रेखाएँ : वृत्तचक्र : फणीश्वरनाथ रेणु

Rekhayen : Vritchakra : Phanishwar Nath Renu

ऊँहूँ। नहीं, यह सबकुछ भी नहीं सोचूँगा।

मुझे ऐसा कुछ भी नहीं सोचना चाहिए, जिससे कि मेरा दिल कमजोर पड़ जाए।

मेरा घाव जल्दी ही भर जाएगा, मैं चंगा हों जाऊँगा। मैं भी कैसा हूँ!

मरने से डरता हूँ!

मरने की बात सोचते ही जी कैंसा-कैसा करने लगता है।

बहुत कमजोर हो गया हूँ न, इसलिए, फौजी होने का मतलब यह नहीं है कि वह मरने की बात सोचकर नाच उठे। उस दिन डॉक्टर ने खूब कहा, “कैप्टेन, कुछ फिकर मत करो। फर्ज करो कि तुम एक भेड़िए के मुँह में पड़े हुए हिरण के बच्चे को बचाने के सिलसिले में जरा घायल हो गए हो। बस...भेड़िए के मुँह से हिरण के बच्चे को छुड़ाने के सिलसिले में!

हिरण के बव्चे की कल्पना करते ही मेरी आँखों के आगे 'शकुन्तला” फिल्म दौड़ जाती है। शकुन्दगा-जयश्री, हिरण का बच्चा। जयश्री, शान्ताराम! डॉ. कोटनीस की अमर कहानी बड़ी अच्छी तस्वीर है...अच्छा, यदि मैं इस अस्पताल में मर गया तो...तो क्या मेरी कहानी भी हर लब पर होगी! फिल्म बनेगी? फिल्म का नाम होगा-“कैप्टेन सिन्हा !

न, यह तो कॉपी हो जाएगी। अच्छा होगा-'कश्मीर की घाटी में” सुनने में जरा रोमांटिक भी मालूम होगा। बड़े-बड़े पोस्टरों पर लिखा जाएगा-“कश्मीर की घाटी में'-एक ऐसे कैप्टेन की कहानी जिसने राष्ट्रीय सरकार की इज्जत बचाने के लिए अपनी जान दे दी...कहानी शुद्ध करने में जरा दिक्कत होगी डायरेक्टरों को।

दिखाएगा मेरी जिन्दगी का प्रथम अध्याय-मेरा गाँव। एक गाँव, जो वास्तव में होगा बम्बई के आसंपास के किसी गाँव का हिस्सा अथवा स्टूडियो का कोई कोना।

दूर-बिहार के पूर्वी अंचल, पूर्णिया जिले में क्‍यों जाएँगे...इसके बाद आवारागर्दी, पढ़ा-लिखा बेकार और एक जानकार गरीब। गरीबों की दुनिया में मुहब्बत। ज्योत्स्ना के प्रति मेरी तुकबन्दियों को कलापूर्ण कविताओं की संज्ञा दी जाएगी-शायद। मेरी कोई कविता तो मिल नहीं सकेगी उन्हें। बना लेंगे लोग...ठंडी साँसें बुलबुल, मीठी : नींद, सपने और चाँदनी रातें आदि शब्दों से भरे हुए कुछ गीत। तर्ज तो होगा-यही... आजकल का पंजाबी...नायक कौन होगा? पी. जयराम ठीक है। नहीं, वह मोटा है। तो फिर?...एक बार आईने में अपना चेहरा देखने को जी करता है...कोई भी हो नायक । दृश्य होगा-बेकारी से ऊबकर, बाल बिखराए हुए, अजीब सूरत में रिक्रूटिंग ऑफिस में!

फिर लड़ाई के मोर्चे, तमगे, तरक्की,-कैप्टेन! नायिका-ज्योत्स्ना कौन बनेगी? कहीं बेगम पारा हई तो सब गुड़गोबर। ज्योत्स्ना ही शायद उतरे।

नहीं वह नहीं उतरेगी । शायद, अपने 'नाम' की आज्ञा भी न देगी। मनगढ़न्त प्रेम कहानी को मेरे दिल के किस्से कहकर लोग मुझे एक महान प्रेमी बना देंगे...लेकिन यह 10 गुरखा रेजिमेंट का सूबंदार दिलबहादुर गुरुग, जो अभी अस्पताल में घायल होकर पड़ा है, इसके काबिल है वी.एच. देसाई ही। बेड पर पड़े-पड़े हर डॉक्टर और नर्स को वह 'जयसिंह' कहेगा, बुखार में जब-'कांछा ले कांछी लाय लग्यो बन को बाँटो लालटनी बालेर' गाएगा और हर तेजी से गुजरते हुए डॉक्टर को-नानसेंस के लहजे में-'मोरो' तथा नर्स को मोरी' कहेगा तो ठहाकों से गूँज उठेगा सारा हॉल।

नानसेंस का स्त्रीलिंग नहीं होता, लेकिन 'मोरो' का होता है 'मोरी' । नर्स 'मोरी' का मतलब नहीं समझती।

वह दृश्य कितना मार्मिक होगा जब ज्योत्स्ना अपने पति मिस्टर वर्मा के साथ चाय पर बैठकर अखबार पढ़ती रहेगी। मिस्टर वर्मा, अपने मालिक हिन्दू-प्राण सर रामपत ठनठनियाँ की उदारता का जिक्र करते हुए उनका हिन्दुओं का कर्तव्य! शीर्षक स्टेटमेंट पढ़ने को कहेंगे। पढ़ने के सिलसिले में, अखबार के एक कोने में ज्योत्स्ना पढ़ेगी-कश्मीर अस्पताल में कैप्टेन सिन्हा की मृत्यु...हाथ से चाय की प्याली गिरकर “झन्न!...वह आँखें फाड़े शून्य में ताकती रहेगी, बाल बिखर जाएँगे, आँखों में आँसू छलछला पड़ेंगे, मिस्टर वर्मा घबराकर चिल्ला उठेंगे-जोना! जोना!

तुम्हें क्या हो गया ?

ग्राउंड म्युजिक चल पड़ेगा-'शहीदों के मजारों पर, लगेंगे हर बरस मेले....

मेरी आँखों में भी आँसू आ गए। दिल की धड़कन बढ़ रही है, हिस्स, मैं भी कैसा हूँ!

कैसी-कैसी बेकार की बातें सोचता हूँ। ज्योत्स्ना को तो मेरी मौत की बात भी मालूम नहीं हो पाएगी। अखबारों में हर इंसान की मौत के बारे में छपने लगा, तो हुआ ।...लेकिन “शहीदों के मजारों पर” गीत मुझे प्रिय है। शायद मन में शहीद कहलाने की बहुत बड़ी लालसा छिपी हुई है...मणिपुर की बमबारी के दिनों-अच्छी तरह याद है-मुझे बार-बार यही तकलीफ सतांती रही कि मेरी मौत क॒त्ते-बिल्लियों की मौत से भी गई-गुजरी होगी। अपने मुल्क की मिट्टी भी मुझे अपना कहकर कबूल नहीं कर सकेगी...कितना दुख हुआ था मुझे! 45 की छुट्टी में गाँव लौटा था। मेरी बहन से “भारतमाता ग्रामवासिनी' गाने को कहा था तो वह ठठाकर हँस पड़ी थी। उसे आश्चर्य हुआ था कि मैं भी इस तरह के गीतों में दिलचस्पी लेता हूँ। मैंने अनुभव किया था कि मेरे अधिकांश दोस्त मुझे घृणा की दृष्टि से देखते हैं। मनमोहन मुझसे -इसलिए बात नहीं करता था कि मैं उसकी पार्टी के विरुद्ध लड़कर आया था। सुधीर, मेरे बचपन का साथी सुधीर!

मेरी कविताओं पर झूमनेवाला सुधीर!-मेरे साथ साहित्यिक बातें करना फिजूल समझता था क्योंकि उसकी निगाह में मैं कुछ और हो चुका धा। और ज्योत्स्ना?

वह तो मेरी छाया से भी घबरा जाती थीं।

उसने मिस्टर वर्मा, एडवोकेट साहब से शादी कर लीं। जमींदार का वकील है वर्मा सुना है, बिहार के दंगे के समय उसने कमाल कर दिखाया है। जमींदार साहब की जीप गाड़ी पर दिन-भर में पचासों गाँवों में जाकर पर्चेबाजी और उत्तेजना फैलाता फिरा। कहा जाता है कि जिस गाँव से उसकी गाड़ी विदा होती, उसके बाद ही' वहाँ लंकाकांड और दानवी-लीला शुरू हो जाती है...गर्भ चीरकर बच्चे को निकालकर भाले की नोक पर...!

