Sheeshon Ka Masiha Koi Nahin : Asghar Wajahat

शीशों का मसीहा कोई नहीं : असग़र वजाहत

भारत हेयर कटिंग सैलून ऐसा न था। पांच साल का अर्सा इतना भी नहीं होता कि आसमान जमीन पर आ जाए और जमीन आसमान को छू ले। दबदबा हुआ करता था भारत हेयर कटिंग सैलून का और वैसा ही दबदबा था मामू का जो खड़खड़ाता सँद कुर्त्ता-पाजामा पहने, देवानंद की स्टाइल में अपने बाल सजाए, चमेली का इत्र लगाए, मुंह में जर्दे का पान दाबे। रेडियो के गाने पर धीरे-धीरे सिर हिलाते बाल काटा करते या शेव किया करते थे। शहर में मशहूर था कि मामू शेव इतना प्यार से करते हैं, उने हाथ इतना सधे हुए हैं, अंदाज इतना प्यारा है, तरीका इतने साफ-सुथरा है कि शेव बनवाने वाला शेव बनवाते-बनवाते सो जाता है। मामू ने अपने काम को कलाकारी के दर्जे तक पहुंचा दिया था। बम्बई से उनके लाख बुलावे आए, पैसों की लालच दी गई। देवानंद से मिलवाने के वायदे किए गए लेकिन मामू फतेहगढ़ जो पकड़ कर बैठे तो बैठे ही रहे।

पांच साल बाद घर यानी फतेहगढ़ आया तो मामू के भारत हेयर कटिंग सैलून को देख कर भौंचक्का रह गया क्योंकि वहां खानबहादुर आइना भी नहीं था...वो तो दुकान की जान हुआ करता था। बल्जियम में बना यह आइना खान बहादुर सुल्तान अहमद खां का था। खां साहब पाकिस्तान बनने के पांच-साल बाद हिजरत कर गए थे। उनके जाते ही नौकरों के सामान पार करना शुरु कर दिया था कस्टोडियन वालों के कब्जे में खानबहादुर आइना ही आया बल्कि ऐसी कोठी आई जिसमें खिड़कियां और दरवाजें तक न थे।

खानबहादुर सुल्तान अहमद खां के ड्राइग रुम में लगा बेल्जियम का आइना तीन पीढ़िया पहले कलकत्ता से किसी अंग्रज सौदागर से खरीदा गया था। आइना क्या था कमाल था। कहते हैं अंग्रेज कलस्तर जब तबादला होकर फतेहगढ़ आते थे तो खानबहादुर से आइना देखने की फरमाइश करते थे। आइना पीतल के फ्रेम मे जड़ा हुआ था। जो कि बहुत बड़ा न था लेकिन उसमें शक्ल ऐसी दिखाई देती थी जैसी देखने वाले न पहले कभी किसी आइने में न देखी होती थी।

मामू को जब ये पता चला था कि खानबहादुर के नौकर आइना रातों रात पार कर ले गए तो उन्होंने आइना हासिल करने के लिए जी-जान लगा दी थी। पता नहीं कितने पापड़ बेल कर, कहां-कहां थिगली लगा कर, न जाने कितने जुगाड़ करके दासियों को पटा-पटाकर, मिन्नतें खुशामदें करके मामू ने पांच सौ रुपये में आइना खरीद लिया था। रुपये उन्होंने लाला कस्तुरीमल से ब्याज पर लिए थे। ब्याज और कर्ज चुकाने के अलावा लालाजी ने एक शर्त ये भी रखी कि मामू ताजिन्दगी लालाजी का काम मुफ्त करेंगे।

