राजा का हाथी : मृणाल पाण्डे

Raja Ka Haathi : Mrinal Pande

बहुत पहले की बात है, एक वन में बहुत बडा गुरुकुल चलता था जिसका दूर-दूर तक नाम था। गुरुकुल में दाखिला पाना बहुत कठिन था। वजह यह कि दाखिले से पहले गुरुकुल के महातेजस्वी आचार्य पहले खुद हर बटुक की परीक्षा लेते थे। उनकी उस कड़ी परीक्षा में जो पास हो जाता उस बटुक को बिना जाति धर्म का विचार किये, आचार्य की अनुमति से गुरुकुल में प्रवेश पाने का हक मिल जाता था। गुरुकुल से पढ कर निकले मेधावी छात्रों की बडी पूछ थी और उनको भारी वेतनमान सहित सादर बड़े-बड़े दरबारों में न्योता जाता था।

कई साल गुरुकुल में पठन पाठन का काम चलाते रहे आचार्य का जब अंतिम समय आया तो उनकी तरफ से आचार्य की पीठ पर बैठने लायक एक योग्य उत्तराधिकारी चुनने के लिये तीन विशेष रूप से चुने गये पूर्व छात्रों को न्योता भेजा गया, जिनका छात्रावास छोड़ने के बाद बना सांसारिक करियर तथा रेपुटेशन आचार्य के कुछ भरोसेमंद सूत्रों के अनुसार, सामान्य से कहीं अधिक उजला साबित हुआ था।

समयानुसार तीनों पूर्व छात्र आये और सादर भूमि पर बिछी चटाई पर भीष्म पितामह की तरह लेटे अपने पूज्य आचार्य के चरण छू कर उनके गिर्द बैठ गये। गुरुकुल के अन्य शिक्षक नेपथ्य में बैठ गये। आचार्य ने बहुत स्नेह से अपने तीनों पूर्व शिष्यों को देखा और बोले, ‘मेरा अंत अब समीप है। इसलिये आज मैं तुम तीनों को एक विशेष बोध कथा सुनाता हूं, जिसके बाद मैं एक सवाल पूछूंगा। तुममें से जिसका उत्तर मुझे सबसे संतोषजनक लगेगा, वही मेरा उत्तराधिकारी बनेगा।’ ताकि सनद रहे, गुरुकुल के मेरे सभी सम्मानित सहकर्मी भी आज इस कमरे के पृष्ठ भाग में उपस्थित हैं। वे मेरे चयनित उत्तराधिकारी को ससम्मान पीठ पर स्थापित करेंगे ताकि गुरुकुल की निरंतरता खंडित न हो। अस्तु।’

इतना कह कर आचार्य ने कहानी शुरू की:

‘आज से बहुत समय पहले इस उपमहाद्वीप में सम्राट् सुरेन्द्र वर्धन नाम का एक बहुत प्रतापी चक्रवर्ती राजा राज्य करता था। उसने एक अश्वमेध का घोडा छोड कर जिस भी पडोसी राजा ने उसको पकडा उससे भीषण युद्ध करके उसे हराया। इस तरह अपनी भुजाओं की ताकत से उसने दस सालों में अपना साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में हिंद महासागर तक और पूरब में लुशाई की पहाड़ियों से ले कर पश्चिम में पामीर के पठार तक फैला लिया। अगले बरस सुरेंद्र वर्धन ने एक राजसूय यज्ञ किया जिसमें सब हारे हुए राजा सर झुका कर उसके सूबेदार बन कर बडी बडी भेंटें लेकर शामिल हुए। इस राजसूय यज्ञ से यह साबित हो गया कि सारे उपमहाद्वीप में उस जैसा कोई अन्य प्रतापी नेता न था।

इसके बाद सम्राट् कहते, ’उठो!’ तो सब लोग उठ कर खडे हो जाते।

सम्राट् हुकुम करते, ‘बैठो!’ तो सब लोग बैठ जाते।

सम्राट् आदेश देते, ‘ताली बजाओ’! तो सब लोग ताली बजाते।

सम्राट् दूसरा आदेश देते, ‘अब सब थाली बजाओ!’ तो सब थालियाँ बजाने लगते।

कभी सम्राट् कह देते, ‘आज शाम दीपक जलाओ’! तो सब लोग दिये जलाने बैठ जाते। फिर जब आदेश होता कि, ‘अब दिये बुझा कर सो जाओ!’ तो सब तुरत दियों को फूंक मार कर बुझाते और रजाइयों में दुबक कर सो जाते।

