टौन्टी नैन का खेल : फणीश्वरनाथ रेणु

Taunti Nain Ka Khel : Phanishwar Nath Renu

‘लड़की मिडिल पास है !’

‘मिडिल पास ?’

‘मिडिल पास ही नहीं, दोहा कवित्त जोड़ती है।’

‘देखने में भी, सुनते हैं कि गोरी है।’

‘सीप्रसाद बाबू की बेटी काली कैसे होगी ?’

‘विश्वास नहीं होता है।’

‘सुमरचन्ना नहीं आया है ? आ जाए तो सही बात का पता चले।’

‘यदि बात सच है तो समझो कि पानी में आग लग गयी !’ ‘सुमरचन्ना का भाग तेज है।’

‘चिड़िया का गुलाम किसका है ? रंग औट करो।’ चिड़िया का गुलाम, लाल पान की बीवी से कट गया और खेल खत्म। खेल में अब किसी का जी नहीं लग रहा है, सुमरचन्ना का भाग तेज हो गया, खेल में जी कैसे लगे ?

‘लेकिन-सुमरचन्ना तो अपर पास भी नहीं ?’-रमचनरा कहता है।

‘अब पास कर जाएगा !’-दुलरिया बात बनाना जानता है।

सभी हँस पड़ते हैं। गाँव-भर के निठ्ठले नौजवानों के इस ताश के अड्डे को बड़े-बूढ़ें-बड़ी बुरी निगाह से देखते हैं। देखा करें उनकी बुद्धि सठिया गयी है। सेमापुरिया ‘मेला’ की तरह माथा मुड़ाकर रहो तो ये बहुत खुश रहेंगे।

जरा-सा थोबड़ा केश बढ़ाकर, थोड़ी-सी बगली छाँटकर सिर में तेल डालते ही इनकी आँखों में लाल मिर्च की बुकनी पड़ जाती है।..लुच्चा हो गया, आवारा है वगैरह।..

सुमरचन्ना बावड़ी नहीं रखता है, डोमन लौआ से जब वह केश छँटाता है तो गाँव के नौजवानों को एक सप्ताह के लिए हँसने का मसाला मिल जाता है।..हल जोत दिया है अब खेसाड़ी बोना बाकी है। और उसी सुमरचन्ना का हल जोता हुआ कपाल इतना उपजाऊ साबित हुआ। रमचनरा आधा मोंछ कटाता है, लेकिन। मिडिल पास स्त्री, दोहा-कवित्त जोड़नेवाली और गोरी ! भगवान भी कैसे हैं ?

सुमरचन्ना-श्री सुमरचन्द विश्वास वल्द अमीरचन्द विश्वास जाति....मौजा लोरिकगंज थाना फारबिसगंज जिला पुरेनियाँ। रामपुर के सीप्रसाद मण्डल को कौन नहीं जानता ? जाति-बिरादरी में उनका स्थान ऊंचा है। नयी मातबरी हुई है। सरसों और तम्बाकू से दो हजार रुपये की आमदनी होती है। बन्दूक का लैसन मिलनेवाला है। कंगरेसी हैं। उन्हें कौन नहीं जानता ?

यह बड़े अचरज की बात है कि सीप्रसाद बाबू ने सुमरचन्ना को ही क्यों अपनी मिडिल पास, दोहा-कवित्त जोड़नेवाली और गोरी लड़की के लिए वर चुना ? सुमरचन्ना की माँ ऐसी झगड़ालू है कि दीवाल से भी झगड़ा करती है। बाप बहरा है। धन में धन दो भैंस हैं। और सुमरचन्ना की सूरत ?...अचरज की बात है। गाँव के निट्ठले नौजवानों के कलेजे पर साँप लोट रहे है ! भगवान भी कैसे हैं ?

‘रे सुमरचन्ना ! इधर आओ इधर ! कहाँ से आ रहे हो ? बीड़ी पिलाते जाओ !’

‘हरगोबिन भाय ! रामपुर गये थे ?’

‘शादी का दिन ठीक हो गया ?’

