सीमांत (बांग्ला कहानी) : मनोज बसु

Seemaant (Bangla Story) : Manoj Basu

सुनने पर कहानी जैसा लगता है पर है सच्चा विवरण। इस्माइल का दालान पड़ा पाकिस्तान में और दलीचघर हिन्दुस्तान में। धनकुट्टीशाला से धनकुट्टी उखड़वाकर उसी को लीप-पोतकर उसीको नया दलीचघर बना दिया गया। धन-कुट्टी की अब जरूरत ही नहीं रही-कोई कुछ भी नहीं कह सकेगा। और एक काम उसने लुक-छिपकर किया-दलीचघर के फर्श के नीचे एक लोटा गड़ा हुआ था, फर्श खोदकर उसे लाकर रातोरात नए दलीचघर में गाड़ दिया।

ऐसा और भी बहुतों के साथ हुआ था, सब लोगों ने अपना-अपना इन्तजाम कर लिया है। हमेशा के पड़ोसी-आपस में कितना प्यार-मुहब्बत! लेकिन जाने क्या हो गया। मेल-मिलाप अब भी है, एक ही जलसे में बैठकर वे 'बेहुला मासान' का गीत सुना करते हैं। बाहर से पहले जैसा ही, लेकिन मन-ही-मन अन्तराल सा आगयाहै।

दिगन्तव्यापी बगाउड़ा का मैदान-उस मैदान की जमीन लेकर जाने कितनी मारपीट, कोर्ट-मुकदमा, फिर अगल-बगल के खेत जोतते कितने ही सखी-सोना के गीत, हँसी-मजाक। खेतों की उस सीमा पर धान काट-काट कर ढेर लगा दिया गया है। पागड़ मारे जा रहे है। केष्टपुर के गृहस्थों के खलिहान बिलकुल खेतों के छोर पर हैं। ठिगने-ठिगने खलिहान इधर के सीमांत के राधा नगर को दिखाते हुए शान बघार रहे हैं गोल-गोल पेट फैलाकर। फसल कटे, जेठ के सूने खेतों पर सनसनाती हवा अविराम चलती है। एक ही हवा। राधा नगर के घर पछीत घर के सुपारी के पेड़ों को डुलाकर कुएं के बगल के सरकंडों के वन में बाजा बजा कच्ची सड़कों पर धूल का बवंडर उड़ाती वही हवा खेत पार कर केष्टपुर चली जाती। हवा को कोई अलग-थलग नहीं कर सका। राधा नगर के हर घर की उसाँस भी उधर चली जाती, खाली पेट की लोलुपता कतार में बने खलिहानों से सन्तोष माँगती। हाय, ये खलिहान बिलकुल सीमांत पर न बनवाकर अगर घरों के पिछवाड़े इनकी नंजरों की ओट में लेकर बनाए गये होते।

जाने कहाँ से क्या हो गया। बूढ़े पतियाते नहीं, गर्दन हिलाकर हुक्का पीते हुए कहते हैं, हुआ घंटा, हुआ ठेंगा। अब ये मालगुजारी इधर वाले वसूल लिया करेंगे-बस। बेंफिक्री से गाल भर धुआँ उगलते हुए वे कहते, पहले बगाउड़ा के खेतों का बँटवारा कर पक्की दीवार बना दे-तब समझूँगा।

दीवार नहीं खड़ी की गयी। काली पोद्दार की कारस्तानी-छायादार पक्की सड़क के बगल में पुरानी एक इमली का तना काटकर बस अँग्रेजी अक्षर 'पी' लिख दिया है। यानी इस इमली से पाकिस्तान शुरू होता है। और राधा नगर की ओर लाभान्त्रा का कूला पार कर और केष्टपुर की तरफ भी आधे कोस की दूरी पर सीमा-बाबू लोग बन्दूक सिपाही लेकर चौकी जमाए बैठे हैं। गाड़ी या आदमी सभी को चौकी के नुक्कड़ पर रुकना पड़ता है। देखभाल हिसाब-किताब होते हैं। कोई-कोई रोक भी लिया जाता है, कोई छूट भी जाता है।

दो चौकियों के बीच में बगाउड़ा मैदान के छोरों पर केष्टपुर और राधा नगर दिन-ब-दिन चौकीवालों के हातमात देखकर हक्का-बक्का होते जा रहे हैं। प्राचीन बुजुर्गों की बातों में अब कोई जोर नहीं। तरह-तरह की अंफवाहें चलती रहती हैं। सुना जाता है कि चारों ओर घोर गड़बड़ी चल रही है। स्टेशन पर चालू गाड़ियों को देखकर भी इसका अन्दांजा लग जाता है। लोग-बाग बावले से भाग रहे हैं। चमगादड़ जैसे लटके जा रहे हैं, कहने से पूरी बात साफ नहीं होती-गाड़ियों की छतों पर लोग, बगल में लोग, नीचे भी। जी हां, नीचे भी, पहिये के साथ लोग चिमटे बैठे हैं-वहाँ चन्द सीखचों पर उन्होंने बैठने का अच्छा-खासा इन्तंजाम कर रखा है। अन्त में और भी प्रत्यक्ष परिचय मिला-इस्माइल का बेटा रमजान सदर के स्कूल में पढ़ता है, वहीं उसका सिर तोड़ दिया गया।

और भी एक मामला दिखाई पड़ रहा है। रात और दिन में रेलगाड़ी दो बार जाती और दो बार आती है। सीमांत की इमली को पार कर कमल के फूलों से भरी पुरानी बावली के पास आकर इंजन धीमा पड़ जाता-शायद मशीन बिगड़ जाती या और कोई बात होती। रोजाना अनगिनत लोग बावली के उस पार इन्तजार करते। और ज्यों ही गाड़ी रुकती लगभग सौ आदमी फाँदकर उतर जाते और कांटे-तार को लाँघकर सरहद पार कर जाते। फिर देखते ही देखते बावली के किनारे बांजार जम जाता। दर-भाव, मोल-तोल, शोरगुल, सौदा लेकर खींचातानी-मानो एक जंग-सा ही छिड़ा हुआ है। घण्टे भर में खरीद-फरोख्त खत्म। बिक्री के रुपए-पैसे लेकर उस वक्त कुछ तो गाँव को, कुछ हाट को चल पड़ते-इधर का सामान खरीदकर उधर जाकर बेचना है, उसी ढंग से। चन्द महीनों में यह एक अच्छा-खासा धन्धा जोर पकड़ चुका है।

