सुधार (तेलुगु कहानी) : गुरजाड अप्पाराव

Sudhar (Telugu Story) : Gurajada Apparao

"दरवाजा खोलो! दरवाजा...!" दरवाजा नहीं खुला। एक मिनट तक वह खड़ा रहा। कमरे की घड़ी ने एक बजा दिया।

'कितनी देर की मैंने। मेरी बुद्धि घास चरने गई थी। कल से सावधान रहँगा। अपनी पत्नी को छोड़कर मेरा मन वेश्या के गान में मगन हो गया है। एक गीत भी मन को लुभा नहीं सका। औरतों के हाव-भावों पर दिल दौड़ा करता है! नहीं तो गीत के समाप्त होने तक खुटचाली की भाँति वहाँ पर बैठना कैसी आदत है? कोई अवसर प्राप्त कर उससे दिल की कसर निकालने की लालसा क्यों है? देखो, अभी तमाचे लगवा रहा हूँ। कल से उसका गीत सुनने नहीं जाऊँगा। यह निश्चित है। यही मेरा दृढनिश्चय है। ...जोर से पुकारूँ तो संभवतः कमलिनी जाग उठेगी। धीरे से दरवाजा खटकाकर नौकर राम को जगाऊँगा तो बिना किसी आहट के उसकी बगल में पहुँचकर शरीफ बन सकता हूँ।'

मन में ऐसा निश्चय करके गोपाल राव ने दरवाजे पर हाथ रखा ही था कि वह खुल गया। कमरे में कोई नहीं था। दरवाजा खोलकर देखा, दालान में दीप भी नहीं है। दालान पार कर शयन-गृह में प्रवेश कर देखा तो वहाँ पर भी चिराग जलता नजर नहीं आया। बिना आहट के कदम रखते हुए खाट के पास पहुँचकर पता लगाना चाहा कि कमलिनी जाग रही है या सो रही है? किंतु उस अंधकार में कुछ भी पता नहीं चल पाया। जेब से दियासलाई निकालकर उसने सलाई जलाई। दियासलाई के प्रकाश में गोपाल राव ने देखा कि खाट पर कमलिनी नहीं है। गोपाल राव का चेहरा फक् हो गया और हाथ से सलाई नीचे गिर पड़ी। कमरे के घने अंधकार के साथ-साथ उसके हृदय में भी घना अंधकार फैल गया। उसके मन में तरह-तरह की शंकाएँ पैदा होने लगी और वे उसे और भी व्याकुल बनाने लगीं। यह तो नहीं कहा जा सकता कि उसे अपनी बेवकूफी पर क्रोध आ रहा था, अथवा कमलिनी की अनुपस्थिति पर, असह्य क्रोधावेश के कारण उसका मन अधिक विचलित हो गया था। उसने दहलीज पर कदम रखकर देखा। नक्षत्रों की चमक में कोई दास या दासी दिखाई नहीं दी। गोपाल राव ने निश्चय किया कि उन्हें फाँसी की सजा ही उचित होगी।

गोपाल राव ने पुनः कमरे में प्रवेश करके दीपक जलाया और कमरे में चारों ओर ध्यानपूर्वक देखा। किंतु फिर भी कमलिनी नहीं दिखाई दी। सड़क की तरफ के दरवाजे के पास पहुँचकर उसने उसे खोलकर देखा। वहाँ नौकर राम मुँह में चुरुट दबाए सिर उठाकर तारों को एकटक देख रहा है। गुस्से के मारे गोपालराव ने जोर से उसे पुकारा "हे राम! इधर आओ!" नौकर राम चुरुट फेंककर तेजी से दौड़ता हुआ वहाँ आया।

गोपाल राव ने पूछा, "तुम्हारी माँ कहाँ पर है?"
राम-"मेरी माँ, घर पर है।"
"बेवकूफ कहीं का! तुम्हारी माँ नहीं, मालकिन कहाँ पर है?"
"ओह! माताजी और कहाँ रहेंगी। घर में सोती ही होंगी।"
"वे घर में नहीं हैं।"