राशन के लिए 'क्यू' में खड़ी-खड़ी उस औरत को जो बच्चा हो गया था, ' कलकत्ते के फुटपाथ पर अमेरिकन सैनिकों ने कितने उत्साह से उसकी तस्वीर ली थी! हमारे भाई लोग भीड़ हटा रहे थे-हट जाओ, साहब फोटो लेते हैं...सनमोहन ने एक बार मेरी तस्वीर उतारी थी।

बहुत साफ आई थी मेरी तस्वीर

मैं यह सब क्‍यों सोच रहा हूँ। 'इनफीरियारिटी कॉप्लेक्स' के कक पर तो नहीं चल रहा हूँ।...करवट नहीं ले सकता हूँ। पेट और जाँघ पर पट्टियाँ बँधी हुई हैं। बहुत दर्द है। कमजोरी और प्यास आज बेहद बढ़ गई है। पेट में सुई गड़ाने की तरह दर्द...! आह! शायद आज मैं...अब मैं जी नहीं सकूँगा...हाँ, डॉक्टर से कहना भूल गया, कहीं अन्त तक भूल ही न जाऊँ, अपने रुपए 'शरणार्थी फंड' में दे जाना चाहता हूँ।

“कैसा है कैप्टेन?”-नर्स एलिस आकर पूछती है। ऐंग्लो इंडियन एलिस! गुडमार्निंग के बदले आजकल “ज्योहिन” कहती है। मेरे सिर पर हाथ रखा उसने। रेक्टम वसेलाइन” लाने गई ।...नर्सों की तलहथी और उँगलियाँ इतनी ठंडी क्यों होती हैं? मेरा तो अब तक का यही अनुभव है। शायद, बराबर हाथ धोती रहती हैं। कश्मीर में भी एंग्लो नर्से? यहाँ की खूबसूरत औरतें क्‍यों नहीं “नर्सिंग ज्वाइन' करती हैं? सिर्फ दो-तीन सिस्टर हैं कश्मीरी, बाकी सब एंग्लो। सिस्टर उपाध्याय ही आई थी उस दिन...पंडित नेहरू के विजिट के दिन। इन्दिरा गांधी और सिस्टर उपाध्याय में कितना अन्तर ?

कितने महान्‌ हैं पंडितजी! मुझे यकीन है कि यदि मेरे पेट और जाँघों पर पट्टयाँ न बँधी होतीं, तो वे मुझे गोद में उठाकर चूम लेते। बातें ही उनकी क्या कम थीं?-“आजाद हिन्दुस्तान की इज्जत तुमने बचाई है, जवाहर ने नहीं। तुम्हारे जैसा “भाई” पाकर मुझे आज पहली बार अपने प्रधानमन्त्रीत्व का गुमान हो रहा है।...और तुम्हारी जॉनिसारी के किस्से सुनकर तो मैं जवान हुआ जा रहा हूँ, मैं दामन पसारकर तुम्हारी बड़ी उम्र के लिए दुआ माँग रहा हूँ, ।

मेरी आँखों में आँसू आ गए थे। उनकी भर्राई हुई आवाज...दूसरे थे पटवर्धन साहब नाम सुना था, देखा नहीं था...कोहिमा कैम्प में चर्चा होती थी बराबर...चुपचाप... जयप्रकाशजी की, अरुणाजी की, पटवर्धन और लोहियाजी की...बहुत सुन्दर, हैं पटवर्धनजी...पंडितजी को जब कहा गया मैं बिहार का हूँ तो दोनों ही उछल पढ़े थे। पंडितजी भी और पटवर्धनजी भी। “बिहार” सुनते ही पटवर्धनजी के मन में तुरन्त जयप्रकाशजी की तस्वीर आई होगी और पंडितजी की आँखों के सामने 1934 के भूकम्प-पीड़ित इलाके...हाल के दंगे के नजारे नांच गए होंगे शायद...

उफ, नेहरू सरकार को फेल करने के लिए कितनी नापाक कोशिशें हों रही हैं। क्या उन्हें रात में नींद आती होगी? यदि इस बार बच गया मैं...तो...नहीं, मंसूबे नहीं बॉधना चाहिए। लेकिन मैं कहता हूँ कि सारी प्रतिक्रियावादी ताकतों को कुचल डालने से ही सोने का हिन्दुस्तान बनाकर तैयार हो सकेगा। मुट्ठी-भर कुचक्रियों को प्रश्नय देना, 'फासिज्म' के लिए रास्ता सहल कर देना है। कुछ नहीं...कोर्ट मार्शल...फायर... फायर...फायर...

