सज़ा (कहानी) : मन्नू भंडारी

Saza (Hindi Story) : Mannu Bhandari

मेरे और मुन्नू के लिए एक लाइन तक नहीं लिखी थी। न प्यार, न आने के लिए कुछ। पूरे साल में पप्पा का यह पहला कार्ड था और हमारे विषय में कुछ नहीं लिखा, जैसे उन्हें मालूम ही नहीं हो कि हम भी यहाँ हैं। क्या पप्पा ने अपने को इतना बदल लिया है? उन्होंने क्या बदल लिया है, शायद समय ने उन्हें बदल दिया है। उन्हें ही क्या, सबको बदल दिया। मैं क्या कम बदल गई हूँ? मुन्नू क्या कम बदला है? पता नहीं, अम्मा की क्या हालत होगी! ओह, इन पाँच सालों में क्या कुछ नहीं हो गया।

16 अप्रैल, आज से पाँच दिन बाद। मैं जाऊँगी, ज़रूर जाऊँगी। कांत मामा ने तो हर सुनवाई के बाद यही लिखा है कि इस बार फैसला पक्ष में होगा। हे भगवान, ऐसा ही हो।’ पर रह-रहकर मन काँप जाता है। पहली बार भी तो सब यही कहते थे। तब मैं एकदम नासमझ नहीं थीं, फिर भी ज़्यादा नहीं समझती थी। पप्पा और अम्मा तो हमेशा मुझे बच्ची ही समझते थे, इसीलिए शायद बड़ी ही नहीं हो पाती थी। इधर एकदम कितनी बड़ी हो गई हूँ। कानून की बातें समझने लगी हूँ। सात आदमियों का दोनों समय का खाना बना लेती हूँ। खाना ही नहीं, घर का भी तो काम करने लगी हूँ। मेरे साथ स्कूल में जो लड़कियाँ पढ़ती थीं, उनसे करवा लो देखें कोई भी काम! पर वे क्यों ये सब काम करें? भगवान कभी उन्हें ऐसे बुरे दिन न दिखाए!

क्या पापा सचमुच छूट जाएँगे? पिछली बार जब फैसला हुआ था तब दादी, बाबा चाचा-सब आ गए थे। सब लोग कचहरी गए, पर हमें नहीं ले गए। मुन्नू को छोड़ जाते, वह सचमुच बच्चा था; पर मैं तो बड़ी थी, नवीं का इम्तिहान दे चुकी थी। मुझे पापा के सारे केस की बातें पता थीं, फिर भी मुझे नहीं ले गए थे। मैं और मुन्नू साँस रोककर सबके लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। मैं खुद बहुत घबरा रही थी, पर मुन्नू को बराबर समझाती रही थी। और कोई चाहे मुझे बड़ा न समझता, पर वह तो समझता ही था। बारह बजे दादी और अम्मा ने रोते-रोते घर में प्रवेश किया। बाबा कुर्सी पर बैठकर, हथेलियों में मुँह छिपाकर, फूट-फूटकर रोने लगे : ‘हे भगवान तेरे राज में इतना अंधेर! मेरे निर्दोष बेटे को दो साल की सज़ा!’ सबको रोते देख हम दोनों भी खूब रोए।

दो दिन मैं स्कूल नहीं गई। जब गई तो मेरी सभी सहेलियाँ हमदर्दी दिखाने लगीं। पर वह हमदर्दी बिल्कुल नहीं थी। हमदर्दी क्या ऐसे कहकर दिखाई जाती है : ‘हाय-हाय, बेचारी के पिता को जेल हो गई!’ आपस में दबी-दबी जबान में कहती : ‘इतने बड़े लोग भी चोरी करते हैं? तभी ठाठ थे आशाजी के!’ मेरा जी होता, चीख-चीखकर सबसे कहूँ कि पप्पा ने कुछ नहीं किया है, बस, इस समय उनके ग्रह बिगड़े हुए हैं। ग्रह जब बिगड़ जाते हैं तब क्या नहीं हो जाता? रामचंद्रजी ने कौन चोरी की थी, फिर भी चौदह साल का बनवास काटा या नहीं? पांडवों ने क्या किया था, फिर भी अज्ञातवास भोगा या नहीं? तब? जब ग्रह बिगड़ते हैं तो राजा को भी सब-कुछ भोगना पड़ता है। इतनी-सी बात ये लोग क्यों नहीं समझती? अम्मा ने मुझे समझाया कि अभी हमारे बुरे दिन हैं, जो भी आए, चुपचाप सहन कर लो और मैं समझ गई। तभी तो उन लोगों से कुछ नहीं कहती थी। पर उनको कभी समझ नहीं आया। शायद बुरे दिनों में ही समझ बढ़ती है।

खैर, तभी कांत मामा आ गए। वह इंग्लैंड से जैसे ही लौटे, सीधे घर आ गए थे। कितना बिगड़े थे बाबा और चाचाजी पर कि यह सब कैसे हो गया? आज के ज़माने में तो गुनाहगार अपने को साफ बचाकर ले जाते हैं। लाखों हजम करके मूंछों पर ताव देते घूमते हैं। फाइलों की फाइलें गायब करवा देते हैं। और एक ये हैं कि बिना गड़बड़ किए सज़ा भोगने जा रहे हैं। बिना अपराध किए भी बाबा अपराधी की भाँति चुपचाप सिर नीचा किए सब सुनते रहे। वह बेचारे कानून के छक्के-पंजे क्या जानें? जब नहीं सुना जाता तो रो पड़ते। उस समय मुझे कांत मामा का व्यवहार ज़रा भी अच्छा नहीं लगता था, पर कुछ कह भी तो नहीं सकता था कोई। वह हाईकोर्ट में अपील मंजूर करवाने के लिए भाग-दौड़ कर रहे थे। इंग्लैंड से लौटकर कांत मामा अपने को बहुत समझने लगे थे, शायद बहुत-कुछ होकर भी आए थे।

