शोक (कहानी) : आशापूर्ण देवी

Shok (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi

दफ्तर जाने के लिए बाहर निकलकर फुटपाथ पर कदम रखते ही सामने डाकिया दीख गया। हाथ में चिट्ठी और पत्रिका। अपनी व्यस्तता के बावजूद उन्हें लेकर शक्तिपद को वापस लौटना पड़ा अन्दर की तरफ। इन्हें प्रतिमा के सामने पटक आना पड़ेगा। पत्रिका खोलकर देखने की जरूरत नहीं। जाहिर है कोई फिल्मी पत्रिका है...'छाया-कवि'-प्रतिमा के लिए उसके जी-जान से बढ़कर पत्रिका। हर बुधवार प्रकाशित होती है, बिला नागा।
चिटठी भी प्रतिमा के नाम है। पोस्टकार्ड। चार-पाँच लाइनों में कछ लिखा है...चिट्ठी उसके मैके से आयी है...वर्धमान से।

ऐसी अफरा-तफरी में चिट्ठी तक पढ़ने की फुरसत नहीं। लेकिन चलते-चलते ही आँखें उन काली सतरों पर चली ही गयी...और इसके साथ ही शक्तिपद की दोनों आँखें जैसे पथरा गयीं। अपनी ठहरी और ठिठकी आँखों से ही उसने उन पंक्तियों को दोबारा पढ़ा...इसके बाद फिर एक बार पढ़ा।

नहीं...इस खबर में सन्देह करने जैसा कुछ नहीं है। बात सच है और थोड़े से शब्दों में ही लिखा है... । प्रतिमा के चाचा ने चिटठी लिखी है।

प्रतिमा की माँ नहीं रहीं।
चाचा ने तार भेजने की बात सपने में भी नहीं सोची थी।
चिट्ठी में लिखा था :

"पिछली रात तुम्हारी माँ स्वर्ग सिधार गयीं। दो-चार दिन के बखार में ही वे हम सबको इस तरह छोड़कर चली जाएंगी, हमने कभी यह सोचा तक नहीं था। हम सभी तो अनाथ हो गये हैं। भैया नहीं थे, अब भाभी भी नहीं रहीं। अब ले-देकर तुम्हीं हमारे लिए सब कुछ हो। इसलिए पत्र पढ़ते ही चले आना और हमें धीरज बँधा जाना।"

शक्तिपद में बाद की दो-तीन आशीर्वादात्मक पंक्तियाँ पढ़ने का हौसला रह नहीं गया... । वह थोड़ी देर तक खड़ा रहा चुपचाप...क्या करे...क्या न करे...और ऐसी स्थिति में सिनेमा के पर्दे पर दौड़ने वाली तसवीरों की तरह ढेर सारी तसवीरें उसकी मन की आँखों के सामने तैर गयीं। ये तसवीरें सामने देखी हुई नहीं थीं...कल्पना में घूमने वाली तसवीरें थीं... । कलेजे को बींध जाने वाली इस खबर से प्रतिमा पर क्या बीतेगी और फिर शक्तिपद को किन-किन परेशानियों में से गुजरना पड़ेगा-उसकी एक धारावाहिक लेकिन बेतरतीब चित्र-शृंखला।

यह बताने की जरूरत नहीं कि मलेरिया से आक्रान्त विधवा सास की मौत की खबर से शक्तिपद को कोई खास झटका नहीं लगा था लेकिन प्रतिमा, जिसके कि मन-प्राण ही उसकी माँ में अटके हों, इस संवाद को सुनकर वह कैसा हंगामा खड़ा करेगी, यह सोचकर ही उसकी जान सूख रही थी।

उसके दिमाग में सबसे पहली जो बात आयी थी, वह थी दफ्तर की चिन्ता। अब आज तो दफ्तर जाना वैसे ही मुल्तवी हो गया। और यह बदनसीबी ही कही जाएगी कि आज ही पहली तारीख भी है। शक्तिपद के दफ्तर में एक ऐसा बेहदा नियम लागू है कि अगर कोई कर्मचारी पहली तारीख को न आए तो सात तारीख के पहले उसे पिछले महीने का वेतन नहीं मिलेगा। यह सब सोच-सोचकर उसकी रीढ़ में एक ठण्डी सनसनी-सी दौड़ गयी थी।
और इन सारी परेशानियों के बीच प्रतिमा को सँभालना।

प्रतिमा का मिजाज वैसे ही उखड़ा-उखड़ा रहता है। अब इसके साथ अपनी माँ का शोक उसे और भी तोड़ जाएगा। और यह सब देखकर तो उसकी हालत और भी पतली हो जाएगी।

प्रतिमा को माँ की मृत्यु का शोक। और वह भी आकस्मिक। इन सारी बातों पर न जाने क्या-क्या सोचते, विचार करते हुए इस भले आदमी की जैसे मति ही मारी गयी...कि वह क्या करे, क्या न करे ?

नहीं...अभी नहीं। अभी वह इस खबर के बारे में कुछ नहीं बताएगा। और इसके लिए अचानक जाकर समाचार देना सम्भव नहीं।

इससे तो अच्छा है कि वह चुपचाप खिसक जाए। वापस आकर जो होगा...सो होगा। यह कोई बात हुई भला...अभी इस समय जबकि ऐसी भाग-दौड़ मची हुई है। नहीं...शक्तिपद कहीं पागल तो नहीं हो गया। प्रतिमा की माँ के गुजर जाने की खबर पाकर भी शक्तिपद दफ्तर चला गया...और यह बात भी प्रतिमा को बताने वाली है नहीं?

ऐसा नहीं होगा।
तो फिर।

तो यह चिट्ठी जेब में डाल ले...कुछ इस तरह कि दफ्तर जाने की हबड़-तबड़ में उसने गलती से इसे जेब में रख लिया और जब घर लौटा और कमीज उतारने लगा तो...उस समय...
नहीं...यह भी बड़ी ज्यादती होगी...बात जम नहीं रही।

वर्धमान से आयी यह चिट्ठी पढ़कर और दिन भर जेब में रखकर पूरी निश्चिन्तता के साथ क्या दफ्तर में काम किया जा सकता है ? नहीं...यह तो और भी बड़ा अपराध होगा...जिसे माफ नहीं किया जा सकता।
पिछले कई दिनों से प्रतिमा वह पूछती रही थी कि इन दिनों चिट्ठी नहीं आ रही कोई।

काफी देर तक सोचते रहने के बाद...अचानक उसके दिमाग में एक बात कौंध गयी...यह हुई न बात...आखिर इतनी देर तक यह बात उसके दिमाग में क्यों नहीं आयी ? लो, इस बात का क्या सबूत है भला, एक डाकिया उसके हाथ में कोई चिट्ठी दे भी गया है या नहीं। यह डाकिया अक्सर बाहर से अन्दर खिड़की की तरफ चिठ्ठियाँ फेंक दिया करता है। आज भी वैसा ही करता...अगर शक्तिपद को उसने देखा नहीं होता। शक्तिपद आज अगर एक मिनट पहले घर से निकल गया होता तो ऐसी नौबत नहीं आती? फिर दुनिया भर की चिन्ताओं से उसे इस तरह जूझना न पड़ता।

चलो। शक्तिपद भी वैसा ही करेगा...बाहर वाली खिड़की की तरफ से हाथ बढ़ाकर चिट्ठी अन्दर फेंक देगा।

उसने जैसा सोचा था...वैसा करने के पहले उसने फिर एक बार अच्छी तरह सोच लिया। नहीं...लगता है इससे भी बात बनेगी नहीं। मोहल्ले में ढेर सारे लोग हैं. किसी ने आते-जाते देख लिया तो... । वे क्या सोचेंगे...और जब इस खबर के बारे में उन्हें पता चलेगा तो और बावेला मचेगा। वे सब क्या सोचेंगे? इससे तो अच्छा है कि वह खुद घर के अन्दर जाकर ही खिड़की के नीचे चिट्ठी डाल आए। यही ठीक रहेगा।

दवे पाँव...चुपचाप आगे बढ़ता हुआ शक्तिपद घर की बैठक के सामने चला आया। और फिर दम साधे खड़ा हो गया। इसी कमरे में तो डाकिया बाहर से चिट्ठियाँ फेंक जाता है।

प्रतिमा आखिर कहाँ है ? रसोईघर में होगी। करछल चलाने की आवाज आ रही है। साथ ही, मछली भूने जाने की सोंधी-सोंधी गन्ध। इसका मतलब है अभी...इधर...इतनी जल्दी नहीं आएगी।

उसने बहुत ही आहिस्ता से खिड़की के कोर्निश पर चिट्ठी और पत्रिका को रखा। पत्रिका के ऊपर ही यह चिट्ठी रहे। हाँ...ऐसे... । ठीक है। वर्ना छाया छवि पत्रिका देखते ही प्रतिमा सारा दुनिया-जहान भूल जाएगी...नीचे कुछ रखा है भी या नहीं, इसे उसकी कोई सुध भी नहीं रहेगी!

चिट्ठी ऊपर ही पड़ी रहे। जो कुछ लिखा है अपने सीने में सँजोये। अब उसमें जो भी अच्छी-बरी खबर है वह प्रतिमा को मिल ही जाएगी। एक हताश दत की तरह अपने कर्तव्य के बोझ से शक्तिपद को मुक्ति तो मिले। रोने-धोने और छाती कूटने का सारा हंगामा शक्तिपद की आँखों से ओझल ही रहे। शक्ति-पद जब दफ्तर से वापस लौटेगा तब तक बहुत कुछ सामान्य हो चुका होगा।

लेकिन इतनी सारी बातों को सोचते हए भी उसे इसमें कुछ ही सेकेण्ड लगे। चिन्ता तो हवा से भी अधिक तेज रफ्तार से चलती है।

'छाया-छवि' लिफाफे के ऊपर चिट्ठी रखकर जितनी खामोशी से शक्तिपद आया था उतनी ही खामोशी से वापस, बाहर चला गया। और घर से बाहर निकलकर उसने चैन की साँस ली...भरपूर।
आह...वह अपने आपको कितना हल्का महसूस कर रहा था। गनीमत थी कि दिमाग में एक बात तो सूझी।

लेकिन दफ्तर जाकर वह अपने को बड़ी बेचैनी के बीच पाता रहा। उसका मन अपराध के बोझ से भारी रहा। बार-बार उसके मन में यही आता रहा कि प्रतिमा अगर खुब रोती-पीटती रही, हाथ-पाँव पटकती रही तो बच्चे का क्या हाल होगा? हो सकता है दिन भर उसको दूध तक नसीब न हो। कौन देखेगा उसे ?

उसके मन में कई-कई बार विचार आया कि वह जल्द ही घर लौट जाएगा लेकिन क्यों...यह दलील जुटा न पाया। आखिर वह घर इतनी जल्दी क्यों आ गया? इस सवाल से बचने के लिए उसे आँख-कान मूंदकर दफ्तर में ही दिन काटना होगा।

उसने जो कुछ किया था...उसे भुगतना ही था। कोई चारा न था। भुनी हुई मछली को ठीक से रखकर और रसोईघर के दूसरे छोटे-मोटे काम निपटाकर प्रतिमा इधर आ गयी। उसका जी बेचैन था। शक्तिपद को दफ्तर गये काफी देर हो गयी थी। घर का बाहरी दरवाजा अब भी खुला होगा...गनीमत है बच्चा अब तक चुप था। दरवाजे की चिटखनी चढ़ाकर वह अन्दर लौट ही रही थी कि उसकी निगाह खिड़की पर रखी चिट्ठी और पत्रिका के लिफाफे पर पड़ी।...अच्छा...तो 'छाया-छवि' का नया अंक आ गया है ? इस हफ्ते तीन बड़ी अभिनेत्रियों के साथ पत्रिका के प्रतिनिधि साक्षात्कार ले रहे हैं...कई-कई मुद्दों पर।

कब आयी डाक ?
उस समय तो नहीं...जब शक्तिपद बाहर जाने के लिए कपड़े बदल रहे थे।

और लो...वर्धमान से भी चिट्ठी आ गयी है। लेकिन यह चिट्ठी चाचा जी ने क्यों लिखी है ? विजयादशमी के मौके पर ही वे हमें याद कर लेते हैं...बस । चाचा जी तो...कभी...माँ ठीक-ठाक हैं न...?
चिन्ता हवा से भी अधिक तेज रफ्तार से दौड़ती है।

चिट्ठी को हाथ में लेते-लेते ही उसने इतना कुछ सोच लिया था। और हाथ में उठाकर रखते-रखते ही उसने सारा कुछ एक साँस में पढ़ लिया था और दूसरे ही क्षण प्रतिमा चक्कर खाकर वहीं जमीन पर गिर पड़ी।
यह क्या...क्या हो गया।

पाँच पैसे का पोस्ट कार्ड आखिर ऐसी कौन-सी खबर के साथ पहुँचा ? माँ नहीं रही...प्रतिमा की माँ गुजर गयीं। और उसके चले जाने की खबर बस दो लाइनों में लिखी गयी इस चिट्ठी की मार्फत पहुँच गयी ?

प्रतिमा के माँ के गुजर जाने की खबर क्या वैसी ही साधारण है, जैसी कि आये दिन आने वाली चिट्ठियों में कुशल-मंगल दर्ज किये जाने वाले समाचार । उसे चुपचाप और अकेले यह जान लेना पड़ा कि उसकी माँ नहीं रहीं। दस मिनट पहले यह चिट्ठी नहीं आ सकती थी ? तब शक्तिपद भी इस बारे में जान पाता। प्रतिमा कितनी बुरी तरह शोक-सन्तप्त है, इसे देखने जानने वाला एक दर्शक । शक्तिपद पास होता तो वह अभी तक शोक में पागल प्रतिमा को साथ लेकर हावड़ा स्टेशन दौड़ पड़ता।

नहीं। अगर अभी किसी ट्रेन के रवाना होने का समय न होता तो वह ट्रेन का इन्तजार किये बिना दौड़कर जाती और टैक्सी बुला लाती। इस बारे में किसी की सलाह मानने का सवाल ही पैदा नहीं होता कि ट्रेन का इन्तजार कर लिया जाए। शक्तिपद भी इस बात पर राजी हो जाता। ऐसी हालत में जबकि प्रतिमा पर दुख का जैसा पहाड़ टूट पड़ा हो...शक्तिपद ऐसा पत्थर नहीं कि इस मामले में कोई कंजूसी करे? टैक्सी से उतरते ही वह माँ के बिछावन पर आंधी जा पड़ती और अब उसे चाचा-चाची...मौसी-बआ सभी सान्त्वना देते...सारे मोहल्ले के लोग उसे घेर लेते। माँ को गँवाकर प्रतिमा को कितना कष्ट हुआ है...इसे सभी देख लेते।

लेकिन यह क्या ? शोक-प्रदर्शन का सारा आयोजन धरा-का-धरा रह गया। वह जोर से चीत्कार कर उठे...उसका हदय हाहाकार कर उठे...एक बारगी फट पडे...ऐसी भी प्रेरणा नहीं रही कोई। अकेले...घर में पड़े-पड़े कहीं रोया-धोया जा सकता है भला !

बड़े लोग जो नहीं कर सकते हैं उसे छोटे बच्चे बड़ी आसानी से कर लेते हैं। तभी जोर-जोर से सारे पास-पड़ोस को सर पर उठाकर चिल्लाने लगा था दस महीने का खोकन। अभी-अभी तो वह बड़ी शान्ति से खेल रहा था अचानक यह क्या हो गया उसे ?

जब घर में कोई दूसरा न हो और बच्चा इस तरह चीख रहा हो तो वहाँ दौड़कर न जाने के सिवा चारा भी क्या है ? माँ की मौत की खबर मिलने के बावजूद।

वहाँ जाकर देखा तो पाया कि वहाँ एक काला चींटा है...जी-जान से चिपका है बेटे की सबसे छोटी-उँगली के पोर से। दस महीने के बच्चे के लिए यह काला चींटा किसी केंकड़े या बिच्छू से कम नहीं। बेटे को चुप कराने में उसे अपनी माँ की मौत का दुख भूल जाना पड़ा। और बच्चे के उनींदे हो जाने पर अचानक उसे लगा कि सारे घर में किसी चीज के जलने की बू फैल गयी है और तब प्रतिमा को याद आया कि शाम के समय रसोई बनाने की मेहनत बचाने के लिए इसी समय चूल्हे पर चने की दाल चढ़ा आयी थी। अच्छा ही हुआ, उस दाल का मुँह काला हो गया। बुझती हुई चूल्हे की आग भी बुरे वक्त में ही बदला लेती है।

दाल भले ही जल जाए लेकिन चूल्हे पर चढ़ी देगची भी जल जाए, ऐसा सोच लेने पर तो नहीं चलेगा। अभी पिछले दिनों चार-पाँच पुरानी साड़ियों के बदले उसने इसे खरीदा था।

बच्चे को गोद में लिये-लिये ही उसने देगची को नीचे उतारा और रसोईघर पर साँकल चढ़ाकर वह वापस चिट्ठी के पास ही बैठ गयी। उसे फिर हाथ में इस तरह उठा लिया जैसे कि और कोई बात उसमें पढ़ने से रह तो नहीं गयी ! और अचानक पता चलेगा कि प्रतिमा अब तक कुछ गलत ही पढ़ती रही।
लेकिन नहीं तो...कहीं कोई गलती नहीं थी।

प्रतिमा की माँ सचमुच गुजर चुकी हैं। वर्धमान के उस घर में और यहाँ-वहाँ हर जगह ढूँढ़ते रहने के बावजूद अब प्रतिमा उन्हें फिर कभी देख नहीं पाएगी। पिताजी कब के...बचपन में ही स्वर्ग सिधार गये उसे याद नहीं।...ले-देकर माँ ही उसके लिए सब कुछ थीं।
तो फिर...सारा कुछ खत्म हो गया।
प्रतिमा के जीवन का यह सबसे पहला और सबसे बड़ा शोक था और वह शान्तचित्त दीख रही थी।

अब थोड़ी देर में उसे रोज की तरह उठना होगा और अभी थोड़ी देर में ही महरी आएगी और जब बकरी का दूध लेकर धवाला आएगा, उन्हें इस बारे में बताना होगा। कम-से-कम महरी को तो बताना ही पड़ेगा कि उसकी जिन्दगी में कितनी बड़ी और तकलीफदेह घटना घट गयी है। अपनी ही जुबान से बताना होगा। न बताया जाए तो एक साधारण जन की तरह व्यवहार करते रहना पड़ेगा। और करते रहने पर बाद में मालूम हो जाने पर महरी भला क्या सोचेगी ? और इस दुखदायी समाचार को सुनकर महरी अवश्य ही प्रतिमा के शोक में सहानुभूति जताने आएगी। इस मौके का सुयोग लेकर ही वह बड़ी अन्तरंगता के नाते पसीज जाएगी और तब उसकी पीठ...कन्धे और माथे को भी सहला देगी। सचमुच, बड़ा ही असह्य है यह दुख। और इतना सब कुछ हो जाने के बाद शक्तिपद देखेगा कि माँ के मरने की खबर पाने के बाद भी प्रतिमा चल-फिर रही है...घर के तमाम काम कर रही है...बच्चे को दूध पिला रही है।