मैं जोर से तो नहीं बोल उठा? नहीं, ठीक है, जोरों की प्यास लगी है। बड़ी बेचैनी ! दिलबहादुर के मुँह से, मार्चिंग सौंग के तर्ज पर, सीटी बजा रहा है...यह क्या, ज्यादा देर तक किसी चीज को देख नहीं सकता हूँ। आँखें झिलमिलाने लगी हैं। सामने काले, नीले...तरह-तरह के धब्बे मालूम पड़ते हैं। कमजोरी है। डॉक्टर कह रहा था कि मुझे ताजा खून, नया लहू दिया जाएगा। मेरी जान बचाने के लिए जो लहू देगा, उसे न तो मैंने देखा है और न उसने मुझे। लहू मेरे लिए तो नहीं, एक ऐसे सैनिक के लिए जो राष्ट्रीय सरकार की इज्जत के लिए लड़कर घायल है।

ऐसा लग रहा है कि...मानो स्पष्ट देख रहा हूँ...कुछ कॉलेज के लड़के आए हुए हैं, “ब्लड बैंक' में अपना खून देने। स्वस्थ तगड़े नौजवान। दिल से भी स्वस्थ। लड़कियाँ भी हैं। लड़कों के चेहरे अपरिचित नहीं मालूम होते और लड़कियाँ भी सब जानी-पहचानी-सी लगती हैं।

ज्योत्सना भी। हाँ, वह बैठी। डॉक्टर ने स्पिरिट लगाकर, चमड़े को 'स्टरलाइज” किया।

स्पिरिट में भिगोई हुई रुई से सिरिंज की सुई साफ करता.है। मुस्कुराकर ज्योत्स्ना से कुछ पूछता है। सुई गड़ा रहा है। अपने को निडर दिखलाने के लिए वह मुस्कुराती हुई सीधे सुई की ओर देखती रहती है।...अरे! ज्योत्स्ना का चेहरा बदल गया। कोई दूसरी लड़की है। सुई चुभोई गई। चेहरे पर जरा-सी शिकन...फिर मुस्कुराहट...सिरिंज में खून आ रहा है, धीरे-धीरे...। लाल-लाल...ताजा खून...लाली क्रमशः काली हो रही है।...मेरी नसों में खून दौड़ रहा है। लाल लहू...लाल रक्तकणिका और श्वेतरक्तकणिका में लड़ाई हो रही है...लाल जिन्दगी...सुफेद मौत...कफन-सी सुफेद...सुफेद कणिकाओं पर लाल की विजय...बायोलोजी लैबोरेटरी में काँच के नलों में लड़ाई...अरे! वह लड़की बेहोश होकर गिर पड़ी!

बेहोश होकर.

याद आती है उस नागा लड़की की। सारे डिगबोई में श्मशान की-सी शान्ति। आसमान में टोह लगानेवाले जहाजों की धीमी भनभनाहट। शहर के आम 'रोड' से हमारी टोली गुजर रही। बूटों की छन्दमय आवाज...लेफ्ट-राइट-लेफ्ट!

एक मोड़ पर कुछ नागा लड़कियाँ सैनिकों पर फूल बरसाने के लिए मुस्कुराती हुई खड़ीं। अपनी भाषा में न जाने क्‍या चिल्लोकर संब फूल फेंके ।...मेरा जी किया था कि एक फूल उठा लूं। “ल्यप...ठाँ।'...बाई ओर मुड़ते हुए मैंने देखा कि वह लड़की जो सबसे बड़ी थी और निडर होकर मुस्कुरा रही थी...गिर पड़ी। बेहोश होकर ।

