पुनर्नवा (उपन्यास) : हजारीप्रसाद द्विवेदी

Punarnava (Hindi Novel) : Hazari Prasad Dwivedi

(जिसे प्रायः सत्य कहा जाता है वह वस्तुस्थिति का प्रत्यक्षीकरण मात्र है। लोग सत्य को जानते हैं, समझते नहीं। और इसीलिए सत्य कई बार बहुत कड़वा तो लगता ही है, वह भ्रामक भी होता है। फलतः जनसाधारण ही नहीं, समाज के शीर्ष व्यक्ति भी कई बार लोकापवाद और लोकस्तुति के झूठे प्रपंचों में फँसकर पथभ्रष्ट हो जाते हैं।
पुनर्नवा ऐसे ही लोकापवादों से दिग्भ्रांत चरित्रों की कहानी है। वस्तुस्थिति की कारण-परंपरा को न समझकर वे समाज से ही नहीं, अपने-आपसे भी पलायन करते हैं और कर्तव्याकर्तव्य का बोध उन्हें नहीं रहता। सत्य की तह में जाकर जब वे उन अपवादों और स्तुतियों के भ्रमजाल से मुक्त होते हैं, तभी अपने वास्तविक स्वरूप का परिचय उन्हें मिलता है और नवीन शक्ति प्राप्त कर वे नए सिरे से जीवन-संग्राम में प्रवृत्त होते हैं।
पुनर्नवा ऐसे हीन चरित्र व्यक्तियों की कहानी भी है जो युग-युग से समाज की लांछना सहते आए हैं, किंतु शोभा और शालीनता की कोई किरण जिनके अंतर में छिपी रहती है और एक दिन यही किरण ज्योतिपुंज बनकर न केवल उनके अपने, बल्कि दूसरों के जीवन को भी आलोकिक कर देती है।
पुनर्नवा चौथी शताब्दी की घटनाओं पर आधारित ऐतिहासिक उपन्यास है, लेकिन जिन प्रश्नों को यहाँ उठाया गया है वे चिरंतन हैं और उनके प्रस्तुतीकरण तथा निर्वाह में आचार्य द्विवेदी ने अत्यन्त वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील दृष्टिकोण का परिचय दिया है।)

पुनर्नवा : एक

देवरात साधु पुरुष थे। कोई नहीं जानता था कि वे कहाँ से आकर हलद्वीप में बस गये थे। लोगों में उनके विषय में अनेक किंवदन्तियाँ थी। कोई कहता था, वे कुलूत देश के राजकुमार थे और विमाता से अनेक प्रकार के दुर्व्यावहार प्राप्त करने के बाद संसार से विरक्त होकर इधर चले आये थे। कुछ लोग बताते थे कि बाल्यावस्था में ही मंखलि नामक किसी सिद्ध पुरुष से परिचय हो गया और उनके उपदेशों से वे संसार त्यागकर रमता राम बन गये। उनके गौर शरीर, प्रशस्त ललाट, दीर्घ नेत्र, कपाट के समान वक्षःस्थल, आजानुविलम्बित बाहुओं को देखकर इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता था कि वे किसी बड़े कुल में उत्पन्न हुए हैं। उनके शरीर में पुरुषोचित तेज और शौर्य दमकता रहता था और मन में अद्‌बुत औदार्य और करुणा की भावना थी। वे संस्कृत और प्राकृत के अच्छे कवि भी थे और वीणा, वेणु, मुरज और मृदंग-जैसे विभिन्न श्रेणी के वाद्य-यन्त्रों के कुशल वादक भी थे। चित्र-कर्म में भी वे कुशल माने जाते थे।

यह प्रसिद्ध था कि क्षिप्तेश्वरनाथ महादेव के मन्दिर के भीतरी भाग में जो भित्तिचित्र बने थे, वे देवरात की ही चमत्कारी लेखनी के फल थे। शील, सौजन्य, औदार्य और मृदुता के वे यद्यपि आश्रय माने जाते थे, परन्तु फिर भी उन्होंने वैराग्य ग्रहण किया था। हलद्वीप के राज-परिवार में उनका बड़ा सम्मान था। जब कभी राजा के यहाँ कोई उत्सव होता था, वे ससम्मान बुलाये जाते थे। वे यज्ञ-याग में उसी उत्साह के साथ सम्मिलित होते थे जिस उत्साह के साथ मल्ल-समाह्वय में। वे पण्डितों की वाद-सभा में भी रस लेते थे और नृत्यगीत के आयोजनों में भी। लोगों का विश्वास था कि उन्हें संसार के किसी विषय से आसक्ति नहीं थी। उनका एकमात्र व्यसन था दीन-दुखियों की सेवा, बालकों को पढ़ाना और उन्हीं के साथ खेलना। यद्यपि वे अनेक शास्त्रों के ज्ञाता थे और भगवद्‌-भक्त भी माने जाते थे, परन्तु वे नियमों और आचारों के बन्धनों में कभी नहीं पड़े। साधारण जनता में उनकी रहस्यमयी शक्तियों पर बड़ी आस्था थी, परन्तु किसी ने उन्हें कभी पूजा-पाठ करते नहीं देखा।

देवरात का आश्रम हलद्वीप से सटा हुआ, थोड़ा पश्चिम की ओर, महासरयू के तट पर अवस्थित था। च्यवनभूमि के चौधरी वृद्धगोप उन पर बड़ी श्रद्धा रखते थे। वृद्धगोप का इस क्षेत्र में बड़ा सम्मान था। उनके पूर्व-पुरुष मथुरा से शुंग राजाओं की सेना के साथ आकर यहीं बस गये थे। नन्दगोप के वंशधर होने के कारण उनका कुल जनता की श्रद्धा और विश्वास का पात्र था। वृद्धगोप के दो पुत्र थे जिनमें एक तो वस्तुतः ब्राह्मण-कुमार था जिसे उन्होंने यत्न और स्नेह से पाला था। कुछ साँवला होने के कारण उन्होंने इसका नाम दिया था श्यामरूप। दूसरा आर्यक उनका अपना लड़का था। श्यामरूप को उन्होंने देवरात के आश्रम में पढ़ने के लिए भेजने का निश्चय किया। उस समय उसकी अवस्था आठ या नौ वर्ष की थी।

जब श्यामरूप आश्रम में जाने लगा तो चार-पाँच वर्ष की अवस्था का आर्यक भी पाठशाला जाने के लिए मचल उठा। वृद्धगोप आर्यक को अपनी वंश-परम्परा के अनुकूल मल्ल-विद्या की शिक्षा देना चाहते थे, परन्तु उसके हठ को देखते हुए उन्होंने उसे भी पाठशाला जाने की आज्ञा दे दी। देवरात इन दोनों शिष्यों को पाकर बहुत अधिक प्रसन्न हुए। उन्होंने वृद्धगोप से आग्रह किया कि दोनों बच्चों को उनके आश्रम में पढ़ने दिया जाय। उन्होंने गद्‌गद-भाव से वृद्धगोप से कहा था कि उन्हें ऐसा लग रहा है, जैसे स्वयं बलराम और कृष्ण ही इन दो बच्चों के रूप में उनके सामने आ गये हैं। भाव-गद्‌गद होकर दोनों बच्चों को गोद में लेकर वे देर तक बैठे रहे और फिर आकाश की ओर देखकर बोले, ‘प्रभो ! यह कैसी अपूर्व लीला है ! आज तुमने गौर रूप धारण किया है और बड़े भैया को श्यामरूप दे दिया है !’ वृद्धगोप ने सुना तो उन्हें रोमांच हो आया। उन्हें लगा कि सचमुच ही जिस प्रकार नन्दगोप की गोदी में बलराम और कृष्ण आ गये थे, वैसे ही उनकी गोदी में श्यामरूप आर्यक आ गये हैं।

महात्मा देवरात के चरणों में साष्टांग दण्डवत्‌ करते हुए उन्होंने कहा, ‘आर्य, आज मेरा जन्म-जन्मान्तर कृतार्थ जान पड़ता है। आपने ही इन दोनों बच्चों में बलराम और कृष्ण का रूप देखा है और आप ही इन्हें बलराम और कृष्ण बना सकते हैं। मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि श्यामरूप अपनी वंश-परम्परा के अनुसार पण्डित बने और आर्यक अपनी वंश-परम्परा अनुसार अजेय मल्ल बने, परन्तु आपके चरणों में इन्हें सौंप मैं निश्चिन्त हुआ हूँ। आप इन्हें यथोचित्‌ शिक्षा दें।’ देवरात देर तक दोनों बच्चों के शारीरिक लक्षणों की परीक्षा करते रहे और उल्लसित स्वर में बोले, ‘चिन्ता न करें भद्र, ये दोनों ही बच्चे पण्डित भी बनेंगे और अजेय मल्ल भी। आर्यक में चक्रवर्त्ती के सब लक्षण दिखायी दे रहे हैं। यदि सामुद्रिक-शास्त्र सत्य है तो आर्यक दिग्विजयई होकर रहेगा और श्यामरूप उसका महामात्य बनेगा।’ फिर आर्यक की ओर ध्यान से देखते हुए बोले, ‘मेरा मन कहता हैकि यह बालक वृद्धगोप के घर में गाय चराने के लिए पैदा नहीं हुआ है। यह बहुत बड़ा होगा, बहुत बड़ा !’ वृद्धगोप सन्तुष्ट होकर घर लौट आये। दोनों बच्चे देवरात की देख-रेख में पढ़ने और बढ़ने लगे। देवरात ने त्रिलिंग देश के मला राजुल को उन्हें व्यायाम और मल्ल-विद्या सिखाने के लिए नियुक्त किया।

देवरात दीन-दुखियों की सेवा में सदा तत्पर रहा करते थे। उन्हें किसी से कुछ लेना-देना नहीं था। परन्तु उनकी कला-मर्मज्ञता का राज-भवन में भी सम्मान था। हलद्वीप की जनता का विश्वास था कि देवरात जो हलद्वीप में टिक गये हैं, उसका मुख्य कारण राजा का आग्रह और सम्मान है। अन्तःपुर में भी उनका अबाध प्रवेश था। वस्तुतः वे राजा और प्रजा दोनों के ही सम्मानभाजन थे।

देवरात के शील, सौजन्य, कला-प्रेम और विद्वत्ता ने हलद्वीप की जनता का मन मोह लिया था। लोग कानाफूसी किया करते थे कि उनका विरोध सिर्फ़ एक ही व्यक्ति की ओर से है। वह थी हलद्वीप के छोटे नगर की नगरश्री मंजुला। सारे नगर में उसके रूप, शील, औदार्य और कला-पटुता की धूम थी। बड़े-बड़े श्रेष्टि-कुमार उसके कृपा-कटाक्ष के लिए लालायित रहा करते थे। उसके नृत्य में मादकता थी और कण्ठ में अमृत का रस। हलद्वीप में वह अत्यन्त अभिमानिनी गणिका के रूप में विख्यात थी और अपने विशाल सतखण्ड हर्म्य के बाहर बहुत कम जाती थी। केवल विशेष-विशेष अवसरों पर आयोजित राजकीय उत्सवों में ही वह अपना नृत्य-कौशल दिखाया करती थी। अन्य अवसरों पर नृत्य और गीत के प्रेमियों को उसके द्वारस्थ होकर ही अपना मनोरथ पूरा करना पड़ता था। उसके अभिमान और आत्म-गौरव के सम्बन्ध में लोगों में अनेक प्रकार की किंवदन्तियाँ प्रचलित थीं। कहा तो यहाँ तक जाता था कि कला-चातुरी के बारे में राज भी उसकी आलोचना करने में हिचकते थे।

हलद्वीप के पश्चिमी किनारे पर, जहाँ बोधसागर की सीमा समाप्त होती थी, एक ऊँचा-सा टीला था। बरसात में जब बोधसागर में पानी भर जाता था और महासरयू में भी उफान आता था, तो यह टीला चारों ओर पानी से घिर जाता था इसीलिए वह हलद्वीप में एक दूसरे द्वीप की तरह दिखायी देता था। उसका नाम ’द्वीपखण्ड’ सर्वथा उचित था। इसी द्वीपखण्ड के दक्षिण-पूर्वी छोर पर हलद्वीप का ’सरस्वती-विहार’ था। वसन्तारम्भ के दिन इस सरस्वती-विहार में काव्य, नृत्य, संगीत आदि का बहुत बड़ा आयोजन हुआ करता था। उस दिन राजा स्वयं इन उत्सवों का नेतृत्व करते थे। कई दिन तक नृत्य-गीत के साथ-साथ अक्षर-च्युतक, बिन्दुमती, प्रहेलिका आदि की प्रतियोगिताएँ चलती थीं, न्याय और व्याकरण के शास्त्रार्थ हुआ करते थे, कवियों की समस्यापूर्त्ति की प्रतिद्वन्द्विता भी चला करती थी, और देश-विदेश से आये हुए प्रख्यात मल्लों की कुश्तियाँ भी।

राजा के सभापतित्व में ही एक बार मंजुला का नृत्य इसी सरस्वती-विहार में हुआ। देवरात भी सदा की भाँति आमन्त्रित थे। मंजुला ने उस दिन बड़ा ही मनोहर नृत्य किया था। स्वयं राजा ने उसे उस नृत्य के लिए साधुवाद दिया था। देवरात भाव-गद्ग गद होकर देर तक उस मादक नृत्य का आनन्द लेते रहे। मंजुला ने उस दिन पूरी तैयारी की थी। उस दिन उसकी सम्पूर्ण देह-लता किसी निपुण कवि द्वारा निबद्ध छ्न्दोधार की भाँति लहरा रही थी; द्रुत-मन्थर गति अनायास विविध भावों को इस प्रकार अभिव्यक्त कर रही थी, मानो किसी कुशल चित्रकार द्वारा चित्रित कल्पवल्ली ही सजीव होकर थिरक उठी हो। उसकी बड़ी-बड़ी काली आँखें कटाक्ष-निक्षेप की घूर्णमान परम्पराओं का इस प्रकार निर्माण कर रही थीं जैसे नीलकमलों का चक्रवाल ही चंचल हो उठा हो, शरत्कालीन चन्द्रमा के समान उसका मुखमण्डल चारियों के वेग से इस प्रकार घूम रहा थ कि जान पड़ता था, शत-शत चन्द्रमण्डल ही आरात्रिक प्रदीपों की अराल-माला में गुँथकर जगर-मगर दीप्ति उत्पन्न कर रहे हों। उसकी नृत्य-भंगिमा से नाना स्थिति की भाव-मुद्राएँ अनयास निखर उठी थीं। उसके कन्धे के नीचे मृणाल-कोमल भुज-युगल सुकुमार-संग्रथित द्विपदी-खण्ड के समान भाव-परम्परा में वलयित हो उठते थे वस्तुतः पूर्वानिल के झोंकों से झूमती हुई शतावरी लता के समान उसकी सम्पूर्ण देह-वल्लरी ही भावोल्लास की तरंग से लीलायित हो उठी थी। ऐसा लगता था, वह छन्दों से ही बनी है, रागों से ही पल्लवित हुई है, तानों से सँवारी गयी है और तालों से ही कसी गयी है। सभा एकाग्र की भाँति, चित्रलिखित की भाँति, मन्त्र-मुग्ध की भाँति, साँस रोककर उस अपूर्व तालानुग उत्ताल नर्त्तन का आनन्द ले रही थी।

नृत्य की समाप्ति के बाद भी एक प्रकार की मादक विह्वलता छायी हुई थी। महाराज के साथ सम्पूर्ण राज-सभा ने उल्लसित स्वर में ‘साधु-साधु’ की हर्षध्वनी की। देवरात निर्वत-निष्कम्प दीप-शिखा की भाँति, निस्तरंग जलाशय की भाँति, वृष्टिपूर्व घनघुम्मर मेघमाला की भाँति स्थिर बने रहे। मंजुला ने गर्वपूर्वक उनकी ओर देखा। वे शान्त बने रहे। ऐसा लगता था कि वे अब भी भाव-विह्वल अवस्था में थे। महाराज ने सचेत किया, ‘आर्य देवरात, नृत्य कैसा लगा आपको ?’ ऐसा लगा कि देवरात आयासपूर्वक अपनी संज्ञा के खोये हुए तन्तुओं को समेटने लगे। बोले, ‘क्या कहना है महाराज, मंजुला देवी ने आज नृत्य-कला को धन्य कर दिया है। शास्त्रकारों ने जो नृत्य को देवताओं का चाक्षुष यज्ञ कहा है, वह बात आज प्रत्यक्ष देख सका हूँ।’ फिर मंजुला को सम्बोधन करते हुए बोले, ‘धन्य हो देवि, ताल तुम्हारे चरणों का दास है, भाव तुम्हारे मुखमण्डल का मुँह जोहता रहता है…।’ कहते-कहते वे बीच में ही रुक गये। स्पष्ट जान पड़ा कि वे कुछ कहना चाहते थे पर कह नहीं सके हैं। महाराज ने जान-बूझकर छेड़ा, ‘कुछ त्रुटि भी रह गयी है क्या, आर्य ?’ मंजुला मन-ही-मन जल उठी। उसे लगा कि देवरात कुछ दोषोद्‌गार करने के लिए ही यह मीठी भूमिका बाँध रहे हैं। इसके पहले भी कई बार मंजुला देवरात की आलोचना सुन चुकी थी। यद्यपि देवरात ने कभी भी ऐसी कोई बात नहीं कही जिसमें रंच-मात्र भी अश्रद्धा प्रकट हुई हो, पर मंजुला ने सदा ही उनकी आलोचनाओं में द्वेष-भाव ही देखा था। आज भी उसे लगा की देवरात कुछ ऐसा ही करने जा रहे हैं।

परन्तु देवरात कभी विद्वेष-बुद्धि से किसी को कुछ नहीं कहते थे। उन्हें सचमुच मंजुला का नृत्य अच्छा लगा था, यद्यपि वे उससे कुछ अधिक की आशा रखते थे। मंजुला को ही सम्बोधन करते हुए बोले, ‘बड़ा ही रमणीय साधन तुम्हें मिला है देवि ! अपने को खोकर ही अपने को पाया जा सकता है। तुम्हारा नृत्य इसी महासाधना की ओर अग्रसर हो रहा है। इस महाविद्या के बल पर ही एक दिन तुम स्वयं को दलित द्राक्षा की तरह निचोड़कर महा-अज्ञात के चरणों में दे सकोगी।’ फिर यह सोचकर कहीं मंजुला के चित्त को ठेस न पहुँच जाय, वे फिर उसी को सम्बोधन करके बोले, ‘अज्ञ जन दया का पात्र होता है, देवि ! अवश्य ही तुमने कुछ समझकर ही भावानुप्रवेश की उपेक्षा की होगी। मैं तो अज्ञ श्रद्धालु के रूप में ही यह सब कुछ कह रहा हूँ। इसे अन्यथा न समझना।’ मंजुला का मुख क्षण-भर के लिए म्लान हो गया। वह कुछ उत्तर नहीं दे सकी। राजा ने ही बीच में उसे सम्हाला, ‘आर्य, किस प्रकार का भावानुप्रवेश आप चाहते हैं ?’ देवरात मंजुला का म्लान मुख देखकर अनुतप्त हुए। परन्तु बात उनके मुँह से निकल चुकी थी और राजा के प्रश्न का उत्तर आवश्यक था।

बड़ी संयत वाणी में उन्होंने कहा, ‘देव, मंजुला का नृत्य निस्सन्देह बहुत उत्तम कोटि का है। जो बात मेरी समझ में नहीं आयी, वह यह है कि ‘छलित’ नृत्य में नर्त्तक या नर्त्तकी को उन भावों का स्वयं अनुभव-सा करना चाहिए जो अभिनीत हो रहे हैं। इसी को भावानुप्रवेश कहते हैं। दूसरों के द्वारा प्रकट किये हुए भाव में स्वयं अपने को प्रवेश कराना का कौशल ! निस्सन्देह मंजुला देवी इसमें निपुण हैं परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि वे आज अपने को भूल नहीं सकी हैं। नृत्य का उद्देश्य मानो कुछ और था — सहज आनन्द से भिन्न, कुछ ओर बात !’ देवरात को संकोच अनुभव हो रहा था। बात कुछ अवांछित दिशा की ओर बढ़ती जा रही थी। उसे किसी दूसरी ओर मोड़ देने के उद्देश्य से उन्होंने कहा, ‘भावानुप्रवेश तो पहली सीढ़ी है महाराज ! अन्तिम लक्ष्य तो महाभाव की अनुभूति ही है।’ मंजुला ने सुना तो उसे बड़ी चोट लगी। नृत्य-कला में वह और किसी की विदग्धता स्वीकार नहीं करती थी परन्तु आज सचमुच ही उसके मन में चोर था। वह देवरात को दिखा देना चाहती थी कि उसके समान नर्त्तकी संसार में और कोई नहीं। हलद्वीप में एकमात्र देवरात ही उसकी दृष्टि में ऐसे थे, जो उसके रूप और गुण से अभिभूत नहीं हुए थे। आज सचमुच ही उसके मन में देवरात पर विजय पाने की लालसा थी। फीकी हँसी हँसकर उसने कृत्रिम विनय के स्वर में कहा, ‘आप तो नृतक आचार्य जान पड़ते हैं।’ परन्तु मतलब यह था कि तुम्हारे आचार्यत्व का अभिमान तुच्छ है।

सभा भंग होने के बाद मंजुला अपने घर लौट आयी, लेकिन एक शब्द उसके कानों के पास बराबर मँडराता रहा — ‘भावानुप्रवेश।’ क्रोधावेश में उसने सोचा, देवरात कहता है कि उसमें भावानुप्रवेश के कौशल में कमी है। यह देवरात दम्भी है, क्लीव है, कुत्सा-प्रिय है। उसने मंजुला का अपमान किया है। परन्तु जैसे-जैसे आवेश ठण्डा पड़ता गया, वैसे-वैसे मंजुला के मन में और तरह के विचार आते गये। देवरात एकमात्र समझदार सहृदय है। उसने मंजुला के मन का चोर पकड़ा है। उसे उसकी सीमा में प्रवेश करके परास्त करना होगा। उसका गर्व-चूर्ण करना होगा। उस रात मंजुला को नींद नहीं आयी। देवरात का अक्षोभ्य मुख उसके मानस-पटल पर बार-बार आ जाता था। यह आदमी कभी उसके रूप से अभिभूत नहीं हुआ और कभी उसके प्रति इसने अश्रद्धा या लोलुप दृष्टि से नहीं देखा। कला का मर्मज्ञ है, बाह्य रूप का चाटुकार नहीं।

मगर मंजुला यह नहीं समझ सकी कि वह उससे जलता क्यों रहताहै ! जब देखो, मीठी छुरी चला देता है। कहता है, भावानुप्रवेश की कमी है। भण्ड है, मायावी है, निन्दक है। मगर सारी दुनिया तो मंजुला पर मुग्ध है, एक देवरात नहीं मुग्ध होता तो उससे उसका क्या बिगड़ जाता है ? मंजुला के पास इसका उत्तर नहीं था। क्यों उसका मन बराबर देवरात पर विजय पाने को तरसता है ? क्या वह नहीं जानती कि हजार विडम्बक रसिकों की चाटुकारी, सच्चे सहृद्य के एक बार सिर हिलाने की बराबरी नहीं कर सकती ? नहीं, देवरात को वश में करने का उपाय कुछ और है। रूप की माया उसे नहीं आकृष्ट कर सकती, हेला और विव्वोक उसे नहीं अभिभूत कर सकते, उसे वश में करने का कुछ और ढंग होना चाहिए। मिट्टी के शरीर पर आकृष्ट होनेवाले रसिक जानते ही नहीं कि रस क्या चीज़ है। सहृदय भाव चाहता है, देवरात और भी आगे बढ़ कर महाभाव चाहता है। महाभाव क्या होता होगा भला ! मंजुला फिर उलझ गयी। देवरात किस महाभाव में रहते हैं ? सदा प्रसन्न, सदा श्रद्धा-परायण, सदा निर्लोभ। मंजुला सोचने लगी, उसे देवरात को क्या ग़लत समझा था ? पूरी राज-सभा में वही तो एक सहृदय है जो रस का मर्मज्ञ है, बाकी तो भाँड हैं। ना, देवरात ही सच्चा पुरुष है बाकी तो मांस के भुक्खड़ भेड़िये हैं। देवरात को परास्त करना होगा, मगर उसी के स्तर पर। उसे पसीना आ गया। अंगुलियों में भी स्वेद की आर्द्रता अनुभूत हुई। यह चिन्ता उसे कई दिनों तक व्याकुल किये रही।

