमान।

बारिश और हवा भी अब थम रही थी। धरती मानो अपनी प्यास बुझाकर शांत हो गई हो।

मानूटी को ऐसे आनंद की अनुभूति पहले कभी नहीं हुई। साथ-ही-साथ मन में कोई अनजाना सा उन्माद हिचकोले ले रहा था। बार-बार अलमारी में कागज में लिपटे नोटों की गड्डियों को गिनता, चूमता और फिर कपड़ों के नीचे सहेजता। अलमारी बंद करके चाबी अपनी कमर में दबाकर दबंग से घूमता। फिर भी जरूरतों के नाम पर हाथों से फिसलते नोटों का मानूटी को भी अंदाजा नहीं था।

‘तुम ऐसे तैश मत खाओ। तुम्हारे रंग-ढंग से ही पूरे मोहल्ले को पता चल जाएगा। वैसे भी चोर-उचक्को का जमाना है। किसी पर भी विश्वास नहीं कर सकते।’ ओलिप्र ने चेतावनी दी। घास-फूस की उस छोटी सी झोंपड़ी में मानूटी बीवी ओलिप्र व दो बेटियों के साथ रहता था। ६५ साल का मानूटी दमा से परेशान रहता था, परंतु उसे अपनी बीमारी की कतई परवाह नहीं थी। परवाह थी तो अपनी बीवी की, जिसने लकवे की वजह से खटिया पकड़ ली थी। दहेज और सुंदरता की कसौटी पर बिखरे रिश्तों से हताश बड़ी बेटी रेणुका। बारहवीं कक्षा की छात्रा छोटी बेटी पार्वती। तकदीर से रोज खींचा-तानी करते मानूटी के जीवन में एक ठंडक का एहसास लेकर आया था...यह सौभाग्य। निजी मोबाइल कंपनी का आदमी पूरे लाख रुपए थमा गया था। अड़ोस-पड़ोस की काफी सारी जमीनें देखने के बावजूद, थोड़ी ऊँचाई पर सिर उठाकर खड़ी मानूटी की साफ-सपाट जमीन ही कंपनी के मन को भाई। ज्यादा सिर खपाए बिना कंपनी की दी रकम खुशी-खुशी ले ली थी मानूटी ने।

अंदर खटिया पर शिथिल पड़ी ओलिप्र के चेहरे को धीरे से सहलाया। गुजरते समय की गवाह उस शोषित झुर्रीदार चेहरे की पलकें धीमे से झपकीं। ‘ओलिप्र तू भी खुश है न, कितनी चाह थी तेरी कि शहर जाकर बड़े डॉक्टर को दिखाने की।’ ओलिप्र शायद कुछ बोलना चाह रही थी। उसके बुदबुदाते होंठों पर दीमक लगे छप्पर से एक तिनका गिरा। मानूटी ने उसे धीरे से पोंछा। दयनीय नजरों से छत को निहारा। एक पक्के घर का सपना सालों से अँगड़ाई ले रहा था उसके मन में। ‘ओलिप्र, हमने अपनी पूरी जिंदगी में क्या इतना पैसा कभी देखा है।’ मानूटी मानो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था।

होंठों पर मंद मुसकान के साथ सुनती रही ओलिप्र।

अगले दिन भोर होते ही चार-पाँच पड़ोसी आ धमके।

‘‘अरे भाई मानूटी, सुना है, तेरे घर मोबाइल का टावर आ रहा है। गाँव में हर किसी के मुँह पर तेरी ही बात है।’’ नारियल तोड़नेवाले वेणु ने लंबी हाँकी।

‘‘कंपनीवाले कह तो रहे हैं कि जगह उसके लिए एकदम सही है।’’ मानूटी ने दबी आवाज में उत्तर दिया।

‘‘एक मोटी रकम भी तो दी होगी न...’’ आँख मारते हुए वेणु ने बात आगे बढ़ाई।

‘‘हूँ...हाँ एक मोटी रकम दी तो है।’’

‘‘हाँ भई, खर्चा तो करना ही पड़ेगा। एक पूरी बोतल मिलेगी तो काम चला लेंगे चोर कहीं के।’’ मानूटी की तोंद पर चूँटी काटते हुए दामोधर बोला!