बड़े ही ताज्जुब की बात-मंजूला आकर इस्माइल के दलीचघर का दरवांजा झकझोड़ने लगी।इतने दिन चढ़े सो रहे शोर-गुहार से इस्माइल बाहर निकल आया

मंजू बोली-इस तरह क्यों देख रहे हो? क्या मुझे पहचान नहीं पा रहे हो दद्दू? जेठ-जेठानी ने खदेड़ दिया, अब बात क्या है भला? क्या तुम्हारा दिमाग चल गया, जो मेरे साथ तकल्लुफ बरतने लग गये-आना कब हुआ!

बिना जवाब दिये इस्माइल बगल से कतरा कर नीचे उतर गया। लेकिन मंजू नहीं छोड़ती.

क्यों, तुमने डाँटा नहीं, फटकारा नहीं अब तक कहाँ थी मुँह-झौंसी? तुम नहीं कह सके, क्यों तू मौत के इलाके में आ गयी, इस मुर्दा जलानेवाले मरघटे में?

इस्माइल ने मुंह फेरकर कड़वे स्वर में कहा-यह तुम लोगों का शहर-बांजार नहीं। इस जवार में किसी ने किसी को नहीं मारा। मौत का इलाका कैसे हो गया? कायस्थ टोले के चक्कर लगाकर आ रही हूं, तभी कह रही हूं। अगर मारा नहीं तो सब चले कहाँ गये? गदरवाली के भुतहे मुहल्ले की तरह सूने घर-द्वार भाँय-भाँय कर रहे हैं.

मंजू के होंठ थर-थर काँप रहे हैं। आँखों में आँसू भर आये हैं। अनदेखे बाएं हाथ से आँखें पोंछ दूसरे ही स्वर में बोली-खड़े-खडे तर-तकरार ही चलती रहेगी कि जरा बैठने भी दोगे?

आवांज सुनकर कामरन भी दालान का दरवांजा खोलकर आ गयी। उसने कहा-तूने भी कमाल किया मंजू! तुझे क्या आवभगत कर आसन-पीढ़ा दिया जाएगा? घर-द्वार कोई आसमान में तो नहीं उड़ गया?

मंजू ने शिकायत की-देखो न बड़ी दी, दद्दू जाने कैसा हो गया है! लिहाज कर बातें कर रहा है। मानो मैं कितने ही मिकदार की हूं।

कामरन बोली-चप्पल खोल, आकर बैठ! बोलने दे अनाप-शनाप। जी चाहे तो जवाब दे देना वर्ना मु/ह चिढ़ाना।

मंजूला खुश होकर बोली-मुर्दों के राज में तुम्हीं अकेली जिन्दा हो बड़ी दी। जान-में-जान आयी। दद्दू के हाव-भाव देखकर डर लग रहा था कि अभी बाईस-गजी हाथ निकाल कर कहीं कह न बैठे :

पाँचेक गाँव के बाद मशहूर गदरवाली है। ऐसा कोई नहीं होगा जिसने वहाँ के बाईस गजी हाथवाला किस्सा न सुना हो। महामारी में किसी समय वह गाँव उजड़ गया, औरत-मर्द कोई भी जिन्दा न रहा। विद्वानों का कहना है, निरा चंडूखाने की नहीं; इस किस्से में कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी है। कूला झील बाँधकर जब पहली दफा रेल की पटरियाँ बिछायी गयी थीं, उस वक्त मलेरिया से इस जवार का यही हाल हुआ था। खैर, जवाँई आ रहे हैं नई रेलगाड़ी पर सवार होकर गदरवाली में अपनी ससुराल। शाम के बाद स्टेशन पर उतरकर दनदनाते हुए आ पहुँचे। मुहल्ले में बत्ती नहीं जल रही है। ससुराल में भी यही मामला। जवाँई सदर में खड़ा हांक लगा रहा है, लेकिन कोई भी आहट नहीं देता। अन्त में बीवी निकली और हाथ थामकर भीतर ले गयी। बोली-पूरब टोले के किसी शादी वाले घर में सब लोग गये हैं, मेरी तबियत ठीक नहीं थी। मधुर हँसकर बोली-मन-ही-मन कैसा पता चल गया था कि तुम आने वाले हो...तभी नहीं गयी। फिर पति का आदर-सत्कार, ईंधन के अभाव में चूल्हे में अपना ही एक पैर डालकर खाना बनाना, खिड़की से चालीस-पचास हाथ लम्बा एक हाथ निकालकर बाग के पेड़ से नीबू तोड़कर फिर उस हाथ को समेट लेना-आदि-आदि सारा किस्सा सभी लोगों को मालूम है। मंजू ने भी कितनी ही बार सुना है, और आज कायथ टोले में किस्सेवाली मृत गदरवाली को मानो वह अपनी आँखों से देख आयी। इस्माइल छोटे नीम के बिरवे से दातौन तोड़ रहा था। कामरन से लिपटकर मंजू ने कहा, वह दद्दू अब नहीं रहा। रहता होता तो इतने दिनों के बाद आयी-दद्दू मुझसे इस तरह फटा-फटा रहता? जाने कब बाईस गजी थप्पड़ मार बैठे, चलो, बड़ी दी, अब बाहर नहीं, चलो अन्दर चल कर ही बैठें। हँसी-मंजांक में उमस को छितरा देना चाहती थी, लेकिन नतीजा उल्टा ही हुआ। मुक्का तानकर इस्माइल ने कहा-जी तो यही करता है कि एक बार मैं तेरा सिर फोड़ दूँ, भेजा छितरा जाए।

कामरन बिगड़ खड़ी हुई-बड़े बहादुर हो! जिन लोगों ने हंगामा किये वो तो सारे-के-सारे बचकर निकल गये। कूव्वत हो तो उनसे बदला लो! सो नहीं, कोई सगी अपने घर आयी तो उस पर रोब गाँठ रहे हो।

