शुक्र अल्लाह का (कहानी) : ख़्वाजा अहमद अब्बास

Shukr Allah Ka (Hindi Story) : Khwaja Ahmad Abbas

नहीं साहब! कोई शिकवा शिकायत नहीं। रिश्तेदारों, दोस्तों, दुश्मनों, तअल्लुक़ात वालों, अफ़सरों, मालिकों, किसी से कोई शिकायत नहीं है। न सरकार से कोई गिला है। न अल्लाह मियाँ से कोई शिकवा है। वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है। क़िस्मत के लिखे को कौन मिटा सकता है। सो मैं अपनी क़िस्मत पर शाकिर हूँ और सुबह-शाम ख़ुदा का शुक्र अदा करता हूँ कि खाने को पोलाव क़ोरमा नहीं तो चटनी रोटी तो भेज देता है। सर के ऊपर आसमान के सिवा कोई दूसरी चीज़ नहीं तो क्या हुआ, सोने के लिए फुटपाथ के पत्थर तो हैं। मेरी कटी हुई टाँग को देख कर रहम न खाइए। साहब ख़ुदा का शुक्र है, दूसरी टाँग तो सही है।

सच पूछिए तो सब्र ही हम ग़रीबों की सबसे बड़ी दौलत है। सब्र हमारी औरतों का ज़ेवर है और हमारे बच्चों का खिलौना। आप महलों, बंगलों में रहने वाले सब्र के फ़ायदे क्या जानें। सूखी रोटी को सब्र की चटनी से लगाकर खाओ तो मुर्ग़ मुसल्लम का मज़ा आता है। फिर सड़क के किनारे सब्र की मख़मली गद्दी बिछा कर ऊपर से रेशमी चादर ओढ़ कर सो जाओ। ऐसी नींद आती है कि किसी राजा नवाब को न आती होगी और जब मशीन में आकर मेरी बाईं टाँग कट गई और मिल के मालिकों ने हरजाना देने से इनकार कर दिया और मैं एक कबाड़ी के यहाँ से दो रूपये में ये टूटी हुई बैसाखियाँ ख़रीद कर उछलता कूदता लँगड़ाता हुआ एक डॉक्टर के यहाँ पहुँचा, जो कि नक़ली टाँग बनाने में मशहूर था और उसने रबड़ की टाँग लगाने के लिए हज़ार रूपया और लकड़ी की टाँग के लिए पाँच सौ माँगे और मेरी जेब में सिर्फ़ सात रूपये निकले तो आप जानते हैं मैंने क्या किया?

न रबड़ की टाँग लगवाई न लकड़ी की... सब्र की टाँग लगवाई। उस दिन से आज तक इन ही टूटी हुई बैसाखियों और सब्र की टाँग से गुज़ारा कर रहा हूँ। सब्र हो तो बैसाखियों की भी कोई ज़रूरत नहीं है साहब। अल्लाह ने हाथ दिए हैं, कूल्हे दिए हैं। वो सामने देखिए ना। लूले रोलदू की तो दोनों टाँगें बेकार हैं। फिर भी हाथों और कूल्हों के सहारे मज़े से घिसट-घिसट कर चल लेता है... और अल्लाह का शुक्र अदा करता हूँ कि उसने टाँगों के साथ बाँहों पर फ़ालिज न गिराया।

ख़ुदा की मेहरबानी थी कि बचपन ही में माँ-बाप से सब्र का सबक़ मिला। हम ज़ात के जुलाहे हैं साहब... यूँ तो हम मुसलमानों में ज़ात-पात नहीं होती। ख़ुदा के बंदे सब बराबर हैं। मगर अमीरी-ग़रीबी, ऊँच-नीच, शराफ़त रिज़ालत भी तो अल्लाह की बनाई हुई है। इसलिए मेरे माँ-बाप का कहना था कि इंसान को कभी अपना दर्जा कभी नहीं भूलना चाहिए और वो अमल भी हमेशा उसी उसूल पर करता था। बूढ़ा होने पर भी वो शरीफ़ों के लौंडों तक को झुक कर सलाम करता। हर पठान को ख़ान साहब हर सैयद को मीर साहब हर बनिए को लाला जी हर ब्रह्मन को पंडित जी और हर छोटे से छोटे अफ़सर को, यहाँ तक कि पटवारी, नंबरदार तक को सरकार कहता था मगर वो सब उसे बिन्दू जुलाहा कह कर ही पुकारते थे।

उन अमीर शरीफ़ों के बच्चों को उजले कपड़े पहने, किताबें हाथ में लिये स्कूल जाते हुए देख कर हम भाइयों का भी जी चाहता कि हमारे भी ऐसे कपड़े हों और पढ़-लिख कर हम भी अफ़सर बनें। मगर मेरा बाप हमें समझाता, बेटा! अपनी औक़ात कभी न भूलनी चाहिए। ख़ुदा ने जो दर्जा दिया है, उसीपर सब्र शुक्र से सब्र करना चाहिए। नहीं तो, कव्वा चला हँस की चाल... वाली कहावत हो जाएगी... मेरे बाप को कहावतें बहुत याद थीं... और जैसा मौक़ा होता फ़ौरन कोई न कोई कहावत सुना देता।

एक बरस की बात है, जब हम शहर के आढ़ती बनिए के लिए कंबल बुना करते थे। वो हमें ऊन और कंबल डेढ़ रूपया कताई और बुनाई देता और फिर उसी कंबल को दस रूपये, ग्यारह रूपये में बाज़ार में बेचता। हाँ, तो एक बरस ईद के मौक़े पर बाबा को आढ़ती के यहाँ से रक़म न मिली। बात ये थी कि उस साल विलायत और जापान से मशीन के बुने हुए झाग जैसे मुलायम कंबल सस्ते दामों आ गए थे और हमारे मुज़फ़्फ़र नगर के कंबलों की मांग बहुत कम हो गई थी। सैकड़ों कंबल बिन बिके पड़े हुए थे और ख़ुद हमारे वाले आढ़ती ने विलायती कंबलों की एजंसी ले ली थी।

हाँ, तो जब बाबा को पचास साठ कंबलों की बुनाई न मिली तो वो बेचारा हमारे लिए कपड़े कहाँ से बनवाता...? वही पिछले साल की ईद के कपड़े माँ ने घर में साबुन से धो कर दे दिए। जब हमने अपने पड़ोस में वकील साहब के बच्चों को रेशमी अचकनों और नई तुर्की टोपियाँ पहने देखा तो हमें बड़ा रोना आया। पर बाबा ने कहा, अरे रोते क्यों हो? वो अमीर अपने माल में मस्त हैं तो हम ग़रीब अपनी खाल में मस्त। ये बात मेरे दिल में बैठ गई... वो दिन और आज का दिन जब कभी मैं किसी अमीर रईस को बढ़िया कपड़े पहने अकड़फूँ करते देखता हूँ तो फ़ौरन अपनी खाल में मस्त हो जाता हूँ।

हाँ साहब! तो जब मैं बड़ा हुआ तो कई बरस तो अपने बाप के साथ कंबल बनने का काम करता रहा। मगर जब ये धनदा मंदा पड़ गया, तो मेरे बाप ने नंबरदार से सिफ़ारिश करवा कर मुझे तहसीलदार साहब के यहाँ नौकर रखा दिया। तहसीलदार साहब शहर के बाहर तहसील के पास एक बँगले में रहते थे। अल्लाह बख़्शे, ख़ान क़ुदरत उल्लाह ख़ान उनका नाम था। बड़े रोब दाब वाले थे। ये बड़ी-बड़ी मूंछें और आवाज़ ऐसी कि किसी को ज़ोर से डाँट दें तो डर के मारे पेशाब निकल जाए। शहर भर उनसे काँपता था। उनके यहाँ बस मैं एक ही नौकर था। तहसील के दो चपरासी भी कचहरी के वक़्त के बाद ऊपर का काम करते थे।

