राम नाम सत्य है (ओड़िआ कहानी) : दाशरथि भूयाँ

Ram Naam Satya Hai (Odia Story) : Dasarathi Bhuiyan

उस नये शहर के अपार्टमेण्ट में अपरिचित लोगों के साथ रहना मेरे लिए भय से भरा हुआ एक निःसग जीवन था । भय का कारण यह था कि मैं अपने पड़ोसियों को जानता नहीं था, लेकिन इस भय को दूर करने के लिये मैंने पड़ोसियों के साथ अच्छा संपर्क रखना शुरू किया । अज्ञात शहर में पड़ोसियों के बारे में अनजान रहना उचित नहीं है । बुरे समय में हमारे पड़ोसी ही हमें पहले सहयता पहुँचाते हैं। पड़ोसियों को सहयाता पहुँचाने की प्रवृत्ति मुझ में जागी थी । पड़ोसियों को कभी हल्की नजर से मैं देखता नहीं था । उन्हें सही ढंग से सम्मान प्रदान करता था । बड़ी उम्र के लोगों को प्रणाम करता था । इस स्वभाव के कारण मैं पड़ोसियों में शीघ्र लोकप्रिय हो गया था ।

छुट्टी के दिनों में भी ऑपार्टमेण्ट सुनसान लगता है । किसके यहाँ कौन-सी संब्जी बन रही है, इसका पता उसकी खुशबू से ही लग जाता हे । किसी के घर में झगड़ा – झंझट हो, तो उसे भी आसानी से सुना जा सकता है । बिजली चंपतिराय मेरे पड़ोसी होने के कारण उनकी सारी बातचीत हमें साफ सुनाइ पड़ती है । बिजली चंपतिराय की उम्र अठावन साल से ज्यादा है । अट्टावन में भले ही यौवन नहीं था, पर वे सुदृढ़ और शक्तिशाली दिखाई पड़ रहे थे । उनके चेहरे पर झुर्रियाँ बिलकुल नहीं थां । उनकी मूछों के छोर बिच्छू की पूँछ की तरह टेढ़े थे। उनका शरीर साँवले रंग का था और चमड़ी की ऊपरी सतह साँप की तरह चिकनी थी। उनकी खोरधा जिले में बनी धोती की रेशमी किनारी दूर से ही सभी का ध्यान आकर्षित करती थी । उनका अपना रिअल इस्टेट का व्यापार था । वे काफी प्रभावी और बलशाली थे । स्थानीय सरकारी तंत्र के सभी कार्यकर्ता उनकी उँगली के इशारे पर काम करते थे । सभी उनकी मुट्ठी में थे । वे थे सभी के काफी प्रिय नेता बिजली । शहर के आसपास के किसानों को डरा-धमका कर वे उनसे सस्ते में जमीन खरीदते थे । यदि कोई उनकी बात मानता नहीं था, तो उसका “राम नाम सत्य है” हो जाता था ।

दण्डपाणि बाबू और सत्य साहु बिजली चंपतिराय के परम मित्र थे । वे रोज उनके घर आया-जाया करते थे । दण्डपाणि बाबू जमीन के बिचौलिया थे । सत्य साहु राजस्व विभाग के एक पदाधिकारी थे । उनका नाम भले ही सत्य था, पर वे असत्य के पुजारी थे । तारण, मारण और उद्धारण विद्या के वे एक कुशल जानकार थे । इन सबके गाडफादर थे स्थानीय राजनेता विरंचि नारायण जगद्देव राय । उनकी छत्र-छाया में ये लोग फल-फूल रहे थे । वे इस धरती को सकोरा जैसा छोटा समझते थे, और जरूरत पड़ने पर तिल को ताड़ बना लेते थे । सभी करामाती और जुगाड़ करने में धुरंधर थे । उनके शब्दकोष में दया, ममता और मानविकता के नाम का कोई शब्द था ही नहीं। फिर भी समाज के यशस्वी लोगों की सूची में वे थे । बिके हुए मीडिआ के द्वारा अपनी एक कृत्रिम- भावमूर्ति बनाने में सफल हुए थे ।

