Rajdhani Ke Neeche : Asghar Wajahat

राजधानी के नीचे : असग़र वजाहत

उनकी वेशभूषा वातानुकूलित रेल के डिब्बे के अनुकूल ही थी। सिल्क का कुर्ता, उसी तरह का पाजामा, पैर में हलकी चप्पलें, गलें में सोने की चेन, आंखों पर सुनहरा चश्मा, दोहरा बदन, बैंक बैलेंस का आभास कराती आगे की ओर निकली तोंद। हाथ उठाए तो उंगलियों में हीरे की अंगूठियां। पैर उठाए तो पैरों में सोने के छल्ले। गर्दन उठाई तो बीस तोले की जंजीर, आंखें उठाई तो छलछलाहट। जैसे भरा हुआ शराब का प्याला। निश्चिन्त मुस्कुराहट। हंसें तो दांतों में भरा सोना। पादें तो चमेली की-खुशबू-सी फैल गई।

वे जिधर हाथ डाल देते थे, उनके धनवान होने का एहसास तेजतर हो जाता था। नीचे ये ब्रीफ-केस निकाला तो विदेशी। चमड़े का थैला खोलकर गरम चादर निकाली तो कश्मीरी पश्मीना।

तीन सीटों में तीसरी पर बैठे ब्रिटिश पासपोर्टधारी प्रवासी भारतीय सत्ताइस साल के बाद देश लौटे थे। वे इधर-उधर हाथ नहीं डाल रहे थे। खिड़की में से बाहर अपने प्यारे देश की प्यारी जन्मभूमि के दर्शन तल्लीनता से कर रहे थे। धनवान सज्जन ने प्रवासी भारतीय से प्रारंभ में कुछ बातचीत की थी। उसके बाद दोनों का संवाद टूट गया था। राजधानी अपनी पूरी रफ्तार, यानी एक सौ पच्चीस किलोमीटर फी घंटा पर आ चुकी थी। जिन पटरियों पर चल रही थी उनका क्या हाल हो रहा होगा। जमीन शायद कांप रही हो। धूल का बवंडर उठ रहा हो। मकान शायद हिल रहे हों। लोग शायद दूर खड़े हो गए हों। लेकिन अंदर संगीत बज रहा था। बाहर की हवा बाहर से अंदर नहीं आ सकती थी। अंदर की हवा बाहर नहीं जा सकती थी तापमान तय था। दुधिया रोशनी में नहाए मुसाफिर राजधानी में ऊंघ रहे थे। ताश खेल रहे थे। खुसपुसा रहे थे। ठहाके लगा रहे थे। चाय-कॉफी पी रहे थे। रंगीन पत्रिकाओं के पृष्ठ उलट रहे थे। शाम की चाय सर्व की जा चुकी थी। बाहर धुंधलका बढ़ रहा था। धनवान सज्जन ने चमड़े का थैला खोला और उनके विदेशी घड़ी और हीरे की अंगूठियां पहने हाथ कि गिरफ्त में स्कॉच व्हिस्की की बोतल आ गई। उसी समय घोषणा हुई कि राजधानी मादक द्रव्यों का सेवन जुर्म है। घोषणा सुनकर धनवान सज्जन मुस्कुराए और पास से गुजरते वेटर से गिलास और सोडा लाने के लिए कहा।

घोषणाओ, तुम क्या हो गरीब की जोरू वेश्या ताश का पत्ता धोखा फिर तुम की क्यों जाती हो किसके लिए की जाती हो घोषणाओ, तुम छलावा हो। घोषणाओ, तुम ही हमारी व्यथा हो। तुम ही अभिशाप हो। घोषणाओ, तुम क्या हो

सोडा आ गया। धनवान सज्जन ने सामने लगी फील्डिंग मेज खोल ली और उस पर गिलास रख दिया। पैग बनाकर उन्होंने प्रवासी भारतीय से पूछा। प्रवासी भारतीय ने सज्जनता से इनकार कर दिया। धनवान सज्जन ने एक चुस्की लेकर वेटर से मुर्गे की टांगें तलवार लाने को कहा। वेटर ने ‘हां’ में गर्दन हिलाई जबकि मेरे ख्याल से उसे मना कर देना चाहिए था या जिंदा मुर्गा लाकर सामने खड़े कर देना चाहिए था। जिंदा मुर्गा सज्जन को समझा देता कि टांगों का क्या महत्व औैर उपयोगिता है।