लालाजी का मूलधन और ब्याज चुकाने के बाद भी मामू लाला के उपकार को सदा मानते रहे। मामू की दुकान में आइने का नामकरण हुआ था-खानबहादुर आइना। लैला-मजनू और शीरीं-फरहाद जैसा इश्क हो गया था मामू को खानबहादुर आइने से। दुकान के किसी कारीगर की हिम्मत न थी इस छूने की। मामू ही उसे रोज साफ करते थे। हफ्ते में एक बार चूने के पानी से रगड़ते थे। सूखे कपड़े से पोंछते थे मामू ये सब ऐसे किया करते ािे जैसे माएं अपने बच्चों की मालिश करती हैं। मामू की दुकान का ही नहीं, वह शहर की शान बन गया था। लोगों का तांता लगा रहता था। मामू को सिर उठाने की फुर्सत न मिलती थी। चार दूसरे कारीगर भी काम में जुटे रहते थे। ग्यारह बजे रात तक मामू की दुकान खुली रहती थी। रस्तोगियाने के सेठ दुकानें बन्द करके रात में ही बाल कटवाने आते थे और खुश होकर दुअन्नी-चवन्नी छोड़ भी दिया करते थे। मामू कहा करते थे कि खानबहादुर आइना उनके शुभ साबित हुआ है। उन्होंने सैयदबाड़े में एक छोटा-सा घर भी बनवा लिया था। उम्र और वक्त गुजरने के साथ-साथ मामू में सैकड़ों तब्दीलियां आई थीं। देवानन्द स्टाइल के बालों पर मेंहदी का रंग चढ़ गया था आंखों पर चश्मा लग रहा था, एक छोटी-सी दाढ़ी भी उग आई थी लेकिन वो शहर भर के मामू थे। मामू का नाम शायद मामू को भी न पता था। हिन्दू-मुस्लिम सभी उन्हें मामू कहते थे।
मामू की दुकान में खानबहादुर आइना न देखकर भौचक्का रह गया। मामू किसी के बाल काट रहे थे। मुझे देख कर बोले कब-आए

‘‘आज ही आया।’’ जी चाहा कि सबसे पहले यही पूछूं कि मामू का वो खानबहादुर आइना कहां चला गया लेकिन इतनी बात एकदम पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी।
‘‘बहुत साल बाद आए’ मामू ने पूछा।

हां, मैं बहुत साल बाद गया था। इसका एहसास और अपराधबोध मेरे अन्दर था। एक ऐसा शहर जहां आपकी जड़ें हों, वहां आपका ऐसा घर हो जिसे अब भी घर मानते हों और महानगर के प्लैट को अपना होने के बावजूद अब भी अपना घर न स्वीकार कर सके हों। जहां लोग आपको सर्टीफिकेट में लिखे नाम से नहीं घरेलू नाम से जानते हो, जहां लंगोटये यार हों, जहां की हवा में आपको इतना अपना पन लगता हो कि आप वहीं पसन्द करते हों...उस शहर या कस्बे से आपके सम्बन्ध टूट रहे हों तो कैसा लगेगा मुझे मामू के सवाल पर शर्म आई...हां मामू मैं सारी दुनिया घूमता रहा...सारे देश में विचरता रहा और मुझे यहां आने का समय नहीं मिला जहां से मुझे जाना ही नहीं चाहिए था।

‘‘वहां का क्या हाल है’
‘‘सब ठीक है।’’ मामू बेजारी से बोले।
‘‘आप सब ठीक रहे’मुझे मालूम था कि तीन साल पहले इस शहर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा हुआ था। दंगे की खबरें अखबारों में पढ़ी थीं। दुकानें लूटी और जलायी गई थीं। चार पांच लोग मारे भी गये थे।
‘‘हां ठीक रहे’ मामू बोले और मैं समझ नहीं पाया। मामू की दुकानशहर की इस आबादी में है जिसे हिन्दू आबादी कहा जा सकता है।

मामू जिस आदमी के बाल काट रहे थे वह गांव का लग रहा था। ध्यान से देखने पर उसकी चोटी दिखाई पड़ी जिसे मामू बड़ी एतिहात से उंगलियों के बीच दबाये बाल काट रहे थे। अच्छा तो मामू के कुछ न बोलने की ये वजह है। मैं भी चुप हो गया। मामू जल्दी-जल्दी बाल काटने लगे। चोटी उनकी उंगलियों के बीच एहतिहात से दबी रही। मैंने दुकान का फिर से जायजा लिया। प्लास्टिक के फूलों पर गर्द थी। झालरें टूट गई थीं। कुर्सियों के हत्थों पर से रक्सीन निकल गई थी और काली-काली कई दिखाई देती थी।