इस पर राम भी घबरा गया। घर में कदम रखते ही राम की पीठ पर दो घूसे जम गए-"बाबूजी! मार दिया!" चिल्लाकर राम जमीन पर गिर पड़ा।

गोपालराव वैसे हृदय से कठोर नहीं थे, अत: तुरंत उन्हें अपनी भूल मालूम हो गई। वे अपनी भूल पर पश्चात्ताप करने लगे। उन्होंने राम को हाथ का सहारा देकर उठाया। उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए मन में सोचने लगे कि मैंने आज पशु जैसा व्यवहार किया है। वे नौकर को घर के भीतर ले गए। गोपाल राव कुरसी पर बैठे और दीनता के साथ नौकर से पूछने लगे-"राम! मेरी स्त्री आखिर कहाँ चली गई है?"

"बाबूजी! यह सब किस्सा जादू जैसा मालूम होता है।"
"कहीं मायके तो नहीं गई है?"
"यह भी हो सकता है, बाबूजी! औरतें नाराज हो जाने पर अकसर बिना कहे अपने मायके ही चली जाया करती हैं, और शिक्षिता होने पर क्या हो सकता है, यह तो आप ही जानें।"
"शिक्षा का मूल्य तुम्हें क्या मालूम?" यह कहते हुए गोपालराव अपनी कुहनियों को मेज पर टिकाकर कुहनियों के बीच सिर रखे कुछ सोच ही रहे थे कि उन्हें मेज पर कमलिनी की लिखावट की एक चिट्ठी दिखाई दी। गोपालराव उदिवग्नता के साथ उसे पढ़ने लगे। उस में लिखा गया था-"महाशय!"

इस शब्द को पढ़कर गोपालराव जरा चौके और उनके मुँह से निकल पड़ा-हाँ, 'प्राणनाथ! ' के स्थान पर 'महाशय' आ गया है।
राम-"हाँ, क्या बाबूजी! प्राण चला गया?"
"मूर्ख! चुप रह।"

पत्र में आगे लिखा था-"महाशय! दस दिन हुए, रात में आप घर ही नहीं आते थे। आप कहा करते थे कि मीटिंगों में जा रहा हूँ या जनता के कल्याणार्थ आंदोलन में निद्राहार छोड़कर सेवा करने जा रहा हूँ। लेकिन मैंने अपनी सहेलियों द्वारा वास्तविक समाचार जान लिया है। मेरे घर पर रहने से आप को बराबर झूठ बोलना पड़ रहा है। मैं यदि अपने मायके जाऊँ तो आपको पूर्ण स्वतंत्रता मिल जाएगी और असत्य भाषण करने की आवश्यकता ही न रह जाएगी। आपसे प्रति दिन असत्य भाषण कराने की अपेक्षा आप के मार्ग में रोड़ा न बनना ही एक सती का पति के प्रति कर्तव्य है। मैं आज रात को मायके जा रही हूँ। खुश रहिएगा। अपने खर्च के अतिरिक्त कुछ भी बचे, भेजने की कृपा कीजिएगा!"

पत्र पढ़ना समाप्त कर गोपालराव ने कहा-
"मैं पश हूँ, आदमी नहीं हैं।"
"क्यों बाबूजी! आप ऐसी बात क्यों करते हैं?"
"मैं निरा पशु हूँ!" गोपाल राव के इस वाक्य को सुनकर नौकर राम प्रयत्नपूर्वक अपनी हँसी को रोक सका।
"मेरी पत्नी गुणवती, विधानिधि, विनयशील है। उसने मेरी दुर्बुद्धि का मुझे उचित दंड दिया है।"
"क्या किया है, बाबूजी?"
"वे मायके गई हैं, लेकिन तुम्हें मालूम हुए बिना कैसे गई?"