मगर घर का सब काम-काज मुझे ही देखना पड़ता था। खाना पकाने को एक बुढ़िया दो वक़्त आ जाती थी। मगर झाड़ू देना, रोज़ कमरे की मेज़ कुर्सियों को झाड़ना पोंछना, तहसीलदार साहब को हर पन्द्रह बीस मिनट बाद हुक़्क़ा भर कर देना, बरतन धोना, बिस्तर बिछाना, बाज़ार से सौदा सुल्फ़ लाना... ये सब मेरा काम था। और हाँ, इन सब कामों के अलावा एक काम और भी था। वो था तहसीलदार साहब की बेटी बानो की किताबें उठा कर उसे स्कूल छोड़ कर आना। लड़कियों का स्कूल कोई दूर न था... बँगले से मुश्किल से आध मील होगा... और खेतों से हो कर जाओ तो इससे भी कम। मगर तहसीलदार साहब की शान के ख़िलाफ़ था कि उनकी बेटी ख़ुद किताबें उठा कर ले जाए... इसलिए बानो को स्कूल पहुँचाना और वहाँ से वापस लाना... मेरा फ़र्ज़ था और सच पूछिए तो सारे कामों से यही काम मुझे सबसे अच्छा लगता था।

उन दिनों में कोई 17,18 बरस का हूँगा। साहब! ख़ुदा के फ़ज़ल से नाक नक़्शा भी बुरा नहीं था। सेहत भी माशा अल्लाह अच्छी थी। फिर तहसीलदार साहब ने दो-चार पुरानी क़मीसें और शलवारें दे दी थीं, जिन्हें मेरी माँ ने गूँथ-गाँथ कर ठीक कर दिया था। वो पहन कर और सर के बालों में कड़वा तेल डाल, मैं भी अच्छा ख़ासा जेंटिल-मैन लगता था। बानो स्कूल तो बुर्क़ा ओढ़ कर जाती थी मगर मुझसे परदा नहीं करती थी। तहसीलदार साहब परदे के मामले में वैसे बड़े कट्टर थे मगर उनका कहना था कि नौकरों से क्या परदा? और ये ऐसे ही कहते जैसे कोई कहे कि घर के कुत्ते से क्या परदा? या घोड़े से क्या परदा?

हाँ तो साहब बानो मुझसे परदा नहीं करती थी। कोई 15 या 16 बरस की होगी। सातवीं का इम्तहान देने वाली थी। उसका हाल क्या बताऊँ। आपसे ऐसी बातें करते शर्म आती है। पर ये समझ लीजिए कि अल्लाह मियाँ ने ख़ास अपने हाथ से बानो को बनाया था। रंगत ऐसी जैसे मैदा और शहद! और काले रेशमी बुर्क़ा में से मुँह निकाल कर जब वो मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुरा देती तो ऐसा लगता था जैसे बदली में से चाँद निकल आया था। घुंगराले बाल, बड़ी-बड़ी कटोरा जैसी आँखें। मैं तो आदमी था सरकार! वो भी जवानी का आलम! फ़रिश्ते भी उसे देख लेते तो एक-बार अपनी पारसाई को भूल जाते। फिर भी वो मालिक की बेटी थी। मैं नौकर था... कभी ऐसा वैसा ख़्याल आता भी तो मैं सोचता,

अबे ओ बिन्दू जुलाहे के बेटे, क्यों पागल हुआ है, अपनी औक़ात मत भूल, इतने जूते पड़ेंगे कि सर गँजा हो जाएगा... और ये सोचते ही मेरा नशा ऐसा ग़ायब होता जैसे गधे के सर से सींग। पर, सरकार झूट क्यों बोलूँ। अगले दिन जब उसकी किताबें उठाए खेतों में से होता हुआ बानो के साथ स्कूल जाता और इधर-उधर किसी को न पा कर वो बुर्क़ा सर से उतार देती और उसके बालों की भीनी-भीनी ख़ुशबू हवा में फैल जाती तो शैतान मुझे बहकाने लगता और कहता, अबे तू नौकर नहीं है। वो मालिक की बेटी नहीं है। तू भी जवान है वो भी जवान है।

ऐसे तो बानो तहसीलदार की इकलौती बेटी थी और बड़ी चहेती और उसके लिए दुनिया का हर ऐश-ओ-आराम मौजूद था, पर ये तहसीलदार साहब की दूसरी बीवी ख़ानम जो थी, ये तो बड़ी ज़ालिम थी। सौतेली बेटी को एक घड़ी ख़ुश देखना उसके लिए मुश्किल था। पर थी बड़ी चालाक। जब तक तहसीलदार साहब घर में रहते, उनके दिखाने के लिए बानो से मीठी-मीठी बातें करती। पर जैसे ही वो कचहरी जाने के लिए निकले और उसने चोला बदला... बात-बात पर ग़रीब बानो पर डाँट पड़ती। पिटती भी बेचारी। एक दिन सवेरे ख़ानम ने अपने गोद के बच्चे को गू और मौत में सने हुए नहालचे पोतड़े धोने के लिए बानो को कहा।

वो बेचारी स्कूल का काम कर रही थी, उसमें ज़रा देर हो गई। ख़ानम गोदाम में से खाना पकाने वाली को आटा तौल कर दे कर जब बाहर निकली तो देखा नहालचे वैसे ही पड़े हैं। बस आग ही तो लग गई। बानो के हाथ से स्कूल की कॉपी छीन कर पुर्ज़े-पुर्ज़े कर दी और लड़की को चोटी पकड़ घसीटती हुई अपने कमरे में ले गई और वहीं छप्पर खट का पाया उठा कर, इसके हाथों को नीचे दबाकर ख़ुद छप्पर खट पर चढ़ बैठी और कहती रही जब तक तू माफ़ी नहीं माँगेगी, नाक नहीं रगड़ेगी, मैं तुझे नहीं छोड़ूँगी। पर बानो भी हट की बड़ी पक्की थी। दांत भींचे रही! न रोई न सिसकी, न माफ़ी मांगी।

जब ख़ानम का बच्चा रोया तो वो ख़ुद ही उठी। मैं बरामदे की चिक में से ये सब देख रहा था और बस नहीं चलता था कि जाकर ख़ानम को जान से मार दूँ। जब उस कमबख़्त को कमरे के बाहर जाते देखा तो जान में जान आई। पर अब बानो के हाथों में इतनी ताक़त नहीं थी कि वो ख़ुद पाए उठा सके। ये देख कर मैं ख़ानम से डरता-डरता कमरे में गया और जल्दी से पलंग का पाया उठाया। उस वक़्त बानो की आँखों का हाल क्या बयान करूँ सरकार! ऐसी लगती थी, जैसे कोई घायल हिरनी। जैसे किसी ने कसाई के हाथों क़त्ल होने से बचा लिया हो। देखते ही देखते अब उन आँखों में आँसू उमंड आए, फिर तो मैं क्या देखता हूँ कि वो मेरे कँधे पर सर रख कर सिसकियाँ भर रही है। आपही बताइए ऐसे मौक़े पर कोई करे भी तो क्या करे...? मेरा तो साँस ऊपर का ऊपर, नीचे का नीचे रह गया।

छोटी बीबी क्या कर रही हो? ख़ानम देख लेगी तो मेरी खाल उधेड़ देगी। मैंने आहिस्ते से कहा... और फिर जैसे ही दिवार पर लटकी हुई घड़ी ने साढ़े नौ का घंटा बजाया, मैंने कहा, स्कूल जाने का वक़्त हो गया। और स्कूल का नाम सुन कर बानो की सिसकियाँ थम गईं और मेरे गीले मोंढे से सर उठा कर उसने कहा, चल ममदू! मेरी किताबें उठा! आज तो मेरे हाथों में क़लम पकड़ने की ताक़त नहीं रही। उस दिन बानो स्कूल जाने के लिए घर से निकली तो मैंने देखा कि बुर्क़े के अंदर एक पोटली सी उसने छुपा कर बग़ल में दाब रखी है। स्कूल के रास्ते में बानो ने हमेशा की तरह नक़ाब उलट दी। रास्ता पगडंडी, पगडंडी खेतों में से जाता था। इधर-उधर देख कर बोली, ममदू! यूँ तो मैं मर जाऊँगी।