‘हाँ। यही फागुन एकादशी हैं।’ सुमरचन्ना, ‘मोटर मार सिकरेट’ सुलगाते हुए कहता है।

‘तुम्हारी किस्मत बड़ी तेज है। रुपैया-पैसा भी दिया है ?’

सुमरचन्ना को घेरकर सभी बैठे हुए हैं। बीच में मोटर मार सिगरेट का पाकिट खुला हुआ है। ताश की गड्डी पड़ी हुई है। सभी सिगरेट पी रहे हैं। सुमरचन्द विश्वासजी सुना रहे हैं-‘अरे हरगोबिन भाय। यह तो भोग-भाग की बात है। विधविधाता जिसकी जोड़ी जहाँ मिला दे। रमैन में कहा है-सुनहू भरथ भावी प्रबलऽ बिलख कहे मुनि नाथ...अर्थात् हे भरथजी !... इस ‘अर्थात्’ में हानि-लाभ के साथ शादी-विवाह और जोड़ी मिलाने की चर्चा कहाँ से आ गयी है, इस पर ध्यान देने का होश किसको है ?

सुमरचन्ना मिडिल पास भी नहीं लेकिन ‘रमैन’ और ‘महाभारत’ और कीरतन में उससे कोई पार नहीं पा सकता है। जब कीर्तन में ‘झाँखी’ गाने के समय पैर में झुनकी बाँधकर ‘झाँखी जुगल मोहनियाँ हो राम’ गाता है तो सुननेवालों की आँखों से प्रेम के आँसू झरने लगते हैं। बात यह हुई कि...सीप्रसाद बाबू के बूढ़े बाबू लामलरेन बाबू बड़े धार्मिक आदमी है। गाँव में ठाकुरवाड़ी बनवा दिया है। राम लछमन सीताजी की मूर्ति बनारस से लाये हैं। घर में भी मूर्ति हैं-सीताराम की जुगल जोड़ी। कीर्तन के बड़े प्रेमी है। उस बार ढालगंज के नवकुंज में सुमरचन के गीत पर मोहित हो गये। सीप्रसाद बाबू की छोटी बेटी (जिससे सुमरचन की बातचीत पक्की हो गयी है) लामलरैन बाबू की बड़ी दुलारी है। बड़ी प्यारी। दादा के सभी गुण उसमें आ गये हैं बचपन से ही दादा के साथ में रहकर ‘भगवान’ और कीर्तन उसके रोम-रोम में रम गया है। इसीलिए दादा ने उसका नाम रखा है-आरती। माँ कहती हैं-अर्ती। बूढ़े लामलरैन बाबू ने आरती की शादी किसी भगवान भक्त से ही करने की प्रतिज्ञा की थी।...पूरा भक्त, कण्ठीधारी वैष्णव हो, भले ही गरीब हो, अपढ़ हो, लेकिन अपनी ही जाति का हो। आरती सतरहवाँ पार कर चुकी लेकिन उसके जोग वर मिल नहीं रहा था। कोई मिलता भी तो स्वजाति का नहीं।

पढ़ाई-लिखाई की बात रहती तो आजकल एमे.बी.ए.की भी कमी नहीं होती..लेकिन वैष्णव, भगवान का असली भक्त, कण्ठीधारी कहाँ मिले ? मुर्गी के अण्डे खानेवालों की बात रहती तो एक बात भी थी। बस ढालगंज नवकुंज में लामलरैन बाबू को आरती के जोग वर मिल गया।..स्वजाति का, भक्त, वैष्णव और कण्ठीधारी सुमरचन्ना।

‘ऐह ! यह तो राजा रानी का खिस्सा हो गया कि एक राजा था और उसकी एक लड़की थी-’ दुलरिया बहुत देर तक रुके हुए साँस को एक ही बार छोड़ते हुए कहता है-‘एकदम खिस्सा साढ़े चार यार !’

सभी हँस पड़े लेकिन यह बात तो सर्व सम्मति से स्वीकृत हो जाती है कि सुमरचन्ना का भाग बड़ा तेज है। भगवान की महिमा अगम अपार है। सभी गम्भीर हो जाते हैं। भाग की बात है। इससे बढ़कर और क्या चाहिए ?

