शरीका (कहानी) : अली अकबर नातिक़

Shareeka (Hindi Story) : Ali Akbar Natiq

“ये सिखड़ा अपने आपको समझता क्या है? हरामज़ादा सुअर की तरह अकड़ के चलता है, ऊपर से घूरता भी है।” शोका इस वक़्त ग़ुस्से में था।
“शोके! ज़रा धीरज से काम लो, और ठंडे दिल से सोचो,” दारे बोला।
“दारे ख़ां! अब सब्र नहीं होता। बात हद से निकल गई है,” जागीरे ने अपनी मूंछों को बल देते हुए कहा।
“आख़िर ये आक़िल ख़ां हमारी सारी बिरादरी से ताक़तवर तो नहीं। कल खोह से आते हुए टांगें तोड़ दो।”
“लेकिन…”
“लेकिन वेकिन कुछ नहीं,” ग़फ़्फ़ारे ने दारे की बात काटते हुए कहा। “अभी हम इतने बेग़ैरत भी नहीं हुए कि आक़िल ख़ां दिन दहाड़े हमारी इज़्ज़त पर हाथ डाले। और अब तो बात कमियों के मुंह में भी आ गई है।”
डेरे में बैठा हर शख़्स आज तैश में था, इसलिए बात दारे के हाथ से निकल गई। वह नहीं चाहता था कि लड़ाई हो और बात आस-पास के गांव में फैल जाए, मगर रात के बारह बजे एक फ़ैसला हो गया।


सरदार नत्था सिंह की क़िलेनुमा हवेली गांव के बीचो-बीच थी, जिसमें सिखों के पचास घर आबाद थे, जिनमें ज्यादातर तादाद ज़मीनदारों की थी। गांव में ज़मीन तो चौधरी सरदार मोहम्मद उर्फ़ दारे ख़ां और सरदार अहमद बख़्श की भी काफ़ी थी, लेकिन रोब-दाब नत्था सिंह का ही था। सिख और मुसलमान का भेद-भाव बिल्कुल नहीं था। गांव वाले दुख-दर्द के साझे और सदियों से एक दूसरे के मददगार थे। कुल मिला कर ज़िंदगी अमन चैन से चल रही थी कि अचानक विभाजन का अज़ाब आ पड़ा। सारी फ़ाख़्ताएं उड़ गयीं। नत्था सिंह को भी हवेली छोड़नी पड़ी। छकड़ों पर सामान लद गया और सारा क़बीला लुधियाना के लिए बैलगाड़ियों पर सवार हो गया। चलने से पहले लोगों की गिनती हुई तो मालूम हुआ कि शेर सिंह ग़ायब है। हज़ार ढूंढ़ा लेकिन पता न चला। आख़िरकार नज़ीरे तेली ने ख़बर दी।
“सरदार जी! शेर सिंह मस्जिद में बैठा मौलवी जान मोहम्मद से कलमा पढ़ रहा है।”
यह सुन कर सरदार जी के होश उड़ गए। ख़बर धुएं की तरह उठी तो माई धेरां ने दोहत्तड़ पीटा और बैन (विलाप करने) लगी। नत्था ने जल्दी से दलबीर को भेजा कि भाई को लेकर आए। उसने लाख मन्नतें कीं लेकिन उसको न आना था न आया।
क़ाफ़िला तीन दिन तक रुका रहा। माई बाप ने क्या क्या न समझाया, मगर शेर सिंह टस से मस ने हुआ। केश कटवाकर कृपान नत्था सिंह के मुंह पर मारी और मुसल्ला होने का एलान कर दिया। आख़िर सरदार जी ने बेटे की हठधर्मी के आगे हथियार डाल दिये। हवेली की चाबियों के अलावा सौ एकड़ ज़मीन के काग़ज़ात भी उसके हवाले किये। रोती पीटती धीरां के साथ बाक़ी औलादों को लिया और लुधियाना चला गया।
उधर गांव में शादियाने बजने लगे। मौलवी जान मोहम्मद ने शेर सिंह का नाम आक़िल ख़ां रख दिया कि उसने मुसलमान हो कर बहुत अक़लमंदी का सबूत दिया है। दोज़ख़ और हिजरत दोनों से बचा।
नत्था सिंह की हवेली जो अब आक़िल ख़ां के पास थी, उसकी दीवार दारे ख़ां के छोटे भाई जमालुद्दीन के घर से मिली हुई थी। शैदां उसी जमालुद्दीन की बेटी, नाक नक़शे की दुरुस्त, बेबाक तबीयत की मालिक थी। उधर ये बीस साल का ख़ूबसूरत नौजवान था। लिहाज़ा, कभी ये दीवार से उधर और वह दीवार से इधर। विभाजन को तीन साल हो गए, किसी को कानो-कान ख़बर न हुई। यूं आराम से निभ रही थी कि एक दिन आक़िल ख़ां ने जाने क्या सोच कर जमालुद्दीन से रिश्ता मांग लिया। उस वक़्त चौधरी बिदके और उन्हें मामले की संजीदगी का अहसास हुआ। फ़ौरन इन्कार कर दिया, बल्कि लेन-देन भी ख़त्म कर दिया। उसने बड़ा ज़ोर मारा लेकिन कोई बस न चला। लाख ज़मीनों का मालिक सही, आख़िर था तो सिख का बेटा। चौधरी रिश्ता दे कर ज़माने को क्या मुंह दिखाते।
अंत में शैदां दारे ख़ां के बेटे शोके से ब्याह दी गई। मगर आक़िल ख़ां भी चुपचाप न बैठा, उससे बराबर मिलता रहा। पांच साल होने को आए। उसके दो बच्चे हो गए मगर उधर वही जज़्बा, बल्कि अब तो एहतियात भी कुछ बाक़ी न रही और बात दूर तक निकल गई। कुछ लोग तो यहां तक कहने लगे कि बच्चे शौकत के नहीं, आक़िल ख़ां के हैं।
शोके ने शैदां को लाख मारा-पीटा, कई बार आक़िल ख़ां को भी धमकाया, लेकिन नतीजा सिवाए बदनामी के कुछ न निकला। कई बार चौधरियों की नीयत बदली मगर कोई कार्रवाई न कर सके। इस तरह कुछ और वक़्त गुज़र गया। आख़िर चौधरी कहां तक बरदाश्त करते, इसलिए अब उन्हें आख़री फ़ैसला करना पड़ा।

वह खलिहान पर पहुंचा तो शब्बीरा भैंसों के चारा डाल रहा था। उसने अपनी छड़ी, जिसका दस्ता छह फ़ुट लंबे बांस का था, एक पेड़ के तने से लगा दिया और चारपाई पर लेट गया। उसने सोचा, मैं भी कोई बुज़दिल नहीं, आध सेर घी तो मेरी एक दिन की ख़ुराक है। गांव में बस एक शब्बीरा ही ऐसा है जो मेरे मुक़ाबले का है, लेकिन वह भी मेरा ही आदमी है। वैसे भी जब वह फ़िरोज़पुर से आया था तो मैंने ही उसकी मदद की, रहने को अपने खोह पर जगह दी। आज सात साल हो गए मेरी ज़मीन काश्त करता है।
उसने सोचा, ये भी अच्छा ही हुआ कि शब्बीरा मेरे ही पास चला आया। गांव में कोई तो ऐसा है जो मेरा अपना है। इन्हीं ख़्यालों में गुम था कि शब्बीरा पास आ बैठा। शब्बीरे को देख कर आक़िल ख़ां उठ बैठा। कुछ देर ख़ामोशी छाई रही। आख़िर आक़िल ख़ां की तरफ़ देखते हुए शब्बीरा बोला, “भाई आक़िल ख़ां, आजकल चौधरियों के तेवर ठीक नज़र नहीं आते।”
“लगता मुझे भी कुछ ऐसा ही है। फिर क्या किया जाए,” आक़िल ख़ां उठते हुए बोला।
“करना क्या है? मैं तो कहता हूं, शैदां का पीछा अब छोड़ ही दे। कहीं कोई नुक़सान न हो जाए,” शब्बीर ने धीमे लहजे में कहा।
“शब्बीरे, ये नहीं हो सकता!” आक़िल ख़ां बोला।
“आख़िर क्यों नहीं हो सकता?” शब्बीरे ने पूछा।
“इसलिए कि उस बेचारी की ख़ातिर तो मैंने वाहेगुरु से बेवफ़ाई की। दीन धर्म बदला, और सारी बिरादरी से लानतें लेकर मुसल्ला हुआ। जब सारा क़बीला लुधियाने चला गया तो मैंने उसी ख़ातिर गांव न छोड़ा और शेर सिंह से आक़िल ख़ां बना, बेबे रोती-पीटती चली गई।”
कुछ देर रुक कर बोला, “फिर तू भी तो मेरे साथ है। उनको पता है कि एक साथ दो शेर संभालने मुशकिल हैं।”
शब्बीरा ये सुन कर कुछ देर चुप रहा। फिर कहने लगा, “भाई आक़िल खां, ठीक है, मैं तेरे साथ हूं। आख़िर तुझे बड़ा भाई समझता हूं, लेकिन फिर भी एहतियात से।”
जब आठ-दस दिन फ़ैसले को हो गए और चौधरियों कि तरफ़ से कोई कार्रवाई न हुई तो आक़िल ख़ां फिर हौसले में आ गया। दूसरा ग़ज़ब यह हुआ कि सरदार अहमद बख़्श ने पैग़ाम भेज दिया जिसका दारे ख़ां से शरीका था।
“आक़िल ख़ां कोई बात नहीं। हौसला रखना। हम तेरे साथ हैं। आख़िर सरदार नत्था सिंह को मैंने भाई कहा था। आज उसके बेटे को अकेला कैसे छोड़ दूंगा।”
इन बातों से आक़िल ख़ां पहले से भी शेर हो गया और खुल कर खेलने लगा। फिर बात यहां तक पहुंची कि चौधरियों के मुहल्ले से गुज़रते हुए ऊंची-ऊंची खांसता और तरह-तरह की आवाज़ें भी कसने लगा।
“सुनदे सीगे, मैदान लगना वा, पर चुप चांद इ हो गई आ। बीबा! शेरां नाल मैदान लाने कोई सोख्खी गल आ। पंसेरी कलेजा चाही दा, पंसेरी।”


आज नौचंदी थी। गांव की ग़रीब औरतें और बच्चे आक़िल ख़ां की खोह खेत पर जमा थें। आक़िल ख़ां भैंसों का दूध उनमें बांटने लगा। हर नौचंदी को दूध बांटने की रस्म उसके दादा सरदार मोहन सिंह से चली आती थी। जब शाम का धुंधलका छा गया, औरतें और बच्चे अपने घरों को चले गए तो आक़िल ख़ां कुछ देर बैठ कर हुक़्क़ा पीता रहा। फिर एक हाथ में अपनी लाठी और दूसरे में कुतिया की ज़ंजीर पकड़ कर उठ खड़ा हुआ और जाते जाते शब्बीरे को आवाज़ दी (आज उसने रहट चलाया हुआ था)।
“ले शब्बीरे रब रखा, मैं चलिया, तू अज कमादिनों पानी ला के सोना।”
शब्बीरे ने हाथ के इशारे से जवाब दिया और अपने काम में लग गया।
अंधेरा छा चुका था। वह बेफ़िक्री से चलता हुआ जैसे ही चौधरियों के मुहल्ले के नुक्कड़ पर पहुंचा, कुछ जवानों ने रास्ता रोक लिया।
शोका सबसे आगे था। उसने कहा, “ले आक़िल खां, हमने आज पंसेरी कलेजा कर लिया और मैदान में भी आ गए, तू संभल ले।”

आक़िल ख़ां एक बार तो घबरा गया लेकिन जल्द ही ख़ुद को संभाला। कुतिया की ज़ंजीर खोल दी और लाठी को मज़बूती से पकड़ कर डट गया। डांगों (लाठी) और छड़ियों की बारिश होने लगी। आक़िल ख़ां बेजिगरी से लड़ रहा था। डांगों के खड़कने की आवाज़ दूर तक सुनाई देने लगी जिसकी धमक शब्बीरे के कान में भी जा पड़ी। उसने सोचा, हो न हो चौधरी आक़िल ख़ां से भिड़ गए हैं। उसने जल्दी से अपनी डांग पकड़ी और मदद को भागा।
लड़ाई तो दो मिनट में ही ख़त्म हो जाती लेकिन आक़िल ख़ां की कुतिया ग़ज़ब की निकली, उछल कूद कर चौधरियों को काटने लगी। उधर आक़िल ख़ां के साढ़े छह फ़ुट क़द और लंबे दस्ते वाली लाठी ने भी बड़ा काम किया। दो तीन चौधरियों को ज़ख़्मी करके गिरा दिया। लेकिन कहां तक, आख़िर पांच मिनट बाद आक़िल ख़ां भी गिर गया। शब्बीरा पहुंचा तो चौधरी जा चुके थे। बाक़ी भीड़ जमा थी। शब्बीरा चौधरियों को गालियां देते हुए जब आक़िल ख़ां के नज़दीक आया और उसे उठाने की कोशिश की तो वह उठ न सका। उसने देखा कि दोनों टांगें टूट चुकी थीं और कुतिया पास खड़ी ज़ख़्मी हालत में लगातार भौंक रही थी।
ख़ैर, रात के दस बजे शब्बीरे ने आक़िल ख़ां को शहर के अस्पताल पहुंचाया। इलाज शुरू हो गया। दूसरे दिन रपट दर्ज करवा दी और मुक़दमा चल पड़ा।
उधर शब्बीरे की देख-रेख और घी-दूध की बदौलत आक़िल ख़ां के ज़ख़्म जल्द ही भरने लगे, यहां तक कि कुछ ही महीनों में वह दोबारा चलने फिरने लगा, मगर टांगों में एक प्रकार का लंगड़ापन पैदा हो गया कि दूर से ही ऐब दिख जाता था। यानी वह पहली वाली बात न रही। फिर भी उसने दिल छोटा न किया और पैदल चलने के बजाय घोड़े पर बैठ कर खोह पर आने जाने लगा।

दूसरी ओर चौधरियों ने टांगें तो तोड़ दीं मगर शब्बीरे और अहमद बख़्श ने उन्हें केस में ऐसा उलझाया कि जान छुड़ाना मुश्किल हो गया। मुक़दमा लंबा होता गया यहां तक कि सालों साल लंबा हो गया। इधर धीरे धीरे आक़िल ख़ां का इश्क़ भी ठंडा पड़ गया। एक तो जिस्म में वह शक्ति न रही दूसरे मुक़दमे के उल्झावे ने उसका ध्यान बांट दिया। मगर एक कसक सी दिल में अब भी बाक़ी थी।
फिर एक दिन कुछ लोगों ने दोनों पार्टियों में सुलह करा दी जिसमें चौधरियों को कुछ तावान (हरजाना) देना पड़ गया। मगर वक़्त गुज़रने के साथ न जाने क्यों आक़िल ख़ां बुझा बुझा सा रहने लगा। बात भी कम कम ही करता। बहुत बार शब्बीरे ने भी हौसला दिया, मगर उस पर एक उदासी छाई रहती। अब वह रात को अक्सर गांव आने के बजाय शब्बीरे के पास खोह पर ही रहने लगा था। कभी कभी चुपके से रो भी लेता। इस तरह कई साल और गुज़र गए। आख़िर एक दिन शब्बीरे से कहने लगा, “शब्बीरे! कुछ दिनों से बेबे बहुत याद आ रही है। उसका जाते वक़्त का रोता हुआ चेहरा आंखों से नहीं हटता। जाने क्यों आज मेरा दिल करता है, फूट फूट कर रोऊं। अब तो कई साल ख़त आए हो गये। पता नहीं छोटी जेनां का क्या हाल होगा। बख़्तां मारी ब्याह दी गई होगी। जाने लगी तो मेरी टांगों से चिमट गई कि वेरे को साथ लेकर जाऊंगी…वाहे गुरु की सौगंध, रात को नींद नहीं आती।”
कुछ देर रुक कर आंखें पोंछते हुए बोला, “शब्बीरे! कोई मुझसे सब कुछ लेले, पर मुझे बापू और बेबे तक पहुंचा दे।”
आक़िल ख़ां की बातें सुन कर शब्बीरे के भी आंसू निकल आए। उसे भी अपने मां-बाप याद आ गए, जो अठारह साल पहले फ़िरोज़पुर से आते हुए बलवे में मारे गए थे।

