Shri Arvind : Meri Drishti Mein (Ramdhari Singh Dinkar)

श्री अरविन्द : मेरी दृष्टि में (रामधारी सिंह 'दिनकर')

अभी संसार में चिन्तकों का एक खासा दल है, जो श्री अरविन्द को केवल मनीषी, दार्शनिक और कवि समझकर सन्तोष कर लेता है। मेरा विश्वास है कि श्री अरविन्द केवल दार्शनिक, कवि और मनीषी ही नहीं थे, वे मनुष्य के आसन्न आध्यात्मिक विकास के नेता, योगी और युगावतार थे। श्री अरविन्द ने योग और दर्शन पर जो अनेक ग्रन्थ लिखे हैं, वे मनुष्य की ऊँची-से-ऊँची मेधा के श्रेष्ठ प्रमाण हैं। किन्तु क्या केवल मेधा के बल पर सावित्री काव्य की रचना की जा सकती थी? सावित्री के रचयिता की दृष्टि के सामने गोचर और अगोचर, दोनों ही निरावरण हो गए थे। बुद्धि गोचर तक ही विहार करती है। बुद्धि के परे भी कोई शक्ति है, जो अगोचर को देख लेती है। श्री अरविन्द में बुद्धि का बड़ा ही प्राबल्य है, किन्तु सावित्री काव्य बुद्धि की रचना नहीं है। वह उस शक्ति का चमत्कार है, जो बुद्धि की सीमा के परे विहार करती है, जिससे अदृश्य देखा जाता है और अकथनीय का कथन किया जाता है। सावित्री अकथनीय के ही कथन का प्रयास है।

एक समय एशिया, विशेषतः भारतवर्ष, अपने आध्यात्मिक तेज के कारण संसार का अग्रणी महादेश समझा जाता था। आधुनिक युग में आकर संसार का अग्रणी महादेश यूरोप हो गया, क्योंकि विज्ञान और टेक्नालोजी को सिद्ध करके उसने अतुलित शक्ति और समृद्धि प्राप्त कर ली। एशिया ने आत्मा के क्षेत्र में विशेषता अर्जित की थी। यूरोप ने शरीर की भूमि पर चमत्कार उत्पन्न कर दिया। लगता है, भगवान की अगली इच्छा यह है कि यूरोप और एशिया की विशेषताओं के बीच समन्वय उत्पन्न किया जाए, जिससे अगला मनुष्य तन से सबल और समृद्ध तथा मन से योगी और निरासक्त हो।
श्री अरविन्द के विचारों के सम्पर्क में आने से बहुत पूर्व मैंने अपनी एक कविता में कहा था :
जागो रसिक विराग लोक के, मधुवन के संन्यासी।
अब मुझे लगता है कि इस पंक्ति में उसी मनुष्य की क्षीण झाँकी है, जिसकी सम्पूर्ण कल्पना भी अरविन्द ने की है।

इस दृष्टि से पांडिचेरी का आश्रम भगवान की ही ओर से किया जानेवाला एक नूतन प्रयोग है। श्री माँ की नियति यह थी कि वे श्री अरविन्द की साधना में सहयोगिनी बनें। किन्तु उनका जन्म यूरोप में हुआ। श्री अरविन्द की साधना में यूरोप को जो योगदान देना था, उसका बहुत बड़ा अंश आश्रम में श्री माँ के साथ पहुंचा। यह भी ध्यान देने की बात है कि जिस व्यक्ति को भगवान मनुष्यता के आध्यात्मिक उद्धार का माध्यम बनाना चाहते थे, उस व्यक्ति को उन्होंने जीवन के पहले बीस वर्षों तक भारत के संस्कार से अछूता और बहुत दूर रखा था। श्री माँ यूरोप के संस्कार में पलकर भारत आई और श्री अरविन्द भी पहले भारत में और फिर इंग्लैंड में यूरोपीय संस्कार में ही पले, यह सब कुछ भागवत योजना के अनुसार था।

