शेष प्रश्न (बांग्ला उपन्यास) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

Shesh Prashna (Bangla Novel in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay

1

विभिन्न समयों में विभिन्न कार्यों से बहुत से बंगाली परिवार मुसाफिरों का झुण्ड आता-जाता रहता है - अमेरिकन टूरिस्टों (भ्रमण करने वालों) से लेकर वृन्दावन से लौटे वैष्णवों तक की भीड़ बनी ही रहती है - किसी को किसी बात की उत्सुकता नहीं, दिन के काम-धन्धों में दिन खत्म हो जाता है। इतने में एक प्रौढ़ अवस्था के बंगाली साहब अपनी शिक्षिता, सुरूप और पूर्ण यौवना कन्या के साथ यहाँ आये, और स्वास्थ्य-उद्धार के निमित्त शहर के एक किनारे बड़ा भारी मकान किराये पर लेकर रहने लगे। उनके साथ बैरा, बावर्ची, दरबान आये; नौकर-नौकरानी, ब्राह्मण-रसोइया, गाड़ी-घोड़े, मोटर, शोफर, साईस, कोचवान वगैरह सभी आये, और इतने दिनों से खाली पड़ा हुआ इतना बड़ा मकान देखते-देखते जैसे जादू कर दिया गया हो, इस तरह रातों-रात आबाद हो गया। उन महाशय का नाम आशुतोष गुप्त था और कन्या का मनोरमा। बहुत ही आसानी से समझ में आ गया कि ये लोग बड़े आदमी हैं। परन्तु ऊपर जिस चांचल्य का उल्लेख किया है, वह इनकी धन-सम्पत्ति के परिणाम की कल्पना करके या मनोरमा की शिक्षा और रूप की ख्याति के कारण इतना नहीं हुआ, जितना कि आशु बाबू के निरभिमान, सरल और शिष्ट आचरण से। वे ख़ुद लड़की को साथ लेकर शहर आये और तलाश कर-करके सबके घर मुलाकात करने गये। बोले, ”हम बीमार आदमी हैं, आप लोगों के अतिथि हैं, इसलिए, आप लोग अपनी उदारता से अगर कृपा करके हम प्रवासियों को अपने दल में शामिल नहीं कर लेंगे तो हमारे लिए यह निर्वासनकाल काटना एक तरह से असम्भव हो जायेगा।” मनोरमा घरों के भीतर जा-जाकर स्त्रिायों से परिचय कर आयी। उसने भी अस्वस्थ पिता की तरफ़ से निवेदन किया कि आप लोग हमें गैर न समझें। तथा इस तरह की और भी बहुत-सी रुचिकर मीठी बातें कहीं।

सुनकर सब ही खुश हुए। तब से आशु बाबू की गाड़ी और मोटर जब-तब और जिस-तिस के घर जाने-आने लगी; और मर्द-औरतों को घर से लाने और घर पहुँचाने लगी। बातचीत, हँसी-मज़ाक, गाना-बजाना और देखने लायक चीज़ें बार-बार देखने की दिलचस्पी ऐसी जमने लगी कि इस बात को भूलने में किसी को भी एक सप्ताह से ज़्यादा समय नहीं लगा कि ये लोग परदेशी या बहुत बड़े आदमी हैं। मगर एक बात, शायद कुछ संकोचवश और कुछ व्यर्थ-सी समझकर किसी ने स्पष्ट तौर से नहीं पूछी कि आप लोग सनातनी हैं या ब्रह्मसमाजी। और परदेश में, इसकी ऐसी कोई बड़ी ज़रूरत भी नहीं होती। फिर भी आचार-व्यवहार से जितना समझा जा सकता है, सबने एक तरह से समझ लिया था कि ये हों चाहे किसी भी समाज के, पर अधिकांश उच्च शिक्षित, उच्च बंगाली परिवारों के समान कम से कम खाने-पीने के विषय में इनके कोई भेदभाव नहीं है। यह बात सबको मालूम न होने पर भी कि घर में मुसलमान बावर्ची है, इतना सब समझ गये कि इतनी उमर तक जिन्होंने लड़की कुँआरी रखकर कालेज में पढ़ाया है, वे असल में किसी भी समाज के क्यों न हों, अनेक तरह की संकीर्णताओं से छुटकारा पा चुके हैं।

अविनाश मुखर्जी कालेज का प्रोफेसर है। बहुत दिन हुए उसकी स्त्री का देहान्त हो गया है - फिर उसने ब्याह नहीं किया। घर में दस साल का एक लड़का है। अविनाश कालेज में पढ़ाता है और मित्र-दोस्तों के साथ आनन्द करता फिरता है। आर्थिक स्थिति अच्छी है - निश्चिन्त और शान्तिमय जीवन है। दो साल पहले विधवा साली मलेरिया बुख़ार से पीड़ित होकर आब-हवा बदलने बहनोई के घर आयी थी। बुख़ार ने छोड़ दिया, पर बहनोई ने नहीं छोड़ा। फिलहाल वही घर की मालकिन है। लड़के की देखभाल करती है, घर-गृहस्थी सँभालती है। मित्र लोग सम्बन्ध की आलोचना करके मजाक उड़ाते हैं। अविनाश हँस देता है; कहता है - ”भाई व्यर्थ में शर्मिन्दा करके अब न जलाओ। तक़दीर है तक़दीर! नहीं तो, कोशिश करने में तो कोई कसर रखी नहीं। अब सोचता हूँ, धन की बदनामी से डकैत मार डालें, सो भी मेरे लिए अच्छा है।”

अविनाश अपनी स्त्री को बहुत ज़्यादा चाहता था। मकान भर में सर्वत्र नाना आकार और नाना भंगिमाओं के उसके फ़ोटोग्राफ़ टँगे हुए हैं। सोने के कमरे में एक बड़ी तस्वीर टँगी हुई है। ऑईल पेण्टिंग है; क़ीमती फ्रेम में मढ़ी हुई। अविनाश हर बुधवार को सबेरे उस पर माला लटका देता है। इस दिन उसकी मृत्यु हुई थी।

अविनाश सदा आनन्दित किस्म का आदमी है। ताश-चौपड़ में उसकी अत्यधिक आसक्ति है। इसी से छुट्टी के दिन उसके घर लोगों का खूब समागम होता है। आज किसी त्योहार की वजह से कालेज-कचहरी बन्द हैं। खाने-पीने के बाद प्रोफ़ेसरों का झुण्ड आ धमका है। दो आदमी नीचे की गद्दी पर शतरंज बिछाये बैठे हैं, और दो आदमी औंधे लेटकर उसे देख रहे हैं; बाकी के सब लोग डिप्टी और मुन्सिफ की विद्या-बुद्धि की स्वल्पता के अनुपात में मोटी तनख़ा की नाप-तौल करके उच्च कोलाहल के साथ गवर्नमेण्ट के प्रति ‘राइचुअस इण्डिग्नेशन’ और अश्रद्धा प्रकट करने में लगे हुए हैं। इतने में एक भारी-भरकम मोटरकार दरवाजे पर आ लगी। दूसरे ही क्षण अपनी कन्या के साथ आशु बाबू के भीतर प्रवेश करते ही सबने सम्मान के साथ उनका स्वागत किया। ‘राइचुअस इण्डिग्नेशन’ पानी हो गया और गद्दी का शतरंज का खेल फ़िलहाल स्थगित कर दिया गया। अविनाश ने हाथ जोड़कर कहा, ”मेरा परम सौभाग्य है कि आप लोगों के पाँवों की धूल इस घर में पड़ी। - पर अचानक असमय कैसे आना हुआ?” इतना कहकर मनोरमा के लिए उसने एक कुरसी आगे बढ़ा दी।

आशु बाबू पास की आराम-कुर्सी पर अपने शरीर का विपुल भार रखते हुए अकारण उच्च हास्य से कमरे को गुंजायमान करके बोले - आशु वैद्य (बंगालियों की एक जाति विशेष) के लिए असमय? मेरी ऐसी बदनामी तो मेरे छोटे चाचा भी नहीं कर सके अविनाश बाबू!

मनोरमा हँसती हुई सिर झुकाकर बोली - कह क्या रहे हो पिताजी? आशु बाबू ने कहा - तो जाने दो छोटे चाचा की बात। कन्या को आपत्ति है, लेकिन इससे बढ़कर कोई अच्छा उदाहरण बिटिया के बाप की भी ताकत नहीं कि दे सके। इतना कहकर उन्होंने अपनी रसिकता से आनन्दोच्छ्वास के द्वारा फिर घर फाड़ डालने की तैयारी की। हँसी रुकने पर बोले - ”मगर क्या कहूँ साहब, गठिया से पंगु हूँ। नहीं तो जिन चरणों की धूल का आपने इतना गौरव बढ़ा दिया है, आशु गुप्त के उन्हीं पाँवों की धूल बुहारने के लिए आपको एक नौकर रखना पड़ता अविनाश बाबू! लेकिन आज बैठने का वक़्त नहीं, अभी जाना होगा।”

इस अवकाशाभाव के कारण के लिए सभी उनके मुँह की ओर देखने लगे। आशु बाबू ने कहा - एक निवेदन है। मंजूर कराने के लिए बिटिया तक को घसीट लाया हूँ। कल भी छुट्ठी का दिन हैं शाम के बाद घर पर ज़रा गाने-बजाने का आयोजन किया है। सपरिवार पधारना होगा। उसके बाद ज़रा मुँह मीठा -

लड़की से बोले - मणि, भीतर जाकर ज़रा आज्ञा ले आओ बेटी। देर करने से काम न चलेगा। एक बात और है भाई, यंग फ्रेण्ड्स, स्त्रिायों के लिए न सही, हम मरदों के लिए दोनों तरह के खाने-पीने की व्यवस्था की गई है, यानी समझिए - प्रेजुडिस् अगर न हो तो - समझ गये न?

सभी समझ गये, और एक स्वर से सभी ने प्रकट कर दिया कि उन लोगों को कोई प्रेजुडिस नहीं है।

आशु बाबू ने खुश होकर कहा - नहीं ही होना चाहिए। लड़की से कहा - मणि खाने के सम्बन्ध में माँ-लक्ष्मियों से भी राय ले आनी है, यह न भूल जाना। हर एक के घर जाकर लोगों की अभिरुचि जानने और आज्ञा लेकर घर लौटने तक शायद आज हम लोगों को शाम हो जायेगी। ज़रा जल्दी काम खत्म कर आओ बेटी।

मनोरमा भीतर जाने के लिए उठना ही चाहती थी कि अविनाश कह उठे - हमारा घर तो, बहुत दिन हुए सूना हो गया है। मेरी साली हैं, पर वे विधवा हैं, गाना सुनने का शौक काफ़ी है, इसलिए जायेगी ज़रूर। लेकिन खाना -

आशु बाबू झट से बोल उठे - उसकी भी कमी न होगी अविनाश बाबू, हमारी मणि जो है। मांस-मछली, प्याज़-लहसुन तो यह छूती तक नहीं।

अविनाश ने आश्चर्य के साथ पूछा - ये मांस-मछली नहीं खातीं?

आशु बाबू ने कहा - खाती सब कुछ थी, लेकिन दामाद साहब की इच्छा नहीं - वे ज़रा कुछ संन्यासी ढंग के आदमी हैं - “

क्षण भर में मनोरमा का चेहरा सुर्ख़ हो उठा। वह पिता की असमाप्त बात में बाधा देकर बोली - तुम यह सब क्या कहे जा रहे हो बाबूजी!

पिता अप्रतिभ-से हो गये, पर कन्या के कण्ठ स्वर की स्वाभाविक मृदुता उसके भीतर की तिक्तता को छिपा न सकी।

इसके बाद फिर बातचीत जमी नहीं; और भी दो-चार मिनट जो ये लोग बैठे रहे, उस बीच आशु बाबू तो बात करते रहे, पर मनोरमा कुछ अन्यमनस्क रही। इन दोनों के चले जाने पर कुछ देर के लिए सभी के मन के ऊपर जैसे एक अपिय्र विषाद का भार लदा रहा।

मित्रों में से किसी से किसी ने भी स्पष्ट कुछ नहीं कहा, मगर सभी सोचने लगे कि सहसा एक दामाद साहब कहाँ से आ धमके? आशु बाबू के कोई लड़का नहीं, मनोरमा ही एकमात्र सन्तान है; इस बात को सभी जानते थे। मनोरमा आज तक कुँआरी है - नवविवाहिता या सधवा का कोई चिह्न उसमें मौजूद नहीं है। बात स्पष्ट तौर से पूछकर किसी ने जान लेना नहीं चाहा था, पर इस विषमय संशय की हवा भी तो किसी के मन तक नहीं फटकी थी। तो फिर?

मगर फिर भी, ये संन्यासी ढंग के दामाद साहब चाहे जो हों और चाहे जहाँ हों, मामूली आदमी नहीं हैं। कारण, उनकी मनाही नहीं, सिर्फ़ अनिच्छा के ज़ोर से ही इतने बड़े विलासी और ऐश्वर्यशाली व्यक्ति की एकमात्र शिक्षिता कन्या का मांस-मछली और प्याज़-लहसुन खाना एकबारगी बन्द हो गया है।

इसमें शरमाने और छिपाने की कौन-सी बात है? पिता मारे संकोच के जड़ हो गये, कन्या चेहरा सुर्ख़ करके स्तब्ध हो रही, सारा मामला सबके मन में मानो एक अवांछित और अप्रिय रहस्य की तरह चुभकर रह गया और आगन्तुक परिवार के साथ मिलने-जुलने की जो सहज और स्वच्छन्द धारा बह रही थी, मानो उसमें अकस्मात एक बाधा-सी आ पड़ी।

2

मालूम तो ऐसा हुआ था कि शायद आशु बाबू शहर के किसी को भी नहीं छोड़ेंगे, लेकिन देखा गया कि बंगालियों में जो विशिष्ट लोग हैं, वे ही निमन्त्रिात हुए हैं। प्रोफ़ेसरों का दल गिरोह बाँधकर आ पहुँचा और उनके घर की स्त्रिायों को पहले से ही मोटर भेजकर बुला लिया गया है।

एक बड़े कमरे के फ़र्श पर लम्बा-चौड़ा कीमी कारपेट बिछाकर लोगों के बैठने के लिए जगह की गयी है। उस पर दो-तीन देशी उस्ताद बैठे साज़ का स्वर बाँध रहे हैं। बहुत से बच्चे उन्हें घेरे बैठे हैं। घर के मालिक साहब अन्यत्र कहीं थे, खबर पाते ही दौड़े आये, और दोनों हाथ उठाकर थियेट्रिकल ढंग से बोले - स्वागत सज्जनगण! मोस्ट वेलकम!

फिर उस्तादों को इशारे से दिखलाकर और आँख मिचकाकर धीमे स्वर से बोले - डरने की कोई बात नहीं। सिर्फ़ इन्हीं लोगों की म्याँऊ-म्याँऊ सुनने के लिए ही आप लोगों को निमन्त्रण देकर नहीं बुलाया है। ऐसा गाना सुनायेंगे कि मुझे आप लोग आशीर्वाद देते हुए घर लौटेंगे।

सुनकर सभी खुश हुए। सदा प्रसन्न अविनाश बाबू का चेहरा आनन्द से चमक उठा। बोले - कहते क्या हैं आशु बाबू? इस अभागे देश के तो सभी लोगों को मैं जानता हूँ, अकस्मात यह रत्न पा कहाँ से गये?

आविष्कार किया है साहब, आविष्कार किया है। आप लोग भी बिल्कुल ही न पहचानते हों, सो बात नहीं है - अब शायद भूल गये होंगे। चलिए, दिखाता हूँ।”

अपनी बैठक का परदा हटाकर सबको वे एक तरह से ढकेलते हुए ही भीतर ले गये। आदमी तो कुछ साँवले रंग का है, पर रूप का अन्त नहीं। जैसा लम्बा छरहरा शरीर, वैसा ही सारे अवयवों का निर्दोष गठन। नाक, आँखें, भौंहें, ललाट, अधरों की तिरछी रेखा तक सारी विशेषताएँ एक ही मानव-शरीर में सुविन्यस्त हो चुकने पर वह कैसी विस्मय की वस्तु हो जाती है, यह बात उस आदमी को बग़ैर देखे कल्पना नहीं की जा सकती। देखते ही सहसा दंग रह जाना पड़ता है। उमर शायद बत्तीस के आस-पास पहुँची होगी, मगर पहले वह और भी कम मालूम होती है। सामने के सोफ़े पर बैठे वे मनोरमा से बात कर रहे थे, अब सीधे होकर बैठ गये और मुस्कराकर बोले - आइए।

मनोरमा ने उठकर आगन्तुक अतिथियों को नमस्कार किया परन्तु अकस्मात सब ऐसे विचलित हो उठे कि प्रति नमस्कार की बात भी किसी के मन में न आयी। अविनाश बाबू उमर में भी बड़े थे और कालेज के लिहाज से पद-गौरव में भी श्रेष्ठ थे। सबसे पहले उन्होंने बात की। बोले - आगरे कब लौटे शिवनाथ बाबू? बहरहाल, हम लोगों को तो खबर भी नहीं लगी।

शिवनाथ ने कहा - ”नहीं मिली? आश्चर्य है!“ और फिर मुस्कराकर बोले - मैं नहीं समझता था अविनाश बाबू कि मेरे आने की बाट देखते हुए आप लोग इतने उद्विग्न हो रहे थे।

उत्तर सुनकर अविनाश बाबू ने यद्यपि हँसने की कोशिश की, किन्तु उनके सहयोगियों के चेहरे क्रोध से भीषण हो उठे। किसी भी कारण से हो, ये लोग पहले से ही इस प्रियदर्शन गुणी व्यक्ति से प्रसन्न नहीं हैं। यह बात आभास से मालूम होने पर भी एकाकी इस वक्रोक्ति के भीतर से और सबकी कठिन मुखच्छवि की व्यंजना से इतनी कटु, अप्रिय और स्पष्ट हो उठी कि सिर्फ़ मनोरमा और उसके पिता ही नहीं बल्कि सदानन्द-प्रकृति के अविनाश तक लज्जित हो गये।

परन्तु मामला आगे नहीं बढ़ पाया, यहीं रुक गया।

बग़ल के कमरे से उस्तादजी की आवाज़ सुनाई दी और दूसरे ही क्षण घर के ग़ुमाश्ते ने आकर विनय के साथ कहा, सब तैयार है, सिर्फ़ आप लोगों के पहुँचने भर की देर है।

पेशेवर उस्तादों का संगीत साधारणतः जैसा हुआ करता है, यहाँ भी वैसा ही हुआ, विशेषताहीन मामूली। मगर कुछ देर बाद इस छोटी-सी संगीत सभा में थोड़े से श्रोताओं के बीच शिवनाथ का गाना सचमुच ही अपूर्व सुनाई दिया। सिर्फ़ उसका अतुलित, अनवद्य कण्ठस्वर नहीं, वास्तव में वह इस विद्या में असाधारण सुशिक्षित और पारदर्शी है। उसके गाने का आडम्बर-शून्य संयत ढंग, स्वर की स्वच्छन्द सरल गति, चेहरे पर अदृष्टपूर्व भावों की छाया, आँखों की अभिभूत उदासीन दृष्टि, सब बातों ने एक ही समय में केन्द्रीभूत होकर सर्वांगीण लय और तान से परिशुद्ध जब वह संगीत समाप्त किया तब मालूम हुआ कि श्वेतभुजा ने अपने दोनों हाथ खाली करके सारा का सारा आशीर्वाद इस साधक के माथे पर उड़ेल दिया है।

कुछ देर तक सभी लोग वाक्यहीन स्तब्ध हो रहे, सिर्फ़ वृद्ध अमीर खाँ ने धीरे से कहा - ऐसा कभी नहीं सुना!

मनोरमा को बचपन से ही गाने-बजाने का शौक है। संगीत में वह अपटु नहीं थी। अपने छोटे से जीवन में उसने बहुत-कुछ सुना है, लेकिन यह बात उसे नहीं मालूम थी कि संसार में ऐसी चीज़ भी मौजूद है और संगीत के छन्द-छन्द की कसक हृदय के भीतर इस तरह भी उठ सकती है। उसकी दोनों आँखें भर आयीं और उसे छिपाने के लिए मुँह फेरकर वह चुपचाप उठकर चली गयी।

अविनाश ने कहा - शिवनाथ गाने को जल्दी तैयार नहीं होता, उसका गाना हम लोगों ने पहले भी सुना है लेकिन उसकी इससे कोई तुलना ही नहीं हो सकती। इस साल-भर के अन्दर तो उसने इनफिनिट्ली इम्प्रूव’ किया है।

हरेन्द्र ने कहा - हाँ।

अक्षय इतिहास के अध्यापक हैं। कठोर सच्चे आदमी के रूप में मित्र-मण्डली में उनकी ख्याति है। गाना-बजाना अच्छा लगना उनके मत से मन की कमज़ोरी है। वे निष्कलंक साधु आदमी हैं। इसी से सिर्फ़ अपने ही नहीं, दूसरों की चरित्र-सम्बन्धी पवित्रता के प्रति भी उनकी अत्यन्त सजग तीक्ष्ण दृष्टि है। शिवनाथ के अकस्मात वापस लौट आने के कारण शहर की आबहवा फिर से कलुषित न हो जाय, इस आशंका से उनकी गम्भीर शान्ति क्षुब्ध हो गयी है। ख़ासकर इस बात की सम्भावना से उनका मन बहुत उद्विग्न हो उठा कि घर में औरतें आ गयी हैं, वे भी परदे की ओट से गाना सुनेंगी, चेहरा देखेंगी, और वह उन्हें भी प्रीतिकर लगेगा। वे बोले - गाना तो सुना था मधु बाबू का! यह गाना आप लोगों को चाहे जितना भी मीठा लगा हो, पर इसमें प्राण नहीं है!

सब चुप रहे। कारण एक तो अज्ञात मधु बाबू का गाना किसी ने सुना नहीं था और दूसरे गाने में प्राण रहने न रहने की सुनिर्दिष्ट धारणा अक्षय की तरह और किसी को स्पष्ट नहीं थी। गुण-मुग्ध आशु बाबू उत्तेजनावश तर्क करने को तैयार थे, पर अविनाश ने आँखों के इशारे से उन्हें रोक दिया।

संगीत ही के विषय में आलोचना होने लगी। कब, किसने, कहाँ, कैसा गाना सुना था, उसकी व्याख्या और वर्णन किया जाने लगा। बातों ही बातों में रात बढ़ने लगी। भीतर से ख़बर आयी कि सब औरतें भोजन कर चुकीं, और उन्हें घर भेजा जा रहा है। वृद्ध सब - जज साहब रात हो जाने की वजह से घर चल दिए और अजीर्ण रोगग्रस्त मुन्सिफ़ साहब भी जल और पान मात्र मुँह में देकर उनके साथी हुए। रह गया सिर्फ़ प्रोफ़ेसर-दल। क्रमशः उनकी भी भोजन के लिए बुलाहट हुई। ऊपर के खुले बरामदे में आसन बिछाकर पत्तलें लगायी गयी हैं, सबके साथ आशु बाबू भी बैठ गये। मनोरमा औरतों की तरफ़ से छुट्टी पाकर देखरेख के लिए आ पहुँची।

शिवनाथ को भूख भले ही हो, पर खाने में रुचि नहीं थी। वह बिना खाये ही घर लौटने को तैयार था; मगर मनोरमा ने किसी भी तरह उसे छोड़ा नहीं, कह-सुनकर सबके साथ बिठा दिया। आयोजन बड़े आदमियों जैसा ही था, इस बात का विस्तार के साथ वर्णन करके कि रेल में आते वक़्त टुण्डला में शिवनाथ के साथ कैसे आशु बाबू का परिचय हुआ और मात्र दो दिन की बातचीत से कैसे वह परिचय घनिष्ठ आत्मीयता में परिणत हो गया, आशु बाबू ने अपना कृतित्व प्रमाणित करने के लिए कहा - और, सबसे बढ़कर ख़ूबी है मेरे कानों की। इनके गले की अस्फुट मामूली सी गंुजन ध्वनि से ही मैं निश्चित समझ गया कि कोई गुणी पुरुष, असाधारण व्यक्ति है। - इतना कहकर उन्होंने कन्या को साक्षी के तौर पर बुलाकर कहा - ”क्यों बेटी, कहा नहीं था तुमसे, शिवनाथ बाबू भारी गुणी आदमी हैं? कहा नहीं था मणि, इनके साथ जान-पहचान होना जीवन में एक सौभाग्य की बात है?”

लड़की का चेहरा मारे आनन्द के दीप्त हो उठा, बोली - हाँ बाबूजी, तुमने कहा था। तुमने गाड़ी से उतरते ही मुझे बताया था कि -

मगर देखिए आशु बाबू -

वक़्ता थे अक्षय। सब चकित हो गये। अविनाश ने व्यग्र होकर रोकने की कोशिश की - ओ हो, रहने दो आज यह सब चर्चा -

अक्षय ने आँखें मींचकर आँखों के लिहाज की बला टालकर कई बार सिर हिलाया और कहा - नहीं अविनाश बाबू, दबाने से काम नहीं चलेगा। शिवनाथ बाबू की सारी बातें प्रकट कर देना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। आप -

ओ हो हो - करते क्या हो अक्षय, कर्तव्य का ज्ञान तो हम लोगों को भी है साहब - और किसी दिन देखा जायेगा - इतना कहकर अविनाश ने उसे एक धक्का देकर रोकने की कोशिश की, पर सफलता नहीं मिली। धक्के से अक्षय का शरीर हिल गया, पर कर्तव्यनिष्ठा नहीं हिली। बोले - आप लोग जानते हैं कि व्यर्थ का संकोच मेरे में नहीं है। अनीति को प्रश्रय मैं दे ही नहीं सकता।

असहिष्णु हरेन्द्र बोल उठा - अरे, सो क्या हम भी प्रश्रय देना चाहते हैं? लेकिन उसके लिए क्या कोई स्थान-काल नहीं?

अक्षय ने कहा - नहीं। ये अगर इस शहर में फिर से न आते, अगर उच्च परिवार से घनिष्ठता बढ़ाने की कोशिश न करते, ख़ासकर कुमारी मनोरमा का अगर कोई सम्बन्ध न होता -

उद्वेग के कारण आशु बाबू व्याकुल हो उठे और अज्ञात आशंका से मनोरमा का चेहरा फीका पड़ गया।

हरेन्द्र ने कहा - इट इज़ टू मच!

अक्षय ने ज़ोर के साथ प्रतिवाद किया - नो, इट इज़ नॉट!

अविनाश बोल उठे - ओ हो - कर क्या रहे हो तुम लोग!

अक्षय ने किसी बात पर ध्यान ही नहीं दिया। बोले - आगरे में ये भी किसी समय प्रोफ़ेसर थे। इन्हें आशु बाबू को बतलाना चाहिए था कि कैसे वह नौकरी छूटी।

हरेन्द्र ने कहा - अपनी इच्छा से छोड़ दी। पत्थर का कारोबार करने के लिए।

अक्षय ने खण्डन किया - झूठी बात है।

शिवनाथ चुपचाप भोजन कर रहा था, मानो इस वितण्डा-वाद से उसका कोई सम्बन्ध ही न हो। अब उसने मुँह उठाकर देखा और अत्यन्त स्वाभाविक भाव से कहा - बात तो झूठी ही है। कारण, प्रोफ़ेसरी अपनी इच्छा से नहीं छोड़ता तो दूसरों की यानी आप लोगों की इच्छा से छोड़नी पड़ती। और सो ही हुआ।

आशु बाबू ने आश्चर्य के साथ पूछा - क्यों?