फिर एक दिन आक़िल ख़ां ने तहसील जाकर दस एकड़ ज़मीन शब्बीरे के नाम कर दी और लुधियाने जाने का फ़ैसला कर लिया। सारे गांव में यह ख़बर फैल गई कि आक़िल ख़ां अपनी ज़मीन बेचकर लुधियाना जाना चाहता है। बात जैसे ही अहमद बख़्श के कान तक पहुंची, उसने ज़मीन ख़रीदने का इरादा कर लिया क्योंकि उसे मालूम था कि इतनी अच्छी और ढंग की ज़मीन हाथ आने का इससे अच्छा और सस्ता मौक़ा फिर नहीं आएगा। उसने आक़िल ख़ां से कहा, “आक़िल खां, सरदार नत्था सिंह मेरा भाई बना था, इसलिए पहला हक़ मेरा है।” ख़ैर, आक़िल ख़ां अहमद बख़्श के हाथों ज़मीन बेचने को तैयार हो गया। उधर चौधरियों को पता चला तो वे पेच-ताब खाने लगे। अहमद बख़्श का आक़िल ख़ां से ज़मीन ख़रीदना उन्हें बिल्कुल पसंद न था। मगर मुसीबत यह थी कि आक़िल ख़ां दारे ख़ां को ज़मीन कभी नहीं देता। ये दारे ख़ां को भी पता था।
मग़रिब की नमाज़ के बाद तो मस्जिद के दरवाज़े पर इस ज़मीन के मामले पर चौधरी दारे ख़ां और अहमद बख़्श के बीच बड़ी ले-दे भी हुई और दारे ख़ां ने अहमद बख़्श को यह धमकी भी दी कि तू हमें नहीं जानता, शरीके के मामले में हम क्या कर सकते हैं। ये ज़मीन हमारी ज़मीनों के साथ पड़ती है, इसलिए अगर ज़मीन ख़रीदेंगे तो हम ही। इसपर सरदार अहमद बख़्श मज़ाक़ उड़ाने वाले अंदाज़ में हंसा और आगे बढ़ गया। दूसरे दिन अहमद बख़्श रक़म और गवाह लेकर तहसील पहुंच गया कि शाम को आक़िल ख़ां के साथ उसकी बात पक्की हो गई थी, लेकिन उसने देखा कि दारे ख़ां कुछ आदमियों के साथ वहां पहले से मौजूद था। वह उसे देखकर हैरान रह गया और फिर यह सुन कर तो बेहोश होते होते बचा कि आक़िल ख़ां ने ज़मीन कुछ देर पहले ही दारे ख़ां के हाथ बेच दी है। अहमद बख़्श ने आक़िल ख़ां की तरफ़ मुड़ कर बिगड़ते हुए पूछा, “ये तूने क्या किया, तुझे हया न आई?”
उस पर आक़िल ख़ां ने सिर झुका कर कहा, “चाचा अहमद बख़्श, रात दारे ख़ां के साथ वह आई थी — अब तू ही बता, मैं शैदां की बात कैसे टाल देता?”

(अनुवाद: मिर्ज़ा ए.बी. बेग़)

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