कुछ दिन बाद एक दूसरे आयोजन के समय मंजुला को देवरात पर विजय पाने का अवसर मिला। उस दिन उसका चित्त निरन्तर मथित होने के बाद शान्त हो आया था। जैसे बिलोये हुए दधि में मक्खन उतर आता है, वैसे ही मंजुला में अब सात्त्विक भाव उमड़ आया था। उसने विशुद्ध कलाकार की ऊँचाई से सहृदय को वश में करने का निश्चय किया था। देवरात उस दिन प्राकृत में एक कविता सुना रहे थे। कवित शृंगार रस की जान पड़ती थी। बहुत-से लोग, जो देवरात को वैरागी समझते थे, इस कविता को सुनकर विस्मित हुए थे। कविता इस प्रकार थी —

अज्जं पिताव एक्कं मा मं वारेहि पियमहि रुअन्तीं।
कल्लिं उण तम्मि गए जइ ण मुआ ता ण रोदिस्सम्‌॥

(रोवन दै सखि आजि तू, मति बरजै, रहि मौन।
ललन चलन लखि काल्हि जौ, प्राण बचै, रोऔ न॥)

देवरात ने इसको बड़े व्याकुल स्वर में पढ़ा। उनका स्वर काँप रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि नाभी-कुहर से निकले हुए शब्द हैं जो समस्त चक्रों को अनायास ही बेधकर निकल रहे हैं। देवरात का नाद-यन्त्र केव निमित्त-मात्र जान पड़ता था। ऐसा लगता था कि कोई विश्वव्यापिनी मर्म-वेदना अनायास ही उनके नाद-यन्त्र के माध्यम से हिल्लोलित हो उठी हो। छिछले रस-मर्मज्ञों को इसमें सन्देह नहीं रहा कि इसका कवि स्वयं अनुभव करने के बाद ही ऐसी बात कह रहा है। लोगों ने यह भी कहना शुरू किया कि इस कविता का सम्बन्ध देवरात की किसी आप-बीती कहानी से अवश्य है लेकिन मंजुला विचलित हो गयी। वह मन-ही-मन देवरात के वैदग्ध्य से मुग्ध हो रही। उसे लगा कि व्यर्थ में उद्धत अभिमान के कारण वह अब तक इस एकमात्र सहृदय पुरुष की उपेक्षा करती रही है। उसका अन्तर इस प्रकार द्रवित हो उठा जैसे दीर्घकाल से जमा हुआ हिम एकाएक उष्ण वायु स्पर्श से पिघल गया हो। हाय, किस गहराई में उस असामान्य पुरुष के अन्तर-देश में मर्मन्तुद पीड़ा घर किये बैठी है ! ऊपर से वह गम्भीर बनी रही पर उसका अन्तर द्रवित हो चुका था।

राजा ने उससे प्रश्न किया, ‘कहो मंजुला, आर्य देवरात की कविता कैसी लगी ?’ मंजुला ने कृत्रिम गर्व का भाव धारण किया। विव्वोक-चटुल मुद्रा में ‘नासा मोरि नचाइ दृग’ बोली, ‘बासी है !’ और मन्द-मन्द मुस्कराती हुई देवरात की ओर इस प्रकार देखने लग गई, मानो कह रही हो मेरे शब्दों पर न जाना, कविता अच्छी है। देवरात ने उस दृष्टि का अर्थ समझा और बोले, ‘देवि ! अनुग्रह हो तो कुछ प्रत्यग्र-मनोहर सुनने की इच्छ है।’ लेकिन इस बीच मंजुला का यह उत्तर सुनकर राजा हँस पड़े थे और उनके पीछे बैठी चाटुकारों, भाटों, विदूषकों और विटों की मण्डली भी हँसी से इस प्रकार लोटपोट हो गयी थी, मानो अन्नदाता ने अभूतपूर्व परिहास किया हो। मंजुला के मन पर चोट लगी। वह नहीं चाहती थी कि देवरात उसे ग़लत समझें। अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से उसने कातर अपांग से देवरात की ओर देखा, भाव था, ‘इन भोंडे रसिकों की हँसी की उपेक्षा करें। मैं परवश हूँ।’ देवरात ने आँखों की भाषा में उत्तर दिया, ‘कुछ परवाह न करो, ये नासमझ हैं।’ फिर एक-दो बार आँखों-ही आँखों में बातें हुईं।

राज-सभा में किसी ने इस दृष्टि-विनिमय को समझने का प्रयत्न नहीं किया। राजा ने मंजुला से कहा, ‘हाँ सुन्दरि, कुछ प्रत्यग्र-मनोहर सुनाओ।’ प्रत्यग्र-मनोहर, अर्थात्‌ जो अपनी ताज़गी से ही मन हर लेता हो। मंजुला ने एक बार फिर देवरात की ओर ईषत्‌ कटाक्ष-निक्षेप किया। भाव यह था कि ‘शुरू करूँ, अनुमति है ?’ देवरात ने हँसते हुए कहा, ‘अवश्य सुनाओ देवि, मगर सौन्दर्य तो वही है जो बासी नहीं होता।’ मंजुला ने जीभ काट ली — क्या देवरात को आलोचना बुरी लग गयी है ? राजा की ओर देखते हुए, किन्तु वस्तुतः देवरात को लक्ष्य करके उसने कहा, ‘मैं बासी को भी ताज़ा बना सकती हूँ, महाराज !’ राजा एक बार फिर हँसे और साथ ही विटों और विदूषकों की मण्डली लहालोट हो गयी। देवरात ने कहा, ‘अवश्य कर सकती हो देवि, विलम्ब का क्या प्रयोजन है ?’ पीछे से किसी ने टिटकारी दी, ‘हाय, हाय, सूखी डाल में कोंपलें फूट रही हैं रे !’ मंजुला को बुरा लगा। देवरात के चेहरे पर कोई भाव नहीं दिखायी दिया।

मंजुला ने सोचा कि देर करने से इन विडम्ब-रसिकों से न जाने क्या-क्या सुनने को मिले इसलिए हाथ जोड़कर उसने राजा से कहा, ‘महाराज, आप नए प्रत्यग्र-मनोहर सुनाने की अनुमति दें और बाद में बासी को ताज़ा करने की।’ महाराज ने उल्लासपूर्वक साधुवाद दिया और मंजुला रंगभूमि में उतरी। उस दिन वह सचमुच ’भावानुप्रवेश’ की मुद्रा में थी। बड़ी ही करुण-मधुर वाणी में उसने अपनी रचना पढ़ी। लेकिन कविता का पाठ आरम्भ करने के साथ ही वह भाव-विह्वल मुद्रा में दिखायी पड़ी। कसा हुआ धम्मिल-पाश (जूड़ा) न जाने कब बिखरकर पीठ पर फैल गया। वह करुण रस की मूर्त्ति या शरीरधारिणी विरह-व्यथा की भाँति कूक उठी। क्या सोचकर उसने यह कविता लिखी थी, यह तो उसके अन्तर्यामी ही जानते होंगे, परन्तु उसके पढ़ने में अजीब मादकता थी। ऐसा जान पड़ता था कि उसने हृदय का समूचा रस उँड़ेलकर उसके एक-एक अक्षर को भिगोया था। प्रत्येक अक्षर स्फुट रूप से उच्चरित था, यथास्थान, ’काकु’ का उचित सन्निवेश था और छ्न्द की लहरी भाव के साथ विचित्र भंगिमा में हिल्लोलित हो उठी थी। उस दिन वह वास्तविक ‘भावानुप्रवेश’ की अवस्था में थी। उसने संस्कृत का श्लोक नहीं पढ़ा, प्राकृत की आर्या नहीं सुनायी, सुनाया गराम्य भाषा में प्रयुक्त होनेवाला विरह-गीत (बिरहा) का अत्यन्त मनोहर दोहा छ्न्द। व्याकुल वाणी में उसने सुनाया –

दुल्लह जण अणुराउ गरु लज्ज परब्बसु प्राणु ।
सहि मणु विसम सिणेह बसु मरणु सरणु णहु आणु ॥

(दुर्लभ जन अनुराग बड़ि लज्जा परबस प्रान।
सखि मन विषम सनेह-बस, मरन सरन, नहिं आन॥)

उसने व्याकुल कम्पित स्वर में ‘प्राणु’ शब्द को खींच। ऐसा जान पड़ा, आकाश रो उठा है, वायु-मण्डल काँप उठा है। अन्तिम चरण तक आते-आते उसका स्वर शिथिल होने ल्गा। वह अर्धमूर्च्छित-सी होकर रंगभूमि में शिथिल भाव से पड़ रही। सभासदों ने आशंकित होकर सोचा, यह क्या अभिन्य है, या सच्ची वेदना है ? धीरे-धीरे मंजुला की संज्ञा लौट आयी। उसने देवरात की पढ़ी हुई आर्या को भी पढ़ा। करुण-कम्पित स्वर से वायु-मण्डल विद्ध हो उठा। ऐसा जान पड़ा, वह आविष्ट है। जो मंजुला नित्य दिखाई देती है, उससे मानो यह भिन्न हो। काव्य, संगीत और अभिनय के उत्तम पक्षों का यह बहुत ही रमणीय सामंजस्य था। जब कविता-पाठ के बाद वह उठी, तब भी आविष्ट अवस्था में थी। चलने लगी तो चरणों के अलस संचार में भी विरह-व्यथा तरंगित हो रही थी, विलुलित केश-पाश से अनुभाव लहरा उठे थे और शिथल नयनों से व्याकुल उच्छ्‌वास चंचल हो उठा था।

स्वयं देवरात के सिवा सभी सभासदों ने यही समझा कि यह देवरात को परास्त करने का आयोजन है। वे यह भी सोच रहे थे कि देवरात अवश्य कुछ-न-कुछ दोषोद्‌गार करेंगे परन्तु आश्चर्य के साथ देखा गया कि देवरात की आँखों से अविरल अश्रु-धारा झर रही है। उनके होंठ सूख गये हैं और कपोल-प्रान्त मुरझाये हुए कमल के समान पाण्डुर हो उठे हैं। मंजुला ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि देवरात की ऐसी दशा हो जायेगी। देवरात कुछ प्रकृतिस्थ होकर बोले, ‘धन्य हूँ देवि, जो वाग्देवता को प्रत्यक्ष देख रहा हूँ।’ उनकी इस प्रशंसा को सुनकर मंजुला के सहज-प्रगल्भ मुख पर पहली बार लज्जा की लालिमा दिखायी पड़ी। नि:स्सन्देह उस दिन वह देवरात पर विजय प्राप्त करने की कामना से आयी थी। उसे अभूतपूर्व सफलता भी मिली, पर विधाता के मन में कुछ और ही था। वह अपने को पा गयी, अपने को ही खोकर, जिसे वह सदा अपना प्रतिद्वन्द्वी समझती रही, उसी देवरात को हराकर वह स्वयं हार गयी। उसने पहली बार अनुभव किया कि हारकर भी मनुष्य चरितार्थ हो सकता है।

देवरात उस दिन अधीर और व्याकुल देखे गये। राजा ने समझा कि उन्होंने अपने को अपमानित अनुभव किया। सुनने में आया कि राजा ने मंजुला पर अपना क्रोध भी प्रकट किया। यद्यपि उन्होंने उसके मुँह पर कुछ नहीं कहा, तथापि सारे नगर में उनके रोष की कहानी फैल गयी। मंजुला ने सुना तो उसका हृदय व्यथा से तड़प उठा। क्या सचमुच देवरात को उस दिन उसने चोट पहुँचायी ? अभिमानिनी गणिका को अपने औद्धत्य के लिए पहली बार पश्चाताप हुआ— हाय अभागी, तूने कैसा अनर्थ कर दिया ! परन्तु उसके अन्तर्यामी कहते थे कि यह बात झूठ है। देवरात ऐसे छोटे नहीं हैं। उन्होंने मंजुलाको ग़लत नहीं समझा है। राज-सभा भोंडी रसिकता की शिकार है। विडम्ब-रसिक अपने मन से दूसरों के मन को मापा करते हैं। देवरात इनसे ऊपर हैं, बहुत ऊपर।

लेकिन देवरात अपने आश्रम में दीन-दुखियों की सेवा और बालकों को पढ़ाने लिखाने का काम यथानियम करते रहे। उस दिन की क्षणिक अधीरता के बाद कभी भी उन्हें कातर या अभिभूत नहीं देखा गया। वे राजा की सभा में आयोजित नृत्य-गीतों में भी उसी उत्साह के साथ सम्मिलित होते रहे, जिस उत्साह के साथ मल्लशाला में आयोजित मल्ल-समाह्व्यों में। वे पण्डितों की वाद-सभा में भी उतना ही रस लेते थे। राज-सभा के सभासदों ने सिर हिला-हिलाकर जो आशंका प्रकट की थी कि किसी-न-किसी दिन यह कला-प्रेमी वैरागी मंजुला के कटाक्ष-बाणों से घायल होगा, वह कभी सत्य नहीं हुई। देवरात यथापूर्वक निर्विकार और निर्लिप्त बने रहे। केवल एक परिवर्त्तन हुआ जिसे देवरात के अन्तर्यामी के सिवा और कोई नहीं देख सका। जब कभी देवरात एकान्त में होते, वे उदास स्वर में गुनगुना उठते –

दुल्लह जण अणुराउ गरु लज्ज परब्बसु प्राणु ॥
सहि मणु बिसम सिणेह बसु मरणु सरणु णहु आणु ॥

पुनर्नवा : दो

एक दिन देखा गया कि रूपगर्विता नगर श्री मंजुला अपने सारे अभिमान को ताक पर रखकर उदास भाव से देवरात के आश्रम की ओर नंगे पाँव चली जा रही है। हलद्वीप के लोगों के लिए इससे बड़ा आश्चर्य और कुछ नहीं था। आत्म गौरव की प्रतिमा, अभिमान की मूर्ति, शोभा की अविजित रानी, नगर रसिकों की आकांक्षा भूमि मंजुला अकेली चल पड़ी है। साथ में कोई दास-दासी नहीं है, रथ नहीं है, पालकी नहीं है, हाथी घोड़े नहीं हैं, वह सब प्रकार से अकेली है।

हलद्वीप के नगरवासियों ने कभी इस प्रकार की बात की कल्पना भी नहीं की थी। मंजुला परम अभिमानिनी के रूप में ही परिचित थी। उसके बारे में सैकड़ों किवदंतियाँ प्रचलित थीं। कहा तो यहाँ तक जाता था कि वह नित्य एक घड़े दूध से स्नान करती है। इधर सरस्वती-विहारवाली नोंक-झोंक ने नगर में अनेक प्रकार की किंवदंतियों को उकसावा दिया था । लोगों ने आश्चर्य के साथ सुना था कि मंजुला में अनेक परिवर्तन हुए हैं। वह अपना अधिकांश समय अब पूजा-पाठ में बिताती है, व्रत-उपवासों का विधिवत् उद्यापन करती है, उसकी वीणा से अब केवल विरह के स्वर झंकृत होते हैं। परंतु इन बातों की सच्चाई में बहुत थोड़े लोगों को विश्वास था । बुद्धिमान् व्यक्तियों ने सिर हिलाकर कहा था - "देखते रहो, जनम की विलासिनी, करम की मायाविनी गणिका अगर पूजा-पाठ करने लगे, तो मानना होगा कि बबूल में भी कमल के फूल खिलते हैं, पनाले में भी सुगंधि फूटती है, सर्पिणी भी पुजारिनी बन सकती है !" लेकिन किंवदंतियाँ अमूलक नहीं थीं। मंजुला में सचमुच परिवर्तन हुआ था। वह नृत्य को महाभाव का साधन मानने लगी थी, अपने को खोकर अपने को पाने की ओर अग्रसर होने लगी थी। निस्संदेह उसमें व्याकुलता थी । वह महाभाव का रहस्य समझना चाहती थी। किससे पूछे, कौन बताएगा कि महाभाव क्या है ? एकमात्र देवरात ही बता सकते थे, पर वे मंजुला के लिए दुरभिगम्य थे । आजीवन जिन ब्रह्मास्त्रों का उसने वशीकरण का उपाय मानकर अभ्यास किया था, वे देवरात से टकराकर चूर्ण-विचूर्ण हो गए थे। उसने उपेक्षा की थी। गणिकाशास्त्र में इन अस्त्रों से घायल न होनेवाला नपुंसक माना जाता है। मंजुला ने भी बराबर देवरात को ऐसा ही मानस था, पर अब उसे दूसरा ही अनुभव हुआ था। गणिकाशास्त्र से ऊपर भी कुछ है। घायल होने के रूप भी अलग-अलग होते हैं। देवरात नहीं, मंजुला घायल हुई है। कहाँ ? किस गहराई में ? और क्या सचमुच देवरात किसी अतल में घायल नहीं हुए हैं ? मंजुला उत्तर पाना चाहती है, पा नहीं रही है।

इस बीच एक अनर्थ हो गया था। राजसभा में उसकी पुकार हुई थी। उसे सुधि ही नहीं रही । यथासमय वह अनुपस्थित पाई गई। राजकोप अयाचित, अप्रत्याशित रूप से उस पर आ गिरा । देवरात ही उसकी रक्षा कर सकते थे। वे ही राजा को प्रभावित करने में समर्थ थे। मंजुला को अच्छा बहाना मिल गया। दुःख के आवेदन की देवरात कभी उपेक्षा नहीं। करते। मंजुला आज निकल पड़ी है। अकेली ।

नगर-भर में खलबली मच गई। लोगों के आश्चर्य और कौतूहल का ठिकाना नहीं रहा। यह भी क्या संभव है कि अभिमानिनी नगर श्री इस प्रकार नगर की गलियों में अकेली चले ? उसके पहिनावे में सिर्फ एक स्वच्छ साड़ी थी, आभूषण के नाम पर केवल एक हाथ में एक सोने की चूड़ी थी और गले में केवल एक सूत्र का हेमहार था। उसके पैरों में उपानह भी नहीं थे। ऐसा जान पड़ता था कि शोभा ने ही वैराग्य धारण किया है, कांति ने ही व्रतोद्यापन किया है, चंद्रमा की स्निग्ध ज्योत्स्ना ही धरती पर उतर आई है, पद्मवन की चारुता ने ही धूल पर चलने का संकल्प किया है और रति ने ही उदास भाव ग्रहण करके धरती को धन्य किया है । निस्संदेह वह इस वेश में भी मनोहर लग रही थी। शैवाल जाल से अनुविद्ध होकर भी कमल-पुष्प की शोभा कमनीय होती है, मेघों से आवृत चंद्र मंडल की शोभा भी रमणीय जान पड़ती है, मधुर आकृतियों के लिए सब कुछ मंडन द्रव्य ही बन जाता है। नगर के गवाक्ष खुल गए, पौर-वधुओं के चकित नयनों ने नगर की शोभा को धूल पर चलते देखा, बच्चों का दल पीछे-पीछे दौड़ पड़ा, ग्राम-वृद्धों ने एक-दूसरे की ओर कौतूहल- भरी दृष्टि से देखकर कहा, "बात क्या है ?" लेकिन मंजुला ने किसी ओर दृष्टिपात नहीं किया। वह निरंतर आगे बढ़ती गई। ऐसा जान पड़ता था कि इस अवस्था में भी उसका अभिमान उसे प्रच्छन्न भाव से अवगुंठित किए हुए है।

देवरात के आश्रम के बहिर्द्वार पर आकर वह ठिठक गई, जैसे स्रोतस्विनी के सामने अचानक शिला-खंड आ गया हो। उसने चकित मृग शावक की भाँति भीत नयनों से चारों ओर देखा, ऐसा लगा जैसे वह किसी ऐसे स्थान पर आ गई हो जहाँ उसके प्रवेश का अधिकार न हो। क्या करे, क्या न करे ? वह सोच नहीं पा रही थी। आश्रम उसे जलते अंगार-जैसा दिखाई दे रहा था, जिसको छूने से संपूर्ण रूप से जल जाने की आशंका थी । अभिमानिनी गणिका को पहली बार यहाँ अनुभव हुआ कि वह वह नहीं है जो अब तक अपने को समझती आई थी। एक बार थके निराश नेत्रों से उसने आश्रम के भीतर देखा । उसकी दृष्टि दो बड़े ही सुंदर बालकों की ओर गई। ये बालक श्यामरूप और आर्यक थे । उसने इंगित से उन्हें अपनी ओर बुलाया। दोनों बालक दौड़ते हुए उसके पास आ गए और बड़े शिष्ट भाव से बोले, "आयें, आप क्या हमारे गुरुजी को खोज रही हैं ? क्या आप भी पढ़ने आती हैं? हमारे गुरुजी आपको बहुत अच्छी तरह पढ़ाएँगे। आइए, आइए, स्वागत है।" मंजुला को संदेह नहीं रहा कि इन बच्चों को गुरु ने ही ऐसी शिष्ट भाषा बोलना सिखाया होगा । उसके मन में वात्सल्य भाव उदित हुआ। उसने दोनों बच्चों के सिर पर हाथ फेरा और प्यार से कहा, "हाँ वत्स, मैं गुरुजी के दर्शन के लिए ही आई हूँ । उनसे निवेदन करो कि मंजुला दर्शन का प्रसाद पाना चाहती है।" दोनों बच्चे दौड़कर गुरु के पास गए और थोड़ी देर में उनके साथ लौट आए। देवरात ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मंजुला इस रूप में उनके द्वार पर उपस्थित होगी। उन्होंने अत्यंत मधुर वाणी में मंजुला का स्वागत करते हुए कहा, "देवि, इस आश्रम को धन्य करने का कारण क्या हुआ ? मैं किस सेवा के योग्य हूँ? शुभे, तुम्हारा चेहरा उदास देख रहा हूँ। कल्याण तो है ?” मंजुला फूट-फूटकर रो पड़ी और अनायास उनके चरणों पर सिर रख दिया। उसने अपने विथुरे अलकों से ही उनका चरण पोंछ दिया और बताया कि अकारण ही उसे राजकोप का शिकार होना पड़ा है। एकमात्र वे ही हैं जो राजकोप का निवारण कर सकते हैं।

देवरात ने उसे आश्वासन दिया, "चितित न हों देवि, मैं शक्ति-भर प्रयत्न करूँगा कि तुम्हें कोई कष्ट न हो और राजा का कोप शांत हो।" मंजुला आश्वस्त हुई। फिर आँखें नीची किए कुछ असमंजस की मुद्रा में खड़ी रही जैसे कुछ कहना चाहती हो, कह न पा रही हो । देवरात ने उत्सुकतापूर्वक पूछा, "क्या कहना चाहती हो, देवि !” और मधुर भाव से आश्वस्त करते हुए बोले, "कह जाओ, संकोच की क्या बात है ?"

मंजुला ने धीमे स्वर में पूछा, "आर्य, उस दिन मेरे कविता पाठ से आपको चोट लगी । अपराधिनी को क्षमा करना, मैं बहुत लज्जित हूँ।"

देवरात हँसे, "तुम्हारी उस कविता से मुझे चोट लगी ? किसने कहा, देवि ?” फिर उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही बोलते गए, "बासी घाव हरा हो गया था, देवि ! उसके बारे में न पूछ बैठना, पर उस दिन तुम्हारे भीतर सुप्त देवता का संधान मुझे मिला था, सुप्त देवता, जो जाग उठा था। "

मंजुला की आँखों से अश्रुधारा फूट पड़ी। फफककर बोली, "हाय आर्य, मेरे भीतर देवता भी है, यह बात तो केवल तुमने ही देखी है। लोग तो इसमें मिट्टी का ढेला ही खोजते हैं। मैं अपने पाप-जीवन से ऊब गई हूँ, आर्य! हाय, इस नरक से मेरा कभी उद्धार भी होगा !” उसने दीर्घ निःश्वास लिया ।

देवरात ने कहा, "मैं भुजा उठाकर कह सकता हूँ, देवि, तुम्हारे भीतर देवता का निवास है । तुम जिस पाप-जीवन की बात कह रही हो वह मनुष्य की बनाई हुई विकृत सामाजिक व्यवस्था की देन है । चिंता न करो देवि, इससे उद्धार हो सकता है। तुम्हारा देवता तुम्हारे भीतर बैठा हुआ अवसर की प्रतीक्षा कर रहा है। कोई बाहरी शक्ति किसी का उद्धार नहीं करती। यह अंतर्यामी देवता ही उद्धार कर सकता है। चिंता की क्या बात है, देवि !"