इस्माइल ने कहा, यही तो चाल है। यह आदमी देखकर नहीं, कौम देखकर हो रहा है। दो कौम हैं-हिन्दू और मुसलमान। इसमें जिस कौम को मौका मिलेगा दूसरी कौमवाले से बदला लेगा। मंजू बोली-अच्छा तो है, सिर तोड़ भी दो न। तोड़ो-तोड़ो, न तोड़ा तो बहुत बड़ी कसम दिला दूंगी। ओह, कितनी बड़ी उम्मीद लिए मैं अपने भरोसे की जगह भागती हुई आयी...मुझे तो पुल से दरिया में छलाँग ही मार लेना चाहिए था।

मारे गुस्से के मंजूला काँप रही है। वह इस्माइल की ओर लपकेगी ही या दालान के खम्भे पर सिर पटकेगी। गुस्से में आने पर आपे में नहीं रहती, हमेशा से लड़की का मिजाज ऐसा ही है, उसकी ससुराल का ब्यौरा तो सुना नहीं, फिर भी अन्दांजा लगाया जा सकता है कि इसी ऐब के लिए उसे वहाँ जगह नहीं मिली।

कामरन उसे खींचती हुई अन्दर ले गयी-कुछ बुरा न मानना मेरी नेक लल्ली। रमजान के गुजरने के बाद उसमें ऐसी ही तबदीली आ गयी है। कभी-कभी जब मुझी पर खफा हो जाता है, तो कहाँ छिपूं समझ में नहीं आता।

खाते-पीते गृहस्थ हैं ये लोग-गुहाल में गाय, खलिहान में धान। नया-पक्का दालान बनाने के बाद ख्वाहिश थी कि इकलौते बेटे को अच्छी तरह पढ़ा-लिखाकर दस जने में एक बनावें। एक नाना वकील थे, उनके घर में रहकर वह शहर के स्कूल में पढ़ता था। सत्यानाशी खबर आयी कि लाठी मारकर रमजान का सिर फोड़ दिया गया है, लाठी से पीट-पीट कर ज्यों चूहे को मारा जाता है, उसी तरह से पीटा है। दो महीने अस्पताल में रहने के बाद इस्माइल उसे केष्टपुर ले आया-पढ़ाई की अब कोई जरूरत नहीं, गाँव-घर का बेटा घर आकर जान लेकर जिन्दा रहे। ऐसे पैने-दिमांग वाले लड़के की-उच्च प्राइमरी में जिसे वजीफा मिला है-हरीश पण्डित तारीफ करते अघाते नहीं थे। वही लड़का खास कोई बातचीत नहीं करता, सूनी-सूनी आँखों से सबकी ओर देखा करता, इस कमीनी बदमाश दुनिया को वह किसी तरह से भी समझ नहीं पा रहा है। अचानक ही कभी आर्तनाद-सा कर उठता-तो, वे आ रहे हैं, अब्बा, पकड़ो, उनको रोको। आतंक से भाग खड़ा होने लगता। एक दिन इसी तरह भागने में छत से नीचे सहन में आ गिरा। फूटा हुआ सिर फिर से फूट गया-खून बन्द होने का नाम नहीं। लड़का सुन्न-सा पड़ जाने लगा, पानी-पीना चाहता। जबरदस्त प्यास। अभी पानी दो, फिर तत्काल ही कहता-पानी, पानी। जहाँ जितने पोखर, तालाब, दरिया हैं, सब सोखकर पी जाने पर भी मानो उसकी प्यास नहीं जाएगी। यह सब सोचने लग जाए तो इस्माइल का दिमाग ठिकाने नहीं रहता-उस पर जुनून-सा चढ़ जाता है।

कितने दिनों के बाद मंजूला लौट आयी है। बडी दी से घुलमिल कर सुख-दुख की बातें कर रही है। एकाएक पूछ बैठी-बाबा की और कोई खैर-खबर बता सकती हो?

कामन ने जवाब नहीं दिया। उसकी आँखें डबडबा आयीं।

मार डाले गये हैं?

कामरन ने गर्दन हिलाई। नहीं इधर कोई हंगामा नहीं हुआ-सुना तो तूने होगा फिर इधर छुरे-ऊरे नहीं चले। लेकिन एक ही बार में न मरकर वे तिल-तिलकर मर गये। शायद अब भी मर रहे हों और कहीं जाकर।

कहते-कहते वह थमक गयी। सोच रही है, हमेशा के साथी मासूम उन पड़ोसियों के बारे में। मंजूला के बाबा तो निश्चिन्त अकेले आदमी थे, लेकिन बाल-बच्चे, बीवी-रिश्तेदार लेकर जो लोग बिदा हो गये, जाने किस अनजान ठाँव पर वे भिक्षा-पात्र हाथ में लिए फिर रहे हैं। जाने किस माठ-मैदान में जरा-सी छाजन के नीचे नि:सम्बल गृहस्थी की नींव डाली है। सभी लोग सोचते हैं, जंजाल बहकर आ गया है। उद्धास्तु (घर-जड़ से उखड़े हुए) नाम दिया है उस देश के लोगों ने। मान-मर्यादा नहीं, अपना-सगा कहकर कोई नंजदीक नहीं बुलाता, सदाशय लोग ज्यादा-से-ज्यादा थोड़ी-सी दया दिखाते हैं।

मंजूला बोली-ये सारे डरपोक भाग क्यों गये? अपने गाँव अपनी डीह पर जोर-जबरन रह नहीं सके?