मैंने कहा, हाँ, छोटी बीबी, ये ख़ानम बड़ी ज़ालिम है।

फिर...? ये कहकर उसने मेरी तरफ़ यूँ नज़र भर कर देखा कि मेरा मुँह घबराहट से लाल हो गया।

तहसीलदार साहब से क्यों नहीं शिकायत करतीं? वो तुम्हारे बाप हैं आख़िर।

अब्बा से शिकायत की तो ये डाइन मुझे जान ही से मार डालेगी और फिर अब्बा मेरी बात क्यों मानने लगे? तुमने देखा नहीं? उनके सामने चिकनी चुपड़ी बातें करती है।

फिर? इस बार मैंने ये सवाल किया। वो बोली... मेरी आँखों में आँखें डाल कर, चल, ममदू, कहीं भाग चलें... मेरे पास थोड़ा सा ज़ेवर, गहना है। तीस चालीस रूपये भी मैंने बचा कर रख छोड़े हैं।

अमीर छोकरियाँ अपने नौकरों के साथ भाग जाती हैं, ऐसे क़िस्से मैंने सुने ज़रूर थे। मगर मैं समझता था कि ये बातें क़िस्से कहानियों में हुआ करती हैं। अब बानो की ज़बान से सुनकर मेरा ये हाल हुआ सरकार कि काटो तो लहू नहीं बदन में, सर से पैर तक थरथर काँपने लगा। जवाब ही न बन पड़ा कोई। ऐसा लगा जैसे दिल के दो टुकड़े हो गए हों। एक दिल कहता था, अबे ममदू! तेरी क़िस्मत जाग गई है। ऐसा मौक़ा फिर हाथ न आएगा। ज़रा लौंडिया का जोबन तो देख, और जुलाहों की काली कलूटी लड़कियों का मुक़ाबला तो कर, जिनसे तेरी माँ क़िस्मत फोड़ने वाली है और फिर वो ख़ुद कह रही है कि ज़ेवर गहने भी हैं। अबे ऐश करेगा ऐश! पर सरकार, दूसरे दिल ने कहा, अपनी औक़ात मत भूल! तू ममदू है ममदू। बिन्दू जुलाहे का लौंडा। तहसीलदार साहब का नौकर, ऐसी वैसी कोई बात करेगा, तो इतने जूते पड़ेंगे कि सर पर बाल न रहेगा।

वो तो ख़ैर हुई सरकार कि इतने में सामने से स्कूल का कोई मास्टर आता हुआ नज़र आ गया और बानो ने झट से नक़ाब गिरा दी। फिर आहिस्ता से मुझसे बोली, छुट्टी चार बजे होगी पर तू ताँगा तीन बजे ही लेकर आ जाइयो... साढ़े तीन बजे कलकत्ता मेल जाती है। बस आज मैं घर वापस न जाऊँगी। मास्टर पास से गुज़र गया तो मैंने चुपके से कहा, बीबी, ऐसी बातें मत करो। तहसीलदार साहब को पता लगेगा तो मेरी खाल खींच देंगे। वो बोली, अरे, तू मर्द होकर डरता है? और फिर बुर्क़े में से सिसकी की आवाज़ आई, ममदू अगर तू तीन बजे ताँगा लेकर नहीं आया तो मेरा ख़ून तेरी गर्दन पर होगा।

बस ये कहा और वो तो झप से स्कूल के अंदर चली गई और मैं वहीं दरवाज़े के सामने खड़ा का खड़ा रह गया। ऐसा लगा जैसे मुझपर बिजली गिरी हो, आप ही बताइए सरकार, करता तो क्या करता? एक तरफ़ तो तहसीलदार के हंटर का डर। दूसरी तरफ़ बानो की जान का सवाल। न जाने कितनी देर तो मैं वहीं स्कूल के दरवाज़े के सामने खड़ा रहा। फिर वहाँ से वापस हुआ तो सीधी पगडंडी से भटक कर कितनी ही देर तक खेतों में भटकता रहा। जब मैं वापस पहुँचा तो बारह बज रहे थे और ख़ानम ग़ुस्से में आपे से बाहर हो रही थीं। अभी मैंने दरवाज़े में क़दम रखना शुरू ही किया था कि गालियों कोसनों की बौछार शुरू हो गई, कहाँ था तू अब तक हराम ज़ादे? घर का सारा काम यूँही पड़ा है। और तो यूँही वाही तबाही फिर रहा है। क्यों रे... जवाब क्यों नहीं देता, आख़िर तू था कहाँ?

और जब मेरी ज़बान से एक लफ़्ज़ न निकला तो आँखों से आग बरसाती हुई वो मेरी तरफ़ बढ़ी, अरे बोलता क्यों नहीं? गूँगा हो गया है क्या...? ये कह कर उसने मेरा हाथ पकड़ कर झिंझोड़ा... पर जैसे ही उसने मेरा हाथ छुआ, उसकी चीख़ निकल गई, अरे तुझे तो तेज़ बुख़ार चढ़ा हुआ है। मलेरिया, कहीं प्लेग तो नहीं है तुझे? घर में आज ही एक मरा हुआ चूहा निकला है... और ये कह कर उसने मेरी तरफ़ ऐसे देखा जैसे मैं ही वो मरा हुआ चूहा था। और फ़ौरन जाकर कार्बोलिक साबुन से हाथ धोने लगी कि कहीं मेरी बीमारी की छूत न लग गई हो।

तो सरकार, ख़ुदा जो कुछ भी करता है बंदे की भलाई के लिए ही करता है। मुझे प्लेग तो नहीं हुआ। पर मलेरिया बुख़ार जो उस दिन चढ़ा तो उसने एक महीना तक न छोड़ा। मैं अधमुआ हो गया मगर तहसीलदार साहब के हंटरों से मेरी चमड़ी बच गई। ख़ानम ने उसी वक़्त ही मुझे चपरासी के साथ घर भिजवा दिया था और कह दिया था कि बस, अब यहाँ आने की ज़रूरत नहीं। मुझे ऐसे नौकर नहीं चाहिएं जो रोज़ बीमार होते हों। घर पहुँचते-पहुँचते मुझे सरसाम का दौरा पड़ गया और वो सर्दी चढ़ी कि माँ ने घर भर की रज़ाइयाँ और गद्दे मेरे ऊपर डाल दिए फिर भी कपकपी न गई। पर उस बुख़ार की हालत में भी सरकार, बानो का ख़्याल मेरे दिल से न निकला और बेहोशी में भी बार-बार यही चिल्लाता रहा, छोटी बीबी तुम घबराना मत... मैं पूरे तीन बजे ताँगा ले आऊँगा। यहाँ तक कि मेरे बाप ने तंग आकर मुझे झिंझोड़ कर उठा दिया, अबे, क्या ताँगा, ताँगा बड़बड़ा रहा है। कहीं गर्मी दिमाग़ को तो नहीं चढ़ गई...? महीना भर के बाद जब चलने-फिरने के लायक़ हुआ तो सुना कि तहसीलदार क़ुदरत उल्लाह ख़ाँ की बदली सहारनपुर में हो गई है।

इनकी जगह कोई और तहसीलदार आया है। फिर ये भी सुनने में आया कि ख़ान साहब की तरक़्क़ी हो गई है। अब वो डिप्टी कलक्टर बना दिए गए हैं। डिप्टी कलक्टर तो बड़ा हाकिम होता है। सरकार से तनख़्वाह भी काफ़ी मिलती है, जभी तो ख़ान साहब ने सहारनपुर जाते ही मोटर ले ली और ड्राइवर रख लिया। अब आप पूछेंगे कि तुम्हें कैसे पता चला कि उन्होंने मोटर ले ली और ड्राइवर रख लिया? तो बात ये है सरकार, अच्छा होने के दो-चार महीने बाद मैं लाला गिरधारी मल आढ़ती की ग़ल्ला की दुकान पर अनाज की बोरियाँ ढोने पर नौकर हो गया। एक दिन मैंने क्या देखा कि सहारनपुर से कोई ज़मींदार ठाकुर नवाब अली से मिलने आए तो कहने लगे, लाला सुना तुमने, तुम्हारे यहाँ जो तहसीलदार क़ुदरत उल्लाह ख़ाँ थे ना।

ये नाम सुन कर मेरे तो कान खड़े हो गए और बोरियों के पीछे से ध्यान देकर सुनने लगा... लाला बोले, हाँ, हाँ, वो तो अब तुम्हारे यहाँ डिप्टी कलक्टर हो गए हैं। सुना है अब तो बड़े ठाठ हैं, मोटर भी रख ली है। ठाकुर नवाब अली बोले, अरे लाला, ये मोटर ही की बरकत है। मोटर की और नई तालीम की। ये बात मेरी समझ में न आई। लाला भी बोले, ठाकुर साहब क्या कह रहे हैं? ठाकुर साहब ने कहा, लाला ये कह रहा हूँ कि ख़ान साहब क़ुदरत उल्लाह ख़ाँ की लौंडिया उनके ड्राइवर के साथ भाग गई।

मैंने अपने दिल को लाख समझाया कि अब तुझे ख़ुश होना चाहिए कि ख़ान साहब के हंटर उस साले ड्राइवर की पीठ पर पड़ेंगे। तू तो साफ़ बच गया। मगर झूट क्यों बोलूँ सरकार, सच्ची बात ये है कि दिन भर मुझसे ठीक से काम न हो सका और उस रात जब माँ ने रोज़ की तरह फिर बंदी जुलाही से मेरी ब्याह की बात छेड़ी, तो मैंने भी कह दिया, अच्छा माँ, जैसी तेरी मर्ज़ी। सब्र अजीब चीज़ है सरकार! इंसान अपनी क़िस्मत पर सब्र शुक्र करना चाहे तो फिर यही फुटपाथ के पत्थर भी मख़मल के गद्दे बन जाते हैं।

रात के अँधेरे में बंदी शैदी जुलाही भी बानो जैसी हसीन दिखाई देती है। साल भी नहीं हुआ था, शैदी ने एक बच्चा जन दिया। अगले बरस एक बच्ची। फिर तो सरकार, नंबर लग गया। छ बरस में पूरे पाँच बच्चे। तीन लड़कियाँ और दो लौंडे। पर ख़ुदा की मर्ज़ी में किसको चारा है? औलाद भी उसी की देन है। जब चाहे वापस ले-ले। एक बच्चा तो पैदा होते ही मर गया। एक लौंडिया दो बरस की होकर निमोनिया से हलाक हो गई। अब एक लौंडा और दो लौंडियाँ रह गईं... पर अपने से इतनी औलाद को पालना भी मुश्किल था। घर का सारा बोझ अब मुझपर ही था। बाबा की कमर तो खाट को लग गई थी और माँ को आँखों से सुझाई देना बहुत कम हो गया था। बेचारी दिन में भी टॉमक टुइयाँ मारती थी। मेरा बड़ा भाई एक साल पहले बम्बई जो गया था, तो फिर लौटा नहीं था। न कोई ख़त ही भेजा न रूपया।

पहले सुना था, किसी कपड़े के कारख़ाने में काम करता है। फिर सुना किसी फ़िल्म कम्पनी में चौकीदार है। बड़ी-बड़ी ख़ूबसूरत एक्ट्रेसों की मोटरों के दरवाज़े खोलता है... मेरा भी कई बार जी चाहा कि भाई के पास चला जाऊँ, ज़रा बम्बई-कलकत्ता की सैर करूँ... मगर घर वालों को किस पर छोड़ूँ? और फिर रेल का किराया कहाँ से लाऊं? इसी सोच विचार में कई बरस गुज़र गए और हम मुज़फ़्फ़र नगर ही में मेहनत मज़दूरी पर सब्र करते रहे।

ख़ुदा का करना ऐसा हुआ कि अपना भी कलकत्ता जाने का एक मौक़ा निकल आया। हुआ ये कि अपने मुहल्ले में एक नन्हे नानबाई था। उसका लौंडा रहमत एक बरस से दिल्ली में काम के लिए गया हुआ था। वो जो वापस आया तो क्या देखते हैं कि वो बिल्कुल जेंटिलमैन बना हुआ है। जापानी सिल्क की क़मीस, गले में सोने के बटन, बाल अंग्रेज़ी फ़ैशन के बने हुए। मेरे बचपन का यार था। मैंने कहा, क्यों बे रहमत! कहाँ से गड़ा ख़ज़ाना मिल गया...? बोला,हम तो पानी से सोना बनाते हैं। मैं समझा साले को कीमिया बनाने का नुस्ख़ा हाथ आ गया है। पर उसने बताया कि उसने रेल में सोडा लेमन बेचने का ठेका ले रखा है। उसी से दो-ढाई सौ रूपया महीने की आमदनी हो जाती है। कहने लगा,तीस रूपया महीना तो मैं अपने नौकर को देता हूँ जो हर स्टेशन पर सोडा लेमन की आवाज़ लगाता है। और सारे कलकत्ते और बम्बई की सैर करते हैं वो अलग। ये सुनकर मेरे मुँह में पानी भर आया। मैंने कहा,भैया रहमत एक बार कलकत्ता मुझे भी दिखा दे।

सो सरकार, सोडा लेमन बेचते-बेचते मैं भी कलकत्ता पहुँच ही गया। मैंने तो पहले दिल्ली भी नहीं देखा था। कलकत्ता देखकर तो आँखें फटी की फटी रह गईं। इतनी चौड़ी साफ़ सड़कें, ये मोटरें, बस, ट्रामें, मैंने पहले कहाँ देखी थीं। मैंने सोचा रहमत के सोडा लेमन पर लानत भेजो और यहीं रह पड़ो। वो दिन और आज का दिन। पन्द्रह बरस हो गए। पहले तो कई महीने तक रिक्शा चलाता रहा। दिन में कभी-कभी दो ढाई रूपये भी मिल जाते थे। मैंने सोचा ये काम तो बड़ा अच्छा है। महीने में साठ सत्र रूपये मिल जाते थे।

मज़दूरों के मुहल्ले में एक कोठरी ले ली थी। दस रूपया उसका किराया देता था। कभी-कभी दस पन्द्रह बीवी को भी भेज देता था मगर ईमान की बात ये है कि दूसरे साल के बाद मैंने कुछ नहीं भेजा। ये भी पता नहीं कि उसपर क्या गुज़री... जवान आदमी था सरकार और फिर कलकत्ता में रूपया दो रूपया में सोनागाची में नई मिल जाती है, तो फिर हज़ार मील दूर भेंगी, बदसूरत बीवी को रूपया भेजना तो बड़ा मुश्किल होता है! और फिर दारू पीने की आदत भी पड़ गई थी सरकार। आप कहेंगे कि ये आदमी बड़ा आवारा बदमाश है मगर अस्ल बात ये है कि दिन भर गधे की तरह रिक्शा खींचने के बाद शाम को ग़म ग़लत करने के लिए थोड़ी-सी दारू ज़रूर चाहिए और फिर दारू के बाद जाने कैसे फिर आपही आप क़दम सोनागाची की तरफ़ चल पड़ते हैं।

