सासू माँ और गाय का गोबर (कहानी) : डॉ. भानुमती रामकृष्ण

Sasu Maan Aur Gay Ka Gobar (Telugu Story in Hindi) : Dr. Bhanumathi Ramakrishna

इस साल फसल जितनी होनी थी उतनी नहीं हो पाई और उलटे बहुत कम हुई थी, यह बात हमारी सासू माँ को बहुत परेशान करती रही। इसका कारण क्या है तुरंत पता लगाने के लिए सासू माँ ने खेतीबाड़ी करनेवाले, खेत का काम सँभालनेवाले गोपाल को बुलाया।

गोपाल आकर सासू माँ के सामने खड़ा हो गया, "क्यों रे! इस साल फसल इतनी कम क्यों हुई? इसकी वजह क्या है?"

गोपाल गला ठीक करके बोला, "मालकिन ! खाद काफी नहीं दे पाए, असली वजह यही है।"

“काफी खाद क्यों नहीं दे पाए? हर साल बाग में खाद काफी नहीं होती थी। इसलिए बाज़ार से खरीद लेते थे न?"

"खरीदते थे मालकिन ! लेकिन पिछले साल और इस साल नहीं खरीदी।"

"पिछले साल तक़रीबन पूरी फसल हुई थी न रे! फिर खाद नहीं दी तो कैसे हुई?"

“जी मालकिन ! पिछले साल की फसल उसके पहले दी हुई खाद की है, उसका जो थोड़ा-बहुत सार था उससे तक़रीबन पूरी फसल हुई, दूसरी फसल के रूप में तिल बोए थे, बचाखुचा सार तिल की फसल ने सोख लिया, इस बार इस फसल के लिए अपने बाग में जो थोड़ी-बहुत खाद थी वही दी। बाजार से खरीदना चाहते थे, लेकिन समय पर मिली नहीं।"

"बाजार में नहीं मिली रे। हमें जब-तब खाद बेचनेवाले कहाँ मिलेंगे? क्यों, वे कहाँ गए रे?"

वे कहीं भी नहीं गए हैं मालकिन। लेकिन उनके पास खाद नहीं है।
हमारी सासू माँ का सब्र खतम हुआ...
"क्यों नहीं है? वह भी बताओ..."
"ताजे गोबर की ही बहुत मांग है मालकिन!"
"इसका मतलब है कि ताजे गोबर को ही खेतों में डाल रहे हैं क्या!"
“खेतों के लिए नहीं मालकिन ! पोस्टर के लिए..."
"पोस्टर क्या है रे?"
"सिनेमा पोस्टर मालकिन!"
"सिनेमावालों को गोबर किसलिए रे?"
"उनको नहीं चाहिए मालकिन ! उनके मुँह को..."
"उनके मुँह को गोबर चाहिए क्या..."

“आप बड़ी मालकिन ! आप नहीं समझ पा रही हैं? बाहर सड़क के ऊपर दीवारों को चिपकाने वाले सिनेमा पोस्टरों में उनके मुँह पर लोग गोबर के मुश्ते ही तो लगाते रहते हैं।"

“ओह ! यह बात है ! परसों मैंने मंदिर से लौटते हुए देखा था। दीवारों पर कई सिनेमा के पोस्टर हैं और वे सारे के सारे मुश्ते मुँह को ढककर अब आ रहे सिनेमा जैसा ही उन पोस्टरों को इस तरह नए ढंग से सजाए होंगे...तो वह पूरा गोबर है!"

“हाँ मालकिन, पोस्टरों के ऊपर डालने के लिए ही गोबर को सोने के भाव खरीद कर ले जा रहे हैं।..."

"इस तरह खरीद कर लेते हैं क्या रे! गोबर को।"

"जी हाँ मालकिन, मामूली तौर पर खाद के लिए हम दाम कम देते हैं, ज्यादा पैसे देने की बात कहने पर गोबर को ही बेचे बिना वे क्या करेंगे? दरअसल गोबर के लिए ही वे दीवारों के हिसाब से ठेका लेते हैं।"

"इसकी भी हद हो गई! ...गोबर के लिए इतने ग्राहक होते हैं?"

"हाँ मालकिन ! सिनेमा रिलीज होते ही गोबर के लिए माँग को समझ लेना चाहिए। आज सिनेमा रिलीज हुआ तो उसके पोस्टर चिपका देते हैं न। दूसरे दिन ही और एक सिनेमा रिलीज होगा ऐसा सोचिए! उस सिनेमा के पोस्टर को आधी रात के समय पहले चिपकाए हए पोस्टर के ऊपर चिपकाते हैं...।"

“ऐसी बात है। तो पहले व्यक्ति का दिल नहीं दुखेगा? दुखता है। इसलिए वह गोबर तैयार रख लेता है न। ...दरअसल लोग दो प्रकार के होते हैं। एक प्रकार के व्यक्ति को जो अभिनेता पसंद है... उसके मुंह पर दूसरे प्रकार के व्यक्ति गोबर के मुश्त डालेंगे तो उस ओर के लोग इस ओर वाले अभिनेता पर गोबर के मुश्त डालेंगे..."

"बाप रे! बाप रे! कितना गोबर ! कितना गोबर ! हमारे बचपन में हमारे गाँव में कामदेव का त्योहार मनाते थे। उसी को उत्तर भारतीय होली कहते हैं, ऐसे ही आटे में रंग मिलकर एक-दूसरे के मुँह पर लगा देते थे। उसको तो मैंने देखा लेकिन इसे कहीं भी नहीं देखा, यह कोई गोबर की होली जैसी ही है।"

"इतना ही क्यों मालकिन ! हमारे सामनेवाले घर का अहम्मद गाय और भैंस पालकर दूध का व्यापार कर रहा है न! इन दो सालों में गोबर बेचकर उसने जो कुछ कमाया, उससे पाँच गाएँ खरीदीं।"

“हाय हाय, गोबर का ऐसा महत्व है, यह बात मैंने सपने में भी नहीं सोची रे! इसलिए मेरी नौकरानी ने कंडों का व्यापार बंद कर दिया। गोबर नहीं मिलने के कारण ही होगा शायद।"

“अब क्या कंडे मालकिन ! पोस्टर के ऊपर पड़े गोबर के थोड़ा सूखते ही लोग उसे निकाल कर ले जा रहे हैं चूल्हे में जलाने के लिए। बचे-खुचे पोस्टरों को, गाय, बकरी, दीवार से खींचकर खाते जा रहे हैं..."

“हे राम! सिनेमा के लोगों ने न जाने क्या पाप किया। न जाने वे किस माँ के बच्चे हैं, बेचारे उनके मुँह पर इस तरह गोबर डालकर, बकरी से खिला कर हाय हाय!..."

"कुछ भी हो सिनेमावालों ने बड़ा पुण्य किया है मालकिन ! उनके फोटो को अज्ञानी लोग ईश्वर मानते हैं और लोग देखते रहते हैं। न..."

"उसके लिए क्या है रे! जमा और खर्च जैसा हरएक का अपना-अपना महत्व है।"

“अरे बदमाश ! यह कोई होशियार-सा लग रहा है। जाने दो, संगीत को खाद जैसा इस्तेमाल करके उगाएँगे।" ऐसा कहते हुए इतने में हमारी सासू माँ के बचपन के सहपाठी पट्टाचारी जी का पोता श्रीपाद बरामदे में चप्पल उतारकर अंदर आया।

“अरे पाद, बहत दिनों के बाद दिख रहा है रे! अभी आ रहा है? क्या सभी सकुशल

“हाँ, इस गाँव में एक संगीत सभा का आयोजन है। उसमें मैं भी आमंत्रित हूँ। सोचा कि इस बहाने आपसे भेंट होगी।"

“तो यह बात है। बहुत लगन से तुमने संगीत की साधना की है। तुम बचपन से ही संगीत के पीछे पागल थे, इसी कारण पढ़ाई में पीछे रह गए। तुम्हारे दादा यही शिकायत करते थे तो आखिर संगीत सभा करने तक पहुंच गए हो? वाह ! हाँ मैं पूछना भूल गई, तुम्हारे साथ एक और संगीत के पीछे जान देनेवाली रहती थी, यानी हमारी पोती श्रीलक्ष्मी...याद है क्या?"

"क्यों नहीं है। बचपन में श्रीलक्ष्मी को मैंने ही संगीत सिखाया था। इसी बीच श्रीलक्ष्मी का विवाह हो गया। यह बात मैंने दादाजी के मुँह से सुनी।"

विवाह होना ही क्या रे! दो बच्चे भी। यहीं रह रही है, उसके पति का हाल ही में इस गाँव में ही तबादला हुआ है, परसों ही मायके गई हैं, उसकी माँ की तबीयत ठीक नहीं है। खबर मिलने पर देखने के लिए गई। अब बारह बजे की गाड़ी से आ रही है। ठीक समय पर ही तुम आए हो, दो बच्चों की माँ होने पर भी उसे संगीत के भूत ने नहीं छोड़ा रे! मैं बता नहीं सकती कि संगीत को सीखने के लिए कितना प्रयत्न कर रही हैं। अब आते ही तुम्हें देखेगी तो यहाँ से तुम्हें हिलने नहीं देगी। संगीत सिखाने के लिए तुम्हारी जान खा लेगी, देख लेना।"

"यह कौन-सी बड़ी बात है, सिखा दूँगा।...गाँव में मुझे कुछ करना-धरना तो नहीं है।...ब्रह्मचारी हूँ, कहीं भी रहूँगा। पूछनेवाला है ही कौन? यदि संगीत अच्छी तरह से लगन के साथ सीखने वाले हैं तो इन लोगों को सिखाना ही मेरा शौक है।"

“लगन क्या! उसे संगीत कितना पसंद है उसे भी मालूम नहीं है, वह खाना पकाते समय, बच्चों को नहाते समय या फिर कोई भी काम करते समय गाती ही रहती हैं, उसका संगीत सीखना उसके पति को भी पसंद है। बेचारे भाग्य ने उसके शौक का साथ नहीं दिया। अब तक चार मास्टर गए हैं।"

एक क्षण के लिए उसकी दिल की धड़कन रुक गई, उसका मुँह सकपका गया तो फीके स्वर में उसने पूछा कि वे कहाँ गए।

कहीं और जाते तो चिंता की बात नहीं थी। पहले एक महाशय को नियुक्त किया गया। वह बड़ा विद्वान है। पाठ पढ़ाना शुरू किया, बेचारा! हफ्ता भी नहीं हुआ। साइकिल पर आते समय लारी के नीचे जा गिरा। दूसरा व्यक्ति भी अच्छा गवैया है। महीने भर पढ़ाया नहीं कि टी.बी. का शिकार हो गया और मदनपल्ली के अस्पताल में भर्ती हुआ, फिर वह दुबारा नहीं आया। तीसरा व्यक्ति उसको संगीत सिखाने के लिए रवाना हुआ और बस के नीचे जा गिरा, बेचारा! चौथा व्यक्ति पढ़ाना शुरू करके महीना भी पूरा नहीं हुआ कि एक दिन दिल की धड़कन रुक जाने से अस्पताल में मर गया।"

यों सास जी बता रही थीं कि श्रीपाद का चेहरा पीला पड़ गया। उसका शरीर पसीनापसीना हो गया। वह डर के मारे जम-सा गया।

ओह ! बातों के चक्कर में बताना भूल गई। हाथ मुँह धो आओ, भोजन कर लेना। श्रीलक्ष्मी के आने का समय है।"

"जी नहीं, मुझे अब भूख नहीं है, अभी निकलते वक्त नाश्ता कर आया हूँ। हाँ, कहना भल गया। उससे कह दो कि मझे एक जरूरी काम से एक दोस्त से मिलने जाना है।" कहते हुए घबराता हुआ श्रीपाद थैली लेकर इस तरह भागा जैसे कोई भूत उसका पीछा कर रहा हो।

भूल से ही सही, फिर कभी श्रीपाद दिखाई नहीं पड़ा।