जब श्री अरविन्द का जन्म हुआ, यूरोप अपनी सभ्यता के शिखर पर पहुँचा हुआ था और श्री अरविन्द के पिता डॉक्टर कृष्णधन घोष इस सभ्यता के अनन्य पुजारी थे। यूरोपीय सभ्यता के सामने वे भारतीय सभ्यता को बहुत ही दुर्बल, अन्धविश्वासी और निस्सार समझते थे। उन्होंने पूरी कोशिश की थी कि श्री अरविन्द का लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा यूरोपीय विधि से हो और उन पर भारतीय संस्कार की छाया भी न पड़े। और हुआ भी यही। बीस वर्ष की उम्र तक श्री अरविन्द भारत की कोई भाषा नहीं जानते थे। किन्तु जिस व्यक्ति को भारतीय संस्कार से इतना अछूता रखने की कोशिश की गई थी, भगवान ने उसी व्यक्ति को अध्यात्म का उद्धारक और भारतीय संस्कार का तपोधन महर्षि बना दिया।

श्री अरविन्द के छात्र-जीवन के बारे में जो जानकारी मिलती है, उससे यह अनुमान तो होता है कि यह युवक कवि, चिन्तक, देशभक्त और पत्रकार हो सकता है किन्तु इसके लक्षण दिखाई नहीं देते कि यह योग-साधना की ओर जाएगा। श्री अरविन्द ने लिखा है कि अपनी किशोरावस्था में वे केवल सन्देहवादी ही नहीं, करीब-करीब नास्तिक भी थे। श्री अरविन्द को योग की पहली दीक्षा उनके बड़ौदा जीवन-काल में मिली और यह दीक्षा उन्हें एक महाराष्ट्रीय योगी ने दी थी, जिनका नाम श्री भास्कर लेले था। किन्तु संसार से अलग ले जाने के पहले भगवान श्री अरविन्द को संसार के तूफानों का भी स्वाद चखा देना चाहते थे। इसीलिए बंग-भंग के समय श्री अरविन्द बड़ौदा से कलकत्ता चले आए और राष्ट्रीय आन्दोलन की अत्यन्त प्रखर धारा में उन्होंने अपने-आपको फेंक दिया। उन दिनों वन्दे मातरम् में श्री अरविन्द के जो लेख निकले, भारतीय राष्ट्रीयता के इतिहास में उतने प्रखर और निर्भीक लेख और कभी नहीं निकले थे। राजनीति के क्षेत्र में श्री अरविन्द ने केवल पाँच वर्ष काम किया, या यह भी कह सकते हैं कि केवल ढाई वर्ष काम किया, किन्तु उतने ही समय में सारा देश उनकी पूजा करने लगा और उनके लेखों के प्रभाव से देशभक्ति के मतवाले तेजस्वी युवकों की एक नई पीढ़ी तैयार हो गई। केवल ढाई वर्षों के अन्दर श्री अरविन्द ने देश के हृदय और मस्तिष्क को उस तरह से मथ डाला, जिस प्रकार वह पहले कभी मथा नहीं गया था, वीरता और निर्भीकता की ऐसी-ऐसी बातें कहीं, जो पहले कभी नहीं कही गई थीं। तत्कालीन कांग्रेस को उन्होंने ढाई वर्ष में ही पीटकर ठंडा कर दिया और जनता के हृदय पर इस बात को पक्की तरह से बिठा दिया कि नरम दलीय कांग्रेस राष्ट्रीय नहीं है और भारत का ध्येय पूर्ण स्वाधीनता होना चाहिए।

तब श्री अरविन्द मानिकतला वन-केस में गिरफ्तार हुए और लोगों को यह आशंका होने लगी कि उन्हें फाँसी या कालेपानी की सजा अवश्य हो जाएगी। इस मुकदमे में श्री अरविन्द के वकील श्री सी. आर. दास थे। उन्होंने जज को सम्बोधित करते हुए कहा था कि जो युवक आपके सामने मुजरिम के रूप में खड़ा है, वह मानवता के इतिहास में अमर रहेगा, जबकि आप और हम विस्मृति के गर्भ में विलीन हो जाएँगे। अतएव आपको यह मानकर चलना चाहिए कि श्री अरविन्द इस अदालत के सामने नहीं, इतिहास के हाइकोर्ट के सामने खड़े हैं। श्री सी. आर. दास की यह भविष्यवाणी सत्य निकली। श्री अरविन्द रिहा कर दिए गए और मानवता के इतिहास ने सचमुच ही उन्हें अपने शिखर पर बिठा लिया।

