टूटती दीवारें (सिंधी कहानी) : शौकत हुसैन शोरो

Tootati Deewarein (Sindhi Story) : Shaukat Hussain Shoro

दीवारें ढह रही थीं!
अपने कीमती कपड़ों को संभालते करीब आई, तभी उंगली उसके होंठों पर आई।
‘ये तो ढह रही हैं!’
दीवारें चुप्प थीं। दीवारों को ज़बान कहां है!
‘अच्छा हुआ मैं इस घर में नहीं आया...’
हां
दीवारें
ढह
रही
हैं...
दीवारें
ढह
रही
हैं...

उसने अचंभित होकर देखा। दीवारों ने बात नहीं की थी, केवल वायु की सरसराहट थी। दीवारों को ज़बान कहां है!
ईंटों ने ढहना शुरू कर दिया था। दरवाजा दीवारों में ये उखड़ा हुआ था।
‘अंदर कोई रहता है क्या?’ उसने अपने आप से पूछा।
कहीं से गूंजने का स्वर कानों तक पहुंचा... या हवा की सरसराहट थी!
‘अंदर केवल चमगादड़ होंगे, या इन्सान होंगे? कोई तो होगा... कोई तो होगा!’ कोई नहीं था, केवल हवा की सरसराहट थी।

अंदर जाकर देखना चाहिए शायद कोई हो। आखिर क्या जरूरत है? मैं केवल देखना चाहता था। ऐसे ही जिज्ञासा वश पता करना चाहता था। वर्षों के बाद कोई याद आता है तो देखने को मन करता है, इसमें क्या है...’
- हां
इसमें
है
ही
क्या...
इसमें
है
ही
क्या...

एक टुकड़ा गिर गया और दीवार नंगी हो गई। ‘यह तो खतरनाक है, किसी भी वक्त दीवारें ढहकर धरती पर गिर पड़ेंगी... अच्छा हुआ मैं इसमें नहीं रहा। हे भगवान, दीवारें ढह रही हैं! अंदर कोई रहता है क्या? कपड़े खराब हो जाएंगे और दीवारें ढह रही हैं। नजदीक जाना ठीक नहीं...’
- हां
नजदीक
जाना
ठीक
नहीं...
आना
ठीक
नहीं...

‘कौन बोला? दीवारें बोलीं! लेकिन दीवारों को जबान कहां!’

कुंडी भी नहीं थी जिससे खड़काऊं। दरवाजा दीवार से उखड़ा हुआ था। घर की दहलीज बूढ़े के मुंह समान थी। उसे हंसी आई। दो तीन ईंटें खिसककर गिर गईं।
‘अंदर भूत होंगे, यहां पर कोई व्यक्ति कैसे रह सकता है... कुंडी भी नहीं है...’
उसने एक पत्थर उठाकर अंदर फेंका। ईंटों के गिरने की आवाजें आईं और वायु ऊपर से चिल्लाती गई। उसने कीमती कपड़ों को सम्हाला।

ईंटों का गिरना बंद नहीं हुआ। टूटने की आवाज स्पष्ट थी। अचानक अंदर से कोई निकला। आदमी था या भूत था... या भूतों समान आदमी था।
- कौन है! कौन है?
भूत की डूबते दिल समान चीख। डरा हुआ भूत! वह डर गई और पैर पीछे लौटने लगे। (पैर काफी पहले पीछे हट चुके थे।)
‘मैं आया क्यों! मैं तो केवल देखना चाहता था... लेकिन आना नहीं चाहिए था। अब क्या लाभ?’
- अब
क्या
लाभ
अब...
भूत बढ़ता आया।

- यहां पर किसी का क्या काम है? यहां तो खंडहरों की इज्जत भी नहीं। यहां पर किसी का क्या काम है!
भूत बढ़ता आया।

डरी हुई दिल फड़फड़ायी।
‘भूत! ...’
उसने भागना चाहा। उसने भागना शुरू किया। ‘किस भूत ने काटा था जो...’

वह भागती गई, लोगों की बस्ती में शरण लेने के लिए। हवा ऊपर से चिल्लाती गई। वह दूर निकल आई लेकिन टूटने की आवाज अभी तक सुन रही थी और दीवारें ढह रही थीं...

(अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी)