Shuddh Kavita Ka Itihas-2 (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar

शुद्ध कविता का इतिहास–2 : रामधारी सिंह 'दिनकर'

विभिन्न भाषाओं की प्रवृत्तियाँ

जब फ्रांस में बोदलेयर और मलार्मे रोमांसवाद से निकलकर प्रतीकवाद पर जा पहँचे थे और रेम्बू की कविताओं में, अज्ञात रूप से, सुररियलिज्म की नींव पड़ रही थी, उस समय अंग्रेजी के कवि किसी और धुन में थे। टेनिसन और ब्राउनिंग तो रोमांसवाद के ही पिछले खेवे के कवि थे। मारिस और रासेटी जब रोमांसवाद से अलग हुए, तब उन्हें इतना ही मालूम था कि कविता को चित्रकला के बहुत समीप होना चाहिए। उनके बाद स्विनबर्न और आस्कार वाइल्ड का आविर्भाव हुआ। इन कवियों पर बोदलेयर का प्रभाव जरूर था, लेकिन वे भी प्रतीकवाद की साधना में तत्पर नहीं ... हुए। उन्होंने फ्रेंच कवियों के प्रयोग से इतनी ही शिक्षा ली कि कविता में उपयोगिता और सोद्देश्यता का होना दोष है। कविता को केवल सुन्दर होना चाहिए और सौन्दर्य-विधान में अगर नैतिकता बाधा डालती हो, तो उसका तिरस्कार करना कवि का धर्म है। और ऐसा मानने में स्विनबर्न और आस्कार वाइल्ड का कोई खास दोष नहीं था। नए प्रयोगों का, सामान्यतः, यही प्रभाव पड़ सकता था कि कविता कविता के लिए लिखी जानी चाहिए-कवि का और कोई उद्देश्य नहीं होता है।

पिछले सौ वर्षों से फ्रांसीसी के कवियों की सबसे बड़ी अभिलाषा यह रही है कि वे ऐसी कविताएँ रचें, जो शुद्ध और निर्मल हों अर्थात् उनमें विचार नहीं, केवल भाव हों; टिप्पणी नहीं, केवल देखने की चाह हो। कविता को नीति और राजनीति से स्वतन्त्र होना चाहिए। उसका आदर इसलिए नहीं होना चाहिए कि वह समाज को रास्ता दिखाती है या मनुष्य को और भी श्रेष्ठ होने की प्रेरणा देती है, बल्कि, इसलिए कि वह वस्तुओं के भीतर छिपी विलक्षणता का उद्घाटन करती है, मनुष्य की चेतना को चौंकाने का काम करती है और अरूप के सन्धान में भाषा को नियोजित करके उसकी शक्ति को बढ़ाती है। कविता केवल कविता के लिए है। उसे अपने लिए जीना चाहिए और अपनी ही शक्ति से जीना चाहिए। कविता जब दर्शन बघारती है, तब वह अपने बल से कस, दर्शन के बल से अधिक जीती है। जब वह राजनीति को - अपना उद्देश्य बनाती है, तब उसकी लोकप्रियता का कारण कवित्व कम, राजनीति अधिक होती है। और जब वह अपना सम्बन्ध धर्म से जोड़ती है, तब उसका प्रभाव कवित्व के कारण कम, धर्म के कारण अधिक फैलता है। अतएव, कविता की सच्ची शक्ति की परख तभी सम्भव है जब वह धर्म, दर्शन, राजनीति और नैतिकता से मुक्त होकर अपना सारा प्रभाव अपनी शक्ति से उत्पन्न करे।

यह अत्यन्त गहन अर्थ में निर्वासन की कविता थी; अपने देश से निर्वासन की कविता, अपने काल से निर्वासन की कविता, युग के विचारों से निर्वासन की कविता; यहाँ तक कि, अन्त में, वह अर्थों से भी निर्वासन की कविता बन गई। कविता का यह ध्येय कैसे प्राप्त हो, इस प्रश्न को लेकर गहने, कठोर, भयानक चिन्तन आरम्भ हुआ, जो फ्रांस में पिछले एक सौ वर्षों से चलता रहा है। इस गम्भीर चिन्तन का एक परिणाम यह हुआ कि मनोविज्ञान और अध्यात्म शास्त्र की अनेक समस्याएँ कविता की समस्या बन गईं और जहाँ कवित्व को लहराना चाहिए था, वहाँ निगढ़ चिन्तन की लहरें उठने लगीं। जहाँ तक जीवन था, वहाँ तक उपयोगिता की गन्ध भरी थी और सिद्धान्त के स्तर पर, कवियों ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि वे कविता को इस गन्ध की महक भी नहीं लगने देंगे। निदान, कविता उस लोक की ओर उड़ी, जो मानव-बुद्धि की रेखा के पार है। इस क्रम में पहले तो वह मनुष्य को मानवेतर शक्तियों से जोड़ने का प्रयास करने लगी, पीछे वह अवचेतन और अचेतन के अन्धकार में प्रविष्ट हो गई, जो.सुररियलिस्टों का अत्यन्त आकर्षक क्षेत्र है। जाग्रत बुद्धि की सीमा के परे जो धुंधला, अरूप देश दिखाई पड़ा, कविगण उसकी ओर जोर से बढ़े। किन्तु, यह लोक जितना ही अछूता और नवीन था, उतना ही वह खतरनाक भी साबित हुआ। जरार द नेर्वाल ने इस धुंधली भूमि की ओर पहला इशारा किया था और उसके बाद के प्रायः सभी महाकवि उस भूमि में प्रवेश करने को लालायित रहे हैं। किन्तु, इस प्रयास से कविता में जितना अछूता सौन्दर्य उभरा है, उससे कविता की कई गुनी अधिक क्षति सामान्य पाठकों के बीच हुई है।

जर्मन भाषा की प्रवृत्ति

फ्रांस में शुद्ध कवित्व की जो प्रवृत्ति दिखाई पड़ी, उसका आभास जर्मनी में पहले-पहल नीदशे (1844-1900) ने दिया था। नीत्शे जर्मन रोमांटिकों की ठीक पीठ पर आए थे, जिनमें होल्डरलीन (1770-1843), नोवालिस (1772-1801) और हाइने (1797-1856) प्रधान थे। वैसे, गेटे (1749-1832) की भी गिनती रोमांटिकों में ही की जानी चाहिए, किन्तु जर्मनी में उनकी शैली को क्लासिक मानने का रिवाज है। गेटे ने जिस शैली का आविष्कार या निर्माण किया था, उसमें कुछ दिनों तक ताजगी बनी रही, किन्तु, धीरे-धीरे वह अलंकरण की वस्तु हो गई। इस शैली के काव्यरसिकों को जो विरक्ति हो रही थी, उसका प्रमाण पहले-पहल मेयर (1825-1898) में मिला, जिनकी लिरिक कविताएँ नियन्त्रित और सुशान्त थीं तथा जिनके भीतर कवि के भाव बिम्बों में पुँजीभूत होकर प्रकट होते थे तथा जो कविताएँ व्याख्या या टिप्पणी नहीं देती थीं। इसी प्रकार, स्टीफेन जार्ज (1868-1933) ने रोमांटिक शैली से असन्तुष्ट होकर अभिव्यक्ति में नियन्त्रण लाने की आवश्यकता अनुभव की और कविता को वे चित्रकला की ओर मोड़ने लगे। अंग्रेज कवि रोसेटी भी यही कर रहे थे। वे एक साथ कवि और चित्रकार भी थे। स्टीफेन जार्ज रोसेटी के भारी प्रशंसकों में से थे और उन्होंने रोसेटी के कुछ सानेटों का जर्मन में अनुवाद भी किया था।

नीत्शे का सुयश कवि से अधिक चिन्तक का सुयश है। किन्तु, शुद्ध काव्य के आन्दोलन को नीत्शे से भी प्रेरणा प्राप्त हुई। रोमांटिक परम्परा के ढीले-ढालेपन को वे भी नापसन्द करते थे और कहते थे कि जर्मन समाज खोखला हो गया है, इसी से वह ऐसी कविताओं को पसन्द या बर्दाश्त करता है। साहित्य के प्रचलित रूप से नीत्शे को असन्तोष इसलिए था कि वह शैली यह बतलाती थी कि जिस समाज से यह साहित्य उत्पन्न हो रहा है, वह समाज ढीला-ढाला, पुलपुला और कमजोर है। साहित्यिक परम्परा से अधिक वे समाज की उस परम्परा पर टूटे, जो बीमार और असमर्थ कविताओं को जन्म देती है। शैली और कुछ नहीं, मनुष्य के चरित्र का प्रतिबिम्ब है। जिस जाति का चरित्र ठोस और चिन्तन की पद्धति कठोर है, उस जाति में पुलपुली भावनाओं का आदर नहीं होता, न उसके भीतर ऐसे कवि उत्पन्न होते. हैं, जो निरे खोखलेपन पर रंग चढ़ाने को कवि का श्रेष्ठ कर्म समझें।

विचित्र बात यह है कि समाज के उद्धार के लिए तो नीत्शे ने अतिमानव की कल्पना तैयार की, जो बलिष्ठ, पवित्र और मेधावी पुरुष की कल्पना है, किन्तु, साहित्य के लिए उन्होंने वास्तविकता से भागने का सन्देश दिया। अपने 'ट्रेजेडी का जन्म' नामक निबन्ध में उन्होंने अपनी पूरी आस्था कला में दिखलाई क्योंकि वे वास्तविकता के साथ जीने की क्रिया को कठिन और दुःसाध्य मानते थे। फिर अपने दूसरे निबन्ध 'विल टू पावर' में उन्होंने लिखा, “दार्शनिक के लिए यह मानना कलंक की बात है कि शिव और सुन्दर एक हैं। और कहीं वह इन दोनों के साथ सत्य को भी मिला दे, तो उसे भली-भाँति पीटना चाहिए। सत्य कुरूप होता है। हम सत्य की संगति में विनष्ट न हो जाएँ, इसीलिए, कला हमारे साथ है।" कला का प्रयोजन नीत्शे यह मानते थे कि उसके द्वारा हम अस्तित्व पर सोचने, उसे समझने और अनुभव करने की शक्ति प्राप्त करते हैं और इसी चिन्तन तथा अनुभूति से अस्तित्व की सार्थकता और पूर्णता का हमें ज्ञान होता है।

क्या जीवन इतना दुःखपूर्ण और कुरूप है कि श्रेष्ठ चिन्तन और कवित्व को उसका त्याग कर देना चाहिए? जीवन की कुरूपता और विषमता पर विजय पाने को मनुष्य अभियान पर अभियान चलाता आ रहा है और इस कार्य में कलाएँ उसके साथ रही थीं। आज भी साम्यवादी देशों में कलाएँ साम्यवादी अभियान के साथ हैं। किन्तु, धरती के असंख्य कलाकार अपनी शक्तियों का उपयोग मानवता की रक्षा और उत्थान के लिए करने को अब तैयार नहीं हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि पराजित बुद्धि अपने विश्राम के लिए गजदन्ती मीनार खोज रही है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि जिसे हम . शुद्ध कवित्व का आन्दोलन कहते हैं, वह पलायनवाद का प्रयास है?

नीत्शे ने और उनके बाद रिल्के (1875-1926) ने दुःख की महिमा का चित्रण बड़े ही खूबसूरत रंगों में किया है। उनसे भी पूर्व होल्डरलीन ने कहा था, "आदमी प्रतिदान पाए बिना दान देता चले, बर्फ पर बैठकर भी गरमी का अनुभव करता चले, यह उनका गुण है, जिनकी गणना संसार के अल्पतम मानवों में की जा सकती है। मगर, मैं समझता हूँ कि मैं उन थोड़े-से लोगों में नहीं हूँ। जब शीत मुझे घेरती है, मैं ठिठुरने लगता हूँ।"

जाड़ा लगे तो शरीर का ठिठुरना कोई आश्चर्य की बात नहीं है और ठिठुरन पीड़ा ही देती है। किन्तु, नीत्शे और रिल्के ने इस ठिठुरन को दर्शन के धरातल पर पहुंचा दिया। उनकी दृष्टि में आनन्द का प्रसवण शोक और दुःख के पर्वत से झरता है। शापेनहार ने कहा था कि दुःख का अभाव सुख होता है। किन्तु नीत्शे और रिल्के मानते थे कि सुख-दुःख के अभाव का नाम नहीं है, वह उसका परिणाम है। जब हम : दुःख को सर्वतोभावेन अंगीकार कर लेते हैं, तब उसी अंगीकृति के भाव से सुख का फव्वारा फूट पड़ता है। अस्तित्व दुःखपूर्ण है। सुख का मार्ग दुःख के खंडन का नहीं, उसके रूपान्तरण का मार्ग है। सुख की खोज में जीवन का त्याग न करके उसका रूपान्तरण करो, जिससे दुःख ही सुख की भावना में परिवर्तित हो जाए। हम मृत्यु नहीं, अनन्त जीवन के कामी हैं और हमारा अनन्त जीवन इसी वेदनापूर्ण विश्व का अनन्त जीवन होगा, जहाँ हमारे संकल्प मात्र से दुःख-सुख में परिवर्तित हो जाएँगे। नीशे और रिल्के, दोनों ही वेदनाप्रियता के कवि थे, निःसंगता और एकाकीपन के कलाकार थे। नीत्शे चाहते थे कि आदमी अधिक-से-अधिक दुःखों की कामना करे, जिससे वेदना-विजय से उठनेवाला उसका आनन्द अधिक-से-अधिक हो सके। और रिल्के ने कहा था, "शहीद बड़े चतुर होते हैं। वे वेदना की कोई ऐसी गहरी घूट लेते हैं कि आनन्द से उनमें कोई भी विकार उत्पन्न नहीं होता।"

नीत्शे जिसे दनिया के दार्शनिक हैं, रिल्के उसी संसार के कलाकार हैं. सिवाय इसके कि मनुष्य को रिल्के ने अतिमानव के रूप में नहीं, देवदूत के रूप में देखा था। रिल्के के कवि-जीवन का आरम्भ रोमांटिक के रूप में हुआ था, किन्तु, शीघ्र ही वे सौन्दर्यबोध के कवि हो गए, जैसे कवि प्रभाववादी और चित्रवादी बननेवाले थे। फिर उन्होंने एक प्रकार के काव्यात्मक अस्तित्ववाद को अपना लिया या यों कहें कि एक प्रकार का काव्यात्मक अस्तित्ववाद उनका सिद्धान्त बन गया। उनका प्रभाववाद वस्तुपरक न रहकर पूर्ण रूप से वैयक्तिक अथवा आत्मनिष्ठ बन गया और वे ऐसी कविताएँ लिखने लगे, जिन्हें वही समझ सकता है, जिसे उस प्रकार के दर्शन तथा उस प्रकार की भावधारा की शिक्षा दी गई हो। वे कवियों के कवि हैं और समझ में गरचे उनकी कविताएँ कम आती हैं, किन्तु, समकालीन काव्यधारा को उन्होंने जिस जोर से प्रभावित किया है, उसके कारण उनके नाम का उल्लेख सर्वत्र किया जाता है।

मलार्मे के प्रसंग में कागज के क्वाँरेपन की जिस वेदना का उल्लेख ऊपर किया गया है, उस वेदना की अनुभूति रिल्के को भी थी। वे भी किसी ऐसे भाव की प्रतीक्षा में रहते थे, जो पहले किसी और को अनुभूत नहीं हुआ हो। “मैं उन सभी बातों में विश्वास करता हूँ, जो पहले कही नहीं गई हैं। मैं अपने प्रिय से प्रिय भावों को मुक्त अभिव्यक्ति दूंगा और एक दिन वह वस्तु, खुद-ब-खुद, मेरे समीप आ जाएगी, जिसकी कल्पना करने का साहस किसी को भी नहीं हुआ है।"

आगे चलकर शुद्ध कविता इस बात पर जोर देने लगी कि कविता का प्रत्येक सौन्दर्य शारीरिक होता है, दृष्टिगम्य होता है और जो कुछ दृष्टिगम्य नहीं बनाया जा सकता, उसे कविता से बाहर ही छोड़ देना चाहिए। किन्त, प्रतीकवाद का लक्ष्य सम्पूर्णता थी। मलार्मे एवसोल्यूट पर आसक्त थे और रिल्के का कहना था कि "हमें । निस्सीमता की आवश्यकता है। हम अनन्त के बीच रहना चाहते हैं क्योंकि हम जो संकेत देते हैं, उसे केवल अनन्त ही सँभाल सकता है। किन्तु, हम जानते हैं कि हम जिस दुनिया में रहते हैं, वह सीमित और संकीर्ण है। तो हमारा कर्तव्य यह हो जाता है कि हम सीमित की चौहद्दी के भीतर अनन्तता की सृष्टि करें क्योंकि यह युग असीम के साथ अपना परिचय भूल चुका है।" (अधूरी रचना)

कहानियाँ और अन्य गद्य कृतियाँ : रामधारी सिंह दिनकर

संपूर्ण काव्य रचनाएँ : रामधारी सिंह दिनकर