सन् 1910 ई. में श्री अरविन्द अचानक राजनीति से मुख मोड़कर पांडिचेरी चले गए और वहाँ लिखने-पढ़ने और अध्यात्म की साधना में लीन हो गए। अनुमान है कि जब वे अलीपुर जेल में बन्द थे, तभी उन्हें कोई ईश्वरीय संकेत मिला था कि अब तुम्हें किसी और भी महत्तर साधना में लगना है, अतएव उसके लिए कोलाहल से अलग एकान्त में चले जाओ।

श्री अम्बालाल पुराणी श्री अरविन्द के अन्यतम भक्तों में से थे और जवानी के दिनों में वे क्रान्तिकारी भी रहे थे। सन् 1918 में वे जब श्री अरविन्द से मिलने को पांडिचेरी गए, उन्होंने निवेदन किया कि हमारी क्रान्ति की तैयारी पूरी हो चुकी है। आप हमारा पथ-प्रदर्शन करने को चलिए। उस समय श्री अरविन्द ने पुराणी जी से कहा था कि रक्तपात की आवश्यकता नहीं है। भारत रक्तपात के बिना ही स्वाधीन हो जाएगा। तुम योग की ओर उन्मुख हो। अतएव तुम्हारे लिए भी यही उचित है कि आश्रम में रहकर योग करो।

भारतीय स्वाधीनता-संग्राम को तीव्र बनाने के लिए श्री अरविन्द राजनीति में पड़े थे, किन्तु विश्व-मानवता के उद्धार के लिए वे योग-साधना में लग गए। परन्तु निभृत एकान्त में रहते हुए भी अपनी ओर से वे सारे संसार के सम्पर्क में थे। जब हिटलर ने सभ्यता को रौंदने के लिए युद्ध आरम्भ किया, श्री अरविन्द ने मित्र-राष्ट्रों के समर्थन में वक्तव्य दिया था। जब श्री स्टैफोर्ड क्रिप्स समझौते की योजना लेकर भारत आए थे, श्री अरविन्द ने भारतीय नेताओं को सलाह भेजी थी कि वे क्रिप्स की योजना को स्वीकार कर लें। उस समय देश के नेताओं ने क्रिप्स की योजना को ठुकरा दिया, किन्तु अब कहीं-कहीं यह एहसास जगने लगा है कि अगर क्रिप्स योजना मान ली गई होती, तो वह देश के विभाजन से श्रेष्ठ समाधान हुआ होता।

किन्तु वह महत्तर आदर्श क्या था, जिसे प्राप्त करने के लिए श्री अरविन्द ने राजनीति से अपना हाथ खींच लिया? श्री अरविन्द ने जो कुछ लिखा है, उसके सहारे ही हमें उत्तर की कल्पना करनी होगी। संसार में दुख असंख्य हैं और उन्हीं दुखों को दूर करने के लिए सरकारें बनती हैं, सुधार के आन्दोलन चलाए जाते हैं, योजनाएँ बनती हैं और लड़ाइयाँ भी लड़ी जाती हैं। किन्तु इन समस्त चेष्टाओं के बावजूद दुख अपनी जगह पर कायम है। योजनाएँ जहाँ सफल होती हैं, वहाँ भी सुखों के साथ असन्तोष और अशान्ति में वृद्धि होती है। सभी युद्ध शान्ति के लिए ही लड़े जाते हैं, लेकिन शान्ति आती नहीं और आ भी गई, तो वह टिकती नहीं है। श्री अरविन्द का कहना है कि ये सारे आन्दोलन, ये सारी क्रान्तियाँ, ये सारी लड़ाइयाँ केवल पैबन्द हैं। असली काम यह है कि मानवता को कोई नया वस्त्र दिया जाए। मानवता का नया वस्त्र, यानी मनुष्य का सम्पूर्ण रूपान्तरण। सृष्टि में पहले सब कुछ जड़ था। जड़ में से जीवन निकला और जीवन के भीतर से मन अथवा मानस उत्पन्न हआ। शंकर के मायावाद को श्री अरविन्द नहीं मानते, न वे वैज्ञानिकों के भौतिकतावादी विकासवाद को स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि प्रकृति, द्रव्य या मैटर जड़ नहीं है। ब्रह्ममय होने के कारण उसके भीतर भी चेतना काम कर रही है। पुद्गल अगर जड़ होता, तो उसके भीतर से चेतन कैसे प्रकट हो सकता था? मनुष्य लाखों वर्षों से मन के धरातल पर खड़ा है, मन की समस्याओं का समाधान वह मन के ही साधनों से खोजने में लीन है, किन्तु समाधान उसे मिल नहीं रहा है। न यह समाधान उसे मन के जरिए कभी प्राप्त हो सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य एक छलाँग लगाए और मन की सीमा के बाहर पहुँच जाए। मन की सीमा के परे वाली भूमि को श्री अरविन्द अतिमानस कहते हैं। जब तक मनुष्य की अतिमानसी जाति उत्पन्न नहीं होती, उसकी समस्याओं का समाधान नहीं मिलेगा।

अतिमानस की भूमि का निर्देश श्री अरविन्द से पूर्व किसी भी ऋषि या दार्शनिक ने नहीं किया था। चेतना के आकाश का अनुसंधान करते-करते श्री अरविन्द एक ऐसे देश में जा पहुँचे, जो नक्शे पर था ही नहीं। वही देश अतिमानस का देश है। अतएव यह कल्पना सही या गलत है, यह शास्त्रों के उद्धरण द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता। सत्य उसे हम इसलिए मानते हैं कि श्री अरविन्द ने जीवन भर, अनेक रूपों में, उसकी व्याख्या की है और हमसे कहा है कि हम उस पर विश्वास करें और उसे प्राप्त करने के लिए साधना और प्रयास भी। जब जीवन में से मन प्रकट हुआ, जीव-सृष्टि में बड़ी भारी क्रान्ति मच गई। जिस दिन मानस के भीतर से अतिमन प्रकट होगा, उस दिन मानव-समाज में उससे भी बड़ी क्रान्ति घटित हो जाएगी। अतिमानस के अवतीर्ण होने पर यह भौतिक जगत रूपान्तरित हो जाएगा और मनुष्य की एक ऐसी योनि प्रकट होगी, जो वर्तमान योनि से भिन्न और अत्यन्त श्रेष्ठ होगी और जो समस्याएँ मनुष्यों को आज घेरे हुए हैं, उनका कहीं नामोनिशान भी नहीं रहेगा।

श्री अरविन्द ने यह भी कहा है कि विकास का क्रम अवरुद्ध नहीं हुआ है, किन्तु बन्दर अब आदमी नहीं बनेंगे। विकास के क्रम ने मनुष्य को खींचकर मन के धरातल पर पहुँचा दिया है, अब जो भी विकास होगा, वह मनुष्य के शरीर का नहीं, उसकी चेतना का होगा। विकास का अगला सोपान अति-मन है, मनुष्य की अगली यात्रा मानस से चलकर अति-मानस पर पहुंचने की यात्रा है। मनुष्य अपने को रूपान्तरित करे, इसके सिवा उसके सामने कोई और विकल्प नहीं है।

श्री अरविन्द माया में विश्वास नहीं करते। वे ब्रह्ममय होने के कारण सारे जगत को सत्य मानते हैं। वे वैयक्तिक मुक्ति भी नहीं चाहते, न संसार को भूलकर ब्रह्म-सुख के समुद्र में मग्न रहना चाहते हैं। उनका ध्येय इसी जगत् में भागवत जीवन की स्थापना है। उनका ध्येय मनुष्य की चेतना को एक नए धरातल तक पहुँचाना है, जो अतिमानस का धरातल है।

