सज्जन (नाटक) : जयशंकर प्रसाद

Sajjan (Hindi Play) : Jaishankar Prasad

पात्र-सूची : सज्जन (नाटक)

नटी

सूत्रधार

युधिष्ठिर

भीम

अर्जुन

नकुल

सहदेव

द्रौपदी

दुर्योधन

दुश्शासन

कर्ण

शकुनि

चित्रसेन (गन्धर्वराज)

सेनापति (गन्धर्व सेना का)

विद्याधर सैनिक

राक्षस

विदूषक

सज्जन (नाटक)

नान्दी -

(छप्पय)

अजय किरातहिं देखि चकित ह्वै कै निज मन मैं।
पूजन लाग्यो करन सुमन चुनि सुन्दर घन मैं।।
लखि किरात के गले सोइ कुसुमन की माला।
अर्जुन तब करि जोरि कह्यो अस कौन दयाला।।
गुन गहत जौन शठता किये, सो क्षमहु नाथ वितरहु विजय।
इमि प्रमुदित पूजित विजय, सो जयशंकर जय जयति जय।।

(सूत्रधार आता है)

(चारों ओर देख कर) - अहा, आज कैसा मगंलमय दिवस है, हमारे प्यारे सज्जनों की मण्डली बैठी हुई है, और सत्प्रबन्ध देखने की इच्छा प्रकट कर रही है। तो मैं भी अपनी प्यारी को क्यों न बुलाऊँ। (नेपथ्य की ओर देखकर) प्यारी, अरी मेरी प्रानप्यारी!

(नेपथ्य में से आती हुई)

नटी - क्या है क्या ?

सूत्र- - यही है कि, जो है सो... (शिर खुजलाता है)

नटी - कुछ कहोगे कि, केवल जो है सो।

सूत्र- - यह कि, तुम्हारा नाक-भौं चढ़ाना देखकर हमारे चित्त में यह इच्छा होती है कि, कोई-वीर-रस का अभिनय आज इन सज्जनों को दिखाऊँ, क्योंकि -

सत्कविता, हितकर वचन, सज्जन हीं के हेत।
विधु लखि चन्द्रमणी द्रवै, काँच ध्यान नहिं देत।।

नटी - तो कौन प्रबन्ध ?

सूत्र- - यह भी हमहीं से पूछोगी, हमने तो तुम्हीं से मंत्रणा करना विचारा था, क्योंकि-

दुख में मित्र समान अरु, गृह में गृहिणी होत।
जीवन की सहचरी सो, रमणी रस की सोत।।

नटी - (हँसकर) - आज तो बड़ी सज्जनता सूझी है। अच्छा तो "सज्जन"- नामक प्रबन्ध क्यों न दिखाया जाय। प्रबन्ध भी छोटा और मनोरम है।

सूत्र- अच्छा सोचा। पर प्रिये ! कुछ अपने मधुर कण्ठ से गाकर सुनाओ, क्योंकि-

पशुहूँ मोहत जाहि सुनि, उपजावत अनुराग।
चित्त प्रफुल्लित करन हित, और कौन जस राग।।

और ऋतु भी शरद का कैसा मनोहर है !

भयो विमल जल लोल नलिनि की अवली फूली।
सारस करत कलोल मयूरी बोलन भूली।।
निर्मल नील अकास कास फूलै कूलन मैं।
शीतल मंद सुवास पवन खेलै फूलन मैं।।

(नेपथ्य में से मृदंग शब्द सुनाई पड़ता है)

नटी - अब तो महाराज दुर्योधन के सभा ही में गाना आरम्भ हुआ है।

सूत्र - क्या अभिनय आरम्भ हुआ ? तो चलो जल्दी चलें।

(दोनों जाते हैं)

प्रथम दृश्य : सज्जन (नाटक)

(द्वैत सरोवर का निकटवर्ती कानन)

(पट - मंडप में दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण, शकुनी प्रभृति बैठे हैं, और उनकी स्त्रियाँ भी पार्श्व में बैठी है। नृत्य हो रहा है)

गाने वाली गाती है -

सदा जुग-जुग जीओ महाराज।
सुखी रहो सब भाँति अनन्दित, भोगो सब सुख साज।
नित नव उत्सव होय मगन मन, विनवैं राज समाज।।

कर्ण - वाह ! क्या अच्छा गाया !

(दुर्योधन अँगूठी देता है)

दुर्योधन - मित्र कर्ण ! पाण्डवों को हमारे आने का पता लगा कि नही ?

कर्ण - अवश्य ही उन्हें ज्ञात होगा।

दुश्शा. - वे पाँचों इस समय अकेले होंगे, समय तो अच्छा है।

कर्ण - चुप... हाँ हमारे विभव को देखकर वे अवश्य ईर्ष्या से जलते होंगे, और हम लोगों के आने का तात्पर्य भी तो यही है।

दुर्यो. - (उर्ध्व साँस ले कर) - जब से अर्जुन के अस्त्र प्राप्ति की बात हमने सुनी है, तब से हमारे मन में बड़ी आशंका है।

कर्ण - कुछ आशंका नहीं है।

जो चण्ड आप भुज दण्ड रहे सहारे।
हैं नित्य नूतन हिये महँ ओज धारे।।
उद्योग सों विरत होय कबौं न हेली।
लक्ष्मी सदा रहत तासु बनी सुचेली।।

दुर्यो. - क्यों न हो मित्र कर्ण! तुम ऐसा न कहोगे तो कौन कहेगा (कर्ण सिर हिलाता है)।

विदूषक - (स्वगत) - देखो केवल कर्ण से सलाह लेने वाले मनुष्यों की क्या दशा होती है। मनुष्यों, तुम्हें ईश्वर ने आँख भी दिया है, उससे कार्य लिया करो, हमारे राजा दुर्योधन को तो केवल कर्ण ही मित्र है, और होना भी चाहिए, क्योंकि धृतराष्ट्र का पुत्र है।

कर्ण - ओ बतोलिये ! क्या बड़बड़ाता है।

विदू. - (हाथ जोड़कर) - जी धर्मावतार ! कुछ नहीं।

कर्ण - झूठ बोलता है, और मुँह के सामने।

दुर्यो. - चला जा सामने से।

कर्ण. - जा मुँह मत दिखा।

(विदूषक मुँह बनाकर मुँह फेर लेता है)

दुर्यो. - (झिड़क कर) बाहर जाओ।

विदू. - जाता हूँ सरकार ! (विदूषक बाहर जाता है)

कर्ण - इसके सामने मंत्रणा करना ठीक नहीं है।

शकुनी - मंत्रणा क्या है ? मृगया खेलने चलोगे न ? (इंगित करता है) - पशु भी तो इसी वन में है।

कर्ण और दुर्योधन - हाँ, हाँ ठीक है।

(आपस में इंगित कर चुप रह जाते हैं)

(नेपथ्य में)

कर्ण - (क्रोधित होकर) - तू कौन है, नहीं जानता कि किसके सामने खड़ा है?

राक्षस - (उसे छोड़कर) - जानता हूँ! बुद्धि का जिसे अजीर्ण है और जिसे केवल कर्ण ही का सहारा है, उस कौरवाधिपति के सामने।

कर्ण - (उठकर)

रे नीच मीच तव कंध नगीच आई
जो कौरवाधिप समीप करै ढिठाई,
क्यों ह्वै अभीत इत आवन दुष्ट कोन्ह्यों,
बेगै बताव मम खड् कबौं न चीन्ह्यों,

दुश्शा. - (राक्षस से) क्यों, तू क्यों यहाँ आया है ?

