सुख (कहानी) : प्रबोध कुमार

Sukh (Hindi Story) : Prabodh Kumar

मीरा के दाँत जब भी टूटते, वह उन्हें चूहे के बिल में डाल देती जिससे दोबारा निकलने पर वे चूहे के दाँतों की तरह सुडौल हों। उस दिन जब फिर उसका एक दाँत टूटा तो उसे ले वह फुदकती बिल की तरफ चली। तभी न जाने कहाँ से आ, उसके हाथ से दाँत छीन, विशू भाग गया। वह रोते-रोते उसके पीछे दौड़ी लेकिन विशू को पकड़ना आसान नहीं था। हारकर बरामदे में बैठ, वह बीच-बीच में बह आती नाक गुटकने लगी। सबसे बड़ा डर उसे यह था कि विशू ने दाँत यदि खपरैल पर फेंक दिया तो नया दाँत खपरे की तरह होगा । विशू की माँ उसकी माँ के साथ पड़ोस के घर में थीं जहाँ उसी रात घर की सबसे बड़ी लड़की सरला की शादी थी। उसकी शिकायत सुननेवाला दूसरा वहाँ था नहीं । विशू बगीचे में खड़ा उसे मुँह चिढ़ा रहा था। मीरा की बेहद इच्छा हुई कि जाकर उसका मुँह नोच ले लेकिन वह जानती थी कि विशू मुँह नुचवाने वहाँ खड़ा नहीं रहेगा।

विशू ने इस उम्मीद से कि मीरा उसके पीछे-पीछे भागेगी, कहा, "अच्छा ले जाओ अपना दाँत, हमें नहीं चाहिए", लेकिन उस पर कोई असर न होते देख वह घाट पर चला गया। छुट्टियों में अपनी माँ के साथ जब भी वह मीरा के घर आता तो उन दोनों का अधिकतर समय तालाब पर बीतता था । घने पेड़ों के कारण, पास होने पर भी वह घर से दिखाई नहीं देता था । वहाँ पहुँचने पर उन्हें लगता कि घर से बहुत दूर चले आए हैं। विशू को तालाब बहुत पसंद था। उसके तीन किनारे पर शहर के मकान आकर यदि ठहर न जाते तो पानी में गिर पड़ते। मकानों के बीच काफी संख्या में कलशदार मंदिर फँसे थे । उनकी नुकीली आकृतियाँ दिन भर पानी में डोलती रहतीं। तालाब की चौथी ओर नीली-भूरी पहाड़ियाँ थीं जिनमें मीरा के अनुसार, चुड़ैल छिपकर रात में उन्हें सताने की योजना बनाती थी। पहले उन्हें, जब तक कोई बड़ा व्यक्ति साथ न हो, तालाब पर बिलकुल जाने नहीं दिया जाता था। बाद में बड़ों की व्यस्त दिनचर्या में बच्चों को किसी बात के लिए मना करना शायद एक बेमतलब आदत बन गई थी, क्योंकि एक बार मना करने के बाद कोई भी यह देखने का कष्ट नहीं करता कि उन्होंने कहना माना या नहीं। एक कारण शायद यह भी रहा हो कि अब उन्हें तैरना आ गया था, यद्यपि अब भी वे पानी में तभी उतरते जब घाट पर काफी लोग नहाते रहते। पिछली गर्मियों में मीरा के पिता ने उन्हें तैरना सिखाया था। मीरा की देखादेखी वह भी उसके पिता को बाबूजी कहता था। सुबह होते ही दोनों अपनी तूंबियाँ सहेज तैयार हो जाते। उसके बाद उन्हें लगता कि बाबूजी जानबूझकर चाय पीने में या दाढ़ी बनाने में देर लगा रहे हैं। उतावली में वे, घाट के रास्ते में, बाबूजी से हमेशा दस-बीस कदम आगे रहते। वहाँ पहुँचते ही वे अपने ऊपर के कपड़े उतार, तूंबियाँ बाँधकर बड़े लड़कों की तरह सिर के बल पानी में कूदने का अभिनय करने लगते । बाबूजी आकर देखते कि उनकी तूंबियाँ ठीक से बँधी हैं या नहीं। मीरा की तूंबियाँ उन्हें रोज दोबारा बाँधनी पड़तीं। पानी में जाकर जब वह हाथ फैला खड़े हो जाते, तब दोनों एक के बाद एक पानी में कूद पड़ते । तैरते समय उनके नौसिखिया हाथ-पैरों से बहुत पानी छिटकता जिसका आसपास नहाते लोग बुरा मानते। मीरा पर तो कोई असर न होता लेकिन विशु थोड़ी देर को सहम जाता। पानी से भारी हो बार-बार नीचे खिसकता निकर ठीक करता वह मीरा को देखने लगता । मीरा की सफेद पतली चड्डी में हमेशा हवा भर जाती जिससे कपड़े का एक गुब्बारा पानी में हर जगह उसका पीछा करता, एक पिचकता तो दूसरा तैयार हो जाता। नहाकर जब वे निकलते तो उनके होंठों पर पपड़ियाँ जमी रहतीं । तूंबियाँ खोलने के बाद वे गर्मी के दिन होने पर भी थोड़ी देर तक तौलियों में छिपे रहते । विशू जब अपना बदन पोंछता तो पाता कि मीरा की अपेक्षा उसकी कमर में रस्सी के लाल निशान कम उभरे हैं।

विशू ने जोर से पत्थर फेंका तो वह चार-पाँच बार पानी पर उचटता काफी दूर जाकर डूब गया । तिजहरिया में कपड़े धोती तीन वयस्क औरतों को छोड़ घाट पर और कोई नहीं था। जब मीरा साथ रहती तो उनका काफी समय इसी तरह पत्थर उचटाने में बीतता । तब यदि कोई घाट पर होता तो उन्हें खेल में बाधा पड़ने का डर लगा रहता। घाट के पास कुछ दिन हुए एक मढ़िया बनी थी। वहाँ से वे पानी में फेंकने के लिए पत्थर की चीपों के छोटे-छोटे टुकड़े इकट्ठा करते। मीरा के फेंके पत्थर पानी पर उचटने की जगह हमेशा हवा में अधगोला बनाते डब्ब से पानी के नीचे चले जाते। उसे आश्चर्य होता कि विशू कैसे पत्थरों को इतनी बार उचटा लेता है। कभी-कभी आसपास के कुछ लड़के आकर उनके खेल में शामिल हो जाते। उनसे जब विशू हारता तो मीरा को बुरा लगता, खेल में उसकी रुचि खत्म हो जाती ।

"अब घर चलो विशू, खूब देर हो गई है।"

"अभी तो सब लोग सो रहे होंगे।"

"नहीं, वहाँ चलो, बगीचे में खेलेंगे।" "अच्छा, रुको अभी चलते हैं।"

विशू फिर खेल में व्यस्त हो जाता । मीरा तालाब की सँकरी फसील पर चढ़ घूमने लगती । जब उसे तैरना नहीं आता था तो ऐसा करते हमेशा डरती कि कहीं पानी में न गिर पड़े। फसील पर अपनी समझ में काफी दूर घूम चुकने के बाद वह अक्सर पेशाब करने बैठ जाती। इतनी बड़ी होकर भी उसे समय या जगह का जरा भी खयाल नहीं रहता था। चाची, एक-दूसरे की माँ को वे चाची कहते, के पास मीरा के पेशाब करने से संबंधित किस्सों का ढेर था। चाची अक्सर उससे कहा करतीं कि मीरा के लिए अब फिर से रबर की चादर लानी पड़ेगी । मीरा उनकी इस आदत से बहुत चिढ़ती थी । उसे सबसे बड़ी आपत्ति इस बात से थी कि वह विशू को क्यों सारी बातें बता देती हैं। विशू इतना खराब था कि झगड़ा होने पर उन्हीं बातों से उसे चिढ़ाता ।

"विशू अब चलो।" मीरा उन लड़कों के साथ विशू को नया खेल शुरू करते देख उतावली हो उठती। विशू ध्यान नहीं देता तो वह गुस्से में पीछे से उसकी कमीज पकड़ लेती।

"अब चलो विशू, सच्ची खूब देर हो गई ।"

"बस, थोड़ी देर और रुक जाओ।"

"नहीं, अब चलो।"

"तो तुम जाओ, हम अभी आते हैं।"

"हम चाची से बता देंगे कि विशू तालाब पर खूब शैतानी कर रहा है ।" कहकर मीरा सचमुच चल पड़ती। कहने को तो विशू कह देता, जाओ बता देना, हमें किसी का डर नहीं पड़ा है, लेकिन जल्द ही उस धमकी का असर उस पर छा जाता। अधरस्ते ही वह मीरा को पकड़ लेता। खुशी में मीरा यह पूछना भूल जाती कि जब उसे किसी का डर नहीं पड़ा है तो फिर चला क्यों आया। रास्ते में हमेशा कोई फूलों का गुच्छा या कोई विचित्र से रंग का पत्ता तोड़ने के लिए विशू से आग्रह करती। कुछ पेड़ों पर तो वह चढ़ जाता, लेकिन कुछ इतने पतले या झाड़ीनुमा होते कि उनके फूल तोड़ने के लिए जमीन पर से ही कोशिश करनी पड़ती।