अब शुरू हुआ असली राजकाज। चारों तरफ सम्राट् के विश्वस्त राजकीय गुप्तचर घूम घूम कर हर सूबे में हर घर की पहरेदारी करने लगे। वे घर घर में घुस कर पल पल की खबर लेते और गुप्तचर विभाग के मुखिया को देते जो उनको भोजपत्र पर लिख कर हर रात सम्राट् तक पहुंचाते रहते थे।

इसके बाद किसी को कभी इस प्रकार की शिकायत करते नहीं सुना गया कि इस राज के तले उसे किसी तरह का दु:ख या कष्ट था। चौकीदार पूछते, ‘का हाल बा’? तो लोग तुरत कह देते ‘सब चंगा सी’।

सम्राट् सुरेंद्र वर्धन का एक दुलारा हाथी था, नाम था ऐरावत। जब सम्राट् अपने दुश्मनों के खिलाफ लडाई पर लडाई लड़ कर उनको परास्त कर रहे थे, तब वे हर बार इसी हाथी की पीठ पर सवार हो कर रणक्षेत्र में उतरते थे। पहाड़ जितना ऊंचा, बादल जैसा श्याम वर्ण, सूप जैसे बडे बडे कानों और दो विराट् तलवार जैसे दिखाने के दाँतों वाला ऐरावत विख्यात ‘सम्राट् का लड़ैया हाथी’ के नाम से जाना जाता था। बडे बूढे बताते थे कि जब अपनी अजगर जैसी सूंड उठाये चिंघाडता हुआ ऐरावत शत्रु पक्ष पर धावा बोलता, तो अधिकतर राजाओं के हाथी तो पहले ही जान बचाने को रणक्षेत्र से भाग निकलते। इस तरह कई युद्ध बिन लडे ही सम्राट् सुरेंद्र वर्धन ने जीत लिये।

इसके बाद सम्राट् हर शुभ अवसर पर लड़ैया ऐरावत पर ही सवार हो कर तामझाम सहित फूल बरसाती उलूध्वनि करती अपनी जनता के बीच निकलते थे। साम्राज्य जितना संभव था, फैल चुका था। सारे शत्रु हार चुके थे। सारी विधवायें रो पीट कर अपने बिन बाप के बच्चे संभालने लगी थीं। पंडिज्जीलोग मंदिर या राजबाड़ी में ठीकठाक किसम के रोज़गार पकड लिये थे। वणिक जन अपने अपने काफिलों में परदेस निकल कर व्यापार में फिर व्यस्त हो चुके थे, और उनके मुनीम गुमाश्ते गादी पर हुंडियाँ और सूद के लेन देन के काम निबटाने में। ज़्यादातर पुराने सैनिक, भाट-चारण, और सेना के नाई या वैद्य हकीम भी या तो शहर में अपना धंधा चलाने लगे थे या खेती-बाड़ी करने वापिस अपने गाँव लौट गये थे।

धीमे धीमे ऐरावत बूढा हो चला। पर महाराज का वह अब भी बहुत दुलरुआ बना रहा। उसके लिये एक खास हाथीशाला बनवाई गई थी, जहाँ उसकी सेवा टहल करने और नहलाने के लिये पाँच महावत तैनात थे। ऐरावत सुबह शाम छक कर गुड़ के हलवे, गन्ने और मुलायम पत्तियों का भोग लगाता। फिर उसका खरहरा होता जिसके बाद वह मंद मंथर गति से राजमहल के पास के एक पोखर में नहाने जाता, और देर तक पानी की फुहारें छोडता नहाता और सूप जित्ते बडे कान फटफटाता रहता। लड़ैया हाथी को नहाते हुए देखने शहर के कई लोग रोज़ पोखर के किनारे खडे रहते।

एक दिन क्या हुआ, कि नहाते नहाते ऐरावत का पैर अचानक फिसला और इससे पहले कि किनारे पर बीडी फूंकते बतियाते महावत भांप पाते हाथी पोखर के बीचोंबीच गहरे कीचड में धंस गया। यह होना था कि हल्ला मच गया, ‘अरे सम्राट् का लड़ैया हाथी कीचड में फंस गया, उसे निकालो रे!’ और भी बडी भीड़ जुट गई।

जैसा कि होता है हाथी की चिंघाड सुन कर आया, खुद किनारे पर खडा हर आदमी भी, महावतों को तरह तरह की सलाह देने लगा। कोई कहता ‘रस्से लाओ,’ कोई कहता ‘ रस्से से क्या होगा बे, दूसरा हाथी बुलवाया जाय वही इस विशाल हाथी को बाहर खींच सकेगा।’ इस पर तीसरा कहता ‘यार लड़ैया ऐरावत को कौन हाथी बाहर खींच पायेगा? मेरी मानो, लोहे की शिकडी ठीक रहेगी ।’ इस पर कोई इधर उधर देख मंद सुर में टिप्पणी करता, ‘नहीं यार, शाही हाथी है, चोट चपेट लग गई तो उल्टे गरीब महावतों को फांसी हो जायेगी?’

इस प्रकार पोखर के बाहर से हाय हाय सब कर रहे थे पर किसी के पास कोई कारगर तरकीब नहीं थी जिससे ऐरावत को बाहर निकाला जा सकता।

होते होते सम्राट् सुरेन्द्र वर्धन तक खबर पहुँची। सम्राट् ने, जैसी कि उनकी आदत थी, अपने दोनों हाथों की लोमश उंगलियों को स्तूप की तरह बना कर उन पर ठोढी टिकाई और कुछ सोचने लगे। दरबार में दरबारी और महल के बाहर प्रजा के लोग, सब दम साधे सम्राट् के श्रीमुख से अंतिम आदेश का इंतज़ार करने लगे।

कुछ देर बाद सम्राट् ने अंगुलियाँ हटाईं, अपना उत्तरीय ठीक किया और बोले, ‘हमारी राय है कि ऐरावत सामान्य नहीं कई युद्धों का लड़ैया हाथी है। इसलिये उसका मनोबल बढाने को ज़ोर ज़ोर से पोखर के किनारे पर युद्ध क्षेत्र के बाजों पर देशभक्ति की स्वर लहरियाँ बजवाई जायें, फिर देखते हैं।’

इसे कहते हैं बुद्धि! धन्य हो! कहते हुए सम्राट् का हुकुम सर माथे धर कर दरबारी तुरत मालगोदाम की तरफ भागे। देखते देखते पुराने युद्ध के ज़माने के नक्कारे, रणभेरियाँ, तूतियाँ और भोंपे निकाल कर तेल पानी से साफ कर दिये गये। फिर उनको थामे राजकीय वादक पोखर के किनारे जा पहुंचे जहां पहाड़ जैसा विशाल ऐरावत चिल्ला-चिल्ला कर थका हुआ और लस्त पड़ा था।

‘शुरू करो!’ राजमहल से आदेश मिला।

आदेश मिलना था कि सारे बाजे ज़ोर ज़ोर से बजने लगे। बाजों के सुर से सुर मिला कर गांव से दौड़े आये भाट और चारण भी वीर रस से भरे दोहे, चौपाइयाँ, छप्पय, सोरठे, और भुजंगप्रयात छंद में लिखित सम्राट् और ऐरावत की महान् दिग्विजयों पर रचे रासो गान गाने लगे।

संगीत जब चरम पर था, शिथिल पडे ऐरावत का पहाड सरीखा शरीर हिलने लगा। बाजे और ज़ोर से बजने लगे। ऐरावत की देह में एक लहर सी दौडी। फिर दूसरी। और तीसरी बार अहाहाहा क्षीर सागर से उबरे मंदार पहाड की तरह ऐरावत एक गगनभेदी चिंघाड के साथ उठ खडा हुआ और फिर ज़ोर लगा कर कीचड़ से उबर कर बाहर आ गया।

खबर पहुंची तो सम्राट् स्वयं राजमहल से पोखर के तट पर आ गये। उनको देखते ही जनता, जैसा कि वह करती आई थी, सम्राट् और उनके के प्रिय हाथी पर बारी बारी से गुलाब के, गेंदे के फूलों की पंखुडियां बरसाने लगी। बच्चे नाचने लगे। स्त्रियाँ मंगलगान गाने लगीं। और दरबारी पोखर के चारों तरफ सम्राट् और ऐरावत की शक्ति और अपनी भक्ति में निरंतर बढोतरी की कामनायें ज़ोर-ज़ोर से दोहराने लगे।

ऐरावत बाहर आया तो उसकी आरती की गई, तिलक लगाया गया और फिर उसे सम्राट् ने स्वयं अपने कर कमलों से थाल भर जलेबियाँ खिला कर हाथी शाला को विदा किया।’

इतनी कहानी सुना कर आचार्य ने अपने छात्रों से पूछा, ‘बोलो, यह कहानी तुमको क्या शिक्षा देती है?’

कुछ देर सन्नाटा रहा।

फिर एक शिष्य बोला : ‘ सर, यह, कि संगीत में बहुत ताकत होती है। उसको यदि भली तरह गाया-बजाया जाये तो किसी को बडी से बडी विपत्ति से भी उबारा जा सकता है।’

दूसरा बोला, ‘ सर,युद्ध एक महान कला है। और अनेक युद्धों का अनुभवी महारथी सचमुच महान होता है। पुराना योद्धा कितनी ही बडी बाधा के बीच, कमज़ोर गति को क्यों न प्राप्त हो चुका हो, युद्ध के बाजों का तुमुल निनाद सुनते ही अपनी सारी पुरानी शक्तियों को जगा सकता है। और किसी तरह के बंधन में पडा हो तो भी बिना किसी भी मदद के बाहर आ सकता है।’

और कोई?

खामोशी के बीच तीसरा शिष्य बोला, ‘सर, कहानी यह सिखाती है कि कितना ही बड़ा चक्रवर्ती सम्राट् हो अथवा उसका कोई बडा लड़ैया हाथी एक दिन सब बूढे हो जाते हैं। इसलिये बुद्धिमान लोगों को सही समय पर अपने लिये कोई युवा उत्तराधिकारी चुन लेना चाहिये।’

‘एकदम सही,’ आचार्य बोले और उस शिष्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर शांत मन से ब्रह्मलीन हो गये।

बात यहीं खतम हो जानी थी। लेकिन शीर्ष पद पाने की आस लगाये बैठे पहले दो पूर्व छात्रों को अपनी उपेक्षा, और आचार्य द्वारा तीसरे सामान्य कुल जाति के छात्र को अपना उत्तराधिकारी चुन लेना तनिक नहीं भाया। दोनो उच्चकुलोत्पन्न वीर पुरुष थे। उनमें से एक राजदरबार के न्यायमंत्री का पुत्र था, दूसरा गुप्तचर प्रमुख का बेटा। वे यह बात कैसे चुपचाप सहते? दोनों तुरत अपने पिताओं के पास भागे गये और उनको सब बताया। पिता पुत्रों से सहमत हुए और उन्होंने पहले परस्पर फिर राजमहल जा कर स्वयं चक्रवर्ती सम्राट् सुरेंद्रवर्धन से मंत्रणा की। उनका कहना था कि इशारे इशारे से ऐरावत तथा सम्राट् के बूढे होने तथा उनके उत्तराधिकारी के चयन पर पूर्व छात्र द्वारा की गई टिप्पणी पर तो सीधे सीधे राजद्रोह का मामला बनता है। इसे बख्शा गया और उसकी यह बात फैली, जो कि शिक्षा परिसर में बहुत देर तक छिपी नहीं रहेगी, तो कोई भी सिरफिरा विद्रोही गुरुकुल के प्रमुख का हवाला देते हुए राजद्रोह पर उतारू हो सकता है।

सम्राट् सहमत हुए। तुरत राजाज्ञा जारी हुई कि नये युवा प्राचार्य को नये सत्र की शुरुआत से पहले ही रातोंरात पकड कर राजदरबार में पेश किया जाये। और गुप्तचर प्रमुख भरे दरबार में उस युवक पर राजद्रोह के आरोप को जायज़ ठहराते हुए उसे बंदी बना कर कालकोठरी में भेजने की औपचारिक सलाह दें। और न्यायमंत्री यह कह कर, कि विधि की अमुक धारा के अनुसार राजद्रोह के मामले में किसी भी आरोपित की जमानत नहीं होती उसे कारावास भेजने के प्रस्ताव पर मुहर लगा दें। तदनुसार महाराज इस संगीन मामले को अनिश्चित काल के लिये कुछ पुराने न्यायविदों की एक विशेष समिति बना कर उसके सुपुर्द कर दें।

ऐसा ही किया गया।

कहते हैं आज भी जहाँ कालकोठरी के खंडहर खडे हैं, अभी हाल में वहाँ पिकनिक पर गये कुछ युवा छात्रों को एक युवा बटुक का भूत नज़र आया। भूत बड़बड़ा रहा था, ‘वह सभा नहीं, जिसमें वृद्ध न हों, और वह वृद्ध नहीं जो सत्य न बोलते हों, वह सत्य नहीं जो धर्म पर न टिका हो, और वह धर्म नहीं जो सबके साथ समान व्यवहार न करता हो।’

जिसने सुना, छात्रों से पहले कहा कि उधर जाने की ज़रूरत ही क्या थी? फिर कुछ लिबरल पिताओं ने इधर उधर देख कर तनिक नरमाई से जोड़ दिया कि, यार हम भी तुम्हारी इस गधा पचीसी की उम्र से गुज़र चुके हैं, छुप छुप कर दारू ज़्यादा पी लेने से इस उम्र में कई बार ऐसे ही भ्रम हो जाते हैं । तुम तो अभी बस पढाई में मन लगाओ, और फ्यूचर बनाओ। दादी नानी के इन किस्सों कहानियों में क्या रखा है?’