उन्होंने सचमुच अपील मंजूर करवा दी। मैं सोच रही थी, अब पप्पा कितना प्यार करेंगे हमें! कितने दिनों से घर में मनहूसियत छाई हुई है, वह दूर हो जाएगी। हमारे अच्छे दिन लौट आएँगे। सब लोगों के आ जाने से हमें तो कोई पूछता ही नहीं था। एकाएक जैसे हम कुछ नहीं रहे। मैं फिर भी कुछ समझती थी पर मुन्नू नहीं समझता, किसी भी चीज़ की ज़िद कर बैठता। मैं उसे समझाती : भैया, अभी हमारे बुरे ग्रह आए हुए हैं, किसी भी चीज़ की ज़िद नहीं करते।’ पर वह ग्रह-व्रह कुछ नहीं मानता और रोये ही चला जाता।

अपील मंजूर होने पर मैंने सोचा था, अब हमारे बुरे दिन टल गए, अब सब-कुछ पहले-जैसा हो जाएगा। तब मैं नहीं जानती थी कि अपील मंजूर हो जाना मुकदमा जीतना नहीं होता मुक़दमे की शुरुआत होती है-असली लड़ाई, असली परीक्षा।

पप्पा थोड़ी देर बाद चाचा के साथ ताँगे पर आए थे और आते ही बात करना तो दूर, बिना किसी की ओर देखे, चुपचाप, नीची नज़र किए वह ऊपर चले गए। सब लोग सकते में आ गए। कैसे हो गए हैं पप्पा! किसी की हिम्मत ही नहीं हुई कि ऊपर जाए। आखिर दादी ने अम्मा को भेजा। अम्मा थोड़ी देर में ही लौट आई : ‘दरवाज़ा ही नहीं खोलते। बहुत खटखटाया तो यही कहा-चली जाओ, मुझे अभी परेशान मत करो।’

यों घरवालों के साथ रोई मैं रोज़ ही थी; पर उस दिन पहली बार मेरा मन रोया था, अपनी पूरी समझ के साथ रोया था। क्या हो गया है मेरे पप्पा को? पच्चीस दिनों बाद घर में घुसे और प्यार करना तो दूर रहा, हमारी ओर देखा तक नहीं! बार-बार मन कहने लगा-यह मेरे पप्पा नहीं हैं। वह ऐसे हो ही नहीं सकते। जेलवालों ने उन्हें बदल दिया है। एक अजीब-सा भय मन में समाने लगा कि अब शायद पप्पा कभी प्यार नहीं करेंगे। और सचमुच उसके बाद मैंने कभी उनका प्यार नहीं पाया, आज तक नहीं। इस कार्ड में क्या वह एक पंक्ति भी हमारे लिए नहीं लिख सकते थे? यों में उनकी इस उदासीनता और तटस्थता को समझती भी हूँ। शायद वह अब किसी से मोह नहीं रखना चाहते। कहीं फिर सज़ा हो गई तो?

शाम को सब लोग ऊपर गए। दरवाज़ा तो खोला पप्पा ने, पर बात किसी से नहीं की थी। बस, तकिए में मुँह गड़ाकर पड़े रहे थे। मुझे डर लग रहा था, जैसे वह रो रहे हैं। पर हमें तुरंत नीचे भेज दिया गया था। कितना-कितना गुस्सा आया था उस समय! पप्पा हमारे हैं और ये सब इस तरह कर रहे हैं मानो हम कुछ हैं ही नहीं। पप्पा पर पहला हक़ मेरा है, और वह भी सारी दुनिया में मुझे ही सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं। मैं मनाने लगी थी कि ये सब लोग जल्दी से जल्दी अलीगढ़ से चले जाएँ तो अच्छा हो। तभी शायद पप्पा पहले की तरह प्यार करेंगे। सबके सामने शायद उन्हें शर्म आती है। शर्म की बात तो है ही। स्कूल में मुझे क्या कम शर्म आती थी!

पप्पा के घर आने के बाद मामा और चाचाजी चले भी गए। दादी और बाबा तो घर के ही हैं, पर पप्पा फिर भी नहीं उतरे। उस रात अम्मा को सोने के लिए ऊपर भेजा। वह सवेरे उठकर आईं तो बोली : ‘माँ जी, मुन्नू को आप गाँव लेती जाइए, वहाँ के स्कूल में डाल दीजिए। यहाँ तो अब उसकी फ़ीस जुटाना भी भारी पड़ेगा। आशा का तो इस साल फाइनल है; वरना उसे भी उमेश भैया के पास भेज देती। नीचे का घर अब खाली कर देंगे।’ फिर और पता नहीं क्या-क्या बातें हुईं दोनों में और फिर दोनों खूब रोईं, खूब रोईं। मैं किसी को भी रोता देखती तो बिना कारण जाने ही रोने लगती। फिर उस समय तो रोने का बहुत बड़ा कारण भी था-मुन्नू चला जाएगा! कैसे रहेगा वह गाँव में? वहाँ का स्कूल भी कोई स्कूल है! यहाँ इतने अच्छे स्कूल में पढ़ा। पप्पा वैसे चाहे सारे दिन चुपचाप पड़े रहें, पर इस मामले में कभी चुप नहीं रहेंगे।