शिवनाथ ने कहा - शराब पीने की वज़ह से।

अक्षय ने इस बात का प्रतिवाद किया - नहीं शराब पीने के कसूर पर नहीं, मतवाले होने के क़सूर से।

शिवनाथ ने कहा - जो शराब पीता है, वही तो कभी-न-कभी मतवाला होता है। जो नहीं होता, वह या तो झूठ बोलता है, या शराब के बदले पानी पीता है। कहकर वह हँसने लगा।

अक्षय मारे क्रोध के कठोर हो उठा। बोला - निर्लज्ज की तरह आप हँसना चाहे तो हँस सकते हैं। मगर इस कसूर को हम लोग माफ़ नहीं कर सकते।

शिवनाथ ने कहा - आप माफ कर सकते हैं। ऐसा दोष मैं लगा नहीं सकता। इस सत्य को मैं स्वीकार करता हूँ कि स्वेच्छा से मुझसे नौकरी छुड़ाने के लिए आप लोगों ने स्वेच्छा से काफ़ी परिश्रम किया था।

अक्षय ने कहा - तो आशा है कि और भी एक सत्य आप इसी तरह स्वीकार कर लेंगे। आपको शायद मालूम नहीं कि हम लोग आपकी बहुत-सी बातें जानते हैं।

शिवनाथ ने गर्दन हिलाकर कहा - नहीं, मुझे नहीं मालूम। फिर भी इतना अवश्य जानता हूँ कि औरों के विषय में आपका कुतूहल जैसा अपरिसीम है, दूसरों की बात जानने का अध्यवसाय भी वैसा ही विपुल है। क्या स्वीकार करना होगा, फरमाइए?

अक्षय ने कहा - आपकी स्त्री मौजूद है। उसे छोड़कर आपने फिर ब्याह किया है। सच है या नहीं?

आशु बाबू सहसा गुस्सा हो पड़े - आप यह सब क्या कह रहे हैं अक्षय बाबू? ऐसा भी कहीं हुआ है या हो सकता है?

शिवनाथ खुद ही बीच में टोककर बोले - पर ऐसा ही हुआ है आशु बाबू। उन्हें छोड़कर, मैंने फिर से ब्याह किया है।

कहते क्या हैं? क्या हुआ था?

शिवनाथ ने कहा - विशेष बात नहीं। वे हमेशा बीमार रहती हैं, उमर भी तीस हो चली। औरतों के लिए इतना ही काफ़ी है। उस पर लगातार बीमारी भुगतने के कारण दाँत गिर गये, बाल पक गये, बिल्कुल बूढ़ी हो गयी हैं। इसीलिए उन्हें छोड़कर दूसरा ब्याह करना पड़ा।

आशु बाबू विह्नल दृष्टि से उसके चेहरे की तरफ़ देखते रह गये - ऐं! सिर्फ़ इसलिए? उनका और कोई अपराध नहीं?

शिवनाथ ने कहा - नहीं। कोई झूठा दोष लगाने से लाभ ही क्या है आशु बाबू? - उसकी इस निर्मल सत्यवादिता से अविनाश मानो पागल हो उठा - लाभ ही क्या है आशु बाबू! पाखण्डी कहीं के! तुम्हारा लाभ-नुकसान चूल्हे में जाए, एक बार झूठ ही बोल जाते कि उसने गम्भीर अपराध किया था, इसी से उसे छोड़ दिया है। एक झूठ से तुम्हारा पाप नहीं बढ़ जाता!

शिवनाथ गुस्सा नहीं हुआ। सिर्फ़ इतना ही बोला - मगर इस तरह की गलत बात मैं नहीं कह सकता। हरेन्द्र सहसा जल-भुन गया, बोला - विवेक जैसी चीज़ क्या आपके अन्दर है ही नहीं शिवनाथ बाबू?

शिवनाथ को इतने पर भी गुस्सा न आया। उसने शान्त भाव से ही कहा - ऐसा विवेक अर्थहीन है। झूठे विवेक की जंजीर पैरों में डालकर अपने को पंगु बना डालने का हिमायती मैं नहीं हूँ। हमेशा दुख भोगते चलना ही तो जीवन-धारण का उद्देश्य नहीं है?

आशु बाबू गम्भीर व्यथा से आहत होकर बोले - मगर आप अपनी स्त्री का दुख तो ज़रा सोच देखिए। उनका रोगी रहना परिताप का विषय हो सकता है, लेकिन सिर्फ़ इसी वजह से - बीमार रहना तो कोई कसूर नहीं शिवनाथ बाबू! बिना किसी दोष!

बिना किसी दोष के मैं ही भला दुख क्यों सहता रहूँ? ऐसा विश्वास मेरा नहीं है कि एक का दुख और किसी के सर पर लाद देने से न्याय होता है।

आशु बाबू ने आगे बहस नहीं की। वे सिर्फ़ एक गहरी साँस लेकर चुप हो रहे।

हरेन्द्र ने पूछा - यह ब्याह हुआ कहाँ?

“गाँव ही में।”

“सौत के होते हुए लड़की दे दी! शायद इसके माँ-बाप नहीं हैं?”

शिवनाथ ने कहा - नहीं। हमारे यहाँ की नौकरानी की विधवा लड़की है।

“घर की नौकरानी की लड़की है? ख़ूब! ख़ूब! जात क्या है?”

“ठीक नहीं मालूम। शायद जुलाहिन-उलाहिन होगी।”

अक्षय बहुत देर से बोला नहीं था अब पूछ बैठा - उसको अक्षर-बोध भी नहीं होगा शायद?

शिवनाथ ने कहा - अक्षर-बोध के लोभ से तो ब्याह किया नहीं, किया है रूप के लिए। और इस चीज़ का शायद उसमें अभाव नहीं है।

इस उक्ति के बाद मनोरमा ने एक बार फिर उठने की कोशिश की, परन्तु इस बार भी उसके पाँव पत्थर की तरह भारी हो गये। कुतूहल और उत्तेजनावश किसी ने उसकी तरफ़ देखा नहीं। देखते तो शायद डर जाते।

हरेन्द्र ने कहा - तो, यह शायद सिविल ब्याह ही हुआ?

शिवनाथ ने गर्दन हिलाकर जवाब दिया - नहीं, ब्याह हुआ शैवमत से।

अविनाश ने कहा - यानी धोखा देने का रास्ता दसों दिशाओं से खुला रखा, क्यों शिवनाथ?

शिवनाथ ने हँसकर कहा - यह तो क्रोध की बात है अविनाश बाबू! नहीं तो पिताजी ख़ुद अपनी मौजूदगी में मेरा जो ब्याह कर गये हैं, उसमें तो कोई धोखेबाजी नहीं थी। मगर फिर भी धोखा तो रह ही गया था। उसे ढूँढ़ निकालने की आँखें होनी चाहिए।

अविनाश से कोई उत्तर देते न बन पड़ा। सिर्फ़ उसका चेहरा मारे क्रोध के सुर्ख़ हो गया।

आशु बाबू चुपचाप सिर झुकाये बैठे हुए सोचने लगे - यह क्या हुआ! यह क्या हुआ!

दो-तीन मिनट तक किसी के भी मुँह से कोई बात नहीं निकली, निरानन्द और कलह की घुटती हुई हवा से घर भर गया। बाहर से एक ज़ोर का हवा का झोंका आये बिना बेचैनी दूर नहीं हो सकती, ऐसा ही कुछ मनोभाव लिए हुए अविनाश बाबू अकस्मात बोल उठे - जाने दो ये सब बातें। हाँ, तो शिवनाथ अब वही पत्थर का काम कर रहे हो क्या!

शिवनाथ ने कहा - हाँ।

तुम्हारे मित्र के नाबालिग लड़के-लड़कियों का इन्तजाम तो तुम्हीं को करना पड़ता होगा? उनकी माँ है न? हालत कैसी है? उतनी अच्छी तो नहीं है शायद?

“नहीं, बहुत ही खराब है।”

अविनाश ने कहा - उफ़, अचानक मर गये - हम लोगों ने सोचा था कि रुपया-पैसा कुछ छोड़ गये होंगे। लेकिन हाँ, तुम्हारे मित्र ज़रूर थे। अकृत्रिम, सुहृद, जिगरी दोस्त!

शिवनाथ ने गर्दन हिलाकर कहा - हाँ, हम दोनों पाठशाला में एक साथ ही पढ़े थे।

अविनाश ने कहा - इसी से उस समय वे तुम्हारे लिए इतना कर सके थे।

ज़रा ठहरकर कहा - ”लेकिन ख़ैर, जो भी कुछ हो शिवनाथ, अब अकेले तुम्हीं को जब सारा कारोबार देखना पड़ेगा तो इसमें अपना कुछ हिस्सा रखने का क्यों नहीं दावा करते? तनख़्वाह की तरह -

शिवनाथ ने बात ख़तम नहीं होने दी। बोला - हिस्सा काहे का? कारोबार तो मेरा अकेले का है।

प्रोफ़ेसरों का दल मानो आसमान से गिर पड़ा। अक्षय ने कहा - पत्थर का कारोबार अचानक आपका हो कैसे गया शिवनाथ बाबू?

शिवनाथ ने गम्भीर होकर जवाब दिया - मेरा तो है ही।

अक्षय ने कहा - किसी तरह नहीं। हम सभी जानते हैं, योगीन्द्र बाबू का है।

शिवनाथ ने जवाब दिया - जानते हैं तो अदालत में जाकर गवाही क्यों नहीं दे आये? कोई डाक्युमेण्ट था? सुना था?

अविनाश ने चौंककर प्रश्न किया, ”नहीं, सुना तो कुछ भी नहीं। लेकिन मामला क्या अदालत तक पहुँच गया था?”

शिवनाथ ने कहा - हाँ। योगीन्द्र के साले ने नालिश की थी। डिग्री मुझको ही मिली है।

अविनाश साँस छोड़कर बोला - अच्छा हुआ। आखि़रकार विधवा को कुछ देना नहीं पड़ा।

शिवनाथ ने कहा - नहीं। ख़ादिम ने ‘चाप’ तो खूब बनाये हैं भई। और भी दो-एक ले आओ।

आशु बाबू भावाविष्ट की भाँति बैठे थे, चौंककर बोले - यह क्या, आप लोग तो कुछ भी नहीं खा रहे हैं?

भोजन की रुचि और भूख सभी की ग़ायब हो चुकी थी। मनोरमा चुपके से उठकर जा रही थी, शिवनाथ ने बुलाकर कहा - वाह, हम लोगों का खाना खत्म नहीं हुआ और आप चली जा रही हैं?

मनोरमा ने इस बात का उत्तर नहीं दिया मुड़कर देखा तक नहीं, मारे घृणा के उसके सारे शरीर में काँटे उग आये।

3

उस घटना को बीते एक सप्ताह हो चुका। दो दिन से असमय में बादल घिर-घिर आते हैं और वर्षा शुरू हो जाती है; आज भी सबेरे से बीच-बीच में पानी पड़ रहा है। दोपहर को कुछ देर बन्द रहा, मगर बादल हटे नहीं। आकाश की हालत ऐसी है कि किसी समय वर्षा शुरू हो सकती है; इतने में मनोरमा घूमने के लिए तैयार होकर अपने पिता के कमरे में जा पहुँची। आशु बाबू मोटी-सी एक चादर ओढ़े आरामकुर्सी पर बैठे थे, उनके हाथ में एक किताब थी। लड़की ने आश्चर्य के साथ पूछा - वाह पिताजी, तुम अभी तक तैयार ही नहीं हुए! आज तो हम लोगों की एत वारी खाँकी क़ब्र देखने जाने की बात थी!

“बात तो थी बेटी, लेकिन आज मेरी कमर में वात का दर्द - “

“तो मोटर वापस ले जाने के लिए कह दूँ? फिर कल ही चले चलेंगे, क्यों ठीक है न पिताजी?”

पिता ने टोकते हुए कहा - नहीं, नहीं, न घूमने से तेरा सिर दुखने लगेगा।

तू न हो तो, थोड़ा घूम-फिर आ। मैं तब तक यह मासिक-पत्रिका देख लूँ। कहानी लिखी अच्छी है।

“अच्छा, मैं जाती हूँ। पर लौटने में मुझे देर नहीं होगी। आकर तुमसे कहानी सुनूँगी, सो अभी कहे जाती हूँ।” यह कहकर वह अकेली ही घूमने निकल गयी।

घण्टे भर के अन्दर ही मनोरमा घर लौट आयी और पिता के कमरे में घुसते-घुसते बोली - कैसी कहानी है पिताजी? ख़तम हो गयी? किसने लिखी है?

मगर बात मुँह से निकलने के बाद ही वह चौंक पड़ी, देखा कि कमरे में पिता अकेले नहीं हैं, सामने शिवनाथ बैठा है।

शिवनाथ ने उठकर नमस्कार लिया और कहा - कहाँ तक घूम आयीं?

मनोरमा ने जवाब नहीं दिया; सिर्फ़ नमस्कार के बदले में ज़रा-सा सिर हिलाकर उनकी तरफ़ पूरी तरह से पीठ करके पिता से कहा - पूरी पढ़ चुके पिताजी? कैसी लगी?

आशु बाबू ने इतना ही कहा - नहीं।

कन्या ने कहा - तो मैं ले जाऊँ, पढ़के अभी तुम्हें वापस दे जाऊँगी। इतना कहकर वह पत्रिका हाथ में लेकर चल दी। परन्तु अपने सोने के कमरे में आकर वह चुपचाप बैठी रही। कपड़े बदलना, हाथ मुँह धोना वगैरह सब काम पड़ा रहा, पत्रिका एक बार खोलकर देखी तक नहीं कि कौन-सी कहानी है, किसने लिखी है अथवा कैसी लिखी है।

इस तरह बैठी-बैठी वह क्या सोचने लगी, कोई ठिकाना नहीं। कुछ देर बाद नौकर को सामने से जाते देख उसने पूछा - अरे पिताजी के कमरे से वह आदमी चला गया?

बेहरा ने कहा - जी हाँ।

“कब गया?”

“पानी पड़ने से पहले ही।”

मनोरमा ने खिड़की का परदा हटाकर देखा, बात ठीक है। फिर वर्षा शुरू हो गयी है, पर ज़्यादा नहीं। ऊपर की ओर देखा, पश्चिम के आकाश में बादल घनघोर होते आ रहे हैं और इस बात की सूचना दे रहे हैं कि रात को मूसलाधार पानी पड़ेगा। पत्रिका हाथ में लिए पिता की बैठक में जाकर देखा कि वे चुपचाप बैठे हैं। पत्रिका उनकी आरामकुर्सी के हाथे पर धीरे से रखकर बोली - तुम तो जानते हो, यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता।

इतना कहकर वह पास की चौकी पर बैठ गयी।

आशु बाबू ने मुँह उठाकर कहा - क्या सब बेटी?

मनोरमा ने कहा - तुम ठीक समझते हो कि मैं क्या कह रही हूँ। गुणी का आदर करना मैं भी कम नहीं जानती बापूजी, लेकिन शिवनाथ बाबू जैसे एक दुष्ट, दुश्चरित्र शराबी को क्या समझकर प्रश्रय दे रहे हो?

आशु बाबू मारे शरम और संकोच के एकबारगी पीले पड़ गये। कमरे के एक कोने में टेबल पर बहुत-सी पुस्तकों का ढेर पड़ा था, मनोरमा समय के अभाव से उन्हें यथास्थान सजाकर अब तक रख नहीं सकी थी। उस तरफ़ आँख का इशारा करके वे सिर्फ़ इतना कह सके - वे हैं न अभी -

मनोरमा ने भय के साथ उधर मुँह फेरकर देखा, शिवनाथ टेबिल के पास खड़ा हुआ कोई किताब ढूँढ़ रहा है। नौकर ने उसे ग़लत ख़बर दी थी। मनोरमा मारे शरम के मानो जमीन में धँसने लगी। शिवनाथ के पास आकर खड़े होने पर वह ऊपर मुँह उठाकर देख न सकी। शिवनाथ ने कहा - किताब मुझे मिली नहीं आशु बाबू। तो अब चला।

आशु बाबू से और कुछ कहा नहीं गया, सिर्फ़ इतना ही कहा - बाहर पानी बरस रहा है।

शिवनाथ ने कहा - बरसने दीजिए। ज़्यादा नहीं है। इतना कहकर वह जा ही रहा था कि अकस्मात ठिठककर खड़ा हो गया। मनोरमा को लक्ष्य करके बोला - मैंने दैवात् जो सुन लिया है वह मेरा दुर्भाग्य भी है और सौभाग्य भी। इसके लिए आप लज्जित न हों। ऐसी बातें अकसर सुननी पड़ती हैं। फिर भी यह मैं निश्चित जानता हूँ कि बातें मेरे सम्बन्ध में कही जाने पर भी मुझे सुनाकर नहीं कही गयी। इतनी निर्दय आप हरगिज़ नहीं हैं।

फिर ज़रा ठहरकर कहा - मगर मेरी और एक शिकायत है। उस दिन अक्षय बाबू वगैरह प्रोफ़ेसरों के गुट ने मेरे विरुद्ध इशारा किया था कि मानो मैं किसी खास मतलब को लेकर इस घर से घनिष्ठता बढ़ाने की कोशिश कर रहा हूँ। पर एक तो सब लोगों के औचित्य की धारणा एक-सी नहीं होती - दूसरे बाहर से कोई एक घटना जैसी दिखाई देती है, वह उसका पूर्ण रूप नहीं होता। पर बात जो भी हो, आप लोगों में प्रवेश करने की कोई गूढ़ दुरभिसन्धि उस दिन भी मेरे अन्दर नहीं थी और आज भी नहीं है। - फिर सहसा आशु बाबू को लक्ष्य करके कहा - मेरा गाना सुनना आपको अच्छा लगता है - मेरा घर ज़्यादा दूर नहीं, अगर किसी दिन सुनने की तबियत हो जाये तो वहाँ चरण-रज दीजिएगा, मुझे ख़ुशी ही होगी। इतना कहकर फिर से नमस्कार करके शिवनाथ बाहर चला गया। पिता या कन्या दोनों में से कोई एक भी बात का जवाब न दे सका। आशु बाबू के हृदय में से बहुत-सी बातें एक साथ निकलने को धक्कम-धक्का करने लगीं, किन्तु निकल न सकीं। बाहर तब वर्षा ज़ोर की हो रही थी; यह बात भी उनके मुँह से न निकली कि शिवनाथ बाबू, ज़रा ठहरकर जाइयेगा।

नौकर चाय का सामान लेकर हाज़िर हुआ। मनोरमा ने पूछा - तुम्हारी चाय क्या यहीं बना दूँ पिताजी?

आशु बाबू ने कहा - नहीं, मेरे लिए नहीं। शिवनाथ बाबू ने ज़रा चाय पीने को कहा था।

मनोरमा ने नौकर को चाय वापस ले जाने के लिए इशारा किया। मन की चंचलता के कारण आशु बाबू कमर में दर्द होते हुए भी चौकी से उठकर कमरे में चहलकदमी करने लगे। इतने में सहसा खिड़की के पास ठिठककर खड़े हो गये और क्षण भर ग़ौर से देखकर बोले - उस पेड़ के नीचे जो खड़ा है सो शिवनाथ ही है न? जा नहीं सका है, भीग रहा है।

फिर दूसरे ही क्षण बोल उठे - साथ में कोई स्त्री भी खड़ी है। बंगालियों के जैसे कपड़े पहने, वह बेचारी और भी भीगी जा रही है?

इसके बाद तुरन्त उन्होंने नौकर को बुलाया और कहा - यदु देख तो आ गेट के पास पेड़ के नीचे खड़े भीग कौन रहे हैं? जो बाबू अभी-अभी यहाँ से गये हैं, वही हैं क्या? - लेकिन ठहर-ठहर -

उनकी बात बीच ही में रुक गयी, अकस्मात मन में भयानक सन्देह उठा - वह औरत शिवनाथ की वही स्त्री तो नहीं है?

मनोरमा ने कहा - ठहरेगा क्यों पिताजी, जाकर शिवनाथ बाबू को बुला ही लावे न। और वह उठकर खुली खिड़की के किनारे पिता के पास जा खड़ी हुई बोली - ”वह चाय पीना चाहता था, अगर जानती तो मैं हरगिज उसे जाने नहीं देती।”

लड़की की बात के जवाब में आशु बाबू धीरे से बोले - सो तो ठीक है मणि मगर, मुझे डर है कि वह स्त्री जो साथ खड़ी है, शायद उसकी वही स्त्री हो। साथ लाने की हिम्मत नहीं पड़ी। अभी तक बाहर खड़ी-खड़ी बाट देख रही थी।

बात सुनकर मनोरमा को निश्चित मालूम हुआ कि वह वही स्त्री है। एक बार उनके मन में दुविधा आयी कि इस घर में उसे किसी बहाने से बुलाया जा सकता है या नहीं, पर पिता के मुँह की तरफ़ देखकर उसने वह संकोच दूर कर दिया। नौकर से कहा - यदु जाकर उन दोनों को ही बुला लाओ। शिवनाथ बाबू अगर पूछे कि किसने बुलाया है तो मेरा नाम बता देना।

नौकर चला गया। आशु बाबू का जी उत्कण्ठा से भर उठा। बोले - मणि, यह काम शायद ठीक नहीं हुआ।

“क्यों पिताजी?”

आशु बाबू ने कहा - शिवनाथ यों चाहे जैसा हो, पर आखिर एक उच्च शिक्षित और शरीफ आदमी है - उसकी बात और है। पर उसके सिलसिले में इस औरत से भी परिचय करना क्या ठीक हो सकता है? जाति की ऊँचता-नीचता हम लोग भले ही उतनी न मानते हों, पर भेद तो है ही। नौकर-नौकरानियों के साथ तो बन्धुत्व नहीं किया जा सकता बेटी!

मनोरमा ने कहा - बन्धुत्व करने की ज़रूरत नहीं बापूजी। विपत्ति के समय रास्ते के राहगीर को भी कुछ घण्टों के लिए आश्रय दिया जाता है। हम लोग सिर्फ़ उतना ही करेंगे।

आशु बाबू के मन की दुविधा नहीं मिटी। कई बार सिर हिलाकर बोले - बात ठीक इतनी ही नहीं है। मेरी समझ में यह भी तो नहीं आ रहा है कि उस स्त्री के आ जाने पर तुम उसके साथ कैसा व्यवहार करोगी।

मनोरमा ने कहा - मेरे ऊपर क्या तुम्हारा विश्वास नहीं है पिताजी?

आशु बाबू ज़रा सूखी हँसी हँसकर बोले - सो तो है। फिर भी बात ज़रा ठीक से समझ में नहीं आ रही है। तुम जानती हो जो तुम्हारी बराबर की श्रेणी के हैं, उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाता है, और बहुत कम लड़कियाँ ही इतना जानती होंगी। नौकर-नौकरानियों के प्रति व्यवहार भी तुम्हारा निर्दोष है, मगर यह ज़रा और बात है। - समझीं बेटी, शिवनाथ पर मैं स्नेह करता हूँ, मैं उसके गुणों का अनुरागी हूँ - दैव की विडम्बना से आज बिना कारण वह बहुत कुछ लांछन सह गया है, अब फिर घर में बुलाकर मैं उसे और सताना नहीं चाहता।

मनोरमा ने समझ कि यह उसी के प्रति शिकायत है। उसने कहा - अच्छा पिताजी वैसा ही होगा।

आशु बाबू ने हँसकर कहा - होना क्या आसान है बेटी? कारण, मेरे मन में भी इसकी ख़ूब स्पष्ट धारणा नहीं है कि उसके साथ क्या व्यवहार होना उचित है। सिर्फ़ यही ख़्याल आ रहा है कि शिवनाथ को अब हमारे घर और कष्ट न मिले।

मनोरमा कुछ कहना ही चाहती थी कि अचानक चौंककर बोली - हाँ, लो, ये आ ही तो गये।

आशु बाबू व्यस्त से होकर बाहर आ गये। बोले - खूब शिवनाथ बाबू भीगकर तो बिल्कुल -

शिवनाथ ने कहा - हाँ, अचानक पानी ज़ोर का पकड़ने लगा - सो मुझसे भी बहुत ज़्यादा ये भीगी हैं। कहते हुए साथ की स्त्री को दिखा दिया। मगर कौन है, यह परिचय न तो उन्होंने ही साफ़ दिया और न इन्हीं लोगों ने साफ़ पूछा।

वस्तुतः उस स्त्री की देह पर सूखा कहने लायक कहीं भी कुछ नहीं बचा था। सबके सब कपड़े भीगकर भारी हो गये हैं, माथे के घने काले बालों से पानी की धारा गालों पर बह रही है - पिता और पुत्री इस नवागता रमणी के चेहरे की तरफ़ देखकर असीम विस्मय से निर्वाक हो गये। आशु बाबू खुद कवि नहीं हैं, किन्तु उन्हें देखते ही लगा कि ऐसे ही नारी रूप की शायद प्राचीन काल के कवि ”शिशिर से धुले पत्र’ के साथ तुलना कर गये हैं, एवं जगत में इतनी अधिक सच्ची तुलना भी शायद और नहीं है। उस दिन जब अक्षय के नाना तरह के प्रश्नों के उत्तर में शिवनाथ ने अस्थिर होकर यह जवाब दिया था कि उन्होंने शिक्षिता होने की वजह से नहीं, रूप के लिए ब्याह किया है, तब किसी ने नहीं सोचा था कि यह बात कितनी ज़्यादा सच है। पर अब स्तब्ध होकर आशु बाबू शिवनाथ की उस बात को बार-बार याद करने लगे। उन्हें सचमुच ही ऐसा जान पड़ा कि इनकी जीवन-यात्रा की प्रणाली शिष्ट और नीति-सम्मत भले ही न हो, पति-पत्नी सम्बन्ध की पवित्रता भी इनके बीच भले ही न हो, मगर इस नश्वर जगत में नर-नारी के नश्वर शरीरों का ही आश्रय लेकर सृष्टि का यह कैसा अविनश्वर सत्य प्रस्फुटित हुआ है! परम आश्चर्य की बात है यह कि जिस देश में रूप चुन लेने का कोई विशिष्ट मार्ग नहीं, जिस देश में अपनी आँखों को बन्द करके औरों की आँखों पर ही निर्भर रहना पड़ता है, ऐसे अन्धकार में इन दोनों को परस्पर एक-दूसरे की ख़बर लग कैसे गयी? परन्तु इस मोहाच्छन्न भाव को काट फेंकने में उन्हें एक क्षण से ज़्यादा समय नहीं लगा। शीघ्रता से बोले - शिवनाथ बाबू, भीगे कपड़े तो बदल लीजिए। यदु, बाबू को हमारे बाथरूम में ले जा।

बेहरा के साथ शिवनाथ चला गया। मुश्किल आयी अब मनोरमा की युवती की उमर लगभग मनोरमा के बराबर होगी, और भीगे कपड़े बदल डालने की उसे भी सख़्त ज़रूरत थी। परन्तु उसके वंश और जन्म का जो परिचय उस दिन शिवनाथ के मुँह से सुना है, उससे मनोरमा की कुछ समझ में न आया कि वह क्या कहकर इसको सम्बोधित करे। रूप इसमें चाहे कितना ही क्यों न हो, शिक्षा संस्कारहीन नीच-जातीय इस दासी-कन्या को ‘आओ’ कहकर बुलाने में भी पिता के सामने उसे संकोच मालूम हुआ, और ‘आइए’ कहकर सम्मान के साथ अपने कमरे में ले जाने में तो उसे और भी घृणा मालूम होने लगी। किन्तु सहसा इस समस्या का स्वयं उस युवती ने समाधान कर दिया। मनोरमा की तरफ़ देखकर उसने कहा - मेरा भी सब कुछ भीग गया है, मेरे लिए भी एक धोती मँगा देनी पड़ेगी।

“देती हूँ।” कहकर मनोरमा उसे भीतर ले गयी और महरी को बुलाकर बोली कि इन्हें नहान घर में ले जाकर जो कुछ चाहिए वह सब दे दे।”

उस स्त्री ने मनोरमा को ऊपर से नीचे तक बार-बार देखकर कहा - मुझे एक साफ़ धोबी की धुली धोती देने के लिए कह दीजिए।

मनोरमा ने कहा - वह दे देगी।

स्त्री ने महरी से पूछा - उस घर में साबुन है न?