हाँ तो साल भर रिक्शा चलाई, कोई सौ सवा सौ रूपये आड़े वक़्त के लिए जमा भी कर लिये ... पर ये पता न था कि आड़ा वक़्त इतनी जल्दी आ पहुँचेगा। बरसात के दिनों भीग कर बुख़ार चढ़ा। बुख़ार से निमोनिया हो गया... डॉक्टर ने कहा,रिक्शा खींचते-खींचते फेफड़े कमज़ोर हो गए हैं। ये काम छोड़ दो।

पूरे डेढ़ महीने खाट पर पड़ा रहा। जब बुख़ार ने पीछा छोड़ा तो बदन में इतनी ताक़त भी नहीं थी कि रिक्शा चला सकूँ। जमा जत्था जो कुछ था, वो सब कुछ ख़त्म हो चुका था। फिर भी मैंने अल्लाह का शुक्र अदा क्या कि निमोनिया से मरा नहीं। सोचा ज़िंदा तो हूँ। लानत भेजो रिक्शा पर... चलो और कोई काम करो... कलकत्ता में जहाँ ख़ुदा तीस लाख को रोज़ी देता है। क्या मुझे ही न देगा? अल्लाह पर भरोसा किए बैठा रहा।

मेरी बराबर वाली कोठरी में अपनी ही तरह कई मज़दूर रहते थे। एक तो हरनाम था, बुलंद शहर का। बाप ने सारी जायदाद शराब पी-पी कर उड़ा दी थी। बेटे को पढ़ाया-लिखाया नहीं। सो वो अब कारख़ाने में मज़दूरी करता था। एक बनारस का चमार था मंगू, एक पीलीभीत का मुसलमान था रहमत ख़ाँ। और मज़ा ये कि तीनों में गहरी दोस्ती थी और तीनों एक ही साथ रहते थे। मैंने एक बार अकेले में रहमत ख़ाँ से कहा भी कि तुम इन काफ़िरों के साथ रहते हो। ईमान धर्म का भी कुछ ख़्याल नहीं? वह गाली दे कर बोला,अरे ईमान धर्म की ऐसी तीसी। हमारा धर्म तो मज़दूरी है मज़दूरी।

उन तीनों ने मुझसे कहा,चल तुझे अपने कारख़ाने में नौकरी दिलाए देते हैं। दो रूपये रोज़ मिलेंगे। मैंने सोचा चलो अच्छा है। रिक्शा खींच-खींच कर फेफड़े खोखले करने से तो कारख़ाने की मज़दूरी ही अच्छी रहेगी। अगले दिन वो मुझे अपने साथ कारख़ाने ले गए जहाँ पटसन की बुनाई होती थी... और मज़दूरों के ठेकेदार को जिसे सब सरदार, सरदार कहते थे, मेरी तरफ़ से पाँच रूपये रिश्वत भी दे दिए। पर मुझे नौकरी भी न मिली... वीविंग मास्टर बोला,आज कल मंदा है। इस लिए हम तो पहले से बहुत मज़दूरों को छुट्टी देने की सोच रहे हैं। नया आदमी कहाँ से रख सकते हैं? और मेरी जानिब इशारा करके बोला, फिर उसे हमारे जैसे काम का कोई तजुर्बा भी नहीं है। कितने ही दिन तो इसे काम सीखने में लग जाएंगे।

मैं वापस आ गया और फिर रिक्शा वाले मालिक के पास जाने की सोचने लगा। पर ख़ुदा का करना क्या हुआ,उसी दिन कारख़ाने में हड़ताल हो गई... हुआ ये कि मालिकों ने कहा,बाज़ार में मंदी होने की वजह से हमें या तो बहुत से मज़दूरों को छुट्टी देनी पड़ेगी या उनकी तनख्वाह कम करनी पड़ेगी। इसलिए हमने दो रूपया से घटा कर डेढ़ रूपया करने का फ़ैसला कर लिया है। मज़दूरों ने जब ये सुना तो उनमें खलबली मच गई। हड़ताल की तैयारी होने लगी। मैंने रहमत ख़ाँ और मंगू दोनों को हड़ताल की बातें करते सुना तो बोला, तुम लोग पागल हो गए हो? आठ आने के लालच में डेढ़ रूपये की आमदनी में लात मार रहे हो? अरे भाई जो मिलता है उसीपर सब्र करो... ख़ुदा की मर्ज़ी होगी तो मज़दूरी बढ़ जाएगी।

मगर इन दोनों पर तो हड़ताल का भूत सवार था। रहमत ख़ाँ बोला, अगर इस वक़्त हमने चुपचाप पगार कटवा ली, तो ये मालिक कल हमारे सीने पर सवार हो जाएंगे... और मंगू एक मोटी सी गाली दे कर बोला, अगर बाज़ार में मंदी हो रही है तो ये साला मालिक पाँच-पाँच मोटरों में से दो एक क्यों नहीं बेच देता? साले ने तीन-तीन तो औरतें रख छोड़ी हैं जिनमें से एक विलायती मेम भी है।

हाँ तो जब यूनियन वालों ने हड़ताल का ऐलान किया तो उन दोनों ने तो काम पर जाना बंद कर दिया, मगर हरनाम सवेरे उठ कर चुपचाप काम पर चला गया। बस्ती में ख़बर फ़ौरन फैल गई कि हरनाम काम पर गया है और भी पचास साठ मज़दूर ऐसे थे जो हड़ताल में शामिल नहीं थे। मगर रहमत और मंगू को हरनाम के जाने पर बड़ा अफ़सोस हुआ... रहमत तो कहने लगा,नहीं-नहीं ऐसे ही घूमने गया होगा... मगर शाम को जब हरनाम लौटा तो उसके कपड़ों पर लगे कालिख के धब्बों से साफ़ ज़ाहिर था कि वो काम करके आ रहा है। मंगू तो लगा माँ-बहन की गालियाँ देने मगर रहमत ने धीरे से पूछा,क्यों हरनाम ये सच है? ये सुनकर हरनाम चिल्लाकर बोला,हाँ-हाँ, गया था काम पर, कर ले जिसका जो जी चाहे।

रहमत अब भी धीरे ही से बोला, अच्छा ये बात है...? फिर वो उठ कर कोठरी में गया और वहाँ से लौटा तो उसके हाथों में हरनाम का बिस्तर, टीन का ट्रंक और दूसरा सामान था। बड़ी ख़ामोशी से उसने वो सब चीज़ें बरामदे के बाहर मैदान में फेंक दीं और एक लफ़्ज़ न बोला। चुपचाप जाकर अपनी चारपाई पर लेट गया और हुक़्क़ा गुड़गुड़ाने लगा। हरनाम की आँखों में ख़ून उतर आया। बाँहें चढ़ा कर रहमत की तरफ़ लपका। मगर बीच में मंगू आगया... काला कलूटा मंगू था तो दुबला पुतला सा, मगर उसके हाथों में बड़ी ताक़त थी और बड़ा फुर्तीला भी था। हरनाम को रोक कर उसे एक लँगड़ी जो दी तो चारों ख़ाने चित ज़मीन पर आ रहा। इतने में बस्ती भर के मज़दूर वहाँ जमा हो गए।

हरनाम से सभी जले हुए थे। उसे गिरता देख कर सभी खिलखिला कर हँस पड़े। अब जो वो अपना घुटना सहलाता हुआ उठा, तो देखा कि चारों तरफ़ से वो घिरा हुआ है। अगर वो रहमत और मंगू पर एक बार भी वार करता है तो सारे के सारे उसपर झपट पड़ेंगे। इसलिए उस बेचारे ने अपनी चीज़ें इकट्ठी करके मेरी कोठरी के सामने बरामदे में रख दीं। फिर मेरे पास आकर बोला,क्यों ममदू, तेरे यहाँ आ जाऊँ? कोठरी का सारा किराया आज से मैं दे दिया करूंगा।