काफी रोने-धोने के बाद बच्चा अपनी माँ की गोद में सो गया था। प्रतिमा अभी भी बैठी है गुमसुम...सोये बच्चे को गोद में लिये।
समय बीतता चला गया...तीन बज गये होंगे। बकरी का दूध लाने वाले ने घण्टी बजायी होगी... । प्रतिमा भी मन में कुछ ठानकर ही उठ खड़ी हुई।

पता नहीं...डाकिया कब आया और चिट्ठी डाल गया। प्रतिमा कछ जान भी न पायी। वह तो बच्चे को सँभाल रही थी...उसे काले चींटे ने काट खाया था। यही वजह है कि घर-द्वार, दरवाजे-खिड़कियाँ...किसी भी तरफ देखने की उसे फुरसत तक नहीं मिली। इस बात की गवाह है यह पत्रिका 'छाया-छवि'...जिसका रैपर तक नहीं खोला गया। खिड़की के नीचे...ठीक जिस तरह डाकिया पत्र और पत्रिकाएँ फेंक जाया करता है, ठीक उसी तरह पत्रिका और चिट्ठी रखने के बाद प्रतिमा उठ खड़ी हो गयी। उसने एक छोटा-सा गिलास उठाया और दूधवाले से दूध लेने के लिए दरवाजा खोल दिया। दूध लेने के बाद उसने अभी-अभी रखी गयी दोनों चीजों की ओर ठहरकर देखा...चिट्ठी पत्रिका पास या ऊपर नहीं रखी है बल्कि पत्रिका इसके नीचे दबी रखी है...ठीक है...इसी तरह रहे। आने-जाने वालों की निगाह इन पर नहीं पड़े...ऐसा कहीं सम्भव है ? और चिट्ठी पर नजर पड़ते ही तो बेचैन या परेशान होना स्वाभाविक ही है...और तभी तो वर्धमान से चिट्ठी न आने की वजह पिछले दिनों से प्रतिमा सोचती रही थी।

और 'छाया-छवि ?' जैसी है...पड़ी रहे। ठीक ही है। बेटा जिस तरह सारे दिन सेरो-बिसूरकर परेशान करता रहा है...उसमें किसी सिने-पत्रिका के पन्ने उलटने तक की फुरसत मिल सकती है भला ?

प्रतिमा ने रसोईघर में अपने लिए खाना परोसकर रखा था...थाली में भात वैसे ही पड़ा था। महरी चिल्ला रही थी। प्रतिमा अब करे भी तो क्या ? दिन भर सिर-दर्द से वैसे ही परेशान रही है वह। सिर तक नहीं उठा पायी है। खाना कैसे खाती ! वह सारा भात महरी अपने बाल-बच्चों के लिए ले जाए। रोज की तरह चूल्हे में आग जलायी गयी। रात का खाना तैयार किया जाने लगा। शक्तिपद हल्की-हल्की आँच पर परवल और आलू की बारीक कटी भुजिया और इसके साथ गरमागरम पूड़ियाँ बहुत पसन्द करता था। आज वही बननी चाहिए। प्रतिमा को कुछ नहीं हुआ है...वह तो ठीक-ठाक ही है।।

घर के दरवाजे तक आकर शक्तिपद के पाँव ठिठक गये। अन्दर से रोने-धोने की आवाज तो नहीं आ रही ?