महरी ने कहा - है।

“लेकिन मैं किसी का लगाया हुआ साबुन नहीं लगाती, महरी।”

इस अपरिचित स्त्री का मन्तव्य सुनकर पहले तो महरी को आश्चर्य हुआ, फिर वह बोली - वहाँ नये साबुनों का बक्स पड़ा हुआ है। लेकिन, वह दीदी रानी का अपना नहान-घर है। उनका साबुन लगाने में क्या बुराई है?

स्त्री ने ओंठ सिकोड़कर कहा - नहीं, यह मुझसे नहीं होता, मुझे बड़ी नफ़रत मालूम होती है। इसके सिवा हर एक का साबुन लगाने से बीमारी हो जाती है।

मनोरमा को चेहरा क्रोध से सुर्ख़ हो उठा, पर एक क्षण के लिए हीं दूसरे ही क्षण निर्मल हँसी की छटा से उसकी दोनों आँखें चमकने लगीं। उसके मन पर से मानो एक मेघ दूर हो गया। हँसकर पूछा - यह बात तुमने सीखी किससे?

स्त्री ने कहा - ”सीखूँगी किससे? मैं ख़ुद ही सब जानती हूँ।

मनोरमा ने कहा - सच? तो ज़रा हमारी इस महरी को भी कुछ अच्छी बातें सिखा देना। यह बिल्कुल मूरख है। कहते-कहते उसे फिर हँसी आ गयी।

महरी भी हँस दी। बोली - चलो पण्डितानीजी, साबुन-आबुन लगाकर पहले तैयार हो लो, फिर तुम्हारे पास बैठकर बहुत-सी अच्छी-अच्छी बातें सीख लूँगी। दीदी रानी कौन हैं ये?

मनोरमा ने हँसी दबाने के लिए अगर दूसरी तरफ़ मुँह न फेर लेती तो सम्भव है कि वह इस अपरिचिता अशिक्षिता स्त्री के मुँह पर कौतुक और प्रच्छन्न उपहास का भाव ताड़ जाती।

4

मनोरमा आशु बाबू की सिर्फ़ लड़की ही हो, सो बात नहीं। वह उनकी साथी, संगी, मंत्री, मित्र एक साथ सब कुछ थी। इसी से पिता के सम्मानरक्षार्थ, भारतीय समाज में जो संकोचसहित दूरत्व सन्तान के लिए अवश्य पालनीय माना जाता है, अधिकांश मौकों पर उसकी रक्षा न हो पाती थी। बीच-बीच में ऐसी चर्चाएँ दोनों में होने लगती थीं जो बहुत से पिताओं को खटकेगी; पर इनके कानों में नहीं खटकती थी। लड़की को आशु बाबू इतना प्यार करते हैं कि उसकी सीमा नहीं। वे स्त्री-वियोग के बाद फिर से ब्याह करने की मन में कल्पना भी नहीं कर सके, इसका भी एकमात्र कारण यह लड़की ही है। मगर मित्र मण्डली में बात छिड़ने पर खेद के साथ वे कहते - एक तो साढ़े तीन मन का यह भारी शरीर और सो भी वात रोग के कारण पंगु। अब और क्यों इसके लिए एक लड़की का सर्वनाश किया जाये भाई! जो दुख सर पर लेकर मणि की माँ स्वर्ग सिधार गयी है, सो मुझे मालूम है। इस आशु के लिए वही काफ़ी है।”

मनोरमा यह बात सुनती तो घोर आपत्ति करती। कहती - पिताजी, तुम्हारी यह बात मुझे नहीं सुहाती। यहाँ ताजमहल देखकर कितने आदमियों को न जाने क्या-क्या याद आता है, पर मुझे याद आती है तुम्हारी और माँ की। मेरी माँ स्वर्ग में क्या दुख सहकर गयी हैं?

आशु बाबू कहते - तू तो तब कुल दस-बारह साल की बच्ची थी, तू तो सब जानती है। एक के गले में दूसरे की माला गिरने का जो क़िस्सा है सो सिर्फ़ मैं ही जानता हूँ बिटिया। कहते-कहते उनकी आँखें डबडबा आतीं।

आगरे में आकर वे बिना किसी संकोच के सबके साथ हिल-मिल गये पर सबसे बढ़कर उनकी हार्दिक मैत्री हुई है अविनाश बाबू के साथ। अविनाश सहिष्णु और संयत प्रकृति का आदमी है। उसके चित्त में ऐसी एक स्वाभाविक शान्ति और प्रसन्नता थी कि वह सहज ही सबकी श्रद्धा आकर्षित कर लेता। मगर आशु बाबू मुग्ध हुए थे कुछ और ही कारण से। उनकी तरह उसने भी दूसरी बार ब्याह नहीं किया था और पत्नी प्रेम के निदर्शन के लिए घर में सर्वत्र अपनी स्त्री के चित्र लगा रखे थे। आशु बाबू उससे कहते - अविनाश बाबू, लोग हमारी प्रशंसा करते हैं। सोचते हैं हम लोगों का कैसा आत्मसंयम है, मानो हम लोगों ने कोई बहुत बड़ा कठिन काम कर डाला हो! पर, मैं सोचता हूँ कि यह प्रश्न उठता ही कैसे है? जो लोग दूसरी बार ब्याह करते हैं, वे कर सकते हैं इसीलिए करते हैं। उन्हें मैं दोष भी नही देता और न छोटा ही समझता हूँ। मैं सोचता हूँ कि मैं कर नहीं सकता। सिर्फ़ इतना ही जानता हूँ कि मणि की माँ की जगह और किसी को स्त्री के रूप में ग्रहण करना मेरे लिए सिर्फ़ कठिन ही नहीं, असम्भव भी है पर इसकी उन्हें क्या ख़बर? बात ऐसी ही है न अविनाश बाबू? अपने मन से पूछ देखिये ज़रा, ठीक बात कहता हूँ या नही।”

अविनाश हँस देता। कहता - लेकिन मैं तो साहस जुटा नहीं सका हूँ आशु बाबू। मास्टरी करके गुज़र करता हूँ, वक़्त भी नहीं मिलता और उमर भी हो चुकी है - लड़की देगा कौन?

आशु बाबू खुश होकर कहते - ”ठीक यही बात है अविनाश बाबू, यही बात है। मैं भी सबको कहता फिरा हूँ कि देह का वजन साढ़े तीन मन का, वात का पंगु हूँ, कब कहाँ चलते-फिरते हार्ट फेल हो जाये कोई ठिकाना नहीं, लड़की देगा कौन? लेकिन जानता हूँ कि लड़की देने वालों की कमी नहीं है, सिर्फ़ लेने वाला मनुष्य ही मर गया है! हःहःहः - अविनाश भी मर चुका और आशु भी - हः हः हः हः!“ कहकर ठहाका मारकर ऐसे ज़ोर से हँसते कि घर की खिड़कियाँ और उनके शीशे तक काँप उठते।

रोज़ शाम को आशु बाबू अपनी कन्या के साथ घूमने निकलते, पर अविनाश के मकान के सामने आकर उतर पड़ते, कहते - अब शाम के वक़्त ठण्डी हवा लगना मेरे लिए ठीक नहीं बेटी, बल्कि तुम लौटते वक़्त मुझे अपने साथ ले जाना।

मनोरमा हँसकर कहती - ठण्डी कहाँ है पिताजी, आज तो काफी गरमी है।

पिताजी कहते - सो भी तो अच्छा नहीं बेटी, बूढ़ों के स्वास्थ्य के लिए गरम हवा भी तो हानिकारक है। तुम ज़रा घूम फिर आओ, हम दोनों बूढ़े मिलकर तब तक दो-चार बातें ही करें।

मनोरमा हँसकर कहती - बातें तुम लोग दो-चार क्या - दो-चार सौ करते रहो, मुझे उसमें कोई एतराज़ नहीं। लेकिन, तुम दोनों में से कोई अभी बूढ़ा नहीं हुआ, यह मैं याद दिलाये देती जाती हूँ। इतना कहकर वह चली जाती।

वात की वजह से जिस दिन आशु बाबू किसी भी तरह नहीं आ पाते, उस दिन अविनाश को जाना पड़ता। गाड़ी भेजकर, आदमी भेजकर, चाय का निमंत्रण देकर - जैसे भी बनता आशु बाबू का अनिवार्य अनुरोध उनके पास पहुँचता और उसे वे किसी भी तरह टाल नहीं पाते। दोनों के इकट्ठे होने पर और-और बातों के साथ शिवनाथ का भी अकसर ज़िक्र छिड़ जाता। इसकी वेदना आशु बाबू के मन से दूर नहीं होती थी कि उस दिन उसे निमन्त्रण देकर घर बुलाया और सभी ने मिलकर अपमानित करके उसे विदा कर दिया। शिवनाथ विद्वान आदमी है, गुणी है, उसका सारा शरीर यौवन, स्वास्थ्य और सौन्दर्य से भरा हुआ है - यह सब क्या कुछ भी नहीं? तो फिर किसलिए इतनी सम्पदा भगवान ने उसे दोनों हाथों से उठाकर दे दी है? क्या इसीलिए कि मनुष्य समाज से उसे उठाकर दूर फेंक दिया जाये? शराबी हो गया है तो इससे क्या? शराब पीकर मतवाले तो बहुतेरे हो जाया करते हैं। यौवन में यह क़सूर तो उनसे भी बन पड़ा है, इसके लिए किसने उन्हें त्याग दिया है?

आदमी की त्रुटियों, आदमी के अपराधों पर ग़ौर करने की अपेक्षा उसे क्षमा करने की तरफ़ उनके हृदय का झुकाव बहुत ज़्यादा होता जाता था, इसीलिए वे अविनाश के साथ अकसर इस विषय की बहस किया करते थे। प्रकट रूप से शिवनाथ को निमन्त्रण देने का अब उन्हें साहस नहीं होता, किन्तु उनका मन हमेशा उसकी संगत के लिए तड़पा करता। अविनाश की सिर्फ़ एक बात का उससे कोई जवाब देते नहीं बनता; कि ”वह जो एक बीमार स्त्री को छोड़कर दूसरी स्त्री घर में लाया है, वह क्या है?”

आशु बाबू लज्जित होकर कहते - ”यही तो सोचता हूँ कि शिवनाथ जैसा आदमी यह काम कर कैसे सका? लेकिन क्या जानें अविनाश बाबू, शायद, भीतर कोई रहस्य हो - हो सकता है - और सभी बातें क्या सबके आगे कही जा सकती हैं, या कहना उचित है?”

अविनाश कहता - मगर उसकी स्त्री निर्दोष थी, यह तो उसने अपनी ही ज़बान से क़बूल किया था?

आशु बाबू परास्त होकर गर्दन हिलाते हुए कहते - सो तो किया ही था।

अविनाश ने कहा - और यह जो मरे हुए मित्र की विधवा को धोखा देना, सारे रोज़गार को अपना बताकर उस पर दख़ल कर लेना - यह क्या था?

आशु बाबू मारे शर्म के ज़मीन में गड़ जाते, जैसे खुद उन्होंने यह दुष्कार्य कर डाला हो। फिर अपराधी की तरह धीरे से कहते - लेकिन बात यह है न अविनाश बाबू, शायद भीतर कोई रहस्य हो - अच्छा फिर अदालत ने क्या समझकर उन्हें डिग्री दे दी? उसने क्या कुछ भी विचार नहीं किया होगा?

अविनाश कहता - अंग्रेजी अदालत की बात छोड़ दीजिए आशु बाबू। आप खुद भी ज़मीन्दार हैं, वहाँ सबल के आगे दुर्बल कब विजयी हो सका है, बता सकते हैं मुझे?

आशु बाबू कहते - नहीं-नहीं, यह ठीक बात नहीं। यह बात ठीक नहीं। मगर हाँ, यह भी नहीं कह सकता कि आपकी बात झूठ है। लेकिन बात यह है न -

अचानक मनोरमा आ जाती तो हँसकर कहती - बात जो है सो सभी जानते हैं। पिताजी, तुम खुद भी मन ही मन जानते हो कि अविनाश बाबू मिथ्या तर्क नहीं करते।

इसके बाद आशु बाबू के मुँह से फिर कोई बात नहीं निकलती।

शिवनाथ के विषय में मनोरमा की ही विमुखता मानो सबसे ज़्यादा थी। मुँह से वह ज़्यादा कुछ नहीं कहती थी, पर पिता सबसे ज़्यादा डरते थे उसी से।

जिस दिन शाम को शिवनाथ और उसकी स्त्री पानी में भीगकर इस घर में आश्रय लेने को बाध्य हुए थे उसके बाद दो दिन तक आशु बाबू वात के प्रकोप से एकदम खाट पर पड़े रहे। न तो वे ख़ुद ही कहीं जा सके और न अविनाश ही काम की झंझट की वजह से उनके पास आ सके। परन्तु उनके आते ही आशु बाबू वात के असह्य दर्द को भूलकर आरामकुर्सी पर सीधे होकर बैठ गये और बोले - अजी अविनाश बाबू, शिवनाथ की स्त्री के साथ तो हम लोगों का परिचय हो गया। लड़की है बिल्कुल लक्ष्मी की मूर्ति। ऐसा रूप कभी नहीं देखा भाई। मालूम हुआ, जैसे उन दोनों को भगवान ने किसी उद्देश्य ही मिलाया है।

“कह क्या रहे हैं!“

हाँ, हाँ। दोनों को अगल-बगल खड़ा कर दो, तो देखते ही रह जाना पड़ता है! आप आँखें हटा ही नहीं सकते, इतना मैं कहे देता हूँ अविनाश बाबू।

अविनाश ने हँसते हुए कहा - ”हो सकता है। लेकिन आप प्रशंसा करने लगते हैं तो उसकी सीमा नहीं रखते।”

आशु बाबू क्षण भर उनके मुँह की ओर देखते रहे, फिर बोले - ”यह दोष मुझमें है। सीमा से बाहर जा सकता होता तो इस मामले में भी ज़रूर जाता, मगर शक्ति नहीं है। इन दोनों के बारे में कितना ही क्यों न कहा जाये, सब सीमा की बायीं तरफ़ ही रहेगा, दाहिनी तरफ़ नहीं पहुँचने का।

अविनाश ने इस पर पूरा विश्वास कर लिया हो सो बात नहीं, परन्तु पहले का परिहास का ढंग भी अब न रहा। बोले - तो फिर उस दिन शिवनाथ ने अकारण दम्भ नहीं किया, क्यों? मगर परिचय हुआ किस तरह?

आशु बाबू ने कहा - बिल्कुल दैवी घटना हुई। शिवनाथ को काम था मुझसे। स्त्री साथ थी, पर मकान के अन्दर लाने की हिम्मत नहीं हुई, बाहर ही एक पेड़ के नीचे उसे खड़ा कर आया। लेकिन दैव टेढ़ा हो तो आदमी की चतुराई काम नहीं देती, असम्भव बात भी सम्भव हो जाती है। हुआ वही। यह कहकर उन्होंने उस दिन की आँधी-पानी की सारी की सारी घटना विस्तार के साथ सुना डाली; फिर कहा - लेकिन हमारी मणि खुश नहीं हो सकी। उसकी कम उम्र ही थी, शायद कुछ बड़ी भी हो; - मगर मणि का कहना है कि उस दिन शिवनाथ बाबू ने सच्ची बात ही कही थी - लड़की वास्तव में अशिक्षित, किसी दासी की लड़की है। कम से कम हमारे शिष्ट समाज की तो नहीं है, इसमें कोई सन्देह नहीं।

अविनाश ने कहा - सो कैसे जाना?

आशु बाबू ने कहा - उसने शायद भीगी धोती के बदले साफ़ धुली धोती माँगी थी, और कहा था कि मैं किसी का इस्तेमाल किया हुआ साबुन नहीं लगा सकती - मुझे नफ़रत मालूम होती है।

अविनाश समझ नहीं सके कि इसमें शिष्ट समाज के नियमों के बाहर की कौन-सी बात है।

आशु बाबू ने भी ठीक यही बात कही - इसमें असंगत कौन-सी बात हुई, मैं अब तक नहीं समझ सका। मगर मणि कहती है, बात में नहीं पिताजी, कहने के ढंग में एक ऐसी बात थी जो बिना सुने नहीं जानी जा सकती। इसके अलावा, स्त्रिायों की आँखों और कानों को धोखा नहीं दिया जा सकता। हमारे वहाँ की नौकरानी तक भी समझ गयी कि यह उसी की जात की है, उसके मालिकों की नहीं। बिल्कुल नीचे से अचानक एकदम ऊपर चढ़ा देने से जैसा होता है, इसके साथ भी ठीक वैसा हुआ है।

अविनाश ने कुछ देर चुप रहकर कहा - दुख की बात है। मगर आपके साथ परिचय हुआ किस तरह? आपसे बोली थी क्या?

आशु बाबू ने कहा - ज़रूर। भीगी धोती बदलकर सीधे मेरे कमरे में आकर बैठ गयी। झिझक की बला थी ही नहीं - मेरी तबियत कैसी है, क्या खाता हूँ क्या इलाज चल रहा है, यह जगह अच्छी लग रही है या नहीं - पूछने का क्या ही सहज-स्वच्छन्द भाव था! बल्कि शिवनाथ तो कुछ संकुचित भी हो रहे थे, मगर उसमें जड़ता का चिह्न तक देखने में नहीं आया। न बातचीत में, न आचरण में।

अविनाश ने पूछा - मालूम होता है मनोरमा तब उपस्थित नहीं थी।

“नहीं। उसे न जाने कैसी अश्रद्धा-सी हो गई है, कहा नहीं जाता। उन लोगों के चले जाने पर मैंने कहा - ”मणि, उन्हें विदा करने भी एक बार बाहर नहीं आयी?”

मणि ने कहा - ”और जो कुछ कहो कर सकती हूँ पिताजी, लेकिन घर के नौकर-चाकर या दास-दासियों को ‘बैठिये’ कहकर अभ्यर्थना नहीं कर सकती और फिर ‘आइयेगा’ कहकर विदा भी नहीं दे सकती। अपने घर आने पर भी नहीं!“ इसके बाद कहने को और क्या रह जाता है!“

कहने को और क्या रह जाता है, यह अविनाश को खुद भी ढूँढ़े न मिला, सिर्फ़ मृदु कण्ठ से इतना कहा - बताना मुश्किल है आशु बाबू। पर मालूम होता है कि मनोरमा ने ठीक ही कहा था। इस तरह की औरतों से हम जैसों के घरों की स्त्रिायों की जान-पहचान न होना ही अच्छा है।

आशु बाबू चुप रहे।

अविनाश कहने लगे - शिवनाथ के संकोच का कारण भी शायद यही है। उसे तो सभी बातें मालूम हैं - उसे डर था कि कहीं कोई भद्दी, न निकालने लायक बात उसकी स्त्री के मुँह से न निकल जाये।

आशु बाबू हँस दिये, बोले - हाँ, हो भी सकता है।

अविनाश ने कहा - ज़रूर यही बात है।”

आशु बाबू ने प्रतिकार नहीं किया, सिर्फ़ कहा - लड़की लेकिन लक्ष्मी की सी प्रतिमा थी। कहकर उन्होंने एक छोटी-सी साँस छोड़ी और वे आराम-कुर्सी से पीठ लगाकर लेट रहे।

कुछ देर चुप रहकर अविनाश ने कहा - मेरी बात से क्या आपको क्षोभ हुआ?

आशु बाबू उठकर बैठे नहीं, उसी तरह अधलेटी हालत में पड़े हुए धीरे-धीरे बोले - क्षोभ नहीं अविनाश बाबू, पर न जाने कैसी एक व्यथा-सी मालूम हुई। इसी से तो आपसे मिलने के लिए इस तरह तड़फड़ा रहा था। बातें भी कैसी मीठी थीं उसकी - सिर्फ़ रूप ही नहीं।

अविनाश ने हँसते हुए उत्तर दिया - मगर मैंने तो उसका रूप भी नहीं देखा और बातें भी नहीं सुनी, आशु बाबू।

आशु बाबू ने कहा - पर वैसा मौका अगर कभी हाथ आयेगा तो आप समझ जायेंगे कि उन्हें त्याग देने में कितना अन्याय हुआ है। और कोई भले ही न समझे, पर मैं निश्चित जानता हूँ कि आप ज़रूर समझेंगे। जाते वक़्त उस लड़की ने मुझसे कहा - ”जब आप मेरे पति का गाना सुनना पसन्द करते हैं, तब क्यों उन्हें कभी-कभी बुलवा नहीं लेते? इस बात का ख़्याल ही आप न करें कि मैं कौन हूँ, मैं तो आप लोगों के बीच आने का दावा करती नहीं।

अविनाश को कुछ आश्चर्य हुआ, बोले - यह तो बिल्कुल अशिक्षितों जैसी बात नहीं आशु बाबू। सुनने से मालूम होता है, इसके निज के सम्बन्ध में हम चाहे कैसी भी व्यवस्था करें पर पति को वह शिष्ट समाज में चला देना चाहती है। आशु बाबू ने कहा - वास्तव में उसकी बात सुनकर मालूम हुआ कि उसे सब मालूम है। हम लोगों ने जो उस दिन उसके पति को अपमानित करके विदा किया था, इस बात को शिवनाथ ने उससे छिपाया नहीं है। शिवनाथ ज़्यादा छिपा-छिपाकर चलने वाला शख्स भी नहीं है।

अविनाश ने हामी भरते हुए कहा - स्वभाव से वह ऐसा ही है। लेकिन एक चीज़ उसने ज़रूर छिपाई है। यह लड़की चाहे जो हो, इससे उसने वास्तव में ब्याह नहीं किया है।

आशु बाबू ने कहा - शिवनाथ ने तो कहा है वह उसकी स्त्री है, और उसने भी ऐसा ही परिचय दिया कि वह उसका पति है।

अविनाश ने कहा - परिचय दिया करे। मगर वह सच नहीं हे। इसके अन्दर जो गम्भीर रहस्य है, अक्षय बाबू उसका भेद किसी न किसी दिन खोले बिना न रहेंगे। आशु बाबू ने कहा - इसमें तो मुझे कोई शक नहीं। कारण कि अक्षय बाबू शक्तिशाली पुरुष हैं। मगर इनकी परस्पर की स्वीकारोक्ति में सत्य नहीं, सत्य केवल छिपे हुए रहस्य को दुनिया के सामने उघाड़ देने में ही है? अविनाश बाबू, आप तो अक्षय नहीं हैं। आपसे तो मैं ऐसी प्रत्याशा नहीं करता।

अविनाश बाबू लज्जित होकर बोले - मगर समाज भी तो है। उसकी भलाई के लिए भी तो -

परन्तु उनका वक़्तव्य ख़त्म नहीं हो पाया था कि पास के दरवाज़े को खोलकर मनोरमा ने प्रवेश किया। अविनाश को नमस्कार करके उसने कहा - बाबूजी, मैं घूमने जा रही हूँ, तुम शायद आज बाहर नहीं निकल सकोगे?

“नहीं बिटिया, तुम जाओ।”

अविनाश उठकर खड़े हुए, बोले - मुझे भी आज काम है। ज़रा बाजार के पास उतार नहीं दे सकतीं मनोरमा?

“ज़रूर - चलिए।”

जाते समय अविनाश कह गये कि बहुत ही ज़रूरी काम से उन्हें कल ही दिल्ली जाना पड़ेगा और शायद एक सप्ताह के पहले वहाँ से लौटना नहीं होगा।

5

दस दिन बाद अविनाश दिल्ली से लौट आये। उनके नौ-दस साल के पुत्र जगत ने आकर हाथ में एक छोटी-सी चिट्ठी दी। उसमें सिर्फ़ एक वाक्य लिखा था

- ”शाम को ज़रूर आइयेगा। - आशु।”

जगत की विधवा मौसी ने दरवाजे के परदे को हटाकर खिले हुए गुलाब जैसा मुँह निकालकर कहा - ”आशु वैद्य की राह में क्या आँखें बिछाये ही बैठे थे जो घर में आते-न-आते तलब कर लिये गये। - अभी ही जाना होगा?”

अविनाश ने कहा - शायद कोई ख़ास काम है।

“काम ख़ाक है! वे लोग तो जैसे मुखर्जी साहब को निगल ही जाना चाहते हैं।”

अविनाश अपनी छोटी साली को लाड़ से कभी ‘छोटी बहू’ कहते हैं और कभी उसका नाम ‘नीलिमा’ लेकर पुकारते हैं। हँस के बोले - छोटी बहू, अमृत फल अनादर के साथ पेड़ तले पड़ा हुआ हो तो उसे देखकर बाहर के लोगों को लोभ ज़रा हो ही जाता है?

नीलिमा हँस दी, बोली - तब तो यह बात उन लोगों को जता देना ज़रूरी हो जाती है कि वह इन्द्रायण (कौवाठोठी) फल है, अमृत फल नहीं।

अविनाश ने कहा - अच्छा, जता देना। पर वे विश्वास नहीं करेंगे, लोभ और भी बढ़ जायेगा, हाथ बढ़ाने में भी क़सर न रखेंगे।

नीलिमा ने कहा - उससे लाभ न होगा मुखर्जी महाशय, सब लोगों की पहुँच के बाहर अबकी बार मजबूत-सा बेंडा बनवा रखूँगी। इतना कहकर वह हँसी दबा के परदे की ओट में चली गयी।

अविनाश जब आशु बाबू के घर पहुँचे तब थोड़ा-सा दिन बाकी था। गृहस्वामी ने अत्यन्त आदर के साथ उनका स्वागत किया और कृत्रिम क्रोध के साथ कहा - आप धार्मिक हैं। परदेश में मित्र को अकेला छोड़कर दस दिन ग़ैरहाज़िर रहे, इस बीच में तो इस अनुचर की दस दशाएँ हो गयीं।

अविनाश चौंककर बोले - एक साथ दस-दस दशाएँ? पहले पहेली तो बताइए!

“बताता हूँ। पहली दशा तो यह हुई कि दोनों टांगें सिर्फ़ ताज़ा ही नहीं हुईं बल्कि उन्होंने अत्यन्त तेज़ चाल से ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर आना जाना शुरू कर दिया।”

“बेहद भय की बात है। दूसरी का वर्णन कीजिए।”

“दूसरी यह कि आज किसी पर्व के उपलक्ष्य में हिन्दुस्तानी नारी-कुल यमुना के कूल पर इकट्ठा हुआ है और हरेन्द्र, अक्षय आदि पण्डित समाज ने निर्लिप्त चित्त से वहाँ अभी-अभी अभियान किया है।”

“अच्छा, ठीक है। तीसरी दशा का हाल सुनाइये।”

“दर्शनेच्छु आशुतोष अत्यन्त उत्कण्ठित हृदय से अविनाश की प्रतीक्षा कर रहा है, प्रार्थना है कि वे अस्वीकार न करें।”

अविनाश ने हँसते हुए कहा - उन्होंने प्रार्थना मंज़ूर कर ली। अब चौथी दशा का वर्णन कीजिए।

आशु बाबू ने कहा - ”यह ज़रा कुछ भारी है। चिरंजीव महोदय ने विलायत से भारत में पदार्पण किया है और वे काशी होते हुए परसों इसी आगरा नगर में पधारे हैं। सम्प्रति मोटर की मशीन बिगड़ गयी है और चिरंजीव स्वयं मरम्मत के काम में लगे हुए हैं। मरम्मत समाप्तप्राय है और वे अब आते ही होंगे। अभिलाषा है, पहली चाँदनी रात में सब एक साथ आज ताजमहल का निरीक्षण करें।”

अविनाश का हँसता हुआ चेहरा गम्भीर हो उठा, पूछा - ये चिरंजीवी साहब कौन हैं आशु बाबू? क्या इन्हीं की बात उस रोज़ कहते-कहते अचानक रुक गये थे?