जब वह उचककर भी वहाँ तक नहीं पहुँच पाता तो मीरा उससे घोड़ा बनने को कहती। विशू दोनों हाथ जमीन पर टेक देता तो वह फूल तोड़ना छोड़ उसकी गरदन पर सवार हो जाती। उसकी चड्डी में से हमेशा पेशाब के साथ, धुले कपड़ों की मिलीजुली बास आती थी, जिसे वह सूँघना न चाहते भी सूँघता था। मीरा एक बार बैठ जाती तो तब तक उसकी गरदन नहीं छोड़ती जब तक कि विशू खुद उसकी पतली टाँगों के बीच से सिर न निकाल लेता। इस प्रयास में अक्सर दोनों ही जमीन पर गिर पड़ते । विशू कहता कि अब वह कभी उसके लिए फूल नहीं तोड़ेगा लेकिन ऐसी बातें या तो वह कहने के साथ ही भूल जाता, या उसे उसमें कुछ भी अजीब नहीं लगता कि वह जब कुछ कहता है तो फिर उसे करता क्यों नहीं ।

मीरा के बिना विशू की समझ में नहीं आ रहा था कि घाट पर क्या करे । पत्थर उचटाने के खेल से बहुत जल्द ऊबकर अब वह एक पेड़ के नीचे बैठा था। तालाब के दूसरे किनारे के पास एक आदमी नंगे बदन डोंगे में बैठा, मछली मार रहा था। सारे तालाब पर छोटी-छोटी लहरें उभरी थीं जिनके ऊपर सूरज गोल टुकड़ों में चिलक रहा था । कभी-कभी कोई चिड़िया बहुत तेजी से नीचे आ, पानी की सतह को छूती फिर आसमान में उड़ जाती । मीरा को रुलाकर अब विशू को बहुत बुरा लग रहा था। उसे मीरा पर कुछ गुस्सा भी आया कि वह उतनी जल्दी रोने क्यों बैठ गई। उसे आश्चर्य था कि मीरा इतनी सी बात क्यों नहीं समझ सकी कि वह दाँत खपरैल पर कभी भी नहीं फेंकता । चूहे के बिल को छोड़ टूटे दाँत के लिए और कोई जगह होती ही नहीं ।

मीरा ने जब कहा, "विशू चलो, तुम्हें चाची बुला रही हैं" तो वह चौंक गया। उसे मुड़कर देखा तो वह दूसरी तरफ देखने लगी। पहले तो उसकी समझ में नहीं आया कि अम्मा को उससे कौन सा काम आ पड़ा, लेकिन मीरा को दूसरी ओर देखता पा, वह काफी डर गया। उसकी इच्छा हुई कि चुगली करने पर मीरा को पकड़कर मार लगाए, लेकिन एक अपराध के बाद दूसरा अपराध करने की उसमें हिम्मत नहीं थी ।"जाओ, अम्मा से कह दो कि हम थोड़ी देर में आते हैं।"

"नहीं, उन्होंने कहा है कि उसे लेकर जल्दी आओ। वह बरामदे में खड़ी हैं।"

"तुमने चुगली क्यों की, हम क्या तुम्हें दाँत दे नहीं देते ?" विशू ने मीरा को छोटा सा सफेद दाँत लौटा दिया। मीरा मन में जरूर खुश हुई होगी। लेकिन विशू से बिना कुछ कहे वह उसके पीछे-पीछे चलने लगी ।

"हम अम्मा से कह देंगे कि दाँत तो हमने पहले ही मीरा को लौटा दिया था ।"

"वह मानेंगी ही नहीं ।"

"तुम चुप रहो। तुमसे कौन बात कर रहा है?"

"नहीं रहते, जाओ।"

"तुम्हें मार तो नहीं खानी, मीरा ?"

"तुम हमें मारोगे तो चाची तुम्हें भूसेवाली कोठरी में बंद कर देंगी ?"