‘लेकिन सुमरचन्ना भाय ! कीरतन दल को भूल मत जाना, हरमुनियाँ का भाथी एकदम खराब हो गया है। ढोलक भी कठसुरहा हो गया है। गेरुआ पोशाक एक दर्जन बनवा देते तो फिर क्या है?’

‘और एक ‘कौरनोट’ और एक ‘बिहला’ बाजा यदि खरीद दो तो समझ लो कि ‘हौल इण्डिया’ में हम लोगों के दल का नाम हो जाय।’ ‘अरे भगवान ने चाहा तो सबकुछ हो जायेगा। पंगु होंहि वाचाल मूक चढ़हि...नहीं-नहीं..मूक होहि वाचाल...।’ सुमरचन्द विश्वास, विश्वास दिलाते हुए कहते हैं-‘और हम यदि कीरतन दल को भूल जायँ तो भगवान हमारे गरव को कितनी देर तक रखेंगे ?...रावन गरव कियो लंका में...।’ फागुन एकादशी ? लामलरैन बाबू ने खबर भिजवा दी है-वर बरात एकदम नहीं। जो आये वह कीर्तनियाँ हो। ढोल-ढाक, बाजा-गाजा, नाच-तमाशा, रंग-रवायश कुछ नहीं। सिर्फ कीर्तन।

दुलरिया बड़ा मस्त जानवर है, हरदम हँसते-हँसाते रहता है। सुनते ही कहता है-‘तब तो लड़की के लिए भी कोई गहना बनाने की जरूरत नहीं। कण्ठीमाला ही ले चलो सुमरचन भाय।’

सुमरचन आजकल दिन-रात सपना ही देखता रहता है। उसे कुबेर का भण्डार मिल गया है। हँसते हुए कहता है-‘असल गहना तो कण्ठीमाला ही है दुलारे। पूरब मुलुक बंगाला में जाओ तो ? जब तक माला बदल नहीं होगा शादी पक्की नहीं समझी जायेगी। पहले जमाने में राजा-महाराजा की राजकुमारी माला डाल कर ही सुयेम्बर करती थी। जयमाला।’ ‘कुमारी आरती देवी मीरा ‘श्रीमान सुमरचन्द विश्वास जी के गले में जयमाला डालेगी।

आरती देवी मिडिल पास है। घर बैठे ही गीता और रमैन की परीक्षा देकर पास कर चुकी है। मासिक मानव कल्याण पत्रिका की स्थायी ग्राहिका और पाठिका है। कभी-कभी खुद गीतों की रचना कर लेती हैं-दोहा कवित्त। इसलिए अपने नाम के साथ ‘मीरा’ लिखती है। अठारहवें में पाँव रख रही है। पिछले दो साल से गाते गाते भगवान के आगे कभी-कभी बेहोश हो जाती है। घण्टों बेहोश रहती है और जब आँखें खुलती है तो..सपने में तुम पास रहे प्रभु, जगी हो गये दूर..। प्रेम विह्वल हृदय की वाणी कोकिल कण्ठ से फूटकर निकल पड़ती है। बूढ़े लामनरैन बाबू प्रसन्न होकर करताल बजाते रहते हैं-‘हई बोयो, हई बोयो ! छन छन, छन,छन। गेरुआ रंग को छोड़कर और किसी रंग का कपड़ा नहीं पहनती है आरती देवी। एक बार सोशलिस्ट पार्टी के ‘लाल

पताका’ के सम्पादक ‘चिनगारी’ जी आये थे। एकदम नास्तिक। हरदम मुँह में सिगरेट, आँख में चश्मा। खाँसते रहते थे और हवा में डोलते रहते थे। डाक्टर के कहने से मुर्गी का अण्डा खाते थे। जाति धरम को एकदम नहीं मानते थे। उस बार सीप्रसाद बाबू साथ आये। शाम को जब उन्होंने आरती देवी का भजन, कीर्तन सुना तो उनकी आँखें एकदम खुल गयीं। प्रेम विह्वल नारी, गोरा शरीर, सुडौल मुख मण्डल और गेरुआ वस्त्र में लिपटी हुई पवित्र जवानी ! बस, उसी क्षण से भगवान के भक्त हो गये।..लेकिन लोग जो कहते हैं कि आरती देवी से उनका..हो गया था सो झूठी बात है। सुनी हुई बात दुनी होती है।