मंजुला आँखें फाड़कर देवरात की ओर देखती रह गई। उसे इन बातों का अर्थ स्पष्ट नहीं हो रहा था। पर बिना अर्थ समझे भी जैसे साम-गान चित्त को अभिभूत कर लेता है, कुछ उसी प्रकार का भाव उसे अनुभव हुआ ।

देवरात ने उसे और भी उत्साहित किया, "देवता न बड़ा होता है, न छोटा; न शक्तिशाली होता है, न अशक्त वह उतना ही बड़ा होता है जितना बड़ा उसे उपासक बनाना चाहता है। तुम्हारा देवता भी तुम्हारे मन की विशालता और उज्ज्वलता के अनुपात में विशाल और उज्ज्वल होगा। लोग क्या कहते हैं इसकी चिंता छोड़ो। अपने अंतर्यामी को प्रमाण मानो। वे सब ठीक कर देंगे, देवि !"

मंजुला को जैसे नया सुनने को मिला। नवीन बाल-मृगी जैसे बरसते मेघ के रिमझिम संगीत को आश्चर्य से सुनती है, उसी प्रकार वह सुनती रही- चकित, उल्लसित, उत्सुक ! देवरात ने उपसंहार किया, "अपने देवता की उपेक्षा न करना, देवि! जाओ, मंगल हो !"

मंजुला भहरा गई। वह इतनी जल्द उपसंहार के लिए प्रस्तुत नहीं थी। वह बहुत सुनना चाहती थी, उसे थोड़े में संतोष नहीं हो रहा था। हाय, उसके भीतर भी देवता है - चिर- उपेक्षित, चिर- पिपासित, चिर- अपूजित ! उसकी बड़ी-बड़ी आँखें धरती की ओर जो झुकीं सो मानो चिपक ही गईं। वह दाहिने पैर के नाखून से धरती कुरेदती खड़ी रही। नाना भाव तरंगों के आघात प्रत्याघात से वह जड़ प्रतिमा की भाँति निश्चेष्ट हो गई। देवरात मुग्ध भाव से उसकी मनोहारिणी शोभा को देखते रहे। वे भी चित्रलिखित से खड़े के खड़े रह गए। श्यामरूप और आर्यक चकित होकर दोनों को देखते रहे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि इन्हें हो क्या गया है ! थोड़ी देर तक यही अवस्था रही। फिर देवरात का ही ध्यान भंग हुआ। बोले, "चारुशीले, मैंने जो कहा, उससे तुम्हारे चित्त को आश्वासन नहीं मिला क्या ?” मंजुला ने आँखें ऊपर उठाई, बोली, "अपराधिनी हूँ, आर्य! आपको सदा गलत समझा है। मैं बिलकुल नहीं जानती थी कि कोई मेरे भीतर देवता का भी संधान पा सकता है। मुझे अब लगता है कि केवल आज नहीं, पहले भी तुमने मेरे भीतर सुप्त देवता को देखा था। मैं आजीवन पाप-पंक में डूबी हुई, तुम्हारी भावनाओं को क्या जानूँ। मैं तो सिर्फ यह जानती रही कि लोग मेरे भीतर जाग्रत पशु को ही देखते हैं, उसी का सम्मान करते हैं। जो इस पशु को नहीं देख पाता, उसे दृष्टि ही नहीं है । हाय आर्य, मेरे अंतरतर का देवता सुप्त रहकर भी तुम्हें जितना प्रभावित कर सका, उसका शतांश भी तुम्हारे जाग्रत देवता से यह पापिनी प्रभावित हो पाती ! " देवरात ने बीच में ही टोका, "सुनो देवि, तुम इतनी व्यथित क्यों हो रही हो ? अपने पर तुम्हारी यह अनास्था उचित नहीं है। तुम बार-बार अपने को पापिनी और अपराधिनी कहती हो, तो मेरा अंतरतर काँप उठता है । यहाँ शुद्ध सुवर्ण कहीं नहीं है, सब जगह खाद मिला हुआ है । सब-कुछ शुद्ध सुवर्ण और खाद से बना हुआ हेमालंकार है। किसने यह आभूषण पहन रखा है ? उसी को खोजो । पाप और पुण्य जब उसी को समर्पित हो जाते हैं तो समान रूप से धन्य हो जाते हैं। मन में खोटं न आने दो देवि, तुम नारायण की स्मित रेखा के समान पवित्र हो, आह्लादक हो, आनंददायिनी हो । देवि, जिस दिन देवरात ने तुम्हें देखा था, उस दिन उसे लगा था कि वह कुछ अपूर्व देख रहा है, कुछ नवीन अनुभव कर रहा है। तुम विश्वास मानो देवि, तुम्हारे दर्शनमात्र से देवरात का संपूर्ण अस्तित्व उमड़ आता है। निस्संदेह तुम्हारे भीतर कोई महा आकर्षक देवता बसता है। लोग उसको ठीक नहीं पहचानते। वे मंदिर को ही आकर्षण का हेतु मान लेते हैं। बिचारे कृपण हैं, उनका देवता भी सुप्त है। जागेगा, मगर कब, कहना कठिन है। "

मंजुला का अंग-अंग द्रवित हो उठा। नस-नस में आनंद की अननुभूत लहरी सिहरन पैदा कर गई । वह क्या सुन रही है ? उसे देखकर देवरात का संपूर्ण अस्तित्व उमड़ आता है ! उसे वे नारायण की स्मित- रेखा के समान पवित्र और आह्लादवर्धिनी समझते हैं, यह भी क्या चाटूक्ति है ? हाय, कितनी बेधक चाटूक्ति है यह ! मंजुला के अंतरतर को वह वेध रही है । अब तक सुनी हुई चाटूक्तियाँ उसे ढक देती रही हैं। आज की उक्ति उसे उधेड़ रही है। नारायण की आह्लादिनी स्मित रेखा ! पहले उस स्मित रेखा ने मोहिनीरूप में ही संसार को वशीभूत किया था। आज उसका पवित्र आह्लादक रूप प्रकट हो रहा है। मंजुला अपने को पा रही है।

देवरात ने पुनः कहा, "देवि, तुम्हारे नृत्य में तुम्हारा देवता अभिव्यक्त होता है । देवरात उसे पहचानता है।"

मंजुला अपने को सम्भाल नहीं सकी। उसने आवेशपूर्वक देवरात के चरणों पर सिर रख दिया। देवरात पीछे हट गए। मंजुला बोली, "इतने से वंचित न रहने दो, आर्य ! मैं फटी जा रही हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि इस सारे आवरण को छिन्न करके एक नई मंजुला निकलना चाहती है। इस कलुषित मंजुला के भीतर से शुद्धसत्त्वा अकलुष मंजुला ! वह अकलुष मंजुला ही तुम्हें समर्पित है, आर्य ! उसे अपने पवित्र ममत्व से वंचित न करो। हाय आर्य, बड़ी देर हो गई !"

देवरात भाव-विह्वल, अचंचल !

क्षणभर में क्या-का-क्या हो गया। देवरात का सारा सत्त्व मथित होकर ढरक जाना चाहता है।

मंजुला प्रकृतिस्थ हो गई । बोली, "इससे अधिक लोभ नहीं करूँगी, आर्य ! इस नवीन मंजुला को मत भूलना। पुरानी को क्षमा कर देना !"

देवरात ठगे से, खोए से, हारे से, स्तब्ध !

मंजुला ने उनके चरणों की धूल आँखों में लगाई और चलने को प्रस्तुत हुई । देवरा निश्चल, अकंप!

मंजुला अंतिम प्रणाम निवेदन करके जाने को हुई। घूमकर पहला ही पग उठा पाई थी कि देवरात ने झपटकर उसका कंधा पकड़ लिया, "रुको देवि, थोड़ा और रुको !”

मंजुला ने घूमकर देवरात की ओर देखा। उनका चेहरा लाल था। आँखें न जाने कैसी-कैसी हो गई थीं। बोले, "देवि, बासी को ताज़ा करने के लिए उस दिन का साधुवाद ग्रहण करो !”

मंजुला इसका ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझ सकी। उसे उस दिन का राजसभा का परिहास तो याद था, पर इस अवसर पर उसका क्या तुक था ? हाथ जोड़कर बोली, "समझ नहीं सकी, आर्य!” देवरात के चेहरे पर सहज दीप्ति आ गई। हँसकर बोले, "सब प्रसाद समझकर ही नहीं लिए जाते। पर प्रसाद प्रसाद ही है।" मंजुला देवरात के मुख पर एकटक दृष्टि लगाए ताकती रही। मन ही मन उसने कहा- यह सहज - प्रसन्न मुख - मंडल अक्षोभ्य नहीं है ! साहस बटोरकर उसने कहा, "यदि अनुचित न समझें तो दासी किसी दिन अपने घर पर चरणों की धूलि पाने की मनोकामना रखती है।" देवरात पुलकित होकर बोले, "अवसर आने पर तुम्हारी यह मनोकामना भी पूर्ण होगी।" गणिका को जैसे राज्य मिल गया हो । अत्यंत कृतज्ञता भरी दृष्टि से देवरात की ओर देखते हुए वह संतुष्ट चित्त से घर लौट आई।

पूरे हलद्वीप में यह बात आँधी की तरह फैल गई। बुद्धिमानों ने सिर हिलाकर कहा, "इसमें कुछ रहस्य है। यह गणिका मायाविनी है। वह देवरात को फँसाना चाहती हैं।' कुछ दूसरे लोग यह कहते सुने गए कि यह राजा का षड्यंत्र है। वह देवरात की लोकप्रियता से चिंतित है और उसे बदनाम करना चाहता है। तरुण नागरिकों में कुछ और ही तरह की कानाफूसी चलने लगी । उनके मन में गणिका के प्रेमासक्त होने की ही संभावना अधिक थी । जितने मुख, उतनी बातें सुनाई देने लगीं। बातें धीरे-धीरे वृद्धगोप तक भी पहुँचीं। उन्होंने देवरात को सावधान करने की बात भी सोची। परंतु स्वयं देवरात के चित्त में कोई विकार नहीं देखा गया । उनका सदा प्रसन्न चेहरा जैसा का तैसा बना रहा। कोई पूछता तो कहते, "मंजुला देवी ने निमंत्रण दिया है, अवसर आने पर उस निमंत्रण का सम्मान तो करना ही होगा। अवसर आ भी सकता है, नहीं भी आ सकता है।" और हँस देते। उस हँसी में एक प्रकार का विषाद-भाव भी मिला होता था। ऐसा जान पड़ता था कि उनकी हार्दिक कामना यही थी कि अवसर न आए। लेकिन नगर के विडंब-रसिकों ने उनकी हँसी की भी नाना प्रकार से व्याख्या की। नित्य-न कहानियाँ गढ़ी जातीं और फैलाई जातीं । यहाँ तक भी सुना गया कि नगर श्री मंजुला स्वयं अभिसार यात्रा की तैयारी कर रही है। परंतु देवरात यथानियम अपने काम में लगे रहते। उन्होंने इन बातों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं समझी।

इस बीच देवरात राजा से कई बार मिल भी आए। यह भी सुना गया कि राजा ने उनकी बात मान ली है और गणिका को क्षमा प्रदान कर दी है। अटकलों के बवंडर उड़ते रहे । इतना अवश्य देखा गया कि गणिका ने राजकोप के शमन के बाद धूमधाम से क्षिप्तेश्वर महादेव की पूजा करवाई और सहस्रों नागरिकों को अपना नृत्य दिखाकर मुग्ध भी किया। नगर के लोग इस परिणति से संतुष्ट हो गए और कानाफूसी धीरे-धीरे दब गई। लोग धीरे-धीरे इस घटना को भूल गए।

कुछ दिनों बाद देवरात को सचमुच ही गणिका का आतिथ्य स्वीकार करना पड़ा। एकाएक नगर में भयंकर महामारी का प्रकोप हुआ। शीतला देवी को प्रसन्न करने के अनेक उपचार किए गए, परंत उनका कोप घटने के स्थान पर बढ़ता ही चला गया। नगर में हाहाकार मच गया । जिधर देखो उधर ही कराहने की ध्वनि सुनाई देने लगी। लोगों में भगदड़ मच गई। राज-परिवार ने भी नगर से दूर बने हुए प्रासाद में आश्रय लिया। वृद्धगोप के दोनों बच्चों को उनके घर भेजकर देवरात सेवा कार्य में जुट गए। कोई किसी को पूछनेवाला नहीं था । किसी-किसी मुहल्ले में प्रत्येक व्यक्ति महामारी का शिकार बना था और कोई-कोई मुहल्ला एकदम जनशून्य हो गया था। अपने सगे-संबंधी भी दूर भागने लगे । लेकिन देवरात प्रत्यूष से लेकर आधी रात तक घूम-घूमकर लोगों की शुश्रूषा करते, दवा पहुँचाते, पथ्य की व्यवस्था करते। एक दिन उन्हें समाचार मिला कि मंजुला भी रोगग्रस्त हो गई है और उसके दास दासी घर छोड़कर भाग गए हैं। कोई पानी देनेवाला भी नहीं रह गया है । देवरात ने मंजुला के आतिथ्य ग्रहण का अवसर आज देखा । वे मंजुला के विशाल प्रासाद की ओर बढ़े। चारों ओर भयंकर सुनसान था। घर का द्वार खुला हुआ था, परंतु कहीं कोई दिखाई नहीं पड़ा। मंजुला के घोड़े, बैल और अन्य पशु या तो छोड़ दिए गए थे या फिर किसी और की संपत्ति बन चुके थे। पूरा प्रासाद खाँय खाँय कर रहा था। घर में एक बत्ती तक नहीं जल रही थी। देवरात को लगा कि कदाचित् मंजुला भी कहीं अन्यत्र चली गई है। क्षण-भर के लिए वे ठिठके । मन में आया, कदाचित् उन्हें गलत ख़बर मिली है। वे सोचने लगे कि लौट जाना ही उचित है। उसी समय ऊपरी तल्ले से अत्यंत क्षीण कंठ के कराहने की ध्वनि उनके कानों में पड़ी। उस शब्द का अनुसरण करते हुए वे सीढ़ियों पर चढ़ गए और गणिका के शयन कक्ष में उपस्थित हुए। अंधकार में उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं दिया । फिर उन्होंने निश्चित सूचना पाने के उद्देश्य से आवाज़ दी, "कोई है ?” उत्तर में अत्यंत क्षीण- कातर ध्वनि सुनाई पड़ी - "पानी !” देवरात की आँखें भर आई। निस्संदेह यह मंजुला का ही कंठ था । हाय, समृद्धि की रानी, रूप की लक्ष्मी, शोभा की स्रोतस्विनी, अनुराग की तरंगिणी मंजुला की आज यह दशा है! उनका गला भरा आया। भर्राई हुई वाणी में बोले, "मैं देवरात हूँ, देवि! तुम्हारा निमंत्रण स्वीकार करके आ गया हूँ । चिता न करो, अभी सब ठीक हुआ जाता है।" अँधेरे में उन्हें कहीं भी कोई बरतन नहीं दिखाई दिया । न मंजुला का वह मुख ही दिखाई दिया, जिसे पानी से तर करना था । आँगन में नक्षत्रों के हल्के प्रकाश में एक मिट्टी का घड़ा दिखाई दिया। संयोग से उसमें थोड़ा पानी भी मिल गया। उन्होंने अपना उत्तरीय पानी में भिगोया। घर में आकर पुकारा, "किधर हो, देवि ! देवरात आया है ।” क्षीण कंठ से फिर कराहने की ध्वनि हुई। देवरात धीरे-धीरे पैर रखते हुए जिधर से आवाज़ आई थी, उधर गए। हाथ से स्पर्श करके उन्होंने मंजुला के मुख का पता लगाया और फिर उसके अधरों के पास एक हाथ रखकर दूसरे हाथ से उत्तरीय के पानी की कुछ बूँदें गिरा दीं। ऐसा जान पड़ा, मानो मंजुला की चेतना कुछ अधिक सजग हुई। कदाचित् उसकी आँखें भी खुलीं। क्षीण कंठ से पूछा, "कौन है ?" उत्तर मिला, "देवरात हूँ, देवि !” मंजुला को जैसे विश्वास ही न हुआ हो, बोली, "कौन, आर्य देवरात ?"

"हाँ देवि, आज मैंने तुम्हारा निमंत्रण स्वीकार किया। साहस न छोड़ो । सब ठीक हुआ जाता है।” अँधेरे में कुछ दिखाई तो नहीं दिया, परंतु देवरात को समझने में देर न लगी कि उसकी आँखों से अजस्र अश्रुधारा बह रही है। वह सुबक सुबककर रो रही है। बड़े आयास से उसने कहा, "पापिनी से दूर रहो, देव ! यदि इस अधमा के ऊपर दया है तो अपना हाथ हटा लो और उस बच्ची को देखो।” इतना कहकर मंजुला एकदम मौन हो गई, मानो यही अंतिम बात कहने के लिए अब तक उसके प्राण बचे थे। देवरात ने आश्चर्य और कौतूहल के साथ पूछा, "कौन-सी बच्ची, देवि ? कहाँ है वह ?” क्षीण कंठ से उत्तर मिला-"मृणालमंजरी !” जरा रुककर उसने आयासपूर्वक कहा, "इस नरककुंड से उसे ले जाओ ।" और फिर सब कुछ शांत हो गया। देवरात जानना चाहते थे कि मृणालमंजरी कौन है ? कहाँ है ? पर देर तक प्रतीक्षा करने के बाद भी कुछ उत्तर नहीं मिला। उन्होंने मंजुला का ललाट स्पर्श किया, बर्फ की तरह ठंडा मालूम पड़ा । अँधेरे में उन्हें कुछ नहीं दिखाई दिया, परंतु मंजुला के वाक्य उनके कर्ण पटल पर बार-बार आघात करते रहे, 'उस बच्ची को देखो !' कहाँ है वह बच्ची ? यहीं कहीं होगी। इसी घर में जीवित भी है या नहीं, कौन जाने ! अंधकार बड़ा भयावना लग रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि यमराज का काला भैंसा आक्रमण के लिए तत्पर अवस्था में खड़ा है। कब रगेद देगा, कुछ ठिकाना नहीं । दीपक की कोई व्यवस्था करनी होगी। परंतु दीपक कहाँ है ? दूर तक कहीं आग या धुएँ का चिह्न नहीं दिखाई दे रहा था। उन्होंने टो-टोकर सारे घर को समझने का प्रयत्न किया। बड़ी भयंकर अवस्था थी। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि सचमुच यहाँ कोई बच्ची है भी या नहीं । कई बार वे टकराकर गिरते-गिरते बचे। अंत में मंजुला की शय्या के पास ही एक और शय्या का संधान मिला उन्हें । आशा हुई कि इस पर ही कोई छोटी बच्ची सो रही होगी। हौले-हौले उन्होंने पूरी शय्या की परीक्षा की। शय्या सूनी थी। निराश होकर उन्होंने मन-ही-मन निश्चय किया कि चाहे जितनी दूर भी जाना पड़े, वे आग लाकर कुछ प्रकाश की व्यवस्था करेंगे। जब वे घर के द्वार की ओर बढ़ने लगे तो एकाएक फिर टकराए। यह कोई पालना था। उन्होंने पालने के भीतर टोकर देखा। सचमुच ही एक छोटी सी बच्ची बेहोश पड़ी थी। उसका ललाट जल रहा था। जान पड़ता था, उसे तीव्र ज्वर है। धीरे-धीरे बच्ची को उन्होंने उठाया और द्वार से निकालकर खुले आसमान के नीचे ले आए। उन्हें लगा कि बालिका के वस्त्रों में एक प्रतोलिका (छोटी-सी पेटी) जैसी कोई चीज़ बँधी हुई है। वह क्या है, यह समझने का समय नहीं था। प्रतोलिका समेत उस नन्ही बालिका को बाहर लाकर ताराओं के क्षीण प्रकाश में देखा। दो-तीन वर्ष की इस फूल सी बालिका को देखकर उनका हृदय दुःख से कराह उठा। हाय विधाता, इस भोली दुधमुँही बालिका की क्या दशा है ! वह बेहोश थी - परिम्लान कमल - कलिका के समान मुरझाई हुई ।

ऊपर आकाश और नीचे धरती। दूर तक जन-शून्य राजमार्ग अजगर की तरह लेटा हुआ दिखाई दे रहा है, परंतु आग कहाँ मिले ? प्रदीप कहाँ से जले ? बच्ची को गोदी में लिए हुए देवरात तेजी से आगे बढ़ने लगे। बड़े-बड़े प्रासाद इस प्रकार निस्तब्ध खड़े थे, मानो महामारी से ग्रस्त होकर मूर्च्छित हो गए हों। वे चलते ही गए, पर आग का दर्शन कहीं नहीं हुआ । अंत में उन्होंने यही निश्चय किया कि अपने आश्रम में ही बच्ची को सुलाकर, प्रदीप लेकर फिर इधर आएँगे । लंबा रास्ता तय करके वे आश्रम में पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि वृद्धगोप और उनकी पत्नी देर से उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। वृद्धगोप ने अनुयोग के स्वर में कहा, "प्रभो ! इतनी देर तक महामारी - ग्रस्त पुरी में न रहा करें। " देवरात ने थके हुए स्वर में कहा, "भद्र, बड़ा दुःख देखकर आया हूँ और साथ में एक रुग्ण शिशु को भी लेकर । यह देखो !” दीपक के प्रकाश में तीनों ने उस सुकुमार बालिका का मुँह देखा। ऐसा लगा, मानो पूनम के चाँद को राहु ने ग्रस लिया हो। "हे भगवान् ! इस नन्ही बालिका की रक्षा करो। "

वृद्धगोप की पत्नी का मातृ-स्नेह उमड़ आया। उन्होंने बच्ची को गोद में लेकर उसका सिर सहलाया, फिर वृद्धगोप से बोलीं, "तनिक पानी तो ले आओ।" थोड़ा सा पानी देने के बाद बच्ची की आँखें खुल गईं, परंतु दृष्टि में एक विचित्र प्रकार की अवसन्नता थी । देवरात ने बच्ची की नाड़ी की परीक्षा की और आश्वस्त होकर बोले, "भगवान का अनुग्रह होगा तो यह बच जाएगी।”

वृद्धगोप-दंपति पर बच्ची की शुश्रूषा का भार देकर, आग और प्रदीप लेकर वे फिर मंजुला के घर लौट आए। प्रदीप जलाकर जो देखा तो मंजुला का कहीं पता नहीं। कहाँ चली गई? उन्हें लगा कि वह तड़पती हुई बाहर निकली होगी और फिर सदा के लिए सो गई। दूर-दूर तक खोजा, पर मंजुला नहीं मिली। सौ-सौ निर्जीव शवों के भीतर उसे खोजना असंभव ही लगा ।

देवरात का हृदय टूट गया। नगर की शोभा, अनुराग की दीपशिखा, कला की प्रतिमा, छंदों की रानी, तालों की नर्म-संगिनी, शृंगार की रंगस्थली, सम्मोहन की सूत्रधारिणी ! मंजुला चली गई । बासी को ताजा बनाने की कुशल कलावती सदा के लिए सो गई। कोई पानी देने भी नहीं आया । हा विधाता ! देवरात ने दीर्घ निःश्वास लिया । कहीं कोई दिखाई भी नहीं दिया।

उन्हें सारा संसार कुलाल-चक्र की भाँति घूमता हुआ दिखाई दिया। मंजुला कहाँ चली गई? क्या वह अपने देवता को पहचान सकी थी ? क्या वह महाभाव का अर्थ समझ सकी थी? हाय देवि, देवता ने तुम्हें पहचान लिया, तुम्हारे देवता को पहचानने का दंभ करनेवाला पीछे छूट गया।

