सास-बहू, भरवां करेले और नकचढी मूर्ति की कथा : मृणाल पाण्डे

Saas-Bahu Bharvan Karele Aur Nakchadhi Murti Ki Katha : Mrinal Pande

बहुत दिन हुए, एक पहाड़ की चोटी पर एक गाँव था। गांव जैसा गाँव, कुछेक परिवार, खेत, ढोर-डंगर, एक देवी का मंदिर एक कुआं। खास बात बस यह थी कि यह मंदिर तलहटी में फैले राज के राजा की कुलदेवी का थान भी था।

अब राजे महाराजे बार बार जो क्या पहाड़ चढेंगे? राजाजी के दरबार से इसकी देखभाल के लिये नियमित वजीफा तो आता था। लेकिन खुद उनके चरण गांव में साल में तीन बार पड़ते थे। एक बार छ: गते आषाढ़ के दिन, जब वे अपने हाथों से धान की रोपनी का उद्घाटन करते थे। और दो बार नवरात्रि में।

राजा तो राजा। रंगीन मंगीन पगड़ी पहिन कर वे बड़े तामझाम सहित आते। साथ में उनके कई कई सेवक लोग रोट- भेंट, षोडषोपचार पूजा की सामग्री लाते। मंदिर की परक्रमा कर राजाजी देवी को साष्टांग दंडवत् करते, फिर पुजारी जी के साथ गर्भगृह में भीतर पधार कर देवी की पूजा अर्चना करते। राजा जी की टोली के साथ दरबारियों, राजा को मुख दिखाने को उत्सुक राजभक्त व्यापारियो-सेठों और शहर के लोगों की भीड़ भी पहाड़ पर आ जुटती थी। हर राजकीय जात्रा के समय गाँव के पास मंदिर के सामने चर्रखचूं झूलों सहित मेला भरता, जलेबियाँ छनतीं, चुनरियों के व्यापारी आते और गांववाले भी टिकुली बिंदी, कंघी, परसाद आदि बेच कर चार पैसे कमा लेते। बस।

बाकी बरस गांव और मंदिर। किसान और पुजारी। सासें और बहुएं।

इस गांव में स्त्रियां तो और भी थीं, पर यह कथा तो एक खास सास बहू की है जो पुजारी जी के घर की थीं। सास बड़ी जब्बर थी। उसका बेटा तो परदेस में नौकरी करता था। वह कभी कभार ही आ पाता। आता भी तो सास उसको देर तक अपने साथ बतकही में उलझाये रखती। बेचारी बहू किवाड़ की ओट में इंतज़ार करती कई बार थक कर सो जाती।

सास की ऐंठ इस बात से थी कि एक तो वह बेटे की मां थी, दूसरे उसका पति राजा की कुलदेवी के मंदिर का पुजारी था। वह ठसक से रहती और उसके घर में सब पर उसी का हुकुम चलता था। चौके का बाकी सारा काम बहू करती, लेकिन सास ही पकाती। फिर वही सबको अपनी मर्ज़ी के हिसाब से खिलाती। पुजारी जी जो कुछ चढावा-सीधा पाते भी, सब उसके हाथ में धर देते थे। बहू गरीब घर की बिन माँ की छांट कर लाई थी सास ताकि वह दिन भर खटे, पर तीज त्योहार पर भी कहीं जा न सके। उसकी सुबह चक्की पीसने से शुरू होती। फिर वह मंदिर के पास के कुएँ से पानी लाती। फिर ढोर डंगरों की सानी पानी, दूध दुहना, यह सब चलता। दूध वह दुह कर रख देती थी पर उसे नाप कर सास ही उबालती, जमाती, मथती और मक्खन के बड़े से गोले को भंडार में छींके पर धर कर वहाँ ताला मार देती।

दोपहर में सास मक्खन मार कर दाल में तड़का लगाकर पति और अपने भात में भी खूब मक्खन डालती। फिर पति जी को खिला कर मक्खन वाला हिस्सा खुद खा लेती। कमर पकड़ कर ऐसे उटती जैसे सारा काम उसीने किया हो। उफ कमर टूट गई, वह रोज़ कहती। फिर जाते जाते भी भूखी बहू से कह जाती, ‘तेरा हिस्सा पतीलों में धरा है, चटपट खा के, बरतन साफ करके मेरे पैर दबा जइयो। सुबह से काम करते हाथ गोड़ पिरा रहे हैं।’

बहू देखती तो पतीलों में अक्सर उसके नाम मुट्ठी भर सूखा भात और आधी कड़छी जितना साग ही बचा होता। वह बिना शिकायत खा कर जैसा कहा गया करती रहती। शिकायत किससे करे?

दोपहर में पान खा कर पुजारी जी तो पत्रा बगल में दाब कर गांव के चबूतरे पर गप्प शटाक करने, तिथि त्योहारों की खबर देने और हुक्के की चार कश मारने जा बैठते। शाम गये लौटते फिर दिन ढले रात की आरती को मंदिर जाते। पूजा निबठा कर मंदिर के किवाड भिड़ा कर वे ठीक खाने के टैम ही वापिस आते। सास ससुर जीम लेते तभी रात को भी बहू सबके बाद बचा खुचा खाना खाकर बरतन मलती और अपनी पतली सी दुलइया में चुपचाप पहुंड रहती।

गरीब घर की इकलौती थी, माँ या भाई नहीं थे। मैके भी जाती तो कैसे? कोई बुलानेवाला भी होना चाहिये न? कहते ही हैं, ‘माँ तक मायका भाई तक दहेज, वो भी अगर भाभी का कलेजा।’

ऐसे ही चल रहा था।

पर कहते हैं न कि सौ दिन सास के एक दिन बहू का। एक दिन बहू के भी भाग जगे। उसकी सास अखंड किसम का कोई पाठ सुनने गांव की बुज़ुर्ग औरतों के साथ दिन भर को नीचे शहर चली गईं। उस दिन पंडिज्जी का खाना बहू को ही बनाना था। इसलिये सास जी को जी मार कर कुछ मक्खन भी भंडार के बाहिर छोडना पड़ा। कह गईं, दाल-चावल मटकिया में धरो है, दो- दो मुट्ठी निकालियो, बाड़ी में करेले फले हैं उनकी भाजी बना लीजो।’

बहू ने सर झुकाये झुकाये कहा, ‘जी।’

सास की पीठ फिरते ही चकरघिन्नी बन कर बहू ने फटाफट सारे काम निबटाये, और पतीली भर भर कर दाल-भात पकाया और उसमें खूब सारा मक्खन डाला। फिर ताज़ा करेलों को खुरचा और नमक लगा कर धर दिया। फिर भरवां मसाला तैयार किया: दू लाल मिरच के साथ हींग-ज़ीरा, राई-कलौंजी सौंफ ताज़ा पिसा हल्दी धनिया। फिर करेले धोकर उनका पेट काटा और मसाला भर कर अपनी मनमुताबिक लाजवाब चटपटे भरवाँ करेले बनाये। दोपहर में पुजारी घर जी आये। हमेशा की तरह उनने नहा धो कर खाया, फिर दंतखुदनी से दांत खोदते बाहर चले गये।

ससुर के आंख से ओझल होने पर बहू ने तुरत पतीलियों से ढेर सारा दाल भात और भरवां करेले निकाल कर उनको केले के पत्ते में लपेट कर अपनी पानी की कलसिया में छुपा कर धर लिया। फिर वह पानी लाने के बहाने मंदिर की तरफ निकल गई। वह जानती थी कि मंदिर गांव के बाहर था और दोपहर में निर्जन रहता था। लोग कहते थे देवी से मिलने कई बार एक बाघ वहाँ आता था। औरतें वहाँ जाने से डरती थीं जब तक कोई साथ न हो।

बहू को सास का डर था। बाघ का कोई डर न था। उसके नथुने ताज़ा बने भरवां करेलों खुशबू से फड़क रहे थे।