बात यह हुई थी कि सीप्रसाद बाबू ठहरे कंगरेसी आदमी ! उनके यहाँ यदि कोई सोशलिस्ट पार्टी वाला तीसरे दिन पड़ा रहेगा तो उनकी बदनामी नहीं होगी ? इसलिए उन्होंने मना कर दिया था। बाद में ‘चिनगारी’ जी ने सोशलिस्ट पार्टी को भी छोड़ दिया। आजकल एकदम भक्त हो गये हैं, अपना कीर्तन पार्टी खोले हैं। वह भी अपने से गीत बनाते हैं और गाते हैं।

लामलरैन बाबू ने आरती देवी की शादी के दिन ‘अष्टजाम’ कीर्तन कराने का निश्चय किया है। दस समाजी को उन्होंने निमन्त्रण भेज दिया है। जाति-बिरादरी वाले तो सभी शादी-ब्याह और श्राद्ध में खाते ही हैं। पर आरती देवी की शादी है। भगवान की गायिका की शादी है, इसमें तो सिर्फ कीर्तनियाँ लोगों को ही भाग लेना चाहिए।

शाम से ही कीर्तनियों का दल एक-एक कर आ रहा है। गाते-बजाते और नाचते !

‘अरे सोचे सिया जी के मैया हो धेनु कैसे टुटे।’

‘धाके धिन्ना ताक धिन्ना।’

छनन छनन छुम्म छन्नन।

‘हाँ, यह शायद लखनपुर का दल है। देखना। हरेक समाजी के सभापति से पहले ही पूछ लेना कि कितने लोग हैं ? लखनपुरवालों को नहीं जानते ? तीन बुलावे तेरह आवे।’

‘गौरी के माई डराओल हो बमभोला के देखिके।’ धाक धिना ताक धिना।

‘हाँ, यह परबत्ता का दल है। देखना रे ! गंगातीरवाली खड़ाऊँ की जोड़ियाँ कहाँ हैं ? उस पार परबत्ता दलवालों ने खड़ाऊँ ही पार कर दिया।’

कान्तपुर के दल के साथ आये हैं ‘चिनगारी’ जी। आजकल नाम बदल लिया है-‘चन्दन’। चन्दनजी। उनके दल को निमन्त्रण नहीं मिला था लेकिन कान्तपुर में उनका ‘ममहर’ है। चिनगारीजी..यानी चन्दनजी ने अब बाल बढ़ा लिया है। लम्बे-लम्बे घुँघराले बाल, दाढ़ी-मूँछें मुड़ी हुई और आँखों पर चश्मा। अब सिगरेट कम पीते हैं-पान खाते हैं।

सभी समाजी आ गये हैं। रात को आठ बजे से अष्टजाम शुरू होगा। तब तक बाराती कीर्तनियाँ समाज भी आ जाएगा। इसके पहले बैठकी कीर्तन हो रहा है। एक-एक दल बारी-बारी से गाता है। ऐसा लगता है कि कान्तपुर दल का ढोलकिया आज ढोलक को तोड़ ही देगा ! चिनगारी जी उर्फ चन्दनजी गा रहे हैं।

खेल बात है। इसीलिए ढोलक बजाते-बजाते जोश में ढोलक पर चढ़ जाता है। चिनगारीजी जब गर्म बात अखबार में लिखते थे तो सरकार बहादुर थर-थर काँपने लगता था। चन्दनजी ऐसा कीर्तन गाते हैं कि सुननेवालों पर आग का भी कोई असर नहीं हो। आँख मूँदकर गा रहे हैं, विभोर होकर गा रहे हैं। चेहरे पर पेट्रोमेक्स की पूरी रोशनी पड़ रही है, इसलिए चेहरे पर करुण भाव की छोटी-से-छोटी लहरें भी स्पष्ट दिखायी पड़ती हैं।

अरे नैनों को दरशन सुख दे दो नैनों का..

