सच्चा गहना (कहानी) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

Sachcha Gehna (Hindi Story) : Acharya Chatursen Shastri

(आचार्य चतुरसेन की सबसे प्रथम कहानी, जो गृहलक्ष्मी मासिक पत्रिका में सन् 1917-18 में छपी)

शशिभूषण के पिता आसाम में एक बड़ी रेशम की कोठी के स्वामी थे। इनका लेन-देन चीन, जापान, यूरोप आदि देशों में सब जगह था। सैकड़ों मुनीम, कारिन्दे, गुमाश्ते, नौकर-चाकर इनके यहाँ रहा करते थे। लाखों का कारोबार था। रुपयों की छनछनाहट के मारे कान नहीं दिया जाता था। चारों तरफ कारोबारी लोगों की दौड़-धूप से ऐसी धूमधाम रहती थी, मानो कोई विवाह-उत्सव हो। मिज़ाज भी उनका अमीरों का-सा था। सभी अमीर दिल के भी अमीर नहीं होते। दीन-दुखियों के लिए एक कौड़ी भी अपनी टेंट से देते इन कंजूसों की नानी मरती है। शशि के पिता ऐसे नहीं थे। गरीब-मोहताज विधवाओं के वह ईश्वर थे। उनका ऐसे सुकर्म में किया गया दान लम्बी-लम्बी तारीफों के साथ अखबारों में नहीं छपता था और न ऐसी वाह-वाही लूटने को ही वे ऐसा करते थे। वह तो स्वभाव से ही दयालु और सज्जन थे। बात के ऐसे धनी थे कि एक बार जो मुँह से निकल गयी तो फिरने वाली नहीं है, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाए। शील उनमें कूट-कूटकर भरा था। बड़े मुनीम जी से लेकर साधारण चपरासी तक से वह एक-सा ही ‘तुम’ कहकर प्रेमपूर्वक सम्भाषण करते थे। इतने बड़े करोड़पति होने पर भी उनका जीवन सुख-शान्ति और सादगी में आदर्श था। अब शशि के पिता को मरे कोई ढाई साल हुए होंगे; पर तब से अब तक में, उनके कारबार में कुछ न कुछ उन्नति ही हुई है। इसका यही कारण है कि शशि बाबू भी गुणों में अपने पिता से किसी भाँति कम नहीं हैं। अपने पिता के ज़माने के नौकरों तक को शशि बाबू बुजुर्गों की तरह मानते हैं। सच तो यों है कि शशि को ऐसा दयालु पाकर, चाकर लोगों ने इन्हीं थोड़े दिनों में उनके पिता को भी भुला दिया।

एक बार कारबार के ही विषय में उन्हें दिल्ली जाना हुआ और उसी एक काम में इन्हें 12 लाख का मुनाफा हुआ। वहीं विदेशी कोठियों के भी तार मिले जिन सबमें उस बार लाभ ही लाभ की बात थी।

शशि बाबू अपनी स्त्री श्यामा को बड़ा प्यार करते थे। श्यामा को देवी जैसा रूप भी मिला था। उसका सुन्दर-स्वच्छ मुख देखकर गुलाब का भ्रम होता था। श्यामा जैसी सुन्दरी थी, वैसे ही शौकीन भी परले सिरे की थी। ईश्वर की दया से उसे कमी ही क्या थी? नयी-नयी साड़ी, बढ़िया-बढ़िया जेवर, बेशकीमती सामान श्यामा के इशारा करते ही शशि बाबू ला दिया करते थे। भोजन करके जब शशि लेट रहते और श्यामा को निकट पाकर अपने सुख-स्वप्न में डूब जाते, तो वह तन्मय हो जाते थे। श्यामा को पाकर शशि अपने को महाभाग्यवान समझते थे।

हाँ, तो जब शशि बाबू दिल्ली जाने लगे तो श्यामा ने हीरों का हार और मोतियों की एक माला लाने की फरमाइश की थी। आज तीन महीने में शशि लौटे हैं। ये तीन महीने बड़ी कठिनता से श्यामा ने काटे हैं। कुछ तो उछाह से और कुछ लज्जा से श्यामा का कलेजा धक्-धक् हो रहा है। शशि के पास जाने में उसे कुछ भय-सा लगता है। हल्के फिरोजी रंग की रेशमी साड़ी पहने श्यामा अपने कमरे में खड़ी पति के पास जाने की बात सोच रही थी। घड़ी-घड़ी उसके माथे पर पसीना आ रहा था, जिसे वह रूमाल से पोंछ रही थी कि अचानक स्वयं शशि ही उसके पास जा पहुँचे। श्यामा इतने दिन बाद उन्हें देखकर सिकुड़कर इतनी-सी हो गयी। उसके नेत्रों के सुनहरे परदे एक बार ऊपर को उठे और एक बार शशि के मुख पर अपने हृदय का उज्ज्वल प्रकाश डाल तुरन्त नीचे आ रहे। लज्जा के भारी आवरणों को वे सहन न कर सके।