विशू कुछ नहीं बोला। एक बार मीरा को खेल-खेल में मारने पर सचमुच उसे काफी देर उस कोठरी में बंद रहना पड़ा था । यदि मीरा की माँ उसे न निकालती तो उसकी माँ ने तो तय कर लिया था कि उसे रात भर बंद रखेंगी। उसने एक बार मुड़कर मीरा को देखा कि शायद बचाव का कोई रास्ता निकल आए, लेकिन वह जमीन की तरफ देखती चल रही थी। घर के अहाते में पहुँच विशू की चाल बहुत धीमी पड़ गई। इधर-उधर देखता, जब वह बरामदे के बिलकुल करीब पहुँचा तो उसे अम्मा कहीं नहीं दिखीं। इसके पहले कि वह मीरा से कुछ पूछता, उसकी पीठ पर एक घूँसा मार, क्या बुद्ध बनाया क्या बुद्ध बनाया गाती मीरा चौके की तरफ भाग गई।

उसे बचानेवालों की वहाँ कमी नहीं होगी, यह सोच विशू अपनी माँ के कमरे में जा, खाट पर लेट गया। इस तरह से बुद्धू बन जाना उसे बहुत अखरा । उस समय घर में हो रहा हल्ला उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगा। पड़ोसी के यहाँ जगह कम होने से उनके कई मेहमान मीरा के यहाँ टिके थे। उनके साथ आए बच्चे तमाम वक्त रोते-चिल्लाते रहते। उनसे बहुत थोड़ी जान-पहचान होने के कारण, विशू कतराता था। वैसे, उन बच्चों का अपना गिरोह ही इतना बड़ा था कि उन्हें विशू या मीरा को अपने खेलों में शामिल करने की जरूरत महसूस नहीं होती थी । मीरा जरूर कभी-कभी उनमें से कुछ को छोड़ अपना अलग दल बना लेती जिसमें उसके चाहने पर भी विशू नहीं रहता था ।

किवाड़ के पास से मीरा ने उसे पुकारा तो उसने आँखें बंद कर लीं।

"विशू, देखो हम कौन सी किताब लाए हैं," कहती वह उसकी खाट के पास आ गई।

"विशू ।"

"क्या है?"

"लो, यह किताब लाए हैं हम तुम्हारे लिए।"

"हमें नहीं चाहिए तुम्हारी किताब ।"

"मीरा थोड़ी देर चुप खड़ी रही फिर किताब उसकी खाट पर रख, बाहर चली गई। अच्छी तरह से आश्वस्त होकर कि वह कहीं से देख नहीं रही है, विशू वह जासूसी उपन्यास पढ़ने लगा। करीब दस-बारह पन्ने पढ़ने के बाद आहट सुनकर वह फिर सोने का बहाना करने लगा। उसकी खाट से थोड़ा हटकर मीरा ने फर्श पर कैरमबोर्ड बिछा दिया । विशू अधमुँदी आँखों से उसे गोट गलत जमाकर खेलते देखने लगा। वह कैरमबोर्ड बहुत पुराना था। उस पर चारों तरफ खिंची समानांतर रेखाएँ लगभग मिट चुकी थीं। सिर्फ एक छेद को छोड़ बाकी की मटमैली जालियाँ फटकर नीचे झूलने लगी थीं । उन फटी जालियोंवाले छेदों में गोटें गिरतीं तो अक्सर लुढ़कती बहुत दूर तक चली जातीं। कैरमबोर्ड की रेखाएँ यदि स्पष्ट होतीं, तब भी मीरा के निकट कोई अंतर न पड़ता। वह गप्पे को कहीं भी रखकर निशाना साधती थी ।

"मीरा, तुम बहुत हल्ला कर रही हो ।"

मीरा इतनी जोर से चौंकी कि गप्पे पर से उसकी अँगुली फिसल गई।

"हम तो खेल रहे हैं।"

"तुम बाहर जाकर क्यों नहीं खेलती ?"

"तुम भी खेलो न हमारे साथ विशू ।"

"तुमसे गोटें तक तो जमाते नहीं बनतीं।"

"अच्छा दिखाएँ जमाकर ?"

विशू के हाँ कहने पर दोनों कुहनियाँ कैरमबोर्ड पर रख, मीरा बड़ी लगन से गोटें जमाने लगी। बीच-बीच में वह अपनी समझ में कोई गलती करती तो थोड़ी देर गाल में अँगुली धँसाकर कुछ सोचने लगती, फिर किसी काली गोट की जगह सफेद या सफेद की जगह काली गोट रख देती। सभी गोटें रख चुकने पर उसने विशू की तरफ देखा तो वह, एकदम गलत, कहकर कैरमबोर्ड के पास जा बैठा ।

"ठीक तो है विशू ।"