राक्षस - महाराज गन्धर्वाधिराज चित्रसेन ने कहा है कि दुर्योधन से कहो कि मृगया खेलने का विचार यहाँ न करें। उत्सव कर चुके, अब यदि अपना कुशल चाहें तो यहाँ से हस्तिनापुर को प्रयाण करें।

कर्ण - (क्रोधित होकर) जा जा, अपने स्वामी से कह दे कि हम लोग अवश्य मृगया खेलेंगे।

राक्षस - अच्छा ( सिर हिलाता हुआ जाता है, और विदूषक की टाँग पकड़ कर खींचता जाता है)

विदूषक - अरे छोड़, मत दुख दे, मैं तो जिसकी विजय होगी उसी के पक्ष में रहूँगा।

(राक्षस उसे छोड़ कर चला जाता है)

[पट-परिवर्तन]

द्वितीय दृश्य : सज्जन (नाटक)

(स्थान - द्वैत सरोवर, मृगया के वेश में दुर्योधन और कर्ण इत्यादि बाण धनुष पर चढ़ाए हुए एक मृग के पीछे चले आते हैं)

दुर्योधन - (चारों ओर देखता हुआ) हैं! मृग कहाँ भागा ?

मृग की बात कहाँ कहौं, बीर देखि डर जात।
अस्त्र सामुहे दृढ़ हृदय, किये कौन ठहरात।।

दुश्शा. - हाँ, हाँ, ठीक है, (‘मृग की बात’ इत्यादि फिर से पढ़ता है)

दुर्यो. - अहा हा ! यह स्थान कैसा मनोरम है, सरोवर में खिले हुए कमलों के पराग से सुरभित समीर इस वन्य प्रदेश को आमोदमय कर रहा है -

नीलसरोवर बीच,
इन्दीवर अवली खिली।

कर्ण - मनु कामिनि कचबीच,
नीलम की वेंदी लसै।।

दुर्यो. - जलमहँ परसि सुहात,
कुसुमित शाखा तरुन की।

कर्ण - मनु दरपन दरसात,
निज मुख चूमत कामिनी।

दुर्यो. - सारस करत कलोल,
सारस की अवलीन में।

कर्ण - मंनु नरपति के गोल,
चक्रवर्ति विहरण करै।।

शकुनी - वाह ! अंगराज ने तो आज उपमा की झड़ी लगा दी (कुछ सुनकर) वे कौन हैं। (नेपथ्य में से) यही हैं। (सब चकित होकर देखते है)

(यक्षगण की सेना का प्रवेश)

सेनापति - तुम लोग यहाँ से शीघ्र चले जाओ।

कर्ण - (तलवार पर हाथ रख कर) तू कौन है ?

सेनापति - मैं स्वामी के आज्ञानुसार शिष्टता के साथ कह रहा हूँ, नहीं तो दूसरी प्रकार से आप लोगों का आदर किया जायगा। क्योंकि...

प्रथम राखि महामति मान को।
शुचि बतावहिं नीति बिधान को।।
यदि न मानहि मूरख टेक सों।
तब करे हठि दण्ड अनेक सों।।

(दुर्योधन क्रोध दिखलाता है)

कर्ण - (तलवार निकाल कर) अपनी चपल जीभ को रोक और अपनी रक्षा कर ! (दोनों तलवार निकालकर युद्ध करते हैं। इतने में विद्याधरों को साथ में लिए चित्रसेन का प्रवेश)

(गन्धर्वों को ससैन्य देखकर सब का खड़े हो जाना। आगे बढ़कर और मुँह फेर कर दु

चित्रसेन - कौरवपति ! तुमको बहुत समझाया गया, परन्तु तुमने हठ न छोड़ा।

(दुर्योधन अनसुनी करता है)

चित्रसेन - हैं, इतना घमण्ड ?

बार बार सानुनय रह्यो यद्यपि मम अनुचर।
तबहुँ न मान्योमूढ़ ग्राह सन्निकट द्वैत सर।।
मृगया खेलन लग्यो जहाँ मम बिहरण को थल।
प्रहरी वर्जन करयो तिन्हैं मारयो तेहिपै खल।।
जानत नाहिं प्रचण्ड भुजन को पामर ! मेरे।
चञ्चल दृढ़ कोदण्ड और नाराच करेरे ?
अबहुं न क्यों हटि जात, मानि के आज्ञा मेरी।
क्षमा किये बहु बार, अवज्ञा को हम तेरी।।

(दुर्योधन क्रोध से तलवार खींचता है)

दुःशा. - महाराज ! सावधान रहिये।

कर्ण - बस, बहुत बड़बड़ा मत, नहीं तो यें अँगुरियाँ बीणा बजाने योग्य न रह जायगी। अह ह ह ह दुष्ट !

