संतान वरदान (कहानी) : अखिलन

Santaan Vardan (Tamil Story in Hindi) : P. V. Akilan

तिरुच्ची शहर की हर दुकान छान मारी, लेकिन कमीज सिलाने के लिए सफेद कपड़ा नहीं मिला। जब निकला था तो चार बज रहे थे, अब छह बज चुके थे।

शहर की सड़कों पर चहल-पहल थी। नए-नए माँडल की कारें आ-जा रही थीं। कपड़ों की दुकानें, गहनों की दुकानें और रेस्तराँ ठसाठस थे। गली के बीचोबीच स्थित सिनेमाघर के अहाते में टिकट खरीदनेवालों की लंबी कतारें लगी हैं। फिल्म के शौकीन क्यू में खड़े हैं।

सफेद कपड़ा काले बाजार में गुल कर दिया गया था। अधिकांश लोगों के पास कपड़ा नहीं था। जिनके पास था, वे पैसे ज्यादा माँग रहे थे। कुछ दुकानों पर होते हुए भी इनकार कर रहे थे। काले बाजार से सफेद कपड़ा खरीदने के लिए मेरे पास पैसे थे, न ही इच्छा। एक रेस्तराँ में काँफी पीने बैठ गया। जब मैं बाहर निकला तो एक भिखारी ने हाथ फैलाते हुए याचना की—'मालिक चवन्नी दे दो, तुम्हारे बाल-बच्चे सुखी रहें।'

मैं किसी सोच में डूबा चल रहा था। मैंने उसका चेहरा ठीक से नहीं देखा था। फिर भी मुझे ऐसा लगा कि वह भिखारी नहीं था। उसकी उम्र तीस-पैंतीस के करीब होगी। शरीर शिथिल लग रहा था। लेकिन दो-एक माह पूर्व वह जरूर स्वस्थ रहा होगा। वह फटी कमीज और मैली धोती पहने हुए था। पैसों की थैली में हाथ डालकर मैंने चवन्नी खोजी। निक्कल सिक्कों के बीच छिपे हुए उस ताम्र सिक्के को खोजने में आधे मिनट का समय लगा। चार आनेवाला सिक्का निकालकर मैंने उस भिखारी को खोजा। वह कहीं नहीं दिखाई दिया। मुझे आश्चर्य हुआ। उसने मुझे पैसे निकालते हुए देखा था, फिर वह कहाँ अंतर्धान हो गया? क्यों गया? इधरउधर नजर दौड़ाई। वहाँ अन्य कोई भिखारी भी न था। पास की गली में कोई तेजी से प्रवेश करता हुआ दिखा। वह कोई और नहीं बल्कि मुझसे भीख माँगनेवाला वही व्यक्ति था।

'अरे...ये ले पैसे', मैंने पुकारा।

उसने मुड़कर नहीं देखा। बहरा बन उस गली के बड़े पत्थर पर मेरी ओर पीठ कर बैठ गया। मैंने देखा, उसने अपना चेहरा हाथों से ढाँप लिया।

रेस्तराँ की सीढ़ियाँ उतर मैं गली की ओर बढ़ा। उसके करीब एक लड़की चिथड़ों में लिपटी थी। उसकी गोद में एक वर्ष का बच्चा खेल रहा था। बच्चे के माथे पर आँसुओं की बूंदें गिराती हुई वह रो रही थी। वह फफक-फफककर इस प्रकार रो रही थी, मानो किसी दारुण व्यथा से पीड़ित हो।

एक क्षण में मैंने वहाँ खड़े होकर देखा, उसका रुदन कम हुआ। उसने मुझे कातर निगाहों से देखा। साहिब...' कहकर मुझे प्रणाम किया।

मैं उसे पहचान गया। उसके निकट खड़े उसके पति को भी पहचान गया। 'तुम्हारा बेटा है?'

'जी हाँ...' वह बोली।

अब मैं हैरान था। दुबली-पतली सी वह हड्डियों का ढाँचा लग रही थी। बड़ी दाढ़ी-मूंछवाले व्यक्ति की पसलियाँ ऐसे झूल रही थीं मानो अब गिरी, कब गिरी। बगैर पूछे ही मैं उसकी कहानी समझ गया। सेलम के करीब के गाँव से रोजी-रोटी की तलाश में कई जुलाहे सपरिवार सेलम आ रहे थे। पहली बार जब मैंने वह दारुण स्थिति देखी थी तो मेरा मन करुण-क्रंदन कर उठा था। उसके बाद ऐसे कई दृश्य देखने को मिले, जिसके चलते मेरा दिल कड़ा हो गया था।

'तुम्हारी यह हालत है?' मैंने पूछा।

'मुझसे कहीं ज्यादा अच्छी हालत में रहनेवाले भी आज कष्टमय जीवन जी रहे हैं।' उसने कहा।

'कितनी मनौतियों के उपरांत हुआ था पुत्र। आज एक बूँद पानी के लिए तरस रहा है।' उस युवती ने कहा। मैंने उनके बच्चे को देखा। उसे देखकर ऐसा लगा कि ऐसी दरिद्रता पहले कभी नहीं देखी थी।

गोल-मटोल था वह। उसके शरीर को देख यह अंदाजा लगाने में मुझे देर नहीं लगी कि अब वह उस हाल में रह नहीं पाएगा। हरी-भरी लहलहाती बेल एकाएक कड़कती धूप के कारण मुरझा जाती है, ठीक वैसी ही दशा उसकी थी। पिचके पेटवाला वह बच्चा अपना अँगूठा चूस रहा था।

मैंने उस बच्चे के हाथ में एक रुपया पकड़ा दिया। उस युवती ने ले लिया।

'कोई नौकरी हो तो दिला दो मालिक, हम दोनों नौकरी करेंगे, हमको खाना खाए तीन दिन हो गए हैं।'

'नौकरी मिलना आसान नहीं है। जो भी हो, एक हफ्ते बाद मुझसे मिलो।' मैंने अपना पता दे दिया। पतिपत्नी ने कृतज्ञतापूर्वक मेरी ओर देखा। परंतु पति के चेहरे पर अकथ्य वेदना थी। मुझसे नौकरी की याचना करने की स्थिति आ गई थी। शायद यही उसे कचोट रहा था।

बाजार की सड़क पर चलते हुए मुझे दो वर्ष पूर्व उन दोनों से हुई मुलाकात याद हो आई।

श्रीलंका से जहाज द्वारा धनुषकोटि बंदरगाह पर उतरा। इंडोसिलोन एक्सप्रेस तैयार खड़ी थी। अपना सामान रेल पर चढ़ाकर मैं खिड़की वाली सीट पर बैठा बाहर के नजारे देखने लगा। एक ओर समुद्र का तट, झोपड़ियाँ, गंदगी भरा वातावरण, दूसरी ओर समुद्र का ठहरा हुआ गंदा पानी, जिसमें तैरते हुए बच्चे, जो भीख माँग रहे थे।

यात्री जो पैसे समुद्र-देवता को चढ़ाते, वे बच्चे उनको झट ढूँढ़कर निकाल लेते। छोटी मछलियों की भाँति उनका पैसों के पीछे डुबकी लगाना, मेरे मन को दर्द भरा मनोरंजन सा लग रहा था। मेरे डिब्बे में एक पुरुष और एक स्त्री चढ़े। पति-पत्नी लग रहे थे। उनको देखकर ऐसा लग रहा था कि वे संतान प्राप्ति की मनौती माँगकर रामेश्वरम् से आए थे। क्योंकि उन्होंने धनुषकोटि समुद्र तट पर डुबकी लगाई और गीले वस्त्रों से हो अपने घर लौट रहे थे। प्लेटफाँर्म पर उनके सहायक दो पंडे खड़े थे। पुरुष ने पाँच रुपए का नोट उनकी ओर बढ़ाया।

'पाँच रुपए ही दिए हैं...बाकी?'

'बाकी क्या, पाँच रुपए की बात हुई थी, पास खड़े व्यक्ति की ओर इशारा करते हुए उसने कहा, 'मेरे लिए ये पाँच रुपए ठीक हैं, इसको तीन रुपए दे दीजिए।'

साथ खड़ी स्त्री ने कहा, '...और तीन रुपए? सवा रुपया भी नहीं दूंगी। तुम दोनों को कुल पाँच रुपए देने की बात तय हुई थी।'

उसके पति ने एक रुपया निकालकर उस दूसरे पंडे की ओर बढ़ाया। उसने लेने से साफ इनकार कर दिया।

'तीन रुपए से एक पैसा भी कम हुआ तो हम नहीं लेंगे। पहले के पाँच रुपए भी वे लौटाने लगे। दूसरे पंडे ने तिरस्कार के स्वर में कहा, 'ऐसे कंजूसों को कहाँ से बच्चा होगा?'

विषैले सर्पदंश की भाँति उसके शब्द मुझे आ लगे। वह पुरुष अवाक् रह गया। उसकी पत्नी के चेहरे पर बदलते भाव दयनीय लग रहे थे। एकाएक उसकी आँखें छलछला आई। साड़ी के पल्लू से आँसू पोंछती हुई वह बोली, 'तीन रुपए मारिए इसके मुँह पर।'

इतनी घटिया हरकत से पैसे कमानेवाले वे दोनों खीसें निपोरते हुए चले गए। रेलगाड़ी भी चल पड़ी, परंतु उसकी रुलाई बंद नहीं हुई। उसके पति ने उसे कितना समझाया, लेकिन वह उसी तरह रोती रही। तड़पते हुए व्यग्र स्वर में बोली, 'ऐसे निर्लज्ज लोगों के मुँह से इन शब्दों को सुनने हम इतनी दूर आए थे?' बच्चा न जन पाने की पीड़ा को मैं समझ पा रहा था। उसके रिसते जख्म पर मरहम लगाते हुए मैंने भी दो शब्द उससे कहे। मेरा इस प्रकार उनके व्यक्तिगत मामले में दखल उन्हें अच्छा नहीं लगा। कुछ पलोपरांत वह सहज हो गई।

सेलम में वे जुलाहे थे। पति-पत्नी दोनों काम करते थे। वह हथकरघे पर कपड़ा बुनता था। पत्नी चरखे पर सूत कातती। किफायत से घर चलाते थे, अच्छी बचत कर लेते थे। ।

उनकी शादी हुए आठ साल हो गए थे लेकिन संतानहीन थे। पति इस ओर से बेपरवाह था, पर पत्नी ऐसा नहीं कर पा रही थी। रामेश्वरम् आने के लिए एक साल से पैसे जमा कर रही थी। पति को चाहे इस पर विश्वास नहीं था, लेकिन पत्नी की खातिर चला आया था।

धनुषकोटि से तिरुच्ची जाने तक मैं उन लोगों से बातें करता रहा। पति-पत्नी में अत्यंत प्रेम था। दोनों ने सफर का भरपूर सुख और आनंद लिया। जितने भिखारी आए, उन्हें पैसे दिए। किसी स्टेशन से फूल, तो किसी से संतरे का रस तो किसी से ताजी ककड़ियाँ खरीद-खरीदकर वे दोनों मजे कर रहे थे।

तिरुच्ची, के आते ही हम लोगों ने जब विदा ली तो लगा, जैसे बरसों के परिचित अब बिछुड़ रहे हों।

वे जहाँ बैठे थे, वह स्थान एक फलांग की दूरी पर था। कम-से-कम आज उन्हें मेरे दिए गए रुपयों से भोजन मिलेगा, यह सोचकर मुझे अत्यंत संतोष हो रहा था।

सामने से बिखरे बालों सहित रोती हुई एक युवती दौड़ती हुई आई। मेरे सामने खड़ी होकर मुझे घूरने लगी। मैंने भी उसकी ओर देखा। उन आँखों से छलकती पीड़ा। वह वही जुलाहिन थी।

'मालिक क्या आपने मेरे बच्चे को देखा? मेरे बेटे को देखा?'

'तुम्हारा बेटा! वही जो तुम्हारी गोद में बैठा था?'

'हाँ, वही...उसे कोई उठा ले गया।'

'वह कहीं नहीं जाएगा। डरो मत, तुम्हारा पति कहाँ है? चलो पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कर देते हैं।' उसे समझाते हुए मैं उसके साथ उसके निवास स्थान की ओर चल पड़ा।

'रात के आठ बज चुके थे। कोई और रास्ता नहीं था, सो मैंने अधिक दाम में बिकनेवाले विदेशी कपड़े की दुकान से ही कपड़ा खरीदा और उसी बाजार के रास्ते उसके घर आया। वहाँ उसका पति सिर पर हाथ रखे अत्यंत शोचनीय अवस्था में बैठा था। वह मुझे पागलों की भाँति देखने लगा।

'यहाँ इनके पास बच्चे को छोड़ चावल लाने गई थी। लौटी तो देखा वह गायब है। उसने कहा।

उसके बाद वह मेरे सामने नहीं ठहरी। सिर और छाती को पीटती हुई पुकारती...मेरा राजा बेटा, तू कहाँ गया...हा...चिल्लाती दुकानों के बीच गली में चली गई। आने-जानेवालों में जिसकी गोद में बच्चा होता, उससे जिरह करती। रुदन और क्रंदन बढ़ता ही जा रहा था।

'चलो पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कर दें।' मैंने उसके पति से कहा।

'मैंने सब जगह खोज लिया है। पुलिस को भी खबर कर दी है।'

पाँच मिनट वहाँ रुककर मैं घर की ओर बढ़ने लगा। कितने सालों की मनौतियों के बाद पुत्र प्राप्त हुआ था। अब कहाँ गायब हो गया?'

घर में जब मेरी पत्नी गोद में बेटे को उठाए मेरे पास आई तो मुझे दुकान की गली में खोए उस बच्चे और तड़पती माँ की याद हो आई। बच्चे को लेकर मैंने चूमा।

दो दिन गुजर गए। आम बेचनेवाला बाहर से आवाज दे रहा था। मैं आमवाले को आवाज लगाता हुआ बाहर आया। आम बेचनेवाला और कोई नहीं, सेलम का वही जुलाहा था। उसने अच्छे-अच्छे आम टोकरी में सजा रखे थे। टोकरे को चबूतरेनुमा स्थान पर रख मैं आम चुनने लगा। उसके होंठ काँपे, आँखें भर आई।

'बच्चा मिला?' मैंने पूछा।

'वह नहीं मिलेगा।'

'क्यों नहीं मिलेगा?'

'बच्चा खोया नहीं है, उसे इस पापी ने पचास रुपयों में बेच दिया है।'

'बच्चे को बेचा है तुमने...

' वह चबूतरे पर बैठ आँखें पोंछता हुआ बोला, 'बच्चे को बचाने के लिए यह भूखी रहकर प्राण देने को तैयार थी। जो कुछ मिलता बेटे को दे देती। इतना देने के बाद भी बच्चे का पेट नहीं भरता था साब...'

'तो?' 'तो कमाई का और कोई रास्ता नहीं सूझा।'

'बाहर से आए एक सेठ ने बच्चे को माँगा। अच्छी परवरिश करने का वादा किया। सबकी भलाई इसी में है, ऐसा सोचकर मैंने बच्चे को बेच दिया। मेरी पत्नी को इस बात की जानकारी नहीं है।'

मैंने उच्छ्वास ली।

'इस पापी ने इन्हीं हाथों से बच्चे को बेचा है। उन्हीं रुपयों से आम का व्यापार कर रहा हूँ। हर रोज दो-चार रुपए मिल जाते हैं। पत्नी से कह दिया है कि व्यापार करने के लिए आपने पैसे दिए हैं। बच्चे को बेचने की बात का पता चले तो पगली जान दे देगी।'

'तुम्हारा मन कैसे हुआ...? रामेश्वरम् से मनौती माँगकर इस पुत्र को तुमने पाया था?' मैंने कहा।

(अधूरी रचना)

(अनुवादक : डॉ. कमला विश्वनाथन)