कामरन बोली-समझो भला। घर-जड़ क्या आदमी यों ही छोड़ देता है? छोड़ने में कलेजा फटने लगता है। फिर भी सर्वस्व छोड़ वे रात के अँधेरे में चोरों की तरह भाग गये।

लेकिन मैं तो रहने आयी हूं बड़ी दी। जाऊँ भी कहाँ, कहीं पर भी तो ठाँव-ठौर नहीं। दद्दू से अपने मकान का एक कमरा दुरुस्त करवा लूंगी। उसकी भी भला क्या जरूरत? इस मकान में क्या एक मनई के लिए जगह नहीं होगी? मरूंगी भी तो अपनी जगह पर, जाने-पहचाने लोगों के बीच एक दिन मुंह के बल गिरकर मर जाऊँगी। भीख की झोली हाथ में लिए बाहर भाग-दौड़ करते रहना बड़ा घिनौना काम है, उससे तो मौत बेहतर है।

इस्माइल ने दरवाजे से मुंह बढ़ाया। क्या वह खड़े-खड़े सब कुछ सुन रहा था? लेकिन बातों के लहजे से पता नहीं चलता। बोला, नहा-धोकर खाना बना ले! गप लड़ाना मुलतवी रख! रात को तो ठेंगा मिला होगा। झटपट कर...

आलस से अंगड़ाई लेती हुई मंजूला बोली, अकेले अपने लिए खाना बनाने मेरा ठेंगा जाए। तुम लोग क्या राँधोगी नहीं, बड़ी दी? मुझे बिना दिये खाओगी?

ऐसा ही तो होता था...होता भी आया है,-जरा आनाकानी करने के बाद कामरन ने कहा, तू जो अपना नसीब जलाकर आयी है, हमारा पकाया कैसे खाएगी? लोग छी:-छी: करेंगे।

मंजू के जवाब देने से पहले ही इस्माइल ने हाँक लगाई, अहं, खाना पकाकर नहीं खा सकती! पकाना ही पड़ेगा। नहीं पका सकती तो उपासे रह जा! और इस्माइल अगर गुस्साए तो मंजू कोई उन्नीस नहीं, हमेशा की यही रीतिहै।

तुम्हारे घर में उपासे रहूँगी, खैर, यही बात रही। पानी की बूंद तक नहीं लूँगी।

इस्माइल बुदबुदा रहा है-नवाबजादी आयी है न...उसको राँध-पकाकर खिला-पिला दो। बाप हमेशा हमारे सिर पर पैर रखकर चलता रहा, बेटी का भी वैसा ही मिजाज है। लेकिन इसका नाम है पाकिस्तान! यहाँ हेकड़ी तुम लोगों के लिए नहीं।

कामरन झिड़क उठी !

यह सब क्यों कहते हो? इत्ती-सी उम्र से खाती आ रही है, खुद तुम्हीं ने जाने कितनी बार अपने हाथों खिलाया होगा। उसी की आदी है, इसलिए कह रही है...

इस्माइल बोला, बस करो। बेईमानों के गिरोह हैं। आंखिर में कहेगी, ंजहर खिला दिया है हथकड़ी लग जाए मेरे हाथों में!

फिर वह वहाँ ठहरा नहीं, दनदनाता हुआ चल पड़ा। दूर कब्रिस्तान के ऊपर बांस की झुरमुट झुक गयी। दो दिन बारिश के बाद खिली धूप निकल आयी है, धूप से झील, रास्ते, खेत सराबोर हो गये हैं, बांस की पत्तियों से छनकर धूप की कलियाँ कब्र पर आ पड़ी हैं। आज वहाँ मानो बड़ा हुल्लड़ मचा हुआ हो। बांस चें-चों की आवांज कर रहे हैं, मानों बांस के दरख्त पर हिंडोला डाले लड़कों की एक टोली खूब पेंग मार रही है। इस्माइल थमककर खड़ा हो गया और बस चारों ओर सन्नाटा छा गया। मानों उसके डर से सब चुपा गये हों।

दिल के भीतर से कोई मानो रो उठा-रमजान की आवांज लिये!

मेरे लिए खाना नहीं बनाओगे, भात नहीं दोगे, पानी नहीं दोगे, मुझे मना कर दिया, मैं उपासे रहूँगा? अब्बा जान, तूने मुझे अपने घर में ही अलग कर दिया?

यह रुदन दिनभर चलता रहता। छिनभर भी इस्माइल को कहीं बैठने नहीं देता, उद्भ्रान्त-सा रास्तों पर भटकाता फिरता। रात हुई, रात भीगने लगी...उस वंक्त भी सिसकता जा रहा है। इस्माइल की पेट की भूख और आँखों की नींद दोनों ही चली गयी हैं। किसी-किसी दिन ऐसा ही हुआ। इतना बड़ा लड़का रमजान...स्कूल में पढ़ता था...लेकिन रोता है तो बिलकुल नादान जैसा।

दलीचघर में चटाई पर इस्माइल करवट बदल रहा है। फिर उठकर बैठ गया। बाहर आकर देखा, दालान का दरवाजा बन्द कर वे मजे में सो रहे हैं। बत्ती नहीं, किसी आदमी की कोई आहट नहीं। किसी ओर कुछ डर-सा लग रहा है। कमरे में अकेला रहा नहीं जाता, किसी के साथ बोलने-बतियाने का जी करता है।

नहीं जी, अकेले क्यों होंगे, बहुत सारे तो हैं। बहुत सारी गिन्नियाँ। एक-एक गिनती निकालकर सब लोगों की आँखों से बचाकर एकाध बार देख लेता। कम उम्र का बाप पहले बेटे के बारे में जैसा करता है...नाते-रिश्तेदार जाने क्या खयाल करेंगे। इसलिए सबकी नंजरों से बचाकर जरा-सा लाड़-प्यार-दुलार कर लेता है। हां, इसकी एक-एक गिन्नी के लिए जो तकलीफ उठानी पड़ी है उसके मुकाबले एक बेटे का झंझट झेलना कहीं आसान है। ये ही सब बेटे हैं...हिसाब लगाकर देखो, कितने हैं।वे हैं जमीन के नीचे पीतल के लोटे में। कितने हो गये? झटपट इस्माइल ने चटाई उठाकर गदेली से फर्श की जमीन खोदनी शुरू कर दी। लोटा निकला। हाथ डालकर देखा। ओफ, भरने में अब भी कितना बाकी है! लगता है लोटे का पेट बढ़ता ही जा रहा है। उसकी इतनी मेहनत की अशर्फियाँ कहीं जमीन सोखे तो नहीं ले रही है? बत्ती जलायी नहीं जा सकती... जाने कौन-सा शैतान खपचियों की दीवार की सन्ध में आँखें डाले बैठा हो। आज तक कभी अशर्फियों को इकट्ठा नहीं देखा...अँधेरे में देखे भी तो कैसे? अल्लाह रहमान अगर आँखों के चिरांग को जरा उजियाला कर दिये होते तो वह अँधेरे में ही एक बार देख लेता। आँखों से देख नहीं पाता इसलिए हाथों से टटोल-टटोल कर देखता।