बाहर प्यारी जन्म-भूमि जब अंधेरे में खो गई तो प्रवासी भारतीय अंदर की ओर मूड़े। सज्जन और उनमें बाते होने लगीं। जैसे-जैसे व्हिस्की गिलास में कम होने लगी, वैसे-वैसे सज्जन की आवाज तेज होती चली गई।
‘‘लेकिन यूरोप में लोग मानते हैं कि इंडिया में बहुत गरीब हैं।’’
‘‘हो-हो-हो-हो...’’वे प्रवासी भारतीय की इस बात पर बहुत जोर से हंसे। कुछ क्षण हंसते रहे। प्रवासी भारतीय उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे।
‘‘बिलकुल गलत बात है। हमारे यहां गरीबी कहां है’
‘‘हर तरफ दिखाई देती है।’’
‘‘हो-हो-हो....मैं समझाता हूं आपको....वह हमारी सभ्यता है, हमारी संस्कृति है....यानी कल्चर है....’’
‘‘क्या मतलब’
‘‘भाई साहब, आप यहां सड़क पर भीख मांगते लोगों को देखते हैं’
‘‘जी हां।’’
‘‘क्या आप समझते हैं वो गरीब हैं’
‘‘जी हां।’’

‘‘हो-हो-हो...यही गलत या कहें आप जानते नहीं....साब, दिल्ली में एक गरीब बुढ़िया थी...भीख मांगकर गुजर-बसर करती थी। टाट के पर्दे लगाकर झोंपड़ी में रहती थी। एक दिन मर गई। उसके मरने के बाद उसकी झोपड़ी खोदी गई तो जमीन के नीचे कई लाख रुपये की रेजगारी निकली समझे आप, कई लाख...अब आप उस बुढ़िया को क्या कहेंगे गरीब....हो....हो...हो....’’
प्रवासी भारतीय चुप हो गए। कुछ क्षण बाद बोले, ‘‘लेकिन ऐसा सबके साथ तो नहीं हो सकता।’’
-भाई साब देखिए....किसी आदमी को सिर्फ अगर कपड़ा लपेटे कोई यूरोपिय देख ले, उसे गरीब ही कहेगा न ?"
‘‘जी हां।’’
‘‘अब बताइए...क्या गांधीजी गरीब थे हो-हो-हो-हो...अरे साहब, रियासत के दीवान के बेटे थे....हमारी तो परंपरा है। हमारे ऋषि-मुनि क्या गरीब थे’
‘‘पर यहां तो मैंने लोगों को भूख से मरते देखा है।’’
‘‘भाई साब, वो बुढ़िया भी भूख से ही मरी थी, जिसने लाखों रुपये की रेजगारी गाड़ रखी थी।’’
प्रवासी भारतीय चुप हो गए, लेकिन सज्जन ने तीसरा गिलास खत्म कर लिया था और अब उनकी आवाज इधर-उधर तक पहुंच रही थी।

‘‘भाई साब, झुग्गी झोपड़ी में रहने वाला हर आदमी लखपति है.....लखपति....बतांऊ कैसे सुनिए इन्हें दो-दो, तीन-तीन बार प्लाट एलाट होते हैं। प्लाटों को बेचकर नई झुग्गिया डाल लेते हैं। दिल्ली में किसी ने तीन प्लाट कहीं किसी भी कीमत पर बेच लिए तो लखपति तो है ही। आप उन्हें गरीब कहेंगे....’’सज्जन का लहजा नरम हो गया। ‘‘भाई साब, ये यूरोपवाले समझ नहीं पाते...मौसम की वजह से हम लोग कपड़े कम पहनते हैं...अजी कैसी गरीबी, कहां की गरीबी....हो....हो....हो....’’

प्रवासी भारतीय थोड़ चिढ़ से गए। उन्होंने अपनी सीधी की और बोले-मेरा लड़का ऑक्सफोर्ड में ‘इकोनामिक्स’ का प्रोफेसर है....उसने पी-एच.डी.किया हैं ‘इंडियन पावर्टी’ पर.....आप समझते हैं वह सब झूठ है...

‘‘मैं तो आपको आंखों देखी बता रहा हूं....बात दरअसल ये है भाई साब, यहां का आदमी काम करना नहीं चाहता...बस और कोई बात नहीं है...आप कहीं चले जाओ....बैठे-बैठे रोटी तोड़ने वाले ही ज्यादातर मिलेंगे....क्या तरक्की हो सकती है...’’उन्होंने व्हिस्की का एक लंबा घूंट लिया। प्रवासी भारतीय अंधेरे में ही प्यारी मातृभूमि की ओर देखने लगे। वेटर खाने की ट्रे लिए इधर-उधर दौड़ने-भागने लगे। संगीत की आवाज तेज हो गई।

खाने के बाद सज्जन ने पान बहार खाया और उसे मुंह में भरे-भरे प्रवासी भारतीय की तरफ मुड़ गए। प्रवासी भारतीय भी कुछ बातचीत करने पर उत्सुक नजर आ रहे थे। सज्जन की आंखें भरी थीं। खाने के बाद नशा चढ़ता-सा मालूम हो रहा था।

सज्जन बोले-ये तो मैं मानता हूं हमने तरक्की नहीं कि है....लेकिन भाई साब, क्यों नहीं की..जापान ने क्यों तरक्की की इसलिए कि उसके दो शहरों पर ऐटम बम गिरा दिया गया...जर्मनी ने क्यों तरक्की की इसलिए वॉर में तहस-नहस हो गया...रूस ने क्यों तरक्की की इसलिए कि सेकेंड वर्ल्डवॉर में हर घर से दो रूसी खेत रहे....समझे आप...हमारे यहां इंडिया में वॉर नहीं हूई...वॉर हो जाती तो सज्जन हंसे-मैं तो कहता हूं यहां एक ही ऐटम बम...अरे मैं कहता हूं....एक ही एटम बम गिरा जाए हो....

ऐसे नाजुक मौके पर मैंने मुंह खोला-आप ठीक कहते है भाई साब...सिर्फ एक एटम बम...गिरा दिया जाए...वो भी आपके शहर पर.....जहां भी आप रहते हो...दिल्ली में बंबई या जहां भी कहीं... और वह भी आपके घरे के ऊपर ही गिरे... और उस समय, जब आप अपने घर में हों... आपके बच्चे, पत्नी...मां-बाप...भाई-बहन...सब घर में हो...
‘‘ये आप क्या कह रहे हैं..सज्जन की त्यौरियां चढ़ गई।’’
‘‘आपकी तरक्की हो जाएगी भाई साहब!’’
‘‘कमाल के आदमी हैं आप।...वे चिल्लाए।’’
‘‘आप भी तो कमाल के आदमी हैं भाई साहब’
‘‘आप चाहते हैं मैं...मैं अपने परिवार समेत मर जाऊं...उनकी आवाज तेज हो गई थी। वे घूर रहे थे।’’
‘‘ये मैंने कब कहा है...बात तो ऐटम बम की हो रही थी।’’
‘‘तो ऐटम बम क्या फूल है’
‘‘ये तो आप ही को मालूम होगा।’’
‘‘चुप रहिए...’’वे गरजे।
मैंने आस्तीनें समेट लीं। अब गाली-गलौज का नंबर था। फिर मार-पीट होती। बेबात की बात पर। प्रवासी भारतीय के यूरोपीय संस्कार उभर आए। वे घबरा गए। बीच-बचाव कराने लगे।

सज्जन ने मेरी ओर इस तरह देखा जैसे मैं चार होउं। फिर उनकी आंखों में मेरे लिए घृणा का भाव आया। फिर उन्होंने इस तरह देखा जैसे ललकार रहे हों फिर उदासीनता और उपेक्षा का भाव आ गया। मैं कनखियों से उनकी तरफ देख रहा था। मैं मुस्करा रहा था और चाहता था, सज्जन को थोड़ा और गुस्सा आ जाए। पर सज्जन के चेहरे पर भय छा गया। शायद सज्जन ने कल्पना में अपने घर ऐटम बम को गिरते देख लिया होगा।
और जो कुछ हुआ हो या न हुआ हो, पर सज्जन का नशा बिगड़ गया था। या उतर गया था। सज्जन थोड़ी असुविधाजनक स्थिति में लग रहे थे।

राजधानी पूरी रफ्तार और वेग से चली जा रही थी। जिसने न देखी हो उसके लिए दैत्य के समान या महामारी-जैसी। निस्सीमता में पूरी गति के साथ छोटे-छोटे शहरों, कस्बों की फलांगती, गांवों और पूरवों को लांघती, खेतों और खलिहानों को कुचलती, पोखरों, तालाबों और नदी-नालों को डराती, वनों, उपवनों को रौंदती, ध्वनि और धूल का बवंडर उठाती। लगता, केवल
अंदर बैठे लोग ही सुरक्षित हैं या वे शहर जहां से यह शुरू या खत्म होती है। सब कुछ उसके पहियों के नीचे था। फिर भी सज्जन क्यों चाहते हैं कि देश पर ऐटम बम गिरा दिया जाए।