सात झोंपड़ियों की कथा : खासी/मेघालय की लोक-कथा

Saat Jhompadiyon Ki Katha : Lok-Katha (Khasi/Meghalaya)

सृष्टि के आरंभ में यह पूरी पृथ्वी निर्जन थी। इसे जीवन से सज्जित करने के लिए ईश्वर ने प्रारंभ में दो जीवों—रामेव नामक स्त्री और बासा नामक पुरुष की रचना की। दोनों ही इस पृथ्वी पर अत्यंत सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे। पूरी पृथ्वी अपार सुख-संपदा से संपन्न थी और दोनों आनंद-भोग में पूरी तरह निमग्न थे। कुछ समय पश्चात् दोनों को यह महसूस हुआ कि यह जीवन एक ही तरह का तथा एकरस होता जा रहा है। उन्हें महसूस हुआ कि अगर उन्हें एक संतान प्राप्त हो जाए तो पृथ्वी पर उपलब्ध सभी सुख-साधनों का बेहतर इस्तेमाल हो पाएगा और उनकी वंश-वृद्धि भी हो सकेगी।

यह सोचकर दोनों ऊ ब्लेई (ईश्वर) के पास गए और उनसे संतान के लिए प्रार्थना की। उन्होंने निवेदन किया कि “हे प्रभु! आप सर्वसमर्थ हैं। यह पूरी पृथ्वी आप की बनाई हुई है, जिसका भोग करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। इतनी समृद्धि, इतना ऐश्वर्य सबकुछ व्यर्थ पड़ा हुआ है। हम अकेले एक ही तरह की जिंदगी जीते-जीते ऊब चुके हैं, अतः आपसे निवेदन है कि अगर हमें आप संतान प्रदान करें तो कालांतर में यह पृथ्वी ढेर सारे जीवों से युक्त हो जाएगी और आप द्वारा प्रदत्त इस पृथ्वी की समृद्धि का बेहतर उपयोग संभव हो पाएगा।”

ईश्वर से निरंतर प्रार्थना करने के पश्चात् अंत में ईश्वर ने उन्हें अलौकिक शक्ति से संपन्न पाँच संतानें प्रदान कीं, जिन्हें आज लोग ‘पंच-तत्त्व’ या ‘पंचमहाभूत’ के रूप में जानते हैं। सूर्य उनकी पहली पुत्री थी, जबकि चंद्रमा उनका एकमात्र पुत्र। तीन दूसरी पुत्रियाँ थीं—जल, वायु और अग्नि। पेटपोछना संतान के रूप में अग्नि सबसे अंत में उत्पन्न हुई, जिससे यह उम्मीद की जाती थी कि वह निरंतर घर में रहेगी और परिवार के अन्य सदस्यों के लिए भोजन इत्यादि की व्यवस्था करेगी।

रामेव अपनी संतानों को बड़ा होते देख खूब प्रसन्न थी। विशेष तौर पर जब वह देखती थी कि उसकी संतानें इस पृथ्वी को नए रूप में सुसज्जित करने के लिए निरंतर प्रयास कर रही हैं, तब उसकी प्रसन्नता अतिशय बढ़ जाती थी। चारों ओर नए-नए वृक्षों और फूलों की सज्जा को देखकर उसका मन विभोर हो उठता था, परंतु इन सबके बावजूद उसके मन में कुछ पीड़ा अब भी विद्यमान थी। उसे लगता था कि कुछ और होना चाहिए, जिससे यह निर्जनता, यह एकांत भंग हो, क्योंकि जो कुछ किया जा रहा था, उससे किसी को विशेष लाभ नहीं मिल पा रहा था।

यह सब सोचते हुए रामेव एक बार फिर अपने देवता ऊ ब्लेई के पास गई और उनसे पुनः निवेदन किया, “हे परमात्मा! आपने हमें जीवन दिया है। आप ही हमारे जीवन के पालनहार हैं, अगर हमसे कोई अपराध हुआ हो तो कृपया हमें माफ करें। निश्चित रूप से अपनी संतानों को इतना शक्तिशाली और कर्मठ देखकर हमें अत्यंत गर्व महसूस होता है। उन्होंने इस पृथ्वी को अत्यंत सुंदर बना दिया है। चारों ओर सुख-शांति विद्यमान है। ढेर सारे फल-फूलों से यह पूरी पृथ्वी भरी हुई है, लेकिन इतनी समृद्धि का कोई लाभ किसी को नहीं मिल पा रहा है। इतना सबकुछ करने के बावजूद इसका भोग करनेवाला कोई नहीं है। हे प्रभु! आपने मेरी संतानों को अलौकिक शक्तियों से संपन्न किया है, परंतु वे अपने परिश्रम से उत्पन्न समृद्धि का सही उपयोग न होते देख बहुत दुःखी हैं। सूर्य और चंद्रमा तो अपने निर्धारित कार्यों को संपन्न करने हेतु इस पृथ्वी की परिक्रमा करने में ही लगे हुए हैं। पानी की अपनी सीमा है और वह इस पृथ्वी पर निर्बाध रूप से विचरण नहीं कर सकता। हवा भी अपना पूरा खयाल नहीं रख सकती और न ही यह अग्नि। हे ईश्वर! हमें कुछ ऐसे लोगों की जरूरत है, जो इन संतानों के वारिस बन सकें और इनके द्वारा बनाई हुई पृथ्वी की देखभाल कर सकें। जिससे यह पृथ्वी आगे भी इसी तरह सुचारु रूप से बढ़ सके।