बाल कटाने वाला आदमी चला गया तो मामू मेरी तरफ मुड़े और इतमीनान से बैठ गए। बीड़ी का बण्डल निकाला। दो बीड़ियां जला रहे थे कि मैंने कहा, ‘‘मैंने सिगरेट-बीड़ी छोड़ दी मामू।’’
‘‘अच्छा...चलो अच्छा किया।’’उन्होंने एक बीड़ी बंडल में डाल ली।
‘‘अब बताओ क्या हाल है’
‘‘दुकान की हालत देख रहे हो’
‘‘हां लेकिन क्यों’
‘‘हां लेकिन क्यों’
‘‘वो लोग अब इधर नहीं आते।’’ उन्होंने लम्बा दम खींचने के बाद कहा।
‘‘वो लोग’’...पूछना चाहा कि वो लोग कौन हैं, लेकिन मामू ने पूछने का मौका ही न दिया।
‘‘उन्होंन अपनी अलग सब्जी मंडी बना ली है...इधर हम लोगों ने अपनी अलग अनाज मंडी बना ली है।
अब मैं समझा कि ‘‘वो’’ कौन हैं। फतेहगढ़ में सब्जी मंडी कुंजड़े लगाया करते थे और अनाज मंड़ी बनियों की थी।
‘‘अब ये हमारी दुकान ‘उनके’ इलाके में पड़ जाती है...हमारे तो यही ग्राहक थे...अब नहीं आते...
‘‘लेकिन अभी जो था’
‘‘गांव के आदमी भूले-भटके चले आते हैं।’’
मैं चुपचाप सुनता रहा, बोलने या कहने के लिए कुछ न था।
‘‘मामू, क्या फसाद में तुम्हारी दुकान भी लूटी गई थी’
‘‘हां लूटी थी...जलाई भी थी...इधर लौडों ने जो काम चौक में किया था वही उन्होंने यहां किया...देखो चूने के पीछे धुआंई दीवार नहीं दिखाई देती।’’
‘‘हां, है तो।’’
‘‘तुम्हे पता है जैसे अपने यहां काजी होते हैं, वैसे उन्होंने भी काजी बना लिया है।’’
‘‘क्या काजी उसे क्या कहते हैं’ मुझ पर हैरत का पहाड़ टूट पड़ा।
‘‘नगराचार कहते हैं।’’
‘‘ये है कौन आदमी’
‘‘कहीं बाहर से आया है।’’
‘‘कुछ देर बाद मैंने हिम्मत करके पूछा-‘‘मामू वो खानबहादुर आइना कहां है’
‘‘है, देखोगे’
‘‘हां दिखाओ।’’

मामू के घर के बरामदे में बंधी बकरी उन्हें देख कर मिमियाने लगी। मामू उनके सिर पर हाथ फेरते अन्दर आ गए। कमरे में एक चारपाई पर लिहाफ-गद्दे रखे थे। खुंटियों पर रस्सी, पोटलियां, तौलिया, लालटेन और तमाम अल्लम-गल्लम चीजें टंगी थीं। दीवारों पर तुगरे और पुराने कलैंडर लगे थे। मैं एक तुगरे को देख ही रहा था कि मेरे पीछे कमरे में शीशे टूटने की एक तेज आवाज आई। मैं पीछे मुड़ा तो देखा मामू हाथ में खाली बोरा लिए खड़े हैं और कमरे के बीचोंबीच शीशे के छोटे-छोटे टुकड़ों का ढेर लग गया है मामू के चेहरे पर कोई भाव नहीं था। मेरे अन्दर यह पूछने की हिम्मत नहीं थी कि क्या ये वही खानबहादुर आइना है इसका ये हाल हुआ कैसे शीशे के छोटे-छोटे टुकड़ों में सैकड़ों मामू मेरी तरफ देख रहे थे। न कोई शिकवा, न शिकायत, न आहत होने का भाव, न प्रतिशोध...उनकी आंखों में अगर कुछ था तो सिर्फ यह कि कुछ न था।