सरकार, अंधे को क्या चाहिए। दो आँखें। मैं ठहरा बेकार। मुझे तो पहले ही फ़िक्र थी कि हर महीने किराया कैसे दूँगा? सो मैंने कहा,तू बेखटके यहाँ आजा... हरनाम मैं नहीं डरता किसी से। वो जो कहते हैं कि कर भला तो होगा भला, सो वही हुआ। मैंने हरनाम को रहने के लिए जगह दे दी और उसने अगले ही दिन मुझे कारख़ाने में नौकर रखा दिया।

हड़ताल की वजह से मालिक हर किसी को रखने के लिए तैयार थे चाहे उसे काम आता हो या नहीं। बस दो हाथ दो टाँगें होनी चाहिएँ। सो मैं भी डेढ़ रूपये रोज़ पर नौकर रख लिया गया... ऊपर से रूपया रोज़ स्ट्राइक अलाउंस मिलता था। और मिलना भी चाहिए था। हम पचास साठ आदमी जान पर खेल कर कारख़ाना चला रहे थे। रोज़ हमें गालियाँ और धमकियाँ सहनी पड़ती थीं... बस्ती के दूसरे मज़दूरों ने हमारा हुक़्क़ा पानी बंद कर दिया था। दो एक बार पत्थर भी हम पर फेंके गए! पर मैंने कहा, जो भी हो, हड़ताल करके भूका मरने से बेहतर होगा।

हाँ, तो मैं कारख़ाने में होने को तो हो गया मगर मुझे काम आता ही नहीं था। ईमान की बात ये है कि हरनाम ने वीविंग मास्टर से झूट कह दिया था कि मैंने उसे काम सिखा दिया है। अब ये एक मशीन सँभाल सकता है। कारख़ाने वालों को उन दिनों इस बात की बड़ी फ़िक्र थी कि ज़्यादा से ज़्यादा मशीनों को किसी न किसी तरह चालू रखें, ताकि अख़बारों में ये ऐलान कर सकें कि हड़ताल फ़ेल हो गई और कारख़ाने में काम वैसे का वैसा ही हो रहा है। हरनाम ने मुझसे कह रखा था कि कुछ भी हो तू यही ज़ाहिर कीजियो कि मैं सब कुछ जानता हूँ। वैसे मेरी मशीन उसके पास ही थी। मैं बराबर उसको देखता रहता और जो कुछ वो करता वही मैं करने लगता। उसने बटन दबाया मैंने भी दबा दिया। उसने तेल की कुप्पी लेकर पुर्ज़े में तेल दिया। मैंने भी यही किया। उसने मशीन तेज़ की, मैंने भी की। तीन दिन तो मैंने ऐसे ही गुज़ार दिए। पगार तो हफ़्ते के हफ़्ते मिलने वाली थी मगर स्ट्राइक अलाउंस का रूपया रोज़ मिल जाता था। मैंने सोचा, अपनी बला से। स्ट्राइक उम्र भर चले।

इतने में मुझे मशीन के काम का थोड़ा-बहुत अंदाज़ भी हो गया था... कोई ख़ास मुश्किल काम नहीं था। काम तो सारा मशीन करती थी। हमें तो सिर्फ़ बटन दबा कर मशीन चालू करना और उसकी देख-भाल करनी होती थी। चौथे दिन हरनाम की मशीन का पुर्ज़ा बिगड़ गया और उसे कहीं दूसरी मशीन पर लगा दिया गया...

क्यों ममदू सँभाल लेगा ना? मैंने कहा, तू फ़िक्र न कर इसमें कौन-से हाथी घोड़े लगे हैं। फिर भी वो जाते-जाते लौट कर आया और कहने लगा, ज़रा हाथ-पाँव बचा कर कीजियो।

हाँ तो वो दूसरी मशीन पर चला गया। अब उसकी मशीन और कितनी मशीनों की तरह बेकार खड़ी थी। मगर मेरी मशीन खटाखट काम कर रही थी। खटाखट-खटाखट, मशीन चल रही थी और मैं ख़ुदा की क़ुदरत पर अश-अश कर रहा था कि वाह-वाह! इन विलायत वालों को क्या अक़्ल दी है। इंसानों का काम मशीनों से लेते हैं। जब हम कंबल बुनते थे तो मेरा बाप ऊन को धो कर और धुन कर उसमें से मैल निकालता था। फिर मेरी माँ चरख़े पर ऊन कातती थी। फिर हम सब भाई ताना तैयार करते थे। फिर करघे पर मेरा बाप कंबल बुनता था और इस तरह सबकी कई दिनों की मेहनत के बाद नौ गज़ लम्बा कंबल तैयार होता था। ताना-बाना हो रहा था, कपड़ा बुना जा रहा था, लपेटा जा रहा था और कितनी तेज़ी के साथ। मेरा बाप और माँ और सब भाई और पड़ोसी, बल्कि मुज़फ़्फ़र नगर के सारे जोलाहे मिल कर एक महीने में इतना कपड़ा नहीं बुन सकते थे जितना ये मशीन एक घंटे में बुन रही थी... वाह-वाह! सुबहान तेरी क़ुदरत... अब इस कपड़े की बोरियाँ बनेंगी। इन बोरियों में धान और गेहूँ और दालें और नमक-मिर्च भरकर दूसरे मुल्कों को भेजा जाएगा।

खटाखट-खटाखट मशीन चली जा रही थी, मैंने बिजली की फ़िरकी दबाकर, घुमाकर मशीन की रफ़्तार और तेज़ी कर दी। इस तेज़ रफ़्तार में मुझे मज़ा आ रहा था। कपड़ा अब और तेज़ी से बुना जा रहा था और उसी तेज़ी से मेरा दिमाग़ काम कर रहा था। मैं सोच रहा था। ये सन किस-किस देश की सैर करेगा? कितना अच्छा होता कि उसी कपड़े में लपेट कर मैं भी...

खटाखट, खटाखट... मशीन के गीत में मुझे एक बेसुरी सी आवाज़ सुनाई दी। सामने देखा तो ताने का तार एक जगह से टूट गया था। धागे की नली इधर से उधर बेकार घूम रही थी मगर बुनाई नहीं हो रही थी... हमारे करघे पर जब कभी ऊन का धागा टूट जाया करता था तो मेरा बाप दूसरे के साथ मिला कर एक मरोड़ी दे देता था। बस वो फिर जुड़ जाते और ताने बाने का सिलसिला फिर जारी हो जाता... एक दम मेरे दिमाग़ में भी यही आया कि ममदू, तू भी यही कर और ये ज़रा भी नहीं सोचा कि ये बिजली से चलने वाली मशीन है... बिन्दू जुलाहे का करघा नहीं है।

बिना मशीन बंद किए मैंने हाथ बढ़ा कर टूटे हुए सिरे पकड़ने चाहे मगर मेरी बाँहें छोटी थीं और मशीन लम्बी थी... एड़ियाँ उठा कर मुझे काफ़ी आगे को झुकना पड़ा। खटाखट-खटाखट मशीन चली जा रही थी। जैसे ही धागे का टूटा हुआ सिरा मेरे हाथ में आया, मेरे पाँव ज़मीन से उठ गए और मैं मुँह के बल मशीन के तने हुए कपड़े पर आ रहा। खटाखट खट। मशीन चल रही थी और इसके साथ मुझे अंदर घसीट रही थी। कपड़ा लोहे के रोलर पर लिपटा जा रहा था, और मैं मशीन के फ़ौलादी जबड़े की तरफ़ खिंचा जा रहा था। उस वक़्त तो सरकार, मुझे अपनी मौत सामने खड़ी नज़र आ गई... मरता क्या न करता। हाथ-पाँव मारे मगर कपड़े के झोल में इतना उलझ गया था कि किसी तरह निकलने की सूरत न निकली और एक बार जो मैंने टाँगों को ज़ोर से झटका दिया तो बायाँ पाँव उस कमबख़्त मशीन के न जाने किस पुर्ज़े में फँस गया। अब मैं लाख छुड़ाना चाहता हूँ मगर पाँव नहीं निकलता... बल्कि में घिसटता चला जा रहा हूँ। मेरे मुँह से चीख़ निकल गई और कितने ही मज़दूर मेरी तरफ़ दौड़े... वीविंग मास्टर की आवाज़ सुनाई दी, बिजली बंद करो... बिजली बंद करो... बिजली बंद करो...