देवरात अभिभूत की भाँति देर तक खोजते रहे। दिन बीत गया, भगवान् भास्कर का जरठ रथचक्र पश्चिमी पयोनिधि में डूब गया। संध्याकालीन शीतल वायु ने उनका ध्यान भंग किया। उनके अंग-अंग शिथिल हो गए थे। उठने को हुए तो लगा, बासी घाव उभर आया है। अनायास गुनगुना उठे :

दुल्लह जण अणुराउ गरु लज्ज परब्बसु प्राणु ।
सहि मणु विसम सिणेह बसु मरणु सरणु णहु आणु ।।

पुनर्नवा : तीन

देवरात ने दूसरे दिन वृद्धगोप दंपति को अनेक साधुवाद देकर विदा किया। वृद्धगोप की पत्नी बालिका को अपने साथ ले जाना चाहती थीं, पर ऐसा नहीं हो सका । देवरात शोकावेग में भूल ही गए थे कि बालिका के वस्त्रों में एक छोटी-सी पेटी भी बँधी थी। प्रातः काल वृद्धगोप ने उन्हें वह पेटी दिखाई। वह काठ की बनी हुई चौकोर-सी छोटी पेटी थी जो लाल चीनांशुक में लपेटकर रखी हुई थी। उसमें एक छोटा-सा भूर्जपत्र भी उलझा हुआ था। उस पर कुछ लिखा हुआ था। देवरात ने उत्सुकतापूर्वक उसे पढ़ा । लिखा था, "कन्या- धन । जिस किसी को यह प्रतोलिका मिले, उसे क्षिप्तेश्वर महादेव की शपथ है। इस प्रतोलिका और इस कन्या को आर्य देवरात के पास पहुँचा दे। इसमें इस कन्या के विवाह के समय दिए जाने योग्य उसकी माता का आशीर्वाद है। क्षिप्तेश्वर महादेव की शपथ, कुलदेवताओं की शपथ, पितरों की शपथ !” देवरात ने पढ़ा तो उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी । उन्होंने करुणा विगलित स्वर में वृद्धगोप-पत्नी को संबोधन करते हुए कहा, "क्षमा करें आर्ये, यह बालिका देवरात के पास ही रहेगी। उसकी माता की अंतिम इच्छा यही है । मेरे ऊपर दया करें। मैं इस शपथ की उपेक्षा नहीं कर सकता।" फिर वृद्धगोप से बोले, "भद्र, यदि अनुचित न मानें तो इस पेटिका को आप ही कहीं सुरक्षित रख दें। इस बालिका के विवाह के अवसर पर ही इसे खोला जाएगा। इसमें मुमूर्षु माता का आशीर्वाद है । इस न्यास को रखने योग्य सुरक्षित स्थान मेरे आश्रम में नहीं है। यथा अवसर इसे मुझे लौटा दें ।” इतना कहकर देवरात मर्माहत से स्तब्ध रह गए। वृद्धगोप ने उनकी बात मान ली । भरा हुआ हृदय और आहत मन लेकर वृद्धगोप-दंपती अपने घर चले गए।

कुछ दिनों बाद नगर की अवस्था ठीक हो गई। महामारी के समाप्त होने के बाद लोग अपने घरों में लौट आए और फिर हलद्वीप जैसे का तैसा हो गया। परंतु इस महामारी ने देवरात के ऊपर एक नन्ही-सी बालिका को पालने पोसने का भार दे दिया। नियति का कुछ ऐसा ही विधान था कि जिस संसार को छोड़कर देवरात वैरागी बने थे, वह उनके ऊपर पूरी शक्ति के साथ आ जमा । देवरात वैरागी से गृहस्थ हो गए। उनकी सारी शक्ति मृणालमंजरी की देखभाल में लगने लगी। स्वच्छंद जीवन परवशता में परिवर्तित हो गया। स्नेह का बंधन भी कैसी विचित्र वस्तु है ! वह बाँधता है, परंतु अपने ऊपर पूरी आसक्ति पैदा करके । देवरात के लिए इस अनायास-लब्ध पितृत्व का बंधन जितना कठोर हुआ, उतना ही मोहक भी । बालिका भी कैसी थी, शोभा और कांति की मूर्ति ! जब हँसती थी तो ऐसा जान पड़ता था कि निखिल चराचर में जीवन का समुद्र लहरा उठा है। बहुत दिनों तक देवरात सब-कुछ भूलकर उस बालिका की सेवा में ही दिन बिताते रहे। श्यामरूप और आर्यक को भी इस बालिका के रूप में एक निधि-सी मिल गई। विशेष रूप से आर्यक और मृणालमंजरी दिन-रात खेलने में लगे रहते। श्यामरूप कुछ बड़ा था और अपने बड़प्पन का पूरा अधिकार भी मानता था। वह दोनों पर शासन करता था, दोनों के झगड़े का फैसला करता था और आवश्यकता पड़ने पर दंड देने की भी व्यवस्था करता था। बालिका कुछ बड़ी हुई तो उसने भी पढ़ने में साथ दिया। इन तीन शिष्यों को पढ़ाकर देवरात मानो धन्य | होते । श्यामरूप और आर्यक जब अखाड़े में लड़ने जाते तो मृणालमंजरी एकटक उन्हें देखती रहती। कभी-कभी अपने पिता से आग्रह करती कि उसे भी व्यायामशाला में जाने की अनुमति दी जाए। परंतु देवरात हँसकर रह जाते, कहते, "बेटा, यह लड़ना और व्यायाम करना पुरुषों का काम है। तुझे मैं इसके बदले में चित्र - विद्या सिखाऊँगा और नृत्य कला की शिक्षा दूँगा।” धीरे-धीरे मृणालमंजरी को अनुभव होने लगा कि वह श्यामरूप- आर्यक से कुछ भिन्न है। उसके आचरण और आदर्श, पुरुषों के आचरण और आदर्श से भिन्न हैं। देवरात ने उसे नारी सुलभ कलाओं का ज्ञान करवाया, स्त्री-धर्म की शिक्षा दी, व्रत और उपवास में कुशल बनाया, वीणा और वंशी बजाना सिखाया और अन्य सुकुमार कलाओं से परिचय करवाया। लोगों को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि देवरात सुकुमार नृत्य में भी कुशल हैं और इस विषय में भी वह कुछ सिखा सकते हैं।

श्यामरूप जब अट्ठारह वर्ष का हुआ तो देवरात ने वृद्धगोप को बुलाकर कहा कि श्यामरूप धार्मिक ब्राह्मण की अपेक्षा मल्ल ही अधिक बनता जा रहा है। उन्होंने पहली बार बताया कि वे स्वयं क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होने के कारण वैदिक कर्मकांड से अपरिचित हैं । श्यामरूप को वैदिक कर्मकांड की शिक्षा के लिए क्षिप्तेश्वर की पाठशाला में भेज दिया जाए। वृद्धगोप ने उनकी सलाह मान ली और उसे क्षिप्तेश्वर महादेव के मंदिर से संबद्ध वैदिक पाठशाला में भेज दिया। यह पाठशाला राजकीय सहायता से चलती थी । वहाँ वैदिक कर्मकांड के निष्णात विद्वान् अध्यापन-कार्य करते थे। हलद्वीप में उस पाठशाला की बड़ी ख्याति थी । जनता में वह 'लहुरा काशी' नाम से प्रसिद्ध थी। लोग कहा करते थे कि जो बातें काशी में सीखी जाती हैं, वे सब इस पाठशाला में सीखी जा सकती हैं। परंतु श्यामरूप का मन इस पाठशाला में नहीं लगा। उसे वैदिक कर्मकांड की अपेक्षा मल्ल - विद्या से अधिक प्रेम था। वह बार-बार भागकर देवरात के आश्रम में आ जाता था, और वृद्धगोप उसे हर बार पकड़कर क्षिप्तेश्वर की पाठशाला में दे आते। एक दिन सुना गया कि श्यामरूप न जाने कहाँ लापता हो गया है। वृद्धगोप बहुत दिनों तक रोते रहे। ज्योतिषियों और तांत्रिकों के पास उसका पता जानने के लिए दौड़-धूप करते रहे, परंतु श्यामरूप का पता नहीं चला। आर्यक की अवस्था उस समय कोई चौदह साल की रही होगी। बड़े भाई को खोजने के लिए उसका चित्त व्याकुल हो उठा। एक दिन उसने मृणालमंजरी से कहा कि मैं अपने बड़े भाई को खोजने जाऊँगा। मृणालमंजरी व्याकुल हो गई । उसने कहा, "नहीं, तुम जाओगे तो मैं किसके साथ खेलूँगी ?" परंतु आर्यक दृढ़ रहा और गुपचुप भागने की तैयारी करने लगा। मृणालमंजरी ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अंत में उसने अपना ब्रह्मास्त्र चलाया, बोली, "मैं अपने पिताजी से कह दूँगी कि तुम भागना चाहते हो।" आर्यक घबराया । मिन्नत करता हुआ बोला, "नहीं मैना, गुरुजी से यह बात न कह! मैं अपने बड़े भाई के बिना जी नहीं सकता । तेरी सब मानूँगा, केवल इतनी सी बात मुझे अपने मन की करने दे!” मैंना अर्थात् मृणालमंजरी पसीज गई, "लौटकर आओगे न ?” "अवश्य आऊँगा मैना, मैं भाई का पता लगाकर यहाँ फिर लौट आऊँगा। "मैना ने वादा किया कि वह अपने पिता से उसके भागने की बात नहीं कहेगी और एक दिन आर्यक भी चुपचाप खिसक गया । मृणाल उदास हो गई ।

कुछ दिन बाद मृणालमंजरी को उसके पिता ने बताया कि आर्यक का पता चल गया है और वृद्धगोप उसे घर ले आए हैं। वे अब बहुत सावधान हो गए हैं। आर्यक पर कड़ी निगाह रखते हैं। आर्यक को वे अब आश्रम में नहीं आने देंगे। मृणालमंजरी (मैना) ने सुना तो उसकी उदासी और बढ़ गई। वह बार-बार पिता से आग्रह करती कि आर्यक को बुला लें, पर देवरात चुप हो जाते । मृणालमंजरी कुछ समझ नहीं सकी। उसके मन में बेचैनी रहने लगी। सोचती, पिताजी आर्यक को क्यों नहीं बुलाते ? उसके न रहने से मेरा मन कैसे लगेगा? वह क्या अब अकेली ही रहेगी ? परंतु देवरात उसे कुछ भी नहीं बताते । जब वह पूछती तो कह देते कि आर्यक अपने पिता की आज्ञा के बिना यहाँ नहीं आ सकेगा। उसे और-और बातों में भुलाने का भी प्रयत्न करते। मृणालमंजरी उदास रहने लगी। फिर भी, मन-ही-मन वह आशा लगाए रही कि आर्यक फिर लौट आएगा। परंतु ऐसा हुआ नहीं। उस समय तक मृणालमंजरी के बालक-मन में आर्यक खेल के साथी के रूप में ही विद्यमान था। परंतु जैसे-जैसे दिन बीतते गए और आर्यक के लौटने की आशा समाप्त होती गई, वैसे-वैसे उसका चित्त अधिकाधिक सूना होता गया। शुरू-शुरू में तो वह अपने पिता से बराबर पूछती रही कि आर्यक कहाँ है ? और क्या कर रहा है ? परंतु समय के लंबे व्यवधान के बाद एक ऐसी अवस्था भी आई जब पिता से पूछने में उसे संकोच अनुभव होने लगा । मृणालमंजरी को पहली बार अनुभव हुआ कि आर्यक के बारे में पूछना ठीक नहीं। क्यों ऐसा हुआ यह प्रश्न उसके मन में उठा ही नहीं। ऐसा लगता था जैसे कोई हृदय के अज्ञात गवर में बैठा कह रहा है कि सयानी लड़कियों का किसी लड़के के बारे में इतना पूछना उचित नहीं है। कालिदास ने जिसे 'अशिक्षित पटुत्व' कहा है, यह बहुत कुछ उसी प्रकार का भाव था । देवरात ने मृणालमंजरी को बहुत से काव्य-नाटकों का अभ्यास कराया था और उनमें ऐसे प्रसंग भी आते थे जिनमें युवावस्था में एक विशेष प्रकार के चित्तगत विस्फार या फैलाव की चर्चा हुआ करती थी। परंतु मृणालमंजरी ने कभी प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया था कि चित्त का फैलाव होता क्या है। उसे पहली बार चित्तगत संकोच का अनुभव हुआ। यह भी क्या युवावस्था का लक्षण था ? मृणालमंजरी के मन में यह प्रश्न भी नहीं उठा। जो हुआ वह सिर्फ यही था कि उसके मन ने पहली बार अनुभव किया कि आर्यक उसके लिए बचपन के साथी से कुछ भिन्न प्रकार का साथी भी हो सकता है। बचपन के साथी के बारे में किसी से पूछने में संकोच नहीं होता। लेकिन उसकी समझ में यह बात भी नहीं आ रही थी कि बचपन के साथी के अतिरिक्त आर्यक और है क्या ? उदास तो वह पहले भी रहती थी, लेकिन नए सिरे से जो उदासी शुरू हुई, वह निश्चित रूप से अन्य श्रेणी की थी। पहली उदासी किसी के सामने छिपाने की चीज़ नहीं थी, जबकि यह नई उदासी अपने-आपको छिपाने की बुद्धि के साथ आई । मृणालमंजरी स्वयं ही अपने को समझ नहीं पा रही थी। जितना ही वह आर्यक के बारे में उत्सुकता प्रकट न करने और उसके लिए चित्त में उत्पन्न व्याकुलता को छिपाने का प्रयास करने लगी, उतना ही उसका अंग-प्रत्यंग मानो चिल्लाकर कहने लगा कि वह उदास है, वह व्याकुल है। उसका हृदय उस कली के समान तड़पने लगा जो रंग-रूप-गंध के रूप में फूट पड़ने को विवश है, लेकिन इस विवशता को छिपाने का भरपूर प्रयत्न करती है।

देवरात के आश्रम में केवल दो ही व्यक्ति रहते थे - एक स्वयं वे और दूसरी उनकी पुत्री । दिन भर तरह-तरह के लोग आते रहते थे और अपनी कठिनाइयों का उपचार उनसे पूछते रहते थे । मृणालमंजरी भी यथाशक्ति अपने पिता की सहायता करती रहती थी और समय बड़ी व्यस्तता में कट जाता था। उसके मन में किसी प्रकार का व्यक्तिगत प्रश्न उठता ही नहीं था। ऐसा लगता था कि उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है। अपने परोपकारी पिता का वह अंश मात्र है - ऐसा अंश, जिसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होती, जिसकी नाड़ी में पूर्ण की ही धड़कन प्रतिध्वनित होती है। परंतु इन सारी व्यस्तताओं की ठोस नीरंध दीवार को भेदकर न जाने कब उसके शरीर में युवावस्था बिना बुलाए ही आ पहुँची । जिस प्रकार तूलिका के संपर्क से चित्र उन्मीलित हो उठता है, और उसका उच्चावच भाव उभर आता है और जिस प्रकार सूर्य की किरणों के संपर्क से कमल की कली रूप, वर्ण, प्रभा और गंध से उद्भिन्न हो उठती है, उसी प्रकार नवीन तारुण्य के संपर्क से अनायास ही उसका शरीर चतुरस्र उद्भिन्न हो उठा और शरीर का यह उद्भेद अंतस्तल तक भेद गया । जिस प्रकार उसके शरीर में उच्चावच भाव का उन्मीलन हुआ, उसी प्रकार उसके चित्त में भी संकोच और विस्फार तत्त्वों का उद्भेद हुआ। कहना तो यह चाहिए कि उसके शरीर का उन्मीलन तूलिका द्वारा स्पष्ट चित्र की भाँति और मन का उद्भेद सूर्य किरणों द्वारा उन्मीलित कमलपुष्प की भाँति हुआ ।

इस बीच हलद्वीप में कई नई घटनाएँ घटीं। राजा का स्वर्गवास हुआ। सारे नगर में शोक छा गया। फिर युवराज का राज्याभिषेक हुआ। नगर में उत्सवों का ताँता बँध गया । देवरात पुराने राजा के शोक कृत्यों में शामिल होते रहे, पर नए राजा के अभिषेक समारोह में शामिल न हो सके । नगर की कष्ट पीड़ित बहुएँ बराबर आश्रम में आया करतीं और नित्य होनेवाले समारोहों का समाचार मृणालमंजरी को भी देती रहतीं। इन्हीं दिनों किसी मुखरा पौर-वधू ने मृणालमंजरी को बताया कि नगर के लोग कहा करते हैं कि मंजुला के नृत्यगान जिन्होंने देखे हैं, वे अब इन नृत्य गानों का क्या आदर करेंगे। मंजुला के साथ ही साथ नगर की शोभा और श्री चली गई। उसने ही प्रथम बार मृणाल को बताया कि वह मंजुला की ही बेटी है। उसने गाल पर हाथ रखकर बड़ी सहानुभूति का भाव दिखाते हुए कहा कि उसकी माता जीवित होती तो आज क्या वह यों ही दीन मलीन होती। उसने और भी बहुत-सी बातें कहीं, पर मृणाल सबका अर्थ नहीं समझ सकी। उसे सुनकर कैसा कैसा लगा । उसने पिता से इस बारे में कुछ पूछना चाहा, पर इस विषय में भी उसे संकोच का अनुभव हुआ। वह पौर-वधू फिर नहीं आई, पर उसने मृणाल के मन में एक विचित्र प्रकार का अवसाद उत्पन्न कर दिया। मृणाल अन्य स्त्रियों से नगर के नृत्य-गान समारोहों का समाचार पाती रही और यह भी समझने लगी कि गणिकाओं के संबंध में जनता की धारणा बहुत हीन कोटि की है। उसके मन में रह-रहकर अपने जन्म के विषय में खेद और जुगुप्सा के भाव उठते रहे। पर वह पिता से अपनी मनःस्थिति छिपाए रही। कभी-कभी जब वह उद्विग्न होती तो आर्यक उसके मन में आ जाता। वह कातर-भाव से उसकी मानस मूर्ति से अनुरोध करती कि वह उसे भयंकर मनोवेदना से बचा ले।

देवरात अब चितित दिखाई देने लगे। बेटी सयानी हो गई, उसे सुयोग्य पात्र के हाथ सौंपकर ही वे निश्चित हो सकते थे। पर सुयोग्य पात्र कहाँ मिले ? उनकी दृष्टि आर्यक पर आकर रुक जाती थी । वही इस कन्या के योग्य वर है। पर वृद्धगोप क्या यह संबंध स्वीकार करेंगे ? स्वयं आर्यक क्या इस संबंध से प्रसन्न होगा ? उन्होंने मन ही मन इस संबंध की कल्पना कर ली । कन्या का मन क्या चाहता है, यह जानना भी ज़रूरी था । चतुर देवरात ने ध्यान देकर मृणालमंजरी के मन को परखना चाहा। आर्यक का किसी प्रसंग में नाम आ जाने पर वह कुछ उपेक्षा भाव दिखाती है, पर प्रसंग बदल देने पर चाहती है कि किसी प्रकार फिर छिड़ जाए। उसमें आर्यक के प्रति अभिलाष भाव है, यह बात उनसे छिपी नहीं रही । एक दिन उन्होंने आर्यक के मन का भाव जानने की इच्छा से वृद्धगोप के घर जाने का निश्चय किया । मृणाल को भी साथ चलने को कहा, पर उसने केवल सिर हिलाकर 'ना' ! कह दिया । उस समय उसकी आँखें झुक गई थीं। देवरात यदि अधिक आग्रह करते तो वह कदाचित् चलने को तैयार भी हो जाती, पर देवरात ने वैसा कुछ भी नहीं किया। वे अकेले ही च्यवनभूमि की ओर बढ़ गए। चलते समय उन्होंने मुड़कर देखा, मृणालमंजरी उत्सुक नयनों से उनका रास्ता देख रही है। जब तक वे आँखों से ओझल नहीं हो गए, वह उसी प्रकार एकटक देखती रही। देवरात मन-ही-मन पुलकित हुए।

च्यवनभूमि के गोपाटक गाँव में वृद्धगोप का घर था। हलद्वीप से वह बहुत दूर नहीं था। देवरात जब उस गाँव में पहुँचे तो पहले पहल आर्यक ही उन्हें मिल गया। वह कहीं बाहर से आ रहा था। देवरात ने इसे शुभ शकुन माना। आर्यक को देखकर उनकी आँखें जुड़ा गई। तीन वर्ष के भीतर आर्यक अब सिंह किशोर की भाँति पराक्रमी दिख रहा था। उसकी चौड़ी छाती, विशाल बाहु और कसा हुआ शरीर बरबस आँखों को आकृष्ट करते थे। उसकी गति में अंतर्मदावस्थ गजराज की भाँति मस्ती थी और आँखों में तरुण शार्दूल के समान अकुतोभय भाव लहरा रहे थे। उसके अंग-अंग में प्रच्छन्न तेज की दीप्ति दमक रही थी । उसने बड़ी भक्ति के साथ देवरात के चरणों को स्पर्श किया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया । देवरात को एक अद्भुत वात्सल्य भाव का अनुभव हुआ। ऐसा जान पड़ता था जैसे पूर्ण चंद्रमा को देखकर चंद्रकांत मणि पसीज उठी हो। उसके स्पर्श से उन्हें एक विचित्र प्रकार की शीतलता का अनुभव हुआ, मानो चित्तभूमि में किसलयवती चंदनलता ही उग आई हो, प्रवाहवती कर्पूर-धारा ही उमड़ उठी हो और चंद्रमा की स्निग्ध सुधा ही उपप्लित हो गई हो । वृद्धगोप ने बहुत दिनों के बाद देवरात के दर्शन करके अपने-आपको कृतार्थ अनुभव किया । बोले, "आर्य, आपके आशीर्वाद से आपका यह शिष्य सब प्रकार से आपके शिक्षण और उपदेश के उपयुक्त सिद्ध हुआ है। वृद्धावस्था में मेरे मन में एक ही कचोट रह गई है कि मेरा श्यामरूप जाने कहाँ चला गया है। आज वह भी होता तो मैं निश्चित होकर संसार-त्याग कर सकता। परंतु मेरे भाग्य में यह सुख नहीं बदा है। आर्यक के मन में भी मेरी तरह श्यामरूप के बिछोह का दुःख है। परंतु परमात्मा की इच्छा कुछ और ही प्रकार की है। मेरा मन कहता है कि मेरा श्यामरूप अवश्य लौटकर आएगा, परंतु कदाचित् मैं उसे देख नहीं सकूँगा।" वृद्ध की आँखों में आँसू भर आए। देवरात को भी कष्ट हुआ। उन्होंने वृद्धगोप को आश्वस्त करते हुए कहा, "चिंता न करो तात, श्यामरूप अवश्य आएगा। मेरी बात अन्यथा नहीं हो सकती। भगवान् पर विश्वास रखो । वे सब मंगल ही करेंगे। " देवरात देर तक आर्यक के साथ बातचीत करते रहे और वृद्धगोप को भी आश्वस्त करते रहे । जब वृद्धगोप थोड़ी देर के लिए किसी काम से अन्यत्र चले गए तो 'अवसर पाकर आर्यक ने धीरे से पूछा, "मृणालमंजरी कैसी है गुरुदेव ?” देवरात ने इस बात पर विशेष रूप से ध्यान दिया कि आर्यक्र ने पिता के सामने यह प्रश्न नहीं पूछा। उन्होंने यह भी लक्ष्य किया कि प्रश्न करते समय आर्यक की आँखें नीचे झुक गई थीं। उन्होंने प्यार से कहा, "बहुत अच्छी है, बेटा ! तुम तो कभी आए ही नहीं। वह तो हमेशा याद करती रहती है।” आर्यक के गंभीर मुखमंडल पर उद्विग्नता की हल्की लकीरें उभर आईं। उसकी आँखें और भी झुक गई। अस्फुट स्वर में बोला, "आऊँगा ।" परंतु देवरात के पारखी चित्त को इसका अर्थ समझने में विशेष अड़चन नहीं हुई। उसका भाव था कि आर्यक के जाने में कहीं-न-कहीं कुछ बाधा है। उस दिन देवरात प्रसन्न मन वहाँ से लौटे। उन्हें लगा कि मृणालमंजरी के योग्य वर खोजने में उन्हें विशेष कठिनाई नहीं होगी ।

मृणालमंजरी ने पिता से आर्यक के बारे में पूछा अवश्य, परंतु उसकी भाषा थोड़ी जड़िमाग्रस्त थी । वह पूछना कम और सुनना ज्यादा चाहती थी। देवरात ने उल्लासपूर्वक आर्यक के रूप, गुण, विनय और शील की बार-बार प्रशंसा की। मृणालमंजरी चुपचाप सुनती रही। परंतु उसे अनुभव हो रहा था कि सुनने से उसकी तृप्ति नहीं हो रही है। यह प्रसंग कुछ और चलता रहे, उसमें कोई और नई शाखा प्रशाखा निकल आए, यह उसकी हार्दिक मनोकामना जान पड़ती थी। देवरात भी देर तक आर्यक का ही बखान करते रहे ।

परंतु देवरात ने आर्यक और मृणालमंजरी के विवाह को जितना आसान समझा था, उतना वह सिद्ध नहीं हुआ। दूसरी बार वे फिर गोपाटक गए और वृद्धगोप से स्पष्ट रूप से विवाह का प्रस्ताव किया, तो वे एकदम चौंक पड़े। बोले, "ऐसा कैसे हो सकता है, आर्य ? मृणालमंजरी बहुत अच्छी लड़की है। मैं उसे बहुत प्यार करता हूँ। परंतु है तो वह गणिका - पुत्री ही ! मैं अगर मान भी लूँ तो मेरे परिवार के लोग कैसे मानेंगे ?” देवरात इस उत्तर से बहुत निराश हुए। उन्हें इस बात में कोई संदेह नहीं रहा कि वृद्धगोप का कहना ठीक है । लोकाचार वृद्धगोप के पक्ष में है। परंतु उनका हृदय कहता था कि विधाता ने यह जोड़ी समझ-बूझकर बनाई है। लोकाचार इसमें बाधक भी हो तो भी यह करणीय है। परंतु वृद्धगोप को संतुष्ट करने योग्य कोई तर्क या युक्ति उनके पास नहीं थी। वे उदास हो गए। उनको विषादयुक्त देखकर वृद्धगोप के मन में उनके प्रति सहानुभूति जगी, परंतु फिर भी लोकाचार से उनका चित्त ऐसा बँधा हुआ था कि वे देवरात को आश्वस्त करने योग्य कोई बात नहीं कह सके। उदास होकर भीगी वाणी से देवरात ने उपसंहार किया। बोले, "थोड़ा और सोचकर देखिए !" वृद्धगोप का मन सिकुड़ गया। क्या सोचना है इसमें !