शशि ने श्यामा का हाथ पकड़कर कहा, “क्यों श्यामा! क्या हमें पहचाना नहीं? यहाँ तो आओ; कुछ बोलोगी नहीं क्या?”

श्यामा का मुख लाल हो गया। उसे पसीना आ गया। कुछ कहते न बना। क्या बोलूँ-श्यामा यही सोचती रही। शशि ने उसे धीरे-धीरे गोद में बैठाकर उसका पसीना पोंछते-पोंछते कहा, “क्यों श्यामा! यह कैसी नाराज़गी है?”

पति से इस प्रकार दुलार पाकर श्यामा बड़ी सुखी हुई। बारम्बार स्वामी के प्रबोध करने पर श्यामा को कुछ बोलने का साहस हुआ। और उसका मुख खुला। खुलते ही मुँह से निकल पड़ा, “हमारी माला और हार क्यों नहीं लाये?” प्यारी की इस अटपटी और सरल वाणी को सुनकर शशि से न रहा गया। उसने अनगिनत बार श्यामा का मुख चूम डाला।

“लाये हैं सरकार! न लाते तो कहाँ रहते?” कहकर हार, माला तथा जवाहरात की अन्य चीज़ों का डिब्बा सामने रख दिया।

माला और हार को पाकर श्यामा बड़ी प्रसन्न हुई। सुख और प्रसन्नता से सारी सुध-बुध खोकर श्यामा पति की छाती पर झुक गयी। उस दिन शशि ने सब दाम भर पाये। ये सब जेवर उसने कोई साढ़े तीन लाख के खरीदे थे।

एक वर्ष बाद वह हारमोनियम पर मधुर ध्वनि से गा रही थी। शशि मुग्ध होकर एकचित्त उस चन्द्रमा से बहते अमृत को पी रहे थे। उनकी आँखें उसी चन्द्र-मुख पर थीं। इससे अधिक सुन्दरता हो सकती है या नहीं शशि यही सोच रहे थे। अचानक उनका सोच एकदम भंग हो गया। सामने से उनके बड़े मुनीम दौड़े हुए आये। उनके मुख की हवाइयाँ उड़ रही थीं। आते ही उनके मुख से निकला, “सर्वनाश, सर्वनाश हो गया!” शशि धीरज से बोले, “हुआ क्या? बात तो बोलो?” मुनीम जी ने एक तार उनके सामने पटककर कहा, “वह हमारे तीनों जहाज़ जो चीन से आ रहे थे, डूब गये; और साढ़े उनचास लाख पर पानी फिर गया।”

"हैं!" शशि के मुख से यही निकला और सूखे वृक्ष की तरह धड़ाम से पलंग पर गिर पड़े।

श्यामा यह सब देखकर अवाक् रह गयी। उसकी गोरी-गोरी उँगलियाँ बाजे के परदों पर पड़ी की पड़ी रह गयीं। उससे कुछ भी करते न बन पड़ा। अब भी उसकी छाती पर वही हार और माला सुशोभित थी।

श्यामा ने एकदम अपने को सम्भाला। तुरन्त पति के पास पहुंची। किसी प्रकार से कुछ मुस्कराहट भी उसके मुँह पर आ गयी। श्यामा ने समझा, प्यारे पति के दुःख में यह मुस्कराहट अच्छी औषधि होगी। ऐसे दुःख में सरला श्यामा को मुस्कराते देखकर शशि को हँसी आ गयी। उन्होंने चुपचाप श्यामा को पकड़कर छाती से लगा लिया। उनकी आँखों में दो बून्द आँसू छलछला आये।

श्यामा ने उन्हें ढाढ़स देकर सब हालचाल जानने को कोठी में भेजा। बाहर आते ही उन्हें एक तार अपने आढ़ती का मिला कि साढ़े सात लाख का बिल कल चार बजे तक अवश्य अदा करना पड़ेगा। शशि को काठ मार गया। वापस घर आकर चारपाई पर पड़ गये। अचानक इस दुःख को शशि सह न सके। उनका हृदय विदीर्ण होने लगा। एकाएक कुछ सोच वह उठ खड़े हुए। एक बार श्यामा ने रोकना चाहा, पर वह उन्मत्त की तरह चले ही गये।

कुछ सोचकर श्यामा ने एक जौहरी को बुलाया और अपने सारे जेवर साढ़े सात लाख में बेच डाले। एक छल्ला भी बाकी न छोड़ा। और वेश बदलकर स्वयं बैंक में जाकर साढ़े सात लाख का बिल चुका दिया। तब वह चुपचाप अपने घर आ बैठी। देखा शशि अभी नहीं लौटे हैं। वह अपने मित्रों से सहायता लेने निकले थे, पर कोई तो घर नहीं मिला, किसी का मिज़ाज ठीक नहीं था। मतलब यह कि निराश हो वह बैंकर के पास गये और कहा, “महाशय! कल मैं यह बिल किसी प्रकार अदा नहीं कर सकता!” बैंकर ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा और कहा, “महाशय, एक स्त्री आपका बिल चुका गयी है।”

“स्त्री चुका गयी?” शशि ने आश्चर्य से उसकी ओर देखकर पूछा, “हाँ महाशय! बिल चुक गया है।” शशि बाबू बड़े असमंजस में पड़े कि किसने ऐसा किया? श्यामा ने? इसी विचार में शशि घर आ रहे थे। द्वार पर पहुँचते-पहुँचते मुनीम उनको बुला कोठी में ले गया और एक तार देकर कहा, “ईश्वर का धन्य वाद है कि वे जहाज़ सिर्फ भटक गये थे। एक में कुछ हानि हुई है पर वह बीमा किया हुआ है। अब वे बम्बई पहुँच गये हैं और बंगाल बैंक के नाम से दस लाख का चेक है।” शशि ने अचकचाकर सब सुना। एक ही दिन में ऐसा परिवर्तन देख शशि पागल-से हो गये। धीरे-धीरे सम्भलकर घर आये। श्यामा तब भी धीरे-धीरे बाजा बजा रही थी।

धीरे-धीरे शशि श्यामा के पीछे जा खड़े हुए। उन्होंने श्यामा के मोढ़े पर हाथ रखकर कहा, “श्यामा! इधर आओ!” एक कोच पर दोनों बैठ गये। शशि ने श्यामा के दोनों हाथ पकड़कर कहा, “श्यामा! तुमने चोरी की है; बोलो सच्ची बात है न?” सरलता से श्यामा हँसकर बोली, “तुम्हारी बात कभी झूठ हो सकती है? हमने तुम्हें ही न चुराया है? इसी की सजा देने आये हो? अच्छा, क्या सजा दोगे, कहो!” “इधर आ पगली! बड़ी व्याख्याता हो गयी है।” कहकर शशि ने श्यामा को छाती से लगाकर दाब दिया। फिर उसको गोद में लिटाकर उसके बाल सुधारते हुए बोले, “अच्छा कहो, क्या सचमुच तुम ही ने बिल चुकाया है? कहाँ से चुकाया? बताना; रुपया कहाँ से मिला?”

बात सुनकर श्यामा पहले ताली बजाकर हँस पड़ी। फिर दोनों हाथों को शशि के गले में डालकर कहा, “मिलता कहाँ से। हमारे एक प्रेमी ने हमें गहने बनवा दिये थे, उन्हीं को बेचकर चुका दिया है।”

अचकचाकर शशि बोले, “अरे क्या, जेवर बेच दिया? इतना साहस? यह क्या सूझी? क्या माला और हार भी...?”

श्यामा, “दोनों अँगूठी भी।”

शशि की आँखों में पानी भर आया। वह उसे छाती से लगाये कुछ देर खड़े रहे। फिर, “किसे बेचा है” पूछकर बाहर आये। सीधे जौहरी के पास गये। उन जवाहरात को देखकर वह खुश हो रहा था। सचमुच बड़ा लाभ का माल था। तभी शशि पहुँच गये। कुछ मुनाफा देकर सब वापस ले लिया और घर आकर श्यामा के गले में अपने हाथ से जेवर पहनाकर कहा, “पगली! ऐसे अमूल्य जेवर तने कैसी बेरहमी से बेच दिये?” श्यामा ने दोनों हाथ पति के गले में डालकर आँखों में आँखें भरकर कुछ शर्म से अपने सिर को पति की छाती पर टेककर कहा, “प्यारे पति से बढ़कर स्त्री के लिए और कौन-सा आभूषण है?”

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