सुधर साजि मनोहर रूप को
नित रिझावहिं जो सूर भूप को,
तिनहि संग बजावहु बीन को,
तुमहि संग की मति दीन को ?
और यदि न मानेगा तो (दाँत पीस कर)
क्रोधानलज्ज्वलित भीम करालिका सी,
संहारकारिणि हँसै जिमि कालिका-सी।
सो चञ्चला असि जबै चमकै लगैगी,
तेरो सुरक्त करि पान महा पगैगी।।

गंधर्व - अच्छा तो फिर बचाओ अपने को ! (सब तलवार निकाल कर लड़ते हैं, युद्ध में कर्ण सब्र की भगाने का साहस करता है और विक्रम दिखाता है, इतने में पीछे से राक्षसों की सेना आती है और सब को घेर लेती है)

[पट-परिवर्तन]

तृतीय दृश्य : सज्जन (नाटक)

(स्थान- कानन, पर्ण-कुटीर)

(चारों ओर शान्ति विराज रही है। एक सघन वृक्ष के नीचे युधिष्ठिर और अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी के सहित बैठे हुये हैं।)

युधिष्ठिर - अहा ! प्रकृति की गति कैसी अनोखी है -

मध्याह्न में महत तेज लखात जाको,
आकाश मध्य कोउ देखि सकै न जाको।
सो दिव्य देव दिननाथ लहै प्रतीची,
ह्वै कै सुरञ्जित लखात सबै नगोची।

अर्जुन - महाराज, यह तो ठीक ही है -

जे जाइ पश्चिम दिशा मह मोद माते,
ह्वै बारुणी विवस मोह तरंग राते।
देखे तिन्हैं पतित लोग सबै हँसाही,
प्राची दिशा शशि मिसै हँसती सदा हीं।।

द्रौपदी - तो इससे क्या -

आदित्य के उदय के पहले निशा में।
घोरान्धकार बढ़ि जात लखौ अमा में।।
उद्योग में तदपि घूमत आस धारे।
ह्वै अस्त हूँ उदय होत प्रभू सहारे।।

नकुल और सहदेव - आर्य ! प्यास लगी है।

युधिष्ठिर - (मुँह फेर कर) हा दैव ! यही सब देखना है। हाय हाय! ये सुकुमार और यह कराल कानन -

जिन कबहूं न दीन्हें पाँवहू को धरा में।
तिन समिध बटोरैं औ करैं मृत्यका में।।
समुझत रतनों को फार सों जे उतारैं।
वह कुसुम जुहा के भूषनों को सुधारैं।।

(उसास लेकर) हे विश्वम्भर !

जिनहिं बढ़ायो मान सों, न करु तासु अपमान।
कुलवारन को कुल यही, रहै जगत सनमान।।

नकुल और सहदेव - आर्य ! अभी जल नहीं आया ?

युधिष्ठिर - (नेपथ्य की ओर देखकर) बच्चा घबराओ मत, वह भीम आते हैं।

(भीम का जल लिए प्रवेश। भीम लोटा रख कर जोर से हँसता है। युधिष्ठिर और अर्जुन पूछते हैं, पर केवल हँसता है)

युधि. - (हंस कर) वत्स ! भीम है क्या ?

भीम - (हंसते हुए) आर्य ! कुछ नहीं, बहुत अच्छा हुआ।

युधि. - अरे सुनूं भी, क्या अच्छा हुआ ?