आशु बाबू ने कहा - हाँ। मगर आज कहने में, कम से कम आपसे कहने में कोई रुकावट नहीं। अजितकुमार मेरे भावी जमाई हैं, इन दोनों का प्रेम संसार की एक अपूर्व वस्तु है। लड़का क्या है रत्न है।

अविनाश स्थिर होकर सुनने लगे और आशु बाबू कहने लगे - हम ब्रह्मसमाजी नहीं हैं सब क्रिया-कर्म सनातनी मतानुसार करते हैं। यथासमय अर्थात चार साल पहले ही इन दोनों के ब्याह हो जाने की बात थी। होता भी यही, मगर नहीं हुआ। जिस तरह इन दोनों का परिचय हुआ वह भी एक विचित्र घटना है, विधि-लिपि कहा जाये तो अत्युक्ति नहीं होगी पर उस बात को अभी जाने दीजिए।

अविनाश पूर्ववत स्तब्ध बैठे रहे। आशु बाबू बोले - ”मणि की हल्दी चढ़ गयी थी कि इतने में रात की गाड़ी से काशी से छोटे काका आ पहुँचे। पिता की मृत्यु के बाद वे ही घर के बड़े थे, बाल-बच्चा कोई था नहीं, काकी को लेकर बहुत दिनों से काशीवास कर रहे थे। ज्योतिष पर उनका अखण्ड विश्वास था, आकर बोले - ”यह ब्याह अभी हो ही नहीं सकता। उन्होंने ख़ुद तथा और पण्डितों से निर्भूल गणना करा देखी है कि इस ब्याह के होने से तीन साल तीन महीने के अन्दर ही मणि विधवा हो जायेगी।

“घर में एक ऊधम-सा मच गया, सारी तैयारियाँ घोटाले में पड़ गयी; मगर मैं काका को जानता था, समझ गया कि इसमें ज़रा भी इधर-उधर नहीं होने का। अजित खुद भी एक बहुत बड़े घर का लड़का है, उसकी एक विधवा काकी के सिवा संसार में और कोई न था, वे भी बहुत गुस्सा हुईं, अजित मारे दुख और अभिमान के इंजीनियरिंग पढ़ने के बहाने विलायत चला गया और सबने जान लिया कि यह सम्बन्ध हमेशा के लिए टूट गया।”

अविनाश ने रुकी हुई साँस छोड़कर पूछा - ”इसके बाद, फिर?”

आशु बाबू ने कहा - ”फिर हम सब हताश हो गये, हुई नहीं तो मणि। एक दिन मणि खुद मुझसे आकर बोली - ”पिताजी, ऐसी क्या बड़ी बात हो गयी है जिसके लिए तुमने खाना-पीना-सोना छोड़ दिया है? तीन साल ऐसा क्या बड़ा समय है?” उसके मन को कितनी ज़बर्दस्त ठेस पहुँची थी, सो मैं जानता था। मैंने कहा - ”बेटी, तेरी बात ही सार्थक हो, पर इन सब बातों में तीन साल तो दरकिनार, तीन दिन की रोक भी बुरी होती है।” मणि ने हँसकर कहा - ”तुम्हें डरने की ज़रूरत नहीं पिताजी, मैं उन्हें पहचानती हूँ।’ अजित हमेशा से ज़रा कुछ सात्विक प्रकृति का आदमी है, भगवान पर उसका अचल विश्वास है। जाते समय मणि को एक छोटी चिट्ठी लिखकर चला गया। इन चार सालों में फिर उसने दूसरी चिट्ठी ही नहीं लिखी। न लिखे, पर मन ही मन मणि सब जानती थी, और तब से उसने ब्रह्मचारिणी का जीवन ग्रहण कर लिया। एक दिन के लिए भी भ्रष्ट नहीं हुई। हालाँकि बाहर से कोई कुछ समझ ही नहीं सकता। समझे अविनाश बाबू?”

अविनाश श्रद्धा से विगलित-चित्त होकर बोले, हाँ, वास्तव में नहीं समझ सकता, मैं आशीर्वाद देता हूँ कि ये लोग जीवन में सुखी हों।

आशु बाबू ने कन्या की तरफ़ से ही मानो सिर झुकाकर उसे ग्रहण किया और कहा - ब्राह्मण का आशीर्वाद निष्फल नहीं होगा। अजित सबसे पहले काका साहब के पास गया था। उन्होंने अनुमति दे दी है। नहीं तो यहाँ शायद वह आता ही नहीं।

इसके बाद, दोनों कुछ देर चुप रहे; फिर आशु बाबू कहने लगे - ”अजित के विलायत चले जाने पर जब दो साल तक उसका कोई समाचार नहीं आया तब मैंने भीतर ही भीतर वर की खोज न की हो सो बात नहीं। पर मणि को अकस्मात मालूम हो गया और उसने मना कर दिया। कहा - ”पिताजी, इसकी कोशिश तुम मत करो। मेरा तुमने प्रकट रूप से सम्प्रदान भले ही न किया हो, पर मन से तो कर ही दिया था।” मैंने कहा, ”ऐसा तो कितने ही विवाहों में हुआ करता है, बेटी।” लेकिन लड़की की आँखों में मानो पानी भर आया। बोली, ”नहीं होता पिताजी। सिर्फ़ बातचीत ही होती है, उससे ज़्यादा कुछ नहीं - नहीं मेरे भाग्य में भगवान ने जो लिखा है उसे मैं सह सकूँ, यही काफी है, मुझे और कोई आदेश तुम मत देना।’ दोनों की ही आँखों से आँसू गिरने लगे, पोंछकर मैंने कहा - ”क़सूर हो गया बेटी, अपने नासमझ पिता को तू क्षमा कर।”

अकस्मात पूर्व-स्मृति के आवेग से उनका कण्ठ अवरुद्ध हो गया। अविनाश खुद भी कुछ देर तक बात नहीं कर सके, उसके बाद धीरे-धीरे बोले - आशु बाबू, संसार में हम लोग न जाने कितनी ग़लतियाँ किया करते हैं और न जाने कितनी अनुचित धारणाएँ मन में पालते रहते हैं।

आशु बाबू ठीक समझ न सके - ”कैसी?”

“यही, जैसे, हममें से बहुत-से ऐसा समझा करते हैं कि लड़कियाँ उच्च शिक्षा पाकर मेम साहब बन जाती हैं, हिन्दुओं के प्राचीन मधुर संस्कारों के लिए उनके हृदय में जैसे स्थान ही नहीं रहता। यह कितना बड़ा भ्रम है, सोचिये?”

आशु बाबू ने गर्दन हिलाकर कहा - भ्रम बहुतेरी जगह होता ज़रूर है। मगर आप जानते हैं अविनाश बाबू, क्या शिक्षा और क्या अशिक्षा, असल चीज है प्राप्त करना। इस प्राप्त करने न करने के ऊपर ही सब बातें निर्भर हैं। नहीं तो एक का अपराध दूसरे पर आरोपित करने से ही गड़बड़ होता है। - आ गये अजित, मणि कहाँ है?

तीस साल का एक सुन्दर बलिष्ठ युवक कमरे के भीतर दाखिल हुआ। उसके कपड़ों पर कालिख़ के दाग़ लग गये थे। उसने कहा - मणि अब तक मेरी मदद कर रही थीं, उनके कपड़ों में भी कालिख़ लग गयी है, कपड़े बदलने लगी है। मोटर ठीक हो गयी है, शोफ़र से सामने लाकर खड़ी करने को कह दिया है।

आशु बाबू ने कहा - अजित, ये मेरे परम मित्र हैं, श्रीयुत अविनाश मुखोपाध्याय। यहाँ के कॉलेज के प्रोफ़ेसर हैं, ब्राह्मण हैं, इन्हें प्रणाम करो।

आगन्तुक युवक ने अविनाश को पाँव छूकर प्रणाम किया। फिर खड़े होकर आशु बाबू को लक्ष्य करके कहा - मणि के आने में पाँचेक मिनट से ज़्यादा देर न लगेगी। अब आप ज़रा जल्दी से तैयार हो लीजिए। देर होने पर सब कुछ देखने का समय नहीं मिलेगा। लोग कहते हैं, ताजमहल देखते-देखते जी ही नहीं भरता!

आशु बाबू ने कहा - जी न भरने की ही चीज़ है, तुम्हीं को अभी कपड़े बदलना बाकी हैं।

युवक ने हँसकर कहा - सो रहने दीजिए। यह तो हमारा पेशा है। कपड़ों पर कालिख लगने से हम लोगों का कोई अगौरव नहीं होगा।

बात सुनकर आशु बाबू मन ही मन अत्यन्त प्रसन्न हुए और अविनाश भी युवक की विनम्र सरलता पर मुग्ध हो गये।

इतने में मणि आ पहुँची। सहसा उसकी तरफ़ देखकर अविनाश चौंक उठे। कई दिनों से उन्होंने उसे देखा नहीं था और इस बीच में ही यह अप्रत्याशित आनन्द की घटना हुई थी। खासकर, उसके पिता के मुँह से अभी-अभी जो बातें सुनी थीं, उससे उन्होंने समझ लिया था कि मनोरमा के चेहरे पर आज शायद ऐसी कोई बात देखेंगे जो अनिवर्चनीय होगी और जीवन में कभी देखी न होगी। मगर वहाँ कुछ भी नहीं था, बिल्कुल सीधी-सादी पोशाक। छिपे हुए आनन्द का छिपा आडम्बर कहीं से भी आत्मप्रकाश करता हुआ नहीं दिखाई दिया। सुगम्भीर प्रसन्नता की शान्त दीप्ति चेहरे पर कहीं भी विकसित होती नहीं दिखाई दी, बल्कि, न जाने कैसी एक क्लान्तिकी छाया ने ही आँखों की दृष्टि को म्लान कर रखा था। अविनाश को ऐसा जान पड़ा कि पितृ-स्नेहवश शायद आशु बाबू ने अपनी कन्या को ग़लत समझा है, या फिर किसी दिन जो सत्य था वह आज झूठ हो गया है।

थोड़ी देर बाद एक बड़ी भारी मोटर में बैठकर सब चल दिये। यमुना के घाट-घाट पर पुण्य-लुब्ध नारियों और रूप-लुब्ध पुरुषों की भीड़ तब तक काफ़ी कम हो चुकी थी। सुन्दर और सुदीर्घ मार्ग में सर्वत्र ही उनकी सज-धज और विचित्र रंग-बिरंगी पोशाकें अस्तमान रवि-करों से विशेष सुन्दर हो उठी थीं। उस दृश्य को देखते हुए जब वे विश्वविख्यात अनन्त सौन्दर्यमय ताजमहल के सिंहद्वार के सामने आ पहुँचे तब हेमन्त ऋतु का छोटा-सा दिन अवसान की ओर बढ़ा जा रहा था।

यमुना-किनारे जो कुछ देखने का था वह सब देख-भालकर अक्षय का दल पहले से ही वहाँ हाज़िर हो गया था। ताज उन लोगों ने बहुत बार देखा है, देखते-देखते अरुचि हो गयी है, इसी से वे ऊपर न जाकर नीचे के बाग में एक किनारे बैठ गये थे। इन लोगों को आते देख उन सबने उच्च कोलाहल के साथ स्वागत किया। वातव्याधि पीड़ित आशु बाबू अपनी भारी-भरकम देह को घास पर रखते हुए गहरी उसाँस छोड़कर बोले - ओफ़, अब जी में जी आया। अब जिसकी जितनी तबियत हो, मुमताज बेग़म की कब्र देखकर आनन्द प्राप्त करते रहो बाबा। आशु वैद्य यहीं से बेग़म साहिबा को कोर्निश बजा लाता है। इससे ज़्यादा और उससे कुछ नहीं हो सकता।

मनोरमा ने क्षुब्ध कण्ठ से कहा - ”सो नहीं होगा पिताजी, तुम्हें अकेला छोड़कर हममें से कोई नहीं जा सकता।”

आशु बाबू हँसकर बोले - डर की बात नहीं बेटी, तुम्हारे बूढ़े बाप को कोई चुरा नहीं ले जायेगा।

अविनाश ने कहा - नहीं, इसकी आशंका नहीं। बदस्तूर क्रेन और लोहे की जंजीर लाये बग़ैर वह उठा ही कैसे सकेगा?

मनोरमा ने कहा - मेरे पिताजी को कोई नज़र न लगाये। आप लोगों की ही नजर से पिताजी यहाँ आकर बहुत-कुछ दुबले हो गये हैं।

अविनाश ने कहा - ऐसा अगर हुआ हो तो हम लोगों से अन्याय हुआ है, यह बात माननी ही पड़ेगी। कारण कि दर्शनीयता के लिहाज़ से इस चीज़ की इज्ज़त ताजमहल से किसी क़दर कम नहीं है।

सब कोई हँस दिये। मनोरमा ने कहा - सो नहीं होगा पिताजी, तुम्हें साथ-साथ चलना होगा। तुम्हारी आँखों से देखे बिना इस चीज़ का आधा सौन्दर्य ढँका ही रह जायेगा। कोई कितनी ही बातें क्यों न बतावे पर तुमसे ज़्यादा असली बातें और कोई नहीं जानता।

अविनाश के सिवा इस बात का मर्म और कोई नहीं जानता कि इसके मानी क्या हैं। वे भी यही अनुरोध करने जा रहे थे। इतने में सहसा सबकी दृष्टि पड़ी एक अप्रत्याशित चीज़ पर। ताज के पूर्व की ओर से घूमकर अकस्मात शिवनाथ और उसकी स्त्री सामने आ पड़े। शिवनाथ अनदेखी करके दूसरी तरफ़ जाना ही चाहता था कि स्त्री उसकी दृष्टि आकर्षित करके खुश हो उठी और बोली - आशु बाबू और उनकी लड़की भी आयी हैं, देखो तो सही।

आशु बाबू ने ज़ोर की आवाज़ लगाकर उन्हें पुकारा - आप लोग कब आये शिवनाथ बाबू? इधर आइए।

स्त्री के साथ शिवनाथ पास आ खड़ा हुआ। आशु बाबू ने उनका परिचय देकर कहा - ये हैं शिवनाथ की स्त्री। आपका नाम लेकिन नहीं मालूम।

“मेरा नाम है कमल। मगर मुझसे ‘आप’ न कहा करें आशु बाबू।”

आशु बाबू बोले - कहना उचित भी नहीं है कमल, ये लोग मेरे मित्र हैं, तुम्हारे पति के भी परिचित हैं। बैठो।

कमल ने अजित की तरफ़ इशारा करके कहा - मगर इनका परिचय तो दिया ही नहीं।

आशु बाबू ने कहा - क्रमशः दूँगा। ये मेरे - ये मेरे परम आत्मीय हैं। नाम अजित कुमार राय। कुछ ही दिन हुए, विलायत से वापस आकर हम लोगों से मिलने आये हैं। कमल, तुमने क्या आज पहले-पहल ताजमहल देखा है?

कमल ने सिर हिलाकर कहा - हाँ।

आशु बाबू ने कहा - तब तो तुम भाग्यवती हो। अजित तुमसे भी भाग्यवान है क्योंकि यह परम आश्चर्य की चीज़ उसने अभी तक देखी नहीं, अब देखेगा। लेकिन उजाला घटता जाता है, ज़्यादा देर करना तो अब ठीक नहीं, अजित।”

मनोरमा ने कहा - देर तो सिर्फ़ तुम्हारे लिए ही हो रही है पिताजी, उठो।

“उठना तो आसान काम नहीं है बेटी, उसके लिए तो आयोजन करना पड़ेगा।”

“तो फिर वही आयोजन करो न, पिताजी।”

“करता हूँ। अच्छा कमल, देखकर कैसा मालूम हुआ?”

“आश्चर्य की चीज़ ही मालूम हुआ?”

मनोरमा उसके साथ बोली नहीं, यहाँ तक कि उससे परिचय है, इस बात का आभास भी उसके आचरण से प्रकट नहीं हुआ। पिता से ताकीद करते हुए उसने कहा - शाम हुई जा रही है पिताजी, उठो अब?

“उठता हूँ बेटी।” कहकर आशु बाबू उठने का ज़रा भी प्रयास न करके बैठे ही रहे। कमल ज़रा हँसी, मनोरमा की तरफ़ देखकर बोली - इनकी तबियत भी अच्छी नहीं है, और चढ़ना-उतरना भी आसान नहीं। इससे अच्छा है कि हम लोग बैठे-बैठे बातें करें, आप लोग देख आइये।

मनोरमा ने इस प्रस्ताव का जवाब नहीं दिया, सिर्फ़ पिता से ही जिद के साथ कहा - नहीं पिताजी, सो नहीं होने का। उठो अब तुम।

मगर देखा गया कि उठने की कोशिश लगभग किसी ने भी नहीं की। जो जीवित आश्चर्य इस अपरिचित रमणी के सर्वांग में व्याप्त होकर अकस्मात मूर्तिमान हो उठा, उसके सामने वह निकट ही खड़ा हुआ संगमरमर का अव्यक्त आश्चर्य मानो एक क्षण में धुँधला-सा पड़ गया। अविनाश की अन्यमनस्कता दूर हो गयी। बोले - इनके बिना गये काम न चलेगा। मनोरमा की धारणा है कि पिताजी की आँखों से देखे बगैर ताज का आधा सौन्दर्य भी हृदयंगम नहीं किया जा सकता।

कमल ने अपनी सरल आँखें उठाकर पूछा - ”क्यों?” फिर आशु बाबू से कहा - आप शायद इस विषय के विशेषज्ञ हैं? और शायद सब जानते हैं?

मनोरमा मन ही मन विस्मित हुई, बातें ठीक अशिक्षित दासी-कन्या जैसी तो मालूम नहीं होती!

आशु बाबू पुलकित होकर बोले - मैं कुछ भी नहीं जानता। विशेषज्ञ तो हूँ ही नहीं, और सौन्दर्य तत्व का सिर-पैर तक नहीं जानता। उस तरफ़ से तो मैंने इसे देखा तक नहीं कमल। मैं देखता हूँ बादशाह शाहजहाँ को। मैं देखता हूँ उनकी असीम व्यथा को जो मानो इसके हर पत्थर के अंग-अंग में समाई हुई है। मैं देखता हूँ उनके एकनिष्ठ पत्नी-प्रेम को, जो इस मर्मर-काव्य की सृष्टि करके चिरकाल के लिए अपनी प्रियतमा को विश्व के सामने अमर कर गया है।

कमल ने उनके चेहरे की तरफ़ देखकर अत्यन्त स्वाभाविक कण्ठ से कहा - मगर उनकी तो सुना है, और भी बहुत-सी बेग़में थीं बादशाह को मुमताज पर जैसा प्रेम था, वैसा औरों पर भी था। हो सकता है कि उससे कुछ ज़्यादा हो, पर एकनिष्ठ प्रेम तो उसे नहीं कहा जा सकता आशु बाबू। उनमें वह बात नहीं थी।

इस अप्रचलित भयानक मन्तव्य से सब चौंक उठे। आशु बाबू या और कोई इसका जवाब खोजकर भी न पा सके।

कमल ने कहा - बादशाह कवि थे; वे अपनी शक्ति, सम्पदा और धैर्य से इतनी बड़ी विराट सौन्दर्य की वस्तु प्रतिष्ठित कर गये हैं। मुमताज तो एक आकस्मिक उपलक्ष्य-मात्र थी। वह न होती तो भी ऐसा सौन्दर्य-सौंध वे किसी भी रचना को लेकर रच सकते थे। धर्म के नाम पर होता तो भी कोई नुक़सान नहीं था और हज़ारों-लाखों आदमियों की हत्या करके दिग्विजय प्राप्ति की स्मृति के रूप में होता तो भी इसी तरह रचा जाता। यह एकनिष्ठ प्रेम का दान नहीं है, ये तो बादशाह का निजी आनन्द-लोक का अक्षय दान है। बस, इतना ही हमारे लिए काफी है।

आशु बाबू के दिल पर चोट-सी लगी। बार-बार सिर हिलाकर कहने लगे - बिल्कुल नहीं कमल, हरगिज़ ऐसा नहीं था। तुम्हारी बात ही अगर सच हो, बादशाह के मन में एकनिष्ठ प्रेम अगर न था तो इस विलास-स्मृति-मन्दिर का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। फिर वे चाहे जितनी बड़ी सौन्दर्य की सृष्टि क्यों न कर जाते, मनुष्य के हृदय में वैसी श्रद्धा का आसन उनके लिए नहीं रह जाता।

कमल ने कहा - अगर न रहे तो वह मनुष्य की मूढ़ता है। मैं नहीं कहती कि निष्ठा का कोई मूल्य ही नहीं, पर जो मूल्य युग-युग से लोग उसे देते आये हैं, वह उसका प्राप्य मूल्य नहीं है। एक दिन जिससे पे्रम किया है, फिर किसी दिन किसी भी कारण से उसमें किसी परिवर्तन का अवकाश नहीं हो सकता, मन का यह अचल-अडिग जड़-धर्म न तो स्वस्थ है और न सुन्दर ही।

सुनकर मनोरमा के विस्मय की सीमा न रही। मूर्ख दासी कन्या कहकर इसकी उपेक्षा करना कठिन है, मगर इतने पुरुषों के सामने उस नारी के मुँह से निकली हुई इस तरह की लज्जाहीन बात ने उसे ज़बर्दस्त चोट पहुँचाई। अब तक वह कुछ बोली नहीं थी, पर अब वह अपने को रोक न सकी, कठोर किन्तु दबी ज़बान से बोली - मैं मानती हूँ, ऐसी मनोवृत्ति और किसी को न सही, पर आपके लिए स्वाभाविक है। मगर औरों की दृष्टि में न तो यह सुन्दर है और न शोभन।

आशु बाबू मन ही मन अत्यन्त क्षुण्ण होकर बोले - छिः, बेटी।

कमल गुस्सा नहीं हुई, बल्कि ज़रा हँस दी। बोली - ”बहुत दिनों के बद्ध-मूल संस्कार पर आघात लगने से आदमी सहसा सह नहीं सकता। आपने सच ही कहा है, हमारे लिये यह बात बहुत ही स्वाभाविक है, क्योंकि हमारे शरीर और मन में यौवन परिपूर्ण है, हमारे मन में प्राण है। जिस दिन जानूँगी कि आवश्यकता होने पर भी उसमें परिवर्तन की कोई शक्ति बाकी नहीं रही उस दिन समझ लूँगी कि उसका खात्मा हो चुका है - वह मर चुका है।” कहकर ज्यों ही उसने आँखें उठाईं त्यों ही देखा कि अजित की आँखों से जैसे चिंगारियाँ निकल रही हैं। मालूम नहीं वह दृष्टि मनोरमा ने देखी या नहीं, किन्तु वह बात के बीच ही में अकस्मात बोल उठी - पिताजी, अब दिन नहीं है, मुझसे जितना बनेगा मैं अजित बाबू को तब तक थोड़ा-बहुत दिखा लाती हूँ।

अजित की अन्यमनस्कता दूर हो गयी। उसने कहा - चलो हम लोग देख आयें।

आशु बाबू खुश होकर बोले - अच्छी बात है, जाओ बेटी, हम लोग यहीं बैठे हैं। लेकिन ज़रा जल्दी ही लौट आना, न होगा तो कल फिर ज़रा जल्दी आ जायेंगे।

6

अजित और मनोरमा जब ताज़ देखकर लौटे तब सूर्य अस्त हो चुका था, पर उजाला ख़त्म नहीं हुआ था। सब ख़ूब गिरोह बाँधकर जमे थे, और तर्क घोरतर हो उठा था। ताज़महल की बात, घर लौटने की बात, यहाँ तक कि अजित मनोरमा की बात का भी उन्हें ख़्याल नहीं था। अक्षय चुप बैठा उफ़न रहा था। देखकर मालूम होता था कि इसके पहले वह काफ़ी शोर मचा चुका है और दम ले रहा है। आशु बाबू देह के अधोभाग को चक्र के बाहर की ओर पसार कर और उध्र्व भाग को दोनों हाथों पर रखकर, गुरु-भार वहन करने का एक तरीक़ा निकालकर अत्यन्त दिलचस्पी के साथ सुन रहे हैं। अविनाश सामने की ओर झुककर तीक्ष्ण दृष्टि से कमल के चेहरे की तरफ़ देख रहे हैं। समझ में आया कि फ़िलहाल सवाल-ज़वाब इन्हीं दोनों के बीच चालू है। सबने आगन्तुकों की ओर मुँह उठाकर देखा। किसी ने ज़रा गर्दन हिलायी और किसी को उतनी भी फ़ुरसत नहीं मिली। कमल और शिवनाथ - इन दोनों ने भी मुँह उठाकर देखा। किन्तु आश्चर्य यह है कि एक की आँखों की दृष्टि जैसे शिखा की तरह जल रही है, दूसरे की दृष्टि वैसे ही क्लान्त और मलिन हो रही है। मानो वह कुछ देख ही नहीं रहा है, न कुछ सुन ही रहा है। इस दल में बैठा हुआ भी शिवनाथ जैसे न जाने कहाँ कितनी दूर चला गया है।

आशु बाबू ने कहा - ”बैठो।” पर वे कहाँ बैठें, और बैठें या नहीं, यह देखने की भी उन्हें फुरसत नहीं मिली।

अविनाश ने शायद अक्षय की युक्ति-माला का छिन्न सूत्र हाथ में ले लिया और कहा - बादशाह शाहजहाँ का प्रसंग अभी रहने दो। मैं मानता हूँ कि उनके सम्बन्ध में विचार करने की ज़रूरत है और प्रश्न ज़रा जटिल है। मगर प्रश्न उस सामने के संगमरमर के समान सफ़ेद, पानी की तरह साफ़, सूर्य के प्रकाश की तरह स्वच्छ और सीधा है - ले लीजिए हमारे आशु बाबू का जीवन, किसी भी दिशा में भी कोई कमी नहीं थी, बन्धु-बान्धव की कोशिश में भी कोई त्रुटि नहीं थी, मालूम तो है ही सब - लेकिन यह बात ये सोच ही न सके कि अपनी मृत स्त्री की जगह और किसी को लाकर किसी तरह बिठाया जा सकता है। यह बात इनकी कल्पना से भी बाहर है। बताइए, नर-नारी के प्रेम का यह कितना बड़ा आदर्श है? कितना ऊँचा स्थान है इसका?

कमल कुछ कहना ही चाहती थी कि पीछे से एक मृदु स्पर्श का अनुभव करके उधर देखने लगी। शिवनाथ ने कहा - अब यह आलोचना बन्द करो।

कमल ने पूछा - ”क्यों?”

शिवनाथ ने उत्तर में सिर्फ़ इतना कहा - ”ऐसे ही कह रहा हूँ।” और वे चुप हो गये। उनकी बात पर किसी ने विशेष ध्यान नहीं दिया - उन उदास अन्यमनस्क आँखों के अन्तराल में कौन-सी बात दबी रह गई। किसी को मालूम भी न हुई, और न किसी ने जानने की कोशिश ही की।

कमल ने कहा - ”अच्छा, ऐसे ही तुम्हें घर चलने की जल्दी पड़ी है शायद? पर घर तो साथ मौजूद है।” और हँस दी।

आशु बाबू सहम गये, हरेन्द्र और अक्षय ओठों ही ओठों में मुस्कराये, मनोरमा ने दूसरी तरफ़ आँखें फेर लीं, किन्तु जिसको लक्ष्य करके यह बात कही गयी थी, उस शिवनाथ के आश्चर्यजनक सुन्दर चेहरे पर एक रेखा का भी परिवर्तन नहीं हुआ - मानो वह बिल्कुल पत्थर का बना हो - न तो उसे कुछ दिखाई देता है और न सुनाई।

अविनाश से देर नहीं सही जा रही थी। उन्होंने कहा - मेरे सवाल का जवाब दो!