अरे नैनों को दरशन सुख दे दो।

मिटे हृदय की साध...दरश बिनु नैना है बेकार/आज मेरे आँगन में चन्दन चर्चित वधु आरती चुपचाप बैठी हुई है, बूढ़े लामलरैन बाबू का हुक्म है-औरतें और कोई गीत नहीं गा सकती। भगवान का ही गीत मंगल गाये। रुकमुनी जाइछे ...नहीं-नहीं..यह गीत नहीं चलेगा। ओ ! रुक्मिणी का नाम है ? तब तो

भगवान का गीत है। यह चलेगा-

अरे अच्छा-अच्छा चूड़ियाँ बनावे रे भइया लहेरिक।

रुकमिनी जाइछे ससुराल !


अरे ऐसना चोलिया बनावे रे दरजिया कि
छतिया पर जोड़ो रे अनार !

आरती देवी ‘मीरा’।...आरती पुर्जे पर अपना नाम देखकर चमक उठती है। अक्षर तो पहचानती है वह। चरवाहा ने लाकर दिया है। चिट्ठी है। वह उठकर ठाकुरजी के घर में चली जाती है। हाँ, चिट्ठी ही है। चन्दनजी उर्फ चिनगारीजी ने लिखा हैः-

‘मेरे मानस की मीरा !’

तुम जिनके गले में जयमाला डालनेवाली हो वह एकदम निपट गँवार है। बात करने का ढंग नहीं। कीर्तन गाता है मगर पुराने जमाने का। पढ़ा-लिखा बहुत कम है। शायद लोअर पास भी नहीं। सिर्फ गला सुरीला है। समझ में नहीं आता कि बूढ़े बाबू ने क्यों तुम्हारा सत्यानाश कर दिया। सीप्रसाद बाबू भी कैसे हैं, उन्होंने क्यों नहीं खुद जाकर देखा। लड़का तो एकदम चिड़िया का गुलाम है..’

चिड़िया का गुलाम ? भगवान ने निपट गँवार ही उसके भाग में लिख दिया है तो वह क्या कर सकती है ? भगवान की मर्जी ! लेकिन चन्दनजी ? उस बार कितनी अच्छी कविता बनाकर चिट्ठी लिखे थे-

तुम मीरा गिरधर की दासी
चन्दन तेरा दास,
करो मत मुझको प्रिये निराश !
‘दास के सुन लीजै छोटी अरजिया हो रघुवर सुन लीजै मोरी अरजिया !’
ताक धिन्ना ताक धिन्ना।

लोरिकगंज बाराती कीर्तनियाँ समाज आ गया। वर श्री सुमरचन्द विश्वास गा रहे हैं-दास के सुन लीजै। शादी चाहे किसी भी नियम से हो, शादी आखिर शादी ही है। वर को देखने के लिए औरतें झुण्ड बाँधकर दौड़ पड़ती हैं। कौन ? यही जो बीच में नाच रहा है ? माई गे ! माई गे क्या ? वह तुम्हारी उसकी शादी नहीं, आरती की शादी है ! भगवान !

बूढ़े लामलरैन बाबू आरती देवी की माँ को समझा रहे हैं, डाँट रहे हैं और बिगड़कर लेक्चर झाड़ रहे हैं। गुस्से में उनकी पोपले मुँह की बोली ठीक अंग्रेजी की तरह सुनायी पड़ती है-‘छिवई की छाजी में भी गौई की माई इछी लयह ओची छी ! किछी अम्मयमी, मुगीखाय छे छाजी होची चो बहुत अच्छा। छें ? भगवाँय का भकच कभी छुंजय नहीं होगा। छुंजय छईस किछ काम का ? हंउमायजी।

अर्थात्...वर अधरमी और मुरगीखोर नहीं। भगवान का भक्त सुन्दर नहीं होता। हनुमानजी सुन्दर थे ? सुन्दर शरीर किस काम का ? आरती भी सोचती है-सुन्दर शरीर किस काम का ! अष्टयोग शुरू हो गया। वर मण्डप पर पहुँच गया है। हरे राम हरे राम राम राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण...