मंदिर के भीतर जा कर बहू ने कुंडी चढाई और दोनों टाँगें फैला कर गबागब भात दाल और भरवां करेले खाने लगी । भरपेट खा कर वह कलसी उठाने को थी कि क्या देखती है, कि सतर खडी देवी की मूरत अचानक त्रिभंगी मुद्रा में हो गई है। और यही नहीं, उसने मंदिर के भीतर किसी की भात दाल भाजी खाने की धृष्ठता देख कर अपनी नाक सिकोड़ कर उस पर उंगली भी धर ली है।

बहू को क्या? कई महीनों बाद आज उसने मन भरके खाया था। वह तृप्त थी। किसी को क्या पता चलेगा? सोच कर उसने दरवाज़ा भिड़ाया और कुएं पर हाथ पैर धो कर पानी भर कर घर चली गई।

शाम को पुजारी जी जब आरती करने मंदिर पहुंचे तो देवी की मूरत को नई मुद्रा में नाक चढाये उस पर उंगली रखे देख कर उनको गश आ गया। गिरते पडते वह घर पहुंचे और फिर बिन खाये, किसी तीर की तरह जाकर गांव में सबको बाहर बुला कर यह बताया। फिर वे आगे आगे, और उनके पीछे सारा गाँव मंदिर की तरफ उमड चला। सास बहू भी संग।

हाय अब क्या होगा? सबने कहा। जरूर कोई आपदा आनेवाली है। ‘हे देवी,’ वे गिडगिडाये, ‘तू कोप न कर! तू हमारी माता है। हमारे लिये तो तू ही पुरखों के टैम से दूध का दूध पाणी का पाणी करती आई है। हम तेरे नाम धूप बाती करेंगे। चार दिन बाद नौरात्रि में रोज नौ दिन तलक हम सब तुझे फूल पाती रोट भेंट चढायेंगे। इस बार तेरे लिये एक का इक्कीस, पांच का पचीस करेंगे।’

मूर्ति जस की तस खड़ी रही। नाक चढाये, नाक की नोंक पर उंगली धरे, टेढी।

अब?

परधान बोला ये तो अनर्थ हो गया रे! ये ऐसी वैसी नहीं, राजाजी की कुलदेवी है। चार दिन बाद वे पधार कर ये देखेंगे तो कहेंगे कि ‘तुम लोगों ने कुलदेवी को कुपित किया है, अब दंड भुगतो! देखते देखते गाँव उजाड़ के, घरों के बरतन बासन, खेत की खड़ी फसल सब उखाड ले जायेंगे राजा के कारिंदे!’

परधान की बात सुन कर पुजारी समेत सब मरदों के हाथ से तोते उड़ गये। औरतें बच्चे डर से भैं-भैं कर रोने लगे।

कुछ देर बाद जब रोना सुबकियों में बदल गया, तब सर पर आंचल रखे सास वाली बहू हाथ में कलसी लिये सामने आई। सब उसे अचरज से देखने लगे। उनके गांव में सासें बहुओं का कभी सबके सामने बोलना तो दूर, खडा होना भी उचित नहीं मानती थीं। ऐसी मुंहजोर बहू को तो वे सीधे जो हाथ पड़ा, झाडू, फुंकनी या पतीला फेंक मारतीं।

बहू मंद लेकिन साफ सुर में बोली, ‘आप सबको नमस्कार। मैं भी पुजारी के घर की लड़की हूं। गरीब सही पर मेरे बाप ने मुझे एक मंतर दिया था जिससे रूठी से रूठी देवी को भी मना सकते हैं। आप सबकी आज्ञा हो, तो आप सब मुझे मेरी कलसी में पानी भर कर रात भर को मंदिर के भीतर साँकल लगा कर एकदम अकेली रहने दें। मैं मंतर पढ कर सुबह तक देवी को मना लूंगी।’

सब एक दूसरे को ताकने लगे। थी तो दो बित्ते की, बिन मायके, बिन दहेज की बहू ही। तिस पर औरत जात! अरे उसकी औकात ही क्या थी?