भीम - अच्छा कहूँ, नहीं नहीं, नहीं, नहीं आपसे नहीं। धनंजय ! इधर आओ तुम से कह दें। महाराज से तुम्हीं कहो, हम को तो हँसी रोके से नहीं रुकती है। (हँसता है। युधिष्ठिर इंगित करते हैं। अर्जुन उठ कर जाते हैं। भीम कुछ कान में कहता है।)

अर्जुन - (युधिष्ठिर के पास आकर) आर्य ! भीम जल लेने के लिये द्वैत सरोवर पर गये थे, वहाँ देखा तो दुर्योधन और गंधर्वों में घोर युद्ध हो रहा है, फिर परिणाम यह हुआ कि वे सब दुर्योधन को पकड़ ले गये।

युधि. - (खड़े होकर) वत्स भीम ! तुम वहाँ रहो और तुम्हारे सन्मुख दुर्योधन को पकड़ कर वे सब ले जायँ और तुम कुछ न करो ! छिःछिः!

भीम - महाराज ! इसी सज्जनता के कारण तो आपकी यह दशा है। मैं तो ऐसी बातों का पक्षपाती नहीं हूँ।

युधि. -

विपत्ति में मानव को निरेखि के,
सुखी करै चित्त सुमोद लेखि के।
अहै वही नीच महान नारकी,
तजौ यही बात बुरे विचार की।।

वत्स भीम! शत्रु को दुःखी देखना और घृणित उपाय से बल-प्रयोग करने को क्रूरता कहते हैं। तुम वीर हो, वीरता को ग्रहण करो -

अरिहूँ ये छल करै नहीं सन्मुख रन रौपै।
दृढ़ कर में करवाल गहै मिथ्या पर कौपै।।
दुखी करै नहिं द्विज, सुरभी, अबला नारी को।
लक्षण ये सब सत्य-वीर-व्रत के धारी को।।

(भीम कुछ कहना चाहता है, इतने में रोते हुए दासी और रानियों का प्रवेश)

दासी और रानी - धर्मावतार ! रक्षा करिये !

युधि - क्या है क्या ?

दासी - भीष्मादि गुरुजनों के मना करने पर भी कौरवनाथ विहार करने के हेतु यहाँ आये थे, सो अकारण, गंधर्वों के साथ युद्ध हो गया, गन्धर्व लोग कौरव पति को समित्र बांधे लिये जाते हैं, रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये !

युधि. - वत्स अर्जुन ! जाओ - उन्हें शीघ्र छुड़ा लाओ - (दासियों से) - क्यों वे कितनी दूर गये हैं ?

दासी - अभी वह वहीं होंगे, महाराज ! रक्षा कीजिये !

(अर्जुन जाते हैं।)

[पट-परिवर्तन]

चतुर्थ दृश्य : सज्जन (नाटक)

(स्थान द्वैत सरोवर)

(दुर्योधन को पकड़े हुए विद्याधर ले जाने को उत्सुक हैं)

विद्याधर - चल, अब चलता क्यों नहीं, लड़ने के लिए तो बहुत बल था।

दूसरा - शकुनी, कोई जुए की जाल यहाँ भी सोच रहे हो क्या ?

तीसरा - यह न समझना कि निकल भागेंगे।

कर्ण - (क्रोध से) - क्या बकबक करता है, अपना काम कर, चलते हैं न।

विद्याधर - ओ हो, इन्हें अपमान के साथ नहीं ले चलना होगा, उचित मान की आवश्यकता है।

चित्रसेन - क्यों दुष्टो ! अब छल से पाण्डवों को मारने का विचार न करोगे ? (विद्याधरों से) - आओ, अब इन सबको ले चलें (इतना कह कर चित्रसेन ज्यों ही चलने को उद्यत होता है, वैसे ही अर्जुन प्रवेश करता है।)

अर्जुन - ठहरो, ठहरो, तुम लोगों का प्रधान कौन है ?

सेनापति - (आगे निकल कर खड़ा हो जाता है) हम हैं हम। तुम्हें क्या कहना है?

अर्जुन - यही कि यदि अपनी कुशल चाहते हो, तो इन लोगों को छोड़ दो।

सेनापति - वाह ! वाह ! आप छुड़ाने आये हैं, दर्पण तो यहाँ मिलेगा नहीं - द्वैत सरोवर के जल में जरा मुँह देख आओ !

अर्जुन - (क्रोधित होकर) -

कंटक नहिं पददलित होत मारग मैं जौलौं।
मुख की तीछनता कौ त्यागत है नहिं तौ लौं।
नीच प्रकृति जन मानत नाहिन हैं बातन ते।
ये पूजा के योग सदा ही हैं लातन ते।

दुष्टो ! फिर भी समझाता हूँ - मान लो। इन लोगों को छोड़ दो।

दुर्योधन - मैं तुम्हारी दया नहीं चाहता।

कर्ण - (सगर्व) -

सहें अनेकन कष्ट पै, लहैं सदा ही मान।
अरि सों दया न चाहते, साँचे बीर महान।

अर्जुन - (शिर हिलाकर) - मैं तुम से कुछ नहीं कहना चाहता। (विद्याधरों से) - हाँ इतनी देर में क्या सोचा ?

सेनापति - जा जा, अपना काम कर।

अर्जुन - (दाँत पीस कर) -

ह्वै सावधान सब रक्षहु आपने को।
देखो प्रचण्ड भुजदण्ड बलै घनों को।
वेरी कराल वन दाहन ज्वालिका सी।
मेरी अहै सुअसि विद्युत मालिका-सी।।

(अर्जुन तलवार निकाल कर आक्रमण करता है, और सब दुर्योधननादि को घेर कर लड़ते है। किन्तु घोर युद्ध के उपरान्त अर्जुन से व्यथित हो कर सब भागते हैं, और उसी समय चित्रसेन का प्रवेश होता है। अर्जुन उस पर भी झपटता है, चित्रसेन हट कर वार करता है, दोनों में द्वन्द्व युद्ध होता है)

चित्रसेन - बस मित्र बस, बहुत हुआ।

अर्जुन - (छोड़कर) - हैं, मित्र चित्रसेन ! तुम कहाँ ?

(दोनों गले से गले मिलते हैं सब आश्चर्य से देखते हैं।)

अर्जुन - मित्र ! क्षमा करना, युद्ध-विप्लव में सहसा आपको न पहिचान सका !

चित्रसेन - मित्र ! कुछ नहीं वह केवल संयोग था। कहो तुम कैसे यहाँ आये ? युद्ध क्यों हुआ ?

अर्जुन - महाराज की आज्ञा हुई कि दुर्योधनादिकों को गन्धर्व लोग पकड़े लिए जाते हैं, अतएव उन्हें शीघ्र जाकर छुड़ाओ।

चित्रसेन - (आश्चर्य से) महाराज ने आज्ञा दी ! (सोचकर) अहा ! यह बात सिवा धर्मराज के किसके हृदय में आ सकती है ! देखो -

लाक्षागृह में जारन चाह्यो, जूआ खेल्यो।
छल सों सब करि हरण, दियो बनवास अकेल्यो।।
कानन हूं में आयो छल से जो मारन को।
त्यहि अरिहूं पै दया करै, अस मतिधारण को।।

अच्छा चलिये। (विद्याधरों से) - चलो, इन्हें इसी प्रकार से महाराज के सन्मुख ले चलो।

(अर्जुन से) आओ मित्र धनंजय ! हम लोग भी चलें।

(दोनों आगे-आगे हाथ में हाथ मिला कर जाते हैं। पीछे-पीछे विद्याधर लोग दुर्योधनादिक को बाँध कर ले चलते है।

पञ्चम् दृश्य : सज्जन (नाटक)

(महाराज युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेवादि द्रोपदी सहित बैठे हुए हैं)

युधि. - प्रिये कृष्णा ! कुमुदिनीनायक के सुप्रकाश में कानन कैसा प्रतीयमान हो रहा है -