मानूटी मुसकराकर रह गया।

अपनी शामों को रंगीन बनाने जिस चौराहे पर मानूटी रोज शाम को दोस्तों से मिला करता था, वहाँ आज कुछ ज्यादा ही भीड़ थी। उसके पास पहुँचते ही खुसर-फुसर बंद हो गई। यह मानूटी के मन में काँटे सी चुभ गई।

‘‘मानूटी आज तो थैला भर-भरकर सामान ले जा रहे हो।’’ भीड़ से निकले कटाक्ष ने मानूटी के मन को और लहुलूहान कर दिया।

भीड़ में से किसी ने मानूटी के कंधे पर हाथ रखा।

‘‘मानूटी, ऐसा नहीं है कि तुझे चार पैसे मिलने की बात पर हम जलते हैं। तेरा कुछ भला हो तो हमें भी इस बात की खुशी है, पर हमारे कान, नाक, सिर, फेफड़े आदि सही-सलामत हों तो तुझे भी तो यह सोचना चाहिए न...।’’ मुड़कर देखा तो समाज-सेवी...बीरान कोया। मानूटी ने चुप्पी साध ली और थैला उठाकर घर को निकल गया।

दिन गुजरते गए। टावर कंपनीवाले अपना सारा सामान उतार चुके थे।

मानूटी के घर में तो जैसे लोगों का ताँता लग गया।

एक शाम घर आए पड़ोसी ने तैश में आकर कहा, ‘‘दोस्ती अपनी जगह है, हम भी इनसान हैं। हमारे भी बीवी-बच्चे हैं। बच्चे क्या नन्हीं सी जान, उन्हें कुछ हो गया तो क्या कंपनी भरपाई करेगी?’’ कल तक इकट्ठे बैठकर खानेवालों के मुँह से यह बात सुनकर मानूटी की आँख भर आई। मन विचलित हो उठा। ‘क्या होगा मेरे सपनों का।’

जिगरी दोस्त भी आँखें चुराने लगे। उसकी उपेक्षा करके उसकी पीठ पीछे मुलाकातें, गाँव की सरकारी पाठशाला के हेड मास्टर द्वारा मोबाइल टावर के आने से लोगों पर आनेवाली विपदाओं से संबंधित कक्षाएँ, रेडिएशन के परिणाम पर रोज होती संगोष्ठियाँ जोर पकड़ती गईं।

‘‘मानूटी, तुझे चार पैसे मिलने की बात किसी को पच नहीं रही।’’ चरवाहे हस्सन कोया ने आश्वस्त करना चाहा। इसके अलावा एक और पक्की खबर भी हस्सन कोया ने दी कि चौराहे के जमावड़े में टावर लगाने से कंपनी को कैसे रोका जाए, इस बात पर जोर-शोर से चर्चा हो रही है। गाँववालों और पड़ोसियों का विरोध बढ़ता ही गया।

‘‘हाय-हाय विदेशी कंपनियाँ वापस जाओ! इजारेधारियों को मार भगाओ!’’ ऐसे बोर्ड गाँव में जगह-जगह दिखने लगे। हस्ताक्षर इकट्ठे किए जाने लगे। कचहरी तक मामला ले जाने की बात हो रही थी। मानूटी के मन में डर घर कर गया। ‘यदि कंपनी अपने वादे से मुकर गई तो...नहीं...नहीं’, ऐसा सोच भी नहीं सकता, पर मानूटी की सोच के विपरीत ही हुआ।

कंपनी ऐसी धमकियों से डरनेवाली नहीं और इतना ही नहीं, यदि मानूटी गाँववालों की बातों में आकर पीछे हटा तो उसे कंपनी द्वारा दी गई पूरी रकम वापस करनी होगी और कंपनी अपने हिसाब से उसके खिलाफ उपयुक्त काररवाई भी करेगी। ऐसा नोटिस भी मानूटी को दिया गया।

अंदर-ही-अंदर यह खौफ उसे खाए जा रहा था कि कंपनी टावर का निर्माण करती है, तो उसे अपने दोस्ताने रिश्तों से हाथ धोना पड़ेगा। दूसरी ओर यदि वे अपने वादे से मुकरे तो कंपनी उसके खिलाफ काररवाई करेगी। ऊपर से उसकी खाली हथेली से फिसले नोट तो हिसाब चुकता करने आएँगे नहीं।

‘‘मनूटी, टावर बनने पर उसे देख चाय की चुस्की लेने की बात तो तू सोच भी मत और यह भी पक्का है कि गाँववालों की नफरत मोल लेकर तू जी नहीं सकता।’’ गाँव के नेता नारायणजी की बात उसे अंदर तक छलनी कर गई।

उधर कंपनी के आदमी ने धैर्य बँधाया, ‘‘देखो मानूटी, घबराने की कोई बात नहीं है, हर मुसीबत में कंपनी तुम्हारा साथ देगी।’’

‘‘हमारे नाक-कान खराब होंगे तो क्या कंपनी हमारा इलाज करेगी?’’ नारियल तोड़नेवाले गोपाल भैया की टीका-टिप्पणी का भी उसने जवाब नहीं दिया।

कंपनी के लोग एक ओर और दूसरी ओर उसका परिवार। एक भयंकर प्रश्न के सामने मानूटी निरुत्तर सा खड़ा रहा।

सारा जहाँ नींद के आगोश में समा गया, परंतु सर्दी की उस ठिठुरती रात में भी आँखें खोले वह बैठा रहा—अपलक सोचता रहा।

(अनुवाद : निपुणा एस. धरन)