ईश्वर रामेव के मन की इच्छा को समझ चुका था। वह उसके संतानों के कठोर परिश्रम और पृथ्वी को सज्जित करने के प्रयासों को जानता था। उसे मालूम था कि इन लोगों ने अपने परिश्रम से इस पृथ्वी को जीवन के लिए बहुत बेहतर स्थान बनाया है। उसने रामेव से उसकी इच्छा पूरी करने का वादा किया।

उसने दो शक्तिशाली पर्वतों की आत्मा को पृथ्वी की सुरक्षा की जिम्मेदारी दे दी, लेकिन तमाम दूसरे जीवों के हितों की परवाह न करके ये छोटे-छोटे जीव आपस में अपने लाभ के लिए संघर्ष करने लगे। उनमें आपस में खींचातानी होने लगी, जिसका परिणाम आपसी लड़ाई और युद्ध के रूप में दिखाई देने लगा। रामेव ने पर्वत देवों के खिलाफ ईश्वर से शिकायत की। उनकी बात सुनकर ईश्वर ने पृथ्वी की सुरक्षा की जिम्मेदारी जानवरों को सौंप दी, जिसमें शेर प्रधान था, लेकिन यह युक्ति भी कारगर नहीं हो सकी, क्योंकि समय बीतने के साथ शेर स्वयं शासकों की तरह व्यवहार करने लगा और शक्ति से अंधा होकर लोगों को सताने लगा।

जब परिस्थितियाँ बहुत बिगड़ गईं और नियंत्रण से बाहर जाने लगीं तो चारों ओर अफरा-तफरी मच गई। किसी का किसी पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया। यह सब देखकर रामेव एक बार पुनः ईश्वर के सामने गई और प्रार्थना की कि वह लोगों को सद्बुद्धि दें, जिससे उनका आपसी कलह दूर हो सके और यह पृथ्वी दुःख के अभिशाप से मुक्त हो सके।

ईश्वर ने रामेव की प्रार्थना को बहुत गौर से सुना और इस निर्णय पर पहुँचा कि स्वर्ग में रहनेवाले सोलह परिवार पृथ्वी की इस जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। उसने स्वर्ग में रहनेवाले इन सोलह परिवारों को इस पर विचार करने के लिए कहा। अंत में यह निर्णय किया गया कि स्वर्ग में रहनेवाले सोलह परिवारों में से सात परिवार पृथ्वी पर जाएँगे। वे पृथ्वी को जोतेंगे, बोएँगे, उसे विभिन्न सुख संपदाओं से युक्त करेंगे और समस्त जीवों पर अपना शासन कायम करेंगे। इन सात परिवारों को ‘हेन्नेव ट्रेप’, यानी सात झोंपड़ियों के नाम से जाना जाएगा और इन्हीं से सात अलग-अलग वंशों का विकास होगा। ये सब परिवार ही कालांतर में खासियों के सात वंश बने।

ईश्वर, जिसने इस पृथ्वी को धन-धान्य से संपन्न किया था, रामेव और उसकी संतानों के माध्यम से मिट्टी को अत्यंत उर्वर बना दिया। परिणामस्वरूप पूरी पृथ्वी फल-फूलों से भर गई। इसके बाद उसने इन सात झोंपड़ियों के बीच एक समझौता कराया, जिसके तहत ईश्वर ने एक पवित्र वृक्ष लुम सोहपेतब्नेंग नामक पवित्र पर्वत पर स्थापित किया। यह पवित्र वृक्ष ईश्वर और मनुष्य के राज्य के बीच एक सोने की सीढ़ी की तरह कार्य कर रहा था। ईश्वर और मनुष्य के बीच हुए समझौते में यह बात कही गई थी, वे जब तक ईश्वर और मनुष्य के बीच इस सोने की सीढ़ी के समझौते की बात गोपनीय रखेंगे, तब तक यह इसी तरह कायम रहेगी, जब तक वे इस पृथ्वी पर पूरी ईमानदारी और सत्यतापूर्वक आजीविका प्राप्त करेंगे, तब तक वे अपने को कभी भी अकेला महसूस नहीं करेंगे, बल्कि वे जब चाहे स्वर्ग और पृथ्वी के बीच उसी सुनहरी सीढ़ी के माध्यम से आवागमन कर सकेंगे। जो वृक्ष लुम सोहपेतब्नेंग में स्थित है, वही पृथ्वी का केंद्र है।