“कैप्टेन, कैसा है?”-शएलिस आई। यह क्या? बोल नहीं सकता हूँ। आवाज नहीं निकल रही है। होश में हूँ तो ?...हाँ तो। लेकिन बोल नहीं सकता हूँ क्यों? इशारे से अपनी लाचारी दिखलाता हूँ। खुट खुट खुट...। एलिस चली गई। चलती जा रहीं है। वह रहती है तो अच्छा लगता है। मुझे डर मांलूम हो रहा है क्या? नहीं, डर काहे का? मरने का? हमारा भाई प्रधानमन्त्री, जिसे न दिन में चैन है न रात में नींद!...उनका गम्भीर चेहरा।...नाक की बगल से निकलकर जो रेखा ठुडडी तक चली गई है, वह क्रमश: गहरी होती जा रही है। मेरे लिए दुआ माँग रहा है। दुआ? भीख ?...नहीं, उन्हें भीख नहीं माँगने दूँगा। उस दिन उनसे बात करने के समय मैं मुस्कुराया नहीं, इसीलिए वे आज दुआ माँग रहे हैं। दामन पसारकर भीख माँगते हुए नेहरू की कल्पना...कितनी बुरी ?

बिगुल फूँकते हुए नेहरू...धू...तू...धूतू...तैयार! हजारों-हजार जवानों की टोलियाँ कूच को तैयार! मार्च...।

नेहरू मुस्कुराता...।

किसी ने छिपकर उनकी पीठ में छुरा भोंक दिया। वे गिरे...वे गिरे...खून से लथपथ, छटपटा रहे हैं छि:, क्या सब सोच रहा हूँ। कुवत लार्ऊँ अपने अन्दर...लेकिन नेहरू की लाश तड़प रही है...हजारों जवानों की लाशें तड़प रही हैं...गाँव जल रहे हैं, औरतें चीख रही हैं, बच्चे जलाए जा रहे हैं...गर्भ चीरकर निकाले हुए बच्चे...कोटि-कोटि गरीबों की दुनिया जल रही है...कालीं फौज बढ़ रही है...।

हम सब घाटियों में छिप रहे हैं...। वह रहा रामपत ठनठनियाँ...मिस्टर वर्मा...। ठनठनियाँ नहीं...मुसोलिनी... । मिस्टर वर्मा... उसकी सूरत हिटलर-जैसी हो रही है...काली वर्दी...। सब साथ हैं...निशाना साधता हूँ...हिटलर गायब हो जाता है...शराफत हुस्सैन पठान...निशाना साधता हूँ...पठान गायब...हिन्दूप्राण... पठान...छोटे-से हिरण के बच्चे को भेड़िए ने पकड़ा...छौना छटपटा रहा है...निशाना साधता हूँ, भेड़िया मुझे अपने जबड़ों से दबोच लेता है...तेज दाँत...दर्द...दर्द...डॉक्टर हैं।

बड़े डॉक्टर, छोटे डॉक्टर, भीड़। मैं शायद बेहोश हो गया था।

खून दे रहे हैं। दिलबहादुर अपने बेड पर बैठा मुझे आश्चर्य से घूर रहा है। मुझे क्या हो गया?...खून दे रहे हैं डॉक्टर...डॉक्टर के गले में स्टेथस्कोप की नली धीरे-धीरे मोटी होती जाती है...अजगर...भागो एलिस...एलिस की आँखें पीली पुतलियाँ...मेरी पलकें भारी हो रही हैं...मोहे नींद सतावे...।

'विक्टरी डे' के दिन लल्लन बाई नाच रही थी...मोहे नींदा सतावे...कोहिमा कैम्प में चर्चिल का भाषण सुनतें समय मैं ऊँध रहा था...जवाब-तलब...प्रधानमन्त्री की आवाज की बेइज्जती...जुर्म...देंह में आग लग गई...गर्मी...गर्मी...डॉक्टर...डॉक्टर...झुरीदार चेहरा...माँ की तरह...माँ जब हैंसती थी, चेहरे पर झुर्रियों की जाली खिल पड़ती थी...माँ, माँ...

“ठीक हो जाएगा, कमजोरी है-डॉक्टर कह रहा है शायद। मेरी नसों मैं गर्म-गर्म खून दौड़ रहा है। मैं जी पडैँगा।

ठीक हो जाऊँगा। ज्योत्स्ना...?

नहीं, एलिस!

एलिस की आँखें...पीली पुतली, गोल...पलकें भारी हो रहीं हैं...लल्लन बाई...हरी... साड़ी...मुस्क्राती है...लाल होंठ...एलिस...सुफेद एप्रेन...सुफेद...लाल...हरा... तिरंगा...गोल पुतली...तिरंगा...15 अगस्त...दिल्ली...बैंड...परेड...झंडा...सलामी...पंडितजी...चेहरे पर रेखा गम्भीर...गहरी...।

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