पर पप्पा कुछ नहीं बोले। शायद अम्मा-पप्पा ने साथ बैठकर ही यह सब तय किया था। रो-धोकर मुन्नू भी चला गया। हाँ, जाते समय पप्पा ने उसे सीने से लगाकर बहुत प्यार किया था। मैं पास ही खड़ी रही थी। पप्पा की आँखों से आँसू टपक रहे थे। मेरा बड़ा मन कर रहा था कि मैं आँसू पोंछ दूँ-उनके दु:ख को दूर करने के लिए नहीं, पप्पा का प्यार पाने के लिए। मुन्न दूर जाकर भी पप्पा के कितने पास हो गया; मैं पास रहकर भी शायद हमेशा से दूर ही रहूँगी! पर पप्पा छोड़ने नीचे नहीं आए। कोई स्टेशन भी नहीं गया। जाता ही कौन? अम्मा अकेली निकलती नहीं, और मैं जाती तो लौटती कैसे?

मुन्नू के जाते ही हमारा घर सूना ही नहीं हुआ, उसमें बहुत कुछ रद्दोबदल भी हो गया; और फिर मन्नू ही क्यों, धीरे-धीरे सारा सामान भी चला गया। नीचे का मकान खाली कर दिया। खाना पकाना और सोना बरसाती में। पास की छोटी-सी कोठरी साफ़ करके मुझे पढ़ने के लिए मिली।

पप्पा अब कुछ-कुछ बोलने लगे थे, पर पहलेवाले पप्पा वह बिल्कुल नहीं रह गए थे। बस, सारे दिन चुपचाप लेटे रहते या कुछ पढ़ते रहते। कभी-कभी गोदी में तकिया रखकर कुछ लिखते भी। मेरा बड़ा मन होता था कि देखूँ, वह क्या लिखते हैं, पर कभी हिम्मत नहीं हुई। कितनी ही बार पढ़ा था कि दु:ख में हिम्मत रखने वाले सच्चे वीर होते हैं। हँसते-हँसते जो सारे दुःखों को झेल जाए, वही सच्चा वीर पुरुष है। मेरा मन होता, पप्पा को यह बात समझाऊँ। पर क्या पप्पा यह सब नहीं जानते? फिर? इस तरह मुँह छिपाकर तो वह पड़ा रहे जिसने सचमुच चोरी की हो। पप्पा को बाहर निकलना चाहिए, घूमना-फिरना चाहिए। इस तरह रहकर तो वह सबके बीच अपने को अपराधी ही साबित कर रहे हैं। पर उन्हें कैसे समझाती?

अपनी कोठरी में और कोई कष्ट नहीं था, पर भयंकर गर्मी के दिन और पंखा नहीं। रात तो जैसे-तैसे छत पर कट जाती, पर दोपहर में तो छत पर बने ये कमरे भट्टी की तरह जलते थे। छुट्टियों के दिन बिताए नहीं बीत रहे थे। अपनी किसी सहेली के यहाँ जाने की इच्छा नहीं होती थी। पड़ोस तक में जाना छोड़ रखा था। दुःख में कोई साथी नहीं होता। बस, एक गाँठ बाँध रखी थी कि जब तक ये बुरे ग्रह टल नहीं जाते, तब तक सभी कुछ चुपचाप सहन करना है।

जुलाई में बाबा की चिट्ठी आई। मुन्नू को छठवें में भरती करवा दिया है और वह खुश है। हम सबने भी मान लिया कि वह खुश ही होगा। ऐसा मान लेने में ही हम सबकी खुशी थी। साथ ही बाबा ने यह भी लिखा था कि शाम को उन्होंने एक दुकान में हिसाब लिखने का काम शुरू कर दिया। पच्चीस रुपए मिलेंगे, जिन्हें वह पप्पा के पास भेज देंगे। पचास रुपए उमेश चाचाजी भेजेंगे। मेरे सामने बाबा का बूढ़ा शरीर, झुकी कमर और धुंध-भरी आँखें घूम गईं। इस बुढ़ापे में वह अब फिर से नौकरी करेंगे? अम्मा ने बताया कि इन पचहत्तर रुपयों में ही उन्हें घर चलाना है।

तब मुझे भी पहली बार पप्पा पर गुस्सा आया कि क्यों उन्होंने सस्पेंशन के दौरान मिलनेवाली आधी तनख्वाह लेने से इंकार कर दिया? कितना समझाया था कांत मामा ने…चाचाजी तो एक तरह से नाराज़ ही हो गए थे, पर पप्पा की एक ही ज़िद, जब तक इस आरोप से मुक्त नहीं हो जाता, ऑफिस से एक पैसा भी नहीं लूँगा।

मैंने स्कूल की बस छोड़ दी। तीन मील पैदल ही जाती थी। धूप हो या बारिश, चेहरे पर शिकन नहीं लाती थी। कभी-कभी सोचती, पप्पा को सस्पेंड हुए दो साल तीन महीने हुए, इतने दिनों में आखिर कितना खर्च हुआ कि बैंक का सारा रुपया निकल गया, अम्मा के सारे गहने बिक गए…और भी पता नहीं क्या-क्या चला गया! वकील लोग शायद बहुत लुटेरे होते हैं। कभी सोचती, इससे तो पप्पा सचमुच ही ऑफ़िस का रुपया मार लेते तो अच्छा होता। कम-से-कम मुन्नू को तो अपने पास रख सकते, और एक पंखा भी रख लेते। इस उम्र में चमड़ी जैसे उबली जाती है। ईमानदारी करके ही कौन बड़ा सुख मिल रहा है!

अम्मा को पता नहीं क्या हो गया था कि भीतर-ही-भीतर सूखती जा रही थीं। कहाँ तो कुछ नहीं करती थीं और कहाँ अब सारा काम हाथ से करने लगीं। पप्पा भी उनकी मदद करते थे, उस समय मुझे बड़ा अच्छा लगता था। उन दिनों अम्मा बहुत चिड़चिड़ी हो गई थीं। एक दिन उन्होंने मुझे ज़रा-सी बात पर पीट दिया। अपनी याद में पहली बार मार खाई थी और वह भी इस उम्र में। शरीर से ज़्यादा मन आहत हुआ। चोट से ज़्यादा इस बात का दु:ख था कि पप्पा बैठे देखते रहे, पर कुछ नहीं कहा। न अम्मा को मना किया, न मुझे ही प्यार किया।

अपनी कोठरी में बैठकर में घंटों रोई थी। हे भगवान, सब दुःख दो पर मेरे पप्पा को पहले जैसा कर दो। वह पहले की ही तरह काम करेंगे तो मैं सब-कुछ सह लूँगी।

सुनवाई की पहली तारीख ही छह महीने बाद की पड़ी थी। कांत मामा ने कोशिश तो बहुत की थी कि जल्दी-जल्दी सुनवाई हो जाए और फैसला हो जाए: पर कानून कांत मामा की इच्छा से नहीं, अपनी रफ्तार से चलता है। वकीलों का सारा खर्च मामा ही कर रहे हैं, ज़रूर मामी से छिपाकर कर रहे होंगे; वरना वह तो एक पैसा भी खर्च न करने दें।

पहली सुनवाई बहुत अच्छी हुई थी। सर्दी में ठिठुरते हुए जब हमने यह ख़बर सुनी थी तो गर्मी की एक लहर ऊपर से नीचे तक दौड़ गई थी।

घर की हालत बद से बदतर होती जा रही थी, ख़ास कर अम्मा की! मुझे तभी लगता था कि कोई ऐसी बीमारी इन्हें लग गई है जो भीतर-ही-भीतर इन्हें खाए जा रही है। हाइजिन में रोग और उसके लक्षण पढ़ रखे थे और मुझे अम्मा के सारे लक्षण राजयक्ष्मा के-से लगते थे। सर्दी में वह जो ठंड खा गई तो चार महीने तक खाँसती ही रहीं।।

बाबा की चिट्ठी आई : ‘हिम्मत रखना बेटा, बुरे दिन आते हैं, तो सब तरफ़ से आते हैं। पर ये दिन फिरेंगे ज़रूर। भगवान के घर देर हो सकती है, अंधेर नहीं।’

दूसरी सुनवाई अप्रैल में हुई। तारीखें जल्दी मिलती ही नहीं थीं। पप्पा को छूटे साल हो गया था और अभी केवल दो सुनवाई हुई थीं। इतने-इतने दिनों बाद ही यदि सुनवाई हुई तो एक साल और लग जाएगा। मेरा मन काँप-काँप जाता था। लगता था, अब ऐसे दिन नहीं काटे जाते : ‘मुन्नू गाँव में, पप्पा बरसाती में, मैं कोठरी में और अम्मा खाट पर।

कैसे मैंने मैट्रिक का इम्तेहान दिया था, मैं ही जानती हूँ। फिर भी सेकेंड डिवीजन में पास हो गई। कोई खुशी मनानेवाला नहीं था। सबके मन ऐसे मर चुके थे कि न किसी बात की खुशी होती थी, न रंज।

जुलाई में नई समस्या आई। गाँव में तो केवल मिडिल स्कूल ही था। मुन्नू का अब क्या हो? मेरा अब क्या हो? यहाँ कॉलेज में जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। मैं जानती थीं कि बच्चों को पढ़ाना तो दूर, पचहत्तर रुपए में साथ रखकर खिलाना भी मुश्किल था। बाबा ने मुन्नू को सीधे उमेश चाचा के पास भेज दिया और खबर कर दी। यहाँ की स्थिति वह जानते थे। पप्पा वह पत्र पढ़कर सिहर उठे, अम्मा बहुत रोईं : ‘मैं छोरे को बे-पढ़ा ही रख लेती, वहाँ क्यों भेज दिया? एक बार उसे मुझसे मिला तो देते। लीला का स्वभाव कौन नहीं जानता? मेरा बच्चा सहम-सहमकर मर जाएगा?’ दो दिनों तक वह रोती रहीं। पप्पा अपराधी की तरह चुप बैठे रहते। अम्मा क्यों रोती हैं इस तरह? पप्पा यदि कुछ कर सकते हैं तो क्यों नहीं करते? दो दिनों बाद वह बोली : ‘मैं सोचती हूँ, आशा को भी वहीं भेज दो। वहीं कॉलेज में भर्ती हो जाएगी।’ मैं समझ नहीं पाई कि अम्मा व्यंग्य कर रही है या….पर अगले वाक्य ने ही सारी बातें साफ़ कर दी : ‘लीला का स्वभाव तो तुम जानते ही हो। आशा मुन्नू के पास रहेगी तो उसे तसल्ली तो रहेगी। रोने को एक गोद तो रहेगी।’ और अम्मा खुद फूट-फूटकर रोने लगी थीं। ‘उमेश भैया को लिख देना, जो भी वह खर्च करें, हम पर क़र्ज़ ही समझें। मैं उनकी पाई-पाई चुका दूँगी। भगवान कभी हमारे दिन भी बदलेगा ही, नहीं तो अपने को बेचकर उनका कर्ज अदा करूंगी। पर मेरे बच्चों पर थोड़ा रहम करें। ये दुखियारे यों ही अनाथ हो रहे हैं, थोड़ा प्यार इन्हें भी दे; थोड़ा लीला को भी समझा दें।’

कांत मामा अपने किसी काम से दिल्ली आए थे। लौटते समय अलीगढ भी उतरे। अम्मा ने उन्हीं के साथ मुझे इलाहाबाद भेज दिया था। कांत मामा ने एक बार कहा ज़रूर था : ‘कलकत्ता भेज दो, वहाँ पढ़ लेगी।’ पर क्या मैं पढ़ने जा रही थी? पढ़ना तो बस यों ही था। मुझे तो मुन्नू को तसल्ली देनी थी। वह रोये उसे अपनी गोदी में रुलाना था। और उस दिन मैं सचमुच बड़ी हो गई थी-अम्मा की तरह बड़ी। पर घर छोड़ते समय सारे बड़प्पन के बावजूद फूट पड़ी थी। अम्मा की हालत देखकर घर का अधिक काम मैंने सँभाल रखा था। अब क्या होगा? इस हालत में अम्मा कैसे सब काम करेंगी? रोज़-रोज़ के बुखार ने उन्हें हड्डियों की ठठरी बना दिया था। पर अम्मा को तसल्ली देनेवाले पप्पा हैं, रोने के लिए पप्पा की गोदी है। मुन्नू तो वहाँ अकेला है। अभी मेरी सबसे ज्यादा जरूरत मुन्नू को ही है।

रास्ते में कांत मामा ने मुझसे पूछा थाः ‘शारदा को रोज़ बुखार रहता है। किसी डॉक्टर को दिखाया या नहीं?’

‘नहीं।’ और मुझे रोना आ गया। ‘रोते नहीं बेटे, अब बहुत जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा।’

‘पप्पा ने तो कई बार कहा था कि दिखा दो; पर अम्मा मानती ही नहीं। कहती हैं-डॉक्टर झूठमूठ को वहम डाल देते हैं।’

मामा चुप हो गए थे। मामा क्या समझते नहीं : ‘अम्मा इसलिए नहीं दिखाती हैं कि डॉक्टर और दवाई का खर्च कहाँ से आएगा? वे लोग तो टॉनिक और दूध-फल बता देंगे, आराम करने और खुश रहने को कह देंगे। बोलो, यह सब हो सकेगा पचहत्तर रुपए में? मुझसे पूछो, इन दिनों में मैंने हिसाब चलाया है। एक-एक चीज़ गिना सकती थी। पर उनसे क्या कहती? वकीलों का सारा खर्च तो वह कर ही रहे हैं; और वकीलों पर कितना खर्च होता है, क्या मैं जानती नहीं?

मुन्न मुझे देखते ही चिपट पड़ा था और रो दिया था। मुझे भी रोना आ गया था। चाची ने कुछ कहा ज़रूर था; पर अपने ही रोने में हमने सुना नहीं। मुन्नू को गले लगाकर मुझे कैसा लग रहा था, मैं नहीं बता सकती। इतना ज़रूर लगा कि उसे सचमुच किसी गोदी की ज़रूरत थी-किसी सहारे की। मैं चाची से बातें कर रही थी। उन्हें मेरा आना अच्छा नहीं लगा था, यह साफ था; पर मैं ही कौन अपनी इच्छा से आई हूँ। मुन्नू का रंग काफी साँवला पड़ गया था। चेहरा सूखकर मुरझा गया था और आँखें बड़ी सहमी-सहमी-सी थीं। लगा, बहुत डरकर-दबकर रहता है शायद यहाँ। घर में तो कितना ऊधम करता था! इतना-सा बच्चा, कैसे उसने अपने को बदला होगा, दबाया होगा? देखा, उसका काम था सालभर के बिट्टू को खिलाना। सारे दिन वह उसे गोदी में टाँगे-टाँगे फिरता। कब वह पढ़ता होगा, कब वह होमवर्क करता होगा।

रात को जब वह सोने मेरे पास आया तो धीरे से बोला : ‘दीदी, कल मुझे बुढ़िया के बाल खिलाना। टिल्लू और पम्मी रोज़ खाते हैं। चाची उन्हें पैसे देती हैं और कहती हैं, छिपकर खा लिया करो। पर वे सामने ही खाते हैं। एक दिन टिल्लू मुझे चिढ़ाकर खा रहा था, मैंने उसके बाल छीन लिए। उसने चाची से शिकायत कर दी। चाची ने मुझे बहुत मारा। चाची बहुत ज़ोर से मारती हैं।’ और वह फिर सिसकने लगा। मैंने उसे प्यार किया और कहा : ‘मैं अपने भैया को बाल खिलाऊँगी।’ पर मेरा मन भीतर तक सिसक पड़ा। हम बड़े हैं, हम सब समझते हैं और सह भी सकते हैं। पर यह बेचारा सिसक पड़ा। समझ तो गया ही होगा, पर सहे कैसे?

पहली रात को ही मैंने संकल्प किया-मैं कॉलेज नहीं जाऊँगी। घर का सारा काम मैं करूँगी, जिससे चाची को पूरा आराम मिले और उनका गुस्सा ठंडा रहे। चाची कुछ भी कहेंगी तो चूँ तक नहीं करूंगी। वह प्रसन्न रहेंगी तो मुन्नू सुरक्षित रहेगा। मुन्नू को रात में बैठकर पढ़ाया करूँगी।

मैं चाची से भी जल्दी उठकर सबके लिए चाय बना देती। फिर जल्दी से टिल्लू और पम्मी को तैयार कर देती, तब नाश्ता देकर तीनों बच्चे को स्कूल भेज देती। नाश्ते की प्लेट देखने चाची ज़रूर आतीं। शायद उन्हें यह वहम रहता था कि मैं मुन्नू को कुछ ज्यादा या अच्छा न खिला दूँ। चाचा जी तारीफ करते : ‘तुम तो बड़ी होशियार हो आशा, इतना काम कर लेती हो।’ चाची तुरंत कहतीं : ‘मैं जब इतनी बड़ी थी तो बारह जनों के कुनबे को सँभालती थी। आध-आध मन के पापड़-मँगोड़ी करती थी।’ चुप रहती थी मैं तो। दोनों समय का खाना भी मैंने अपने ही जिम्मे कर रखा था।

रात में सोने जाती तो पैर मेरे झपकते रहते थे। कभी-कभी मुन्नू को अपने पैरों पर खड़ा कर लेती थी। उससे पैरों को तो आराम मिल जाता था, पर मन? अम्मा कभी-कभी मुझसे रसोई में काम करवाती थीं तो पप्पा डाँटते थे : ‘मैं अपनी आशा को डॉक्टर बनाऊँगा, विदेश भेजूँगा, यह भटियार-खाना करवाकर क्या मुझे अपनी बिटिया की जिंदगी खराब करनी है?’ यही वाक्य हवाओं में तैरकर कमरे में घूमता रहता, गूँजता रहता। धीरे-धीरे आदत पड़ गई तो पैरों का दर्द बंद हो गया और मन भी सुन्न होता चला गया।

मैंने अम्मा को नहीं लिखा कि मैं कॉलेज में भरती नहीं हुई हूँ। लिखने के लिए चाची जी ने मुझे चार पोस्टकार्ड दिए थे और बताया था कि हर महीने चार कार्ड मिलेंगे। उनमें मैं अपने कुशल-समाचार भेज देती थी, बस।

रात-दिन काम कर-करके मैं चाची के क्रोध को सँभाले रहती। आराम पाकर मुझ पर बह कुछ-कुछ प्रसन्न भी हो गई थीं; पर उनका हाथ जब-तब उठ जाया करता था-अपने बच्चों पर भी, मुन्नू पर भी। उनके बच्चे आदी थे, सो मार खाकर भी हँसते और भाग जाते। फिर वे मार खाते थे तो प्यार भी पाते थे। पर मुन्नू सहम जाता था। भीतर-ही-भीतर सिसकता। बड़ी करुण नज़रों से वह मुझे देखता। पर भीतर से कटकर भी मैं ऐसे अवसरों पर कुछ नहीं बोलती। सोचती, यों मार खा-खाकर मुन्नू या तो बेहद ढीठ हो जाएगा या जड़। पप्पा और अम्मा तो कभी हाथ भी नहीं लगाते थे हमारे। अकेले में मैं उसे प्यार कर लेती। समझाती : "थोड़े दिनों की बात और है भैया, फिर हम अपने घर चलेंगे, अम्मा और पप्पा के पास, बस।" पता नहीं, वह समझता भी था या नहीं। पर मेरा मन सबसे ज़्यादा दुखी होता जब चाची गुस्से में कहती : “ऑफ़िस के बीस हज़ार गायब करके गाड़ दिए और हमारा खून चूस रहे हैं ! ये हमारे बड़े हैं ! लानत है ऐसे बड़प्पन पर !" मैं सोचती, क्या सचमुच चाचाजी यही सोचते हैं कि पप्पा ने रुपए मारे हैं ? यदि आज उनके पास पैसा होता तो क्या हमें यों छोड़ देते ? और अपने सारे पिछले दिन आँखों के आगे घूम जाते। कितना प्यार करते थे पप्पा...कितना ! मैं चाहे कुछ भी लिखू, पर क्या वह जानते नहीं कि हम पर यहाँ क्या गुजर रही है ?

31 तारीख को चाचाजी ने चाची के हाथ में तनख्वाह रखी तो चाची ने कहा : “अब भाई साहब को लिख दो कि पचास रुपए नहीं भेज सकेंगे। इस महँगाई के ज़माने में दो पालना ही बहुत भारी पड़ रहा है, फिर हमारे भी तो बच्चे हैं। कौन यहाँ खान गड़ी है !" बात ठीक थी, पर मेरा मन काँप गया। चाचाजी रुपए नहीं भेजेंगे तो क्या होगा ? पच्चीस रुपए महीने में क्या होगा ? इतना तो कमरे का किराया ही चला जाता है।

रोती हुई अम्मा और बिसूरते हुए पप्पा मुझे सारी रात दिखाई दिए। मैं भी उनके साथ बहुत रोई।

अम्मा का कोई पत्र ही नहीं आया बहुत दिनों तक। उठते-बैठते एक ही चिन्ता थी मुझे-अम्मा ने पैसे की क्या व्यवस्था की होगी ? कान्त मामा का भी कोई पत्र नहीं आया। पता नहीं, क्या हाल है उधर का ?

पूरा अगस्त बीत गया। मैं अपने चारों कार्ड डाल चुकी; पर कोई जवाब नहीं आया। क्या हो गया है अम्मा को, लिखती क्यों नहीं ? सितम्बर में कान्त मामा का पत्र आया : "शारदा की तबीयत खराब थी, सो उसे यहाँ ले आया। यहाँ उसका इलाज चल रहा है। दिनेशजी ने कमरा बदल लिया है, उनका पता...है। किस्मत के अलावा क्या कहूँ कि तारीख जल्दी नहीं मिलती। तीसरी तारीख इसी महीने के आखिर में पड़ी है। सुनवाई पर जाऊँगा। तुम घबराना मत। भगवान सब ठीक करेंगे। गर्मियों तक कुछ-न-कुछ अवश्य हो जाएगा।"

तो पप्पा अकेले रह गए ? अम्मा और पप्पा की गोद भी छिन गई जिसमें वे रो सकते थे। पप्पा का यह पता ? अलीगढ़ की गली-गली मुझे मालूम थी ? यह तो मजदूरों की बस्ती है। अँधेरी सीलन-भरी गलियाँ...पास में बहते नाले। पप्पा का खाना कौन बनाता होगा ? उन्होंने तो कभी ऐसे काम नहीं किए। कभी अँगीठी भी जलाते तो अम्मा मना कर देती थीं। तब वह यही कह देते : "शारदा, कौन जाने कि इस बार छूट ही जाऊँगा। सजा हो गई तो पता नहीं क्या-क्या करना पड़ेगा..."

अम्मा बीच में ही डाँट देती : “ऐसी बात भी क्यों मुँह से निकालते हो ? भगवान के घर देर हो सकती है, अँधेर नहीं।" यह वाक्य अम्मा ने बाबा से सीखा था और मन्त्र की तरह गाँठ बाँध ली थी।

और मैं भगवान से यही मनाया करती कि हे भगवान, उन्हें सज़ा न हो। पप्पा की तपस्या का फल उन्हें मिले। जो कुछ वह सह रहे हैं, वह क्या तपस्या से कम है ? सीलन-भरी अँधेरी कोठरी में सबसे मुँह छिपाकर रहना, बच्चे कहीं, पत्नी कहीं, अब तो रहम करना। अब उन्हें सज़ा मत देना !

मार्च में चौथी सुनवाई भी हो गई। कान्त मामा की चिट्ठी आई कि फ़ैसला पक्ष में ही होगा। केस की पैरवी बहुत अच्छे ढंग से हुई है। बस, फ़ैसले की तारीख पड़ जाए जल्दी से।

मैं बैठी-बैठी दिन गिनती। पप्पा को सस्पेंड हुए चार साल हो गए। इन चार सालों में क्या कुछ नहीं हुआ ! भगवान, देर तो बहुत की, अब अँधेर मत करना ! यों यह देर भी अँधेर से कम नहीं, पर और अँधेर मत करना !

मुन्नू और टिल्लू अपना-अपना रिजल्ट लेकर आए। टिल्लू सब विषयों में पास था और मुन्नू एक विषय में फेल होकर प्रमोट हुआ था। चाचाजी ने टिल्लू को प्यार किया, मुन्नू पास खड़ा आँसू-भरी आँखों से टुकुर-टुकुर ताकता रहा। चाची ने कहा : “फेल हो गया न ? पढ़ने-लिखने में मन लगाओ मुन्नू साहब, तब टिल्लू की तरह पास होओगे। सारे दिन बैठे-बैठे टसुए बहाने से पास नहीं हुआ जाता।" आँख के आँसू गालों पर ढुलक गए। कमीज़ की बाँह से उन्हें पोंछता हुआ वह भीतर जाने लगा तो टिल्लू चिढ़ाने लगा : “फेलूराम... फेलूराम !" उस दिन पहली बार मेरे लिए अपने पर बस रखना बहुत कठिन हो गया था। मन हुआ, कह दूँ-"उसे पढ़ने के लिए समय ही कहाँ मिलता है ? सारे दिन तो बिटू को खिलाता है। पच्चीस चक्कर बाज़ार के करता है।" पर चुप !

जाते-जाते मुन्नू ने एक बार चिढ़ाते हुए टिल्लू को जरूर जलती आँखों से देखा था। लगा, उठाकर एक हाथ मार देगा; पर न वह लौटा, न कुछ बोला ही। कैसे हो गया है मुन्नू इतना सहनशील ? चुपचाप सहने का उपदेश उसे मैं ही दिया करती थी। पर अब वह यों सह जाता है तो सबसे ज़्यादा कष्ट मुझे ही होता है। पर कोई उपाय भी तो नहीं था।

मुन्नू की छुट्टियाँ हो गईं। सोचती थी कि शायद कान्त मामा या अम्मा का कोई पत्र आएगा कि तुम लोग आ जाओ, पर किसी ने कुछ नहीं लिखा। पप्पा तो कभी कुछ लिखते ही नहीं, अम्मा कभी-कभी दो लाइनें लिख देती : “मैं धीरे-धीरे ठीक हो रही हूँ, तुम चिन्ता मत करना। लीला को आशीर्वाद, बच्चों को प्यार। चाची की मदद करना, तंग मत करना।" मुझे हर बार लगता था, कितनी झूठी चिट्ठी लिखती हैं अम्मा !

पर धीरज की अवधि खिंचते-खिंचते एक साल तक पहुंच गई। पिछले मार्च में सुनवाई हुई थी और अब इस साल का अप्रैल है।

अब तो मुझे लगने लगा था कि जैसे जिन्दगी-भर हमें इसी तरह रहना है, बस, इसी तरह। अब मैं कभी कॉलेज में पढ़ने नहीं जाऊँगी। मुन्नू हर साल एक विषय में फेल होकर जैसे-तैसे प्रमोट हुआ करेगा। अम्मा शायद हमेशा बीमार रहकर मामा के यहाँ इलाज ही करवाती रहेंगी। पप्पा वैसे ही सीलन-भरी बदबूदार कोठरी में अपना खाना आप पकाया करेंगे...।

और तभी आज पप्पा की यह चिट्ठी आई-उनके हाथ की लिखी पहली चिट्ठी। मैंने हज़ार बार उसे देखा, पढ़ा, छुआ, जैसे उस कार्ड को छूकर पप्पा की हालत का ज्ञान हो जाएगा।

पप्पा ने हमें बुलाया नहीं। कहने से चाचाजी ले जाएँगे? पर इस बार जाएँगे जरूर, चाहे कुछ भी हो जाए। कान्त मामा को लिखें, वे लेते जाएँगे?

कल सवेरे दस बजे फ़ैसला है। हम दोनों कान्त मामा के साथ आ गए। धर्मशाला में छोड़कर मामा, पप्पा को लेने चले गए। पूरी उम्मीद थी कि इस बार अम्मा जरूर आएँगी; पर वह नहीं आईं। मामा ने इतना ही कहा : “उसकी हालत लाने जैसी नहीं थी... | फैसला हो जाए तो तुम लोग वहीं चलना।" पता नहीं, अम्मा किस हालत में हैं ! मन बार-बार काँप उठता है। मामा कुछ छिपा रहे हैं। मैंने भी अम्मा से कितना कुछ छिपा रखा है ! आज कौन किसके बारे में सही बात जानता है ? दूसरे को हलका रखने के लिए सब अपने-अपने दुःख से ही भारी हो रहे हैं।

पप्पा आए तो मैं और मुन्नू उनसे लिपट गए हैं। पप्पा ! शायद पप्पा को भी हम लोग ऐसे ही लग रहे होंगे। कितने-कितने आँसू बह गए हम तीनों के ! कान्त मामा भी रो पड़े।

शाम को दादी-बाबा भी आ गए। रात में मुन्नू दादी से पूछ रहा था : “दादी, अब तो हम पप्पा के पास ही रहेंगे न ? तुम इतनी पूजा करती हो, अपने भगवान से कहो कि हमारे पप्पा को छोड़ दें।"

"हाँ, बेटा, अब तू पप्पा के पास ही रहेगा। रात-दिन भगवान से यही तो कहती हूँ।"

"चाची के पास तो मैं अब कभी नहीं जाऊँगा। टिल्लू अपने को समझता क्या है ? मैं अपने पप्पा के पास रहूँ और फिर आ जाए ! हरेक चीज़ में पछाड़ सकता हूँ-पढ़ने में भी कुश्ती में भी। पहले फर्स्ट भी आया हूँ एक बार क्लास में...क्यों दीदी, आया था न ?"

मेरी आँखें भीग आईं। कितने दिनों बाद मुन्नू को उसके असली रूप में देख रही हूँ ! टिल्लू ने उसे चिढ़ाया था तो इसने कुछ नहीं कहा था, चुपचाप भीतर बैठकर रोया था। शायद जानता था कि टिल्लू को कुछ भी कहने का अर्थ है चाची की मार। पर मुझे कितना बुरा लगा था उस दिन ! कहाँ चली गई मुन्नू की बाल-सुलभ ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा की भावना ? क्या इतनी सी उम्र में हम लोग सब कुछ सहने के लिए ही बने हैं ?

मुन्नू दादी की खाट पर ही सो गया। मुझे बिल्कुल भी नींद नहीं आई। कल फैसला है-हम सबकी किस्मत का फ़ैसला। कान्त मामा बहुत आश्वस्त हैं; पर पप्पा के चेहरे पर तो कोई भाव ही नहीं !

फ़ैसला हो गया। मैं भी कचहरी गई थी। इस बार किसी ने रोका भी नहीं। वहाँ ख़ास भीड़ नहीं थी। पप्पा में भला घरवालों के सिवा किसे दिलचस्पी हो सकती थी ? पप्पा कठघरे में खड़े थे, हम कुर्सियों पर बैठे जज साहब के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। जज साहब आए तो बाबा ने आँखें मूंद लीं। अम्मा का सिर नीचा था। वह जरूर मन-ही-मन प्रार्थना कर रही होंगी। मैं मुन्नू का हाथ कसकर दबाए बैठी थी और मुझे लग रहा था कि अब और देरी होगी तो मेरी साँस भी घुट जाएगी।

कानूनी भाषा में जज साहब ने क्या-क्या कहा, मुझे कुछ समझ में नहीं आया; पर आखिरी वाक्य समझ में आ गया : “मुज़रिम को रिहा किया जाता है...।" मैं मुन्नू का हाथ हवा में उछालकर एक तरह से चीख़ ही पड़ी : “मुन्नू, पापा रिहा हो गए...रिहा हो गए !" पर एकाएक ही दादी और बाबा फूट-फूटकर रो पड़े। मैं भय से काँप उठी, कहीं मैंने गलत तो नहीं सुन लिया ! पिछली बार भी तो ये लोग इसी प्रकार रोते-रोते घर में घुसे थे। पर बाबा का यह वाक्य : "मैं कहता न था बेटे, भगवान के घर में देर है, अन्धेर नहीं, देख...!"

पर पप्पा को क्या हुआ है ? वह खुश क्यों नहीं हो रहे ? उनका भावहीन चेहरा, गढ़े में धंसी हुई निस्तेज, निर्जीव आँखों में से खुशी की चमक क्यों नहीं आ रही ? वह ऐसी पथराई आँखों से बाबा को देख रहे हैं मानो उन्हें बाबा की बात ही समझ में नहीं आ रही हो।

मैं दौड़कर पप्पा से चिपट गई : “पप्पा, आप बरी हो गए ! सुनते हैं, आपको सज़ा नहीं हुई...सज़ा नहीं हुई है आपको !" पर पप्पा फिर भी वैसे ही रहे, मानो उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा है कि उन्हें सज़ा नहीं हुई है।

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