कमल ने कहा - ”पर पति की मनाही जो है। उनकी मंशा के ख़िलाफ चलना क्या उचित है?” यह कहकर वह हँसने लगी। अविनाश से स्वयं भी बिना हँसे नहीं रहा गया। बोले - ”इस मामले में अपराध न माना जायेगा। हम इतने आदमी मिलकर तुमसे अनुरोध कर रहे हैं, जवाब दो।”

कमल ने कहा - ”आशु बाबू को आज मिलाकर सिर्फ़ दो दिन देखा है, पर इसी बीच में मन ही मन मैं उन्हें चाहने लगी हूँ।” फिर शिवनाथ की तरफ़ इशारा करके कहा - ”अब समझ में आया न, कि क्यों ये मुझे बोलने के लिए मना कर रहे थे?”

आशु बाबू ने खुद इसमें रुकावट डाली। बोले - पर मेरी तरफ़ से तुम्हें संकोच या दुविधा करने का कोई कारण नहीं। बूढ़ा आशु वैद्य बड़ा निरीह आदमी है कमल। सिर्फ़ दो ही दिन देखकर तुमने उसे बहुत-कुछ समझ लिया होगा, और दो दिन देखोगी तो समझ जाओगी कि उससे डरने जैसी भूल संसार में शायद ही कोई हो। तुम स्वच्छन्दता से कहो - ये सब बातें सुनने में वास्तव में मुझे बहुत आनन्द आता है।

कमल ने कहा - लेकिन ठीक इसीलिए तो ये मना कर रहे थे, और इसीलिए अविनाश बाबू की बात का ज़वाब देने में अब तक मेरी ज़बान रुकती थी कि नर-नारी के प्रेम के व्यापार में न तो मैं इसे बड़ी चीज़ समझती हूँ और न आदर्श ही मानती हूँ।

अब अक्षय का मुँह खुला। उसके प्रश्न के ढंग में श्लेष था - सम्भव यही है कि आप लोग नहीं मारते, मगर क्या मानते हैं, ज़रा बतायेंगी क्या?

कमल ने उसकी तरफ़ देखा ज़रूर, पर ठीक उसी को उत्तर दिया हो, सो बात नहीं। वह बोली - एक दिन आशु बाबू अपनी स्त्री से प्रेम करते थे, जो इस समय जीवित नहीं हैं। पर अब उन्हें न तो कुछ दिया ही जा सकता है और न उनसे कुछ पाया ही जा सकता है। उन्हें अब न तो सुखी किया जा सकता है और न दुख दिया जा सकता है। वे हैं ही नहीं, प्रेमपात्र का निशान तक पुँछ गया है। उन्हें किसी दिन प्रेम किया था, मन में सिर्फ़ यह घटना मात्र रह गयी है। मनुष्य नहीं है, उसकी केवल स्मृति है। उसी की अहोरात्र मन में पालते रहकर वर्तमान की अपेक्षा अतीत को ही धु्रव जानकर जीवन बिताने में कौन-सा बड़ा भारी आदर्श है, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता!

कमल के मुँह से ऐसी बात सुनकर आशु बाबू को फिर चोट पहुँची। वे बोले - मगर, हमारे देश की विधवाओं के हाथ में सिर्फ़ यही एक चरम पूँजी रहती है। पति चल बसता है, पर उसकी स्मृति को लेकर ही तो विधवा-जीवन की पवित्रता बनी रहती है। इसे क्या तुम नहीं मानतीं?

कमल ने कहा - नहीं। एक बड़ा नाम दे देने से ही तो कोई चीज़ संसार में सचमुच बड़ी नहीं हो जाती। बल्कि यों कहिये कि इस देश में इसी तरह वैधव्य जीवन बिताने का रिवाज है, इसे मैं अस्वीकार नहीं करूँगी।

अविनाश ने कहा - अगर ऐसा ही हो, लोग उन्हें ठगते ही आ रहे हों, विधवा के ब्रह्मचर्य में - ख़ैर जाने दो, ब्रह्मचर्य का नाम अब न लूँगा - लेकिन उसके आमरण संयत जीवन को क्या हम विराट पवित्रता का भी सम्मान न देंगे?

कमल हँस दी, बोली - अविनाश बाबू, यह भी उसी शब्द का मोह एक है। ‘संयम’ शब्द बहुत दिनों से बहुत ज़्यादा इज्ज़त पा-पाकर ऐसा फूल उठा है कि उसके लिए अब स्थान-काल कारण-अकारण नहीं रह गया है। उसके उच्चारण मात्र से सम्मान के बोझ से आदमी का सिर झुक जाता है। परन्तु अवस्था-विशेष में यह भी एक थोथी आवाज़ से ज़्यादा कुछ नहीं है। यह शब्द मंुह से निकालते ही साधारण लोगों को भले ही डर लगे, पर मुझे नहीं लगता। मैं उस दल की नहीं हूँ। सिर्फ़ इसीलिए कि बहुत-से लोग बहुत दिनों से कोई एक बात कहते आ रहे हैं, मैं उसे मान नहीं लेती। पति की स्मृति को छाती से चिपटाये रहकर विधवाओं को दिन काटने चाहिए, इसके समान स्वतः सिद्ध पवित्रता की धारणा को स्वीकार करने में मुझे तब तक हिचकिचाहट रहेगी जब तक कि उसे कोई प्रमाणित नहीं कर देगा!

अविनाश को जवाब ढूँढ़े न मिला और क्षण-भर विमूढ़ की भाँति देखते रह गये। फिर बोले - तुम कह क्या रही हो?’

अक्षय ने कहा - दो और दो चार होते हैं, इसे भी शायद प्रमाणित किये बगैर आप नहीं मानेंगी?

कमल ने न तो जवाब दिया और न गुस्सा ही हुई, सिर्फ़ हँस दी।

और भी एक सज्जन जो गुस्सा नहीं हुए, वे थे आशु बाबू। किन्तु कमल की बात से ज़्यादा व्यथित भी वे ही हुए।

अक्षय फिर बोला - आपकी ये सब गन्दी धारणाएँ हमारे शिष्ट-समाज में नहीं हैं, यहाँ ये चल नहीं सकतीं।

कमल ने पूर्ववत हँसते चेहरे से ही उत्तर दिया - शिष्ट समाज में अचल हैं, यह मैं जानती हूँ।

इसके बाद कुछ देर तक सबके सब मौन रहे। आशु बाबू धीरे-धीरे बोले - और एक बात तुमसे पूछता हूँ कमल। पवित्रता-अपवित्रता के लिए नहीं कह रहा, किन्तु स्वभावतः जो और कुछ कर नहीं सकता, जैसे मुझको ही ले लो, मणि की स्वर्गीय माँ की जगह और किसी को ला बिठाने की तो मैं कभी कल्पना ही नहीं कर सकता।

कमल ने कहा - आप बूढ़े जो हो गये हैं आशु बाबू।

आशु बाबू ने कहा - मानता हूँ, आज बूढ़ा हो गया हूँ, किन्तु उस दिन तो बूढ़ा नहीं था। पर तब भी तो यह बात नहीं सोच सकता था?

कमल ने कहा - उस दिन भी ऐसे ही बूढ़े थे। देह से नहीं, मन से। कोई-कोई आदमी होते हैं जो बूढ़ा मन लिये ही पैदा होते हैं। उस बूढ़े के शासन के नीचे उनका जीर्ण-शीर्ण विकृत-यौवन हमेशा लज्जा से सिर नीचा किये रहता है, बूढ़ा मन खुश होकर कहता है, अहा! यही तो अच्छा है, कोई हंगामा नहीं, उन्माद नहीं - यही तो शान्ति है, यही तो मनुष्य के लिए चरम तत्व की बात है! उसके लिए कितने तरह के अच्छे-अच्छे विशेषण हैं, कितनी वाहवाही का आडम्बर है। ऊँचे स्वर से उसकी ख्याति का बाजा बजता है, पर इस बात को वह जान भी नहीं पाता कि यह उसके जीवन का जय-वाद्य नहीं, आनन्दलोक के विसर्जन का बाजा है।

सभी को मन ही मन लगा कि इसका एक कड़ा जवाब देना ज़रूरी है। एक स्त्री के मुँह से यौवन के उन्माद की इस निर्जज्ज स्तुति से सभी के कान जलने लगे, पर जवाब देने लायक बात किसी को ढूँढ़े नहीं मिली।

तब आशु बाबू ने मृदु कण्ठ से पूछा - कमल, बूढ़ा मन तुम किसे कहती हो? देखूँ, अपने साथ ज़रा मिलाकर। यह सचमुच ही वही है या नहीं।

कमल ने कहा - मन का बुढ़ापा मैं उसी को कहती हूँ आशु बाबू, जो अपने सामने की ओर नहीं देख सकता, जिसका हारा-थका ज़राग्रस्त मन भविष्य की समस्त आशाओं को जलांजलि देकर सिर्फ़ अतीत के अन्दर ही जिन्दा रहना चाहता है। मानो उसे कुछ करने की, कुछ पाने की चाह ही नहीं है - वर्तमान उसकी दृष्टि में लुप्त है, अनावश्यक है, और भविष्य अर्थहीन। अतीत ही उसके लिए सब कुछ है। वही उसका आनन्द, वही उसकी वेदना और वही है उसका मूलधन। उसी को भुना-भुनाकर गुज़र करके जीवन के बाक़ी दिन बिता देना चाहता है। देखिये तो आशु बाबू, अपने साथ ज़रा तुलना करके।

आशु बाबू हँसे। बोले - यथासमय एक बार ज़रूर देखूँगा।

अजित कुमार ने अब तक की इतनी बातचीत के बीच में एक भी बात नहीं कही थी, वह सिर्फ़ निष्फलक दृष्टि कमल के मुँह की तरफ़ देख रहा था। सहसा न जाने उसे क्या हो गया, अपने को वह सँभाल न सका, बोल उठा - मेरा एक प्रश्न है, देखिए मिसेज -

कमल ने सीधे उसकी तरफ़ देखकर कहा - मिसेज किसलिए? मुझे आप कमल ही कहिए न।’

अजित मारे शरम के सुर्ख़ हो उठा - नहीं नहीं, सो कैसे, - ऐसा कैसे -

कमल ने कहा - ”ऐसा-वैसा कुछ भी नहीं। माँ-बाप ने मेरा यह नाम रखा था पुकारने के लिए ही तो! इससे मैं नाराज़ नहीं होती।” अकस्मात मनोरमा के मुँह की ओर देखकर बोली - ”आपका नाम मनोरमा है - मनोरमा कहकर बुलाने से आप नाराज़ होती हैं क्या?”

मनोरमा ने सिर हिलाकर कहा - ”हाँ, मैं नाराज़ होती हूँ।"

ऐसे जवाब की उससे किसी ने भी उम्मीद नहीं की थी, आशु बाबू तो मारे संकोच के म्लान हो गये।

सिर्फ़ कमल स्वयं संकुचित नहीं हुई। बोली - ”नाम तो और कुछ नहीं एक शब्द है, जिससे समझा जाता है कि एक आदमी बहुतों में से किसी एक आदमी को बुला रहा है। पर हाँ, यह सच है कि बहुतों के अभ्यास से यह खटकती है। वे इस शब्द को नाना रूप से अलंकृत करके सुनना चाहते हैं। देखते नहीं, राजा लोग अपने नाम के आगे न जाने कितने निरर्थक शब्द जोड़कर, कितने ‘श्री’ जोड़कर, तब कहीं उसे दूसरे को उच्चारण करने देते हैं। नहीं तो उनकी मर्यादा नष्ट होती है।” इतना कहकर वह सहसा हँस पड़ी और शिवनाथ की तरफ़ इशारा करके बोली - जैसे ये। कभी इनसे कमल कहते नहीं बनता, कहते हैं शिवानी। अजित बाबू, आप बल्कि मुझे मिसेज शिवनाथ न कहकर शिवानी कहिए। शब्द भी छोटा है, और सब समझ भी लेंगे। कम से कम मैं तो समझ ही जाऊँगी।

परन्तु न जाने क्या हुआ कि ऐसा सुस्पष्ट आदेश पाकर भी अजित से कुछ बोला नहीं गया, प्रश्न उसके मुँह में ही अटका रहा।

उस वक़्त सन्ध्या समाप्त होकर कातिक-पूनों के वाष्पाच्छन्न आकाश में स्वच्छ चाँदनी छिटक रही थी। उस तरफ़ देखकर पिता की दृष्टि आकर्षित करते हुए मनोरमा ने कहा - पिताजी, ओस पड़नी शुरू हो गयी है, बस, उठिये अब।

आशु बाबू बोले - यह लो, उठता हूँ बिटिया।

अविनाश ने कहा - शिवानी नाम बहुत अच्छा है। शिवनाथ गुणी पुरुष हैं, इसी से नाम भी मीठा दिया है, अपने नाम के साथ मेल भी खूब मिलाया है।

आशु बाबू खिल उठे। बोले - ‘अजी ये शिवनाथ नहीं - अविनाश, ऊपर के वे।” और एक बार आकाश की ओर देखकर बोले - आदिकाल के उस बूढ़े घटक ने इन दोनों को सब तरफ़ से मेल कराने के लिए आहार-निद्रा तक छोड़ दी थी। जीते रहो।

अकस्मात अक्षय सीधा होकर बैठ गया और दो-तीन बार सिर हिलाकर अपनी छोटी-छोटी आँखों को यथाशक्ति फाड़कर बोला - अच्छा, आपसे एक प्रश्न कर सकता हूँ क्या?

कमल ने कहा - कौन-सा प्रश्न?

अक्षय ने कहा - आपके लिए संकोच नाम की तो कोई बला है नहीं, इसी से पूछता हूँ - शिवानी नाम तो अच्छा है, मगर, शिवनाथ बाबू के साथ क्या आपका वास्तव में ब्याह हुआ है?

आशु बाबू का चेहरा स्याह पड़ गया। बोले - यह क्या कह रहे हो अक्षय बाबू? अविनाश ने कहा - ”तुम पागल हो गये हो?”

हरेन्द्र ने कहा - ”ब्रूट“ (जंगली)।

अक्षय ने कहा - आप तो जानते हैं, मेरी आँखों में झूठा लिहाज नहीं।

हरेन्द्र ने कहा - झूठा-सच्चा किसी तरह का भी नहीं। पर हम लोगों को तो है।

लेकिन कमल हँसने लगी। जैसे यह कोई बड़े विनोद की बात हो। उसने कहा - इसमें नाराज़ होने की कौन-सी बात है हरेन्द्र बाबू? मैं बताती हूँ अक्षय बाबू। बिल्कुल कुछ हुआ ही न हो, सो बात नहीं। ब्याह जैसी कोई बात हुई ज़रूर थी। जो लोग देखने आये थे, वे लगे हँसने। बोले - ”यह ब्याह ही नहीं - धोखा है। इनसे पूछने पर इन्होंने कहा, शैव मत से ब्याह हुआ तो इसमें चिन्ता की कौन-सी बात है?

अविनाश सुनकर दुखित हुए। उन्होंने कहा - लेकिन शैव-विवाह तो अब हमारे समाज में होता नहीं न, इसलिए अगर ये किसी दिन ‘नहीं हुआ’ कहकर उसे उड़ा देना चाहें, तो प्रमाणित करने लायक तुम्हारे पास कुछ रह नहीं जाता कमल!

कमल ने शिवनाथ की तरफ़ देखकर कहा - क्यों जी, करोगे क्या तुम ऐसा किसी दिन?

शिवनाथ ने कुछ जवाब नहीं दिया। वह पहले की तरह उदास और गम्भीर चेहरा लिये बैठा रहा। तब कमल ने हँसी के बहाने माथे पर हाथ मारकर कहा - हाय रे भाग्य! ये जायेंगे ‘नहीं हुआ’ कहकर अस्वीकार करने और मैं जाऊँगी उसी से ‘हुआ है’ कहकर दूसरों के पास न्याय कराने? उसके पहले गले में फाँसी डालने लायक एक रस्सी भी न जुटेगी क्या?

अविनाश ने कहा - जुट सकती है, मगर आत्महत्या तो पाप है?

कमल ने कहा - पाप नहीं ख़ाक है। मगर ऐसा होगा नहीं। मैं आत्महत्या करने जाऊँगी, यह मेरे विधाता भी नहीं सोच सकते।

आशु बाबू कह उठे - यह तो मनुष्य की सी बात है कमल।

कमल ने उनकी तरफ़ देखकर शिकायत करने के ढंग से कहा, ”देखिये तो अविनाश बाबू का अन्याय।” फिर शिवनाथ की तरफ़ इशारा करके कहा, ”ये करेंगे मुझे अस्वीकार, और फिर मैं जाऊँगी गरदन पकड़ के इनसे स्वीकार कराने? सत्य तो डूब जायेगा, और जिस अनुष्ठान को मानती नहीं, उसी की रस्सी लेकर इन्हें बाँधना चाहूँगी मैं? मैं करूँगी ऐसा काम?” कहते-कहते उसकी दोनों आँखें चमक उठीं।

आशु बाबू ने आहिस्ते से कहा - शिवानी, संसार में सत्य ही बड़ा है, इस बात को हम सभी मानते हैं, पर अनुष्ठान भी तो मिथ्या नहीं है?

कमल ने कहा - मिथ्या तो कह नहीं रही मैं। जैसे कि प्राण भी सत्य हैं और देह भी है - लेकिन प्राण जब निकल जाते हैं तब?

मनोरमा ने पिता का हाथ खींचते हुए कहा - पिताजी, बहुत ज़्यादा ओस पड़ने लगेगी, अब बिना उठे काम नहीं चलेगा।

“अभी उठा, बेटी।”

शिवनाथ सहसा खड़ा होकर बोला - शिवानी, अब और देर मत करो।

कमल इसी वक़्त उठकर खड़ी हो गयी और सबको नमस्कार करके बोली - आप लोगों से परिचय हुआ मानो सिर्फ़ बहस करने के लिए। कुछ ख़्याल न करें।

शिवनाथ को इतनी देर बाद अब ज़रा हँसी आयी, कहा - बहस ही सिर्फ़ की शिवानी, सीखा कुछ भी नहीं?

कमल ने विस्मय के स्वर में कहा - नहीं। मगर सीखने को था ही क्या, मुझे तो कुछ ख़्याल नहीं पड़ता।

शिवनाथ ने कहा - ख़्याल पड़ने की बात भी नहीं थी, वह ओट का ओट में ही रह गया। हो सके तो आशु बाबू के ज़राग्रस्त बूढ़े मन के प्रति ज़रा श्रद्धा रखना सीखना। उससे बढ़कर सीखने को और कुछ नहीं है।

कमल ने विस्मय के साथ कहा - यह तुम कह क्या रहे हो आज?

शिवनाथ ने जवाब नहीं दिया, फिर भी सबको नमस्कार करके कहा - चलो।

आशु बाबू ने एक गहरी साँस लेकर कहा - आश्चर्य है!

7

आश्चर्य तो है ही। इसके सिवा मन की बात व्यक्त करने के लिए और शब्द ही कौन-सा था? वास्तव में, वे दोनों चले क्या गये एक अति आश्चर्यजनक नाटक के बीच के ही अंक में यवनिका डाल गये - परदे के उस पार विस्मय की न जाने कितनी बातें अज्ञात रह गयीं। सभी के मन में यही एक बात उथल-पुथल मचाने लगी और सभी को ऐसा मालूम हुआ मानो इसीलिए वे यहाँ आये थे। आकाश में चन्द्रमा उदित हुआ है, हेमन्त ऋतु की ओस से भीगी हुई चाँदनी के पास के ताजमहल का सफेद संगमरमर मायापुरी की भाँति उद्भासित हो उठा है, पर उधर किसी की दृष्टि भी नहीं है।

मनोरमा ने कहा - अब नहीं उठोगे तो सचमुच तुम्हारी तबियत खराब हो जायेगी पिताजी।

अविनाश ने कहा - ”ओस पड़ रही है, उठिये।”

सबके सब उठकर खड़े हो गये। फाटक के बाहर आशु बाबू की बड़ी मोटर खड़ी थी, पर अक्षय व हरेन्द्र के तांगेवाले का पता नहीं था? शायद इसी बीच में वह ज़्यादा किराये की सवारी पाकर चम्पत हो गया था। लिहाज़ा, किसी तरह सट-सटाकर सबको मोटर में ही बैठना पड़ा। कुछ देर तक सब चुप रहे, अन्त में बात की सबसे पहले अविनाश ने। वे बोले - ”शिवनाथ ने झूठ कहा था। कमल हरगिज़ किसी दासी की लड़की नहीं है। असम्भव है।” कहकर वे मनोरमा के मुँह की ओर देखने लगे।

मनोरमा के मन में भी ठीक यही प्रश्न उठ रहा था, पर वह मौन रही। अक्षय ने कहा - झूठ बोलने का कारण? स्त्री का यह परिचय तो गौरव का नहीं है अविनाश बाबू!

अविनाश ने कहा - यही तो सोच रहा हूँ।

अक्षय ने कहा - आप लोग अचम्भे में आ गये, पर मैं नहीं आया। यह सब शिवनाथ की प्रतिध्वनि है। इसी से उसकी बातों में ‘ब्रैवाडो’ बहुत ज़्यादा था, चीज़ कुछ नहीं थी। असल और नकल जान लेता हूँ। इतना आसान नहीं है मुझे धोखा देना।

हरेन्द्र बोल उठा - बाप रे! आपको धोखा देना? एकदम मोनोपॉली पर हस्तक्षेप?

अक्षय ने उस पर एक तीव्र क्रुद्ध दृष्टि डालकर कहा - मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उसमें उच्च घराने का ‘कल्चर’ (संस्कृति) पाई-भर नहीं है। औरतों के मुँह से ये सब बातें ‘इमॉरल’ ही नहीं, अश्लील भी हैं।

अविनाश ने प्रतिवाद के तौर पर कहा - यह दूसरी बात है। उसकी सब बातें औरतों के मुँह से ठीक शोभन न लगें पर उन्हें अश्लील नहीं कह सकते अक्षय।

अक्षय ने कठोर होकर कहा - वे दोनों ही एक से हैं अविनाश बाबू। देखा नहीं, ब्याह इन लोगों के लिए तमाशे की चीज़ बन गया है। जब सबने आकर कहा कि यह ब्याह नहीं है, धोखेबाज़ी है, तब उन्होंने सिर्फ़ हँस के कहा, ऐसी बात है क्या? उनका एब्सोल्यूट इण्डिफ़रेन्स (सम्पूर्ण उपेक्षा भाव) आप लोगों ने क्या नोटिस नहीं किया? यह क्या कभी कुलीन कन्या के लिए शोभा दे सकता है, या कभी सम्भव हो सकता है?

बात उसकी सच थी, इसी से सब चुप रहे। आशु बाबू अब तक कुछ बोले नहीं थे। सब कुछ वे सुन रहे थे। वे अपनी ही उधेड़-बुन में थे। सहसा इस स्तब्धता से उनका ध्यान भंग हुआ। धीरे-धीरे बोले - विवाह के प्रति नहीं बल्कि उसके ‘फार्म’ पर शायद कमल की उतनी आस्था नहीं है। अनुष्ठान कुछ भी हो, जो हो गया सो उसके लिए ठीक है। पति से कहा, ”ये लोग कहते हैं, यह, ब्याह धोखेबाजी है।” पति ने कहा - ”विवाह हुआ है हम लोगों का शैव मत से।” कमल खुश होकर बोली - ”शिव के साथ ब्याह अगर शैव मत से हुआ हो तो अच्छा है।” बात मुझे ऐसी मीठी लगी अविनाश बाबू कि पूछिए नहीं।”

भीतर-भीतर अविनाश का मन भी इसी स्वर में बँधा था। वे बोले - और उसी शिवनाथ के मुँह की तरफ़ देखकर हँसते-हँसते पूछना, ‘क्योंजी, करोगे क्या तुम ऐसा? दोगे क्या तुम मुझे धोखा? उसके बाद तो कितनी ही बातें हो गयीं। आशु बाबू, लेकिन उसकी गूँज अभी तक मेरे कानों में गूँज रही है।

प्रत्युत्तर में आशु बाबू ने हँसकर सिर्फ़ सिर हिला दिया।

अविनाश ने कहा, ”और उसका वह शिवानी नाम? वह क्या कम मीठा है?”

अक्षय से मानो सहा नहीं गया। वह बोला - आप लोगों ने तो मुझे दंग कर दिया अविनाश बाबू! उनका जो कुछ है सब मधुर है। यहाँ तक कि शिवनाथ के नाम के साथ एक ‘नी’ जोड़ देने से भी मधु झरने लगा।

हरेन्द्र ने कहा - सिर्फ़ ‘नी’ जोड़ देने से ही नहीं होता अक्षय बाबू, आपकी स्त्री को ‘अक्षयनी’ कहकर पुकारने से ही क्या मधु झरने लगेगा?

उसकी बात सुनकर सभी हँस पड़े, यहाँ तक कि मनोरमा ने भी रास्ते की तरफ़ मुँह फेरकर हँसी छिपाई।

अक्षय मारे क्रोध से पागल-सा हो उठा। गरजकर बोला - हरेन्द्र बाबू, ‘डोण्ट यू गो टू फ़ार’। किसी उच्च वंशीय महिला के साथ ऐसी स्त्रिायों की तुलना इशारे में करने को भी मैं अत्यन्त अपमानजनक समझता हूँ, सो आपसे स्पष्ट कहे देता हूँ।

हरेन्द्र चुप रहा। बहस करने का उसका स्वभाव न था और न अपनी युक्तियों से प्रमाणित करने की ही उसकी आदत थी। बीच में अचानक कुछ कहकर वह ऐसा नीरव हो जाता कि हजार कोंचने पर भी कोई उसके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकलवा सकता। हुआ भी ऐसा ही। अक्षय बचे हुए रास्ते में शिवानी को छोड़कर हरेन्द्र के पीछे पड़ गया। वह कहता रहा कि उसने शिष्ट महिला का शिष्टताहीन गन्दा मजाक उड़ाया है। शिवनाथ की शैव मत से विवाहिता स्त्री की बात में और व्यवहार में आभिजात्य की बू तक नहीं, बल्कि उसकी शिक्षा और संस्कार से जघन्य हीनता का ही परिचय मिलता है - आदि बातों को वह अत्यन्त अप्रिय तरीके से बार-बार प्रमाणित करने लगा। इतने में गाड़ी आशु बाबू के दरवाज़े पर आकर खड़ी हो गयी, फिर अविनाश तथा सबों को उतारकर हरेन्द्र, अक्षय आदि को पहुँचाने चली गयी।

आशु बाबू उद्विग्न होकर बोले - गाड़ी में दोनों कहीं मारपीट न कर बैठें।

अविनाश ने कहा - इसका कोई डर नहीं। यह तो रोजमर्रा की बात है और इससे उनकी मित्रता में कोई फर्क नहीं पड़ता।

भीतर जाकर चाय पीने बैठे तो आशु बाबू ने धीरे से कहा - ”अक्षय बाबू की प्रकृति बड़ी कठोर है। इससे बढ़कर कठोर बात उनकी ज़बान पर और क्या आती?”

सहसा लड़की की ओर देखकर बोले - ”अच्छा मणि, कमल के सम्बन्ध में तुम्हारी पहले की धारणा क्या आज भी नहीं बदली?”

“कैसी धारणा पिताजी?”

“यही, जैसे - जैसे - “

“मगर मेरी धारणा से तुम लोगों को क्या काम पिताजी?”