तालाब खुदवाएगा वह। बोर्ड के प्रेसिडेंट रफीक मियाँ से उसने कह रखा है। छोकरा-सा है, लेकिन बड़ा आलिम, इसीलिए इतना बड़ा ओहदा मिला है। अपनी सारी जिन्दगी की जोड़ी-बचायी ये गिन्नियाँ वह रफीक के हाथों से सौंप देगा। मातबरों को गवाह रखेगा। फिर घर के सामने की अमराई, गड़ैया-तलैया, वन-जंगल सब कुछ का सफाया हो जाएगा किसी समय, और कौवे की आँख-जैसा पानी वहाँ छलछलाता रहेगा। खोदी हुई मिट्टी चारों ओर पहाड़ की तरह ऊँची हो जाएगी। देस-परदेस के लोग आँखें फाड़-फाड़कर देखा करेंगे। अगर बना पड़ता दो तरफ दो पक्के घाट बनवा देता। घाट के ऊपर जुड़वे बरगद पीपल। दूर-दूर के बटोही आकर पेड़ तले सुस्ताएंगें और अंजुली भरकर ठंडा पानी पिएंगे। आदमी भी पिएंगे, गाय-बछिए भी। लड़के-बच्चे ऊधम मचाते गुसल करेंगे, बहू-बेटियाँ घड़े भर-भर गांव के घर-घर ले जाएंगी। बरसात में ताड़ की डोंगी पर बैठ गोल जाल से पोंठी-मौरला-कबई पकडेंग़े गाँव के जवाँमर्द लोग...

इस्माइल सोचता, सोचते-सोचते पागल-सा हो जाता। क्या वह रमजान की वह बावली देख सकेगा। अल्लाहताला, मेरी बड़ी तमन्ना है, सख्त मिट्टी पर पानी की लहरें खेलेंगी, आँखें भरकर मैं वह देखा करूँगा। चाहे कितने साल लग जाएं, मुझे जिन्दा रखना। प्यास से तड़पता मेरा रमजान अन्त में शान्त हुआ-शान्त आँखें बन्द कर बँसवारी के नीचे चाँद के निशान वाले कब्र के नीचे आराम से सो रहा है। सोते बेटे के मुंह में प्यास का पानी पड़ेगा। अगर मैं उसके नामपर बावली कटवा कर जा सकूं।

आठेक दिन बीत गये। गाँव भर में चर्चा होने लगी। सभी इस्माइल को धिक्कारने लगे। यदुराय की बेटी को ठाँव दिया है, वह बाप की बेटी जाने किस मनसूबे से फिर आ घुसी है? और दूसरी बातें भी कोई-कोई करता है। शाबाश, हमारे सरदार का बेटा! भुलावा देकर उसे रख लिया है, कलमा पढ़ाकर रफीक मियाँ के साथ निकाह कर देगा। इसलिए हाल में रफीक का अड्डा इस्माइल के घर पर बन गया है। इस्माइल के कहने पर वह उठता-बैठता है। अन्त में, परोक्ष नहीं, रफीक के लोगों ने आकर खुलासे से बातें की।

यदुराय साला पाकिस्तान का दुश्मन था-

पर उसकी बेटी का कोई कसूर नहीं।

बाप के कसूर का बदला निकाला होगा बेटी से। उसे फिर लौटने नहीं दिया जाएगा। रफीक मियाँ निकाह पढ़कर उसे घर में रखने को तैयार है।

इस्माइल खामोश बना रहता।

क्या सोच रहे हो? अपने रजमान के बारे में! लाठी से पीट-पीटकर उस लड़के को मार डाला।

लेकिन इस्माइल के मन में और भी, और भी बहुत पहले की एक शोकभरी तिपहरी तिरने लगी। मां मरी तो छोटी-सी बच्ची कामरन की गोद में दुबक पड़ी। मार रो रही थी...कामरन उसे चुपा नहीं सकी। आखिरकार इस्माइल उसे कन्धे पर बिठा स्टेशन के बगल में चड़क के मैदान में ले गया। चड़क की चरखी घूमते देख मंजू खिलखिलाकर हंस पड़ी और हंसती ही रही।

-कोई फिक्र-विक्र करने की जरूरत नहीं, सरदार। चाँद देखकर एक अच्छी साइत तय कर डालो। रफीक के घर में आराम से रहेगी।

इस्माइल आनाकानी करता हुआ बोला-गाँव के पास थाना है। जोर-जबर-दस्ती नहीं की जा सकती। और जोर-जबरदस्ती से काबू में आनेवाली लड़की भी नहीं है। अगर जोरा-जोरी कर चली जाना चाहे तो क्या करू/गा मैं?

-यह और कोई नहीं...यह है रफीक मियाँ। माकूल इन्तजाम वही करेगा, तुमको किसी भी मुसीबत से पाला नहीं पड़ेगा, सरदार।

कामरन रसोईघर में दालान के बरामदे पर बैठी पान-तमाखू का सेवन करती पाँच मातवरों में बातें कर रही थी-फुसफुसाहट और बार-बार इधर-उधर ताकना उसे अच्छा नहीं लगा। कई रोज से तरह-तरह की उड़ती अफवाहें उसके कानों में आ रही हैं। अनदेखे वह दालान से उठ गयी और दीवार पर कान सटाकर सुनने लगी। थोड़ा-बहुत जो सुनने को मिला उसी से भौंचक्की-सी रह गयी। कसमसाने लगी, समझ में नहीं आया क्या किया जाए। गयी कहाँ वह निगोड़ी? वह देखो बीचवाले कमरे में पड़ी है। रात को खाएगी नहीं, कहती है कि खाना नहीं चाहिए-दरअसल खाना पकाने में आलस है। पपीते के चन्द टुकड़े टूंगकर सो गयी है। किसी भी हालत में सोने से मतलब है।

फिर भी कामरन आशा से उधर बढ़ी। पैर दबा-दबाकर खिड़की के पास आयी, किवाड़ जरा-सा हटाकर बीचवाले कमरे में उसने झाँका। छलावे की नींद भी हो सकती है। चोरी से इन लोगों का सलाह-मशविरा सुनने के बाद फिर आकर बिस्तर पर लेट गयी होगी। कमरे में बत्ती जल रही है। शायद उसकी रोशनी में मंजू का डरा-सहमा चेहरा देखने को मिले। केष्टपुर कायस्थ टोले की तरह वह भी शायद भाग जाने का बहाना ढूँढ़े।

लेकिन नहीं, देखो माजरा-बेसुध सो रही है! मानो मुद्दत से सो न सकी हो। बड़ी ही निर्भयता से सो रही है...मानो हजारों सिपाही-सन्तरियों के घेरे में नवाब-नन्दिनी निश्शंक सो रही हो। मारे गुस्से के कामरन के तन-बदन में आग सी लग गयी। बालों का झोंटा खींचकर उठाते हुए उसे धकियाते हुए कमरे से बाहर निकल देने का जी करने लगा उसका।

बडी मुश्किल से उसने रात काटी. सबेरे मंजू के आँखें खोलते ही कामरन बोल पडी- मैं कहती हूँ -तू अलैया ब् लैया-सी दूर हो जा। आज ही चली जा! बैठे-बैठे भकोसेगी और पड़े-पड़े खर्राटे भरेगी! यह सब नहीं चलेगा, साफ बात बताए देरही हूं।

मंजू सुनकर भी नहीं सुनती। फिक्-फिक् हंसती रही, मानो कोई हंसी-मंजांकवाली बात हो।

जवाब क्यों नहीं दे रही हो?

मंजू एक ही बात में सब निबटा देती-मैं अपने सगे लोगों को छोड़कर कहीं नहीं जाती...

कामरन उसकी आवांज की नकल करती हुई कहती-सगे लोग। कितने ही नखरे तूने सीख रखे हैं। हम लोग आन कौम वाले हैं। पूरा गाँव हमको कोस रहा है।

-तुम लोग बाकी लोगों की तरह नहीं हो, तभी आयी हूं।

कामरन की ओर इतनी देर में तीखी निगाहों से देखकर मंजू ने कहा-तुमको हो क्या गया है, बड़ी दी?

कामरन बोली-तुझे क्या भय-खौफ भी नहीं! सारा कायथटोला भाग गया और तू, उजड्ड लड़की, किस भरोसे यहाँ आकर टिक गयी?

मंजू बोली-मां जिस दिन मरी, सारे कायस्थ टोले के होते हुए भी तुम्हारे पास बताओ किस भरोसे से आयी थी?

बातों का मुकाबला करने से नाकाम कामरन उस वक्त खिसक गयी। अड़ोसियों -पड़ोसियों के सामने हाय-हाय करती-यह कैसी मुसीबत आन पड़ी! अजीब बवाल में फंस गयी। तुम लोग मुझे उल्लाहना देती हो, लेकिन खदेड़ने पर भी नहीं जाती, इसका मैं क्या करूँ, बताओ?

कोई कहती-तो फिर कलमा पढ़कर ले लो।

एक कमसिन लड़की ने मुस्कराकर कह दिया-सुना है कि उसका भी इन्तजाम हो रहा है...

कामरन बोली-उससे होना क्या है?

वह क्या यह सब मानती भी है? आजकल उनकी जाति भी नहीं जानती। कलमा पढ़ते ही जाति चली जाएगी, वह जमाना अब नहीं रहा।

बात तो चिन्तित होने की है। लोगों का धरम बिगाड़ना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। उस जमाने में भी बाम्हन का लड़का होटल में अखाद्य-कुखाद्य खाता था, लेकिन मुंह पोंछकर फिर बाहर निकलता था, तो भाँप नहीं सकते आप। यह अब आबरू तक नहीं बची। कहते फिरते हैं, यह किया वह किया, लेकिन फिर भी समाज में उनका हुक्का-पानी बन्द नहीं होता। धरम-जात अब इस्पात से मढ़ा हुआ है-पुरानी तरकीब से धरम नष्ट करने का जरिया नहीं रहा।

कामरन बोली-देखो न, चश्मदीद देखो! उम्र से चाहे कमसिन हो, चाहे कुछ, है तो बेवा ही। लेकिन वह जूड़ा बाँध कुरती पहन चप्पल डाले फटफटाती दिन में दो सौ बार मेरे गले लग हंस-खेलकर घूमती-फिरती रहेगी। कोई जा बेजा का शऊर नहीं...इस वजह से उसके समाज में कोई भी तानाकशी नहीं करता। यह जो अपने हाथ से राँध रही है, वह भी लाचार है इसीलिए। मुझसे राँधने को कहा था, लेकिन जब धरम ही नहीं बिगाड़ सकूंगी तो ख्वामंख्वाह काहे का जाँगर तोड़ती रहूं!

अगले दिन शाम। मंजूला सोयी नहीं। पुआ बना-बनाकर दे रही है और कामरन उनको तल रही है। और मंजूला उसे अपने दुख-दर्द का दास्तान सुना रही है-जेठ-जेठानी किस तरह उसे तंग कर मारते थे। कारण था, घर-द्वार और जायद। हिस्सेदार वे बरदाश्त नहीं कर पाते।

कामरान कहती-उससे भी बड़ी वजह है तेरा लाटसाहबी मिजाज जिसे बचपन से मैं झेलती आ रही हूं। वक्तन-फवक्तन तो हमी लोगों को नागवार गुंजरने लगता फिर गैर लोग क्यों गवारा करेंगे?

इसीलिए मैंने देखा बड़ी दी कि तुम्हारे सिवा मेरी कहीं और ठौर नहीं।

बाहर लोगों की आहट मिली। आज भी कामरन ने डरते-डरते दरवाजे पर आकर बाहर झाँका। जो सोचा था वही मातवर आ जुटे हैं। कामरन धप्प से पीढ़े पर बैठती हुई बोली-ठौर यहाँ भी नहीं। कल विदा हो जाना।

मंजूला दंग रह गयी। कामरन ने कहा-दोपहर की गाड़ी से चली जाना। सीधे न गयी तो झाडू मारकर भगा दूंगी।

मंजू हंस पड़ी।

तुम्हारे हाथों का झाडू तो कभी खाया नहीं, मिठाई-चिज्जी, खैर, कल की बात कल होगी। तुम्हारा तेल जला रहा है। बड़ी दी, पुआ छोड़ दो... कामरन मारे गुस्से के चूल्हे से कढ़ाई उतारकर बोली-चूल्हे भाड़ में जाए पुआ। पूछती हूं क्या तूने शर्म-हया, मान-इंज्जत सब-कुछ पेट के मारे गवाँ दी है? ऐसी तो तू नहीं थी!

ऐसे ही समय इस्माइल चिलम में आग लेने दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया। मंजू ने शिकायत की-देखो दद्दू, बड़ी दी कलछुल तानकर मुझे कैसा भगाए दे रहीहै!

कामरन ठंडी नहीं पड़ती। बोली-बेशक भगा दूंगी। दोनों कौम अलग हो गये, दोनों मुल्कों का बँटवारा हो गया है। किस बूते पर तू पड़ी है?

तब मंजूला भी बिगड़ खड़ी हुई-बता दो कि कहां जाऊँ? मेरा है भी कौन-कहाँ, कौन-सा सम्बल है मेरे पास? खाऊँगी क्या, रहूँगी कहाँ औरा मेरा भविष्य क्या है? न रहने दो, अच्छी बात, दद्दू, तुम मेरे साथ चले चलना, मेरा सारा इन्तजाम कर देना। मैं उस देश में किसे पहचानती हूं? जिनके घर तुमने मेरी शादी कर दी उन्होंने दुरदुराकर भगा दिया।

मंजूला की आँखों से आँसू ढरकने लगे।

इस्माइल ने बीवी की ओर देखकर कहा, बहरहाल जब जाएगी, जाएगी। इतनी जल्दी भी क्या? जाकर रास्ते में तो खड़ी नहीं हो जा सकती। सोच-विचार कर ही कोई इन्तजाम करना पड़ेगा।

कामरन आग-बबूला-सी होकर बोली-मैं जानती थी कि तुम यही कहोगे। मैं सभी कुछ जानती हूं। कल ही इसे चले जाना है। यही आखिर बात है।

इस्माइल अकसर रोता रहता है। कभी-कभी आधी रात को उठकर फफक कर रोने लग जाता है। वही तो रोने का वक्त है। मर्द आदमी रो रहा है!-यह शर्मनाक रुलाई र्कोई सुन न सके। घर-आँगन सुनता और शायद सर्वनियन्ता खुदा ताला। दूर का कब्रिस्तान भी शायद चौकन्ना होकर सुनता।

दोपहर को इस्माइल घर नहीं गया। रफीक मियाँ के घर दावत थी। वहीं चला गया। जाने कब लौटेगा, और कामरन की जैसी कथनी वैसी करनी। दसेक रुपए उसने सुपारी, नारियल चोरी से बेचकर जमा किये थे। ये रुपए मंजूला के हाथ में देकर उसे दिन रहते स्टेशन भेज दिया।

गाड़ी आयी, अनजान कलकत्ते शहर का टिकट कटाकर मंजूला गाड़ी पर बैठ गयी। सुनते हैं कि दुनिया में उसकी सबसे अपनी जगह वही है-अपना हिन्दुस्तान। डिब्बे के लोगों के मुंह की ओर देखकर अन्दाजा लग जाता कि कौन किस ओर का बाशिन्दा है। खुश्क चेहरे लिए जो लोग चुपचाप बैठे हैं बेशक वे सीमांत से परे के हैं। कस्टम्स के लोग, या चाहे कोई भी हो, अगर कुछ उनसे कहते तो वे मारे विनय के धरती तक झुककर जवाब दे रहे हैं।

'जी हजूर'-हर बात में।

एक परिचित आदमी दिखाई पड़ाविपिन गंगोली। कायथ टोले के पास रहता था। अब हिन्दुस्तान में घर बनाया है। कस्टम्स के लोगों ने आकर विपिन को दबोचाहै।

-कितने रुपये हैं साथ?

-बीस-बाइस रुपये, हुजूर!

-निकालो!

बटुआ झाड़कर देखा गया उतना भी नहीं। आने-पैसे गिनकर भी पन्द्रह रुपये पूरे नहीं पड़ते।

-माल-सामान क्या है? सोने-चाँदी? सुपारी?

-जी नहीं। सोना-चाँदी मिलेगा? धोती-कुरते हैं दो-तीन। और मेरी सास ने दो-चार पुए एक कपड़े में बा/ध दिए हैं। दिखाऊँ?

विपिन ने पोटली खोलकर फैला दी। दूसरे मुसांफिरों से सवाल करते-करते नियम-रक्षा के बतौर कस्टम्स के लोगों ने उसमें हाथ डाल दिया।

गाड़ी छूट चुकी है। इतनी देर के खुश्क चेहरों पर शायद खुशी की हल्की लकीरें हैं। पूरमपूर खुश होने का वक्त शायद अब भी नहीं आया। वह सीमांत की इमली को पार कर जाने के बाद ही आएगा।

इस्माइल गाड़ी के साथ-साथ दौड़ रहा है। घर आकर खबर पाते ही वह स्टेशन भाग आया। मुंहबन्द एक हांडी ड़िब्बे की खिड़की से उसने मंजू के हाथ में दे दी।

-क्या है?