मगर अभी कोई बटन न दबा पाया था कि खटाक से आवाज़ आई और मुझे ऐसा महसूस हुआ कि किसी भयानक हाथ ने मेरी टाँग के दो टुकड़े कर दिए हैं और फिर मेरी आँखों में दुनिया अंधेर हो गई। जब मुझे होश आया तो मैं एक मुफ़्त हस्पताल में पड़ा था और मेरी दाहिनी टाँग कट चुकी थी। ये देख कर पहले मुझे दुख हुआ, मगर फिर मैंने सोचा ख़ुदा का शुक्र है, टाँग ही गई, जान तो बच गई और अगर दोनों टाँगें चली जातीं, तो क्या हो सकता था। आज मैं भी उसी लुंजे रूलदू की तरह बाँहों और कूल्हों के सहारे घिसट-घिसट कर चलता...

हाँ तो सरकार, पन्द्रह दिन के बाद जब मैं उस हस्पताल से निकला तो मैं लँगड़ा हो चुका था। मेरी जेब में सिर्फ़ सात रूपये थे। छ रूपये तो हरनाम ने चार दिन की मज़दूरी के लेकर दिए थे और एक रूपया मेरे पास पहले का बचा हुआ था। हरनाम ने ये भी बताया था कि उसने वीविंग मास्टर से बातचीत की थी कि कारख़ाने की तरफ़ से मेरी कुछ मदद की जाए मगर उसने ये कह कर साफ़ इनकार कर दिया था कि अनाड़ी मज़दूर अगर अपनी भूल से अपनी टाँग और हमारी मशीन तोड़ डाले, तो हम उसके ज़िम्मेदार नहीं हैं। मतलब ये है कि मिल मालिकों की तरफ़ से हर्जाना मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी। ख़ैर मैंने दिल को समझाया कि ख़ुदा तेरे सब्र का इम्तिहान ले रहा है, घबरा मत। जब मैं बस्ती आया और गाड़ी से उतर कर दिवार का सहारा लेता हुआ अपनी कोठरी तक पहुँचा तो रहमत, मंगू और बहुत से मज़दूर मुझे देखने आए।

थोड़ी देर तो सब चुपचाप खड़े मेरी टूटी हुई टाँग को देखते रहे, और उनको इस तरह से घूरते देख कर न जाने क्यों मेरे ग़ुस्से का पारा एक दम तेज़ हो गया और मैं चिल्लाया, यहाँ खड़े-खड़े क्या घूरते हो! क्या पहले कभी एक टाँग का आदमी नहीं देखा? निकलो यहाँ से... इसपर वो सब एक-एक करके चले गए। पर रहमत वहीं खड़ा रहा। फिर धीरे से बोला,ममदू! ये ख़ुदा ने तुझे हड़ताल तोड़ने की सज़ा दी है। बस ये कहा और वहाँ से चला गया। ये सुनकर मुझे ज़रा भी ग़ुस्सा न आया। सिर्फ़ मैंने सोचा... कितना बदक़िस्मत है ये रहमत। उसे सब्र की क़दर ही नहीं मालूम! और फिर कौन जानता है? शायद ख़ुदा हड़ताल तोड़ने वालों ही से ख़ुश हो और इसलिए इतने सख़्त हादसे के बावजूद मेरी जान बच गई। वरना हड़ताल तोड़ने वालों की टाँगें टूटनी चाहिए थीं।

हाँ तो सरकार, सब्र के इम्तहान में मैं पूरा उतरा। जब रबड़ या लकड़ी की टाँग न मिली तो मैंने सब्र की टाँग लगवाली और कबाड़ी के यहाँ से दो बैसाखियाँ ले लीं और उस दिन से इनके ही सहारे कूद फाँद कर चल लेता हूँ। जब मेहनत मज़दूरी मुमकिन न हुई तो भीक माँगना शुरू कर दिया। रोज़ी देने वाला तो ख़ुदा है। इंसान तो इसका ज़रिया है। फिर किसी के आगे हाथ फैलाने में कहाँ शर्म? अस्ल में तो हम ख़ुदा के सामने हाथ फैलाते हैं। आप ये सुन कर हैरान होंगे सरकार कि भीक में डेढ़ दो रूपये रोज़ से ज़्यादा कमा लेता हूँ। फिर कारख़ाने में जान खपाने से हासिल...? और हाँ, जब हरनाम बीवी ब्याह कर ले आया और उसने मुझे मेरी ही कोठरी से निकाल दिया, तब से मैंने यहाँ सड़क की पटरी पर अपना घर बना लिया है। छतें और फ़र्श, बँगले और कोठियाँ और पलंग कुर्सियाँ... ये सब तो बेकार के चोंचले हैं। सब्र की छत और सब्र का फ़र्श हो तो सड़क का किनारा भी महल बन जाता है।

कितने ही महीने मैंने सब्र से भीक माँग कर बता दिए हैं। मुझे इस फ़क़ीरी की ज़िंदगी में मज़ा आने लगा। न मेहनत, न मज़दूरी, न मालिक मकान को किराया देना, न चूल्हे चक्की का बखेड़ा, फ़क़ीर की ज़िंदगी ही अस्ल में आज़ाद ज़िंदगी है और मैं तमाम बंधनों, ज़रूरतों और झगड़ों से तो आज़ाद हो गया, पर कटी हुई टाँग होने पर भी एक शैतानी ज़रूरत अब भी जाड़े की रातों में तंग करती है। जब मेरे पास पाँच दस रूपये जमा हो जाते थे, मैं रात को चुपके से सोनागाची पहुँच जाता था... आप जानते ही हैं सरकार... उस बाज़ार में अमीर-ग़रीब, नवाब-फ़क़ीर सब बराबर हैं जिसकी जेब में दाम हों, वो जो माल चाहे ख़रीद सकता है। चाहे वो लूला-लँगड़ा फ़क़ीर ही क्यों न हो।

जाड़े की एक रात का ज़िक्र है। में बैसाखियों का सहारा लेता हुआ सोनागाची में एक कोठे पर चढ़ गया। ये जगह मेरे लिए नई नहीं थी। अक्सर मैं वहीं आया करता था। दो रूपया में सौदा हो जाता था। मगर उस रात को बूढ़ी नाइका मुझे देखते ही हँस कर बोली,क्यों रे लँगड़े फिर आ गया तू? पर आज दो रूपये से काम नहीं चलेगा...! गुदड़ी में पाँच रूपये हैं तो ठीक है नहीं तो रास्ता पकड़ो... उन दिनों मुझे भीक में अच्छी रक़म मिल रही थी, चालीस के नोट तो मैंने गुदड़ी के अंदर सिए हुए थे और सात आठ रूपये और पैसे उस वक़्त भी मेरे पास थे। मैंने कहा,लँगड़ा हूँ तो क्या? पैसा मेरा भी दो टाँग से चलता है। माल दिखाओ, पाँच रूपये भी मिल जाएंगे।