पिता ने फिर कुछ नहीं कहा। वे जानते थे कि इस स्त्री के सम्बन्ध में मनोरमा का चित्त अत्यन्त विमुख है। यह बात उन्हें पीड़ा पहुँचाती है, पर इस बात को लेकर नयी तरह से आलोचना करने बैठना उनके लिए जिस तरह अप्रिय है, वैसे ही निष्फल भी है।

अकस्मात अविनाश बोल उठे - ”मगर एक विषय पर आप लोगों ने शायद ध्यान नहीं दिया। वह है शिवनाथ के अन्तिम शब्द। कमल का सब कुछ ही अगर दूसरे की प्रतिध्वनि मात्र होता तो यह बात शिवनाथ को कहने की ज़रूरत नहीं पड़ती कि वह आप पर श्रद्धा रखना सीखे। इतना कहकर उसने खुद भी गम्भीर श्रद्धा के साथ आशु बाबू के मुँह की तरफ़ देखकर कहा - ”कहने में क्या हर्ज है। वास्तव में आप जैसे भक्ति के पात्र संसार में हैं कितने? सिर्फ़ इसी के लिए मैं उसके अनेक अपराध क्षमा का सकता हूँ आशु बाबू, कि इतने-से मामूली परिचय में शिवनाथ ने इतने बड़े सत्य को हृदयंगम कर लिया।”

सुनकर आशु बाबू चंचल हो उठे। उनका विपुल कलेवर लज्जा से मानो संकुचित हो गया। मनोरमा ने कृतज्ञता से दोनों आँखें भरकर वक़्ता के मुँह की तरफ़ मुँह उठाकर देखा और कहा - अविनाश बाबू, यहीं पर उनके साथ उनकी स्त्री का सचमुच भेद है। आज मैं जान गयी कि उस दिन धोती और साबुन माँगने के बहाने वह मेरा सिर्फ़ उपहास ही कर गयी थी। उस दिन का उसका अभिनय मैं समझ नहीं सकी थी - पर उसका यह सब छल-छन्द, सब व्यंग्य व्यर्थ है। पिताजी, अगर तुम्हें वह आज सबसे बड़ा जानकार न पहचान सकी हो?

आशु बाबू व्याकुल हो उठे - तू यह सब क्या कह रही है बेटी?

अविनाश ने कहा - अतिशयोक्ति तो इसमें कहीं भी नहीं आशु बाबू। जाते वक़्त शिवनाथ ने यही बात अपनी स्त्री से कहने की कोशिश की थी। आज उसने बात नहीं की, पर उसकी इस एक ही बात से मुझे मालूम हो गया है कि उन दोनों में परस्पर यहीं सबसे बड़ा मतभेद है।

आशु बाबू ने कहा - ऐसा अगर हो, तो शिवनाथ का ही दोष है, कमल का नहीं।

मनोरमा सहसा बोल उठी - यह तो तुम्हीं जानो पिताजी कि तुमने किन आँखों से उसे देखा है, मगर तुम जैसे मनुष्य को जो श्रद्धा नहीं कर सकती उसे क्या कभी क्षमा किया जा सकता है?

आशु बाबू ने लड़की के चेहरे की तरफ़ देखकर कहा - क्यों बेटी? मुझ पर अश्रद्धा करने का भाव तो उसके एक ही आचरण से जाहिर नहीं हुआ।

“पर श्रद्धा तो नहीं दिखाई दी?”

आशु बाबू ने कहा - दिखाई देने की कोई बात भी नहीं थी मणि। बल्कि दिखाई देती तो उसका वह मिथ्याचार होता। मेरे अन्दर जिस चीज़ को तुम लोग शक्ति की बहुलता समझकर मुग्ध होते हो, उसकी नज़र में वह ख़ालिस शक्ति की कमी है। यही बात उसने मुझसे कही है कि कमज़ोर आदमी को स्नेह के सहारे प्यार किया जा सकता है - परन्तु मेरा जो मूल्य उसकी दृष्टि में नहीं है, ज़बर्दस्ती उसे देकर उसने मुझे भी नीचे नहीं गिराया और न अपना ही अपमान किया। यही तो ठीक है, इसमें व्यथित होने की तो कोई बात ही नहीं मणि।

अब तक अजित अन्यमनस्क-सा था, इस बात पर उसने इधर देखा। वह कुछ भी जानता नहीं था और जान लेने की फुरसत भी उसे नहीं मिली थी। सारी बातें उसके लिए धुँधली-सी थीं - अब आशु बाबू ने जो कुछ कहा, उससे भी स्पष्ट नहीं हुआ, फिर भी उसका मन मानो जाग उठा।

मनोरमा चुप रही, किन्तु अविनाश बाबू उत्तेजना के साथ पूछ उठे - तो क्या फिर स्वार्थ त्याग का कोई मूल्य नहीं?

आशु बाबू हँस दिये, बोले - प्रश्न ठीक प्रोफेसरों जैसा नहीं हुआ। जो भी हो - उसके लिए उसका मूल्य नहीं है।

“तो फिर आत्मसंयम की भी कोई क़ीमत नहीं?”

“उसकी दृष्टि में नहीं है। संयम जहाँ अर्थहीन है वहाँ सिर्फ़ निष्फल आत्म-पीड़न है। और उसी को लेकर अपने को बड़ा मानना सिर्फ़ अपने को ठगना नहीं बल्कि दुनिया को ठगना है। कमल के मुँह से जो कुछ सुना उससे मुझे लगा कि वह इसी बात को बार-बार कहना चाहती है।” इतना कहकर वे क्षण भर मौन रहे, फिर बोले - मालूम नहीं उसे कहाँ से यह धारणा मिली पर सहसा सुनने से बड़ा आश्चर्य होता है।

मनोरमा बोल उठी - केवल आश्चर्य होता है। सारे शरीर में जल नहीं होने लगती? पिताजी, क्या कभी कोई भी बात तुम ज़ोर के साथ नहीं कह सकोगे? जो जिसके मन में आयेगा, कहेगा और तुम उस पर हाँ कह दोगे?

आशु बाबू ने कहा - हाँ तो नहीं कहा बेटी। लेकिन मन में राग-द्वेष भरकर विचार करने से सिर्फ़ एक ही नहीं ठगा जाता, दूसरा पक्ष भी ठगा जाता है। जो बातें हम कमल के मुँह में ठूँस देना चाहते हैं ठीक वे ही बातें उसने नहीं कहीं। उसने जो कुछ कहा उसका निष्कर्ष शायद यही है कि इन लम्बे संस्कारों में सत्य समझकर जिस तत्व को हमने अपने ख़ून के अन्दर प्राप्त किया है, वह प्रश्न का सिर्फ़ एक ही पहलू है। मगर उसका दूसरा पहलू भी है। आँख मींचकर सिर्फ़ सिर हिला देने से ही कैसे चल सकता है मणि?

मनोरमा ने कहा - पिताजी, भारतवर्ष में इतने दिनों से क्या उस पहलू को देखने वाला कोई दूसरा हुआ ही नहीं?

उसके पिता ज़रा हँसकर बोले - यह अत्यन्त क्रोध की बात है बेटी। नहीं तो तुम खुद भी अच्छी तरह जानती हो कि सिर्फ़ एक हमारे देश के ही नहीं, दुनिया किसी भी देश के पूर्वगामी ‘शेष प्रश्न’ का जवाब दे गये हैं, ऐसा हो भी नहीं सकता क्योंकि तब तो फिर सृष्टि ही रुक जाती। इसके चलने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता।

सहसा उन्होंने देखा कि अजित एकटक देख रहा है। बोले - तुम शायद कुछ भी समझ नहीं रहे हो - क्यों?

अजित के गर्दन हिलाने पर आशु बाबू ने घटना की पुनरावृत्ति करते हुए समझाकर कहा, ”अक्षय ने न जाने कैसी एक होमकुण्ड की-सी पवित्र आग जला दी कि लोग उसकी तरफ़ देखना तो दूर रहा धुएँ के मारे आँख तक नहीं खोल सके। मज़ा यह कि हम लोगों का मामला है शिवनाथ के विरुद्ध, और दण्ड दिया गया है कमल को। वे थे यहाँ के एक प्रोफ़ेसर, शराब पीने के अपराध में उनकी नौकरी गयी, रुग्ण स्त्री को त्यागकर घर ले आये कमल को। बोले - ”विवाह हुआ है शैव मत से।” अक्षय बाबू ने भीतर ही भीतर पता लगाकर जाना कि सब धोखा है। पूछा गया - ”लड़की क्या कुलीन घराने की है?”

शिवनाथ ने कहा - ”वह उनके घर की दासी की कन्या है।” पूछा गया - ”लड़की क्या शिक्षित है?” शिवनाथ ने जवाब दिया - ”शिक्षा के लिए विवाह नहीं किया, किया है रूप के लिए। बात सुनी। कमल का अपराध मुझे कहीं ढूँढ़े नहीं मिला अजित, और फिर उसी को हम लोगों ने सब संसर्गों से दूर कर दिया। हम लोगों की घृणा जाकर पड़ी सबसे अधिक उसी पर। और यही हुआ समाज का न्याय!“

मनोरमा ने कहा - उसे क्या समाज के अन्दर बुला लेना चाहते हो पिताजी?

आशु बाबू ने कहा - ”मेरे ही चाहने से आ जायेगी क्या बेटी? समाज में अक्षय बाबू भी तो मौजूद हैं - उन्हीं का पक्ष तो प्रबल है।” लड़की ने पूछा - ”तुम अकेले होते तो बुला लेते शायद?”

पिता ने इसका स्पष्ट जवाब नहीं दिया, बोले - बुलाने से ही क्या सब आ जाया करते हैं बेटी?

अजित ने कहा - आश्चर्य तो यह है कि आपके साथ ही उनका सबसे ज़्यादा विरोध है, और मज़ा यह कि आपका स्नेह उन्हें सबसे ज़्यादा मिला है।

अविनाश ने कहा - इसका कारण है अजित बाबू। कमल के बारे में हम लोग कुछ जानते नहीं, जानते हैं तो सिर्फ़ उसके विद्रोही मत को! और जानते हैं उसके अखण्ड बुराई के पहलू को। इसी से उसकी बातें सुनने से हमें डर भी लगता है और गुस्सा भी आता है कि अब गया शायद सब-कुछ।

फिर आशु बाबू को लक्षित करके कहने लगे - इनका शरीर निष्पाप है, मन निष्कलुष है, सन्देह की छाया तक इस पर नहीं पड़ती, न भय का दाग़ ही लगता है। महादेव के लिए चाहे विष हो या चाहे अमृत, एक ही बात है - गले में ही लगा रहेगा, पेट में नहीं जायेगा। चाहे देवताओं का दल आ जाये और चाहे दैत्य-दानव आकर घेर लें, ये निर्लिप्त निर्विवाकर चित्त रहेंगे - सिर्फ़ गठिया के पंजे से बचे रहें तो ये खुश हैं। मगर हम लोगों को तो -

बात पूरी न हो पायी कि अचानक आशु बाबू ने दोनों हाथ उठाकर उन्हें रोक दिया। बोले - आगे अब और कुछ न कहियेगा, आपके पैरों पड़ता हूँ। लगातार एक युग का युग विलायत में बिता आया हूँ, वहाँ क्या किया है क्या नहीं, सो खुद मुझे भी याद नहीं - पर यह बात अक्षय के कानों तक पहुँच गयी तो खैर नहीं। एकदम नाड़ी-नक्षत्र तक ढूँढ़कर निकाल लायेगा। तब क्या होगा?

अविनाश ने आश्चर्य के साथ कहा - आप क्या विलायत भी गये थे?

आशु बाबू ने कहा - ”हाँ, वह कुकर्म भी मुझसे हो चुका है।”

मनोरमा ने कहा - ”बचपन से ही पिताजी की सारी एजुकेशन यूरोप में हुई है। पिताजी बैरिस्टर हैं, पिताजी डाक्टर हैं।” अविनाश ने कहा - ”कह क्या रही हो?”

आशु बाबू उसी तरह कह उठे - ”डरने की कोई बात नहीं, डरने की कोई बात नहीं प्रोफेसर, लिखा-पढ़ा सब भूल गया हूँ। दीर्घकाल से यायावर-वृत्ति अवलम्बन करके लड़की के साथ जहाँ-तहाँ लोटा-डोरी लेकर घूमता रहा, और जैसा कि आपने कहा, सारा चित्त-पट बिल्कुल धुल-पुछकर निष्पाप निष्कलुष हो गया है, धब्बा-अब्बा कहीं कुछ भी बाकी नहीं है। खैर, जो भी हो, इस बात को अक्षय बाबू के कर्णगोचर न कीजिएगा।” अविनाश ने हँसते हुए कहा - ”अक्षय से आपको डर है?”

आशु बाबू ने तुरत स्वीकार किया - हाँ। एक तो गठिया के मारे यों ही जीना कठिन है, उस पर उनका कहीं कुतूहल जागृत हो गया तो बिल्कुल ही मारा जाऊँगा।

मनोरमा गुस्से में भी हँस दी, बोली - पिताजी, यह तुम्हारी ज़्यादती है।

पिताजी ने कहा - ”ज़्यादती भले ही हो बेटी, पर आत्मरक्षा का सभी को अधिकार है।” सुनकर सबके सब हँस पड़े। मनोरमा ने पूछा - अच्छा पिताजी, मनुष्य समाज में क्या अक्षय बाबू जैसे आदमी की तुम ज़रूरत ही नहीं समझते?

आशु बाबू ने कहा - तुम्हारा यह ‘ज़रूरत’ शब्द तो बेटी संसार में सबसे ज़्यादा गोलमाल की चीज़ है। पहले इसकी मीमांसा हो जाये तब तुम्हारे प्रश्न का यथार्थ उत्तर दिया जाये। मगर वह तो कभी होने का नहीं। हमेशा से उसको लेकर तर्क चलता आ रहा है, मीमांसा अब तक हुई ही नहीं।

मनोरमा क्षुण्ण होकर बोली - ”तुम सब बातों के जवाब में ऐसे ही बचकर निकल जाते हो पिताजी, कभी साफ़-साफ़ कुछ कहते ही नहीं। यह तुम्हारी बड़ी ज़्यादती है।

आशु बाबू हँसते-हँसते बोले - साफ़ कहने लायक विद्या-बुद्धि तेरे पिता में नहीं है, मणि - यह तेरी तक़दीर है। अब मेरे ऊपर गुस्सा करने से क्या लाभ है, बता?

अजित अचानक उठ खड़ा हुआ, बोला - सिर में दर्द हो रहा है, ज़रा बाहर घूम आऊँ।

आशु बाबू चंचल होकर बोल उठे - सिर का इसमें कोई अपराध नहीं बेटा - मगर इतनी ओस में? ऐसे अँधेरे में?

दक्षिण की एक खुली खिड़की से बहुत-सी ज्योत्सना नीचे के कार्पेट पर बिखर रही थी, अजित ने उसकी ओर उनका ध्यान आकर्षित करते हुए कहा - ओस शायद थोड़ी बहुत पड़ती होगी, पर अँधेरा नहीं है। जाऊँ, ज़रा घूम आऊँ।

“पर पैदल मत घूमना।”

“नहीं। गाड़ी में ही जाऊँगा।”

“गाड़ी का ढकना चढ़ा देना अजित, कहीं ओस न लग जाये।”

अजित राज़ी हो गया। आशु बाबू ने कहा - तो फिर अविनाश बाबू को भी उधर पहुँचाते जाना। लेकिन लौटने में देर न हो।

“अच्छा“। कहकर अजित अविनाश बाबू को साथ लेकर बाहर चला गया।

उसके चले जाने पर आशु बाबू ने मुस्कराते हुए कहा, ”देखता हूँ, इस लड़के की मोटर में घूमने की सनक अभी गई नहीं है। ऐसी ठण्ड में चल दिया घूमने को।”

8

पन्द्रह दिन बाद की बात है। शाम होने में देर नहीं है, आशु बाबू और मनोरमा को अविनाश बाबू के घर उतारकर अजित अकेला घूमने निकला है। अक्सर वह ऐसा किया करता है। जो सड़क शहर के उत्तर से आकर कॉलेज के सामने से कुछ दूर जाकर सीधी पश्चिम की ओर चली गयी है, उसी पर एक निराली जगह सहसा, उच्च नारी-कण्ठ से अपना नाम सुनकर अजित चौंक पड़ा। गाड़ी रोक दी। देखा - शिवनाथ की स्त्री है। सड़क के किनारे टूटा-फूटा पुराने जमाने का एक दुमंजिला मकान है, उसके सामने वैसा ही श्रीहीन फूलों का बगीचा है और उसी के एक किनारे खड़ी कमल हाथ उठाकर उसे पुकार रही है। मोटर ठहरने पर वह उसके पास आयी, बोली - ”एक दिन और भी आप ऐसे ही अकेले जा रहे थे। मैंने कितना पुकारा, पर आप सुन ही नहीं पाये। पायेंगे कैसे? बाप रे बाप! इतने ज़ोर से जाते हैं - देखने से मालूम होता है जैसे दम रुक जायेगा। आपको डर नहीं लगता?”

अजित गाड़ी से नीचे उतर आया। बोला - आप अकेली कैसे? शिवनाथ बाबू कहाँ हैं?

कमल ने कहा - वे घर पर नहीं हैं। पर आप भी अकेले कैसे निकले? उस दिन भी देखा था, साथ में कोई नहीं था।

अजित ने कहा - नहीं। इधर कई दिनों से आशु बाबू की तबियत ठीक नहीं थी, इसी से वे लोग निकले नहीं। आज उन लोगों को अविनाश बाबू के यहाँ उतारकर मैं घूमने निकला हूँ। शाम को तो मुझे घर में रहना अच्छा नहीं लगता।

कमल ने कहा - ”मेरा भी यही हाल है। मगर ‘अच्छा नहीं लगता’ कहने से ही तो नहीं चलता - गरीबों को तो बहुत कुछ अच्छा लगाना पड़ता है।” कहकर वह अजित के मुँह की तरफ़ देखने लगी। फिर सहसा बोल उठी - ले चलियेगा मुझे साथ में? ज़रा घूम आऊँगी।

अजित मुसीबत में पड़ गया। साथ में आज शोफर तक नहीं था और यह वह पहले ही सुन चुका था कि शिवनाथ बाबू भी घर पर नहीं हैं, मगर ‘ना’ भी कहते नहीं बनता। ज़रा कुछ दुविधा के साथ बोला - यहाँ आपका साथी-संगी भी शायद कोई नहीं है?

कमल ने कहा - सुनो इनकी बात! साथी-संगी कहाँ पाऊं? देख नहीं रहे हैं मुहल्ले की दशा। यह स्थान शहर के बिल्कुल बाहर ही समझिये। पास ही शाहगंज में, या कुछ ऐसा ही नाम है, कहीं चमड़े का कारखाना है, - हमारे पड़ोसी सब मोची ही मोची हैं। कारखाने जाते हैं, शराब पीते हैं और सारी रात हल्ला मचाते हैं - यही मेरा मुहल्ला है।

अजित ने पूछा - इधर शरीफ लोग हैं ही नहीं क्या?

कमल ने कहा - ”शायद नहीं हैं। और हों तो क्या - मुझे वे अपने घर क्यों जाने-आने देंगे? तब तो कभी-कभी जब बहुत सूना-सूना सा मालूम होता था, आप लोगों के यहाँ भी चली जा सकती थी।” - कहते-कहते वह गाड़ी के खुले दरवाजे से ख़ुद ही जाकर बैठ गयी और बोली - आइए, मैं बहुत दिनों से मोटर पर नहीं चढ़ी। लेकिन आज मुझे बहुत दूर तक घुमा लाना होगा।

अजित को कुछ सूझा नहीं कि क्या करना चाहिए। संकोच के साथ बोला - ज़्यादा दूर जाने से रात बहुत हो जायेगी। शिवनाथ बाबू घर लौटकर आपको न देखेंगे तो शायद कुछ ख़्याल करेंगे।

कमल ने कहा - नहीं, ख़्याल करने की कोई बात ही नहीं।

अजित ने कहा - ड्राइवर के पास न बैठकर पीछे बैठिये न?

कमल ने कहा - ड्राइवर तो आप खुद ही हैं। बिना पास बैठे बात कैसे करूँगी?

इतनी दूर पीछे बैठकर मुँह बन्द करके कहीं जाया जाता है? आप बैठिये, अब देर न कीजिए।

अजित बैठ गया और गाड़ी चलाने लगा। रास्ता सुन्दर और निर्जन है, कदाचित एक आध आदमी दिखाई दे जाता है - बस। गाड़ी की तेज़ चाल क्रमशः और तेज़ होने लगी। कमल ने कहा - आप तेज़ चलाना पसन्द करते हैं, न?

अजित ने कहा - हाँ।

“डर नहीं लगता?”

“नहीं। मुझे आदत पड़ गयी है।”

“आदत ही सब कुछ है।” कहकर कमल क्षण भर मौन रही, फिर बोली - मगर मुझे तो आदत नहीं, फिर भी यह मुझे अच्छा लग रहा है। शायद स्वभाव है, इसीलिए न?

अजित ने कहा - हो सकता है।

कमल ने कहा - ज़रूर। हालाँकि विपत्ति आ सकती है, जो चढ़ते हैं उन पर भी और जो दब जाते हैं उन पर भी, ठीक है न?

अजित ने कहा - नहीं, दबेंगे क्यों?

कमल ने कहा - दब भी जायें तो क्या नुकसान है अजित बाबू? तेज़ी का भी एक भारी आनन्द है, क्या गाड़ी की और क्या इस जीवन की। मगर जो डरपोक हैं, वे नहीं चल सकते। वे सावधानी से धीरे-धीरे चलते हैं। सोचते हैं, पैदल चलने का कष्ट जो बच गया, वही उनके लिए काफी है। मार्ग को धोखा देकर वे खुश हैं, अपने को धोखा देने का उन्हें भान ही नहीं होता। ठीक है न अजित बाबू?

बात अजित की कुछ समझ में नहीं आयी, उसने कहा - इसके माने!

कमल उसके मुँह की तरफ़ देखकर ज़रा हँस दी। क्षण-भर बाद सिर हिलाकर बोली - माने नहीं, यों ही।

इतना भर समझ में आया कि बात वह खुलासा नहीं समझाना चाहती और कुछ नहीं।

अँधेरा और भी गाढ़ा होता आ रहा है, अजित ने लौटना चाहा, कमल ने कहा - अभी से? चलिए और थोड़ा जायें।

अजित ने कहा - बहुत दूर आ गये हैं, वापस पहुँचने में काफी रात हो जायेगी।

कमल ने कहा - हो जायेगी तो क्या हर्ज है?

“लेकिन शिवनाथ बाबू नाखुश होंगे।”

कमल ने कहा - हो जाने दीजिए।

अजित मन ही मन विस्मित हुआ, बोला - मगर आशु बाबू वग़ैरह को घर ले जाना है। देर हो जाने से अच्छा नहीं होगा।

कमल ने जवाब दिया - ”आगरा शहर में तो गाड़ियों की कमी है नहीं, वे आसानी से जा सकते हैं। चलिए और भी ज़रा।” इस तरह कमल मानो उसे ज़बर्दस्ती क्रमशः आगे की ओर धकेल-धकेलकर ले जाने लगी।

क्रमशः सुनसान रास्ता अत्यन्त जनशून्य और रात का अँधेरा गाढ़े से गाढ़तर होने लगा, और चारों तरफ़ का दिगन्त विस्तृत मैदान अत्यन्त स्तब्धकारी हो उठा। सहसा अजित ने एक क्षण में उद्विग्न चित्त से गाड़ी की रफ़्तार रोक दी, और कहा - अब और नहीं, लौट चलिए।

कमल ने कहा - चलिए।

वापस लौटते हुए उसने धीरे से कहा - सोच रही थी, मनुष्य झूठ के साथ

समझौता करके जीवन की कितनी सम्पदा नष्ट कर डालता है। मुझे अकेली ले जाने में आपको कितना असीम संकोच हो रहा था। मैं भी अगर उसी डर से पीछे हट जाती तो मेरे भाग्य में ऐसा आनन्द थोड़े ही बदा था।

अजित ने कहा - पर बिना अन्त तक देखे निश्चयपूर्वक तो कुछ कहा नहीं जा सकता। घर जाकर आनन्द के बदले निरानन्द भी तो भाग्य में बदा हो सकता है।

कमल ने कहा - इस अन्धकारमय निर्जन पथ में अकेली आपके पास बैठकर ऊध्र्वश्वास से न जाने कितनी दूर तक घूम आयी। आज मुझे कितना अच्छा लगा है, कुछ कह नहीं सकती।

अजित ने समझा, कमल ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया, मानो वह अपनी बात अपने को ही सुनाती जा रही है। सुनकर वास्तव में शरमाने की बात उसमें शायद कुछ भी न हो, किन्तु फिर भी पहले वह मानो संकुचित सा हो उठा। इस स्त्री के सम्बन्ध में विरोधी कल्पना और अशुभ जनश्रुति के सिवा, शायद कोई भी कुछ नहीं जानता - जितना जानते हैं वह भी सम्भव है बहुत कुछ झूठ हो - और जो कुछ सत्य है, उसमें भी शायद असत्य की छाया ऐसी घनघोर पड़ गई है कि पहचानने का कोई रास्ता ही न रहा हो। और जो, जी चाहे तो जाँचकर बता सकते हैं, वे बताते नहीं, उनके लिए सबका सब बिल्कुल बकवास है।

अजित चुप रहा, इसी से कमल को मानो चैतन्य सा हो आया। बोली - हाँ, क्या कह रहे थे, घर जाकर आनन्द के बदले निरानन्द भाग्य में बदा हो सकता है? हो क्यों नहीं सकता!

अजित ने कहा - तब फिर?

कमल ने कहा - तब भी उससे यह साबित नहीं होता कि जो आनन्द आज मिला है, वह नहीं मिला। अबकी बार अजित हँस दिया। बोला - साबित नहीं होता, मगर यह साबित ज़रूर होता है कि आप कम तार्किक नहीं हैं। आपके साथ बातों में जीतना मुश्किल है।

“अर्थात जिसको कि कूट-तार्किक कहते हैं, मैं वही हूँ?”

अजित ने कहा - नहीं, सो बात नहीं, किन्तु यह भी आप ज़रूर ही मानती होंगी कि अन्तिम फल जिसका दुख में ही समाप्त होता है, उसके आरम्भ में चाहे कितना ही आनन्द क्यों न हो, उसे सचमुच का आनन्द-भोग नहीं कहा जा सकता?

कमल ने कहा - ”नहीं, मैं नहीं मानती। मैं मानना चाहती हूँ कि जब जितना पाऊँ, उसी को सच्चा समझकर मान सकूँ। दुख का दाह मेरे बीते हुए सुख की ओस की बूंदों को सुखा न डाले। वह चाहे कितना भी क्यों न हो और परिणाम उसका संसार की दृष्टि में चाहे कितना ही तुच्छ क्यों न गिना जाये, फिर भी मैं उसे अस्वीकार न करूँ। एक दिन का आनन्द दूसरे दिन के निरानन्द के सामने शरमाये नहीं।” इतना कहकर वह क्षण भर स्तब्ध रही, फिर कहने लगी, ”इस जीवन में सुख-दुख दोनों में से कोई भी सत्य नहीं अजित बाबू, सत्य है सिर्फ़ उनके चंचल क्षण, सत्य है सिर्फ़ उनके चले जाने का छन्द मात्र। बुद्धि और हृदय से उनको पाना ही तो यथार्थ का पाना हे। क्या यही ठीक नहीं है?”

इस प्रश्न का उत्तर अजित न दे सका, किन्तु उसे लगा कि अन्धकार में भी उसकी दोनों आँखें अत्यन्त आग्रह के साथ उसकी तरफ़ देख रही हैं। मानो वह निश्चित कोई बात सुनना चाहती है।

“क्यों, जवाब नहीं दिया?”

“आपकी बातें खूब साफ़ समझ में नहीं आयीं।”

“नहीं आयीं?”

“नहीं।”

उसने एक दबी साँस ली, और फिर धीरे-धीरे कहा - इसके माने यह कि साफ़-साफ़ समझने का अभी आपका समय नहीं आया। अगर कभी आये तो उस समय मेरी याद कर लीजिएगा। करेंगे?’