जवाब न दे, वह उन्हें ठीक से जमाने लगा। मीरा ने नीला गप्पा अपने हाथ में ले लिया। काली गोटें उसे अच्छी नहीं लगती थीं। उसे पता था कि जो शुरू करता है, उसकी सफेद गोटें होती हैं। वे खेलने लगे। मीरा जब अचरज से उसे एक के बाद एक गोटें लेते देखती तो विशू बहुत खुश होता, लेकिन थोड़ी ही देर में वह ऊब गया । मीरा इतनी जल्दी अपनी बारी खो देती कि उसे लगता वह अकेला ही खेल रहा है।

"हमें तो भूख लगी है।"

"आज तो सरला दीदी के यहाँ खाने जाना है।"

"चलो चौके में कुछ खा लेंगे।"

मीरा ने फिर एतराज नहीं किया। खाना उसके प्रिय कामों में एक था । चौके में उन्हें खाने को कुछ नहीं मिला, लेकिन मीरा को वह जगह मालूम थी जहाँ उनसे छिपाकर मिठाइयाँ या फल रखे जाते थे।

"विशू, बारात।" मीरा लगभग चिल्ला पड़ी।

दौड़ते-दौड़ते वे पड़ोसी के घर पहुँच गए। मीरा के पिता उस घर के अन्य लोगों के साथ वहाँ खड़े थे। उन सभी के हाथों में मालाएँ थीं जिन्हें वे बारातियों को पहना रहे थे। वे दोनों भी एक-दूसरे का हाथ थामे, वहाँ जाकर खड़े हो गए। मीरा को कई लोगों ने प्यार से अपनी मालाएँ पहना दीं। विशू को भी शायद पहनाते, लेकिन वह थोड़ा हटकर खड़ा हो गया था। उसे उन लोगों से काफी शर्म लग रही थी। वैसे भी वह नए लोगों से बहुत झेंपता था । उसकी माँ जब किसी मेहमान से कहतीं, 'मेरा विशू चौदह का हो गया है' तब भी उसके कान जलने लगते ।

सब लोगों के साथ विशू भी पंडाल में आ गया। मीरा अपनी सरला दीदी को देखने घर में चली गई। पंडाल में लगी रंगीन कागज की झंडियाँ हवा में फरफरा रही थीं। बाहर का अँधेरा तेज रोशनी में और भी घना हो गया था। वहाँ रोशनी में चमकती आसपास के पेड़ों की निचली डालों के अतिरिक्त, कुछ भी नहीं दिख पड़ता था । उन लोगों को शरबत पीते देख विशू की भी इच्छा हुई कि पिए। उसने सोचा, यदि कोई खुद लाकर दे देगा तो वह पी लेगा। काफी राह देखने पर भी जब कोई उसके पास नहीं आया तो वह मीरा का इंतजार करता, पंडाल के बाहर, विरल घास पर लेट गया। मीरा उसे ढूँढती जब उस किनारे पहुँची जहाँ वह लेटा था, तो विशू ने उसे बुला लिया ।

"विशू, सरला दीदी बहुत खराब हैं, " कहती वह उसके पास जाकर बैठ गई ।

"क्यों ?

"उन्होंने हमसे बात ही नहीं की।"

"मीरा, तुमने शरबत पिया ?"

"हाँ, दो गिलास । खूब अच्छा है। तुमने कितने गिलास पिए विशू ?"

विशू चुप रहा। उसने सोचा मीरा से अपने लिए मँगवाए, लेकिन टाल गया।

"विशू, तुमने सरला दीदी की साड़ी देखी ?"

"कैसी है?"

"इतनी चमक रही है कि क्या बताएँ । अम्मा चाची से कह रही थीं कि बनारस से आई है।" कहकर मीरा उसके पास लेट गई।

"हमें तो नींद आ रही है विशू ।"

"यहाँ मत सोओ, घर चलकर सोना ।"

"विशू हमारा एक दाँत और हिल रहा है। तुमने चौकेवाला बिल देखा है ?"

"नहीं।"

"खूब बड़ा है, सबेरे तुम्हें दिखाएँगे ।"

उसके बाद जब एक बार विशू कहकर वह काफी देर चुप रही तो विशू ने उसकी तरफ देखा। वह सो चुकी थी। उसका एक हाथ छाती पर पड़ा था । विशू के सिर में छोटे-छोटे कंकड़ गड़ रहे थे । उसने मीरा के पेट पर सिर रख लिया। काफी देर तक उसके पेट से आती गुड़-गुड़ आवाज सुनता इस बात से खुश होता रहा कि कल नहीं तो परसों तक वे पिन्ने बच्चे यहाँ से चले जाएँगे, फिर मीरा को घर ले जाने के लिए जगाने लगा ।

(साभार : शर्मिला बोहरा जालान)

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