लेकिन और चारा भी क्या था? राजा के दंड का डर पुरानी रीत रिवाज़ पर भारी पड़ा। मरता क्या न करता? सास ससुर, परधान सब ने हामी भर दी और बहू को उसकी कलसी के साथ अकेली छोड कर खुद गांव वापिस चले गये। अब शेर बाघ जो आये उससे उनको क्या? खुदै निबटेगी। उसकी सास ने सोचा।

बहू ने घर से कलसी लाकर उसमें पानी भरा और मंदिर में घुस कर दरवाज़े की कुंडी चढा ली। फिर वह देवी की मूरत के सामने जा खडी हुई और बोली:

‘ओ देवी, देख सौ बात की एक बात ये कि मैं भी औरत, तू भी औरत।

‘तू जानती है, हम लोगों की जिनगानी कैसी होती है। सारा काम हम करती हैं, पर जिमीन जायदाद, जस या रुपै पैसे के नाम पर अंडा!

‘खुद ही सोच, तुझे भी तो डर कर देवताओं ने न जाने कितनी बार कैसे कैसे भयंकर राक्षसों के वध को बार बार बुलाया है। पर जैसे ही उस भयानक राक्षस को तूने मार डाला, तो डर से छुपे सारे देवता सामने आ कर तुझको कहते हैं, ‘हे सुरेश्वरि गच्छ, गच्छ। घर जाओ, तुम्हारा काम खतम हुआ, हम राजकाज संभाल सकते हैं। है कि नहीं? तो जब मुझे तुझसे इतनी ममता है, तो तुझको मुझ सास की सताई बहू पर नाराज़ी कैसी?

‘अरे जब इसी कुल के एक राजा ने अपनी सात फेरे लेकर ब्याही हुई रानी को, सिर्फ एक धोबी के मुख से अफवाह सुन कर बिन गोड़े खेत की तरह छोड़ कर उसके मायके भिजवा दिया, तब तो तू टेढी नहीं हुई?

‘जब उस राजा के दंडाधिकारी ने रोती बिलखती रानी के वापिस जाते बखत रोती औरतों को देख कर खुले आम कहा कि वह मनचली होने का दंड भुगतेगी। ‘उस औरत’ की औकात ही क्या है कि वो हमारे राजाजी पर उंगली उठाये?’

‘बोल तब भी तुझको कोई हैरत हुई क्या? नहीं न?

‘अब मुझ सदा अधपेट खाना पाने वाली गरीबनी ने अगर एक दिन मैके जैसे तेरे गर्भगृह में बैठ कर सालों बाद चैन से अपना ही राँधा खाना भरपेट खाया, तो तूने ऐसा नाटक कर दिया?

‘सो हटा अपनी उंगली, और सीधी हो जा, वरना मैं जो शेर वेर से भी नहीं डरती, कसम से कहती हूं कि अपनी ये कलसी सीधे तेरे मुंह पर मार कर तेरी नाक तोड़ दूंगी। समझी?’

मूर्ति सकपका कर यथावत हो गई। बहू मटकती हुई कलसी लिये घर आई और सो गई।

सुबह पुजारी जी ने मंदिर के किवाड़ खोले तो जोर से ‘जैमाता दी’, चिल्लाते हुए गांव को खबर देने भागे आये। और फिर तुरत सब गाँववाले देवी के थान जा पहुंचे जहां मूरत पहले जैसी अभय मुद्रा में मुस्कुरा रही थी। तुरत पुजारी जी और राजाजी की जय के नारे लगने लगे। शंख बजा, घंट बजे। सास ने पति की बलिहारी ली।

इस बीच किसी ने न देखा कि कलसा लिये आई बहू चुपचाप पानी भर कर खिसक ली। उसे अभी सानी पानी और ढोर दंगरों के हज़ारों काम करने थे। इस सब चक्कर में पड़ी तो कजरी का बछड़ा दूध पी जायेगा, धौरी भी भूख से रंभाती होगी उसने सोचा।

अब बच्चो, ये बताओ, कि इतने नारे पुजारी के नाम, राजाजी के नाम माताराणी के नाम लगे, पर एक भी नारा उस वीर बहू के नाम काहे नहीं लगा?

जो बूझा दे ऊ सच्चा ज्ञानी, जो बूझ न सके, वो मेरे घर भरे पानी!