दुनिया में सबकुछ ठीक चल रहा था और जब तक मनुष्य ईश्वर की अनुकंपा और उसके आदेशों का पालन करता रहा, उसका जीवन हर प्रकार के सुखों से आच्छादित था और उस पर दुःख की छाया भी नहीं पड़ती थी। उसका जीवन अत्यंत सुख से व्यतीत हो रहा था, लेकिन मनुष्य केवल इतने से ही संतुष्ट रहनेवाला जीव नहीं था। सबकुछ होने के बावजूद उसके भीतर कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ मौजूद थीं, जो उसे कुछ नया करने के लिए प्रेरित करती थीं। धीरे-धीरे मनुष्य ईश्वर का आदेश मानते मानते ऊब गया और वह अब कुछ नया करने की सोचने लगा। वह अपने जीवन को अपने ढंग से स्वतंत्रतापूर्वक जीना चाहता था। इस प्रकार वह अपनी रुचि के अनुसार तथा ईश्वर की मरजी के प्रतिकूल निर्णय लेने लगा। परिणामस्वरूप ईश्वर को दिए गए तीनों वचनों से वह स्खलित हो गया और उसके मन में बैठे लालच ने उसे गलत कार्य करने के लिए प्रेरित किया। वह अपने को अधिक शक्तिशाली और दूसरों को अपने से कमजोर समझने लगा।

अपनी इसी हवस के कारण उसमें अधिकार की वृत्ति पैदा हुई और वह दूसरों के जीवन में भी हस्तक्षेप करने लगा। इस क्रम में दूसरों को ठगना, धोखा देना, चोरी करना तथा हत्या तक का अपराध करने में उसे कुछ भी बुरा प्रतीत नहीं होता था। मनुष्य मनुष्य का सम्मान करना भूल गया। धन और प्रभुता की हवस ने उसे पूरी तरह से मानवीय गुणों से वंचित कर दिया। ईश्वर मनुष्य की अवनति को देखकर अत्यंत दुःखी था। वह परेशान था कि मनुष्य ने अपराध का रास्ता अपनाकर उसके साथ रखी गई शर्तों का उल्लंघन किया है, अब क्योंकि मनुष्य को ठीक करना संभव नहीं था, इसलिए ईश्वर ने निर्णय लिया कि मनुष्य और स्वर्ग के बीच जो सुनहरी सीढ़ी उसने स्वर्ग में जाने के लिए लगाई है, अब उसे हमेशा के लिए बंद कर दिया जाए। इस प्रकार स्वर्ग में रहनेवाले नौ परिवारों के लोग जहाँ निरंतर ईश्वर की अनुकंपा प्राप्त करते रहे, वहीं पृथ्वी पर निवास करनेवाले सात परिवार ईश्वर की कृपा से वंचित हो गए। उनका जीवन तमाम तरह की समस्याओं और दुःखों से घिर गया।

मनुष्य से अपनी नाराजगी को प्रकट करने के लिए ईश्वर ने एक अन्य वृक्ष बनाया, जिसे उसने एक दूसरे पर्वत पर स्थापित किया। यह वृक्ष दिन-प्रति-दिन लगातार बढ़ने लगा। इसकी बढ़ती हुई डालियों ने पूरी पृथ्वी को आच्छादित कर डाला। चारों ओर घनघोर अँधेरा व्याप्त हो गया। इस अंधकार उत्पन्न करनेवाले वृक्ष को दियेन्ग्येइ कहा गया, जिसका अर्थ है—‘दुःख का वृक्ष’। इसके कारण खेतों में खड़ी फसलें मुरझा गईं और सभी वनस्पतियों के अस्तित्व पर संकट मँडराने लगा। परिणामस्वरूप मनुष्य तमाम तरह की विपत्तियों का शिकार होने लगा और जंगली जानवर उस पर आक्रमण करने लगे।