पर वो बड़ी घाग थी। लौंडिया नहीं दिखाई। मुझसे पाँच रूपये लेकर मुझे अंदर कमरे में ढकेल दिया। अंदर जाकर मैंने बैसाखियाँ तो फेंक दीं और पलंग पर बैठ गया। लौंडिया कोई सचमुच नई मालूम होती थी। सर झुकाए बैठी थी... मैंने कहा,मेरी जान, सूरत तो दिखाओ... मैं लँगड़ा हूँ पर तुम्हें ख़ुश कर दूंगा। मगर उसने जो घूँघट उठाया तो यक़ीन मानिए सरकार, मेरे पाँव तले की ज़मीन निकल गई। वो चिल्लाई,ममदू। और मैंने कहा,छोटी बीबी... तुम कहाँ? वो बोली,हाँ ममदू, ये मेरी क़िस्मत का फेर है। तुम्हारी टाँग क्या हुई? मैंने कहा,और ये मेरी क़िस्मत का फेर है।

वो रो रही थी... मैंने दिलासा देने की कोशिश की तो बानो मुझसे लिपट कर सिसकियाँ भरने लगी। मैंने ध्यान से देखा... इन तीन बरसों में उसका वो रंग-रूप न रहा था। बीस-इक्कीस बरस की उम्र में तीस-पैंतीस बरस की लगती थी। आँखों के गिर्द गड्ढे पड़ गए थे, पाउडर सुर्ख़ी के होते हुए भी रंगत पीली थी। आधी इतनी हो गई थी कि बाहों की हड्डियाँ ही हड्डियाँ रह गई थीं। मुँह पर कई जगह अजीब सी फुँसियाँ निकली हुई थीं। जब आँसू कुछ देर को थमे, तो उसने मुझे अपना हाल बताया।

जिस ड्राइवर के साथ वो भागी थी वो बड़ा बदमाश निकला... कलकत्ता लाकर दो-तीन महीने तो बानो का ज़ेवर बेच-बेच कर ख़ूब ऐश किया। फिर जब गुज़ारे की कोई सूरत न रही तो उसने कर्म पर मजबूर किया और एक रात को उसे एक सेठ के हाथ बेचकर ग़ायब हो गया। मैंने कहा,पर छोटी बीबी तुमने पुलिस में क्यों न रपट लिखवाई? तुम तो पढ़ी लिखी हो, तहसीलदार साहब को लिखा होता, वो आकर तुम्हें ले जाते और उस सूअर की चमड़ी उधेड़ देते। वो बोली, पुलिस में रपट लिखवाती तो इसके सिवा और क्या होता कि मुझे ज़बरदस्ती घर वापस भेज दिया जाता... जो कुछ मुझ पर गुज़र चुका था, उसके बाद मैं क्या मुँह लेकर अब्बा के सामने जाती?

मतलब ये कि बानो बेचारी एक हाथ से दूसरे हाथ होती हुई आख़िर में घटिया रंडी-ख़ाने में पहुँची थी। जहाँ क़िस्मत उसी रात मुझे ले आई थी। मैंने कहा,अब तुम कोई फ़िक्र न करो। जब तक ममदू के दम में दम है, तुम्हें कोई तकलीफ़ न होने दूँगा। अब मैं तुम्हें एक मिनट भी इस पाप के नर्क में न रहने दूँगा। वो आँखें नीची करके बोली,पर ममदू, मैं बीमार हूँ, बहुत बुरी बीमारी है।

अब मुझे इन फुंसियों की वजह समझ में आई जो बानो के चाँद जैसे मुखड़े को दाग़दार बनाए हुए थीं। मगर मैंने कहा,कोई परवा नहीं है। मैं ही कौन-सा छैला जवान हूँ? लँगड़ा फ़क़ीर ही तो हूँ... मैं तुम्हारा इलाज कराऊँगा। तुम अच्छी हो जाओगी। मैंने सुना है अब हर बीमारी का इलाज हो जाता है। चलो मेरे साथ, इसी वक़्त। अभी हम ये बातें कर ही रहे थे कि दरवाज़े पर खट-खट हुई। मैंने कहा, आजाओ। बूढ़ी नाइका बोली,अबे ओ लँगड़े! पाँच रूपये दिए हैं। कोई रात भर का ठेका नहीं लिया। दूसरा गाहक इंतज़ार कर रहा है।

पीछे एक भयानक, काला सा, मोटा तगड़ा आदमी नशे में झूम रहा था। मैंने एक हाथ से बानो का हाथ पकड़ते हुए और दूसरे से बैसाखियाँ उठाते हुए कहा, ये लड़की मेरे साथ जा रही है। अब ये यहाँ न रहेगी।

उसके बाद न जाने क्या कुछ हुआ, ठीक याद नहीं। शायद नाइका ने उस आदमी को इशारा किया... वो बानो को दबोचने के लिए बढ़ा... बानो की चीख़ ज़रूर याद है। ऐसी चीख़ जो पत्थर दिल को मोम करदे... न जाने कब और कैसे मेरी बैसाखी हवा में उठी... और उस शराबी की खोपड़ी पर गिरी। अगले पल में वो ज़मीन पर बेहोश पड़ा था और उसके सर से ख़ून बह रहा था और नाइका चिल्ला रही थी, ख़ून! कोई आओ, दौड़ो। इस ख़ूनी को पकड़ो। और बानो डरी-डरी आँखों से मुझे देख रही थी।

ममदू! ये तूने क्या किया?

और मैं कह रहा था।

छोटी बीबी, तुम फ़िक्र न करो, उस दिन मैं ताँगा वक़्त पर न लाया था। ये उसकी सज़ा है।

और सो, वो दिन और आज का दिन, दस बरस क़ैद काटी। परसों ही छूटा हूँ। अब फिर वही सड़क का किनारा है। वही सब्र का फ़र्श और सब्र की छत, सुनता हूँ, इन दस सालों में एक बहुत बड़ी लड़ाई हो चुकी है... हुई होगी... सुनता हूँ लाखों हिन्दू मुसलमान एक-दूसरे के हाथ मारे गए और इस कलकत्ता की सड़कों पर ख़ून के दरिया बहे। बहे होंगे... ये भी सुनता हूँ कि देश आज़ाद हो गया... हुआ होगा। मुझे तो पता नहीं, मैं तो इतना जानता हूँ कि भीक पहले से कम मिलती है और बहुत से रहम दिल बाबू भी जब पास से गुज़रते हैं और पैसे देने के लिए जेब की तरफ़ हाथ ले जाते हैं तो जेब को ख़ाली पाते हैं।

फिर भी ख़ुदा का शुक्र अदा करता हूँ कि कम से कम एक टाँग तो है। रोलदू की तरह बिल्कुल अपाहिज नहीं हूँ... शुक्र अदा करता हूँ कि बानो अब तक ज़िंदा है और मेरे पास है.. वो बुढ़िया आप देखते हैं ना? सामने बैठी अपने सफ़ेद बालों में से जुएँ निकाल कर मार रही है, वही बानो है... बानो... जिसकी रंगत कभी ऐसी थी जैसे मैदा और शहद और जो कभी काले रेशमी बुर्क़े में से मुँह निकाल कर मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुरा देती थी तो ऐसा लगता था जैसे बदली में से चाँद निकल कर मुस्कुरा रहा हो। जिसकी बड़ी-बड़ी कटोरा जैसी आँखें और जिसके बालों की भीनी-भीनी ख़ुशबू मस्त करने को काफ़ी थी... अब उसके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ चुकी हैं और सारा बदन पीप रिस्ते हुए फोड़े फुंसियों से पटा पड़ा है और बहुत दिन हुए उसका दिमाग़ जवाब दे चुका है। अब उसे न बचपन के सुख याद हैं और न जवानी के दुख। न तहसीलदार साहब, न ख़ानम, न ममदू। दिन भर वो बैठी-बैठी जुएँ मारा करती है और आपही आप न जाने क्या बड़बड़ाती है।

मगर शुक्र अल्लाह का... बानो ज़िंदा है और मेरे पास है और मैं उसे देख सकता हूँ।

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