राम दो डग पीछे हटते हुए कहने लगा-"बाबूजी, शायद मैं उस समय सोता हूँगा। आहट होने से मैं जाग पड़ता और आपको बताता। इसलिए माताजी चुपचाप चली गई हैं। बाबूजी, आखिर वह तो औरत ठहरीं। यदि औरत बिना पति से कहे मायके जाने का नाम ले, तो दो-चार चपत लगाकर रास्ते पर उसे लाना चाहिए। नहीं तो पुरुषों की भाँति चिट्ठी-विट्ठी लिखकर नहीं जाना चाहिए?"

"अरे मूर्ख! ईश्वर की सृष्टि में उत्कृष्ट वस्तु शिक्षित स्त्रीरत्न ही है। शिवजी ने पार्वती को आधी देह बाँटकर दे दी थी-अंग्रेज लोग पत्नी को 'बेटर हॉफ' (Better Half) कहते हैं। इन सबका यही अर्थ है कि पत्नी पति से भी उत्तम है। आ गया समझ में?"

"मेरी समझ में ये बातें कैसे आएँगी, बाबूजी!" राम अपनी हँसी को रोक नहीं सका।
"तुम्हारी लड़की स्कूल जा रही है न? शिक्षा का मूल्य तुम्हें भी मालूम हो जाएगा। रहने भी दो, लेकिन तुम्हें या मुझे अभी चंद्रवरम जाना होगा। मैं चार दिन तक यहाँ से हिल-डुल नहीं सकता। तुम तो बाप-दादों के समय के नौकर हो। तुरंत कमलिनी को लेते आओ। उनसे क्या कहना है, मालूम है?"
"हाँ, कहूँगा कि बाबूजी ने मेरी पीठ की मरम्मत की है, माताजी, अब आ जाइए।"
"पीटने की बात भूल जाओ। उसके लिए पुरस्कारस्वरूप दो रुपए दूँगा। लो, फिर कभी यह बात न निकालना। भूल से भी कमलिनी से न कहना। समझा!"
"कभी नहीं कहूँगा , बाबूजी!"

"तुम्हें जो कुछ कहना है, वह मैं तुमसे कहता हूँ, सुनो। तुम उनसे जाकर कहना कि पंडितजी की अक्ल अब ठिकाने पर आ गई है। वे अब कभी वेश्याओं की बातों में न आएँगे। रात्रि के समय घर छोड़कर कहीं नहीं जाएँगे। उनका यही अंतिम निश्चय है। समझा! तुमसे उन्होंने क्षमा माँगी है। कृपा करके उनकी भूलों को कहीं प्रकट न करके दो-तीन दिन में लौटने के लिए भी कहा है। तुम्हारे बिना उन्हें एक-एक दिन एक युग के समान मालूम हो रहा है। ये सब बातें बड़ी सावधानी के साथ उनसे कहना, समझा?"

"हाँ, बाबूजी! समझ में आ गया!"
"तुम वहाँ पर जाकर क्या कहोगे, जरा अभी मुझसे कहो तो!"

राम सिर खुजलाते हुए... "हाँ...क्या...कहूँगा...बाबूजी! वह सब मुझे मालूम नहीं। बाकी इतना अवश्य मैं कहूँगा-मालिकिन! मेरी बात सुनिए। बड़ा अनुभवी हूँ। औरतों को मालिक की आज्ञाओं का पालन करना ही चाहिए, नहीं तो हमारे पंडितजी भी एक रखेली को घर पर ही बुलानेवाले हैं। यह बात मैं आपके कान में डाल देता हूँ। नगर में स्वर्ण प्रतिमा सी एक वेश्या आई है। पंडितजी का मन उससे मिलने को छटपटा रहा है। फिर आगे आपकी मरजी!"

"अरे मूर्ख!" कहते हुए गोपालराव क्रोधित होकर खड़े हो गए।
नौकर राम चुपचाप चोर की भाँति कमरे से बाहर भाग गया और इतने ही में खाट के नीचे से अमृत वर्षा करने जैसी हँसी तथा कर-कंकणों की मधुर ध्वनि गूंज उठी।