सी-सॉ (कहानी) : प्रबोध कुमार

See-Saw (Hindi Story) : Prabodh Kumar

चढ़ते अप्रैल के सूरज में रेल की पाँतों की चमक पीली पड़ती जा रही थी। पार्क की सूखती घास इमली की बढ़ती छाया में ठंडी होने लगी थी। सी-सॉ पर बैठा, खाकी हाफपैंट के ऊपर सफेद कमीज डाले आठ-नौ साल का एक लड़का रबर की हरी गेंद लिए बड़ी देर से सड़क की ओर देख रहा था। थोड़ी दूर पर चार-पाँच बच्चे मिलकर बारी-बारी से झूला झूल रहे थे। झूलनेवालों की तरफ देख, वह जमीन पर टप्पे मार गेंद उछालने लगता। किसी का ध्यान उसकी ओर आकर्षित न होता। वह फिर सड़क देखने लगता ।

लेवेल क्रॉसिंग के बंद सफेद फाटकों के पीछे इकट्ठी भीड़ बेसब्री से ट्रेन गुजरने का इंजतार कर रही थी। ताँगेवाले बीड़ियाँ सुलगा रहे थे । घोड़े, जिनमें से बहुतों के मुँह पर सफेद फेन जमा हो गया था, सड़क किनारे की घास चरने लगे थे।

ट्रेन गुजरने पर भीड़ छँट गई। हरी गेंदवाला लड़का सी-सॉ के उस उठे छोर को देखने लगा जिस पर कोई आ बैठता तो उसका खेल शुरू हो जाता।

वह बहुत दुबला था। उसके गालों की हड्डियाँ उभरी थीं, लेकिन वह अस्वस्थ नहीं था। उसकी माँग टेढ़ी निकली थी। कंघी से दबाने के बावजूद चोटी की जगह के बाल हवा में उड़ रहे थे । माथा उसका काफी चौड़ा था । बचपन में जहाँ डिठौना लगाया जाता है, वहाँ नाखून के बराबर चोट का निशान था। नाक ऊपर से बहुत पतली हो नीचे चौड़ी हो गई थी। मुँह पर उसके बहुत सारे तिल थे। आँखें काफी बड़ी और बरौनियाँ घनी थीं। उनके कारण उसकी उम्र और भी कम मालूम पड़ती ।

पार्क में लोग धीरे-धीरे बढ़ते जा रहे थे। सी-सॉ के पास पड़ी बेंच पर दो बूढ़े, टोपियाँ घुटने पर रखे, अपने लड़कों के भविष्य के बारे में बातें कर रहे थे। एक के पास हिंदी का अखबार था जिस पर दूसरा भी बीच-बीच में चुप होकर झुक जाता। उस समय उसका काली डंडियोंवाला गोल रिम का चश्मा नाक की नोक पर खिसक आता । आँखों के नीचे रिम से पड़े गड्ढे और नाक के दाग हल्के पसीने की चमक से तब बहुत अधिक उभरे मालूम पड़ने लगते। सी-सॉ पर बैठा लड़का हवा में फेंककर गेंद झेल रहा था। एक बार न झेल सकने पर गेंद लुढ़कती उन बूढ़ों की बेंच के नीचे चली गई। गेंद उठा वह बेंच से टिककर खड़ा हो गया। अखबारवाले बूढ़े का पोपला मुँह उसे बहुत विचित्र लगा ।

"बड़ा लड़का इस साल एमए कर लेगा ।" चश्मेवाले बूढ़े ने कहा । उस लड़के की तरफ देख, घुटनों तक धोती चढ़ा, वह अपने दुबले पाँव सहलाने लगा। उसके चेहरे पर चिंता का एक भाव था, जो इस उम्र के लोगों पर उतनी ही सहजता से आ जाता है, जितनी सहजता से स्वयं उम्र ।

"किस विषय में कर रहा है ?"

"कॉमर्स लिया है। छोटे को भी कॉमर्स दिलाया है। बड़े से उसे काफी मदद मिलेगी। क्यों जनाब ?"

“बेशक?” अखबारवाले बूढ़े ने काँपती अँगुलियों से पन्ना पलटते कहा। अपने साथी को देख, वह फिर पढ़ने लगा। जब वह सामने देखता, तो उसकी पुतलियों पर छाई सफेदी से लगता कि उसका मोतियाबिंद पकने के करीब है। उसकी आँखों में पास देखने की दृष्टि धुँधली पड़ गई थी ।अखबार वह काफी दूर रखकर पढ़ रहा था ।

"देखिए, मेरी गेंद कितनी अच्छी है।" लड़के ने चश्मेवाले बूढ़े को गेंद देते कहा, "पिताजी ने जबलपुर से ला दी है।

"गेंद तो तुम्हारी सचमुच बहुत बढ़िया है।" बूढ़े ने चश्मा नीचे खिसका एक बार लड़के की तरफ, फिर गेंद देखते कहा, "तुम कभी जबलपुर गए हो ?"

"दो बार गया हूँ। कुछ जानते भी हैं आप ?" उसने हवा में दो पतली अँगुलियाँ हिलाते कहा, "मैंने तो भेड़ाघाट भी देखा है। इतने बड़े-बड़े संगमरमर के पहाड़ वहाँ हैं कि क्या बताऊँ।"

पहाड़ों का आकार हाथ से बताने के बाद वह आगे भी कुछ कहना चाहता था, लेकिन अखबारवाले बूढ़े को गुस्से से घूरते देख सहम गया। जबलपुर की कथा आगे बढ़ाने की हिम्मत उसमें अब नहीं थी ।

"तुम यहाँ खड़े क्या कर रहे हो ?" बूढ़े ने अपनी सफेद पुतलियाँ सिकोड़ते पूछा, "लड़कों में जाकर क्यों नहीं खेलते ?"

लड़का चुप खड़ा होंठ चूसता रहा ।

"जाओ, कहीं और खेलो। यहाँ सिर पर मत सवार हो ।" कहकर बूढ़ा फिर अखबार पर झुक गया। लड़के ने चश्मेवाले बूढ़े की तरफ देखा, फिर उससे गेंद ले अखबारवाले बूढ़े के पोपले मुँह की नकल करता खाली पड़े झूले की तरफ बढ़ गया । वहाँ जा एक पैर झूले के पटिए पर रखकर वह पंजे के जोर से उसे धीरे-धीरे हिलाने लगा । पटिया आगे बढ़ता तो घुटने के ऊपर उसकी जाँघ में गढ़ा पड़ जाता जो पटिए के लौटने पर भर जाता । बार-बार गढ़ा पड़ता और भर जाता ।

झूलनेवाले बच्चे सीढ़ी चढ़ दूसरी तरफ फिसलने के खेल में व्यस्त हो गए थे। फिसलकर जब वे फिर सीढ़ी की तरफ जाने को मुड़ते तो उनके पैंटों के पीछे पड़ रहे मटमैले धब्बे हर बार पहले से अधिक स्पष्ट मालूम पड़ते। फिसलते समय की उनकी खुशी भरी चीखें और पहले फिसलने की छीनाझपटी किसी का ध्यान आकर्षित नहीं कर रही थी ।

पार्क के बीच में बीस-पच्चीस फुट जगह तार से घिरी थी जिसमें राष्ट्रीय उत्सवों के समय झंडा लगाने के लिए सफेदी पुता लोहे का खंभा लगा था। फूल यदि कहीं थे तो वहीं खंभे के चारों ओर, जिनमें हॉलीहॉक और वरीना सबसे अधिक खिले थे। हॉलीहॉक की नीचेवाली बड़ी खुरदरी पत्तियाँ पीली पड़ नीचे झुक गई थीं। दूर से देखने पर लगता जैसे फूल हों । क्यारियों के किनारे तिरछी ईंटों के थे जिनके काफी भाग दूब से ढके थे। उन पर कभी सफेद कलई पोती गई होगी लेकिन वह रंग धुल चुका था। ईंट का असली रंग अब दिखाई देने लगा था । उखड़ी ईंटों की जगह उस पूरे पठार में पाए जानेवाले गोल काले-भूरे पत्थर रख दिए गए थे। पश्चिम की तरफ एक छोटा सा लकड़ी की पट्टियों का फाटक था, जो बहुत कम खुलता था । आना-जाना अधिकतर दो तारों के बीच से होता । वह ज्यादा देर झूले के पास खड़ा नहीं रह सका ।