अजित ने कहा - करूँगा।

गाड़ी आकर टूटे-फूटे फूलबाग के सामने खड़ी हो गयी। अजित दरवाज़ा खोलकर ख़ुद सड़क पर खड़ा हो गया। घर की तरफ़ देखकर बोला - ”कहीं भी ज़रा उजाला नहीं मालूम होता। मालूम होता है, सब सो गये।” कमल ने उतरते हुए कहा - ”शायद।”

अजित ने कहा - देखिये, आपकी ज़्यादती है न! किसी को जता भी नहीं आयी। शिवनाथ बाबू न जाने कितनी दुश्चिन्ता में पड़े होंगे।

कमल ने कहा - हाँ, वे दुश्चिन्ता के बोझ से सो गये हैं।

अजित ने कहा - ऐसे अँधेरे में जायेंगी कैसे? गाड़ी में एक हाथ लालटेन है, उसे जलाकर साथ चलूँ?

कमल ने अत्यन्त खुश होकर कहा - तब तो फिर कहना ही क्या है अजित बाबू। आइए-आइए। आपको ज़रा चाय पिला दूँ।

अजित ने अनुनय के स्वर में कहा - और जो भी हुक्म करेंगी, तामील करूँगा, मगर इतनी रात में चाय पीने की आज्ञा न कीजिए। चलिए, आपको पहुँचाए आता हूँ।

बाहर का दरवाज़ा हाथ लगाते ही खुल गया। भीतर के बरामदे में वहीं की एक दासी सो रही थी, वह आहट पा जागकर बैठ गयी। दोमंज़िला मकान है। ऊपर छोटे-छोटे दो कमरे हैं। अत्यन्त संकीर्ण जीना है, उसके नीचे हरीकेन लालटेन टिमटिमा रही है। उसे हाथ में उठाकर कमल ने अजित को ऊपर बुलाया। वह मारे संकोच के व्याकुल होकर बोला - नहीं नहीं, अब जाता हूँ। बहुत रात हो गयी है।

कमल ज़िद करने लगी - सो नहीं होने का, आइए।

अजित फिर भी दुविधा कर रहा है, देखकर कमल ने कहा - आप सोच रहे हैं, आने से शिवनाथ बाबू के सामने बड़ी शर्म की बात होगी। मगर यह क्यों सोचते कि नहीं आने से मेरे लिए तो और भी ज़्यादा लज्जा की बात होगी? आइए। नीचे से ही इस तरह अनादर के साथ आपको जाने देने से रात को मुझे नींद न आयेगी।

अजित ने ऊपर आकर देखा कि घर में चीज़-वस्तु नहीं के बराबर है। एक कम क़ीमत की आराम-कुर्सी, एक छोटी-सी टेबल, एक स्टूल, कई ट्रंक, एक किनारे पुरानी लोहे की खाट और उस पर बिस्तर-तकियों का ढेर पड़ा हुआ है। वे ऐसे बेढंगे तौर पर रखे हैं, जैसे साधारणतः उन सबकी कोई ज़रूरत ही नहीं पड़ती। घर सूना है, शिवनाथ बाबू नहीं हैं।

अजित को आश्चर्य हुआ; किन्तु मन ही मन उसने सन्तोष की साँस ली, बोला - कहाँ, वे तो अभी तक आये नहीं हैं।

कमल ने कहा - नहीं।

अजित ने कहा - आज शायद हम लोगों के यहाँ उनका गाना-बजाना खूब ज़ोर से चल रहा होगा।

“कैसे जाना?”

“कल परसों दो दिन गये नहीं हैं। आज उन्हें पाकर आशु बाबू शायद सारी क्षति पूर्ति ले रहे हैं।”

कमल ने पूछा - रोज़ जाते हैं, इधर दो दिन से क्यों नहीं?

अजित ने कहा - इसकी खबर हम लोगों से ज़्यादा आपको ही होगी। सम्भवतः आपको छोड़ा नहीं होगा, इसी से नहीं जा पाये होंगे। नहीं तो उन्हें देखने से ऐसा तो नहीं मालूम होता कि अपनी इच्छा से ग़ैरहाजिर हुए हों।

कमल कुछ क्षण उसके चेहरे की तरफ़ देखकर अकस्मात हँस दी। बोली - यह किसे मालूम कि वे वहाँ जाते हैं गाने के लिए। वास्तव में किसी आदमी को पकड़कर रखना बड़ा अन्याय है। है न?

अजित ने कहा - ज़रूर।

कमल ने कहा - वे भले आदमी हैं, इसी से। अच्छा, आपको अगर कोई पकड़कर रखता तो आप रहते?

अजित ने कहा - नहीं। इसके सिवा मुझे पकड़कर रखने वाला भी तो नहीं है?

कमल हँसती हुई दो-तीन बार सिर हिलाकर बोली - यही तो मुश्किल है। पकड़कर रखने वाला कौन कहाँ छिपा रहता है, जानने का उपाय ही नहीं। यही देखिए न, मैंने जो शाम से आपको पकड़ रखा है, इसकी आपको खबर ही नहीं। खैर रहने दीजिए, सभी बातों पर तर्क करने से लाभ क्या होगा? मगर बातों ही बातों में देर हुई जा रही है। जाऊँ मैं, उस कमरे में से आपके लिए चाय बना लाऊँ?

“और यहाँ मैं अकेला चुप मारे बैठा रहूँ? सो नहीं होने का।”

“होने की ज़रूरत भी क्या है? इतना कहकर कमल उसे अपने साथ दूसरे कमरे में ले गयी ओर उसके बैठने के लिए नया आसान बिछाकर बोली - ”बैठिये। पर विचित्र हैं इस दुनिया की बातें, अजित बाबू। उस दिन इस आसन को अपनी पसन्द से खरीदते वक़्त सोचा था कि इसे बिछाकर किसी से बैठने के लिए कहूँगी - लेकिन वह बात तो और किसी से कही नहीं जा सकती अजित बाबू, फिर भी आपको बैठने के लिए बिछा ही दिया। भला बताइए, कितने से समय का अन्तर है यह!“

इसके माने क्या हुए, सोचना बड़ा मुश्किल है! हो सकता है कि बहुत ही आसान हो, और यह भी सम्भव है कि उससे भी ज़्यादा दुरूह हो फिर भी, अजित मारे शर्म के सुखऱ् हो उठा। कहने में हिचकिचाया, मगर फिर भी बोला - उन्हें बैठने को दिया क्यों नहीं?

कमल ने कहा - यही तो आदमी की जबर्दस्त भूल है। सोचती हूँ, सब कुछ उसी के अपने हाथ में है, लेकिन कहाँ बैठा हुआ कौन सारा हिसाब-किताब उलट-पलट देता है, कोई पता ही नहीं। आपकी चाय में क्या चीनी ज़्यादा डालूँ?

अजित ने कहा - डाल दीजिए। चीनी और दूध के लोभ से ही तो मैं चाय पीता हूँ, नहीं तो उसमें मुझे कोई दिलचस्पी नहीं।

कमल ने कहा - मैं भी ऐसी ही हूँ। क्यों लोग यह पिया करते हैं, मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आता। और मज़ा यह कि इसी के देश में मेरा जन्म है।

“आपकी जन्म-भूमि क्या आसाम में है?”

“सिर्फ़ आसाम में ही नहीं, एमदम चाय के बग़ीचे में।”

“तो भी चाय में रुचि नहीं?”

“बिल्कुल नहीं। लोग दे देते हैं तो पी लेती हूँ, सिर्फ़ शराफत की ख़ातिर।”

अजित चाय का प्याला हाथ में ले चारों तरफ़ देखकर बोला - यह शायद आपका रसोईघर है?

कमल ने कहा - हाँ।

अजित ने पूछा - आप खुद ही बनाती होंगी? मगर कहाँ, आज तो बनाने का वक़्त नहीं मिला?

कमल ने कहा - नहीं।

अजित बगलें झाँकने लगा। कमल उसके मुँह की ओर देखकर हँसती हुई बोली - अब पूछिए कि तब आप खायेंगी क्या? उसके ज़वाब में मैं कहूँगी, रात को मैं खाती ही नहीं। दिन में सिर्फ़ एक ही बार खाती हूँ।

“सिर्फ़ एक ही बार?”

कमल ने कहा - ”हाँ। मगर इसके बाद ही आपको ख़्याल होना चाहिए कि तो फिर शिवनाथ बाबू घर आकर क्या खायेंगे? उनका तो कोई एक-आध बार खाने का मामला नहीं। तब फिर? इसके उत्तर में मैं कहूँगी कि ‘वे तो आप ही लोगों के यहाँ खा-पी आते हैं - उन्हें क्या फिकर है?’ आप कहेंगे ‘सो तो ठीक है, मगर रोज तो ऐसा नहीं होता?’ सुनकर मैं सोचूँगी, ‘इस बात का जवाब दूसरों को देने से लाभ ही क्या?’ पर इससे आपको सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता। तब मजबूर होकर कहना ही पड़ेगा, अजित बाबू, आप लोगों के लिए डरने की कोई बात नहीं। वे यहाँ अब नहीं आते। शैव-विवाह की शिवानी का मोह शायद अब दूर हो चुका है।”

अजित वास्तव में इस बात के माने नहीं समझ सका। गम्भीर विस्मय के साथ उसके मुँह की तरफ़ देखकर पूछने लगा - इसके माने? आप क्या गुस्से में कह रही हैं?

कमल ने कहा - नहीं, गुस्से में नहीं। गुस्सा करने लायक शायद आज मुझमें ज़ोर भी नहीं रहा। मैं समझती थी, पत्थर खरीदने के लिए वे जयपुर गये हैं, आपसे ही पहले-पहल यह ख़बर मिली कि वे आगरा छोड़कर अब तक कहीं नहीं गये हैं। चलिये, उस कमरे में चलकर बैठें।

उस कमरे में जाकर कमल ने कहा - यही हम लोगों का सोने का कमरा है। तब भी इससे ज़्यादा एक भी चीज़ यहाँ नहीं थी - आज भी नहीं है। किन्तु उस दिन इन सब चीज़ों का चेहरा देखते तो आज मुझे कहना भी नहीं पड़ता कि मैं गुस्सा नहीं हुई। लेकिन आपको तो बहुत ज़्यादा रात हो रही है अजित बाबू, अब तो देर करने से काम नहीं चलेगा।

अजित उठ खड़ा हो गया। बोला - ”हाँ, तो फिर आज चलता हूँ मैं।” कमल साथ-साथ उठ खड़ी हुई।

अजित ने कहा - ”अगर आज्ञा हो तो कल आऊँ?”

“हाँ, आइयेगा।” कहती हुई वह पीछे-पीछे नीचे उतर आयी।

अजित कुछ देर तक बगलें झाँककर बोला - अगर कुछ क़सूर न समझें तो एक बात पूँछू, शिवनाथ बाबू कितने दिन हुए नहीं आये?

“हो गये बहुत दिन।” कहती हुई वह हँस दी। अजित को लालटेन के उजाले में स्पष्ट दिखाई दिया कि इस हँसी की जात ही अलग किस्म का है। उसके पहले की हँसी से इसका कहीं भी कोई सादृश्य नहीं।

9

अजित जब घर लौटा तब रात गहरी हो गयी थी। सड़क सुनसान थी, सन्नाटा छाया हुआ था, दुकानें सब बन्द हो चुकी थीं - आदमी का कहीं नाम-निशान तक न था। घड़ी खोलकर देखा तो मालूम हुआ कि वह चाभी के अभाव में आठ ही बजे बन्द हो चुकी है। अभी शायद एक बजा होगा, या दो बजे होंगे - ठीक कितने बजे हैं, कुछ अन्दाज़ नहीं कर सका। यह निश्चित है कि आशु बाबू के घर अब तक सब अत्यन्त चिन्तित हो रहे होंगे, सोने की बात तो दूर रही, खाना-पीना तक शायद बन्द होगा। घर पहुँचकर वह क्या कहेगा, कुछ सोच न सका। सत्य घटना तो कही नहीं जा सकती, यह तर्क व्यर्थ है कि क्यों नहीं कही जा सकती। - बल्कि झूठ कहा जा सकता है, मगर, झूठ बोलने की उसे आदत नहीं थी। नहीं तो मोटर में अकेले निकलकर देर होने का कारण ढूँढ़ निकालने में इतनी चिन्ता नहीं करनी पड़ती।

गेट खुला था। दरबान ने सलाम करके कहा कि शोफ़र नहीं है, वह आपको ढूँढ़ने गया है। गाड़ी अस्तबल में रखकर अजित आशु बाबू की बैठक में गये। घुसते ही देखा कि वे अभी तक सोने नहीं गये हैं, अस्वस्थ शरीर लिए अकेले बैठे उसकी बाट देख रहे हैं। वे उद्वेग से सीधे होकर बैठ गये और बोले - आ गये। मैं बार-बार यही सोच रहा था कि कोई एक्सीडेण्ट हो गया होगा। कितनी बार तुमसे कह चुका हूँ कि दूर के रास्ते में कभी अकेले नहीं निकलना चाहिए। बूढ़े की बात आखिर सामने आयी न! शिक्षा तो मिली?

अजित शर्मिन्दा होकर ज़रा हँस दिया। बोला - आप लोगों को इतनी दुश्चिन्ता में डाल दिया, इसके लिए मैं अत्यन्त दुखित हूँ।

“दुख कल करना। घड़ी की तरफ़ नजर उठाकर देखो, दो बज रहे हैं। थोड़ा-बहुत खा-पीकर सो जाओ। कल सुनूँगा सारी बातें। यदु, ओ यदुआ! - वह नालायक चला गया क्या तुम्हें ढूँढ़ने?”

अजित ने कहा - ”देखिए तो आप लोगों की कितनी ज़्यादती है। इतने बड़े शहर में भला वह कहाँ मुझे गली-गली ढूँढ़ता फिरेगा?”

आशु बाबू ने कहा, ”तुमने तो कह दिया ‘ज्यादती’ है, मगर हम लोगों को कैसा लग रहा था सो हम ही जानते हैं। ग्यारह बजे शिवनाथ का गाना खतम हुआ, तब से - मणि गयी कहाँ? उसे भी तो तब से नहीं देख रहा हूँ?”

अजित ने कहा - शायद सो गयी होंगी।

“सोयेगी कैसे जी? अभी तक उसने खाया भी नहीं है।” कहते-कहते सहसा उन्हें एक बात याद आ गयी, बोले - ”अस्तबल में कोचवान को देखा था क्या?”

अजित ने कहा - नहीं तो।

“तब तो हो गया!“ कहकर वे दुश्चिन्ता के मारे फिर एक बार उठकर सीधे बैठ गये। बोले - जो सोचा था वही हुआ। मालूम होता है, गाड़ी लेकर वह भी गयी ढूँढ़ने। देखो तो कैसी परेशानी में डाल गयी। इस डर से कि कहीं मैं मना न कर दूँ, ज़रा कुछ कह तक नहीं गयी, चुपके-से चली गयी। कौन जाने कब लौटेगी! आज की रात, मालूम होता है, कोरी आँखों ही बीतेगी।

“मैं देखता हूँ, गाड़ी है या नहीं।” कहता हुआ अजित बाहर चला गया। अस्तबल में जाकर देखा कि गाड़ी मौजूद है और घोड़े बीच-बीच में पैर पटकते हुए मज़े में घास खा रहे हैं। उसकी एक दुश्चिन्ता मिटी।

नीचे के बरामदे के उत्तर की तरफ़ कुछ विलायती झाऊ और पाम के पेड़ जबर्दस्त लापरवाही के साथ खड़े थे। उनके ऊपर ही मनोरमा का सोने का कमरा है। यह देखने के लिए कि अब तक कमरे में बत्ती जल रही है या नहीं, अजित उस तरफ़ से घूमकर आशु बाबू के पास जा रहा था। इतने में झाड़ी में से किसी की आवाज़ सुनाई दी। अत्यन्त परिचित कण्ठ था। बात हो रही थी किसी एक गाने के स्वर के विषय में। कोई बुरी बात नहीं थी - किन्तु फिर भी उसके लिए पेड़-पौधों के झुरमुट में बैठने की ज़रूरत नहीं थी। क्षण भर के लिए अजित के दोनों पैर निर्जीव हो गये, पर क्षण भर के लिए ही। आलोचना चलने लगी और वह जैसे चुपचाप आया था वैसे ही चुपके से चल दिया। उन दोनों में से कोई भी न जान सका कि उनके इस निशीथकालीन विश्रम्भालाप का कोई साक्षी है।

आशु बाबू ने व्यग्र होकर पूछा - पता लगा?

अजित ने कहा - गाड़ी घोड़ा अस्तबल में ही है। मणि बाहर नहीं गयी।

“खैर जान में जान आयी,“ कहकर आशु बाबू ने निश्चिन्त परितृप्ति का दीर्घ श्वास लिया, फिर कहा - रात बहुत हो चुकी है, शायद वह थक-थकाकर घर में जाके सो गयी होगी। देखता हूँ कि आज लड़की का खाना नहीं हुआ। जाओ बेटा, थोड़ा-बहुत खाकर तुम भी सो जाओ।

अजित ने कहा - ”इतनी रात गये मैं अब न खाऊँगा, आप सोने जाइये।”

“जाता हूँ। पर तुम कुछ भी न खाओगे? ज़रा कुछ खा-पीकर - “

“नहीं, कुछ नहीं। आप देर न करें। सोने जायें।” इतना कहकर उस रुग्ण आदमी को भीतर भेजकर अजित कमरे में चला गया और वहाँ खुली हुई खिड़की के पास जाकर खड़ा रहा। वह निश्चित जानता था कि स्वर-सम्बन्धी आलोचना खत्म होने पर पिता की खबर लेने को मनोरमा इधर एक बार ज़रूर ही आयेगी।

मणि आयी, पर लगभग आधे घण्टे बाद। उसने पिता की बैठक के सामने जाकर देखा, कमरे में अँधेरा है। यदु शायद पास ही कहीं जाग रहा था, मालिक के पुकारने पर उसने जवाब तो नहीं दिया था, पर उनके चले जाने पर बत्ती बुझा दी थी। मनोरमा ने क्षण-भर इधर-उधर करके मुँह फेरा तो देखा कि अजित अपने कमरे में खुली खिड़की के पास चुपचाप खड़ा है। उसके कमरे में भी बत्ती जल रही थी, लेकिन सहन के ऊपर के बरामदे से क्षीण प्रकाश की किरणें आकर उसकी खिड़की पर पड़ रही थीं।

“कौन?”

“मैं हूँ अजित।”

“वाह। कब आ गये? पिताजी शायद सोने चले गये।” कहकर मनोरमा ने मानो ज़रा चुप रहने की कोशिश की; परन्तु असमाप्त बात की रफ्तार ने उसे रुकने नहीं दिया। कहने लगी - ”देखो तो तुम्हारा कैसा अविचार है! घर-भर के लोग मारे फिक्र के परेशान होते रहे, - ज़रूर कुछ न कुछ हुआ होगा। इसी से पिताजी बार-बार मना करते हैं अकेले जाने के लिए।”

इन सब प्रश्नों और मन्तव्यों का अजित ने कुछ भी जवाब नहीं दिया।

मनोरमा ने कहा - मगर उन्हें नींद हरगिज न आयी होगी। ज़रूर जाग रहे होंगे। उन्हें ज़रा खबर तो कर दूँ।

अजित ने कहा - ज़रूरत नहीं। वे मुझे देखकर ही सोये हैं।

“देखकर सोये हैं? तो फिर मुझे खबर क्यों नहीं दी?”

“उन्होंने समझा कि तुम सो गयी हो।” ”सो कैसे जाती? अब तक तो मैंने खाया भी नहीं है।”

“तो खाकर सो जाओ। रात अब ज़्यादा नहीं है।”

“तुम नहीं खाओगे?”

“नहीं“। कहकर अजित खिड़की के पास से हट गया।

“वाह, अच्छे रहे!“ इससे ज़्यादा बात उसके मुँह से न निकली। मगर भीतर से भी फिर कोई जवाब न आया। बाहर मनोरमा स्तब्ध खड़ी रही। उसमें मनाकर गुस्सा होकर अपनी जिद कायम रखने लायक ज़ोर नहीं रहा - न मालूम किसने उसका मुँह कसकर बन्द कर दिया। अजित रात खत्म करके घर लौटा है, घर भर में सबकी दुश्चिन्ता का अन्त नहीं। उसी ने खुद इतना बड़ा अपराध करके उसके अपमान की हद कर दी; और फिर भी ज़रा-सा प्रतिवाद करने की भाषा तक उसकी जबान पर न आयी। सिर्फ़ जीभ ही निर्वाक नहीं हुई, बल्कि सारी देह ही मानो कुछ क्षणों के लिए लाचार हो रही। खिड़की पर कोई वापस नहीं आया। यह जानने की भी किसी ने ज़रूरत नहीं समझी कि वह है या चली गयी। गहरी निशीथ रात्रि में उसी तरह चुपचाप खड़ी रहकर बहुत देर बाद वह धीरे-धीरे चली गयी।

सबेरे ही नौकर के ज़रिए आशु बाबू को मालूम हुआ कि कल रात को अजित या मनोरमा दोनों में से किसी ने भी नहीं खाया। चाय पीते वक़्त उन्होंने उत्कण्ठा के साथ पूछा - कल ज़रूर ही कोई जबर्दस्त एक्सीडेण्ट हो गया था, हुआ था न?

अजित ने कहा - नहीं।

“तो फिर अचानक तेल निबट गया होगा?”

“नहीं तेल काफ़ी था।”

“तो फिर इतनी देर कैसे हो गयी?”

अजित ने सिर्फ़ कहा - ऐसे ही।

मनोरमा खुद चाय नहीं पीती। उसने पिता को चाय देकर एक प्याला चाय और नाश्ते की तश्तरी अजित की ओर बढ़ा दी, पर न तो कोई बात पूछी और न मुँह उठाकर उसकी ओर देखा। दोनों के इस भाव-परिवर्तन को पिता ताड़ गये। नाश्ता करके अजित जब नहाने चला गया तब लड़की को एकान्त में पाकर उद्विग्न कण्ठ से बोले - नहीं बेटी, यह बात अच्छी नहीं। अजित के साथ हम लोगों का सम्बन्ध चाहे जितना भी घनिष्ठ क्यों न हो, फिर भी घर में वे अतिथि हैं। अतिथि के योग्य सम्मान उनका होना ही चाहिए।”

मनोरमा ने कहा - देना नहीं चाहिए, ऐसा तो मैंने नहीं कहा, पिताजी।

“नहीं, नहीं, नहीं कहा’ यह सच है, लेकिन हमारे आचरण से किसी तरह की विरक्ति या लापरवाही होना भी अपराध है।”

मनोरमा ने कहा - सो मानती हूँ। पर तुमने किससे सुना कि मेरे आचरण से अपराध बन पड़ा है?

आशु बाबू इस प्रश्न का जवाब न दे सके। उन्होंने सुना कुछ भी नहीं, न कुछ जानते ही हैं, सब कुछ उनका अनुमानमात्र है। फिर भी मन उनका प्रसन्न न हुआ। कारण, इस तरह से बहस की जा सकती है, किन्तु उत्कण्ठित पिता के चित्त को निःशंक नहीं किया जा सकता। थोड़ी देर बाद उन्होंने धीरे-धीरे कहा - उतनी रात में अजित ने फिर खाना नहीं चाहा, और मैं भी सोने चला गया; तुम पहले ही सो गयी थी - न जाने कहाँ से हो सकता है, हम लोगों की तरफ़ से ही कोई लापरवाही जाहिर हुई हो। उनका मन आज वैसा प्रसन्न नहीं मालूम होता।

मनोरमा ने कहा - वे अगर सारी रात राह में बिताना चाहे तो हम लोगों को भी क्या उनके लिए घर में जागते रहना होगा? यही क्या अतिथि के प्रति गृहस्थ का कर्तव्य है पिताजी?

आशु बाबू हँस दिये। अपनी तरफ़ इशारा करके बोले - गृहस्थ के माने अगर यह गठिया का रोगी हो बेटी तो उसका कर्तव्य है कि आठ बजे के अन्दर ही सो जाये। नहीं तो वह भी बहुत बड़े सम्मानित अतिथि गठिया के प्रति असम्मान दिखाना होगा। और उसके माने अगर और किसी के हो तो उसका कर्तव्य बताने वाला मैं कोई नहीं। आज बहुत दिन पहले की एक घटना याद आ गयी मणि, तुम्हारी माँ तब जिन्दा थीं। एक बार मैं मछली पकड़ने गुप्तिपाड़ा गया तो लौट नहीं सका। सिर्फ़ एक रात ही नहीं, तुम्हारी माँ ने उसी पर पूरी की पूरी तीन रातें खिड़की में बैठे-बैठे बिता दीं। उसको यह कर्तव्य किसने सुझाया था तब पूछा नहीं जा सका, यदि फिर कभी मुलाकात हुई तो यह बात पूछना भूलूँगा नहीं।” इतना कहकर उन्होंने क्षण भर के लिए मुँह फेरकर लड़की की निगाह से अपनी आँखों को छिपा लिया।

यह कहानी कोई नयी नहीं थी। क़िस्से के तौर पर इस घटना का वे बहुत बार लड़की के सामने उल्लेख कर चुके हैं, मगर फिर भी वह पुरानी नहीं होती। जब कभी याद आ जाती है तभी वह नयी बनकर दिखाई दे जाती है।

इतने में नौकरानी आकर दरवाजे के पास खड़ी हो गयी। मनोरमा उठ खड़ी हुई। बोली - ”पिताजी, तुम ज़रा बैठो, मैं रसोई का इन्तजाम कर आऊँ।” और वह जल्दी से चली गयी। बातचीत बहुत आगे न बढ़ पाई, इससे उसे आराम मालूम हुआ।

दिन भर में आशु बाबू ने कई बार अजित के बारे में पूछा। एक बार मालूम हुआ कि वह किताब पढ़ रहा है, फिर ख़बर मिली कि वह अपने कमरे में बैठा चिट्ठी-पत्री लिख रहा है, दोपहर के भोजन के समय उसने लगभग बात ही नहीं की और खाना खत्म होते ही वह उठकर चल दिया। अन्य दिनों की तुलना में वह जितना रूखा था उतना ही आश्यर्चजनक।

आशु बाबू के क्षोभ की सीमा नहीं रही। बोले - बात क्या है मणि?

मनोरमा आज बराबर पिता की दृष्टि से बचकर चल रही थी, अब भी खासकर किसी तरफ़ बिना देखे ही बोली - मालूम नहीं पिताजी!

वे क्षण-भर अपने मन में कुछ सोच-विचारकर मानो अपने आपसे ही कहने लगे - उसके वापस आने तक मैं जाग ही रहा था। खाने के लिए भी कहा था, पर बहुत रात हो जाने से उसने खुद ही नहीं खाया। तुम्हारा सो जाना ठीक नहीं हुआ बेटी - लेकिन इसमें ऐसा क्या अपराध हो गया, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता। इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा कि इस तुच्छ कारण को उसने इतना बड़ा मान लिया।

मनोरमा चुप रही। आशु बाबू खुद भी कुछ देर मौन रहकर भीतर की लज्जा को दबाते हुए बोले - तुमने उससे बात पूछी क्यों नहीं?

मनोरमा ने जवाब दिया - पूछने की कौन-सी बात है - पिताजी?

पूछने की बहुत-सी बातें हैं, पर पूछना भी कठिन है, खासकर मणि के लिए। इसे वे समझते थे, फिर भी उन्होंने कहा - यह तो बिल्कुल साफ़ है कि वह नाराज़ है। शायद उसने सोचा है कि तुमने उसकी उपेक्षा की है। इस तरह की गलत धारणा तो उसके मन में रहने नहीं दी जानी चाहिए बेटी।

मनोरमा ने कहा - मेरे बारे में अगर गलत धारणा उन्होंने कर ली हो तो यह उनका अपराध है। एक आदमी के अपराध को सुधारने की गरज क्या दूसरे आदमी को अपने ऊपर ले लेनी चाहिए पिताजी?