देवरात लौटकर आए तो मृणालमंजरी उनके निकट देर तक मँडराती रही। वह कुछ सुनना चाहती थी । देवरात इधर-उधर की बातें करते रहे, पर एक बार भी उन्होंने आर्यक का नाम नहीं लिया । मृणाल को लगा कि पिता कुछ उदास और उद्विग्न हैं। क्या कष्ट है उन्हें ! बालिका के अबोध चित्त में नवीन चेतना अंकुरित हुई। उसी के कारण तो पिताजी चिंतित नहीं हैं? किस उद्देश्य से वे आर्यक के गाँव गए थे, क्या परिणाम हुआ ? उसके मन में अज्ञात आशंका का उदय हुआ। परंतु पिता एकदम मौन । वह मन मसोसकर रह गई ।

देवरात के आश्रम में एक छोटी-सी कुटिया थी, जिसमें एकमात्र देवरात ही जा सकते थे । वे उसे उपासना-गृह कहा करते थे। स्नान करने के बाद वे एक बार उसमें अवश्य जाया करते थे । मृणाल भी उस उपासना गृह में नहीं जा सकती थी। उस दिन देर तक वे उपासना - गृह में बैठे रहे । निकले तो उनकी आँखें गीली थीं। मृणाल का हृदय फटने को आया। पिताजी क्यों इतने उदास हैं ?

देवरात ने बेटी के मुरझाए मुख को देखा तो बड़े व्यथित हुए। उन्हें लगा कि सयानी लड़की के सामने उदासी का भाव दिखाकर उन्होंने गलती की है ! उन्होंने हँसने का प्रयत्न किया । मृणाल को एक ओर ले जाकर उन्होंने प्यार से उसके माथे पर हाथ फेरा। बोले, "तू उदास क्यों हो गई है बेटी ?"

मृणाल का हृदय उमड़ आया। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। बोली कुछ नहीं । देवरात समझ गए कि लड़की ने उनके हृदय के विषाद का अनुमान कर लिया है। ये आँसू अभिमान के हैं । पिता अपना दुःख पुत्री को क्यों नहीं बताते ? उन्होंने प्यार से उसे गोदी में खींच लिया। "रोती है पगली, तेरे कष्ट का कारण क्या है !" वे देर तक दुलार करते रहे । मृणाल का अनुमान और भी पुष्ट हुआ। वही पिता की चिंता का कारण है। देवरात के मौन ने उसे और भी उद्विग्न किया।

पुनर्नवा : चार

हलद्वीप के राजा यज्ञसेन भारशिव नागवंश के थे। कांतिपुर के राजाधिराज वीरसेन के सेनापति प्रवरसेन को जब काशी में नवम अश्वमेध यज्ञ के आयोजन का भार दिया गया, तो अपने पिछले अनुभवों के आधार पर उन्होंने निश्चय किया कि साकेत से पाटलिपुत्र तक कुषाण नरपतियों का जो भी प्रभाव अवशिष्ट रह गया है उसे समाप्त कर दिया जाए। उनके पुत्र विजयसेन को अश्व-रक्षा का भार दिया गया। उसी समय से हलद्वीप में भारशिवों का आधिपत्य हुआ। ये लोग साधारण जनता में भरशिव या भर कहे जाते थे । यज्ञसेन विजयसेन के पुत्र थे और कान्तिपुरी की ओर से हलद्वीप का शासन करते थे । यज्ञसेन ने समझ लिया था कि आभीरों की सहायता के बिना वे इस प्रदेश में अधिक दिन तक नहीं टिक सकेंगे। यद्यपि वे स्वयं शिव के उपासक थे और आभीरगण वासुदेव कृष्ण के उपासक थे, फिर भी उन्होंने किसी प्रकार संकीर्णता नहीं दिखाई। भृगु आश्रम का विशाल विष्णु मंदिर उन्होंने ही बनवाया था। उस मंदिर में चतुर्व्यूह विष्णुमूर्ति की प्रतिष्ठा असंतोष बढ़ता गया । भर सैनिकों का औद्धत्य भी बढ़ता गया। बात-बात में निरीह प्रजा को कष्ट पहुँचाया जाता, खलिहान जला दिए जाते, घर गिरा दिए जाते, खड़ी फसलें काट ली जातीं। नए-नए करों से प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठी । देवरात के पास सताए हुए निरपराध लोगों की भीड़ बढ़ने लगी। पहले तो उन्होंने राजा को समझाने-बुझाने का प्रयत्न किया, पर उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली।

मृणाल अब सयानी हो गई थी। नागरिकों की पीड़ा को वह समझने लगी थी। पिता की विवशता से वह दुःखी होती, पर वह समझ नहीं पा रही थी कि किस प्रकार वह पिता का भार हल्का कर सकती है । नगर की प्रौढ़ा स्त्रियाँ उसे इस प्रकार की रोमांचकर कहानियाँ सुना जातीं कि वह व्याकुल हो उठती। उसके मन में बार-बार प्रश्न उठता कि स्त्रियाँ क्या सचमुच अबला हैं। क्या वे इस प्रकार के अत्याचारों का सामना नहीं कर सकतीं ? कैसे कर सकती हैं ? प्रौढ़ महिलाएँ उसे यही सिखातीं कि वह घर से बाहर न निकले। मृणाल इस प्रकार की सलाह से और भी व्याकुल हो उठती । क्या विधाता ने स्त्रियों को केवल भार-रूप में बनाया है? वे पर रक्षा तो क्या आत्म-रक्षा में भी समर्थ न रहें, यही क्या विधाता की इच्छा थी? वह केवल सोचती रहती, उसे कुछ रास्ता नहीं दिखाई देता । पिता की व्याकुलता को कम करने में वह अपने को असमर्थ पाती। उसे अब अपनी विवशता असह्य लगने लगी। हाय, वह अपने देवता तुल्य पिता की चिंता को क्या कुछ भी हल्का नहीं कर सकती ! अत्याचार की कहानियाँ सुन-सुनकर वह विकल हो उठी थी ।

राजा को अंतिम बार समझाने-बुझाने के उद्देश्य से उस दिन जब देवरात चलने लगे, तो मृणाल ने उदास दृष्टि से उनकी ओर देखा । उस दृष्टि में एक विचित्र प्रकार के विवशताबोध का भाव था, मानो कह रही हो, 'मैं क्या किसी काम नहीं आ सकती ?' देवरात को वह भाव बड़ा करुण जान पड़ा। पास आकर उन्होंने बेटी के सिर पर हाथ फेरा प्यार से कहा, "एक और प्रयत्न कर लेता हूँ। जानता हूँ, यह दुष्ट नाग समझाने-बुझाने से वश में नहीं आएगा। पर एक और प्रयत्न कर लेने में कोई हानि नहीं है। अंत में तो कालिय-दमन ही रास्ता रह जाएगा।"

मृणाल को लगा कि पिता उसके मनोभाव बिलकुल नहीं समझ रहे हैं। उसके हृदय में जो द्वंद्व चल रहा है, उसका आभास भी उन्होंने नहीं पाया है। व्यथित स्वर में उसने कहा, "पिताजी, मैं क्या इस समय आपके किसी काम नहीं आ सकती ? दिन-दहाड़े प्रजा की संपत्ति लूटी जा रही है, बहू-बेटियों का शील नष्ट किया जा रहा है। आपकी यह अभागिन कन्या क्या इस समय कुछ भी नहीं कर सकती ? आपका मुरझाया मुख मुझसे नहीं देखा जाता। मुझे भी कुछ करने की आज्ञा दें। "

देवरात ने चकित होकर कन्या की ओर देखा । उन्होंने कभी भी यह नहीं सोचा था कि उनकी नन्ही सी मृणाल में इतना तेज है। वे भरसक यही प्रयत्न करते थे कि उसे इन अनाचारों की बात न सुनाएँ । वे हतबुद्धि से होकर सोचने लगे, ऐसी लड़कियाँ इन बातों में क्या सहायता कर सकती हैं ? उन्होंने प्यार से मृणाल का सिर सहलाया, "मेरी प्यारी बेटी, इस अनाचार को दूर करने का ही तो उपाय कर रहा हूँ। बेटियों की शील-रक्षा का भार पुरुषों पर है । तुझे मैं कौन-सा काम दे सकता हूँ ? तू तो जो संभव है, सब कर ही रही है । दीन-दुखियों की सेवा करना, उनके भीतर आत्मबल संचारित करना, यही तो तेरा काम है। तू कर तो रही है। इससे अधिक जो कुछ करना होगा, वह हलद्वीप के नौजवान करेंगे । तुझे मैं वैसा काम कैसे दे सकता हूँ ?"

मृणाल उदास हो गई । उसे पिता की विवशता से क्षोभ हुआ। स्त्रियों की शील- रक्षा का भार पुरुषों पर है ! पिता ने अंतिम बात कह दी है। पर राजा के गुंडे क्या पुरुष नहीं ? उनके ऊपर तो शील नष्ट करने का भार आ पड़ा है। मृणाल का मन विद्रोह कर उठा । बोली नहीं, पर उसके नासा पुट बार-बार फड़कने लगे, भृकुटियों में खिचे हुए धनुदंड के समान तनाव आ गया । पिता ने उसके भावों को समझने का प्रयास किया। उन्हें कुछ नया अनुभव हुआ। कुछ सोचकर बोले, "सुना है बेटी, कि कांतिपुरी के निकट विध्याटवी में कोई सिद्ध पुरुष आए हैं। उन्हें देवी ने स्वप्न में आदेश दिया है कि 'मेरे सिंहवाहिनी, महिषमर्दिनी - रूप की पूजा का प्रचार करो। जो पुरुष शूर हैं, धर्म के अनुकूल हैं, पापी से डरना नहीं जानते, अन्यायी का रक्त पान करते हैं, वे सिंह हैं। मैं उन्हीं को वाहन बनाकर धर्म - स्थापना करती हूँ, परंतु जो तामसिक हैं, अविवेकी हैं, धर्म-द्वेषी हैं, निरीहों को भय दिखाते हैं, दूसरों का शस्य-क्षेत्र नष्ट करते हैं, मदमस्त होकर चलते हैं, वे महिष हैं। मैं उनका संहार करके धर्म की स्थापना करती हूँ ।' सुना है कि इस स्वप्न के बाद उन्होंने इस मूर्ति की उपासना चलाई है और महिषमर्दिनी की स्तुति के मनोरम काव्य लिखे हैं । "

मृणाल को रोमांच हो आया। महिषमर्दिनी दुर्गा ! उल्लसित होकर बोली, "पिताजी, मुझे महिषमर्दिनी की उपासिका बनने की अनुमति दें। मैं इन घृणित पापाचारियों को ध्वस्त करने की दीक्षा लेना चाहती हूँ । मुझसे यह सब नहीं सहा जाता। इन घिनौने पशुओं को अधिक छूट मिली तो ये धरती को धर्महीन कर देंगे।"

देवरात अवाक् होकर बेटी का मुँह देखने लगे ।

थोड़ी देर तक वे मंत्रमुग्ध की भाँति मृणाल के तेजोमंडित अदनार मुख की ओर देखते रहे । फिर बोले, "नहीं बेटी, महिषमर्दिनी की उपासिका नहीं, तू सिंहवाहिनी की उपासिका बन । जो बात मेरी समझ में नहीं आ रही है उसे करने की सलाह मैं नहीं दे सकता। मुझे सिंहवाहिनी की उपासना तेरे जैसी लड़कियों के लिए उचित जान पड़ती है । महिषमर्दिनी केवल भावलोक की साधना है। वह कविता में फबती है, व्यवहार में नहीं ।"

मृणाल को पहेली-जैसा लगा । वह उत्सुकता के साथ पिता की ओर देखती रही, कुछ अधिक स्पष्ट समझने की आशा से, परंतु पिता विचारों की दुनिया में खो गए, अपनी बात के सर्वांग सत्य होने के विश्वास से। मृणाल ने उनका ध्यान भंग किया, "नहीं समझ में आया पिताजी! जो बात कविता में फबती है, वह व्यवहार में क्यों नहीं फबेगी ?"

देवरात शांत वाणी में बोले, "कविता, भगवती महामाया की इच्छा-शक्ति है, व्यवहार जगत् उनकी क्रिया-शक्ति का विलास है। इच्छा-शक्ति कल्प-लोक का निर्माण कर सकती है, क्रिया-शक्ति केवल सृष्ट पदार्थों तक सीमित है। मुझे ऐसा लगता है कि उपपन्न कवि चाहे तो कविता के कल्प-लोक में फूल-सी सुकुमार बालिका से वज्र-कठोर महिष का निर्दलन करवा सकता है, पर व्यवहार जगत् में यह संभव नहीं दिखता । "

मृणाल मुरझा गई। बोली, "तो कविता निरर्थक हुई पिताजी ?"

देवरात ने हँसते हुए कहा, "नहीं, अर्थभार से हीन, सत्त्वार्थमात्र ! मगर यह कविता पर विचार करने का समय नहीं है, बेटी ! मेरी बात को समझने का प्रयत्न कर। मैं जब तक लौटकर आता हूँ तब तक तू इस बात पर विचार कर कि तुझे सिंहवाहिनी की उपासिका बनना है । तू सिंहों को कर्त्तव्य पालन की प्रेरणा देगी। देख बेटी, भगवती महामाया नारी के रूप में केवल प्रेरणा शक्ति है, पुरुष के रूप में प्रेरणावाहिनी शक्ति!" देवरात ने कन्या को नई पहेली में उलझाकर राजभवन की ओर प्रस्थान किया । मृणालमंजरी पिता के वाक्यों का अर्थ समझने का प्रयत्न करती रही। नारी भगवती महामाया की प्रेरणा शक्ति है, पुरुष उनकी प्रेरणा को वहन करनेवाली शक्ति है। उसे सिंहवाहिनी की उपासिका बनना है, महिषमर्दिनी की उपासना केवल कविता में फबती है । कविता महामाया की इच्छा-शक्ति का विलास है, अर्थभार - हीन सत्त्वार्थमात्र ! सब मिलाकर क्या बना ? मृणाल समझने का प्रयत्न कर रही है, समझ रही है ।

एक बार उसे लगता था कि उसके पिता ठीक ही कह रहे हैं। महिषमर्दिनी देवी केवल भावों की दुनिया में रह सकती है। तथ्यों की दुनिया में सुकुमार बालिकाओं के लिए महिष-मर्दन संभव नहीं है। सिंहवाहिनी देवी ही उपास्य हो सकती हैं। जो सिंह के समान पराक्रमी हैं, अकुतोभय हैं, सत्त्ववान् हैं, उनके भीतर जो शक्ति काम करती है, वही सिंहवाहिनी है । सिंह, पुरुष-सिंह ! पुरुष-सिंह कैसा होता है ? मृणाल के चित्त में अनायास गोपाल आर्यक का तेजस्वी मुख उद्भासित हो आया। कपाट के समान चौड़ा वक्षःस्थल सिंह के समान कटिदेश, शोभा और शौर्य के मिलित भाव पैदा करनेवाले केश-कलाप ! गोपाल आर्यक पुरुष-सिंह है, निर्भय, सतेज, सत्त्वशील ! निस्संदेह ऐसे ही पुरुषों को वाहन बनाकर महादुर्गा क्रूर, दुर्वृत्त और घृणास्पद महिषासुरों का दलन करती हैं। पिता कहते हैं, यही सिंहवाहिनी देवी लड़कियों की उपास्या हैं। लेकिन फिर उसके मन में प्रश्न उठता उपासना का क्या अर्थ है ? केवल पुरुष शक्ति की पूजा ही क्या स्त्रीधर्म है ? सिंहवाहिनी की उपासना का मतलब क्या इतना ही है कि महिष-मर्दन का काम पुरुषों पर छोड़कर स्त्रियाँ उनकी आरती उतारा करें ? स्त्रियों का धर्म क्या आगे बढ़कर अधर्माचार का विध्वंस करना नहीं है ? स्त्री को पुरुष की सहधर्मिणी बनना पड़ता है। यह कैसा सहधर्म है कि पुरुष युद्ध करें और स्त्रियाँ उनकी आरती उतारती रहें? मृणाल का मन ऐसा नहीं मानना चाहता । सहधर्म में महिष मर्दन भी शामिल होना चाहिए। देवी सिंहवाहिनी भी हैं और महिषमर्दिनी भी । पिताजी क्यों इस बात को मानने में कुंठा अनुभव करते हैं ! कदाचित् उनके मन में दुर्वृत्त गुंडों के पशुबल पर अधिक विश्वास है, स्त्रियों के आत्मबल पर कम । मगर पिताजी तो सदा आत्मबल की ही सराहना करते हैं। कहीं कोई मोह तो उनके मन में नहीं आ गया है ? गोपाल आर्यक जैसे सिंह की सहधर्मिणी को उसके हर काम में सहायता पहुँचाने की आवश्यकता है, अधिकार है। एक क्षण के लिए मृणाल को रोमांच हो आया । गोपाल आर्यक की सहधर्मिणी ! उसे एक प्रकार की गुदगुदी का अनुभव हुआ। वह क्या सोचने लगी । कहाँ गोपाल आर्यक और कहाँ मृणालमंजरी ! यह भी क्या संभव है कि वह गोपाल आर्यक की सहधर्मिणी बने । सिंहवाहिनी की उपासना उसके लिए मनमोदक मात्र है। सिंह तो एक ही है, गोपाल आर्यक ! वह देर तक गोपाल आर्यक के बारे में सोचती रही । सुना है, बड़ा गबरू जवान हो गया है, अपने से तिगुने मल्लों को पछाड़ चुका है। जिधर से गुज़र जाता है उधर से मदमस्त वीरता ही चलती दिखाई देती है। नगर के गवाक्ष खुल जाते हैं, पुर-सुंदरियों की आँखें बिछ जाती हैं। इधर आया क्यों नहीं ? अप्रसन्न हो गया है क्या ? हाय, मृणाल की आँखें प्यासी ही रह गई हैं। कभी आता ही नहीं, इधर का रास्ता ही भूल गया है ऐसा तो नहीं था, क्या हो गया है उसे! लेकिन कोई कुछ भी कहे, गोपाल आर्यक सचमुच सिंह है, पुरुष - सिंह !

"लहुरा वीर की जय !" दूर से सहस्र कंठों की निकली हुई जय- - ध्वनि ने मृणाल का ध्यान भंग किया। उसने कुटिया से बाहर निकलकर देखा, सैकड़ों युवक जय-जयकार करते हुए गंगा का तट पकड़े पश्चिम-दक्षिण की ओर बढ़े जा रहे हैं। कुछ समझ में नहीं आया ।

इसी समय सुमेर काका की आवाज़ सुनाई पड़ी, "क्या कर रही हो बिटिया रानी ? गुरु गया है राजा को मनाने और चेला निकला है लहुरा वीर को जगाने।"

मृणाल ने हँसते हुए प्रणाम किया। सुमेर काका देवरात के घनिष्ठ मित्र थे। आयु में काफी बड़े थे, पर देवरात के साथ उनकी समवयस्कों की सी दोस्ती थी । सच तो यह था कि सुमेर काका नगर के बाल - युवक - वृद्ध सबके समवयस्क थे । जिस मंडली में बैठते, उसी के हो जाते । अश्वमेध के अश्व की रक्षा में वीरतापूर्वक काम करने के कारण उन्हें हलद्वीप के उत्तर की ओर भूमि मिली थी। पत्नी का बहुत पहले देहांत हो चुका था, एकमात्र कन्या का विवाह धूमधाम से किया था, पर विदाई के दिन नाव डूब जाने से वह भी चल बसी । तब से सारे नगर के बच्चे उनके अपने हो गए। मृणाल पर तो उनका बहुत अधिक स्नेह था । दुर्भाग्य उन्हें परास्त नहीं कर सका था। जहाँ जाते, आनंद और उल्लास उनके अनुचर की भाँति वहाँ पहुँच जाते । सुमेर काका को नगर के उच्चपदस्थ लोग भी सम्मान देते थे । राज्य के सर्वाधिक गंभीर न्यायाधीश आचार्य पुरगोभिल भी, जिन्हें 'प्राड्विवाक' कहा जाता था, सुमेर काका के प्रशंसक थे। कहा तो यहाँ तक जाता था कि कई पेचीदे मामलों में aara की सह-बुद्धि पर भरोसा रखकर विचार करते थे । काका जब मृणाल के पास आते तो कोई-न-कोई नया समाचार अवश्य दे जाते। उनके लिए प्रत्येक समाचार का एक ही मूल्य था - आनंद - वर्षा । कोई समाचार उनके लिए चिंताजनक नहीं होता। चींटियों की लड़ाई की बात करते, तो उतनी ही रसीली बनाकर जितनी बड़े-बड़े राजाओं के युद्ध की । उनके लिए मारपीट भी उतनी ही रस - निष्पत्ति का विषय थी, जितना ब्याह - बरेखी ।

सुमेर काका को देखते ही मृणाल का चित्त उल्लास से भर गया। मृणाल का सदा का अनुभव था कि सुमेर काका का पहला वाक्य पहेली होता है। श्रोता को इस पहेली को बूझने के लिए उन्हीं की सहायता लेनी पड़ती थी। सुमेर काका अपना पहला वाक्य बोल चुके थे, "गुरु गया है राजा को मनाने और चेला निकला लहुरा वीर को जगाने ।" मृणाल ने सदा की भाँति हँसते हुए पूछा, "आज की पहेली भी बुझा दो, काका ! कहना क्या चाहते हो ?"

सुमेर काका ने प्यार से कहा, "बिटिया रानी, तेरा काका पहेली ही नहीं बुझाता, कभी-कभी ठीक समाचार भी देता है। गुरु है तेरा बाप देवरात और चेला है तेरा सखा गोपाल आर्यक ! वह जो गंगा के किनारे-किनारे लौंडों का दल चिल्लाता हुआ जा रहा है न, वह लहुरा वीर की उपासना करनेवालों का दल है। उसका नेता है गोपाल आर्यक । सुना है, मथुरा के आभीरों ने नए देवता का संधान पाया है और वहाँ से अब यह नया देवता उत्तरापथ के हर घर में पहुँचता दिखाई दे रहा है। यहाँ यह गोपाल आर्यक है जो लहुरा वीर का सबसे बड़ा सेवक बना है । कहता फिरता है कि राजा अत्याचारी हो गया है, उसको ध्वस्त करने का आदेश लहुरा वीर ने दिया है। नगरवासी अपनी कष्ट कथा आर्यक को ही सुनाते हैं। आर्यक ने सैकड़ों युवकों की एक छोटी-मोटी सेना ही तैयार कर ली है। आज उसका दल नगर की गली-गली में घूमा है और उसने लोगों को अभय का आश्वासन दिया है । राजा ने अभी तक तो छेड़-छाड़ नहीं की है, लेकिन बादल घुमड़ रहे हैं, कब बरस पड़ें, कहा नहीं जा सकता । "

मृणाल ने सुना तो उसे गर्व का भाव अनुभव हुआ और थोड़ा भय भी लगा । उसके हृदय में ज़ोर-ज़ोर की धड़कन होने लगी। अपने को सम्हालकर उसने पूछा, "यह लहुरा वीर कौन है, काका?"

सुमेर काका ठठाकर हँस पड़े। बोले, "सब तो मैं भी नहीं जानता बिटिया; लेकिन सुना है कि मथुरा के कुषाणों पर विजय पाने के बाद किसी आभीर राजा ने अनुभव किया कि कुषाण लोग जिस प्रकार पंचध्यानी बुद्धों की उपासना करते हैं उसी प्रकार की पंचमूर्ति | आभीरों की भी उपास्य बननी चाहिए, क्योंकि मथुरा की जनता में पाँच की संख्या बहुत प्रिय है। भागवत धर्म में चतुर्व्यूह की उपासना प्रचलित है। ये चार देवता हैं --बलराम, श्रीकृष्ण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध । आभीर राजा ने इस मंडली में श्रीकृष्ण के छोटे पुत्र साम्ब at भी जोड़कर पाँच वृष्णिवीरों की उपासना प्रचलित की है। सुना है कि मथुरा में उन्होंने पाँच वृष्णि-वीरों का विशाल मंदिर बनवाया है। यही साम्ब लहुरा वीर हैं। पुराने चार वीरों के बाद इनका नाम जुड़ा है, कदाचित् इसीलिए इन्हें लहुरा वीर कहा गया है । लहुरा वीर की इस नई उपासना में आभीरों ने नवीन उत्साह और आत्म-बल का संचार किया है । समूचे उत्तरापथ में अब यह उपासना चल गई है । लहुरा वीर अत्याचार और अनाचार को ध्वंस करने के प्रतीक बन गए हैं। गोपाल आर्यक ने हलद्वीप के राजा के विरुद्ध जो अभियान किया है वह भी आभीरों के नए उत्साह और आत्मबल का सूचक है।" फिर ज़रा अवहेलना की हँसी हँसकर सुमेर काका ने कहा, "अभी गधा-पंचीसी में है न, बेटा ! समझता है कि राजा की संघटित सैन्य शक्ति से लोहा लेना बच्चों का खिलवाड़ है। भारशिवों की शक्ति का पता सुमेर काका को है । बिचारा गोपाल आर्यक कुछ जानता ही नहीं । लेकिन कर अच्छा रहा है। पिट तो अवश्य जाएगा, लेकिन राजा को भी छठी का दूध याद आ जाएगा । यह नरक का कीड़ा अब कुल-ललनाओं का शील नष्ट करने पर तुला हुआ है। इसका पाप ही इसे खा जाएगा। कौन जाने, आर्यक को ही निमित्त बनाकर भगवान् इसे दंड देना चाहते हों । पर चाहे कुछ भी हो बेटा, हलद्वीप में तो चहल-पहल अवश्य होगी, मार-पीट होगी, धर-पकड़ होगी, और जाने क्या-क्या होगा ।" मृणाल के चेहरे पर व्याकुलता की रेखाएँ उभर आई थीं, पर काका ने उधर ध्यान ही नहीं दिया। उसी प्रवाह के साथ बोलते रहे, "तेरे बाप का दिमाग़ भी ख़राब हो गया है। समझता है राजा को समझा-बुझाकर मना लेगा। बम भोलानाथ है। आज तक समझ ही नहीं पाया कि विधाता जिसे मारना चाहता है उसकी बुद्धि पर संपत्ति मद का ताला लगा देता है । आज समझ जाएगा । "

सुमेर काका ने उठने की इच्छा प्रकट की । मृणाल ने उन्हें रोका, "थोड़ा रुको काका, तुम तो सब पर एक-एक लकड़ी मारकर चलते बने। मुझे बताते जाओ कि इनमें तुम्हें ठीक मार्ग कौन-सा जान पड़ता है। या छोड़ो इस बात को । अगर ऐसा ही कुछ आ घटे कि तुम्हें किसी एक ओर शामिल होना ज़रूरी जान पड़े, तो किधर जाओगे ?”

काका ठठाकर हँसे, "तेरा काका तो सदा का अबोध है और वह बालकों का ही पक्ष लेता है । तेरा यह काका, गोपाल आर्यक की ओर से पिटते हुए देखा जाएगा। देवरात भी अबोध है, लेकिन उसकी अबोधता में गति नहीं है, हलचल नहीं है, क्षोभ नहीं है और तेरे सुमेर काका को यही सब पसंद नहीं है। आर्यक अबोध है, लेकिन उसमें गति है, प्रचंड गति । जब से मैंने लड़कों की मंडली का जय-जयकार सुना है, तब से मेरा मन उसी दल में भर्ती होने के लिए व्याकुल है। उधर ही जा रहा हूँ।"

मृणाल को उल्लास का अनुभव हुआ । बोली, "तुम थोड़ा रुक नहीं सकते, काका ? एक बहुत आवश्यक प्रश्न तुमसे करना है। "

सुमेर काका ने पीछे फिरकर देखा। अबकी बार उन्हें लगा कि मृणाल के चेहरे पर कुछ चिंता की लकीरें उभरी हुई हैं। पहली बार उन्होंने उधर ध्यान नहीं दिया था। लाठी दीवार के सहारे टिकाकर बैठ गए, "ले, यह बैठ गया। पूछ, क्या पूछना चाहती है ?"

मृणाल ने धीरे-धीरे कहा, "लड़कियाँ इस अनाचार के उन्मूलन में कुछ हाथ नहीं बँटा सकतीं, काका? पिताजी बता रहे थे कि विध्याटवी में कोई सिद्ध पुरुष हैं जो देवी के सिंहवाहिनी और महिषमर्दिनी रूप की उपासना का प्रचार कर रहे हैं। परन्तु पिताजी कहते हैं कि लड़कियाँ सिंहवाहिनी की ही उपासना कर सकती हैं, महिषमर्दिनी की नहीं। उनका कहना है कि लड़कियों का महिषमर्दिनी होना संभव नहीं है। केवल कविता में यह बात फबती है। ऐसा क्यों होगा, काका ? जो बात कविता में फबेगी, वह व्यवहार में क्यों नहीं फबेगी ?"

सुमेर काका ठठाकर हँसे, "यही आवश्यक प्रश्न है रे ?” फिर थोड़े गंभीर होकर बोले, "तेरे पिता देवरात पंडित हैं। जो कुछ कहते हैं, तर्क की तराजू पर तौलकर कहते हैं। पर " तेरा काका अटट गँवार है। जवानी में उसने एक ही काम किया है-सीधे टूट पड़ना, फिर प्राण चाहे रहें, चाहे जाएँ । बुढ़ापे में भी उसकी यही आदत बनी हुई है। तू पूछना चाहती है कि भैंसा अगर चढ़ दौड़े तो तेरी जैसी लड़की को क्या करना चाहिए ? तेरे बाप का जवाब है कि शेर को बुलाने के लिए दौड़ पड़ना चाहिए। तेरे काका का जवाब है, जो कुछ आसपास मिल जाए, उसी से उस भैंसे को दमादम पीट देना चाहिए। नाक पर मार सको तो क्या कहना ! आँख फोड़ सको तो और अच्छा! सिंह बाद में आएगा, पहली चोट तुम्हें करनी होगी। अगर डर है कि रगेद देगा, प्राण ले लेगा, तो ऐसा सवाल पूछना ही नहीं चाहिए । सुमेर काका एक ही बात जानता है : सज्जन है, चरण की धूल लो। दुर्जन है, नाक तोड़ दो । जो डरता है वह देवी की उपासना के बारे में पूछना ही छोड़ दे। देवी क्या है रे ? तेरे भीतर जो 'अभय' है, वही देवी है। पिशाची क्या है, जानती है ? तेरे भीतर जो 'भय' है, वही पिशाची है । " सुमेर काका ने यह देखने का प्रयत्न नहीं किया कि मृणाल पर उनकी बात का क्या असर पड़ रहा है। देखते तो उन्हें पता चलता कि मृणाल के मुख मंडल पर अद्भुत दीप्ति दमक उठी है । वे कहते ही गए, "देवरात पोथी के बल पर मुझे हरा देता है । जब कभी उसके विचारों के विरुद्ध कुछ कहना चाहता हूँ, तभी तर्कों का कोड़ा मार-मारकर उस द्वार की ओर धकेल देता है जहाँ से घुटने टेके बिना भागना भी कठिन है। "

सुमेर काका हँस-हँसकर दोहरे हो गए।

मृणाल भी हँसने लगी । बोली, "पिताजी तो कहते हैं कि तुम कभी हारते ही नहीं। " सुमेर काका थोड़ा सुस्ताने लगे। ज़रा सँभलकर बोले, "हार जाता हूँ, बिटिया, बुरी तरह हार जाता हूँ। पर हार मानता नहीं। "

मृणाल ने कहा, "जरा समझाकर कहो काका, हारते हो मगर हार मानते नहीं !"

"देख रे, तेरा बाप शास्त्र का बड़ा भारी पंडित है। काव्य का, संगीत का, चित्र का, मूर्ति का सहृदय पारखी है। मगर मैं उसकी कमज़ोरी जान गया हूँ। वह इन बातों को तैयार माल की तरह देखता है । सुनार जैसे अँगूठी बनाकर ले आता है तो ग्राहक जैसे देखता है, उसी प्रकार । मगर ज्ञान या रस तैयार माल की तरह नहीं होते। वे इतिहास से पलते हैं, और, इतिहास को बनाते हैं; मगर मेरे मन में जो कुछ है उसे मैं प्रकट नहीं कर पाता। तैयार माल का दाम आँकनेवाली बुद्धि मुझे मार गिराती है। अनपढ़ हूँ, क्या करूँ ! मगर जानता हूँ कि ठी. मैं कहता हूँ । सो हार तो जाता हूँ, पर हार मानता नहीं । उसने तुझे कविता और व्यवहार का जो भेद बताया है न, वह उसी तैयार माल का दाम आँकनेवाली बुद्धि से । समझ गई, बिटिया रानी ! ले, अब तेरा आवश्यक प्रश्न और भी उलझ गया होगा । " कहकर सुमेर काका उठ पड़े ।

मृणालमंजरी को काका की बातें पूरी समझ में नहीं आईं, पर उसे आह्लाद का अनुभव हुआ। बोली, "सचमुच गोपाल आर्यक के पास जा रहे हो काका ?"

सुमेर काका फिर हँसे, "एकदम जा रहा हूँ, बिटिया !”

मृणाल ने कहा, "काका, एक बात मेरी ओर से आर्यक से कह देना । कहना कि वह मृणाल को भी अपने दल में शामिल कर लें।"

सुमेर काका और ज़ोर से हँसने लगे, "यह नहीं होगा। न तो तेरा बाप ही इसे मानेगा और न उसका चेला। लेकिन तेरा नाम मैंने अपनी बही में लिख लिया है। तेरा सुमेर काका भी पगला है और तू भी पगली है। पागलों की अलग सेना बनेगी और उसमें दो सिपाही होंगे-सुमेर काका और मृणालमंजरी, बस !" काका ने पीछे फिरकर देखने की ज़रूरत नहीं समझी। हँसते-हँसते कहते गए, "सुमेर काका के भी समानधर्मा हैं। अगर ऐसे ही सौ-पचास आदमी मिल जाएँ, तो आनंद आ जाए।"

पुनर्नवा : पाँच

राज-सभा में देवरात का अपमान हुआ। उन्हें बैठने को आसन भी नहीं दिया गया । राजा ने उनकी ओर देखा भी नहीं । वे बहुत मर्माहत हुए। देर तक इधर-उधर भटकते रहे । उनके लौटने में देरी हुई। जब लौटे तो देखा कि मृणाल की आँखें सूजी हुई हैं, मुख पीला पड़ गया है । निस्संदेह वह बहुत रोई थी। देवरात ने पुत्री का मुरझाया हुआ मुख देखा, तो उन्हें बड़ा ही क्लेश हुआ। परंतु पूछने पर उसने कुछ कहा नहीं, और भी अधिक रोने लगी। देवरात एकदम व्याकुल हो उठे । उन्हें संदेह हुआ कि मृणालमंजरी के साथ किसी ने छेड़छाड़ की है या कोई कुवाच्य कहा है । परंतु बार- बार पूछने पर भी मृणालमंजरी ने कुछ बताया नहीं । केवल सिसक-सिसककर रोती रही। देवरात अपने को असहाय और निरुपाय अनुभव करने लगे । उनके मन में मातृहीना कन्या के लिए बड़ी दारुण वेदना हुई। उन्होंने प्यार से मृणालमंजरी को गोदी में लेकर उसका दुःख जानने का प्रयत्न किया। परंतु वे जितना ही पूछते थे, उतना ही वह अधिक रोने लगती थी । देवरात ने पूछना बंद कर दिया । केवल गोदी में उसको दुलराते-सहलाते रहे। पिता का स्नेह-स्पर्श पाकर मृणालमंजरी उनकी गोदी में सो गई। देवरात उदास चिंतित भाव से उसे गोदी में लिए ही बैठे रहे। उनकी समझ में नहीं आया कि उनकी प्यारी बिटिया को हो क्या गया है। कुछ देर बाद उन्होंने मृणालमंजरी को खाट पर सुला दिया और उसके सिरहाने बैठकर स्नेह-वत्सल भाव से उसका सिर सहलाते रहे। कितनी देर वे इस प्रकार बैठे रहे, इसका पता उन्हें भी नहीं चला । मन में विचारों का एक तूफ़ान चलता रहा। मृणालमंजरी की माता मंजुला उनके चित्त-पट पर न जाने कितनी बार आई और न जाने क्या-क्या कह गई। वे चिंता - कातर मुद्रा में मृणालमंजरी के सिरहाने बैठे रह गए। मृणालमंजरी भी जो सोई तो ऐसा लगा कि संज्ञाशून्य ही हो गई है।

वह रात यों ही बीत गई। मृणालमंजरी वात्सल्य रस से भीगी सी निद्रित पड़ी रही और देवरात उसके सिरहाने बैठे ही रह गए। पूर्व दिशा में उषा की लालिमा दिखाई पड़ी । तरु-कोटरों से पक्षियों का कलरव सुनाई देने लगा। सूर्य की लाल-लाल किरणों-रूपी शलाकाओं से झाड़े गए आकाश के नक्षत्रगण इस प्रकार लुप्त हो गए मानो किसी ने लाल रंग की झाड़ू से सारा आसमान साफ़ कर दिया हो। पुत्री को उसी प्रकार निद्रित छोड़कर देवरात उठे और प्रातःकालीन कृत्य के लिए तैयार होने लगे । स्नानादि से निवृत्त होकर जब वे आश्रम के द्वार पर आए, तो देखा कि उनका अत्यंत विश्वसनीय सेवक सुदिन्न कहीं से चला आ रहा है। सुदिन्न कभी बहुत बीमार पड़ा था और देवरात की परिचर्या से स्वस्थ हुआ था। वह पास ही के गाँव में रहता था और समय-समय पर उनकी सेवा के लिए आ जाया करता था । मृणालमंजरी को वह अपनी बेटी के समान ही प्यार करता था। जब कभी उसे पता चलता कि देवरात बाहर गए हुए हैं और मृणालमंजरी अकेली है, तभी सब काम-काज छोड़कर वह मृणालमंजरी के पास आ जाता। देवरात नहीं चाहते थे कि सुदिन्न घर का काम-काज छोड़कर उनकी सेवा के लिए आया करे। परंतु सुदिन्न सदा यही सोचता रहता था कि वह किसी प्रकार उनके काम आ सके। उस दिन देवरात जब बाहर गए तो संयोग से सुदिन्न को पता चल गया था और वह मृणालमंजरी के पास पहुँच गया था । मृणालमंजरी रो रही थी । सुदिन्न ने भी देवरात की तरह उसके दुःख का कारण जानने का प्रयत्न किया था, परंतु उसने उसे कुछ नहीं बताया था। उसके बहुत आग्रह करने पर मृणालमंजरी ने उसे भूर्जपत्र का एक टुकड़ा दिया था जिस पर कोई श्लोक लिखा हुआ था । मृणालमंजरी ने उस पत्र की पीठ पर स्वयं कुछ लिख दिया था और सुदिन्न से अनुनय करके कहा था कि इस पत्र को आर्यक तक पहुँचा दे। उसने यह भी कह दिया था कि वह पत्र आर्यक के सिवा और किसी के हाथ में न दे। सुदिन्न ने मृणालमंजरी को उस अवस्था में छोड़कर जाने से इंकार किया था और कहा था कि जब आर्य देवरात आ जाएँगे, तभी वह आर्यक के पास पत्र लेकर जाएगा। परंतु मृणालमंजरी ने आग्रह किया था कि पिताजी शीघ्र . ही आ जाएँगे, तुम आर्यक के पास चले जाओ। सो, सुदिन्न वह पत्र लेकर आर्यक के गाँव गया था और वहीं से लौट रहा था। देवरात ने सुदिन्न से पूछा कि वह पत्र क्या उसने आर्यक को दे दिया है ? सुदिन्न ने सहज भाव से कहा, "मैं क्या करता आर्य, बिटिया ने शपथ दे दी थी । "

देवरात को कुछ आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा, "सुदिन्न, तू क्या पहली बार ऐसा पत्र लेकर आर्यक के पास गया था ?"

"हाँ आर्य, पहली बार गया था।"

"पत्र पढ़ने के बाद आर्यक ने क्या कहा ?"

सुदिन्न बोला, "पत्र पढ़कर उसका मुख क्रोध से लाल हो गया। उसने कहा, 'सुदिन्न ! तू जल्दी मृणालमंजरी के पास लौट जा और उससे जाकर कह कि आर्यक के रहते उसे चिंतित और कातर होने की कोई आवश्यकता नहीं है। आर्यक मृणालमंजरी की रक्षा भी करेगा और उसके अपमान का बदला भी लेगा।' वह तमतमाया हुआ उठा और घर के भीतर से अपना विशाल कुंत लेकर बाहर निकल आया। मैं तो कुछ समझ ही नहीं सका । मैं पूछने ही जा रहा था कि इस चिट्ठी में क्या लिखा है कि उसने डाँटकर कहा, 'तू अभी तक यहीं खड़ा है ! जल्दी जा और मृणालमंजरी से कह दे कि आर्यक शीघ्र ही आ रहा है।' और पता नहीं किधर चला गया। वह इतना क्रुद्ध था कि उसे अपने शरीर और वस्त्र की भी चिता नहीं थी । वह पत्र भी उसके हाथ से गिरकर वहीं पड़ा रह गया था। मैंने उसे उठाकर फिर अपने पास रख लिया, क्योंकि बिटिया ने कहा था कि वह और किसी के हाथ न लगने पाए । मुझे बड़ा डर लग रहा था कि पता नहीं, आर्यक कहाँ क्या कर बैठे ! पहर रात गए मैं यहाँ आ गया था, आकर देखा कि आप ध्यानमग्न बैठे थे। उस समय कुछ बोलना उचित न समझकर मैं यहाँ बाहर ही पड़ रहा।"

देवरात ने व्याकुल भाव से पूछा, "वह पत्र तेरे पास है सुदिन्न ? "

सुदिन्न ने कहा, "है तो आर्य, पर वह तो केवल आर्यक के लिए है! "

देवरात बोले, " आर्यक को तो तूने दिखा ही दिया। अब एक बार मुझे देख लेने दे।”

सुदिन्न धर्म-संकट में पड़ गया। बोला, "पता नहीं उसमें क्या लिखा है, आर्य ! मगर बिटिया ने मुझे बार-बार कहा था कि वह सिर्फ आर्यक को दिखाना होगा।”

देवरात ने सुदिन्न को स्नेह के साथ समझाया, "देख सुदिन्न, मेरी बिटिया बहुत व्याकुल है । तू भी तो उसे अपने प्राणों से अधिक प्यार करता है। मुझे लगता है कि उसके दुःख का ठीक-ठीक कारण यदि हम नहीं जान सकेंगे तो वह जीवित नहीं रह सकेगी। इसलिए तू वह पत्र मुझे दिखा अवश्य दे । मृणालमंजरी क्या मुझसे छिपाकर कोई बात कर सकती है ! तू चिंता न कर, मुझे वह पत्र दिखा दे। "

सुदिन्न ने मृणालमंजरी के प्राण संकट की बात सुनी, तो एकदम डर गया। उसने पत्र देवरात के हाथों में देते हुए कहा, "ठीक कहते हैं आर्य, बिटिया के दुःख का कारण ज़रूर समझना चाहिए। उधर आर्यक भी तो न जाने क्रोध में किधर चला गया है। "

देवरात ने भूर्जपत्र लेकर उसे उलट-पुलटकर देखा। उस समय काफ़ी प्रकाश निकल · आया था। उन्हें पढ़ने में कोई कठिनाई नहीं हुई। पत्र के एक ओर लिखा हुआ था :

'मृणालमंजरी के योग्य-

वाप्यां स्नाति विचक्षणो द्विजवरः मूर्खोऽपि वर्णाधमः
फुल्लां नाम्यति वायसोSपि हि लतां या नम्यते बर्हिणा ।
ब्रह्मक्षत्रविशस्तरति च यथा नावा तथैवेतरे
त्वं वापीव लतेव नौरिव जनं वेश्यसि सर्व भज ।। '

[ द्विज पंडित मूरख शूद्र गँवार नहाते हैं, वापी में भेद कहाँ,
वन फूलीलता तन देती सभी को मयूर हो, काक हो, खेद कहाँ !
निज गोद में लेती बिठा तरनी सभी जाति कुलीन कुजारज जो,
तुम वापी - लता - तरनी - सम सेविका हो सबकी, सबको ही भजो ।। ]

और उसकी पीठ पर मृणालमंजरी ने अपने काँपते हाथों से लिखा था- 'सिंह- पराक्रम आर्यचरित आर्यक को मृणालमंजरी की अभ्यर्थना स्वीकृत हो ! आज पिताजी ने सिंहवाहिनी देवी की उपासना का मुझे आदेश दिया और सुमेर काका महिषमर्दिनी रूप की उपासना का परामर्श दे गए। परीक्षा का समय तुरंत ही आ गया। पागल भैंसे से भी घिनौना चंदनक मुझे अकेली देखकर यह पत्र फेंककर कुवाच्य बोलने लगा। मैंने उसे ललकारा और पास में पड़े डंडे से उसे चोट पहुँचाई। भाग न गया होता तो यमलोक में होता । भागा, लेकिन धमकाकर गया है । अब मैं पिताजी के आदेश का पालन कर रही हूँ। तुम चाहो, तो मेरी रक्षा कर सकते हो । नहीं आओगे, तो भी मैंने अपना कर्त्तव्य समझ लिया है। इति - मृणालमंजरी । ' फिर 'अपरंच' के बाद लिखा था- 'पिताजी से यह बात कैसे कह सकती हूँ ! तुम यदि मेरी रक्षा करना चाहो तो कर सकते हो ।'

देवरात ने चंदनक के लिखे हुए गंदे श्लोक को देखकर क्रोध में दाँत पीस लिए। उनके मुँह से सिर्फ इतना ही निकला, 'इस अधम का इतना साहस !' उन्हें मृणालमंजरी के दुःख का कारण अब समझ में आ गया। परंतु एकाएक उन्हें ध्यान में आया कि आर्यक चंदनक से बदला लेने के लिए कहीं कोई अनर्थ न कर बैठे। वह हलद्वीप के राजकुमार का नर्मसखा है और आर्यक के लिए संकट की स्थिति उत्पन्न कर सकता है। उन्होंने कहा, "सुदिन्न, तू तब तक यहीं रह, जब तक मैं आर्यक को देखकर लौटता हूँ।" और तेज़ी से चंदनक के घर की ओर बढ़ गए। इधर आर्यक अपना विशाल कुंत लिए आश्रम में प्रविष्ट हुआ !

सुदिन्न द्वार पर ही मिल गया। बोला, "आओ भैया, आर्य देवरात तो यह सुनकर बड़े उद्विग्न हुए कि तुम अकेले चंदनक के घर की ओर चले गए हो ।'

आर्यक ने कहा, "चंदनक के ग्रह आज प्रसन्न थे । वह घर छोड़कर कहीं भाग गया है । तुम दौड़कर गुरुदेव को बुला लाओ। उनसे कह देना कि कहीं कुछ नहीं हुआ है। वे निश्चित लौट आएँ । कुछ अनर्थ हो ज़रूर सकता था, लेकिन हुआ नहीं।" फिर उसने पूछा, "मृणाल कहाँ है ?"

सुदिन्न ने कहा, "रोते-रोते सो गई है। "

आर्यक फिर से उसे गुरुदेव को लौटा लाने का आदेश देता हुआ आगे बढ़ गया । सुदिन्न और आर्यक की बातचीत सुनकर मृणालमंजरी की नींद खुल गई। वह धड़फड़ाकर उठी । सामने देखा तो आर्यक विशाल कुंत लेकर खड़ा है। उसने आर्यक को देखा और चित्रलिखित-सी खड़ी रह गई। उसके मुँह से कोई बात ही नहीं निकली। लेकिन आँखों से आँसू की धारा बह चली । आर्यक ने आगे बढ़कर कहा, "मैं आ गया, मैना ! मेरे रहते तेरी छाया भी कोई नहीं छू सकेगा।"

मैना स्थिर, निश्चेष्ट !

आर्यक ने देखा, मृणालमंजरी इन तीन वर्षों में काफ़ी बढ़ गई है। उसके अंग-अंग से लावण्य की छटा छलक रही थी। आर्यक को देखकर उसके मुरझाए हुए मुख पर आनंद की आभा दमक आई थी। उसकी दुग्ध-मुग्ध मुखश्री में इस प्रकार का उफान आया था जैसे अचानक दुग्ध-भांड को अप्रत्याशित ताप मिल गया हो। परंतु उसकी आँखों से आँसू झरते रहे । ये आँसू अभिमान के थे। उनमें उलाहना था, अभियोग था, अभिमान था। एक क्षण के लिए आर्यक मुग्ध की भाँति ठिठक गया और मृणालमंजरी की निश्चेष्ट मुद्रा और झरते हुए आँसुओं का अर्थ समझकर मन ही मन उल्लसित होता रहा। फिर वह मृणालमंजरी के पास पहुँच गया । उसने प्यार से उसकी ठुड्डी पकड़कर ऊपर उठाई और भीगे हुए स्वर में बोला, "नाराज़ हो गई है, मैना! मेरे ऊपर विश्वास कर- अब मैं तुझे अकेली नहीं छोडूंगा।”

मैना और भी व्याकुल होकर रो पड़ी। एकाएक पता नहीं, आर्यक को कौन-सा आवेश आया, उसने मैना को कसकर अपनी भुजाओं में जकड़ लिया। बचपन में दोनों काफी निकट से एक-दूसरे को पहचान सके थे। सैकड़ों बार लड़ाई-झगड़े से लेकर पुनमैत्री तक का अभिनय कर चुके थे । परंतु आज दोनों को कुछ नई अनुभूतियाँ हुईं। ऐसा जान पड़ा, अंतस्तल का सारा सत्त्व उमड़ आया है। आर्यक को रोमांच हो आया और मृणालमंजरी पसीने से तर हो गई । कुछ देर तक दोनों संज्ञाशून्य की तरह एक-दूसरे को कसकर जकड़े रहे । वह एक विचित्र समाधि थी, जिसमें दोनों का पृथ्क व्यक्तित्व एकदम विलुप्त हो गया था। फिर एकाएक मैना की ही संज्ञा लौटी। उसने झटककर अपने को आर्यक के आलिंगन से अलग कर लिया और झिड़कते हुए बोली, "छोड़ो, क्या कर रहे हो!" यह भी एक नई अनुभूति थी। दोनों में से किसी ने पहले अनुभव नहीं किया था कि ऐसा करने में कुछ औचित्य भी होता है। विधाता ही जानते हैं कि किस प्रकार 'छोड़ो' के माध्यम से अखंड मिलन की अभिव्यक्ति होती है।

आर्यक चुपचाप अलग हट गया। थोड़ी देर के लिए उसकी वाक् शक्ति रुद्ध हो गई । थोड़ा सँभलकर उसने फिर कहा, "क्षमा कर दो मैना, मैंने अनुचित किया। मुझे इतने दिनों तक तुझे अकेली नहीं रहने देना चाहिए था। बुरा मान गई, मैना ?"

मैना की आँखें झुकी थीं, कपोलपालि अब भी आँसुओं से भीगी हुई थी, नासिका का अग्रभाग अब भी फड़क रहा था, निःश्वास अब भी बड़ी तेज़ी से भीतर से बाहर और बाहर से भीतर दौड़ रहे थे। उसने धीरे से कहा, "हाँ, अब मुझे मत छोड़ना !"

आर्यक को हँसी आ गई। बोला, "अभी तो तूने कहा, मैना, छोड़ दो! अब कहती हो, मत छोड़ना ।"

मैना को भी चुहल सूझ गई । उसने कहा, "व्याकरण भी भूल गए। 'छोड़ दो' वर्तमान काल है और 'मत छोड़ना' भविष्यकाल । "

आर्यक ने देखा, मृणालमंजरी में स्वाभाविक विदग्धता लौट आई है। बोला, "कहाँ का व्याकरण और कहाँ का काव्य ! कुश्ती लड़ता हूँ और दंड-बैठक किया करता हूँ। तेरे साथ रहूँगा तो शायद फिर से काव्य-व्याकरण लौट आएँ।”

इसके बाद दोनों ही सहज हो गए और तरह-तरह की नई-पुरानी बातों में उलझ गए । थोड़ी देर में देवरात को लेकर सुदिन्न भी लौट आया। गुरु को देखकर आर्यक ने विनम्र भाव से प्रणाम किया और दीर्घायु होने का आशीर्वाद प्राप्त किया। बिना किसी भूमिका के उसने कहा, "गुरुदेव, मैं मैना को यहाँ अकेली नहीं रहने दूँगा । अनुमति दें तो इसे मैं अपने घर ले जाऊँ।'

देवरात की आँखें विस्मय से तन गईं, "यह कैसे हो सकता है बेटा, तुम्हारे पिता की अनुमति लिए बिना इसे मैं तुम्हारे घर कैसे भेज सकता हूँ ?"

आर्यक ने कहा, "क्यों, इसमें दोष क्या है ?"

देवरात ने आर्यक के भोलेपन का आनंद लेते हुए कहा, "दोष है। सयानी कुँवारी कन्या को कोई पिता किसी के घर कैसे भेज सकता है ! तुम बालक हो। तुम्हें यह बात समझ में नहीं आएगी।"

आर्यक ने रोषपूर्वक कहा, "नहीं गुरुदेव, आप नहीं जानते । हलद्वीप गुंडों और लंपटों से भर गया है । मैं मृणालमंजरी को यहाँ नहीं रहने दे सकता। इसमें न आप बाधा दे सकते हैं. और न मेरे पिता बाधा दे सकते हैं। मैं इस भोली बालिका को दुर्वृत्त लोगों की दया पर नहीं छोड़ सकता । आप और पिताजी यदि मेरी बात नहीं मानते तो हम दोनों का गला घोंट दीजिए । हम यहीं समाप्त हो जाएँगे। मगर मैं मैना को यहाँ अकेली नहीं छोड़ सकता। मैंने मैना की रक्षा का वचन दिया है। आप नहीं जानते कि यहाँ कैसे पापी बसते हैं !"

देवरात आर्यक की बात समझ रहे थे, परंतु वे यह नहीं जानने देना चाहते थे कि उन्होंने मैना का पत्र पढ़ लिया है। भोली मुद्रा बनाकर बोले, "तुम जो कह रहे हो वह ठीक हो सकता है, बेटा । परंतु मुझे मालूम है कि तुम्हारे पिता इसका विरोध करेंगे। उनकी अनुमति तो मुझे लेनी ही पड़ेगी । और दूसरी बात यह है कि मैं अपनी कन्या को तभी तुम्हारे साथ जाने दूँगा, जब तुम अग्नि को साक्षी करके इसकी रक्षा की प्रतिज्ञा करो। और इसका मतलब क्या है, जानते हो ! इसका मतलब होगा कि तुम शास्त्र - विधि से मैना का पाणिग्रहण करो और देवताओं को साक्षी बनाकर यावज्जीवन इसके सम्मान की रक्षा की प्रतिज्ञा करो। "

आर्यक ने कभी सोचा भी नहीं था कि उसके गुरु एकाएक ऐसी बात कह देंगे। विवाह की कल्पना तो उसके मन में कहीं उठी ही नहीं थी। एकाएक लजा गया। उसकी गर्दन जो झुकी तो मानो टूट ही गई। मैना के साथ विवाह ! यह भी क्या कोई बात की बात हुई ! आर्यक ने उसकी रक्षा की जो प्रतिज्ञा की है, वह क्या विवाह के बिना नहीं पूरी हो सकती । गुरुदेव कह क्या रहे हैं ! परंतु उसके मन के किसी अज्ञात कोने से एक प्रच्छन्न परितोष की भावना भी ऊपर उठने लगी। मैना वधू के रूप में मेरे घर जाएगी ! यह तो विचित्र बात है ।

देवरात ने आर्यक के अंतर्द्वद्व को समझ लिया । बोले, "तुम शांत भाव से सोच लो बेटा ! चाहो तो मैना से भी पूछ लो । परंतु तुम्हारे पिता की अनुमति तो मुझे लेनी ही पड़ेगी । मैं यह जानता हूँ कि उनसे स्वीकृति लेना कठिन कार्य है ।"

आर्यक सिर झुकाए चुपचाप खड़ा रहा। उसके मुँह से कोई बात ही नहीं निकली। एक बात पर वह पूर्ण रूप से दृढ़ था - चाहे जो हो जाए, वह मैना को अकेली नहीं छोड़ेगा । वह वचन दे चुका है। अब पीछे नहीं हट सकता ।

आर्यक जब चुपचाप भाला लेकर घर से निकल पड़ा था, तब वृद्धगोप को कुछ भी पता नहीं था कि वह कहाँ गया है। लेकिन शीघ्र ही गाँव के लड़कों से उन्हें पता चल गया कि आर्यक गुस्से के साथ भाला लेकर हलद्वीप की ओर गया है। उनके मन में कुछ आशंका हुई । खोज - पूछ करने पर उन्हें यह भी पता चल गया कि सुदिन्न आकर उसे कुछ संदेश दे गया है । आर्य के लौटने में जब विलंब हुआ तो वे भी देवरात के आश्रम की ओर उसे ढूँढ़ने के लिए चल पड़े और आर्यक को उसी अवस्था में उन्होंने देखा । देवरात ने वृद्धगोप को देखकर प्रसन्नता प्रकट की और आर्यक को वहीं छोड़कर उन्हें अन्यत्र ले गए। देर तक दोनों में बातचीत होती रही। सारी स्थिति समझकर वृद्धगोप को अपने पुत्र के हठ के सामने झुकना पड़ा। वे जानते थे कि उनके कुल परिवार के लोग इस विवाह का समर्थन नहीं करेंगे, परंतु वृद्धावस्था में वे अपने पुत्र से भी हाथ धोना नहीं चाहते थे। अंत में यही तय पाया कि आर्यक और मृणालमंजरी का विवाह तुरंत कर दिया जाए और पुत्र और पुत्रवधू को लेकर ही वृद्धगोप घर लौटें। हुआ भी ऐसा ही ।

पुनर्नवा : छह

मृणालमंजरी के विवाह के एक दिन पूर्व वृद्धगोप ने उसकी माता की धरोहर देवरात को सौंप दी। लाल चीनांशुक में लिपटी हुई वह प्रतोलिका (पेटी) इतने दिनों तक ज्यों-की-त्यों रखी ' थी । वह लगभग एक बित्ता लंबी, चार अंगुल चौड़ी और इतनी ही गहरी थी । वृद्धगोप ने उसे न तो खोलकर देखा ही था, न उसे कभी झाड़-झूड़कर साफ ही किया था । इतने दिनों तक पड़े रहने के कारण उसके ऊपर धूल की परत सी जम गई थी। देवरात ने उसे लिया और अपने उपासना-गृह में ले जाकर सावधानी से खोला । चीनांशुक के भीतर दुर्लभ कर्पूर- काष्ठ की एक चौकोर पेटी थी। ऊपर के पाटे पर मनोहर कल्पवल्ली अंकित थी । कदाचित् मंजुला ने स्वयं अपने हाथ से उसे आँका था। उसमें मनःशिला, हिंगुल, हरिताल और गोरोचन से बने रंगों का प्रयोग किया गया था। दक्षिणावर्त्त शंख के आधार पर गतिशील मृणालमंजरी में अर्धाकट कमल का अभिप्राय देकर उसका आरंभ हुआ था और फिर कमलिनी - पत्रों की ऊर्ध्वगामिनी धारा-सी चित्रित की गई थी और बीच में सुर-सुंदरियों की विभिन्न मुद्राएँ उन्हीं में से इस प्रकार निकल आई थीं, मानो सहज अंकुरित किसलय ही हों। कई सुर-सुंदरियों के हाथों में चंद्रकिरणों के समान धवल-कमनीय क्षौम वस्त्र और कौशेय उत्तरीय, और कई की सिक्थचर्चित नाखूनवाली अंगुलियों में सुकुमार भाव से गृहीत मांगल्यमालिका, कंकण-वलय, कल्याण अंगुलीक, लाक्षा-रस-रंजित शुभ्र वस्त्र, हेमाभरणं, श्रोणीसूत्र, रसना -कलाप आदि अलंकार इस प्रकार चित्रित थे मानो वे किसी को स्नेहपूर्वक दिए जा रहे हों। कल्पवल्ली की योजना कुछ ऐसे कौशल से की गई थी कि स्थान-स्थान पर चक्रवाक - मिथुन, पारावत-युगल, विद्याधर- दंपती और हंसवलाका की पंक्तियाँ अनायास निकलती चली गई थीं। छंदोधारा की इस अद्भुत योजना में चित्रित सौम्यभाव उफन आया था। निश्चय ही मंजुला ने अपनी प्यारी पुत्री के विवाहोत्सव पर ऐसे ही मांगल्य उपहारों की कामना की थी । देवरात की आँखों में आँसू आ गए। हाय, मातृहीना कन्या के विवाह के अवसर पर वे इस मंगल कामना का शतांश भी तो पूरा नहीं कर सकते। उन्हें लगा कि मंजुला आकर सामने खड़ी है, पूछ रही है, 'आर्य देवरात, मेरी बेटी के लिए तुमने क्या किया ?' 'कुछ नहीं कर सका देवि, इस अकिंचन के पास रखा ही क्या है, जो तुम्हारी इस प्यारी कन्या को दे सकूँ ! यह तुम्हारी कल्पवल्ली ही उसे प्राप्त हो, इस इच्छा के अतिरिक्त देने योग्य मेरे पास यहाँ कुछ नहीं है देवि, कुछ नहीं !' उनका चित्त व्याकुल हुआ। वे पेटी हाथ में लेकर देर तक ध्यान-मग्न बैठे रहे। कब मंजुला ने ऐसी कामना की होगी ? क्या उसे अपनी मृत्यु का आभास पहले ही मिल गया था ? इस कल्पवल्ली में उसने अपने प्राण ही उँडेल दिए हैं। कल्पवल्ली, जिसका अर्थ नहीं होता, भाव नहीं होता, भतलब नहीं होता, होता है केवल छंद, केवल लय, केवल गति - विशुद्ध इच्छा ! तपःपूत महात्मा के आशीर्वाद के समान वह मंगलेच्छा - मात्र है, अर्थ उसके पीछे दौड़ता है। जो नृत्य में तांडव है, वही चित्र में कल्पवल्ली और आचार में मांगल्य आशीर्वाद है। मंजुला ने मातृ-हृदय को दलित द्राक्षा के समान निचोड़कर इसमें ढाल दिया है। 'हाय देवि, देवरात तुम्हारे किसी काम नहीं आया !' पर इस कल्पवल्ली के आधार रूप में मंजुला ने दक्षिणावर्त्त शंख को क्यों चुना? शंख मांगल्य है, दक्षिणावर्त्त और भी दुर्लभ मांगल्य, पर यहाँ क्यों ? हाय, जीवन से निराश माता. के मन में वह कौन-सी साध थी, जो इस के द्वारा संकेतित है ? शंख अनंत का प्रतीक है, वह विष्णु की स्थानव्यापिनी अनंत महिमा का चिह्न है, वह अपार धनराशि का आशीर्वाद है । पर सारे अन्य मांगल्यों को छोड़कर मंजुला ने यहाँ इसे ही क्यों चुना? कल्पवल्ली का आधार दक्षिणावर्त्त शंख ! देवरात को हैरानी हुई। कहीं तो ऐसा नहीं देखा, नहीं सुना !

पाटे के कोने में बँधी हुई छोटी-सी कुंचिका से उन्होंने उसे खोला। ऊपर समान आकार के कटे हुए पाँच भूर्जपत्रों पर लिखा हुआ एक पत्र था। एक महीन रजत-शलाका भी उस पर पड़ी हुई थी । सारा पत्र उस शलाका से लिखा जान पड़ता था। हाथ में लेकर देवरात ने उसे उलट-पुलटकर देखा, रोमांच हो आया। सारा शरीर उद्भिन्न- केसर कदंब - पुष्प की भाँति कंटकित हो उठा। यह तो मंजुला की मनोहर आँखों में काजल लगानेवाली शलाका है! सारा पत्र काजल को ही स्याही बनाकर लिखा गया था। देवरात का हृदय बुरी तरह धड़कने लगा। उनके मुँह से अनायास निकल पड़ा- 'विच्छित्तिशेषः सुरसुंदरीणाम्' - सुर- सुंदरियों के प्रसाधन के बाद बचे हुए सिंगारदान के रंग से ! तो मंजुला ने अपने सिंगारदान की सबसे महार्घ और सबसे मोहन प्रसाधन सामग्री से यह पत्र लिखा है। क्षण-भर में मंजुला की बड़ी-बड़ी काली आँखें उन्हें याद आ गई, भरी सभा में उस दिन इसी काजल से रंजित आँखों की विव्वोक-चटुल मुद्रा में उसने लीलापूर्वक देखा था । देवरात ने उसका अर्थ समझा था, 'बुरा तो नहीं मान गए ? बुरा नहीं माना करते।' हाय, अब वह कटाक्ष नहीं है, उसका सहायक काजल आज सामने है। देवरात क्षण-भर के लिए पुलकित भी हुए। उन्होंने अपने को सम्हालने का प्रयत्न करते हुए पत्र पढ़ा। अक्षर मोतियों के समान स्पष्ट और गुफित थे । लिखा था :

"स्वस्ति । आर्य देवरात योग्य । प्रणाम - पुरस्सर अधमा दासी मंजुला की विनम्र अभ्यर्थना। चरण-कमलों में सप्रश्रय विनिवेदन । अपराध क्षमा हो । प्रत्यग्र- मनोहर अंगीकार हो-

दुल्लह जण अणुराउ गरु लज्ज परब्बसु प्राणु ।
सहि मणु विसम सिणेह बसु मरण सरणु णहु आणु ।।

आर्य, बड़ी साध थी कि इस अधमा दासी के घर को तुम्हारे पवित्र चरणों की धूलि का स्पर्श मिलता । परंतु यह बालक की चाँद पकड़ने की लालसा के समान दुर्ललित इच्छा मात्र है, यह मैं जानती हूँ । बड़ी साध थी कि तुम्हारे चरणों को स्वयं इन हाथों से धोकर, इन केशों से पोंछकर अपना कलुष धो डालूँ। यह नहीं हो सका, नहीं होना उचित ही है। यहाँ मिट्टी के गाहक आते हैं। अपना सर्वस्व उलीचकर, पाप खरीदकर लौट जाते हैं। पुरुषत्व के वे कलंक हैं, स्त्रीत्व के अपमानकारी। वे रसिकम्मन्य होते हैं, रसिक नहीं। इन विटों, विदूषकों और बंधुलों के स्वर्ग में केवल नरक यातना के अधिकारी ही आते हैं। यहाँ कामुकता को पुरुषार्थ, भोंडेपन को सरसता, मूर्खता को विदग्धता, स्त्रैण भाव को पौरुष माना जाता है । यहाँ तुम्हारा न आना ही उचित है। मेरी श्रद्धा में भी वासना का पंक था, भक्ति में भी अभिलाषा की कालिख लगी हुई थी । गणिका केवल पाना चाहती है। मंजुला ने देने का अभिनय किया था, पर इस दान में भी दारुण ग्रहण लालसा की ज्वाला थी। तुम नहीं आए, अच्छा ही हुआ । जानती हूँ, तुम्हारी शुचिता अमोघ है। असुर-संसर्ग से लक्ष्मी दूषित नहीं होती। अंधकार में दीपशिखा और भी अधिक चमकती है, मेघ-माला में बिजली और भी उज्ज्वल हो जाती है, इस अपवित्र गृह में तुम्हारी शुचिता और भी ज्वलंत रूप में प्रकट होती । परंतु मैंने मिट्टी के आकर्षण की महिमा देखी है। इसीलिए मैं डरी रहती हूँ । तुम नहीं आए, बहुत अच्छा हुआ। कम-से-कम मेरा दुर्बल चित्त आश्वस्त है । ‘महाभाव का रहस्य मुझे नहीं मिल सका, पर महाभाव का आभास मुझे मिल गया है । क्षमा करना प्रभो, मैंने तुम्हारी भाव-मूर्ति में ही विश्राम पाया है। जिन दिनों इस भाव - मूर्ति की मैं पूजा करने लगी, आसन, शयन और स्वप्न में उसी दिव्य मनोहर मूर्त्ति का ध्यान करने लगी, उस समय भी मिट्टी के गाहक आते रहते थे, परंतु आत्मा का, मन का, बुद्धि का गाहक यह भाव - मूर्ति थी । चोरी है, पर मैं परबस थी, आज भी हूँ ।

"कैसे बताऊँ स्वामिन्, मंजुला का जीवन कितना तृषित है ! तुमने कहा था कि तेरा देवता तेरे भीतर है। मानती हूँ, अवश्य होगा। पर तुम जो नहीं समझ सकोगे, वह यह है कि स्त्री का देवता माध्यम खोजता है, ठोस ग्रहणीय माध्यम ! साध्वी रमणियाँ पति का माध्यम पा लेती हैं। वे धन्य हैं, स्पृहणीय हैं। पर हाय, गणिका का माध्यम नहीं होता । वह जुगुप्सित भोग के विकट दावानल में झुलसती रहती है। नारी का जीवन किसी एक को संपूर्ण रूप से समर्पित होकर ही चरितार्थ होता है । वह अपने देवता को इसी प्रकार पा जाती है। मैं कहाँ से यह साधना प्राप्त करती ? सो मैंने चोरी की है। मैंने तुम्हारी भाव - मूर्ति को माध्यम बनाने की धृष्टता की है। प्रभो, इसे अन्यथा न मानना ।

"परवशता ने मुझे अपने-आपको पाने का उल्लास दिया है। जिन दिनों यह उल्लास अपनी चरम सीमा पर था, उन्हीं दिनों मेरी कुक्षि में एक कन्या अयाचित, अवांछित, अनाहूत आ गई। मैं नहीं जानती कि इसकी मृण्मय देह का पिता कौन है ! पर इतना निश्चित है कि इसके चिन्मय रूप के पिता देवरात हैं, इसमें मुझे रंचमात्र संदेह नहीं है। मुझे संतोष है कि इस पापिनी का आवरण भेदकर निष्पाप मंजुला निकल आई है। यह पाप - वृत्ति की पुण्य परिणति है। इसमें कमल पुष्प के भाववाही प्रच्छन्न मृणाल : शुचिता और स्निग्धता है, तुलसी मंजरी का सौरभ और गौरव है । जान-बूझकर मैंने इसका नाम मृणालमंजरी दिया है, अनमिल है, कल्पित है, उत्प्रेक्षित है, पर मेरी हार्दिक भावना का व्यंजक है। इसकी जो मृण्मयी काया है वह परवशा माता का दान है, और इसकी जो चिन्मयी ज्योति होगी वह तुम्हारे जैसे मनस्वी पिता की देन होगी । सो आर्य, यह तुम्हारी ही कन्या है । तुम्हीं इसके पिता हो, माता हो, गुरु हो। तुम्हारा धन तुम्हें ही समर्पित है! हाय, कभी प्रत्यक्ष मिलकर अपनी निदारुण वेदना तुम्हें बता पाती !

"मुझे दुर्निमित्त दिखाई देने लगे हैं, मैं अधिक दिन नहीं बचूँगी । तुम्हें पाती तो इसे तुम्हारी गोद में देकर निश्चित हो जाती। पर जानती हूँ, तुम इस अधमा की शुद्ध अभ्यर्थना को अस्वीकार नहीं करोगे ।

"प्रभो, पापिनी ने तुम्हारे ऊपर जो भार डाल दिया, उसे मन में न लाना। मैंने जीवन में दो काम किए हैं- पाप और कला - साधना । दोनों से अर्थोपार्जन किया है। परंतु आर्य, नृत्य और गीत को मैं पूजा मानकर ही चली हूँ। इसके लिए मैंने अहंकार का कवच धारण किया था। लोग मुझे महाभिमानिनी ही मानते हैं। इससे अनायास और अयाचित जो कुछ मिल गया है, उसे मैं बहुत पवित्र समझकर अलग रखती आई हूँ। उस धन से जो कुछ हो सका है, वही इस कन्या को दे सकती हूँ। पाप की कमाई से उपार्जित धन को तुम्हारी कन्या के लिए कैसे रख सकती हूँ ? वह इस पत्र के साथ है। उचित समझना तो बेटी के ब्याह के अवसर पर उसकी माता के आशीर्वाद के रूप में पहना देना । इति ।"

देवरात ने पत्र पढ़कर दीर्घ निःश्वास लिया । पत्र के नीचे लाक्षा - रंजित रुई के कोमल परत थे। पहले परत के नीचे एक मुक्तादाम था - मोतियों का एकलरा हार। उसके नीचे पद्मराग-मणि जड़ी हुई मुद्रिका थी, जो हाथीदाँत के कंकणों और शंख के बने हुए वलयों के बीच रखी हुई थी। उसके नीचे दो शिरीष पुष्प की आकृति के कर्णावतंस थे, जो महीन - गुणों के हार के बीच रखे हुए थे। एक हाथीदाँत की छोटी-सी डिबिया में पीला सिंदूर भी रखा हुआ था। बस !

देवरात अभिभूत, निष्चेष्ट ! थोड़ी देर तक वे वैसे ही बैठे रहे। ऐसा जान पड़ा जैसे उनके सारे इंद्रिय व्यापार बाहर से हटकर भीतर की ओर सिमट आए हों। धीरे-धीरे उनमें नई चेतना आई। उन्होंने सारे अलंकारों को फिर से यथा स्थान रखा। सबके ऊपर पत्र रखने लगे तो देखा कि अंतिम पन्ने की पीठ पर कुछ और भी लिखा है। उस पर उनका ध्यान नहीं गया था । यह लिखावट बाद की रही होगी। इसमें न तो काजल की स्याही थी, न शलाका की लेखनी । इसे लाल रंग की चमकदार स्याही से लिखा गया था। लिखा था- "अन्यच्च ! बड़ी साध यह भी थी आर्य, कि कभी प्रत्यक्ष पूछती कि आपने जो कहा था कि आपका बासी घाव मेरी कविता से ताज़ा हो गया था, वह क्या था ? क्या मंजुला उस घाव की पीड़ा को रंचमात्र भी कम करने योग्य है ! पर बात मुँह से निकल ही नहीं पाई। हाय अधमे, इतनी लज्जा भी क्या ?"

देवरात को हूक -सी उठी । वे कराहकर रह गए। ऐसा लगा जैसे किसी ने मर्मस्थल को ही छेद दिया है। आँखों से अविरल अश्रुधारा बह चली ।

वे देर तक भ्रमित की भाँति, चकित की भाँति, खोए हुए की भाँति ध्यानमग्न बैठे रहे । मंजुला की एक-एक मुद्रा उनके सामने प्रत्यक्ष-सी उपस्थित होने लगी। प्रथम बार राजसभा में जब उसे देखा था, तो उनका चित्त ललक उठा था। अभिमानिनी मंजुला ने उनकी ओर इस प्रकार देखा था, मानो किसी घृणास्पद व्यक्ति को देख रही हो । उसने तिरस्कार-भरी दृष्टि डालकर तुरंत हटा ली थी, जैसे किसी अपात्र के संसर्ग से उसमें दोष आ जाने की आशंका हो । देवरात के चेहरे पर उस दिन उल्लास और परिताप एक साथ दौड़ आए थे । वे उसकी ओर साभिलाष-सी दृष्टि से देखते रहे । गणिका ने उपेक्षा की थी, पर उसके अंतर्यामी ही जानते थे कि वह छिपी दृष्टि से उनके साभिलाष म्लान मुख को देखकर क्रूर आनंद पा रही थी । उसे यह समझने में रस मिला था कि यह साधुवेशी देवरात लंपट है, भंड है। किसी दिन वह उसके तलवे चाटने का प्रयास करेगा, यह वह निश्चित मान बैठी थी ! पर देवरात पर कुछ और ही बीत रही थी ।

देवरात के वृद्धातिवृद्ध प्रपितामह अग्निमित्र के प्रमुख सेनानियों में थे। सिंधु नदी के तट पर यवनों को शिकस्त देने में उनका विशेष योगदान था। वे प्रख्यात यौधेय क्षत्रिय वंश के थे । उन्हीं दिनों उन्हें कुलूत राज्य का सामंत पद दिया गया था। शुंगों के पतन के बाद भी यह राज्य बना रहा । देवरात के पिता यज्ञरात ने दीर्घकाल तक राज्य किया था। उनके 'शासनकाल में प्रजा में बहुत शांति और विश्वास था । देवरात जब अट्ठारह साल के हुए, तो उनकी विमाता की कुक्षि से एक और भाई उन्हें प्राप्त हुआ। उनकी विमाता देवरात से भयभीत रहती थीं। उन्हें भय था कि देवरात ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण राजा होंगे और उनका पुत्र इससे वंचित रह जाएगा। वे नाना प्रकार से देवरात को अपदस्थ करने का उपाय करने लगीं । देवरात को राजा बनने का कोई लोभ नहीं था । उन्होंने विमाता को आश्वस्त करना चाहा कि वे छोटे भाई को ही राजा बनाएँगे, पर प्रजा इस समाचार से चिंतित हुई । प्रजा देवरात को बहुत प्यार करती थी। प्रजा के इस व्यवहार से देवरात की माता ने और भी चंड-रूप धारण किया । देवरात जब उन्नीस वर्ष के हुए, तो उनके पिता ने उनका विवाह औशीनर वंश की एक रूपवती कन्या शर्मिष्ठा से कर दिया । शर्मिष्ठा रूप, गुण और शील में सचमुच शर्मिष्ठा थी । देवरात ऐसी पत्नी पाकर कृतार्थ हो गए। दोनों का प्रेम बहुत गाढ़ था । प्रजा में देवरात और शर्मिष्ठा राम जानकी की भाँति श्रद्धा, विश्वास और प्यार की दृष्टि से देखे जाने लगे । विमाता की प्रतिक्रिया और भी तीव्र होती गई। ऐसे ही समय 'हूणों का आक्रमण' पश्चिमी सीमांत पर हुआ । उसका धक्का कुलूत के पार्वत्य प्रदेश को भी अनुभूत हुआ । देवरात को पिता ने इस विपत्ति से रक्षा करने का भार दिया। वे यौधेय सेना के सेनापति के रूप में गंधार की ओर रवाना हुए। शर्मिष्ठा ने कोई कातरता नहीं दिखाई, पर भीतर-ही-भीतर वह मुरझा अवश्य गई। देवरात ने बड़ी बहादुरी से हूणवाहिनी को विध्वस्त किया। लेकिन उनकी विमाता ने झूठमूठ ही बहू को देवरात के मारे जाने का समाचार दे दिया ! शर्मिष्ठा को बड़ा शोक हुआ। कहा जाता था कि उसके शरीर से स्वयं अग्नि की ज्वाला निकली और वह सती हो गई। पर अधिक जानकार लोगों का विश्वास था कि विमाता ने स्वयं चिता सजाकर उसे सती होने को उत्साहित किया था। विजयी देवरात लौटे तो उनका संसार नष्ट हो चुका था। उन्हें शोक और निराशा ने विक्षिप्त बना दिया । राजपाट छोड़कर वे रमता - राम बन गए और देश-विदेश घूमते रहे, पर कहीं शांति नहीं मिली । अंत में हलद्वीप में उन्हें शांति मिली। हृदय का घाव ताजा हो गया, पर चित्त का विक्षोभ जाता रहा । देवरात के अंतर्यामी ही इसका कारण जानते थे, और किसी को इसका रहस्य मालूम नहीं ।

हुआ यह कि जब राजा का आमंत्रण स्वीकार कर देवरात प्रथम बार राजसभा में गए तो मंजुला भी आई हुई थी । उसके नृत्य का उस दिन आयोजन था । देवरात ने मंजुला को देखा और आश्चर्य से ठक् हो गए। उन्हें ऐसा लगा कि शर्मिष्ठा ही स्वर्ग से उतरकर आ रही है । वही रूप, वही रंग, वही कांति, वही हँसी ! मंजुला का क़द ज़रूर जौ - भर छोटा था, पर उससे कोई विशेष अंतर नहीं आता था। उनके हृदय में टीस अनुभूत हुई, पर साथ ही संतोष भी हुआ। जिस रूप को देखने के लिए उनका हृदय व्याकुल था, वह अब भी देखने को मिल सकता है । यह नहीं कि वे शर्मिष्ठा और मंजुला के अंतर को नहीं समझ सके । भिन्न है, पर फिर भी उसका हल्का आभास मिल रहा है। वे साभिलाष दृष्टि से एकटक मंजुला को देखते रह गए। मंजुला ने उपेक्षा और तिरस्कार की दृष्टि से देखा, देवरात को भंड तापस समझकर घृणा भरी आँखों से चोट पहुँचानी चाही, पर देवरात को निधि-सी मिल गई । मंजुला के बोल भी वैसे ही मीठे थे। जब वह गाती, तो उनका अंग-अंग पुलक-कंप से सिहर उठता । देवरात इस लोभ से हलद्वीप में रुक गए कि कभी-कभी यह रूप देखने को मिलेगा । आज मंजुला भी नहीं है, वह रूप भी इस धरती से उठ गया है। रह-रहकर उनके हृदय में शर्मिष्ठा और मंजुला आती रहीं। देवरात निश्चेष्ट बैठे रहे। वे व्याकुल थे, व्यथित थे । हाँ देवि, बासी घाव ताज़ा हो गया था। इसके लिए प्राण देकर भी तुम्हारे ऋण से उद्धार नहीं होगा। हाय, बासी घाव अब ताज़ा नहीं होता । देवरात आज सचमुच अकिंचन हैं । कैसे बताऊँ देवि, तुम्हारे दर्शन मात्र से क्यों सारा सत्त्व उमड़ आता था ! तुम इस घाव का क्या उपचार कर सकती थीं, शुभे! घाव का बार-बार ताजा हो जाना क्या साधारण उपचार था ? कृतज्ञ हूँ देवि, आज घाव पर घाव हो गया है; फिर भी, जो जी रहा हूँ सो तुम्हारे उपचार के सहारे ही । इस रोग की औषधि मृणालमंजरी है। तुम्हारा प्रसाद पाकर मैं धन्य हुआ हूँ । आश्वस्त हूँ देवि, मुझे शर्मिष्ठा और मंजुला का सम्मिलित रिक्थ मिल गया है। हाय देवि, कैसे बताऊँ कि तुमने इस शून्य हृदय में विश्वास का पारावार हिल्लोलित किया है, उल्लास की झंझा बहा दी है। आज जो हृदय शांत है, जीवन लक्ष्यहीन नहीं जान पड़ता, पूजा निष्फल नहीं हो रही है, सेवा चरितार्थ बनती जा रही है, वह भी तुम्हारी ही कृपा है। तुममें मैंने शर्मिष्ठा को देखा था। मेरे हृदय विहारी देवता ने तुम्हारे भीतर मृणालमंजरी को देकर मेरी शर्मिष्ठा को नया रूप दे दिया है। तुमने माध्यम की कल्पना की थी, मैंने रूपवती माध्यम- मूर्ति पाई थी। क्या करूँ देवि, जो तुम्हारी, शर्मिष्ठा की और मेरी स्नेहमूर्ति कन्या को सुखी बना सके ! हाय देवि, कितनी बार तुम्हें देखकर लगा, शर्मिष्ठा ही मिल गई है । कितनी बार मुँह से परिचित संबोधन 'प्रिये' आ आकर लौट गया है। कितनी बार हृदय ऐसी उछालें भरता रहा है मानो कूदकर तुम्हारे हृदय में प्रवेश कर जाएगा, कितनी बार भुजाएँ ऐसी फड़की हैं जैसे संयम के सारे बंधन तोड़कर तुम्हें कस लेंगी, कितनी बार, कितनी बार ! मेरे हृदय में बैठी शर्मिष्ठा ने हर बार सावधान किया है- धोखा है, छलना है, भ्रांति है ! और हर बार मेरी उमड़ी हुई मानस-तरंगें तट-देश पर पछाड़ खाकर गिरी हैं। देवि, तुम्हें नहीं मालूम, पर मुझे मालूम है। हाय देवि, बासी को ताज़ा करने का रहस्य जानना चाहती थीं? जानतीं तो तुम्हें कैसा लगता ? विधाता ने बाह्य रूप का इतना साम्य देकर न जाने क्या करना चाहा था । अब देखता हूँ, आंतर रूप भी वही है, वैसा ही कोमल है, वैसा ही कमनीय, वैसा ही कल्पनाशील। जो जीते-जी नहीं कह सका, वह अब कहना चाहता हूँ पर अब क्या लाभ है, प्रिये !

देवरात के सामने शर्मिष्ठा की मनोहारिणी मूर्ति उदित हो आई । हाय रानी, तुमने अपने ऊपर विश्वास क्यों खो दिया ! जिसे तुम्हारी जैसी सती नारी के सतीत्व का कवच प्राप्त हो, वह कहीं मृत्यु का शिकार बन सकता है ? तुमने बड़ी जल्दी की, प्रिये ! हाय, तुम चली गईं, पर अभागा देवरात आज भी जीवित है। हाय रानी, मृत्यु के बाद भी तुम जिस निष्ठा के साथ देवरात की रक्षा कर रही हो, उसका विश्वास जीवित अवस्था में तुमने कैसे खो दिया ? तुमने प्रेम का उज्ज्वल रूप आचरण से स्पष्ट कर दिया । अभागा देवरात क्षण-क्षण मरकर भी, तिल-तिल जलकर भी, कहाँ उसे छू सका ? आज नीचे से ऊपर तक जल रहा हूँ, रानी । कोई सहायता करनेवाला नहीं है। मृणाल तुम्हारी ही कन्या है, तुम्हारा ही रूप है, तुम जानती भी नहीं। जिस मंजुला को तुमने सदा मृग मरीचिका बताया है, उसी के पेट से इसका जन्म हुआ है। मैं नहीं जानता, तुम नहीं जानतीं, पर है यह हमारी ही कन्या । आओ रानी, आज अपनी बेटी के मंगल-विवाह के अवसर पर आओ ! दीन देवरात पर तरस खाओ ! आओ !

हाय, दो माताएँ जिसकी हों, वह आज मातृहीना है ! हाय रे भाग्य, देवरात आज अपूर्ण है, असहाय है, अनवलंब है !

बेटी मृणालमंजरी, क्या देकर तुझे विदा करूँगा ? तेरे चले जाने के बाद तेरा यह भाग्यहीन पिता क्या जीवित रह सकेगा ? हे स्वर्ग के पितृ-पितामहगण, तुम्हारे भरोसे इस कन्या को छोड़ रहा हूँ । हा विधाता !

देवरात का हृदय फट जाना चाहता है। शर्मिष्ठा छोड़कर चली गई, मंजुला बिना आए ही चली गई और दोनों की नयनतारा मृणाल कसकर बाँधकर जाना चाहती है। हाय बेटी, तू भी चली जाएगी ?

पिता के लौटने में देर हो रही थी। उधर मृणाल भावी वियोग की आशंका से उदास बैठी थी । कब पिताजी आएँ, कब उनकी गोद में मुँह छिपाकर वह रोकर मन हल्का करे । परंतु कहाँ, पिताजी तो अपने उपासना-गृह में गए तो वहीं के हो रहे । लौटते क्यों नहीं ? इतनी देर तो कभी नहीं हुई। मृणाल व्याकुल- भाव से उनकी बाट जोहती रही। अब वह शंकित होने लगी। कुछ हो तो नहीं गया ? बाहर क्यों नहीं आ रहे हैं ? वह धीरे-धीरे पैर दबाकर चलती हुई उपासना गृह की ओर गई । द्वार का कपाट बंद था। वह कान लगाकर आहट लेने लगी । देवरात उस समय बेसुध थे। उनकी आँखों से अश्रुधारा बह रही थी । वे फफक-फफककर रो रहे थे- 'हाय बेटी, अकिंचन पिता को क्षमा कर देना । तुझे कुछ' भी नहीं दे सका। दो माताएँ जिसकी हों, वह मातृहीना, अनाथ ! हा विधाता ! '

मृणाल ने सुना तो फूट पड़ी। पिताजी मेरे लिए व्याकुल हैं। वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला उठी- "पिताजी, हाय पिताजी!" और पछाड़ खाकर गिर पड़ी। जैसे किसी ने रस्सी से बाँधकर ज़ोर से खींच लिया हो, इस प्रकार देवरात का ध्यान एकाएक कन्या की आवाज़ से खिंच गया । वे धड़फड़ाकर उठे और मृणाल को गोद में लेकर प्यार करने लगे । स्वप्न टूट गया। वे फूट-फूटकर रो पड़े ।

देर तक मृणाल को गोदी में लिए हुए देवरात रोते रहे। देर तक पिता की गोदी में अलसशिथिला मृणाल सुबकती रही। किसी ने कुछ नहीं कहा। दोनों समझते रहे कि दोनों के मन पर क्या बीत रही है। अंत में देवरात ने ही साहस बटोरा । बेटी का मुँह अपनी ओर किया । माथा सूँघा, ललाट चूम लिया। बोले, "बेटी, तू दो माताओं की प्यारी बेटी है । पर आज दोनों ही नहीं हैं। रह गया है यह अभागा अकिंचन पिता देवरात ! विवाह के अवसर पर पिता अपूर्ण होता है, देवरात तो और भी अपंग है। मुझे ही तेरी माता का काम करना है । हाय बेटी, विश्वास हिल रहा है, आस्था टूट रही है। क्या करूँ ! प्राण व्याकुल हैं। तू शर्मिष्ठा का सतीत्व और मंजुला की कला - चातुरी लेकर उतरी है। तेरी एक माता नारायण की करुणा का अवतार थी, दूसरी उनकी स्मित- रेखा का प्रत्यक्ष विग्रह थी । बेटी, तू नारी-धर्म का प्रतिमान बनेगी, तू पवित्रता की मर्यादा सिद्ध होगी, तू सतीत्व का निदर्शन होगी । तुझे देखता हूँ तो लगता है कि तू गोपवेशधारी विष्णु की वेणुमाधुरी का रूप है । तेरा अकिंचन पिता तुझे कुछ दे नहीं सकता, पर मेरी प्यारी बेटी, स्वर्ग से तेरी माताएँ ही वह सब देंगी, जो बेटी को दिया जा सकता है।"

मृणाल ने दो माताओं की बात पहली बार सुनी । उसे आश्रम में शुश्रूषा और सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से आई हुई पौर-वधुओं से यह पता चल गया था कि वह हलद्वीप की नगर श्री मंजुला की औरस पुत्री है। उसे यह भी पता था कि वह देवरात की पालिता कन्या है । पर दो माताओं की बात उसकी समझ में नहीं आई। वह देवरात की ओर आँखें फाड़कर देखती रही। उसने उन्हें ही अपना सब कुछ जाना था। वह इतना समझती थी कि जन्म देना ही एकमात्र जनकत्व और जननीत्व नहीं है । देवरात उसके पिता, माता, गुरु सब कुछ थे। बाकी बातें उसके लिए गौण थीं। देवरात ने उसे कभी यह नहीं बताया था कि उसकी जननी कौन है, यद्यपि वे जान गए थे कि मुखरा पौर-वधुएँ उसे सब-कुछ बता चुकी हैं। परंतु आज जिस प्रकार यह बात कह रहे हैं उससे लगता है कि किसी अतल गांभीर्य की वेदना से सिक्त होकर ये शब्द उनके मुँह से निकल रहे हैं। वे कुछ कहना चाहते हैं, कह नहीं पा रहे हैं। उनका चित्त व्याकुल है, उत्क्षिप्त है, निर्मथत है । मृणाल ने अपने कोमल बाहुओं से उनका गला इस प्रकार जकड़ लिया जैसे वह नन्हीं-सी बालिका हो । भरे स्वर में बोली, "मेरे एक ही पिता हैं, वही माता हैं, वही सब कुछ हैं। पिताजी, मुझे और कुछ न बताओ। मैं इससे अधिक कुछ नहीं जानना चाहती।" देवरात इन शब्दों की सच्चाई के जानकार थे, पर कहे बिना उनसे रहा नहीं जा रहा था। केवल कहने का ढंग क्या हो, यही प्रश्न उनके सामने था। कहना वे अवश्य चाहते थे। आज नहीं कह सके तो फिर कभी नहीं कह सकेंगे। बोले, "बेटी, यह जो अपने पिता को देख रही है न, उसमें तीन प्राणियों का निवास है । एक तेरी प्रथमा माता है- शर्मिष्ठा । औशीनरों की बेटी, यौधेयों की बहू, देवरात की सब-कुछ - उसका प्राण, उसका मन, उसकी संपूर्ण सत्ता । दूसरी है तेरी जननी मंजुला-छंदों की रानी, लय की नर्मसंगिनी, माधुर्य की उत्सभूमि। वह थी देवरात की आशा, प्रेरणा, जीवनदात्री, मनः संयमिनी, प्राण- रक्षिणी ! तीसरा यह अकिंचन, अधूरा, निरवलंब, असहाय, तेरा पिता देवरात । तू एक-तिहाई से भी कम देख रही है बेटी ! तेरी प्रथमा माता स्वर्ग से अजस्र आशीर्वाद बरसा रही है। देवरात जो मनुष्य की कुछ सेवा कर पाता है, तुझे कुछ प्यार दे पाता है, वह सब उसी की कृपा से संभव हुआ है। वह मेरे जीते-जी सती हो गई, बेटी ! संसार ने कभी ऐसा सुना है ? उसे एक क्षण के लिए भी मेरा वियोग असह्य था । वह चली गई, देवरात जी रहा है। मैं तुझे गोद में लेकर सो जाता था तो वह तुझे प्यार करती थी, तेरी देखभाल करती थी । तुझे यदि कुछ भी कष्ट होता था तो वह स्वर्गीय ज्योति के रूप में उतरती थी। मैंने प्रत्यक्ष देखा है बेटी, वह क्षण-भर के लिए भी

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