फाटक से थोड़े फासले पर पीपल के सूखे पत्तों और मूँगफली के बिखरे छिलकों के बीच बैठे कुछ लोगों के पास जा, वह भी चुपचाप बैठ उनकी बातें सुनने लगा । वहाँ मैले फुलपैंट पर धारीदार कमीज पहने सत्ताइस- अट्ठाइस साल का एक युवक अपने साथियों को कुछ ऐसी बातें बता रहा था, जिनमें वे एक-दूसरे की तरफ देख काफी रस ले रहे थे। उस प्रदेश में पढ़े-लिखे लोग भी ज्यादातर बुंदेलखंडी ही में बातचीत करते थे, लेकिन वह शुद्ध खड़ी बोली बोल रहा था और लहजे से पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जान पड़ता था। वे लगभग एक ही उम्र के थे । शायद सभी रेलवे कर्मचारी थे। उनकी अधिकतर बातें स्टेशन, रेलगाड़ी और मालगोदाम से संबंधित थीं । धारीदार कमीजवाला युवक लेटा था। कुहनी के बल थोड़ा उठ वह मालगाड़ी के उस गार्ड के बारे में बताने लगा, जिसकी बीबी एक ऐंग्लो इंडियन ड्राइवर से प्रेम करती थी ।

धारीदार कमीजवाले की बातें सुनता वह लड़का कभी ऊपर उड़ती चिड़ियों को, तो कभी आस-पास बैठे लोगों को देख रहा था। वह लोगों को हँसते देखता, तो हँसी का कारण जानना चाहता, लेकिन कोई उसे कुछ नहीं बताता। वे हँसते, तो वह खुद भी उनकी हँसी में शामिल हो जाता। उसकी आवाज बिलकुल उन औरतों जैसी थी, जो सिनेमा में लड़कों के लिए गाने गाती हैं। उसमें एक खनक थी, जिसे बार-बार सुनना अच्छा लगता था ।

"अच्छा, एक बात बताइए," उस लड़के ने अपने पास बैठे आदमी का ध्यान जबरदस्ती खींचते हुए पूछा, गार्ड ने उस औरत के साथ फिर क्या किया ?"

"बड़े होने पर समझ जाओगे ।"

"बड़ा होने पर तो पिताजी अपनी घड़ी भी मुझे दे देंगे।" उसने कहा, "आपने पिताजी की घड़ी देखी है?"

"नहीं।"

"खूब ही अच्छी है।"

"अच्छा।"

"हाँ, उसमें तो अँधेरे में भी दिखाई देता है।"

"सचमुच । तब तो जरूर बहुत अच्छी होगी ।"

"आप घड़ी नहीं बाँधते ?"

"नहीं।"

"क्यों ? आपके पिताजी ने आपको नहीं दी ?"

उस आदमी ने जवाब नहीं दिया। वह अपने दोस्त की बातें सुनने लगा था। बात-बात पर उसे हँसी आ रही थी । उसके चेहरे से ऐसा बिलकुल नहीं लगता था कि वह कभी किसी से नाराज भी हो सकता है।

देखिए, वो मेरे पिताजी खड़े हैं। उस आदमी को एक बार अपनी तरफ देखता पा लड़के ने कहा, वहीं तो मैं भी रहता हूँ ।

उसने जिधर इशारा किया, वहाँ एक ही नमूने के कई घर एक कतार में बने थे। सबके सामने छोटे-छोटे बगीचे थे, जिन्हें छूती सड़क स्टेशन के आगे चली गई थी। सड़क का दूसरा किनारा पार्क की उत्तरी सीमा थी, जहाँ जंग लगे तारों की बाड़ लगी थी। वहीं गिट्टियों के ढेर थोड़ी-थोड़ी दूर पर इकट्ठे किए गए थे। सभी चीजों के रंग अलग-अलग थे लेकिन धूल के मटमैलेपन ने उन्हें एकरस कर दिया था ।

"घर तो तुम्हारा सचमुच बहुत अच्छा है। नाम क्या है तुम्हारा ?"

"श्याम ।"

"श्याम माने तो साँवला होता है। तुम तो काफी गोरे हो।"

"माँ तो कलूटा कहती है ।"

कहने के साथ ही वह शरमा गया, फिर उस आदमी को हँसता देख खुद भी हँसने लगा। उसके दूध के दो दाँत टूट चुके थे। उनकी जगह गड्ढों में नए दाँतों की हल्की सफेदी झलकती थी । दाँतों से दबा, नीचे का ओंठ चूसना उसकी आदत जान पड़ती थी। बाहर की तरफ ओंठ बहुत थोड़ी दूर तक थूक से गीले थे, जिसकी छोटी-छोटी फुटकियों को वह सूखने नहीं देता था ।

"यह तुम जेब में क्या लिए हो ?"

