स्तब्ध : अख्तर मुहीउद्दीन (कश्मीरी कहानी)

Satabdh : Akhtar Mohiuddin (Kashmiri Story)

हे ! चूज़ा मर गया।’’ उसने कहा
‘‘मर गया तो क्या हुआ।’’ मैंने सोचा।
मगर कहा कुछ नहीं।
‘‘सुनते हो !’’ उसने फिर कहा, ‘‘चूज़ा मर गया।’’
मैंन ऊपर से नीचे तक निहारा-अच्छा-खासा, साफ-सुथरे वस्त्र, पागलपन का कोई चिह्न नहीं। सिवाय इसके कि बिखरे बाल और लाल-लाल फटी हुई आंखें बाहर को निकल रही थीं। दाहिनें हाथ में काले रंग का मरा हुआ चूज़ा लिए हुए। एक दृष्टि उसकी ओर और एक मेरी ओर डालता।
मुझसे कुछ बोला न गया। चूज़े मरते रहते हैं। किसी को चील ले जाती है, किसी को कुत्ते, और कोई अचानक ही मर जाता है। कोई घरवालों के पैरों तले दबकर भी मर जाता है। मर गया तो क्या हुआ, मरते हैं !

और जो चूज़ा उसके हाथों में था वह ऐसा भी न था जिसके मरने से कोई पागल हो जाए। काले रंग के कोमल बाल और मोटे तथा छोटे पंख, थोड़ी लंबी टांगे, पीठ पर कुछ सफेद ख़ारिश जैसा। मुझे किसी घृणास्पद वस्तु जैसा लगा पर उसका मन रखने के लिए तथा उस चूज़े की विशेषता जानने के लिए मैंने पूछा, ‘‘यह अच्छी जाति का था ?’’
‘‘गोली मारो जाति को,’’ उसने रुष्ट होकर कहा, ‘‘हमें जाति से क्या लेना-देना।’’
बात जो भी हो, पर ऐसा लगा कि चूज़ा शायद किसी विशिष्ट जाति का नहीं था। खैर, उसके बाद उसने लंबी सांस छोड़ी। कंधो को उचकाया, अजीब दृष्टि से चूज़े को देखा और कहा, ‘‘मुझे क्या मालूम !’’

वह स्पष्ट नहीं कर सका। संभवतः उसकी आंखों में आंसू भर आए थे। ‘‘रहेगा नाम उसी का।’’ मैंने उसे आश्वासन देने के लिए कहा। ‘‘किसका ?’’ उसने अजीब स्वर में पूछा। प्रश्न इस ढंग से नहीं किया कि मुझसे उसका उत्तर चाहता है। मानो वह अपने पैर के अंगूठे से पूछ रहा था, क्योंकि उसकी दृष्टि उसी ओर थी।
मैं लाचार हो गया। अपनी ओर से प्रयास में लग गया कि मुझे इस मरे चूज़े में कोई रहस्य दिखाई दे, पर दिखा कुछ नहीं। काले रंग, धूल से लथ-पथ और कमर पर ख़ारिश के कारण यह चूज़ा और भी अधिक भद्दा लग रहा था।

मुझे बात करने का अवसर मिल गया, ‘‘इसकी पीठ पर यह क्या है ?’’ उसने एक बार फिर चूज़े की पीठ पर दृष्टि डाली। जैसे कि अभी तक उसका इस ओर ध्यान ही न गया हो। उसके पश्चात उसने बाएं हाथ से उसके परों को उपर उठाया और उसके नीचे देखने लगा। मैं भी उत्सुकतापूर्वक देख रहा था। चूज़े की पूरी पीठ पर आटे जैसा कुछ लगा था, जो सूखकर पपड़ी जैसा हो गया था।
‘‘चू-चू-चू- इसी बीमारी के कारण इसकी मृत्यु हो गई।’’ उसने कहा, ‘‘ वास्तव में कोई किसी का नहीं, माता-पिता, भाई-बहन, सब झूठे है।’’
भला इतनी लम्बी-चौड़ी दार्शानिकता किसलिए !
‘‘वेटनरी वालों ने यह पाउडर इस पर लगया था।’’ उसने मेरी ओर देख कर कहा।
‘‘अरे भाई अब तो इसे फेंकना था।’’ मैंने कहा, ‘‘अब इसको टुकर-टुकर देखने से क्या होगा ?’’
‘‘हाँ ! वही करूंगा।’’ उसने विवशता से कहा जैसे
किसी प्रिय पात्र को दफनाना हो।

‘‘इसे नाली में फेंक दो, कोई कुत्ता या कौआ इसको खा लेगा।’’ मैंने कहा। ‘‘अरे ! क्या कहते हो।’’ उसने क्रोधित होकर कहा, ‘‘वास्तव में तुम भी इसी संसार के हो !’’
फिर यह इसका क्या करेगा ?
‘‘मुझे लगा था कि तुम बुद्धिमान हो, बात समझ सकोगे। खैर...’’ उसने निराश होकर कहा। मैं चुप हो गया, जैसे मैंने कोई अनुचित बात कह दी हो जिसके कारण अब लज्जित हूं।
‘‘यह हर किसी को अखरता था। किसी को भी इस पर दया नहीं आई।’’ कहते हुए वह दाहिने हाथ को आगे करते हुए चूज़े को इस प्रकार देखने लगा जैसे वह उसके मृत शरीर में प्राण डालने वाला हो।
‘‘इसने भी इक्कीस दिन तक घास के पल्ले में उष्णता का अनुभव किया होगा और न जाने कितनी आशाओं के साथ इस संसार में आया होगा।’’ संभवतः उसने यह चूज़े से कहा या फिर अपने आप से।
‘‘क्या तुमने घास के पल्ले में बैठे ऐसे फूल जैसे चूज़े को कभी देखा है ?’’ उसने मुझसे पूछा।

मैंने कहा, ‘‘हाँ। देखा है।’’
‘‘कितना निरीह होता है,’’ उसने कहा, ‘‘नवजात शिशु, चूज़ा और फूल, इन सब का स्वभाव एक जैसा होता है। इनमें भय नाम की कोई वस्तु नहीं होती। इनको लगता है कि प्रकृति इन्हीं के लिए बनाई गई है।’’
मैं सुन रहा था और वह कह रहा था, ‘‘यदि मैं अपने हाथों को जोर से उठाऊंगा तो तुम डर जाओगे, क्योंकि तुम भय से परिचित हो, तुम इस भय को कम नहीं कर सकते। इसके विपरीत यदि किसी दूध पीते बालक के गले पर छुरी भी रखोगे तो वह हंसेगा। समझे...। हा...हा...’’ वह हंसने लगा, ‘‘फूल को यह पहले से ही पता चल जाए कि उसे तोड़ लिया जाएगा तो वह भय से झड़ जाएगा।’’ वह हंस रहा था पर मैं सोच रहा था- मेरे सामने एक दृश्य घूम गया।
जर्मन दार्शनिक ‘पंज़ीन’ प्रेमिका के समान गुलाब, सोने की थाली सदाबहार फूलों से भरी, राजोओं जैसी पगड़ी बांधे, बड़ा सिर...सब हंस रहे हैं, सारे प्रसन्न हैं, आगे-पीछे, दाएं-बाएं, पक्षी-चिड़िया मैना, कौवे, चीले, बुलबुल...सब विवाहोत्सव मना रहे हैं।
‘‘उसकी लीला’’ मैंने कहा।
‘‘किसकी लीला ?’’ उसने वह शब्द मानो मेरे मुंह पर दे मारे। मैं आश्चर्य चकित रह गया।
‘‘डर गए ?’’ वह हंसा।
‘‘तुम न मूर्ख हो, न कुछ जानते हो।’’

‘‘इस चूज़े को पता नहीं चील कहाँ से झपट्टा मार कर ले आई। उसके निर्दयी पंजे इसकी छाती में घुस गए थे। किसी स्थान पर ले जाकर इसे मार देती। किन्तु भाग्य से यह उसके हाथों से छूट कर हमारे आंगन में गिर पड़ा।’’
‘‘अच्छा !’’ मैं ध्यान से सुनने लगा।
‘‘आंगन में इस पर एक तो मेरी दृष्टि पड़ी और दूसरे कुत्ते की। हम दोनों इस पर झपट पड़े। मैं भी और कुत्ता भी। मुझे दिखाई नहीं दिया। कुत्ते ने पकड़ लिया। मारना चाहा। मैंने पत्थर उठाया। कुत्ते ने डरकर उसे छोड़ दिया और भाग गया। अब मैं अकेला था। यह अपनी छोटी-छोटी और लंबी टांगो पर भाग रहा था और जोर-जोर से चीं-चीं कर रहा था। संभवतः उसे बुला रहा था जिसने उसे घास के पल्ले में गर्मी प्रदान की थी पर मैंने पकड़ लिया।’’

यह कहकर क्षण भर के लिए वह चुप हो गया। थोड़ी देर बाद खंखार कर, गला साफ किया और मुझसे कहा, ‘‘मान लो अचानक तुम्हारे सामने शेर, सांप या पचासों पागल कुत्ते पड़ जाएं और तुम्हें मारने दौड़े, तब तुम्हारी क्या स्थित होगी ?... कहो- मुझे नहीं पता। असल में किसी को पता नहीं। उसे भी पता नहीं जिसके पीछे कभी ये दौड़े होगें, क्योंकि ऐसे अवसर पर व्यक्ति अपना संतुलन खो बैठता है। व्यक्ति भागता जाता है पर पता नहीं कहां। वह क्या देखता है उसे मालूम नहीं। वह क्या कह रहा है वह भी पता नहीं। मैंने इस चूज़े को पकड़ लिया। इसका शरीर कंपकंपा रहा था। हृदय तीव्रता से धड़क रहा था। आंखे फटी हुई थीं और भय से चीं-चीं कर रहा था। संभवतः यह कह रहा था कि ‘मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है’ मैं एक चूज़ा हूं। यदि मैं मुर्गा होता तो बांग देता या अंडे देता। मैंने क्या किया ? हमरे घर में मुर्गे हैं। एक मुर्गा सुबह-शाम बांग देता है। मुर्गी कभी गाती है, कभी अंडे देती है और कभी कुड़क हो जाती है। भरा-पूरा परिवार आराम से है। एक पति की चार पत्नियां। मैंने सोचा कि यह चूज़ा वहीं ठीक रहेगा। धीरे-धीरे बड़ा हो जाएगा। मारेंगे और खाएंगे। मैंने इसको उसी के साथ छोड़ दिया ताकि अपनी जाति को देख इसका भय दूर हो जाए। एक घंटे बाद जब मैं दरबे (मुर्गीखाने) में देखने गया, पता है वहाँ क्या हुआ था ?’’

उसने मेरी ओर देखा। उसके अधरों पर एक व्यंग्य भरी मुस्कान थी। मुझे ऐसे देख रहा था जैसे वह परमात्मा हो और मैं एक पापी बंदा। क्षण भर मुझे टकटकर बांधे देखने के पश्चात बोला, ‘‘मुर्गे-मुर्गियों ने ठोंके मार-मार कर चूज़े की खाल निकाल ली थी। इसकी कमर की हड्डी दिखाई दे रही थी। खून से लथ-पथ एक कोने में सहमा हुआ बैठा था। मैंने पकड़ा। उसने भागने का प्रयास नहीं किया। हाथ में लिया, इसने कोई विरोध नहीं किया। धीरे-धीरे चीं-चीं कर रहा था। कुछ कह रहा था। संभवतः यह कि ‘अब मैं मर जाऊंगा, हो गए प्रसन्न। तुमसे कह रहा हूं। मनुष्य, कुत्ते, चील, मुर्गे- हो गए खुश। अब मैं मर जाऊंगा। बांग नहीं दूंगा। अब मैं कुछ नहीं करूंगा। वही करूंगा, जिससे सब खुश हो जाएंगे। मैं मरूंगा-...चीं-चीं- चीं।’ हाथ में लेकर कुछ खिलाने का प्रयास किया, इसने एक-दो चोंचे मारीं। शायद भूखा था या सोचा कि चलो इसका मन रख लेते हैं, क्या जाता है। कहते है ख़ुदा बेनियाज है। वेटनरी वालों ने पाउडर लगाया, मैंने गर्मी में रखा। अब यह मुझसे नहीं डरता था, और न ही अन्य किसी से- यह केवल चीं-चीं करता था, मुझे जलील कर रहा था और कह रहा था, ‘‘अरे, कुत्ते, अब खुश हो लो, मैं मर रहा हूं।’’ एक घंटे के पश्चात यह मर गया।’’ उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। वह मरे हुए चूज़े को फिर से देखने लगा और कहा, ‘‘सुन रहे हो- आखिरकार, यह मर गया।’’

अनुवाद : मोहम्मद ज़मां आजुर्दा