वह चौकन्ना खड़ा रहा यह सोचकर कि रोने की आवाज तो सुनने को मिलेगी ही। लेकिन उसे अपनी गलती का अहसास हआ। तो फिर क्या हआ ? कहीं प्रतिमा अपनी सनक या पिनक में वर्धमान तो नहीं चली गयी ?...नहीं...ऐसा होता तो घर का दरवाजा अन्दर से बन्द क्यों होता ? लेकिन ऐसी चुप्पी क्यों है भला ? क्या बेहोश पड़ी है?

क्या पता...प्रतिमा अन्दर बेहोश ही पड़ी हो? या फिर बच्चा नीचे गिर पड़ा हो और उसका सिर फट गया हो...। छी...छी...शक्तिपद ने आज सुबह-सुबह कैसी बेवकूफी की है!

शक्तिपद ने धीरे-धीरे दरवाजे की कुण्डी को खड़खड़ाया...पहले आहिस्ता-आहिस्ता और इसके बाद कुछ जोर से और फिर और जोर से...अबकी बार दरवाजा खुल गया। दरवाजा खोलने वाली खुद प्रतिमा थी।

आज इतनी देर हो गयी, प्रतिमा ने आम दिनों की तरह ही पूछा था।
देर हो गयी...।
हाँ...थोड़ी देर तो हुई थी शक्तिपद को...घर के अन्दर पाँव रखते हए उसे अपने अन्दर साहस बटोरने में थोड़ी देर हो गयी।
शक्तिपद की समझ में यह नहीं आया कि वह क्या जवाब दे। लेकिन इस बीच प्रतिमा ने एक दूसरा ही प्रसंग छेड़ दिया।

वह बोली, “आज जो घर में तमाशा हुआ है...पता है ? इधर तुम घर से दफ्तर को निकले और मैं भी रसोईघर में घुसी। यह सोचकर कि बाहर का दरवाजा बन्द कर दूँ...ठीक इसी समय मुन्ना जोर-जोर से चिल्ला उठा। मैं दौड़ी आयी...पता नहीं क्या हुआ ? ओ माँ...मेरी तो आँखें फटी-की-फटी रह गयीं। देखती हूँ कि एक बड़ा-सा काला चींटा इसके पाँव की उँगली से चिपका हुआ है, उसे काटता चला जा रहा है...छोड़ ही नहीं रहा है। थोड़ा-सा खून भी निकला। और तब से जो इसने रोना-धोना शुरू किया है, दिन भर रोता ही रहा है, पल भर को थमने का नाम ही नहीं ले रहा। में तो परेशान हो गयी। चारों तरफ देखो तो सही...घर-आँगन में झाड-पोंछा तक नहीं लगा। बालों में कंघी तक नहीं कर पायी...सारा कुछ अस्त-व्यस्त है।...इतनी देर बाद अब यह हँस-खेल रहा है।

शक्तिपद कहीं और खोया-खोया था, उस पर उसकी नजर नहीं थी। बरामदे की खिड़की के नीचे फर्श से उसकी आँखें जैसे गोंद की तरह चिपक गयी थीं। फिर तो शक्तिपद का सारा खेल ही बिगड़ गया ? ।
क्या अब भी वह वहीं पड़ी है? ठीक उसी हालत में? लेकिन यहाँ तो पत्रिका ही पड़ी है...चिट्ठी कहाँ है?

....चिट्ठी कहाँ है? इस बात की छान-बीन अभी नहीं की जा सकती। अचानक देखकर कोई उसे उठा ले, ऐसा कोई बच्चा भी घर में नहीं है। अभी तो मुन्ने और काले चींटे की काट-चाट का हंगामाखेज किस्सा बयान हो रहा है। और यही वजह थी कि उसे जल्दी से हाथ-मुँह धोकर मुन्ने को गोद में उठाकर प्यार करना पड़ा।

गरमा-गरम पराठे और उसकी मनभावन सब्जी ठण्डी हो जाएगी-प्रतिमा इस बात का डर भी उसे दिखाती रही। यह भी बताया कि काफी सारा खाना पड़ेगा वर्ना बनी-बनायी चीजें बर्बाद हो जाएंगी। उ