-काचा गोल्ला (खोए के लड्डू) खरीद दिया। रात को खाना।

व्याकुल आँसुओं में मंजू बोली-यह तुम ले जाओ दद्दू। घर में जगह नहीं दी, अब एक जून का खाना खिलाकर अपना नेह जताने की जरूरत नहीं। लेकिन इस्माइल के कानों में यह बात नहीं पहुँची। गाड़ी की रंफ्तार बढ़ चुकी है। वह अब काफी दूरी पर है। मुंह बढ़ाकर मंजू देखने लगी, प्लेटफार्म

के आंखिरी छोर पर निस्पन्द मूर्ति की तरह इस्माइल खड़ा है।

इतनी देर में निश्चिन्त होकर विपिन गंगोली मंजू से बातें करने आया।

-क्या दे गया इस्माइल सरदार?

-खायका...

विपिन हंय-हंय कर उठा।

-इतने दिनों जो करती रही, करती रही। अब यह सब मत छूना। वह इस्माइल है। पूरे गिरोह का सरदार। पाकिस्तान-पाकिस्तान वही ज्यादा चिल्लाता रहा। जो लोग घर जला देते हैं, छुरा मारते हैं, गाँव जला देते हैं, सात पीढ़ी के घर-जड़ से उखाड़कर भगा देते हैं, वे खाने के साथ जहर भी मिला दे सकते हैं। समूची हांडी ही बाहर फेंक दो, मंजू।

मंजू कहती-ऐसा ही करूँगी। वे जाने कैसे हो गये हैं। जहर अगर न भी मिलाए हों, उनका दिया हुआ जहर जैसा ही कड़ुवा होगा।

कौतूहल से विपिन ने कहा-जरा हांडी तो खोल, देखें। देखा जाए दिया क्याहै!

साथ-ही-साथ वह संभल भी गया-अऽहंऽ, पहले सरहद पार हो जाए। तभी निश्चिन्तता। एक दिन क्या हुआ कि इंजन पीछे खिसकते-खिसकते फिर उस स्टेशन पर लौटा ले गया।...इस वक्त कैसी हो, बिलकुल चुपचाप!

चिन्हि्त इमली पार करते ही लोगों की सूरतें बदल गयीं, एक दल नारा लगाने लगा-जयहिन्द। और एक दल चेहरे लटकाए बैठा रहा। इतनी देर का परम विनीत विपिन गंगोली खाने की हांडी क़ा प्रसंग भूलकर तीन छलाँग में गाड़ी के ठीक बीचोंबीच मुसांफिरों के बीच जाकर खड़ा हो गया। खीं-खीं कर उत्कट हंसी-हंसता हुआ बोला-अहमक! सुपारी मैं पोटली में बांध लाया हूं कि तुम उसमें हाथ डालकर निकाल लोगे। बनगाँव जाकर उसे निकालूँगा। आप लोग देखेंगे कि दो-पाँच गंड नहीं, दो मन का बड़ा-सा बोझ है। जहाँ पर महाशय लोग बैठे हैं, उसी के नीचे पहिये के बगल में लोहे के साथ बंधा हुआ है। और बटुआ उलटकर साले रुपया पकड़ने आये थे।

जिस तरह जादू के खेल में देखा जाता है कि नाक से, कान से, सिर के बालों से, पैरों के नाखूनों से जादूगर बड़े-बड़े गोले निकालता है-विपिन भी अपने सर्वांग से, कमींज के आस्तीन से, जूते की तली से अनगिनत नोट निकालने लगा। एक-एक निकालकर लोगों की आँखों के सामने धरता जाता।

-देखिए, देखिए! फिर देखिए, ही-ही पन्द्रह रुपए देख गये थे न वे लोग! कुल मिलाकर पाँच सौ सत्तावन, मेरे गिने हुए हैं।

मंजू ने इस बार हांडी ख़ोली। काँचा गोल्ला कहाँ! झूठ कहा है इस्माइल ने। कल ही के जले हुए पुए और तिल के लड्डू। क्या वह यह अखाद्य खाएगी? बिला वजह स्टेशन तक आकर अपमान कर गया। और क्या दिया है, भारी क्यों है इतना, यह जो चमक रही है, कौन-सी चीज है? एक-दो नहीं, बहुत सारी! जले हुए पुओं के नीचे ढकी हुई सोने की मुहरें। दद्दू ने रात-भर के खाने सामान ही नहीं दिया, मित्र-शून्य अपने देश में अनखाये रास्ते में मर न जाए उसी का इन्तजाम कर गया।

और उधर इस समय प्लेटफार्म का शोरगुल धीमा पड ग़या है। झुटपुटा हो आया है, किरासीन की बत्ती भी जला दी गयी है। जाने कब! इस्माइल खड़ा है बुत की तरह, उसमें मानो कोई होश नहीं। रेलगाड़ी मोड़ जाने पर कब बिला गयी है। सारी जिन्दगी की साध और सम्बल लेकर उस रेलगाड़ी में एक लड़की चली गयी है-किसी भी नजरिए से जो उसकी अपनी सगी नहीं, न खून के लिहाज से और न मजहब के हालात से। बावली अब और काटी नहीं जा सकेगी, कब्रिस्तान में अँधेरे में गला सूख जाने से उसके रमजान की रुह 'पानी-पानी' कर कयामत के दिन तक तड़पती रहेगी।

बँसवारी के सिर पर एक बड़ा-सा तारा निकल आया है। आसमान के उस तारे, डोलते हुए बा/स के सिर, और सांझ की धरती, सभी को वह अपनागवाह मानता। सोना हटाकर क्या मैंने पाकिस्तान और इस्लाम से धोखा किया? लेकिन मंजू का तो कोई है नहीं-वह खाएगी क्या, रहेगी कहाँ? अल्लाह रहमान् मेरा गुनाह मत लेना मंजू की हालत को मद्देनंजर रखकर !

सितारा झलमलाकर देखने लगा। मैदान पार करके हवा के एक झोंके ने आकर सारा जिस्म जुड़ा दिया, इस पार, उस पार दोनों तरफ का ही वह सितारा। यह हवा राधानगर के सुपारी-बाग, केले के बाग को डुलाती बेहुला गीत के सुर की धुन लाती, देखो-देखो, केष्टपुर के उस धनखेत में ऊधम मचाने लगी है!

(अनुवाद : प्रबोधकुमार मजुमदार)

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