भोग और वैराग्य, ये जीवन के दो अति बिन्दु हैं, दो चरम छोर हैं। भोगी केवल शरीर के सुख के लिए जीता है और वैरागी शरीर को सुखाकर, उसका तिरस्कार करके आत्मा को पाना चाहता है। श्री अरविन्द समझते हैं कि ये दोनों ही अतिवादी दृष्टिकोण हैं। शरीर आत्मा का मन्दिर है, अतएव शरीर की उपेक्षा नहीं की जा सकती। और आत्मा की भी उपेक्षा करना व्यर्थ है, क्योंकि शरीर के भीतर से आत्मा ही अभिव्यक्त होती है। आत्मा के अस्तित्व का यह भी एक प्रमाण है कि समस्त शारीरिक सुखों के बीच भी हम अतृप्ति का अनुभव करते हैं, किसी ऐसे लोक में पहुँचना चाहते हैं, जो शरीर की सीमा से परे है, जो आत्मा अथवा अध्यात्म का लोक है।

सतप्रेम ने लिखा है कि पिछले पचास वर्षों से मनोविज्ञान इस कोशिश में रहा है कि मनुष्य के भीतर जो दानव है, उसके पाँव और भी दृढ़ता से जमा दिए जाएँ। मनुष्य उसे उतना बुरा न समझे, जितना आज तक वह समझता आया है। आन्द्रे मालरो की कल्पना यह है कि अगले पचास वर्षों तक हमें यह कोशिश करनी होगी कि मनुष्य के भीतर जो देवता उपेक्षित पड़े हैं, उनका तालमेल इस दानव के साथ कैसे बिठाया जाए। अर्थात् पुद्गल और आत्मा, जो परस्पर छिन्न हो गए हैं, उन्हें समन्वित कैसे किया जाए, यानी पृथ्वी पर भागवत जीवन की स्थापना कैसे हो।

श्री अरविन्द कर्म और ध्यान, गार्हस्थ और संन्यास का भेद नहीं मानते। उनके योग की पद्धति वह है, जिससे गृहस्थ और संन्यासी, दोनों का कल्याण समान रूप से हो सकता है। आरोह और अवरोह-ये दोनों क्रियाएँ गृहस्थ और संन्यासी, दोनों के लिए उपयुक्त हैं। हम परमात्मा की ओर उन्मुख होते हैं, यह आरोह यानी हमारा ऊपर उठने का प्रयास है। और हम जब ईश्वर की ओर उन्मुख होते हैं, उनकी कृपा अवरोह करती है यानी नीचे उतरती है और हमारा रूपान्तरण हो जाता है। जिसका आरोह जितना ही तीव्र है, उस पर करुणा का अवरोह भी उसी तीव्रता से होगा।

श्री अरविन्द की आध्यात्मिक योजना में अतिमानस की परिकल्पना ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और सबसे अधिक दुरूह है। श्री अरविन्द और श्री माताजी ने हजारों बार इसकी व्याख्या की है, किन्तु मन की भाषा में हम लोग इसे न तो समझते हैं, न समझा सकते हैं। एक बात स्पष्ट है कि यह उस चेतना का सर्वोच्च शिखर नहीं है, जिस चेतना के साथ हमारा थोड़ा-बहुत परिचय है। अतिमानसी चेतना ही शायद कोई भिन्न प्रकार की चेतना होगी। अतिमानस की कल्पना को लेकर हम लोग जिस कठिनाई में पड़ जाते हैं, उसे श्री अरविन्द भली-भाँति जानते थे। इसीलिए सावित्री काव्य में एक जगह उन्होंने लिखा है:

आत्मा की ज्योति पुद्गल में प्रदीपित होगी।
जो आज किसी की भी समझ में नहीं आता,
उसे कुछ थोड़े लोग आँखों से देखेंगे।
पंडित लोग तो बहस करते और सोते ही रहेंगे,
किन्तु भगवान बढ़ते चले जाएँगे।
आगमन के मुहूर्त के पहले आदमी जानेगा ही
नहीं कि कोई आनेवाला है।
और जब तक कार्य पूर्ण नहीं हो जाता,
मनुष्य को विश्वास नहीं होगा।

(In matter shall be lit the spirit's glow.
A few shall see what none yet understands.
God shall grow up while wise men talk and sleep.
For man shall not know the coming till its hour.
And beleif shall be not till the work is done.)