मैं पेशे से एक प्राध्यापक था, आलेख लिखता था, कभी-कभी सभा-सम्मेलनों में भाषण देने जाता था । इस सिलसिले में विरंचि नारायण जगद्देव से मेरा परिचय हुआ था । उस दिन रविवार था । अपराह्न के साढ़े चार बजे दूरदर्शन से सूचना मिली कि विरंचि नारायण जगद्देव राय का देहान्त हो गया है। उस दिन बिजली बाबू ने सुपारी लेकर खून करनेवाले कुछ लोगों को बुलाया था । किसानों से सस्ते भाव में जमीन खरीदने वाला बिचौलिया जमीन सौंपने के लिए राजी नहीं हो रहा था । इसलिए उसका ‘राम नाम सत्य है’ करना ही उद्देश्य था । अचानक सत्य साहु के यहाँ से फोन आया - “ विरंचि नारायण जगद्देव जी का देहांत हो गया है । आप सीधा ब्रह्मानगर श्मशान में आइए। मैं वहाँ बहुत जल्दी पहुँच रहा हूँ । ”

ऑपार्टमेण्ट में सभी परिवारों के मुखिया सफेद कपड़े पहन कर एक-एक करके बाहर निकल रहे थे । उनके कपड़ों से मुझे पता लग गया कि वे सभी शव- यात्रा में शामिल होने के लिए जा रहे थे । मैं द्विधा में पड़ गया कि मैं जाऊँ या न जाऊँ । सभी के निकल चुकने के बाद मैं भी निकला । शव-यात्रा में पहुँचते समय शाम ढलने वाली थी । अँधेरा और ज्यादा गहरा होता जा रहा था । शव-यात्रा में ढेर सारे लोग शामिल हुए थे । सभी अपने मुँह से एक ही वाक्य दोहरा रहे थे - “राम नाम सत्य है ।”

शव-यात्रा के साथ हम सब जाकर पहुँचे श्मशान घाट में । अर्थी से शव को उतारा गया और नीचे रखा गया । कोई यह नहीं कह रहा था कि विरंचि नारायण जगद्देव राय के शरीर को यहाँ लाओ, वहाँ रखो, अर्थी से उतारो, चिता पर रखो । सब कह रहे थे कि शव पर चन्दन की लकड़ी, सूखा हुआ तुलती का पौधा रखो और घी डालो । सभी के मुँह से एक ही बात निकल रही थी कि शव को यहाँ रखो, वहाँ रखो । शव के लिए यह करो, वह करो । जब एक आदमी मर जाता है, तब उसके बचे हुए शरीर का परिचय उसी पल से खत्म हो जाता है और वह शव के नाम से परिचित होता है ।

जिस पल विरंचि नारायण जगद्देव की मृत्यु हुई, उस पल से शव दाहकों ने उन्हें उनका नाम लेकर नहीं बुलाया । वे शव में तबदील हो गये थे । उनका परिचय था श्मशान का शव । वे सभी के लिए श्मशान के शव थे । उफ् ! सृष्टि का कैसा नियम ।

मैं बिजली बाबू के पास जाकर बैठा । उनके पास सत्य साहु और दण्डपाणि बैठे हुए थे । शव के प्रति जितनी निगाह थी उससे ज्यादा आकर्षण के केन्द्र में थे शव के उत्तराधिकारी । सभी के केन्द्र में थे विरंचि नारायण जगद्देव राय के पुत्र अजित । उनकी चिंता थी कि वे कैसे पिता की संपत्ति को सँभालेंगे । संपत्ति का बँटवारा किस तरह भाई और बहन के बीच होगा । आनेवाले चुनाव में विरोधियों को पराजित करने के लिए वे किस तरह की रणनीति का प्रयोग करेंगे । जरूरत पड़ने से शत्रुओंका विनाश करेंगे । इसके लिए बिजली की सहायता चाहिए । उन्होंने बिजली को बुलाया। एक आदमी जाकर बिजली के पास पहुँचा और उसके कान में कहा - अजित बाबू आपको बुला रहे हैं।

सबके सामने नेताजी के एक मात्र पुत्र उन्हें बुला रहे हैं, यह जानकर उनका सीना फूला नहीं समाया । फौरन अजित बाबू के पास पहुँच कर बिजली ने पूछा - “जी, क्या आप मुझे बुला रहे थे, सर्? ”

अजित बाबू ने कहा - “हाँ, आपसे एक जरूरी बात करनी है। लेकिन अभी नहीं। समय और सुविधा देख कर बातचीत करेंगे। ”

बिजली अपने बैठने की जगह जा पहुँचे । हम लोग एक बमीठे के पास सपाट जगह देख कर बैठे हुए थे । सत्य साहु ने बिजली की चापलूसी करने के लिए कहना शुरू किया - “इस तरह की नाजुक स्थिति में भी अजित बाबू ने आपको याद किया। सचमुच आप एक कीमती आदमी हैं। ”

बिजली ने पास के बमीठे की ओर इशारा करते हुए कहा - “ मैं एक मामूली दीमक जैसा हूँ । उनके संगठन का एक मामूली कार्यकर्ता हूँ । देखिये ! बिना इंसानों के भी यह संसार कितना व्यस्त है और चहल-पहल से भरा हुआ है। सभी अपने-अपने कर्तव्य से जुड़े हुए हैं।”

अगले ही पल सभी ने एक दूसरे को तसल्ली देते हुए कहा – “ यह जीवन पानी के बुलबुले की भाँति हैं। ”

वे सभी मुद्दों पर भावप्रवणता और संवेदनशीलता के साथ बातचीत कर रहे थे । दण्डपाणि बाबू ने सत्य साहु को जीवन और जगत के बारे में काफी समझाया । मृत्यु के रहस्य की व्याख्या की । वे यह भी समझा रहे थे कि मृत्यु के कारण जीवन निकल कर किस तरह पंचतत्व में विलीन हो जाता है । इस बारे में आपस में काफी तर्क-वितर्क चल रहा था । आपस में एक दूसरे की बात का समर्थन करते हुए कह रहे थे - “मृत्यु के बाद आपको खाली हाथ लौटना है । अकेले आये थे, अकेले ही जाना है । यह संसार माया-मोह का एक बंधन है।”

यह सच है कि मनुष्य दो जगह काफी भावप्रवण हो उठता है । किसी भयानक बीमारी के कारण अस्पताल में पड़े-पड़े दूसरे मरीजों के रिश्तेदारों से भावपूर्ण बातचीत करते समय या श्मशान में शवदाहकों के साथ जीवन और जगत के बारे में चर्चा करते समय । सभी इन दोनों जगह जीवन के वास्तविक सत्य को अनुभव करते हैं । जीवन को गलत रास्ते में न ले जाने की शपथ लेते हैं । लेकिन बाद में ..... ।

विरंचि नारायण जगद्देव राय के शव को जब चिता पर चढ़ाया गया, तब वहाँ इकट्ठे हुए सभी लोगों ने बोलना शुरू किया -“ हे दस दिगपाल, रक्षा करो।” नेताजी के बेटे अजित ने सिर्फ मुखाग्नि दी थी और दूसरे लोग बाकी सब काम कर रहे थे । पण्डितजी ऊँची आवाज में मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे । नेता स्वर्गत विरंचि नारायण जगद्देव राय के शरीर के जलने से आने वाली दुर्गंध को रोकने के लिए लोग चन्दन की लकडियाँ, तुलसी की सूखी टहनियाँ और गाय का शुद्ध घी डाल रहे थे । फिर भी घी की सुगंध शव की दुर्गंध को रोक नहीं पा रही थी ।

श्मशान से तनिक दूर एक और गरीब आदमी की चिता जल रही थी। उस दाह संस्कार के पास मुट्ठी भर लोग ही इकट्ठे हुए थे, लेकिन स्वर्गत विरंचि नारायण जगद्देव राय के दाह संस्कार में हजारों लोग इकट्ठे हुए थे । श्मशान में कोई भेदभाव नहीं था । आसपास दो शरीर जल रहे थे – एक गरीब का दूसरा धनवान का । गरीब आदमी की मृत्यु के बारे में गणमाध्यम में कोई समाचार नहीं था । ब्रेकिंग न्यूज में इस घटना की कोई चर्चा नहीं थी । दूरदर्शन के परदे पर सरकती हुई खबरों में उस गरीब के बारे में कुछ भी लिखा नहीं गया था, लेकिन विरंचि नारायण जगद्देव के बारे में कई रोचक किस्से परोसे जा रहे थे ।

नेताजी के सुयोग्य पुत्र अजित के निकटतर होने के लिए श्मशान में उपस्थित सभी नेता और पिट्ठुओं में प्रतियोगिता चल रही थी । श्मशान का वह मैदान किसी मेला या त्योहार के स्थान में परिवर्तित हो गया था । नेताजी के बेटे के दाहिने कान में मोबाइल सटा हुआ था और अविरत कार्यरत था । अपने दाहिने हाथ में वे कीमती हीरे से जड़ी अंगूठी पहने हुए थे और उस दाहिने हाथ को हिला- हिला कर लोगों को इधर-उधर के काम के लिए निर्देश दे रहे थे। उनके निर्देश को मानने में लोग गौरव का अनुभव कर रहे थे । क्योंकि सबको पता था कि उनके सुपुत्र अजित ही विरंचि बाबू के राजनैतिक उत्तराधिकारी होंगे । आफत आने से उन्हें अजित के पास ही जाना होगा । उनके अलावा उन्हें कोई और भाग्य-विधाता नजर नहीं आ रहा था ।

स्वर्गत विरंचि नारायण जगद्देव, उस इलाके के गर्व और गौरव माने जाते थे । दसवीं कक्षा में काफी वर्षों तक शोध करने के बाद ऊँची कक्षा के लिए उत्तीर्ण हुए थे । कालेज में दाखिला लेने के बाद सीधा छात्र-संसद के चुनाव में उतरे । उनकी बातचीत, हावभाव, आचरण, बात करने की शैली और वक्तव्य से उनकी शैक्षिक योग्यता का प्रमाण मिल जाता था । कालेज से निकलने के बाद उन्होंने पिताजी के व्यापार को सँभाला । खूब रुपये कमाये । उनके खिलाफ अलग-अलग थानों में ढेर सारे मामले दर्ज हुए । उनके दाह-संस्कार में इकट्ठे होने वाले लोगों की संख्या ही उनकी सफलता की कहानी को प्रमाणित कर रही थी । अब उनके बेटे अजित उनके राजनैतिक उत्तराधिकारी होंगे ।

जीवन में राम नाम सत्य है और जीवन के बाद भी राम नाम सत्य है, बाकी सब कुछ अर्थहीन है । एक दिन सब कुछ श्मशान में छोड़ना ही होगा । जो हमें लेना है वह सिर्फ हमारा कर्म है । व्यक्ति अपने कर्म का निर्वाह करके इस संसार से विदा लेता है । साथ में सिर्फ हमारा कर्म ही जाता है ।

उधर श्मशान में विरंचि नारायण जगद्देव राय की चिता जल रही थी, इधर दण्डपाणि का ज्ञान बाँटने का कार्य चल रहा था । दण्डपाणि ने सत्य साहु को समझा दिया -“ श्मशान शव का शमयानी स्थान है । शव की मोक्ष-प्राप्ति का स्थान । यह मानव का अंतिम ठिकाना है । इस मोह-माया से भरी दुनिया में मनुष्य की चतुराई उसे और ज्यादा स्वार्थीं और लोभी बना देती है । तर्कवादी मनुष्य अपने फायदे के अलवा कुछ और सोच नहीं पाता है।”

श्मशान में भीड़ धीरे-धीरे कम होती जा रही थी । बिजली बाबू, सत्य बाबू, दण्डपाणि बाबू और मैं शव-सत्कार के बाद श्मशान से लौट आये थे । सत्य बाबू, दण्डपाणि बाबू, बिजली बाबू अपने-अपने घर चले गये । मैं घर लौट कर बाथ रूम में नहा-धोकर थकान मिटाने के लिए सोफा पर अधलेटा-सा बैठ गया । अपने- अपने कर्म-स्थल की ओर लैटने के बाद श्मशान की वह भावप्रवणता उनमें रह नहीं गयी थी । उनकी बातचीत से यह साफ झलक रहा था । बिजली चंपतिराय के इंतजार में बैठे “राम नाम सत्य है ” टोली के दो-तीन कार्यकर्ताओं को सुपारी देकर अपना काम हासिल करने का निर्देश दे रहे थे, जो मेरे कानों में साफ गूँज रहा था । सत्य बाबू मोबाइल के जरीये सरकारी कारोबार में घूस को लेकर मोलभाव कर रहे थे । दण्डपाणि बिजली बाबू के बरामदे में कुछ लोगों के बीच दलाली-मंत्र का प्रयोग कर रहे थे । सांसारिक मोह-माया में कोई यह नहीं समझ पा रहा था कि राम नाम ही सत्य है, बाकी सब व्यर्थ है ।

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