तिमिर गगन माँहीं, चन्द्र आभा प्रकासै।

द्रौपदी - जिमि सुमति लहेते चित्त में धर्म भासै।।

युधि. - उदयत रजनी में जो सदा तेज धारै।

द्रौ. - जिमि सुजन सुसंगौ में परे पुण्य धारै।।

युधि. - कुमुदिनि विकसानी इन्दु की मूर्ति देखे।

द्रौ. - शुभमति सुधरै है ज्यों विवेकै सुपेखे।।

युधि. - उडुगन जुरि आये चन्द्र को चारु धेरैं।

द्रौ. - जिमि शुभ फल आवैं सज्जनों पै घनेरै।।

(सब को लिए हुए अर्जुन का प्रवेश)

अर्जुन - आर्य के चरणकमलों में सेवक का नमस्कार।

युधि. - वत्स धनंजय ! निरन्तर विजयी हो !

(सब अभिनन्दन करते हैं)

(युधिष्ठिर उठ कर दुर्योधनादिक का बंधन खोलते हैं। नेपथ्य में धर्मराज की जय-जय की ध्वनि होती है। फूलों की वर्षा होती है। सब यथोचित बैठते है।)

युधि. - वत्स दुर्योधन ! सब कुशल है ?

दुर्योधन - (लज्जित होकर) - महाराज की कृपा से।

चित्रसेन - महाराज सुरेन्द्र ने आपको आशीर्वाद कहा है। उन्हें कौरवपति का असत्परामर्श ज्ञात हो गया था, इस कारण उन्होंने हमको भेजा। हमने भेजा। हमने इन्हें बहुत बार समझाया पर इन्होंने न माना, इस कारण इनके साथ हमें ऐसा व्यवहार करना पड़ा, अतएव क्षमा चाहता हूँ।

युधि. - जाने दो उस बात को। देवराज से हमारा अभिवादन कहना, और कहना हम उनकी कृपा के लिए कृतज्ञ हैं।

चित्रसेन - अच्छा महाराज ! (एक विद्याधर को इंगित करता है, और वह नम्र होकर चला जाता है।)

युधि. - वत्स सुयोधन ! तुम गुरुजनों की आज्ञा के अनुकूल नहीं चलते, यह अच्छा नहीं करते। देखो साम्राज्य का भार तुम्हारे ऊपर है, यह संसार में कैसा गुरुतर कार्य है ? यह स्वयं जानते हो किन्तु फिर भी ऐसी चूक तुमसे क्यों होती है, सो ज्ञात नहीं होता। संसार में राजा ईश्वर का प्रतिनिधि-स्वरूप समझा जाता है, अतएव तुम्हें बहुत समझ कर चलना चाहिए।

खल को शासन करै शरासन दृढ़ करि धारे।
अनुचर आस न रहै सिंहासन नित्य सुधारे।।
पास न राखे नीच, तिन्हैं नासन हित सोचै।
जासन मानै प्रजा सदा विश्वास न मोचै।।
सबहीं सों नहिं लड़ै अड़ै नहिं नीचजनों से।
नहिं आलम में पड़ै कड़ै बरतै न जनों से।।
तजि मय्र्याद न बढ़े चढ़ै आभा नित दूनी।
सबहि मोद सो मढ़े बढ़े कीरति चैगूनी।।

और -

नीति प्रीति युत प्रजा सों, पालत है जो राज।
सिंहासन सोहत सदा, ताही को सुख साज।।

युधि. - जाओ राज्य करो।

(विद्याधरी गण माला लिये हुये आती है, और गाती हुई नाचती हैं।)

धर्म को राज सदा जग होवे।
सुख सों पूरि रहै पुहुमी यह -
नित नव मंगल होवे।।
सत्कविता सज्जनता ही पर
प्रेम सबहिं को होवे।।
सज्जन की जय धर्मराज की -
विजय सदा ही होवे।।
धर्म को राज सदा जग होवे -

(युधिष्ठिर के गले में सब माला पहिराती है, सब धर्म की जय कहते हैं।)

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