सने अनमने ढंग से कुछ उठा लेने के लिए इधर-उधर देखा...पता नहीं डाकिया किस तरफ से कुछ डाल गया हो...ऐसी ही बहानेबाजी के साथ। लेकिन यह सब भी वह प्रतिमा के पीठपीछे की करता रहा।
आखिर चिट्ठी कहाँ गयी ?
चिट्ठी के लिए इधर-उधर ताक-झाँक करते रहने और बाद में पत्रिका के हटाने पर उसे वह चिट्ठी दीख पड़ी।

आश्चर्य है। शक्तिपद ने तो इसे अपने हाथ से पत्रिका के ऊपर रख छोड़ा था। अगर यह किसी के हाथ न लगी तो फिर पत्रिका के नीच कैसे चली गयी? और चिट्ठी के कोने पर यह क्या लगा है...साफ नजर आ रहा है...कोई दाग है। लेकिन इन सारी बातों की तह तक जा पाने के लिए अभी समय नहीं है।

चिट्ठी को हाथ में लेकर शक्तिपद वहीं पत्थर की तरह जम गया, कुछ इस तरह कि मानो उस पर बिजली गिर पड़ी हो। वह भरे गले से चीख पड़ा-"अरी सुन रही हो...यह क्या है ? तुम्हारे चाचा ने यह सब क्या अनाप-शनाप लिख भेजा है ?"

प्रतिमा सामने आ खड़ी हुई...सहज भाव से...धीमे-धीमे चलती हुई। साधारण-सी जिज्ञासा थी उसके स्वर में, “अच्छा, वर्धमान से चिट्ठी आयी है...चाचाजी ने लिखी है...अचानक उन्हें हमारी कैसे याद आ गयी ? बताओगे भी कि क्या लिखा है...? अरे तुम चुप क्यों खड़े हो ? बताओ तो सही कि क्या लिखा है ? सुना नहीं...तुमने ?"
प्रतिमा ने ये सारे सवाल कुछ इस तरह किये मानो शक्तिपद कोई अनपढ़ हो।

शक्तिपद वहीं जमीन पर ढेर हो गया। उसने हाथों से माथा पकड़कर हाँफते-हाँफते कहा, "जो कुछ लिखा है उसे पढ़कर विश्वास नहीं होता...सच...यह मुमकिन है...नहीं।"

प्रतिमा भी बुरी तरह सहम गयी और जमीन पर बैठ गयी फिर कातर भाव से चीख उठी, “साफ-साफ कहो न । मैं तो कुछ भी समझ नहीं पा रही। मेरी माँ को कुछ हो-हवा तो नहीं गया ?"

"हाँ...प्रतिमा," शक्तिपद ने बड़े दुखी और रुंधे स्वर में कहा. “माँ...हमारी माँ हमें अनाथ कर चली गयीं।" शक्तिपद सचमच काँप रहा था और गहरी उसाँस भर रहा था।

इधर कलेजा दहला देने वाली चीत्कार के साथ जैसे आसमान हिलाती हुई प्रतिमा रोने-चीखने लगी, “यह तुमने क्या सुनाया...मुझे। बिना बदली के यह कैसी बिजली गिरी...हम पर...हाँ...।"

इस चीत्कार के साथ ही, प्रतिमा चक्कर खाकर गिर पड़ी। और गिरे भी क्यों नहीं। पूरे दिन भर तो वह बेहोशी की ही हालत में पड़ी थी। शक्तिपद उसके मुँह पर सुराही का ठण्डा पानी छिड़कता रहा और बार-बार यही सोचता रहा कि चिट्ठी जिस जगह पर रखी थी...वहाँ से दूसरी जगह कैसे चली गयी ?

चिट्ठी के एक कोने में हल्दी का दाग भी लगा था...अँगूठे का, एकदम साफ तौर पर...।

(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)