"गेंद है।" श्याम ने जेब से निकालते हुए कहा," आप खेलेंगे मेरे साथ ?"

"पहले एक काम कर दो, फिर मैं तुम्हारे साथ जरूर खेलूँगा ।"

"क्या काम ?"

"बाजार से चार आने के पान लगवा लाओ।"

"पैसे दीजिए ।"

चवन्नी लेकर श्याम तेजी से दौड़ता पार्क से बाहर निकल गया। दोनों बूढ़े सीमेंट की बेंच खाली कर गए थे। उनकी जगह थोड़ा सा लंगड़ाकर चलनेवाले एक आदमी ने ले ली थी, जिसके साथ एक औरत भी थी। कपड़े पहनने के ढंग और नाक के दोनों तरफ लगी कीलों से वह दक्षिण की जान पड़ती थी । आदमी के बारे में कुछ भी समझना मुश्किल था । वह कुछ भी हो सकता था। उनके चेहरों पर निराशा और खीझ का मिश्रित भाव था । शायद एकांत न मिलने पर किस्मत को कोसते चुप बैठे थे। औरत देखने में बहुत मामूली थी लेकिन इधर-उधर घास पर बैठे लोग इतनी जल्दी इस पर विश्वास नहीं करना चाहते थे। टकटकी लगाए, उसमें से कुछ असाधारण ढूँढ़ निकालने की चेष्टा कर रहे थे। बीच-बीच में वे यों ही आसमान या पाँतें देखने लगते, फिर निगाह वहीं अटका देते। उस बेंच को छोड़ बाकी खाली थीं। पर लोग पहले से अधिक दिख रहे थे। अकेला कोई भी नहीं आ रहा था। अकेला जानेवाला भी कोई नहीं था । वे झुंडों में आते और सबसे अलग कोई जगह चुन बैठ जाते। पहले चुनने के लिए ज्यादा जगहें थीं, लेकिन अब धीरे-धीरे झुंड एक-दूसरे के काफी करीब होते जा रहे थे। उनमें से बहुतों के चेहरे बार-बार मुँह पोंछने से लाल हो रहे थे। सभी काफी थके लग रहे थे, जिसका कारण गर्मी भी हो सकती थी। कभी-कभी वे हँस भी पड़ते, लेकिन उनकी हँसी उन लोगों जैसी नहीं थी, जिन्हें धारीदार कमीजवाला किस्से सुना रहा था। झूला झूलने की उनकी उम्र बहुत पहले बीत चुकी थी। बचपन के खेलों का अब उनके निकट बहुत महत्व नहीं रह गया था। बातें करते वे या तो सड़क देख रहे थे, या पटरियाँ जो बहुत दूर तक सीधी जा, श्मशान की दिशा में मुड़ गई थीं ।

उधर फिसलनेवाले बच्चों में सबसे छोटे की किसी से लड़ाई हो गई थी। वह जमीन पर पाँव पसार बैठ खुले गले से रो रहा था। बराबर कुचली जाती रहने से वहाँ घास नहीं रह गई थी। वह जमीन पर पाँव घिस रहा था, जिससे धूल उड़कर उसके पैरों पर जम रही थी। बाकी बच्चों ने अपना खेल बंद नहीं किया था। उनकी चपलता अवश्य कम हो गई थी। पहले फिसलने के लिए अब झगड़ा नहीं हो रहा था। उनकी खुशी भरी चीखें भी बंद हो गई थीं । उन बच्चों में उसका सगा कोई नहीं था। किसी ने उसके साथ सहानुभूति नहीं दिखाई। उसने एक बार उस लड़के को देखा जिसके साथ लड़ाई हुई थी, तब धीरे-धीरे सिसकता अपनी छोटी हथेलियों से आँसू और नाक पोंछता पार्क के बाहर चला गया।

श्याम जैसे दौड़ता गया था, वैसे ही पान लिए दौड़ता आ रहा था । वह बहुत दुबला था। बदन में उसके एक लोच थी जिससे उसका दौड़ना छलांग लगाने या कूदने जैसा लगता। उसकी कनपटियों की नीली नसें दौड़ने से और भी साफ दिख रही थीं। सीढ़ी चढ़ दूसरी तरफ फिसलनेवाले बच्चों के घर लौटने का समय हो गया था। वे हँसते-खेलते बाहर जाने लगे। पसीने से उनकी कमीजें पीठ से चिपक गई थीं। लड़कियों के धूल भरे पाँव आड़े- तिरछे पड़ रहे थे । उनके गीले चेहरों पर हल्की सी धातुई चमक थी जो धीरे-धीरे मिटती जा रही थी।

"आप कितने ऊपर गेंद फेंक सकते हैं?" श्याम ने उस आदमी को पान देते कहा, "आप बादलों तक नहीं फेंक सकते।"

दिन बादलों के नहीं थे। ऊपर हल्का नीला रंग एक छोर से दूसरे छोर तक फैला था । बादलों से उसका आशय संभवतः आसमान से था ।

"मैं उनसे भी ऊपर फेंक सकता हूँ।"

"अच्छा, फेंकिए"

"रुको, जरा । पान खा लूँ ।" उसने पूछा, "तुम खाओगे ।"

"मैं तो पान खाता ही नहीं।"

उसका उच्चारण बहुत शुद्ध था। स्कूल के अलावा वह घर पर माँ-बाप से भी शिक्षा पाता है, बातचीत के ढंग से ऐसा लगता था ।

धारीदार कमीजवाला पैंट झाड़कर खड़ा हो गया। झुंड के बाकी लोग भी उसके साथ उठ गए। श्याम उन्हें पान खाते देख रहा था। वे उस दक्षिणी औरत और उसके साथी के बारे में बातें कर रहे थे । श्याम उनके लाल होते ओंठ देख रहा था ।

"अच्छा, लाओ अपनी गेंद तो दो।" उस आदमी ने श्याम की ओर मुड़ते कहा । श्याम ने जेब से निकाल गेंद उसे थमा दी।

"फेंकूँ?"

"फेंकिए।"

श्याम पीछे झुके उस आदमी का कुहनी पर से मुड़ा हाथ देख रहा था, जिसकी अँगुलियों में कसी गेंद बहुत छोटी लग रही थी। उसकी आँखें गेंद के साथ ऊपर उठती गईं और उसी गति में विस्मय से और चौड़ी हो उतरती, फेंकनेवाले के हाथ पर ठहर गईं, जिसने उसे जमीन पर गिरने के पहले ही झेल लिया। यद्यपि गेंद पीपल की फुनगियों तक ही पहुँची थी, फिर भी वह खुशी से तालियाँ बजाता दो-तीन चक्कर लगा गया। उसका आसमान शायद पीपल से एक-डेढ़ हाथ ही ऊँचा था । खुशी के मारे बोलना चाहकर भी वह कुछ बोल नहीं पा रहा था। फेंकनेवाले के दोनों हाथ पकड़ वह जमीन पर कूदने लगा ।

"तुम तो लड़कों से भी गए बीते हो यार ?" धारीदार कमीजवाले ने उससे गेंद लेते कहा, देखो, मैं कितने ऊपर फेंकता हूँ।

उसने सचमुच गेंद बहुत ऊपर फेंक दी। जमीन पर गिरने से पहले उसे झेल भी लिया । श्याम का मन आश्चर्य से भर गया । उसे बहुत खुशी हुई, लेकिन अपनी खुशी उसने जाहिर नहीं की । धारीदार कमीजवाले से उसे शायद अकारण ही चिढ़ हो गई थी ।

अब सभी बारी-बारी से गेंद फेंक रहे थे। श्याम खुद भी खेलना चाहता था, लेकिन उसके हाथ में गेंद आ ही नहीं पाती थी ।

"आप तो उनके साथ खेलने लगे। मेरे साथ कब खेलेंगे ?" श्याम ने उस आदमी से कहा, जिसने उसके साथ खेलने को कहा था ।

"अब तो हम लोग जाएँगे।" उसने श्याम को गेंद लौटाते कहा," कल मैं आऊँगा, तो तुम्हारे साथ जरूर खेलूँगा ।"

"नहीं, अभी खेलिए। आपने कहा था ।"

"तुम मानो तो मेरी बात । कल हम दोनों खेलेंगे।"

"नहीं, अभी खेलिए। थोड़ी ही देर खेलेंगे।"

"जिद मत करो। आज मुझे बहुत जरूरी काम है ।"

"कल आप नहीं आएँगे।"

"ऐसा हो ही नहीं सकता। जब कह रहा हूँ, तो जरूर आऊँगा।"

"आएँगे ?"

"हाँ ?"

"अब चलो।" धारीदार कमीजवाले ने उससे कहा, "क्या छोकरे को मुँह लगा रहे हो।"

गुस्से से भरा श्याम थोड़ी देर तक उन्हें जाते देखता रहा, तब धीरे- धीरे हवा में गेंद उछालता-खेलता झूले की तरफ चला गया। ऊपर आसमान का नीलापन कुछ गहरा हो गया था । पश्चिम की पहाड़ी पर लाल रंग की हल्की सी आँच भर रह गई थी । दक्षिणी औरत अपने साथी के साथ उस सीमेंट की बेंच पर नहीं थी। वे कहीं भी नहीं दिखे। अवश्य ही उन्होंने कहीं-न-कहीं एकांत ढूँढ़ लिया होगा। सभी बेंचें खाली हो गई थीं। लोग घास पर बैठना अधिक पसंद कर रहे थे ।

श्याम झूले पर खड़ा अकेला ही झूल रहा था । झूलते - झूलते कभी वह लोहे की छड़ों पर चढ़ने की कोशिश करता, तो कभी उन छड़ों के चारों ओर चक्कर लगाने लगता। कभी-कभी वह यों ही उत्तेजित सा हो चिल्ला पड़ता। झूला झूलने में उसकी रुचि धीरे-धीरे खत्म हो गई। सामने कुछ दूर पर लोहे के दो खंभे गड़े थे। उनमें एक ओर चढ़ने के लिए लोहे के डंडोंवाली सीढ़ी लगी थी। दूसरी तरफ फिसलने का इंतजाम था। सीढ़ियाँ चढ़ वह ऊपर गया और फौरन ही फिसल गया। वह लगातार पाँच-सात मिनट तक उस पर चढ़ता-फिसलता रहा। फिसलने के लिए उससे छीनाझपटी करनेवाला वहाँ कोई नहीं था। वह कितनी भी देर तक फिसलता रह सकता था ।

सड़क पर बत्तियाँ जल गई थीं। आसपास के घरों में भी रोशनी हो गई थी। पार्क के एक कोने में बिजली का खंभा था, जिसके बल्ब की फीकी रोशनी काफी दूर तक फैल रही थी । दिन भर इधर-उधर भटकने के बाद अब चिड़ियाँ पेड़ों पर लौट आई थीं। उनकी चहचहाहट के मारे कुछ भी सुन सकना बहुत मुश्किल था। हवा रुकने से उमस बढ़ गई थी, जिससे लोग बहुत परेशान दिख रहे थे । वे सभी बहुत अच्छे लोग रहे होंगे, लेकिन उनके चेहरों पर मूर्खता मिली ऊब के कुछ ऐसे भाव थे, जिनसे मन में खीझ उठती थी ।

पार्क में ताला नहीं पड़ता था । न ही रात को पहरा देनेवाला वहाँ कोई था । श्याम चाहता तो रात भर फिसलता रह सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। अब वह सी-सॉ पर बैठा अपने आप ही ऊपर-नीचे हो रहा था। अपनी तरफ किसी को देखता पाता, तो मुँह चिढ़ा देता। बार-बार जमीन पर धक्के देने से शायद उसके पंजे दुखने लगे थे। वह सी-सॉ पर ही बैठा था लेकिन उसकी तरफ का पटिया जमीन से लग गया था और ऊपर उठने की अब वह बिलकुल कोशिश नहीं कर रहा था। कुछ देर चुपचाप बैठा वह घास का एक तिनका चबाता रहा, तब पास लगे तारों के बीच से निकल सड़क पर जा पहुँचा। वहाँ से उसने कुछ गिट्टियाँ उठा लीं। निशाने लगाकर उन्हें इधर-उधर फेंकता वह बड़े सहज भाव से उस सड़क पर चलने लगा जो एक ही कतार में बने उन घरों तक जाती थी, जिनके नमूने एक थे और जिनके सामने छोटे-छोटे बगीचे थे ।

(साभार : शर्मिला बोहरा जालान)

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