मनुष्य का जीवन बदहवासी से भर गया, लेकिन जैसा कि मनुष्य की आदत होती है, वह अपने दोषों को नहीं देखता, बल्कि भरसक उसे छुपाने की कोशिश करता है। वह ईश्वर के प्रति क्षमायाचना करने के स्थान पर अहंकारपूर्वक नई-नई युक्तियों की सहायता लेने लगा। अपनी इन्हीं प्रवृत्तियों के वशीभूत होकर उसने लोगों की एक बड़ी सभा बुलाई, जिसमें इन सातों परिवारों के प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित किया गया। आपस में विचार-विमर्श करके जल्दीबाजी में यह निर्णय लिया गया कि सब लोग दियेन्ग्येइ नामक वृक्ष को मिलकर काट डालेंगे, जो उस समय तक बहुत विशाल हो चुका था। यह निर्णय सुनाते हुए उस सभा में घोषणा की गई कि हम नहीं जानते कि इस भयंकर अँधेरे का कारण क्या है और न ही हमें इसके बारे में कुछ विशेष पता है। हम यह भी नहीं जानते कि यह दियेन्ग्येइ वृक्ष इतना विशाल कैसे हो गया। हम इसके कारण को तुरंत जानना भी नहीं चाहते, परंतु हम इतना अवश्य चाहते हैं कि इस वृक्ष के विस्तार को तुरंत रोक दिया जाए। इसके लिए इस दुःख देने वाले वृक्ष को नष्ट करना अत्यंत आवश्यक है, अगर ऐसा नहीं होगा तो वह दिन दूर नहीं, जब पूरी पृथ्वी अंधकार से भर जाएगी और हमारा जीवन समाप्त हो जाएगा। इसके लिए आवश्यक है कि प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति धारदार औजार लेकर उपस्थित हो और तत्काल इस वृक्ष को काट-छाँटकर इसे समाप्त कर दिया जाए।

लोगों ने इस योजना के प्रति अपनी सहमति प्रकट की और एक बहुत बड़ा समुदाय वृक्ष को काटने के लिए उपस्थित हो गया। लोग सुबह से शाम तक इस वृक्ष को काटने लगे, लेकिन लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अगले दिन सुबह वृक्ष फिर उसी प्रकार हो गया, जैसा वह पहले था। लोगों को लगने लगा मानो इस वृक्ष की ऊँचाई अब कभी कम नहीं होगी। लोग परेशान थे और उन्हें कुछ भी नहीं सूझ नहीं रहा था। उन्हें लग रहा था कि इस वृक्ष में अपने घाव को भरने की जादुई शक्ति है, जब वे परिश्रम करते करते थक-हारकर बैठ गए, उसी समय रेन नामक एक छोटी सी चिड़िया खेतों की ओर से उड़ती हुई आई। उस ने जब मनुष्य को इतना परेशान और दुःखी देखा तो उसे इसके कारण को जानने की उत्सुकता हुई, जब उसे मालूम हुआ कि सभी लोग दियेन्ग्येइ के विस्तार से परेशान हैं और उसे काटना चाहते हैं तो उसने कहा, “दियेन्ग्येइ बहुत तेजी से बड़ा तो सकता है, लेकिन वह अपने घाव को अपने आप नहीं भर सकता, जैसा आप लोग सोच रहे हैं। मैं इसका राज जानती हूँ, लेकिन इसके बदले में मैं केवल इतना चाहती हूँ कि मुझे धान के खेत में निर्बाध दाना चुगने दिया जाए।” लोग दियेन्ग्येइ के बढ़ने से इतना परेशान थे कि उन्होंने चिड़िया की शर्त को मान लिया।

उस छोटी चिड़िया ने बताया कि यह पेड़, जो रातोंरात भर जाता है, उसका कारण यह है कि रात में एक शेर आकर इसके कटे हुए हिस्से को चाटता है। परिणामस्वरूप इस पेड़ का घाव भर जाता है और वह पुनः उसी प्रकार का हो जाता है, जैसा पहले था। उस छोटी चिड़िया ने लोगों को सलाह दी कि वे दिन भर वृक्ष के जिस भाग को काटें, वहाँ काँटेदार छुरी और तेज हथियार गाड़ दें, जिससे रात के अँधेरे में वृक्ष को चाटते समय शेर की जीभ कट जाए। इस रहस्योद्घाटन से उत्साहित होकर लोगों ने ठीक वैसा ही किया, जैसा उस छोटी रेन चिड़िया ने कहा था। अगले दिन सुबह लोगों ने देखा कि जहाँ उन्होंने पेड़ काटे थे, वहाँ खून के बड़े-बड़े धब्बे थे और वह वृक्ष जरा भी बढ़ नहीं सका था। उसके बाद शेर वहाँ फिर कभी नहीं आया और दियेन्ग्येइ भी हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो गया। लोगों ने मुक्ति की साँस ली। शर्त के मुताबिक आज भी वह छोटी रेन चिड़िया धान के खेतों में निर्बाध दाना चुगती है।

(साभार : माधवेंद्र/श्रुति)

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