आरती देवी आँखों को बार-बार रोकती है मगर आँखों ने चोरी से देख ही लिया-‘सुमरचन्नजी, भक्तजी..चिड़िया का गुलाम ?’ शादी आखिर शादी है। सुमरचन्नजी वधु निरीक्षणी करके अपनी वधु को मण्डप पर ले चले। आरती का सारा शरीर सिहर उठता है। उसका सुन्दर शरीर किस काम का ? पग घुँघरू बाँधी मीरा नाची री।

‘हरे राम हरे राम !

वर वधु के मण्डप पर पहुँचते ही गानेवालों का जोश और भी बढ़ जाता है। ढोल पर और भी तेजी से ताल बोलने लगता है। करताल और भी तेजी से खनकने लगते हैं। छुम छुम छन्न छन्न ! प्रेम में विभोर होकर बूढ़े लामलरैन बाबू भी करताल बजाकर नाचने लगते हैं-‘हये आम हये आम !’

आरती के पाँवों में गुदगुदी लगने लगती है। उसका सारा शरीर सिहरने लगता है। ऐसा लगता है कि वह भी अब नाचने लगेगी। वह बेहोश हो रही है। बेहोश..छुम छुम छन्न छन्न छन्न...।

छनाक्।

‘ऐ सम्हालो ! सम्हालो !!

‘गिर गयी।’

‘पानी लाओ।’

ढोल रुक जाता है, करताल बन्द हो जाते हैं। लामलरैन बाबू करताल बजाते हुए और नाचते हुए कहते हैं-कीचन बंज यहीं हो। जाई यहे..हये आम हये आम ! छुम छुम छन्न छन्न !

धिक धिन्ना धिक धिन्ना !

‘पानी लाओ।’

‘पंखा दो।’

आरती देवी आँखें खोलती है। उसके मुँह से एक हल्की-सी चीख निकल पड़ती है-‘चिड़िया का गुलाम।’

सुमरचन्द के बहरे बाप ने हल्ला मचाना शुरू किया-‘हम जानते थे। लड़की को मिरगी की बीमारी है। हम लोगों को गरीब जान खूब उल्लू बना रहे थे। अरे बापू ! हमारे खानदान में कभी मिरगी नहीं हुई।..चल रे सुमरचन्ना !’

लेकिन जब सुमरचन्ना टस से मस नहीं हुआ तो वह गाली-गलौज करते हुए अपने गाँव की ओर चल पड़ते हैं।

रात-भर आरती देवी बेहोश रही। सुबह को ठाकुर साहब ने देखकर कहा दिमाग पर चोट लगी है। कीर्तन समाजियों को सूचना दे दी गयी-हालत बहुत खराब है। शादी नहीं हो सकेगी। सभी अपने-अपने घर चले जायें !

‘जलपान भी नहीं देगा क्या ?-’ दुलारे की बात सुनकर रात-भर के भूखे लोगों को भी हँसी आ जाती है।

‘चलो खेल-तमाशा खतम।’

गाँव ने निट्ठलों का ताश का अड्डा गुलजार है। मिडिल पास, दोहा कवित्त जोड़नेवाली लड़की, धनी ससुराल पाना खेल नहीं। सुना ? कान्तपुर दल का चन्दन जी गवैया चक्का पार कर दिया। अरे वह तो उसी रात को लेकर पार हो गया। अभी तक कहीं पता नहीं चला है।

सुमरचन्ना को सभी चिड़िया का गुलाम कहकर चिढ़ाते है। बहरा अमीरचन्द का दोनों भैंस बिक गया है, इसलिए सुमरचन्ना को दिन-रात गाली-गलौज करता रहता है। सुमरचन्ना ने कीर्तन भी छोड़ दिया है।
‘छोड़ दिया है तो छोड़े। उसके कपार पर तो चिड़िया का गुलाम सवार है।....
‘रंग औट करो रे।’

लाल पान की बीवी से चिड़िया का गुलाम काट लिया जाता है। जीतनेवाले खुशी से ताली पीटते हैं।–

टौन्टी नैन का खेल जारी रहता है।

  • मुख्य पृष्ठ : फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियाँ, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां