साक्षी है पीपल (कहानी) : जोराम यालाम नाबाम

Sakshi Hai Peepal (Hindi Story) : Joram Yalam Nabam

यहाँ की हवा में चुभन-सी क्यों हैं? क्यों पेड़ों की छायाएँ विचित्र तरीके से नाचती हैं? ये पीपल का पेड़ जैसे कुछ सुन रहा है। जिनके कान हैं, वे सुन लें। इस वादी ने उन्हें देखा था। क्यों न हो, वे इसके अपने थे, बेहद अपने। यहाँ के पेड़ों की शाखाओं पर आज भी बन्दर इन्तजार करते हैं कि कब कोई मकई की खेती करे और नन्हें-नन्हें कई पैर उनका पीछा करें और वे जीभ दिखाकर भाग जाएँ।

ताजुम का वह साल बड़ा भाग्यशाली रहा। एक साथ दो-दो, तीन-तीन महीनों के अन्तराल पर पाँचों पत्नियों से पाँच पुत्र पैदा हुए। पिता ने नाम रखा टापू, तालू, ऐपा, खोदा और तातो। “बच्चों के रोने की आवाज़ खूबसूरत संगीत है, जिस घर में बच्चों के रोने की आवाज़ नहीं आती, वहाँ भूत अपना डेरा जमा लेता है और उस परिवार में बीमारी राज करती रहती है।” ताजुम कहते नहीं थकते थे। बच्चे रोते, माँएँ जोर-जोर से चिल्लाकर उन्हें चुप करातीं। बच्चे पहले तो डर जाते, समझ नहीं पाते कि ये प्यार की भाषा है या डराने की? फिर जाने क्या सोचते कि सो जाते। जो माँ अपने बच्चों को शी-शी करके धीरे-से चुप कराने की कोशिश करती उसे ताजुम कहते, “अरे बेवकूफ औरत, तुम्हें बच्चे चुप कराना भी नहीं आता। जाने कब सीखेगी ये। उनके रोने की आवाज से माँ की आवाज ज्यादा तेज होनी चाहिए।” अब औरतें जोर-जोर से गाने लगतीं। बाहर से आने वाले लोगों को कभी-कभी भ्रम होता कि कुछ अशुभ जरूर हुआ है, जिसके चलते ये औरतें रो रही हैं। लेकिन बस्ती की सारी औरतें ऐसा ही करती थीं, तो उनके लिए तो यह लोरी थी।

समय के साथ बच्चे बढ़ने लगे। बाँस, लकड़ी तथा घास-फूस का बना घर ऐसा लगता था, जैसे किसी ट्रेन का लम्बा कटा हुआ डिब्बा हो। एक ही लम्बा घर और उसमें सभी पत्नियों के अलग-अलग चूल्हे। बच्चों के तो बस मजे-ही-मजे। इतनी सारी माँएँ जो थीं उन्हें प्यार करने के लिए। एक ने खाना नहीं दिया, तो दूसरी ने खिला दिया। एक ने मारा तो दूसरी ने प्यार किया। पिता रात को पहली बीवी के साथ ही दिखते, परन्तु सुबह दूसरी, तीसरी या चौथी के साथ दिख जाते। बच्चे सकपकाने लगते। वे आँखें मीच-मीचकर उन्हें देखने लगते। अब तो बड़े लड़के खोदा से न रहा गया। उसने भी अपने पिता का अनुसरण करना शुरू कर दिया। वह भी हर रात अलग-अलग माँओं के साथ सोने लगा। उसकी माँ ने कहा, “देखो देखो, इस लड़के को क्या हुआ है? अपने पिता के पीछे-पीछे चलने लगा है।” इस पर नन्हें खोदा ने भोलेपन से कहा, “पिताजी से तो कुछ कहती नहीं, सिर्फ मुझे डाँटती हो।” घर में ठहाकों की आवाज गूँजने लगी पर खोदा को समझ में नहीं आया कि हुआ क्या है। अपमानित खोदा उन ठहाकों के बीच हुआँ...हुआँ... करके इतने जोर से रोने लगा कि सब एकदम से चुप हो गए, जैसे किसी ने व्हीसिल बजा दी हो और सभी उसकी तरफ प्रश्नसूचक नज़रों से देखने लगे। “अरे बस भी करो, जब देखो हा, हा, ही, ही, हे, हे करके हँसती रहती हो। बेटी नहीं, बेटा है मेरा। मेरा वंश आगे ले जाएगा ये।” ताजुम ने बेटे को गोद में प्यार से लेते हुए कहा था। रूखे-बिखरे बाल छोटी-छोटी उत्सुकता से भरी आँखें आबू की तरफ उठ गई, जो बहुत देर से आग जलाने की कोशिश कर रही थी। उसने सोचा, मैं तो मरने के बाद तितली बनकर जंगल-जंगल, पहाड़-पहाड़ उड़ती फिरूँगी। फिर मैं किसी की बेटी तो ऊँ हूँ ...। कभी नहीं। यह थी ऐपा की दीदी यामी, जो समय से पहले ही परिपक्व हो गई थी।

उस दिन तापू और ऐपा ने तातो को खेल-खेल में एक चपत क्या लगा दी कि उसने अपने पुराने अन्दाज में हें-हें करके रोना शुरू कर दिया। उसकी माँ ने तापू और ऐपा को एक-एक चपत लगा दिया। अब तो घर में बच्चों के रोने से कोहराम मच गया। औरतों ने एक-दूसरे के बाल खींचने, नोचने शुरू कर दिए। उनके चिल्लाने से बच्चों को मैदान छोड़ना पड़ गया। किसी के आने पर जिस तरह धान चुगती छोटी चिड़िया फुर्र करके उड़ जाती है, वैसे ही तेजी से वे भाग खड़े हुए वहाँ से। अब तो आबू ने देख लिया था झगड़े का कारण। उनकी अब खैर नहीं थी। इधर ताजुम प्रवेशद्वार के सामने बड़ी पत्नी के चूल्हे पर बैठकर बाँस का बना हुआ हुक्का खींच-खींचकर पी रहा था। बच्चों को भागते देख हुक्का मुँह से हटाया और धुआँ छोड़ते हुए दाएँ हाथ से दीवार पर टँगा अपना दाव उतारा। एक बार फिर हुक्का जोर से खींचकर धुआँ पहले की अपेक्षा जरा जोर से छोड़ा और सामने रखे आपोङ को एक ही बार में बिना साँस लिये खत्म कर दिया। फिर उसकी आँखों में एक रहस्यमय मुस्कान छा गई। उसने दाव हाथ में लिया और उसे एक विचित्र अन्दाज में लहराते हुए नाचने और गाने लगा-

आदि पिता तानी की असंख्य पत्नियों में भी इतना झगड़ा नहीं हुआ
रेत-सा फैले उनके वंशों में भी इतना शोर नहीं मचा
फिर यह क्या हुआ, हाँ हाँ बताओ क्या हुआ, हाँ हाँ कहो कहो कहो।
मेरे दाव की धार से तेज तुम्हारी जुबान
हवा से भी चंचल तुम्हारा मन
कहो कहो कहो न प्रिय पत्नी ये कौन-सी दुनिया
तुमने रचा ली, हाँ हाँ, कह भी दो मुझसे।

ताजुम का वह नृत्य बड़ा भयानक था। उसकी चाल में एक अजीब-सा आकर्षण था। दाहिने पाँव को उठाकर कुछ इस तरह से पीछे की ओर मोड़ता कि लगता था जैसे उसका शरीर अब मुड़ने को है, परन्तु फिर बाएँ पैर को वैसे ही उठाते हुए दोनों हाथों को ऊपर उठाकर दाव को लहराने लगता। औरतें सहम गईं। उनको पता था, इसके बाद क्या होता है। उनकी रगों में खून ने भी दौड़ना बन्द कर दिया था। वे गिरती-पड़ती एक-दूसरे को धक्का देती जान बचाकर भागने लगीं। याजो जरा कमजोर थी। किसी के पाँवों तले आ गई और माता सूर्य को भी पुकारने का मौका नहीं मिला कि सब उसे छोड़कर भाग गईं। ताजुम के नृत्य में और अधिक भयानकता आती जा रही थी। गाने में उसका उत्साह बढ़ता जा रहा था। बाँस का बना घर ताजुम के नृत्य में जैसे वाद्य यन्त्र का काम कर रहा था। खूब छाँग-छाँग की आवाज निकल रही थी। अभी सुबह ही बच्चों के चलने से जो आवाज प्यारी लग रही थी, वही पलक झपकते भयानक संगीत में तब्दील हो गई। याजुम लगभग रेंगती हुई मुर्गीघर में पहुँची कि अंडे सेती मुर्गी को अपनी ही मालकिन दुश्मन नजर आने लगी और उसने याजुम पर ताबड़-तोड़ आक्रमण कर दिया। बेचारी भली औरत चिल्लाती हुई नीचे ढलान पर से लुढ़कती हुई मकई वाले बागान में पहुँच गई। इधर बाकी औरतें घर से कुछ दूरी पर की झाड़ियों में सबकी सब एक साथ छुप गईं। वे कान लगाकर पति की आवाज को सुनने लगीं। वे अपने हृदय को भी धड़कने से रोकना चाहती थीं। कौन जाने कब, ताजुम उसकी धक्-धक् को सुन ले। कुत्तों को क्या हो गया था उस दिन कि अपने ही अन्नदाताओं पर अलग-अलग आवाजों में भौंक रहे थे। सूअरों को भी शायद लगा हो कि आज उनकी मालकिनें झाड़ियों में ही रसीला भोजन खिलाएँगी। सच तो माता सूर्य ही जानती हैं। वे शी-शी कहकर उन्हें भगाने की जितनी कोशिश करतीं, वे फिर-फिर उन्हीं के पास वापस लौटकर आते। तीसरी वाली ने सामने पड़ी लकड़ी उठाई हवा की गति से, वे जिद्दी पशु भाग खड़े हुए। ताजुम ने बहुत जोर से हो-हो की आवाज निकाली तो उन्होंने अनायास एक-दूसरे के हाथों को जोर से थाम लिया। बिना कुछ कहे वे एक-दूसरे की सम्बल बन गईं। उन्हें उस वक़्त ऐपा की माँ की याद आई। जब वह जिन्दा थी तब सबके लिए ताजुम से लड़ती थी। अब बेचारे बिन माँ के बच्चे ने जरा-सी तातो को चपत क्या लगा दी कि सब लड़ पड़ीं। यही सोचकर कुछ की आँखों में आँसू छलक आए।

कुछ देर बाद ताजुम चुप हो गया फिर बाहर निकलकर जोर से चिल्लाया, ‘मैं मँखा और याना के खेत पर जा रहा हूँ जिनको आना हो आ जाना। झाड़ियों में हलचल होने लगी। उनके हाथ अब अलग हो चुके थे। किसी-किसी को याद आया कि उसने चूल्हे पर खाना चढ़ा दिया था, वह तो जलकर खाक हो गया होगा। किसी को अब महसूस हुआ कि उसके पैरों में कितने काँटे चुभे हैं और दर्द अभी ही शुरू हुआ है। बस, फिर क्या था, वे फिर से चिल्लाने लगीं। एक-दूसरे पर दोषारोपण करने लगीं। कोई कह रही थी, “झगड़े का कारण तो तुम हो।” कोई कहती, “अच्छा, मेरे बाल खींचने किसने शुरू किए थे।” रिनी सोच रही थी, ‘माता सूर्य तेरा लाख-लाख शुक्रिया, ताजुम अब खेत जा चुके हैं। मैं चलती हूँ जल्दी-जल्दी उनके पीछे, वरना कोई और चली जाएगी। शाम को वे एक साथ वापस आए, तो मैं देख नहीं सकूँगी। उफ! जलन भी क्या होती है, रिनी से पूछे कोई।’

इधर संगलों नदी में बच्चे दुनिया से बेखबर निश्छल हँसी-हँसते एक-दूसरे पर पानी के छींटे उड़ाते खेल रहे थे। कल-कल करती संगलों नदी जैसे उनकी माँ बन गई। पाँचों बच्चे उसकी गोद में जैसे किलकारियाँ मार रहे हों। सब-के-सब नंगे। कभी बन्दर से उछलने लगते, कभी शेर की आवाज निकालते, कभी एक-दूसरे का हाथ थामे पानी में कूद पड़ते। पंछी भी कितना सुन्दर गाती थी। तापू बार-बार अपनी नाक इस तरह पोंछता कि चेहरे पर ही कुछ इस तरह की रेखाएँ उभरने लगतीं कि बाकी बच्चे ‘मीट चोर बिल्ली का मूँछ’, ‘मीट चोर बिल्ली का मूँछ’ कहकर नदी में कूद जाते और तापू हुआँ...हुआँ करके क्षण-भर रोता, फिर हँसने लगता। जैसे कोई चिढ़ाए तो रोना जरूरी हो। परन्तु वह इतनी देर रोकर अपना वक़्त बरबाद नहीं करना चाहता और फिर खेल में लग जाता है। ऐपा का कुत्ता ऐपा के पीछे-पीछे भाग रहा है।

जब उसकी माँ मरी थी वह चार महीने का था, जिसे दस-ग्यारह साल की दीदी की गोद में रखकर माँ ने क्षमा याचना के साथ उन लोगों से विदा ली थी। दीदी ने जैसे उस कुत्ते को भाई की रक्षा के लिए ही लगाया हो। ऐपा ने कुत्ते का नाम आन रख दिया। सब-के-सब अपने-अपने कपड़ों को नदी में फेंक देते। फिर दौड़-दौड़ कर नदी की निचली तरफ से झपटकर कपड़े उठाते और अपनी ताकत को साबित कर खूब खुश होते। आन ऐपा की खूब मदद करता। वह नदी में कूद जाता और बेटे के कपड़े बचा लेता। तातो का कपड़ा बह गया, कोई बचा न पाया। सबने उसके पाँव पकड़कर कहा, “तातो, हें-हें कर रोना नहीं, वरना, फिर घर में झगड़ा हो जाएगा।” ऐपा के कपड़े उसे पहना दिए गए। “सबको पता था कि ऐपा की दीदी ऐपा को कभी मारती नहीं। शाम को बस घर लौट आए, उनकी माँएँ उन्हें मीठी झिड़कियाँ देने लगीं और वे माँओं से चिपटकर उन्हें तंग करने लगे।

माँ को कभी देखा नहीं, फिर भी ऐपा माँ को इस तरह याद करने लगा जैसे उसको जानने के लिए कुछ बचा ही न हो। उसका भी मन करने लगा कि वह भी माँ की गोद में ही सो जाए और फिर उसकी माँ उसके सर से जुएँ निकालती रहे और उसके रोने पर जोर-जोर से गाकर चुप कराती रहे। इतने में उसकी दीदी यामी ने उसे ‘क्या हुआ, क्या हुआ’ कहकर झकझोर दिया और ऐपा हमेशा की तरह बता नहीं पाया कि वह क्या सोचता है। भोजन के बाद दीदी ने कहा, “जितनी जल्दी सो जाओगे, उतनी ही जल्दी सपने में माँ आएगी।” मुस्कुराता ऐपा सो गया।

एक सुबह की बात है। सभी बच्चे कहीं जा रहे हैं। “आची, आबोतानी ने बन्दर को न बनाया होता, तो कितना अच्छा होता न।” तापू ने कहा।

“अरे पागल, वह न होता तो मकई कौन जल्दी-जल्दी खत्म करता और हमें पिछले साल की तरह अगले साल खेत जाना न पड़ता।” तालू ने तपाक से कहा। तापू उँगली गाल पर रखे सिर हिला-हिलाकर कुछ सोचने लगा।

“आज तो मैं शिकार पर जाऊँगा, तातो तुम मेरे वाले खेत का भी ध्यान रखना मैं तुम्हें भी चिड़िया खिलाऊँगा।” ऐपा ने कहा।

“हाँ, ठीक है, लेकिन इस बार मुझे ज्यादा हिस्सा चाहिए, वरना अगली बार तुम्हारी नहीं सुनूँगा।”

“ठीक है, ठीक है, पिछली बार तो चिड़िया मिली थी, वह तो बहुत छोटी थी, लेकिन इस बार कोई बड़ा हाथ मारूँगा।” ऐपा ने परिपक्व व्यक्ति की तरह जवाब दिया।

“न न, इस बार कोई शिकार-विकार नहीं। पिछले साल बन्दरों ने कैसे सारा खेत साफ कर दिया था पिताजी का दाव याद है?” खोदा ने उँगली हिलाते हुए कहा।

“हाँ, और भागते-भागते कौन हें...हें करके रो रहा था?” ऐपा ने शरारती लहजे में कहा, तो तातो आँखें दिखाते हुए अपनी लम्बी जीभ दिखने लगा ऐपा को।

माँओं ने सबको केन के बने झूले में एक-एक डिब्बा चावल डाल दिया था,जिसे वे पीठ पर लादे कूदते-फाँदते खेतों की ओर जा रहे थे। दूर तक फैली वादियाँ, टेड़ा-मेढ़ा पहाड़ी रास्ता लगता था जैसे कोई साँप रेंग रहा हो। रास्ता कभी किसी पहाड़ी की ओट में छिप जाता, तो लगता जैसे वह साँप बिल में घुस गया हो। बच्चों ने जैसे थकना सीखा ही नहीं था। हवा के साथ हिलती-डुलती पत्तियाँ और शाखाएँ तापू के नन्हें मन को अजीब-सा आनन्द दे रही थीं। वह सोचने लगा, “जब मैं बड़ा हो जाऊँगा, तब गाँववालों को मनाऊँगा कि वे इन प्यारे-प्यारे पेड़ों को न काटें, जिन पर हम बच्चे झूल-झूलकर बन्दरों से मुकाबला करते हैं। ये गाती हुई प्यारी चिड़ियाँ कहाँ रहेंगीं। उनके बच्चे अपनी माँओं से बिछड़ गए तो?” अचानक खोदा ने उसे बहुत देर चुप देख झकझोरकर कहा, “कब किन ख्यालों में खो जाते हो, होश ही नहीं रहता कि पाँवों में कितने जोंक चिपक गए हैं।”

“आची आची निकाल दो न, निकाल दो न, इसलिए मुझे जंगल पसन्द नहीं है।” तापू ने लगभग रोते हुए भय तथा याचना मिश्रित भाव से कहा।

“हाँ-हाँ, जंगल पसन्द नहीं हैं, तो वह क्या कहते हैं, ईसकूल जाओ, ईसकूल। जहाँ सभी आलसी बच्चे जमा होकर ओआन-ओआन कहकर चिल्लाते रहते हैं।” खोदा ने व्यंग्य के भाव से ओआन शब्द पर जोर देते हुए उसके पाँव से जोंक निकालते हुए कहा।

उनके आबू हाथी-दाँत लेकर तेजपुर जाया करते थे और बदले में नमक, चावल, कपड़े लाते थे। जब वापस आते तो वहाँ के स्कूल के बारे में बताया करते और फिर अफसोस की एक साँस जरूर छोड़ते। तापू तो वहाँ जाने के सपने बुनता रहता। अबकी वे अंकल रंगबिया आए, तो वह जरूर उनके साथ भाग जाएगा। सुना है वहाँ दूध से गोरे लोग और तो और कोयले से काले लोग भी रहते हैं। सभी ऊपर से नीचे तक कपड़ों से ढँके। इधर तो ओढ़ने तक को कपड़े नहीं।

“आची, ईसकूल नहीं, ईसकोल, ईसकोल।” होंठों को गोल-गोल बनाकर मुस्कुराते हुए एक अजीब उत्साह से तापू ने कहा। उसकी छोटी-छोटी प्यारी और गोल-गोल आँखें अँधेरे में चमकते तारों-सी थी।

“अच्छा, जो भी है मुझे क्या।” खोदा ने जरा झेंपकर कहा।

“आची क्या बच्चे वहाँ जमा होकर कौआ बन जाते हैं?” तातो ने आश्चर्य से पूछा।

सब पेट पकड़-पकड़कर हँसने लगे। ठंडी-ठंडी, माँ की छुवन-सी कोमल हवाएँ बहने लगीं। माता सूर्य की चमक से नाचती छोटी नदी, पहाड़, पेड़-पौधे भी जैसे उनके साथ हँसने लगे हों। सब अधनंगे, पेट से लपेटते हुए दोनों कन्धों से मोड़कर छाती पर बाँस के बने पिन से जोड़कर कपड़े पहने हुए थे। नीचे कमर से पाँव तक खाली। जब झुकते थे, तो पूरा नीचे का हिस्सा दिख जाता। तातो को माँ की याद आने लगी, वह रोने लगा। खोदा ने सबको इशारे से चुप हो जाने का संकेत किया। सब मुँह पर हाथ दबा-दबाकर हँसी रोकने की कोशिश करने लगे।

अब वे खेत पहुँच चुके थे। एक ही मचान पर सब जमा हुए और फिर हमेशा की तरह बिना कुछ बोले एक साथ गाने लगे–

एक पहाड़ पर हाथी का बच्चा मिला
उसका कान अरुई के पत्ते-सा
दूसरे पहाड़ पर शेर का बच्चा मिला
उसका कान पीपल के पत्ते-सा
तीसरे पहाड़ पर हिरण का बच्चा मिला
वह था प्यारा-प्यारा तातो-सा
जो भाई हमारा, जिसकी बहती नाक।

और फिर सब गाते-नाचते अपने-अपने मचान पर जाने लगे। लहलहाते धान तथा मकई के खेत जितने सुन्दर दिखते थे उन बच्चों के लिए खेतों की रखवाली करते हुए बन्दरों के साथ दिन की जिन्दगी उतनी आसान नहीं थी। सबसे छोटा तापू तो जब भी खेत पहुँचता, उसी वक़्त उसका मन करता कि वह स्कूल में ओआन, ओआन करते भाग जाए। उसने अपने आबू से सुना था तेजपुर स्कूल के बारे में जहाँ पहुँचने के लिए दस दिन और नौ रातें लगती हैं। आबू के पाँव कैसे छिल गए थे पिछली बार, जब वे नमक लेने गए थे। फिर भी उसे जाना है, किसी भी तरह। वहाँ एक जानवर रहता है, जिसके बड़े से पेट में घुसकर लोग जहाँ चाहे चले जाते हैं। उसने बहुत कोशिश की उस तेजी से दौड़ने वाले जानवर का नाम याद करने की पर याद नहीं आया। नीचे ढलान पर छोटी-सी नदी बहती रहती थी। वहीं से वे नन्हें पाँव चलकर पानी लाया करते थे। कटे बाँस में छोटे-छोटे हाथ जब पानी लेकर ऊपर मचान तक पहुँचते तब तक उनका पसीना छूट जाया करता था। दूर से देखने पर पहाड़ हमेशा खूबसूरत ही दिखता है, परन्तु पास से उसका सामना करो तो बड़े-बड़ों को नानी याद आ जाए। बच्चों को जंगल में ही खेलना बहुत भाता था। तालू और ऐपा तो हमेशा पिताजी के साथ शिकार पर जाने का सपना देखते रहते। उस वादी में उनकी आवाज गूँजती रहती। वहाँ के जर्रे-जर्रे उन्हें पहचानते थे। एक से दूसरे पहाड़ से टकराती उनकी मधुर संगीत-सी आवाज हवा के साथ भी तो रश्क करती होगी।

ऐपा का मन बन्दरों के आगे-पीछे भागते-भागते ऊब गया। जितना भी भगाओ पर फिर आ जाते बदमाश! पत्थर फेंको तो वे भी जवाब में पत्थर फेंकते। जीभ दिखाओ तो वे भी दिखाते। अब उससे बर्दाश्त नहीं हुआ। ‘आची खोदा, आची खोदा चिल्लाता खोदा के मचान पर पहुँच गया। उनके बीच कुछ फुसफुसाहट हुई अब वे उत्साहित थे। तातो को दूत बनाया गया। मकई का एक पौधा काटकर उसे हुक्का बनाया तातो ने, पिताजी की तरह पहले उसे मुँह से लगाकर जोर से खींचा फिर आँखें बन्द करके इस तरह से धुआँ फेंका मानो वह सचमुच में हुक्के का आनन्द ले रहा हो। उसने धीरे-से आँखें खोलीं और हल्के से दोनों भाइयों की तरफ नजर डाली। तब दोनों को यकीन हो गया कि ये परिपक्व दूत हैं। तातो हुक्का, पीठ पर दो-तीन छोटे-छोटे कद्दू लादे चल दिया तापू और तालू के मचान की ओर।

“हाँ, हाँ, हम तुम्हें दूर से देखकर ही समझ गए थे कि तुम लड़की का रिश्ता लेकर आ रहे हो।” तालू ने अपना सीना तानकर कहा।

“लड़की के बाल कन्धे से नीचे तक तो आ गए हैं न?” तापू ने पूछा।

“हाँ, तभी तो रिश्ता लेकर आया हूँ। उन्होंने ये कुछ मीट भेजे हैं।” तातो ने कद्दू की तरफ उँगली करके कहा।

“उनके पास हमें देने की लिए काफी मालाएँ तो हैं न?” तालू ने कुछ उत्सुकता से पूछा।

“हाँ, हाँ उनके पास तो बहुत सारी मालाएँ, ताल माज है जो न्येम-न्येपा से लाए थे।”

“अच्छा कितने मिथुन लगेंगे?” तापू ने पूछा।

“वह तो आप लोग लड़कीवालों से मिलकर ही तय करो, मैं तो उनका दूत हूँ।” तातो ने गम्भीरता से जवाब दिया।

“लड़की का दाम भी तो अलग से लगेगा।” तालू ने दोनों हाथों को फैलाकर लापरवाही से कहा। वे कुछ देर लेटकर सुस्ताए, फिर उनके अनुसार अब सुबह हो चुकी थी, सो तातो चल दिया उन्हें आने का न्यौता देकर। रास्ते-भर तातो सोचता जा रहा था, ‘बाराती आएँगे तो दूत का हिस्सा कम-से-कम एक मिथुन तो जरूर होगा। उससे कम लूँगा भी नहीं।’

अब तापू और तालू ने मीट के रूप में कद्दू को झोले में डाला। पीपल के पत्ते को पंखा बनाया। मुँह में मकई की डंडी से बना हुक्का। ककड़ी के ऊपरी हिस्से में छेद करके रस्सी घुसाई। अब दोनों उसे मिथुन के रूप में घसीटकर पारम्परिक विवाह-गीत गाते हुए इधर से उस तरफ वाले मचान पर जा रहे थे।

मिथुन तो लड़की खरीदने के लिए है
लड़की उसी की ही तो बहन थी
मिथुन ने ही तो वादा किया था
बहन के काम आएगा इस तरह
और बन गई जानवर, छोटी बहन
को छोड़कर एक दिन वह
हम क्या करें, हम क्या करें
बहन देकर बहन लेनी है हमें।

तालू आगे-आगे गाता और तापू बड़े भाई के पीछे-पीछे उसका अनुसरण करता जा रहा था। कड़ी कभी कहीं फँस जाती तो कभी जोर से खींचने पर रस्सी उसे काटकर बाहर आ जाती। तापू परेशानी से तालू की तरफ देखता, तो तालू हाथ से इस तरह इशारे करता, मानो कह रहा हो, ‘मिथुन ले जाते वक़्त ऐसी मुसीबतें आम हैं।’

इधर खोदा और ऐपा भी तैयार थे। उनकी गाने की आवाज करीब आती जा रही थी। इधर तातो अपनी नाक बार-बार तेजी से पोंछने लगा। अब वह पहले से भी ज्यादा ‘मीट चोर बिल्ली की मूँछ’ वाला लग रहा था। अब नाक से कान तक रेखाएँ खिंच गई थीं। हाथ का ऊपरी भाग, जिससे वह बार-बार नाक पोंछ रहा था, वह भी देखने लायक था। तापू और तालू ने मचान के नीचे पहुँचकर फिर से जोर से गाना शुरू कर दिया–

“जंगली मुर्गी को दाना चुगना किसने सिखाया?
पिता तानी की माँ का नाम क्या था?
एक बहन मिथुन कैसे बन गई?
क्या तुम्हारे घर में वह दम है जो
हमारे लाए सामानों का बोझ सह सके?”

“अरे, अरे बेशर्म, डरपोक, घर में जाकर तो पूछ।” ऊपर से जवाब आया। पानी के कुछ छींटे तापू और तालू के सर पर पड़े। खोदा और ऐपा जानते थे कि ये कोई टोना-टोटका करके आए हैं। कहीं वे अपना होश खोकर ज्यादा मालाएँ न दे दें उन्हें। बाराती का कोई भरोसा नहीं। सो उन्होंने कुछ बुदबुदाया और पानी बारातियों पर फेंक दिया। अब बाराती घर में प्रवेश कर सकते थे।

तीन-चार ककड़ियाँ नीचे खूटे पर बँधे हुए थे। ऊपर उनके घर में कद्दू-ही-कद्दू दिख रहे थे। कटे बाँस के टुकड़ों में आपोंग पेश था। जली हुई मकई का भोजन बना। अब विवाह की बातें चलने लगीं। दुल्हन की कीमत तीन मिथुन तय हुई तथा बाकी सामानों का दाम दस मिथुन, जिसे वे अगली बार लड़की के साथ वापस आकर देंगे। अब खोदा मचान के नीचे से पत्थर का एक टुकड़ा उठा लाया और बोला–“यह आदि पिता तानी के जमाने का माज है, जो चार मिथुन के बराबर है।”

ऐपा उठकर कोने में बँधे कपड़े के पीछे से एक भुट्टा लाया, जिसके बाल लम्बे और सुनहरे थे। उसके बदन पर जंगली फूल लिपटे हुए थे। उसने उसे बड़े प्यार से उनके हाथों में देते हुए कहा–“ये हमारी प्यारी बेटी है। देखो हमने कितनी सारी मालाएँ पहना दी हैं इसे। है न सुन्दर?”

बगल में बैठा तातो चुपचाप टुकुर-टुकर देख रहा था। रोना-धोना शुरू हुआ, क्योंकि अब दुल्हन की विदाई की घड़ी आ चुकी थी। अचानक तातो जोर से चिल्लाया, “आईया आईया बन्दरों ने क्या कर दिया है? देखो, देखो।” सब का दिल बैठ गया। वे अपनी दुनिया में इतने मगन थे कि किसी बात की खबर ही नहीं हुई। बन्दरों ने सारा खेत सफाचट कर दिया था। खीं-खीं करते बन्दरों ने तो बेड़ा गर्क कर दिया। अब तो उन सबकी खैर नहीं थी। किसी के भी मुँह से बोल नहीं फूट रहे थे। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। वे सब भी तो किसी बन्दर से कम नहीं दिख रहे थे। आव देखा न ताव तालू ने दुल्हन के दो टुकड़े कर दिए एक तापू को दिया और दूसराखुद खा गया। तातो ने पूजा प्रारम्भ कर दी–

माता सूर्य तू हमें बचाना
तू सबकी प्यारी माता है
सबकी तू दोस्त है सच्ची
डर लगता है, हाँ सच्ची
आबू के तेज धार वाले
चमचमाते लहराते दाव से।

शाम हो चुकी थी। घर लौटना था। परन्तु उनके पाँव बहुत भारी हो रहे थे। सब चुपचाप चल रहे थे, केवल तातो रोए जा रहा था, हें...हें...हें...। उसके रोने की आवाज किसी के कानों में नहीं पड़ रही थी। सब कोई-न-कोई उपाय सोचते जा रहे थे बचने का। पर वे कभी बच सके, हमें तो नहीं लगता।

उस दिन की मार को सब भूल चुके थे। और अब आज का दिन कितना अच्छा था। सभी माताएँ और पिता घर पर ही थे। उनके होने का एहसास बच्चों के लिए कितना अहम‍् था। दिन-भर कुछ-न-कुछ खाने को मिलता। चाहे कुछ भी हो जाए, वे खेलना नहीं भूल सकते थे। विशेषकर ऐपा चुपचाप रहे, वह तो असम्भव ही था। उनकी दुनिया फिर खिलखिलाने लगी। इस वादी की गोद हमेशा उनकी शरारतों से भरी रहती। इसी पीपल के पेड़ ने हवाओं के संग मिलकर उन्हें मीठी थपकियाँ दी थी। ताजुम बच्चों का रोना, चिल्लाना और खिलखिलाहटें सुनकर हमेशा बिना दाँत निकाले मुस्कुराता रहता।

“तातो, तातो तू आगे-आगे रेंगकर जा और देख, वह लोमड़ी है या हिरण? हम तेरे पीछे-पीछे आ रहे हैं।” ऐपा ने बाएँ हाथ से पीछे आ रहे तालू को आगे न आने का इशारा करते हुए धीमी आवाज में कहा। तातो धीरे-धीरे झाड़ियों के भीतर रेंगता हुआ जा रहा था। उसके पीछे-पीछे ऐपा का कुत्ता कूँ-कूँ करता चल रहा था। वह झाड़ी सबको बचाया करती थी, परन्तु आज न जाने कौन, कहाँ से एक मरा, सड़ा हुआ कुत्ता इधर ही फेंक गया है। “हो...हो लोमड़ी है या हिरण, मर गई, मर गई।” कहता हुआ तातो पीछे मुड़ा। कुत्ता, ऐपा और तालू को रौंदता हुआ बाहर भागा। पीछे झाड़ी में ऐपा और तालू पेट पकड़-पकड़कर हँस रहे थे। धान कूटती तातो की माँ वहीं से चिल्लाई–“ऐपा और तालू का काम है मेरे भोले बच्चों को सताना। आ, आ, बाहर आ, मैं बताती हूँ तुम्हें, वह लोमड़ी है या हिरण। जल्दी निकल बदमाश।” गुस्से में वह लाल हो गई। उसने जोर-जोर से छाती पीट-पीटकर कूदना शुरू कर दिया। सब बाहर दौड़कर आ चुकी थीं तब तक। आज गाँव में धरती पूजन हुआ था, सो कोई भी गाँववाला खेत पर नहीं गया था। धान कूटकर रखना या कल कूटने के लिए आज सुखाकर रखना सबको जरूरी लग रहा था। गाँव के हर घर में से धान कूटने की आवाजें आ रही थीं। पूजा का दूसरा दिन सबके लिए फुरसत का हुआ करता है। गाँव के बड़े-बुजुर्ग बच्चों को आबोतानी की, अनाथों की कहानियाँ सुना रहे थे। नाक पोंछ-पोंछकर तो कोई दादा के पाँव में सर रखकर, तो कोई लेटे-लेटे सुन रहा था। सबकी नजरें सुनाने वाले के चेहरे पर टिकी हुई थीं।

चारों ओर अफरा-तफरी मच गई। सभी मर्दों ने अपने-अपने तीर धनुष उठा लिए थे। उन्होंने आसमान में बादल की जोरदार-सी गरज वाले उस पक्षी की तरफ निशाना साध-साधकर तीर छोड़े, आसमान में तीरों की बरसात हो रही थी। तीर थे कि उस पक्षी को लग नहीं पा रहे थे। लगते भी कैसे? इतनी ऊँचाई पर जो उड़ रहा था वह भयानक पक्षी। पलक झपकते गायब हो गया वह। उसके पंख हिलते नहीं थे। बाप रे! चील से तो कई गुना बड़ा। बच्चे चुप नहीं हो रहे थे। ऊँआ...ऊँआ...हें...हें...आँ...आँ की आवाजों से वह वादी भर गई। औरतें चिल्ला-चिल्लाकर भाग रही थीं। बच्चे माँओं से खूब जोर से चिपक गए थे। कई बच्चे एक ही माँ के लिए लड़ पड़े। सबके चेहरे फक पड़ गए थे। आँखों में प्रश्न और शरीर थर-थर काँप रहे थे। गाँव के सभी मर्द सार्वजनिक मैदान में जमा हो गए। किसी ने पुजारी को गालियाँ देनी शुरू कर दीं। हो सकता है कि उसने मन्त्रोच्चारण में कुछ गड़बड़ी की हो और प्रकृति अपनी नाराजगी दिखा रही हो। किसी ने कहा, ‘हो सकता है, ये माता सूर्य का शुभ संकेत हो। जो भी हो, अब धरती पूजन दोबारा करना पड़ेगा, वरना हम सबकी मेहनत बरबाद हो जाएगी। सारा खेत जानवर खा जाएँगे और हम भूखों मरेंगे। सबको याद आया वह साल, जब इतने सारे चूहों ने एक साथ सारा अनाज खा लिया था। कितने लोग भूखों मरे थे। माँओं के तो दूध सूख गए थे और बच्चों की हड्डियाँ निकल आई थीं। ऐसे आड़े वक़्त कई साल पहले गाँव छोड़कर आ चुके रंगबिया ने अपने साथ अजीब-अजीब कपड़े पहने बीस-तीस लोगों के साथ कुछ चावल ला दिए थे। उसी से तो उन लोगों को कुछ राहत मिली थी। गाँववाले शिकार पर ही जी रहे थे।

“क्या करूँगा?” ताजुम में लालिन की तरफ देखकर एक साल पहले रंगबिया से सीखी हुई हिन्दी में कहा।

“गुगों?” लालिन ने पता नहीं के अन्दाज में उत्तर दिया, जिसका अर्थ वह स्वयं नहीं जानता था। चूँकि मित्र ने अजीब शब्द का इस्तेमाल किया था, सो उसे भी कहना चाहिए बस। वरना उसे बेवकूफ समझा जाता। ताजुम गम्भीर हो गया। सब परेशान थे। अनहोनी से डरे हुए थे।

इधर तापू, तालू, खोदा, तातो और ऐपा उसी झाड़ी में छिपे बैठे थे। अब डर कुछ कम हो चुका था। सभी एक ही प्रश्न का उत्तर खोज रहे थे। तातो का तो पेशाब ही निकल गया था।

“ये क्या हो सकता है?” खोदा ने कहा।

“पूजा अच्छी नहीं हुई होगी।” तालू ने तपाक से जवाब दिया।

“अरे नहीं, नहीं, मरे हुए कुत्ते का भूत था।” ऐपा ने कुछ इस अन्दाज में कहा कि तातो डरकर खोदा से चिपक गया और गुस्से से ऐपा की तरफ देखकर जीभ दिखाई।

बहुत दूर उँगली माथे पर रखकर सोचने के बाद तापू ने बहुत गम्भीर स्वर में कहा, “हो न हो, ये वही था, जिसके बारे में अंकल रंगबिया ने बताया था कि एक ऐसा पक्षीनुमा यन्त्र है, जिसके अन्दर कई लोग बैठकर दूर-दूर तक जाते हैं।”

खोदा को भी याद आ गई, “हाँ, और वह कुछ खुशबूदार चीजें भी अपने साथ लाया था, जिसे सोते समय पूरे कपड़ों पर छिड़क लेता था। उसे वह पाउडर कहता था। वाह! क्या सुन्दर गन्ध थी। उसने गाँव की लड़कियों के चेहरे पर भी लगा दिया था, जिसके बाद वे सुन्दर दिखती थीं। सारी लड़कियाँ उसके पीछे-पीछे भागती थीं।”

“अरे वे बन्दर दिखती थीं, बन्दर! सफ़ेद चेहरेवाली बन्दर!” कहकर ऐपा ताली मार-मारकर हँसने लगा। बच्चे फिर अपनी दुनिया में खो गए। उनके लिए फिर से जंगल मुस्कराने लगा।

ठंड की रात थी, सब लोग सो रहे थे। पाँचों बच्चे हमेशा की तरह एक ही चावल के बोरे में सो रहे थे, जिसमें अंकल रंगबिया ने पिछले साल चावल भरकर ला दिए थे। उनके लिए वह काफी था, जिसमें घुसकर वे आराम से ठंड में सो सकते थे। आधी रात हो चली थी कि ऐपा इच्चा-इच्चा कहकर चिल्लाने लगा। किसी ने पेशाब कर दिया था। खोदा सबकी जाँघों के बीच हाथ डाल-डालकर देखने लगा कि आखिर किसने पेशाब किया है, जिसकी वजह से ठंड ज्यादा लगने लगी थी। “आची-आची, आची देखो पकड़ा गया पकड़ा गया, तातो की जाँघें भीगी हुई थीं।” तापू ने कहा। अब तातो आने-आने कहकर रोने लगा। सब लोग हड़बड़ाकर उठ गए। किसी ने कहा, “अरे ताजुम किसके साथ सो रहे हो, देखते भी नहीं कि इन बच्चों को क्या हुआ है?” बड़बड़ाती माँएँ आग जलाने की कोशिश करने लगीं। चारों ओर अँधेरा फैला हुआ था। सारे पालतू पशु भी सो चुके थे। अचानक घर के बाहर सो रहे कुत्तों ने जोर-जोर से भौंकना शुरू कर दिया। ताजुम को लगा फिर से जंगली बिलाव आया है, मुर्गी चुराने। वह दौड़कर निकला ही था कि उसके सीने में तेजी से एक तीर घुस गया। फिर माथे में, हाथ में, शरीर के बाकी सारे हिस्सों में तीर-ही-तीर। उसके मुँह से बस एक ही शब्द निकला, ‘भागो।’ पूरा गाँव दुश्मनों से घिर चुका था। सोते हुए गाँववालों को सँभलने का अवसर ही नहीं मिला था। उन्होंने बच्चों के दो टुकड़े कर दिए। वे औरतों को खींच-खींचकर ले जा रहे थे। तातो की माँ ने दर्द से चिल्लाकर कहा, “मेरे पेट में बच्चा है, मैं नहीं चल सकती। मुझे छोड़ दो।” अगले ही पल उसका सर धड़ से अलग हो गया। किसी के पेट से आँतें बाहर निकली हुई थीं तो कोई बिना सर के मरती हुई मुर्गी की तरह छटपटा रहा था। किसी की आँख में तीर धँसा हुआ था, तो कोई बिना सर के दौड़ रहा था। किसी-किसी का शरीर अनगिनत टुकड़ों में बँटा हुआ था। किसी की उँगलियाँ काटी गईं और पेड़ पर तीर से चिपका दी गईं, ताकि गवाह रहे कि उनकी विजय हुई है। बच्चे उस बोरे में सदा के लिए सो गए। उनके हाथ एक-दूसरे से दृढ़ता से जुड़े हुए थे। ऐपा का कुत्ता आन कूँ-कूँ करके बोरे को कभी सूँघता तो कभी खींचता हुआ रो रहा था। वह बोरा अब खून से पूरा भीग गया था। उनके नन्हें-नन्हें पैर एक-दूसरे के पैरों से लिपटे हुए थे। और फिर रात-भर ठंडी हवाएँ साँय-साँय करके बहती रहीं, जैसे बहुत क्रोधित हों। पीपल का वह पेड़ बेबस-सा रो रहा था। सन्नाटा और अँधेरा दोनों ने मिलकर जैसे चारों ओर एक लम्बी चादर ओढ़ा दी हो। तातो की माँ के चूल्हे में अब भी अंगारे दहक रहे थे।

सुबह हुई। मुर्गे ने बाँग लगाई, लेकिन अब कोई उठना नहीं चाहता था। पूरा गाँव रक्त से सन गया था। वादी खामोश, अपनी बाँहें फैलाए बैठी थी। सब उसी की गोद में आराम से सो रहे थे। वादी के इस पार जश्न का माहौल था। संगरी गाँव की औरतें बीच में खूँटे से बँधीं हुई थीं। अब वे हमेशा के लिए दासी थीं। उनको अब नयी जिन्दगी शुरू करनी थी, अँधेरे के सिवाय कुछ नहीं थी। माता सूर्य भी हमेशा की तरह ही मुस्कुराती हुई उग आई थी। अब वह भी पराई हो चुकी थी। खूँटे के चारों ओर दाव लहराते वीर पुरुष नाच रहे थे। एक बच्चा नाक पोंछता-पोंछता यामी को दया से घूर रहा था। उसे लगा, जैसे ऐपा सामने हो। जैसे वह अभी दीदी कहकर बुलाएगा। वह जोर-जोर से रोने लगी। चिल्ला-चिल्लाकर पूछने लगी, “आखिर हमारे भाई को क्यों मारा? क्या किया है हमने? हम बन्दी क्यों बना लिये गए? हमें भी मार डालो। “तब एक आदमी उसके गले पर दाव रखकर घृणा से उसे देखता हुआ बोला- हमारी क्या गलती थी? हमारे बच्चे उल्टियाँ और दस्त से क्यों मर गए? क्यों इतने लोग बुखार से मर गए? हमारी सारी-की-सारी मुर्गियाँ कैसे मर गईं? क्योंकि तुम्हारे गाँव में रंगबिया आता-जाता रहता है और वह बाहर से बीमारी लेकर आता है। तुम लोग उसे आने देते हो और अब मजे से धरती पूजन करके खुशहाल होते जा रहे हो?” कहकर उसने उसके चेहरे पर थूक दिया। उस गाँव की औरतों ने भी उन सभी बँधी हुई औरतों पर घृणा से थूक दिया। घायल औरतें समझ गई थीं कि पुजारी से ही गलती हुई थी, जिसका संकेत प्रकृति ने दे ही दिया था, लेकिन हम ही थे कि तैयार नहीं थे। इस तरफ हमेशा के लिए गहन सूनापन छा गया था। उन बँधी औरतों का क्या हुआ? पता नहीं, पर अन्दाजा तो लगा ही सकते हैं। वे हमेशा के लिए गुलाम हो गई थीं।

आज जब भी कोई यहाँ से गुजरता है, तो साँस रोककर तेजी से दौड़ने लगता है। सुना है, यहाँ बच्चों की हँसने की, रोने की, आवाजें और कभी-कभी दर्द-भरी चीखें सुनाई देती हैं। पीपल का पेड़ जानता है, डर क्या है और दर्द क्या है। आज उसी उजड़े वीरान गाँव में लोग हवाई अड्डा बनाने की बातें करते हैं। वही हवाई जहाज, जिसे भयानक शोर करता पक्षी समझकर वे कभी डरे थे। कई हवाई जहाज उड़ा करेंगे, तो क्या उस वादी में फिर कोई खौफनाक मंजर होगा? फिर से कोई साया भागेगा? कौन जाने! लेकिन इतना तो तय है कि अबकी बार का शोर पहले वाले शोर से भिन्न जरूर होगा।

(आन - माँ।
आबू - पिताजी।
आची - बड़ा भाई।
माज - घंटीनुमा कीमती सामान जिसे विवाह में लड़केवालों को दिया जाता है ।
ताल - पीतल की थाली।
माता सूर्य - न्यीशी विश्वास के अनुसार सूर्य को माँ और चन्द्रमा को पिता माना जाता है।
न्येप न्येपा - म्यांमार (बर्मा)।
आपोंग - स्थानीय शराब।
मिथुन - एक पशु जो अरुणाचल प्रदेश का राज्य पशु है, जिसे स्थानीय लोग पवित्र पशु के रूप में मानते हैं।)

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