पिता इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सके। लड़की को वे जिस ढंग से पालते आये हैं, उससे उसके आत्म-सम्मान पर चोट पहुँचे, ऐसा कोई आदेश वे नहीं दे सकते। उसके उठ जाने पर इसी बात पर भीतर ही भीतर ऊहापोह करते-करते वे अत्यन्त उदास हो गये। बार-बार इस बात को दुहराते हुए भी कि ऐसा हुआ ही करता है और यह भ्रम क्षणिक है, उन्हें भीतर से ज़ोर नहीं मिला। अजित को भी वे जानते थे। वह सिर्फ़ सब तरह से सुशिक्षित ही नहीं है, बल्कि उसमें ऐसी एक चारित्रिक सत्यपरता उन्होंने पायी थी कि आज के अकारण विराग से किसी तरह भी उसका सामंजस्य नहीं बैठता था। इसका निर्णय करना कठिन हो गया कि क्यों सबके असीम उद्वेग का कारण बनकर भी वह शर्मिन्दा होने के बदले नाराज़ हो गया और ऐसी असम्भव बात कैसे उसमें सम्भव हुई।

शाम के समय एक तांगे को गेट के अन्दर घुसते देख आशु बाबू ने दरियाफ़्त किया तो मालूम हुआ कि वह अजित के लिए आया है। अजित को उन्होंने बुला भेजा और उसके आने पर मुश्किल से ज़रा-सा हँसकर पूछा - तांगे का क्या होगा अजित?

“ज़रा एक दफ़े घूमने निकलूँगा।”

“क्यों, मोटर क्या हुई? फिर बिगड़ गयी क्या?”

“नहीं। लेकिन उसकी आप लोगों को ज़रूरत पड़ सकती है।”

“अगर पड़े भी तो उसके लिए बग्घी मौजूद है।” और फिर एक क्षण भर चुप रहकर बोले - बेटा अजित, मुझे सच बता दो। मोटर के बारे में कोई बात हुई है क्या?

अजित ने कहा - कहाँ, मुझे तो नहीं मालूम। लेकिन आज भी तो आपके यहाँ गाने-बजाने का आयोजन है। लोगों को लाने के लिए सबको घर पहुँचाने के लिए मोटर की ही ज़रूरत है। बग्घी में ठीक न रहेगा।

सबेरे से तरह-तरह की दुश्चिन्ताओं के कारण आशु बाबू इस बात को भूल से गये थे। अब याद आयी कि कल सभा भंग होने के बाद आज के लिए भी उन सबको आमंत्रित कर दिया गया था और शाम होते ही मजलिस बैठेगी। साथ-साथ यह भी ख़्याल आ गया कि सबको खिलाने-पिलाने की कल्पना भी मनोरमा के मन में उदित हुई थी पर वे मन ही मन ज़रा हँसकर रह गये। कारण, ढँकी हुई कलह की मानसिक अस्वच्छन्दता की वजह से इस बात का ख़्याल उन्हें खुद ही नहीं रहा था और जब याद भी आयी तो उससे तबियत प्रसन्न नहीं हुई। उस समय लड़की के लिए ये सब बातें कितनी विरक्तिकर हैं, इस बात को स्वतःसिद्ध की भाँति अनुमान करके वे बोले - आज वह सब कुछ नहीं होगा अजित।

अजित ने कहा - क्यों?

“क्यों मणि से ही पूछ देखो एक बार।” कहकर उन्होंने बेहरा को ज़ोर से पुकारकर लड़की को बुलाने भेज दिया, और फिर ज़रा हँसकर कहा - ”तुम नाराज़ हो बेटा, गाना-आना सुनेगा कौन? मणि? अच्छा, वह सब और किसी दिन होगा, अभी जाओ तुम मोटर लेकर ज़रा घूम आओ। लेकिन ज़्यादा देर नहीं लगा सकते। और कह देता हूँ कि तुम्हारा अकेले जाना भी नहीं होगा। ड्राइवर नालायक बिल्कुल आलसी होता जा रहा है। इतना कहकर वे एक कठिन समस्या की अचिन्तनीय मीमांसा करके उज्जवल आनन्द में आरामकुर्सी पर चित पड़ गये और ज़ोर की एक सन्तोष की साँस छोड़ने के साथ बोले - तुम जाओगे ताँगा किराये का करके घूमने? छिः।

मनोरमा कमरे में पैर रखते ही अजित को देख गरदन टेढ़ी करके खड़ी हो गयी। आहट पाकर आशु बाबू फिर सीधे होकर बैठ गये और सकौतुक स्निग्ध हँसी से चेहरे को चमकाकर बोले - मैं पूछता हूँ, आज की बात याद तो है बेटी, या बिल्कुल भूलभाल के निश्चिन्त बैठी हो?

“क्या पिता जी?”

“आज सबको निमन्त्रण दे रखा है? तुम लोगों का गाना-आना खत्म होने के बाद, उन लोगों को जो आज खिलाना है, - सो भी कुछ ख़्याल है?”

मनोरमा ने सिर हिलाकर कहा - है क्यों नहीं। मोटर भेज दी है उन लोगों को ले आने के लिए।

“मोटर भेज दी है ले आने के लिए? मगर खाने-पीने का इन्तजाम?”

मणि ने कहा - सब ठीक है, कोई त्रुटि न होगी।

“अच्छा।” कहकर वे फिर कुरसी पर पड़ रहे। उनके मुँह पर मानो किसी ने स्याही-सी पोत दी। बहुत देर तक चुप रहे। बाद में उठकर बैठे और कहने लगे - अजित, लड़की की तरफ़ से क्षमा माँगने में मुझे लज्जा आती है। पर उसकी माँ जिन्दा नहीं है - वे होतीं तो मुझे यह बात कहनी नहीं पड़ती।

अजित चुप रहा। आशु बाबू बोले - यह बात वे ही तुम्हारे मुँह से निकाल लेतीं कि उससे तुम क्यों गुस्सा हो, मगर वे तो हैं नहीं - मुझसे क्सा वह बात कही नहीं जा सकतीं?

उनका स्वर ऐसा करुण था कि सुनकर हृदय व्यथित हो उठा। फिर भी अजित चुप रहा।

आशु बाबू ने पूछा, ”उससे क्या तुम्हारी कोई बातचीत नहीं हुई?”

अजित ने कहा, ”हुई थी।”

आशु बाबू व्यग्र हो उठे - ”हुई थी? कब हुई? मणि अचानक कल जो सो गयी थी, सो क्या तुमसे उसने कहा था?”

अजित ने कुछ देर चुप रहकर शायद यही सोच लिया कि क्या जवाब देना चाहिए, फिर आहिस्ते से कहा - उतनी रात तक जागते रहना न आसान ही था, और न उचित। सो जातीं तो अविचार न होता, मगर वे सोयी नहीं थी। आपके सोने चलने जाने पर थोड़ी देर बाद ही उनसे भेंट हुई थी।

“फिर?”

“फिर और कोई बात आपसे नहीं कहूँगा।” कहकर वह चल दिया। दरवाजे के बाहर से वह कहता गया - शायद कल-परसों तक मैं यहाँ से चला जाऊँगा।

आशु बाबू कुछ भी समझ न सके, सिर्फ़ इतना ही उनकी समझ में आया कि कोई भयंकर दुर्घटना हो गयी है।

अजित को लेकर ताँगा बाहर चला गया और उसकी आवाज़ उन्होंने सुन ली। कुछ मिनटों के बाद ज़ोर का शोर मचाती हुई मोटर निमन्त्रिातों को लेकर आ पहुँची। उसका शोर भी उन्होंने सुन लिया। पर वे हिले-डुले नहीं, जहाँ के तहाँ मूर्ति की तरह निश्चल बैठे रहे। मजलिस लगने पर नौकर ने जाकर सन्देश दिया, बाबू साहब की तबियत ठीक नहीं है, वे सो गये हैं।

उस दिन गाना नहीं जमा, खाने-पीने का उत्साह भी म्लान हो गया - सबको बार-बार यही ख़्याल आने लगा कि घर का एक व्यक्ति घूमने के बहाने बाहर चला गया है और दूसरा व्यक्ति अपने विपुल शरीर और प्रसन्न स्निग्ध हास्य के साथ सभा की जिस जगह को उज्जवल बनाये रखता था, आज वह सूनी पड़ी है।

10

इधर अजित का ताँगा कमल के घर के सामने आकर खड़ा हो गया। कमल सड़क वाले संकीर्ण बरामदे पर खड़ी थी, आँखें चार होते ही हाथ उठाकर उसने नमस्कार किया। तांगे को इशारे से बताते हुए चिल्लाकर बोली - उसे विदा कर दीजिए। सामने खड़ा-खड़ा बार-बार लौटने की जल्दी मचायेगा।

जीने में सामने ही फिर भेंट हुई। अजित ने कहा - विदा तो कर दिया, पर लौटते वक़्त दूसरा मिल तो जायेगा?

कमल ने कहा - नहीं। ऐसी कितनी दूरी है, पैदल ही चले जाइयेगा।

“पैदल जाऊँगा?”

“क्यों डर लगेगा क्या? न हो तो मैं खुद जाकर आपको घर तक पहुँचा आऊँगी, आइए!“ कहकर वह उसे साथ लेकर रसोई घर में गयी और बैठने के लिए कल वाला वही आसन बिछाकर बोली - ज़रा देखिए तो सही, सारे दिन मैंने कितने व्यंजन बनाये हैं। आप न आते तो मैं गुस्से में यह सब मोचियों को बुलाकर बाँट देती।

अजित ने कहा - आपका गुस्सा कम नहीं है। मगर उससे इन व्यंजनों का इसकी अपेक्षा विशेष अच्छा उपयोग होता।

“इसके माने?” कहकर कमल कुछ देर तक अजित के चेहरे की तरफ़ देखती रही और फिर अन्त में खुद ही बोली - अर्थात आपको तो किसी चीज़ की कमी नहीं - शायद इसमें से ही बहुत कुछ फेंकना पड़ेगा - लेकिन उन लोगों को बड़ी भारी कमी है। वे तो इसे खाकर जैसे नया जीवन प्राप्त करेंगे। लिहाजा, उन्हें खिलाना ही रसोई का सर्वोत्तम उपयोग है, यही न?

अजित ने गर्दन हिलाकर कहा - इसके सिवा और क्या माने हो सकते हैं?

कमल ने कहा - यह हुआ साधु सज्जनों का भलाई-बुराई का विचार - पुण्यात्माओं की धर्म-बुद्धि की युक्ति। परलोक के खाते में वे लोग इसी को सार्थक व्यय मानकर लिख रखना चाहते हैं। यह नहीं समझते कि असल में यही अन्तःसारशून्य थोथा व्यय है। इस बात को वे कहाँ से जानेंगे कि सच्चे आनन्द का सुधा पात्र तो अपव्यय के अविचार से ही ऊपर तक भर उठता है।

अजित ने आश्चर्य के साथ कहा - मनुष्य के कर्तव्य की भावना के अन्दर क्या आनन्द है ही नहीं?

कमल ने कहा - नहीं, नहीं है। कर्तव्य के अन्दर जो आनन्द मालूम होता है वह आनन्द नहीं, आनन्द का भ्रम है, वास्तव में वह दुख का ही नामान्तर है। उसे बुद्धि के शासन से जबर्दस्ती आनन्द मानना पड़ता है। पर वह तो बन्धन है। नहीं तो, यह जो शिवनाथ का आसन लाकर आपको बिठाया है, प्रेम के इस अपव्यय में आनन्द कहाँ से पाती? यह जो दिन भर भूखे रहकर मैंने इतनी चीज़ें बनायी हैं - आप आकर खायेंगे इसलिए ही तो? फिर इतने बड़े अकर्तव्य के अन्दर मुझे तृप्ति कहाँ से मिलती? अजित बाबू, आज मेरी सब बातें आप नहीं समझेंगे, समझने की कोशिश करने से भी कुछ फायदा नहीं होगा, मगर इतनी बड़ी उलटी बात के माने अगर कभी अपने आप आपकी समझ में आ जाये तो उस दिन मेरी याद कीजिएगा। पर यह सब जाने दीजिए, आप खाने बैठिये। और उसने थाल भरकर बहुत तरह के भोज्यवस्तु उसके सामने रख दिये।

अजित ने बहुत देर तक चुप रहकर कहा - यह ठीक है आपके कुछ अन्तिम शब्दों का अर्थ मैं ठीक से समझ नहीं सका लेकिन मालूम होता है कि वे बिल्कुल ही अबोध्य हों सो बात नहीं। समझा देने से समझ भी सकता हूँ।

कमल ने कहा - कौन समझा देगा अजित बाबू? मैं? मुझे ज़रूरत? और हँसते हुए उसने बाकी पात्र उसके आगे बढ़ा दिये।

अजित खाने में मन लगाकर बोला - आपको शायद मालूम नहीं कि कल मेरा खाना नहीं हुआ।

कमल ने कहा - जानती तो नहीं, पर मुझे डर था कि इतनी रात में जाकर शायद आप खायेंगे नहीं। यही हुआ। मेरे अपराध से ही कल आपने तकलीफ़ पायी।

“लेकिन आज ब्याज-समेत वसूल हो रहा है।” बात करते ही उसे याद आ गयी कि कमल अभी तक भूखी है। मन ही मन लज्जित होकर बोला - पर मैं बिल्कुल जानवरों जैसा स्वार्थी हूँ। दिन-भर आपने कुछ खाया नहीं, उसका मैंने ज़रा भी ख़्याल नहीं किया और मजे से खाने बैठ गया।

कमल ने हँसते चेहरे से जवाब दिया - ”पर यह तो मेरे अपने खाने से भी बढ़कर है। इसी से तो झटपट आपको बिठा दिया है अजित बाबू।”’ फिर ज़रा ठहरकर कहा - और यह मांस-मछली का मामला - मैं तो खाती नहीं।

“फिर खायेंगी क्या आप?”

“यह है न।” उसने एक ओर ढँककर रखे हुए एनमिल के कटोरे को हाथ के इशारे से दिखाते हुए कहा - उसके अन्दर मेरे लिए चावल-दाल-आलू उबले हुए रखे हैं। वही मेरा राज-भोग है।

इस विषय में अजित का कुतूहल दूर नहीं हुआ, साथ ही उसे संकोच ने रोका भी। इस डर से कि कहीं वह गरीबी का जिक्र न कर बैठे, उसने दूसरी ही बात छेड़ दी। कहा - आपको देखकर मुझे शुरू से ही ऐसा आश्चर्य हुआ कि कुछ कह नहीं सकता।

कमल हँस पड़ी। बोली - वह तो मेरा रूप है। पर उसने भी हार कबूल कर ली अक्षय बाबू के आगे। वह उन्हें परास्त नहीं कर सका।

अजित शर्मिन्दा होकर भी हँस दिया। बोला - मालूम तो नहीं होता। वे गोलकुण्डा के हीरा हैं। उनके ऊपर खरोंच नहीं पड़ती। लेकिन मुझे तो सबसे बढ़कर आश्चर्य हुआ था आपकी बात सुनकर। सहसा मानो धैर्य-सा छूट जाता है - गुस्सा आ जाता है। मालूम होता है, किसी भी सत्य को आप टिकने नहीं देना चाहतीं। हाथ बढ़ाकर रास्ता रोकना ही जैसे आपका स्वभाव हो।

कमल शायद क्षुब्ध हुई। बोली - हो सकता है। पर मुझसे भी बड़ा एक आश्चर्य वहाँ था - वह था दूसरा पहलू। जैसी विपुल देह थी, वैसी ही विराट् शान्ति। धैर्य का जैसे हिमालय हो। उत्ताप की भाप तक वहाँ नहीं पहुँचती। ऐसा जी होता है कि मैं अगर उनकी लड़की होती -

अजित को बात बहुत ही अच्छी लगी। आशु बाबू के प्रति वह अन्तःकरण में देवता की भाँति भक्ति रखता है। फिर भी उसने कहा - आप दोनों की ऐसी विपरीत प्रकृति मिली कैसे?

कमल ने कहा - ”मालूम नहीं। मैंने सिर्फ़ अपनी इच्छा की ही बात कही है। मणि की तरह मैं भी अगर उनकी लड़की होकर पैदा होती!“ फिर कुछ देर चुप रहकर बोली - ”मेरे अपने पिताजी भी कम नहीं थे। वे ऐसे ही धीर, ऐसे ही शान्त आदमी थे।

कमल दासी की कन्या है, छोटी जात की लड़की है - सबके मुँह से अजित ने यह बात सुनी थी। अब स्वयं कमल के मुँह से उसके पिता के गुणों का उल्लेख सुनकर उसका जन्म-रहस्य जानने की आकंाक्षा प्रबल हो उठी; मगर इस डर से कि पूछने-ताछने से कहीं उसकी व्यथा के स्थान पर असावधानी से चोट न पहुँचे, वह कुछ पूछ न सका; परन्तु उसका मन भीतर-ही-भीतर स्नेह और करुणा से ऊपर तक भर आया।

खाना खतम हुआ; किन्तु उठने के लिए कहने पर अजित ने इन्कार कर दिया। बोला - पहले आप खा लें। उसके बाद।

“क्यों तक़लीफ पा रहे हैं अजित बाबू, उठिये। बल्कि हाथ-मुँह धो आइये, फिर बैठिये - मैं खा रही हूँ।”

“नहीं, सो नहीं होगा। आपके बग़ैर खाये मैं आसन छोड़कर एक कदम भी इधर-उधर न होऊँगा।”

“अच्छे आदमी हैं आप।” कहकर कमल हँसती हुई अपना भोजन उघाड़ कर खाने बैठ गयी। अजित ने देखा कि उसने रंचमात्र भी अत्युक्ति नहीं की थी। चावल, दाल और उबले हुए आलू ही थे। सूखकर बदरंग हो गये थे। और दिन वह क्या खाती-पीती है उसे नहीं मालूम। पर आज इतनी तरह की और काफ़ी तैयारियों के बीच भी उसके इस स्वेच्छाकृत आत्म-पीड़न से अजित की आँखों में पानी भर आया। कल उसने सुना था कि दिन में वह सिर्फ़ एक बार ही खाती है और आज जाना कि वह यही है जो सामने दीख रहा है। लिहाजा, युक्ति और तर्क के छल से कमल मुँह से चाहे जो भी कहे, वास्तव में भोग के क्षेत्र में उसके इस कठोर आत्म-संयम से अजित की अभिभूत और मुग्ध आँखें माधुर्य और श्रद्धा से अपूर्व-सुन्दर हो उठीं और वंचना, असम्मान और अनादर से जिन व्यक्तियों ने उसे लांछित किया था उन सबके प्रति उसकी घृणा की सीमा न रही। कमल के खाने की तरफ़ देख-देखकर अपने इस भाव को वह दबा न सका। उफनते हुए आवेग के साथ कहने लगा - अपने को बड़ा मानकर जो लोग अपमान करके आपको दूर रखना चाहते हैं, जो लोग अकारण ग्लानि करते फिरते हैं, वे तो आपके पाँव छूने योग्य भी नहीं। संसार में देवी का आसन अगर किसी के लिए हो तो वह आपके लिए है।

कमल ने अकृत्रिम विस्मय के साथ मुँह उठाकर पूछा - क्यों?

“क्यों, सो मैं नहीं जानता, मगर शपथ के साथ कह सकता हूँ।”

कमल का विस्मय का भाव दूर नहीं हुआ, मगर वह चुप रही।

अजित ने कहा - अगर क्षमा करें तो एक बात पूँछू।

“कौन-सी बात?”

“पापिष्ठ शिवनाथ के द्वारा अपमान और वंचना पाने के बाद ही क्या आपने यह कृच्छ-व्रत लिया है?”

कमल ने कहा - नहीं तो। मेरे पहले पति के मरने के बाद से ही मैं यह खाया करती हूँ। इससे मुझे कष्ट नहीं होता।

अजित के मुँह पर जैसे किसी ने स्याही पोत दी। उसने कुछ देर स्तब्ध रहकर अपने को सम्भालते हुए धीरे-धीरे पूछा - आपका एक बार पहले और भी विवाह हुआ था क्या?

कमल ने कहा - हाँ। वे एक आसामी क्रिश्चियन थे। उनके मरने के बाद ही मेरे पिता भी मर गये अकस्मात् घोड़े से गिरकर। उस समय, शिवनाथ के एक चाचा थे। चाय-बगीचे के हेड-क्लर्क। उनकी स्त्री नहीं थी, माँ को उन्होंने अपने यहाँ आश्रय दिया। मैं भी उनके घर में आ गयी। इस तरह, तरह-तरह के दुःख कष्टों के बीच रहते-रहते एक वक़्त खाने की ही मेरी आदत पड़ गयी है?”कच्छ-व्रत तो क्या, पर इससे शरीर और मन दोनों अच्छे रहते हैं?”

अजित ने एक साँस लेकर कहा - ”मैंने सुना है, जाति आपकी जुलाहा है?”

कमल ने कहा - ”लोग तो यही बताते हैं। पर माँ कहती थीं कि उनके पिता आप लोगों की ही जाति के एक कविराज़ थे। अर्थात मेरे वास्तविक मातामह जुलाहे नहीं, वैद्य थे।” और वह ज़रा हँसकर बोली - सो वे चाहे जो भी रहे हों, अब गुस्सा होना भी व्यर्थ है और अफ़सोस करने से कोई लाभ नहीं।”

अजित ने कहा - सो तो ठीक है।

कमल ने कहा - ”माँ के पास रूप था, पर रुचि नहीं थी। ब्याह के बाद कोई बदनामी हो जाने के कारण उनके पति उन्हें लेकर आसाम के चाय बगीचे में भाग गये थे। पर वहाँ वे जी नहीं सके, कुछ ही महीने में बुख़ार ही बुख़ार में मर गये। तीन साल बाद मेरा जन्म हुआ बगीचे के बड़े साहब के घर।”

कमल के वंश और जन्म का वर्णन सुनकर अजित का क्षण-भर पहले का स्नेह और श्रद्धा से खिला हुआ हृदय अरुचि और संकोच के मारे सिकुड़कर बूँद-सा रह गया। उसे सबसे ज़्यादा यह बात अखरी कि अपनी और माँ की इतनी बड़ी शर्म की बात कहने में भी इसे रत्ती भर लज्जा नहीं आयी। अनायास ही कह गयी, माँ में रूप था, पर ‘रुचि’ नहीं थी। जिस आधार पर एक स्त्री मारे शर्म के जमीन में धँस जाती है, वह इसके निकट ‘रुचि का विकास’ मात्र है। इससे ज़्यादा कुछ नहीं।

कमल कहने लगी - पर मेरे पिता थे साधु-सज्जन आदमी। चरित्र में, पाण्डित्य में, सचाई में - ऐसे आदमी मैंने बहुत कम देखे हैं अजित बाबू, जीवन के उन्नीस साल मैंने उन्हीं के पास बिताये हैं।

अजित को एक बार सन्देह हुआ था कि शायद यह परिहास कर रही है। पर यह कैसा तमाशा? बोला - यह सब क्या आप सच कह रही हैं?

कमल ने कुछ-कुछ आश्चर्य के साथ ही जवाब दिया - ”मैं तो कभी झूठ बोलती नहीं अजित बाबू।” पिता की स्मृति लमहे-भर के लिए चेहरे पर एक स्निग्ध-दीप्ति फैला गयी। फिर कहा - इस जीवन में कभी किसी भी कारण झूठी चिन्ता, झूठे अभिमान, झूठी बात का सहारा मुझे न लेना पड़े - पिताजी यही शिक्षा मुझे बार-बार दे गये हैं।

अजित फिर भी मानो विश्वास न कर सका, बोला - आप एक अंग्रेज के पास ही अगर इतनी बड़ी हुई है तो आपको अँग्रेजी भी आनी चाहिये?

उत्तर में कमल सिर्फ़ ज़रा मुस्करा दी। बोली - मेरा खाना हो गया, चलिये उस कमरे में चलें।

“नहीं, अब जाऊँगा।”

“बैठेंगे नहीं? आज इतनी जल्दी चले जायेंगे?”

“हाँ, आज अब और बैठने का समय नहीं रहा।”

इतनी देर बाद कमल ने मुँह उठाकर उसके चेहरे की अत्यन्त कठोरता पर ध् यान दिया। शायद, कारण का भी अनुमान कर लिया। वह कुछ दूर निर्निमेष दृष्टि से देखती रही, फिर धीरे से बोली - अच्छा जाइये।

इसके बाद अजित क्या कहे, कुछ समझ में न आया। अन्त में बोला - आप क्या अब आगरे में ही रहेंगी?

“क्यों?”

“मान लीजिये, शिवनाथ बाबू आइन्दा अगर नहीं आये। उन पर तो आपको ज़ोर है नहीं?”

कमल ने कहा - ”नहीं।” फिर ज़रा स्थिर रहकर कहा - आप लोगों के यहाँ तो वे रोज जाते हैं, गुप्त रूप से जानकर क्या मुझे जता नहीं सकते?

“उससे क्या होगा?”

कमल ने कहा - होगा और क्या, घर का किराया इस महीने का दिया ही हुआ है; फिर मैं कल-परसों तक चली जा सकती हूँ।

“कहाँ जायँगी?”

कमल ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया, चुप रही।

अजित ने पूछा - आपके हाथ में शायद रुपये नहीं हैं?

कमल ने इस प्रश्न का भी कोई उत्तर नहीं दिया।

अजित खुद भी कुछ देर मौन रहकर बोला - आते वक़्त आपके लिए कुछ रुपये साथ लेता आया था, लीजियेगा?

“नहीं।”

“नहीं क्यों? मुझे निश्चित मालूम है कि आपके हाथ में कुछ नहीं है। जो भी कुछ था, सो आज मेरे ही लिए ख़तम हो गया।”

इसका भी कुछ उत्तर न पाकर वह फिर बोला - ज़रूरत पड़ने पर क्या मित्रों से कोई कुछ लेता नहीं?

कमल ने कहा - पर आप मित्र तो नहीं हैं?

“न सही। पर अ-मित्रों से भी लोग क़र्ज़ लिया करते हैं और फिर चुका देते हैं। तो आप वैसे ही ले लीजिये।”

कमल ने गरदन हिलाकर कहा - आपसे कह चुकी हूँ, मैं कभी झूठ नहीं बोलती।”

बात कोमल थी, किन्तु तीर के फल की तरह तीक्ष्ण। अजित ने समझ लिया कि इसमें कुछ रद्दोबदल नहीं हो सकता। उसकी तरफ़ गौर से देखा तो मालूम हुआ कि पहले दिन उसके शरीर पर जो मामूली-सा जेवर था वह भी आज नहीं है। सम्भवतः घर का किराया चुकाने में और इधर कई दिनों का खर्च चलाने में वह खतम हो चुका है। सहसा व्यथा के भार से उसका मन भीतर से रो उठा। उसने पूछा - पर जाना ही आपने तय कर लिया है क्या?

कमल ने कहा - इसके सिवा और उपाय क्या है।

उपाय क्या है, यह उसे नहीं मालूम, और इसीलिए उसे कष्ट होने लगा। अन्तिम चेष्टा के तौर पर उसने कहा - दुनिया में क्या कोई भी ऐसा नहीं है जिससे इस समय आप कुछ सहायता ले सकें?

कमल ने ज़रा सोचकर कहा - हैं, और लड़की की तरह सिर्फ़ उन्हीं के पास जाकर हाथ पसारकर माँग सकती हूँ। पर आपकी तो रात हुई जा रही है। साथ चलकर पहुँचा दूँ क्या?

अजित चंचल होकर बोला - नहीं-नहीं, मैं अकेला ही चला जाऊँगा?

तो जाइये। नमस्कार।” कहकर वह अपने सोने के कमरे में चली गयी।

अजित दो-एक मिनट वहाँ स्तब्ध होकर खड़ा रहा। फिर चुपचाप धीरे-धीरे नीचे उतर गया।

  • शेष प्रश्न अध्याय (11-16) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
  • शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की बांग्ला कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी में
  • बांग्ला कहानियां और लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां