प्रोफेसर शंकू और रोबू (बांग्ला कहानी) : सत्यजित राय

Professor Shanku Aur Robu (Bangla Story in Hindi) : Satyajit Ray

(प्रोफेसर शंकू कौन हैं ? बस इतना ही पता चलता है कि वे एक वैज्ञानिक हैं, विश्वविख्यात वैज्ञानिक ! कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने शायद किसी भीषण प्रयोग में अपने प्राण गँवा दिये हैं। इधर यह भी सुनने में आया कि वे किसी अपरिचित अंचल में छुप कर अपने काम में लगे हुए हैं, समय आने पर प्रकट हो जायेंगे। प्रोफेसर शंकू की प्रत्येक डायरी में कुछ-न-कुछ विचित्र जानकारी का विवरण मिलता है। ये कहानियाँ सच्ची हैं या झूठी, संभव हैं या असंभव—इसका निर्णय पाठक स्वयं करें।)

16 अप्रैल

अपनी चिट्ठी के जवाब में जर्मनी के मशहूर वैज्ञानिक प्रोफेसर पामर की चिट्ठी आज मिली। पामर ने लिखा है—
प्रिय प्रोफेसर शंकू,
अपने बनाए रोबो (Robot) यानी मशीनरी आदमी के बारे में आपने जो लिखा है, उससे मुझे कितनी खुशी हुई, उससे कहीं ज़्यादा आश्चर्य हुआ। आपने लिखा है, रोबो के बारे में मेरा लिखा हुआ, खोज संबंधी लेख आपने पढ़ा और उससे आपको काफी जानकारी हासिल हुई है। लेकिन आपका बनाया हुआ रोबो अगर वास्तव में वैसा ही बन पड़ा है, जैसा कि आपने लिखा है, तो यह मानना ही पड़ेगा कि मेरी कीर्ति से आप बहुत आगे निकल गये हैं।
मेरी उम्र हो चुकी। मेरे लिए भारतवर्ष आ सकना संभव नहीं, इसीलिए यदि आप अपने बनाये आदमी को लेकर हमारे यहाँ आ सकें तो मुझे महज़ खुशी ही नहीं होगी, मेरा उपकार भी होगा। इसी हाइडेलबर्ग में ही मेरे जाने-पहचाने एक वैज्ञानिक और हैं—डॉक्टर वोर्गेल्ट। उन्होंने भी रोबो पर कुछ काम किया है। बन सका तो उनसे भी आपका परिचय करा दूँगा।
आपके जवाब के इन्तज़ार में रहूँगा। यदि आप आने को राज़ी हों तो एक ओर किराये का इन्तज़ाम मैं ज़रूर ही कर सकूंगा। कहना फिजूल होगा, आपके रहने की व्यवस्था मेरे ही यहाँ होगी।

आपका
रूडोल्फ पामर

पामर की चिट्ठी का जवाब आज ही दे दिया। लिख दिया, अगले महीने के दूसरे हफ़्ते के आस-पास जाऊँगा। किराये के बारे में मैंने कोई ऐतराज़ नहीं किया, क्योंकि जर्मनी जाने-आने का ख़र्च कम नहीं है, हालाँकि उस देश को देखने की भी बड़ी ख्वाहिश है।

मेरा ‘रोबू’ भी मेरे साथ ज़रूर जाएगा, लेकिन अभी तक वह अंग्रेज़ी और बंगला के सिवा दूसरी भाषा नहीं बोल सकता। इस एक महीने के अरसे में उसे जर्मन सिखा लेने से वह पामर से मज़े में बात कर सकेगा; मुझे दुभाषिए का काम नहीं करना पड़ेगा।

रोबू को बनाने में मुझे डेढ़ साल लगा। मेरे नौकर प्रह्लाद ने हर समय मेरे पास रह कर यह-वह सामान हाथ के पास पहुँचा कर मेरी मदद की है, लेकिन असली काम सब मैंने खुद ही किया। और हैरत की सबसे बड़ी बात है, वह है रोबू को बनाने में खर्च की बात। कुल मिलाकर उस पर मेरी तीन सौ सैंतीस रुपये साढ़े सात आने की लागत लगी है। इस निहायत ही मामूली ख़र्च से बनी, वह भविष्य में मेरी लेबोरेटरी के सभी कामों में मेरी सहयोगी होगी—गर्ज़ की राइटहैंड-मैन। मामूली जोड़-घटा, गुणा-भाग के हिसाब में रोबू को एक सेकेंड से भी कम समय लगता है। ऐसा कठिन कोई हिसाब ही नहीं, जिसे हल करने में उसे दस सेकेंड से ज़्यादा समय लगे। इसी बात से समझ में आता है कि मैंने पानी के भाव कैसी एक गज़ब की चीज़ पा ली है ! ‘पा ली है’ इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि किसी भी वैज्ञानिक अविष्कार को मैं पूर्णतया आदमी की सृष्टि नहीं मानता। उसकी संभावना पहले से ही रही होती है, शायद हो कि सदा ही रही थी—आदमी को सिर्फ़ अपनी अक्ल पर ज़ोर से या किस्मत की ख़ूबी से उन संभावनाओं का पता पा कर उन्हें काम में लगा लेता है।

रोबू की शक्ल खासी खूबसूरत बन पड़ी है, ऐसा नहीं कह सकता। खास करके उसकी दोनों आँखें दो तरह की हो जाने से वह ऐंचाताना-सा लगता है। उस खामी को भरने के लिए मैंने रोबू के मुँह में एक हँसी भर दी है। वह कितना ही कड़ा सवाल क्यों न हल करता हो, वह हँसी उसके होंठों पर लगी ही रहती है। मुँह की जगह एक छेद कर दिया है, बातचीत उसी छेद से निकलती है। होंठ हिलाने लायक़ बनाने में नाहक ही समय और ख़र्च ज़्यादा लगता, लिहाज़ा मैंने उसकी कोशिश ही नहीं की। आदमी के जहाँ दिमाग होता है, रोबू के वहां पर ढेरों बिजली के तार हैं, बैटरी, बल्ब आदि हैं। इसलिए दिमाग़ जो काम करता है, उनमें से बहुत सारा काम रोबू नहीं कर सकता। मसलन, सुख-दुख का अनुभव करना, या किसी पर गुस्सा ईर्ष्या करना-यह सब रोबू जानता ही नहीं। वह केवल काम करता है सवाल का जवाब देता है। हिसाब सब तरह का लगा लेता है, लेकिन सिखाए हुए काम के अलावा काम नहीं करता और सिखाए हुए प्रश्नों को छोड़कर दूसरे प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकता। मैंने उसे अंग्रेज़ी और बँगला के पचास हज़ार प्रश्नों के उत्तर सिखाए हैं—किसी भी रोज़ उसने गलती नहीं की। अब उसे दसेक हज़ार ज़र्मन प्रश्नों के उत्तर सिखा दूँ, तो मैं ज़र्मनी जाने के लिए तैयार हो जाऊँगा।
इतने अभावों के होते रोबू जो करता है, उतना दुनिया के और मशीनी आदमी ने किया है, ऐसा नहीं लगता। ऐसी एक चीज़ बनाने के बाद उसे गिरिडिह जैसे शहर में कैद रखने का भी कोई मतलब होता है ? बंगाल में थोड़ी-सी रसद पर बंगाली वैज्ञानिक क्या कर सकते हैं, इसे क्या बहारी दुनिया को जानना नहीं चाहिए ? इसमें अपने प्रचार से देश का प्रचार ज़्यादा है। कम-से-कम मेरा उद्देश्य वही है।

18 अप्रैल

अब, इतने दिनों के बाद अविनाश बाबू ने मेरी वैज्ञानिक प्रतिभा को क़बूल किया। मेरे ये पड़ोसी सज्जन यद्यपि आदमी अच्छे हैं, पर मेरे कामों के लिए उनका मज़ाक उड़ाना कभी-कभी बरदास्त से बाहर हो जाता है।
वह अक्सर मुझसे गप्पें लड़ाने के लिए आया करते हैं—लेकिन पिछले तीन महीनों में जितनी बार भी आए, मैंने प्रह्लाद से कहला दिया—मैं बहुत ही व्यस्त हूँ, मुलाक़ात नहीं हो सकती।
आज रोबू को जर्मन सिखा कर अपने लेबोरेटरी की कुर्सी पर बैठकर एक विज्ञान-पत्रिका के पन्ने उलट रहा था कि वह आ धमके। मेरी भी इच्छा थी कि वह एक बार रोबू को देखें, इसीलिए उस भलेमानस को बैठक में न बिठाकर सीधे अपनी लेबोरेटरी में बुला लिया।

कमरे के अन्दर क़दम रखते ही भले आदमी ने नाक सिकोड़ कर कहा, ‘‘आप ने हींग का कारोबार शुरू कर दिया है क्या ?’’ कि रोबू पर नज़र पड़ते ही अपनी आँखें गोल-गोल करके वह बोले, ‘‘अरे बाप रे, वह क्या है ? रेडियो ? कि ‘कल का गाना’ या क्या है ?’’
अविनाश बाबू ग्रामोफ़ोन को अभी भी ‘कल का गाना’ कहते हैं, सिनेमा को कहते हैं बायस्कोप, एरोप्लेन को कहते हैं उड़न-जहाज़।
जवाब में मैंने कहा, ‘‘उसी से पूछ देखिए न, वह क्या है। उसका नाम है रोबू।’’
‘रोबूस्कोप ?’’
‘‘रोबूस्कोप क्यों होने लगा ? कहा तो, उसका नाम है रोबू। उसका नाम लेकर आप उससे पूछिए वह क्या है, वह ठीक जवाब देगा।’’
‘‘क्या जाने बाबा, यह आपका कौन-सा तमाशा है’’—यह कहकर अविनाश बाबू ने उस यंत्र के सामने खड़े होकर पूछा, ‘‘तुम क्या हो जी, रोबू ?’’

रोबू के मुँह के उस छेद सेसाफ जवाब निकला, ‘‘मैं मशीनी आदमी हूँ। प्रोफेसर शंकू का सहकारी।’’
भले आदमी को तो मूर्च्छा आने की नौबत ! रोबू क्या-क्या कर सकता है, यह सुनकर और कुछ-कुछ नमूना देखकर अविनाश बाबू अपना मुँह फीका-सा करके मेरे दोनों हाथ पकड़ के झकझोरते हुए चले गये। मैंने समझा, अब वह वास्तव में प्रभावित हुए हैं।’’
आज एक पुरानी ज़र्मन विज्ञान-पत्रिका में रोबो पर प्रोफेसर वोर्गेल्ट के लिखे एक लेख पर अचानक नज़र पड़ गयी। उन्होंने खासे नाज़ से ही लिखा है—मशीनी आदमी बनाने में जर्मनों ने जो कृतित्व दिखाया है, वैसा और किसी भी देश के किसी व्यक्ति ने नहीं दिखाया। उन्होंने यह भी लिखा है कि मशीनी आदमी से नौकर-चाकर जैसा काम तो कराया जा सकता है, मगर उससे काम जैसा काम या बुद्धि का कोई काम कभी भी नहीं कराया जा सकेगा।
लेख के साथ प्रोफेसर वोर्गेल्ट की एक तश्वीर भी छपी है। चौड़ा कपाल, दोनों भौहें कुछ अजीब किस्म की घनी, आँखें गढ़ों में धँसी हुई, और ठोढ़ी पर कोई दो इंच लंबी और लगभग उतनी ही चौड़ी-चौकोर दाढ़ी चिपकी हुई-सी।
भले आदमी का वह लेख पढ़कर और उसकी तस्वीर देखकर उनसे भेंट करने की ललक और भी बढ़ गयी।

23 मई

आज सबेरे हाइडलेबर्ग पहुँचा। चित्र लिखा-सा खूबसूरत शहर। यूरोप का सबसे पुराना विश्वविद्यालय यहाँ होने के नाते मशहूर। शहर के बीच से नेकर नदी बह रही है, पीछे पहरेदार की तरह खड़ा है हरे-भरे जंगल से ढँका पहाड़। इसी पहाड़ पर हाइडलेबर्ग का ऐतिहासिक क़िला है।
शहर से पाँच मील के फाँसले पर मनोरम प्राकृतिक परिवेश में प्रोफेसर पामर का निवास है। सत्तर साल के उस बूढ़े वैज्ञानिक ने मेरी जैसी ख़ातिर की, वह कह कर नहीं बताई जा सकती। बोले, ‘‘शायद आपको मालूम हो, भारतवर्ष के प्रति जर्मनी का एक स्वाभाविक खिंचाव है। मैंने आपके यहाँ के प्राचीन दर्शन और साहित्य की बहुत-सी किताबें पढ़ी हैं। मैक्समूलर ने उन किताबों का बहुत सुंदर अनुवाद किया है। उनके प्रति हम सब बहुत ऋणी हैं। आपने भारतीय वैज्ञानिक के नाते आज जो काम किया है, उससे हमारे देश का गौरव बढ़ा।’’

रोबू को मैं उसी के आकार के एक पैकिंग बक्से में पुआल, रुई, बुरादे आदि में बड़े एहतियात के साथ लिटा कर ले आया था। पामर को उसे देखने का बड़ा कौतूहल हो रहा है, यह जानकर मैंने दोपहर को ही उसे बक्से से निकाल कर झाड़-पोंछ कर पामर की प्रयोगशाला में खड़ा कर दिया। पामर ने रोबो के बारे में इतनी छान-बीन की, इतना लिखा-पढ़ी की, पर उन्होंने खुद कभी कोई रोबो बनाया नहीं।
रोबू की शक्ल देखकर उनकी आँखें कपाल पर चढ़ गयीं। बोले, ‘‘अरे, तुमने तो गोंद, कांटियाँ और स्टिकिंग प्लास्टर से ही जोड़ने का काम कर दिया है और कहते हो कि यह रोबो बातें करता है !’’
पामर के गले में अविश्वास का सुर साफ झलक रहा था।

मैंने मुस्कराकर कहा, ‘‘जी, आप उसे जाँच-परख कर देख लें न। पूछिए न उससे कोई सवाल।’’
रोबू की तरफ मुड़कर पामर ने जर्मन भाषा में पूछा, ‘‘तुम क्या काम करते हो ?’’
रोबू ने भी जर्मन भाषा में ही साफ स्वर और स्पष्ट उच्चारण करके कहा, ‘‘मैं अपने मालिक की मदद करता हूँ और अंक की समस्या हल कर सकता हूँ।
पामर रोबू की ओर हैरानी की निगाह से देख कर कुछ देर तक सिर हिलाते रहे। उसके बाद एक लंबा निश्वास छोड़ते हुए बोले, ‘‘शंकू, आपने जो किया है, विज्ञान के इतिहास में इसकी कोई मिसाल नहीं। वोर्गेल्ट को ईर्ष्या होगी।’’
इसके पहले वोर्गेल्ट के बारे में हम दोनों में कोई बात नहीं हुई। पामर के मुँह से एकाएक उसका नाम सुनकर मैं चौंक ही उठा। वोर्गेल्ट ने भी क्या कोई रोबो बनाया है ?
मेरे कुछ पूछने से पहले ही पामर ने कहा, ‘‘वोर्गेल्ट हाइडेलबर्ग में ही है—मेरे ही जैसे एकांत परिवेश में, लेकिन नदी के उस पार। हम दोनों बर्लिन में एक ही स्कूल में पढ़े हैं, मगर मैं उससे तीन साल आगे था। उसके बाद मैंने यहाँ हाइडेलबर्ग में आकर डिग्री ली। वह बर्लिन में ही रह गया। दसेक साल हुए, वह यहाँ अपने मौरूसी घर में आकर रह रहा है।’’
‘‘उन्होंने कोई रोबों बनाया है क्या ?’’

‘‘सो तो मैं नहीं कह सकता। उसके पीछे वह लगा बहुत दिन से है, लेकिन शायद कामयाब नहीं हुआ है। बीच में तो सुना था, उसका दिमाग़ ही कुछ ख़राब हो गया है। पिछले छह महीने से वह घर से निकला ही नहीं। मैंने कई बार उससे टेलीफोन पर बात करने की कोशिश की। हर बार उसके नौकर ने बताया, वह बीमार हैं। इधर मैंने फोन-वोन नहीं किया।’’
‘‘मैं यहाँ हूँ, यह बात उन्हें मालूम है ?’’
‘‘पता नहीं। आपके आने का ज़िक्र मैंने यहाँ के कई वैज्ञानिकों से किया है। उन सबसे आपकी मुलाकात होगी ही। कुछ अख़बार वालों को भी जानकारी हो सकती है। मैंने अलग से वोर्गेल्ट को यह बताने की ज़रूरत नहीं समझी।’’
मैं चुप रह गया। दीवार पर लगी क्लाक में क्क्-क्क् करके चार बजे। खुली खिड़की से बाहर बाग दिखायी दे रहा था, उसके भी पीछे पहाड़। दो-एक चिड़ियों की चहक के सिवाय और कोई आवाज़ नहीं।
पामर ने कहा, ‘‘रूस के स्ट्रागोनाफ़, अमरीका के प्रोफेसर स्टाइनवे, इंगलैंड के डॉक्टर मैनिंग्स—इन सबने रोबो बनाया। जर्मनी में भी तीन-चार रोबो हैं। मैंने उन सभी को देखा है। लेकिन उनमें से एक भी इस आसानी से नहीं बना है और इस सफाई के साथ बोल नहीं सकता।’’
मैंने कहा, ‘‘लेकिन यह हिसाब भी कर सकता है। आप कोई भी सवाल देकर जाँच सकते हैं।’’
पामर ने आवाक होकर कहा, ‘‘अच्छा ! वह आवेरवाख का इक्वेशन जानता है ?’’
‘‘पूछ देखिए।’’

रोबू का इम्तहान लेकर पामर ने कहा, ‘‘गज़ब है। आपकी प्रतिभा को शाबाश !’’ उसके बाद क्षण-भर चुप रह कर बोले, ‘‘आपका रोबू आदमी की तरह अनुभव कर सकता है ?’’
मैंने कहा, ‘‘जी नहीं, यह वह नहीं कर सकता।’’
पामर ने कहा, ‘‘और चाहे कुछ न हो, आपने दिमाग़ से अगर उसका कोई लगाव रहता है, तो बड़ा अच्छा होता तो आपके बड़े काम आता। वैसे भी वह वास्तव में आपका एक भरोसा करने लायक़ साथी हो सकता ।’’
पामर मानो कुछ अनमने से हो गये। फिर बोले, ‘‘मैंने उस विषय पर बहुत सोचा है—किसी मशीनी आदमी को लहू-माँस के किसी आदमी के मन की बात समझाई जाय। इस ओर मैं काफी दूर तक आगे भी बढ़ चुका था, दिल की बीमारी ने लाचार कर दिया। और, जिस रोबो पर यह सब परीक्षण चलता, उसे बनाने की सामर्थ्य ही नहीं रह गयी।’’
मैंने कहा, ‘‘मैं रोबू के काम से संतुष्ट हूँ। वह जितना कर लेता है, मेरे लिए वही बहुत है। पामर ने कुछ कहा नहीं। मैंने देखा, वह एकटक रोबू को देख रहे हैं। रोबू के चेहरे पर वही हँसी। कमरे की खिड़की से झुकते दिन की रोशनी आकर उसकी बायीं आँख पर पड़ रही थी। धूप की चमक से बिजली के लहू की आँख भी हँसती-सी लग रही थीं।

24 मई

मैं बैठा अपनी डायरी लिख रहा थ।। कल आधी रात से लेकर आज दिन-भर में बहुत-सी घटनाएँ घटीं, उन सबको करीने से लिख लेने की कोशिश कर रहा था। कहाँ तक बन पाएगा, नहीं जानता। क्योंकि मेरा मन ठीक नहीं था। जीवन में आज पहली बार मेरे मन में संदेह जागा कि अपने को मैंने जितना बड़ा वैज्ञानिक समझा था, वास्तव में मैं उतना बड़ा हूँ या नहीं। यदि वही होता तो इस क़दर अपदस्थ मैं क्यों हुआ ?

कल रात की घटना ही पहले बताऊँ। यह खास वैसी कुछ नहीं, फिर भी लिख रखना अच्छा है।
पामर और मैं रात का भोजन करके नौ बजे उठे। उसके बाद बैठक में काफ़ी पीते हुए हम दोनों ने काफी बातें कीं। मैंने उस समय भी पामर को बीच-बीच में अन्यमनस्क होते देखा। क्या सोच रहा था, क्या जानें। हो सकता है, रोबू को देखने के बाद से उसे बार-बार असमर्थता याद आ जाती है। और ठीक भी है, वह जैसा बूढ़ा हो गया है कि रोबो पर नई कोई गवेषणा कर सकना उसके लिए मुमकिन नहीं लगता।

मैं सोने के लिए दस बजे के कुछ बाद ही गया। जाने से पहले रोबू को देख कर गया। लगा कि पामर की लेबोरेटरी में वह बड़े आराम से ही है। जर्मनी की आब-हवा, यहाँ की सर्दी और प्राकृतिक सौन्दर्य—इन सबकी उसे कोई परवाह नहीं। वह गोया महज़ मेरे हुक्म के इन्तज़ार में है। सोने को जाने से पहले हम दो वैज्ञानिक ने जर्मन भाषा में उससे विदाई ली। रोबू ने भी साफ शब्दों में कहा,
‘‘गुटे नाख्ट, हेर प्रोफेसर शंकू, गुटे
नाख्ट हेर
प्रोफेसर पामर !"

बिस्तर के पास की बत्ती जलाकर कुछ देर एक मैगजीन के पन्ने उलटे-नीचे कर ऊपर की मंजिल की ग्रैंडफादर घड़ी में टन-टन करके ग्यारह बजना सुनकर बत्ती बुझाकर सो पड़ा।

आधी रात को नींद टूटी। क्या बज रहा था, पता नहीं। मेरी नींद एक आवाज सुनकर ही खुली और वह आवाज आ रही थी मेरे कमरे के ठीक नीचे, पामर की लेबोरेटरी से। खट्-खट्-खट्, ठंग-ठंग-खट-खट्। कभी लगा कि काठ के फर्श पर आदमी के पैरों की आवाज है। कभी लगा, कल-पुर्जों के काम का शब्द है।

लेकिन पाँच मिनट से ज्यादा वह आवाज नहीं सुनाई पड़ी। फिर भी काफी कुछ देर तक कान खड़े किए लेटा रहा। शायद और कुछ आवाज हो। लेकिन उसके बाद घड़ी में तीन बजने के सिवा और कोई आवाज नहीं सुनी।

सबेरे जलपान के समय पामर से इस विषय में मैंने कुछ नहीं कहा। लेकिन मेरी नींद में अड़चन आई, यह सुनकर वह शायद बहुत परेशान हो पड़े। जलपान के बाद ज़रा घूमने निकलने की बात थी। लेकिन मेज से उठने के पहले ही पामर के नौकर क्रूट ने आकर अपने मालिक के हाथ में एक विजिटिंग कार्ड दिया। नाम पढ़कर पामर ने अवाक् होकर कहा, "अरे! वोर्गेल्ट आया है!"
सुनकर मैं भी हैरान रह गया।

बैठक में जाकर देखा, गिरिडिह में रहते समय जर्मन पत्रिका में जो चेहरा तसवीर में देखा था, यह वही चेहरा है। सिर्फ बालों में और कुछ सफेदी आ गई है। हम लोगों के अन्दर जाते ही सोफे पर से उठकर वोर्गेल्ट ने हमें अभिवादन किया। इतनी उम्र हो जाने के बावजूद मिलिट्री-सी चुस्ती देखकर अचरज हुआ। इनकी भी उम्र सत्तर के लगभग-मगर कैसी जवान तन्दुरुस्ती!
पामर ने कहा, "वोर्गेल्ट, तुम्हें देखकर ऐसा कहाँ लगता है कि तुम लम्बी बीमारी से उठे हो, बल्कि लगता है कि चेंज में जाकर सेहत को सुधार आए हो।"

वोर्गेल्ट ने भारी गले से हो-हो हँस करके कहा, "बीमार हूँ बताने से लोग तंग कम करते हैं। व्यस्त हूँ कहने से बहुत बार काम नहीं चलता। उससे बल्कि लोगों की उत्सुकता और भी बढ़ जाती है और वैसे में लोग बार-बार टेलिफोन करके जानना चाहते हैं कि व्यस्तता की वजह आखिर क्या है और समझ ही सकते हो कि वह कारण सब समय कहा नहीं जा सकता।"

"हाँ, वह तो बेशक नहीं कहा जा सकता।" पामर ने वोर्गेल्ट को शराब ऑफर की। उसने सिर हिलाकर कहा, "यह चीज मैंने कतई छोड़ दी है और मेरे पास ज्यादा समय भी नहीं है। मैंने आज के अखबार में रोबो सहित प्रोफेसर शंकू के यहाँ आने की खबर पढ़ी। इस विषय में मुझे कैसी उत्सुकता है, यह तो जानते ही हो। इसलिए बिना खबर किए ही मैं सीधे आ पहुँचा। आशा है, अन्यथा नहीं सोचा होगा।"
"नहीं, नहीं।"
मैंने कहा, “आप शायद मेरे यन्त्र को एक बार देखना चाहते होंगे!"
"उसी के लिए तो आया। आपने असम्भव को सम्भव कैसे किया, यह जानने की स्वाभाविक उत्सुकता हो रही है।"
वोर्गेल्ट को लेबोरेटरी में ले गया।

रोबू को देखते ही वोर्गेल्ट की पहली बात हुई, “आपने शायद चेहरे की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया। मेरे ख्याल से इस चीज को मशीनी आदमी न कहकर सिर्फ मशीन कहना ही ठीक है, नहीं क्या?"

मैं इस बात से इनकार जरूर नहीं कर सका। कहा, “यह ठीक है कि मैंने काम पर ही ध्यान ज्यादा दिया है। एपोलो जैसा निर्दोष सुन्दर आदमी इसे बेशक नहीं कहा जा सकता।"
"सुना, आपका रोबो हिसाब बढ़िया ढंग से कर लेता है?"
"टेस्ट कीजिएगा!" वोर्गेल्ट ने रोबू की ओर घूमकर पूछा, "दो और दो कितना होता है?"

इसका जवाब रोबू के मुँह से इतने जोर से निकला कि पामर की प्रयोगशाला की काँच की चीजें झनझना उठीं। रोबू कभी इतने जोर से बात नहीं करता। मैंने साफ समझा और समझकर ज़रा अवाक् हुआ कि वोर्गेल्ट के सवाल से रोबू खीज गया है।

वोर्गेल्ट के खुद का हाव-भाव भी उस डपट से कुछ सकुचाया-सा लगा। वह एक के बाद दूसरा सख्त सवाल रोबू से करने लगे और, रोबू भी पाँच से सात सेकंड के अन्दर हर सवाल का जवाब देता गया। गर्व से मेरी छाती फूल उठी। वोर्गेल्ट की ओर नजर घुमाकर मैंने देखा, चालीस डिग्री सर्दी में भी उसके कपाल पर पसीने की बूंदें आ गई हैं।

कोई पाँच मिनट तक पूछते रहने के बाद वोर्गेल्ट ने मेरी तरफ घूमकर कहा, "हिसाब के सिवा यह और क्या जानता है?"
मैंने कहा, "आपके विषय में उसे बहुत-सी बातें मालूम हैं, चाहें तो पूछ सकते हैं।"

मेरी बात सुनकर वोर्गेल्ट मानो खासे अवाक्-से हुए। यहाँ आने से पहले एक जर्मन विज्ञान-कोश से वोर्गेल्ट के जीवन-सम्बन्धी बहुत-सी बातें मैंने उसमें भर दी थीं। मैंने अंदाज कर लिया था कि वोर्गेल्ट रोबू से क्या-क्या पूछ सकते हैं।
वोर्गेल्ट ने कहा, "तुम्हारे यन्त्र को इतनी जानकारी है? ठीक है, बोलो तो रोबू, मेरा नाम क्या है?"

रोबू के मुँह से बात नहीं निकली। एक सेकंड, दो सेकंड, दस सेकंड, एक मिनट-कोई जवाब नहीं, कोई आवाज नहीं। कुछ भी नहीं। रोबू गोया कमरे की मेज-कुर्सी, आलमारी जैसे सामानों-सा ही निष्प्राण हो, निर्जीव।

अब पसीना छूटने की बारी मेरी थी। मैं आगे बढ़ा। रोबू के सिर पर के बटन को दबाया, इसे हिलाया, उसे डुलाया, यहाँ तक कि रोबू के सारे शरीर को झकझोरा। अन्दर के सारे कल-पुर्जे झनझना उठे, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।
रोबू ने आज इन वैज्ञानिकों के सामने मेरे और भारतीय विज्ञान के मान-सम्मान को माटी में मिला दिया।

बोर्गेल्ट ने मुँह से 'हुः' जैसी एक आवाज निकालकर कहा, "इसमें कोई शुबहा नहीं कि इसमें कोई बड़ा-सा डिफेक्ट रह गया है। जो भी हो, हिसाब यह अच्छा ही जानता है। अगर असुविधा न हो तो कल तीसरे पहर इसे मेरे यहाँ ले आने पर मैं इसे दुरुस्त कर सकूँगा, ऐसा मेरा ख्याल है और मुझे भी कुछ दिखाना है। आप दोनों का न्योता रहा।"
वोर्गेल्ट चले गए।

पामर मेरे मन की हालत समझ गए थे और मैं भी समझ रहा था कि वह खुद भी बड़ा बुरा महसूस कर रहे थे। बोले, “मेरे लिए यह बड़ा अचरज-सा लग रहा है। आइए तो देखें, वह अब ठीक से बोलता है या नहीं!"

प्रयोगशाला में जाकर रोबू से पूछते ही वह फिर पहले की तरह जवाब देने लगा। चला-फिरा भी ठीक ही। मैंने समझा कि ठीक उसी एक प्रश्न की घड़ी में उसके अन्दर कोई सामयिक गड़बड़ी हो गई थी, जिसकी वजह से बेचारा जवाब नहीं दे सका। इसमें जवाबदेह करना हो तो मुझे ही करना चाहिए। उसका क्या दोष!

शाम को वोर्गेल्ट का टेलिफोन आया। उन्होंने कल के न्योते की फिर से याद दिलाई। रोबू को भी साथ लाने की कहकर बोले, “यहाँ मेरे सिवा दूसरा कोई न होगा। लिहाजा आपका यन्त्र अगर कुछ गड़बड़ भी करे, तो बाहर के किसी के सामने आपको शर्मिन्दा नहीं होना पड़ेगा।"

मेरे मन से कलंक जा नहीं रही थी। कहीं रात को नींद न आए, इसलिए अपनी बनाई नींद की दवा सम्नोलिन की एक गोली मैंने खा ली।
एक बात को सोचकर कुछ खटका-सा लगा। कल आधी रात को खट्-खाट् आवाज क्यों हो रही थी? पामर क्या खुद लेबोरेटरी में काम कर रहे थे? उन्होंने रोबू के अन्दर के कल-पुर्जे को कुछ बिगाड़ तो नहीं दिया है? पामर और वोर्गेल्ट में कोई साजिश तो नहीं चल रही है?

27 मई

कल अपने देश को लौट जाऊँगा। हाइडेलबर्ग की विभीषिका मेरे मन से कभी मिटेगी नहीं।

लेकिन यहाँ आकर एक नई जानकारी हासिल की। मैंने यह समझा कि वैज्ञानिक लोग सम्मान के पात्र होते हुए भी वे सभी विश्वास के पात्र नहीं हैं। लेकिन घटना जब घटी, तब मन में यह सबकुछ भी नहीं आया। उस समय जी में सिर्फ यही हो रहा था, मेरा इतना काम बाकी है, लेकिन मैं कुछ भी नहीं कर पाया। कैसे जो प्राण...!
घटना खोलकर ही कहूँ।

वोर्गेल्ट हम दोनों को न्योतकर गए थे। रोबू को साथ लेकर चलना-फिरना आसान नहीं है, लेकिन भले आदमी ने जब कहा ही है, तो उसे साथ ले जाने का ही निश्चय किया। तीसरे पहर चार बजे के करीब रोबू को बक्स में बन्द किया। घोडागाड़ी की एक तरफ की सीट पर उसे करवट से लिटाकर दूसरी तरफ की सीट पर हम दोनों बैठकर वोर्गेल्ट के घर को रवाना हुए। तीनेक मील दूर जाने में लगभग पैंतालीस मिनट लगेगा।

रास्ते के दोनों ओर वसन्त के फूले चेरी फूलों की शोभा देखकर जाते-जाते मैंने पामर से बोर्गेल्ट के पुरखों की बातें सुनीं। उनमें से एक जूलियस वोर्गेल्ट-बैरन फ्रैंकेस्टाइन की भाँति मरे हुए आदमी को जिन्दा करने की कोशिश में खुद ही रहस्यमय ढंग से अपनी जान गंवा बैठे। इसके सिवा खानदान में दो-एक जने पागल थे, जिनकी सारी जिन्दगी पागलखाने में गुजरी।

जंगल के भीतर से होकर रास्ता पहाड़ के ऊपर को उठ गया है। यहाँ सर्दी जैसे कुछ ज्यादा थी और फिर धूप भी ढलती जा रही थी। मैंने मफलर को गले में अच्छी तरह से लपेट लिया।
कुछ दूर चलने के बाद एक मोड़ से घूमते ही खुशनुमा काम किया हुआ एक फाटक दिखाई दिया। पामर ने कहा, “आ पहुँचे।"
फाटक पर नक्शा-सा बना हुआ लिखा था, "विला मारियन'।

एक दरबान ने आकर फाटक खोल दिया। हम लोगों की गाड़ी उसके अन्दर से खट्-खट् करते हुए बिलकुल दरवाजे के सामने जाकर खड़ी हुई। इसे घर के बजाय महल या किला कहना ही शायद ठीक है।

वोर्गेल्ट सामने ही इन्तजार कर रहे थे। हम लोगों के उतरते ही आकर अपना ठंडा हाथ हमसे मिलाया, “आप लोगों के आने से मुझे बेहद खुशी हुई है।"

उसके बाद दो मुस्तंडे नौकर आकर रोबू के बक्से को उठाकर अन्दर ले गए। हम लोग अन्दर की बैठक में जाकर बैठे। और बैठक के पास ही लाइब्रेरी में वोर्गेल्ट के हुक्म के मुताबिक रोबू को बक्से से बाहर निकालकर खड़ा कर दिया गया।

पूरे घर में, खास करके यह बैठक और इसकी सारी चीजों में-तसवीर, आईना, घड़ी, झाड़-फानूस-सबकुछ में जैसी प्राचीनता थी, वैसी ही आभिजात्य की छाप थी। कमरे में एक बू थी, वह कुछ तो लकड़ी की-सी और कुछ किसी दवा या कैमिकल की-सी लग रही थी। वोर्गेल्ट की भी जरूर कोई प्रयोगशाला होगी और वह शायद इस बैठक के आसपास ही कहीं होगी। बत्ती जलाने के बावजूद कमरे का धुंधलका-सा भाव नहीं गया। जाता भी कैसे, कमरे में कोई भी चीज ऐसी नहीं थी, जिसका कि रंग हलका हो। सभी भूरी या काली और सभी पुरानी। कुल मिलाकर एक गम्भीर, बदन छम्छम् करनेवाला भाव।

मैं चूँकि शराब नहीं पीता, इसलिए वोर्गेल्ट ने मेरे लिए गिलास में सेब का रस मँगवाया। जो नौकर ट्रे में वह रस ले आया, लगा, उसकी उम्र नब्बे साल की होगी। मैं शायद उसकी ओर जरा ज्यादा अवाक् होकर देख रहा था। इसलिए वोर्गेल्ट ने मेरी उत्सुकता मिटाने के लिए कहा, "रुडी मेरे जन्म के पहले से ही इस घर में है। इसके तीन पुश्त हमारे घर के नौकर रहे हैं।"

यहाँ यह बात कह लूँ, वोर्गेल्ट जैसी गम्भीर मगर इतनी मुलायम गले की आवाज मैंने और कभी नहीं सुनी।

हम तीनों हाथ में गिलास लिए एक-दूसरे की सेहत की कामना कर रहे थे कि बाहर जाने कहाँ टेलिफोन बज उठा। उसके बाद बुड्ढे रुडी ने आकर खबर दी, पामर का फोन है। पामर उठकर फोन सुनने के लिए चले गए।

वोर्गेल्ट के हाथ के गिलास में भी सेब का रस था। उसे घुमाते हुए एकटक मेरी ओर देखकर उन्होंने कहा, “शंकू, आपको शायद पता हो, वैज्ञानिक लोग आज तीस साल से यान्त्रिक मनुष्य के बारे में गवेषणा कर रहे हैं।"
मैंने कहा, “जी हाँ। मालूम है।"
"मैंने भी इस पर थोड़ा-बहुत काम किया है, शायद मालूम हो?"
“जी। मैंने इस पर आपके कुछ लेख भी पढ़े हैं।"

“मैंने अपना अन्तिम लेख दस साल पहले लिखा था। मेरी सही गवेषणा उस लेख के बाद ही शुरू हुई है। अपनी इस गवेषणा के बारे में एक भी तथ्य मैंने कहीं प्रकट नहीं किया है।"

मैं चुप रहा। वोर्गेल्ट भी चुपचाप अपनी गढ़ों में फँसी हुई नीली आँखों से मुझे देखते रहे। कहीं दुम्-दुम् जैसी आवाज हो रही थी-घर में ही कहीं, मगर करीब में नहीं। पामर आखिर इतनी देर क्यों कर रहे हैं? टेलिफोन पर वह किससे बातें कर रहे हैं?"
बोर्गेल्ट ने कहा, “पामर का फोन शायद जरूरी है।"
मैं चौंका। मैंने तो उनसे कुछ कहा नहीं। वह मेरे मन की बात कैसे समझ गए?
इस बार वोर्गेल्ट ऐसा एक प्रश्न कर बैठे, जो मेरे लिए बिलकुल अप्रत्याशित था।
"अपना रोबो आप मेरे हाथ बेचेंगे?" मैंने अवाक् होकर कहा, “यह कैसी बात! क्यों भला, कहिए तो?"

वोर्गेल्ट ने गम्भीर आवाज में कहा, "मुझे उसकी जरूरत है। कारण बस यही है। मेरा रोबो हिसाब करना नहीं जानता और इसकी मुझे खास जरूरत है।"
"आपका रोबो क्या यहाँ है?" वोर्गेल्ट ने सिर हिलाकर 'हाँ' कहा।

रह-रहकर गुम्-गुम् की आवाज और पामर को लौटने में देर हो रही थी। इन दो बातों से मुझे बड़ी घुटन-सी हो रही थी। लेकिन तो भी वोर्गेल्ट का रोबो इसी घर में है और मैं उसे शायद देख पाऊँगा, इससे मैंने उत्तेजना की एक सिहरन महसूस की।

वोर्गेल्ट ने कहा, “मेरे जैसा रोबो आज तक कोई भी नहीं बना पाया। मैंनेगाटफ्रीड वोर्गेल्ट जो बनाया है, उसकी कोई मिसाल नहीं। लेकिन मेरे रोबो में एक कमी है । वह तुम्हारे रोबो की तरह इतनी आसानी से हिसाब नहीं बता सकता। इसलिए मुझे उसकी वह कमी दूर करनी है। तुम्हारा रोबो मिल जाए तो मेरा वह काम बन जाए।"

मुझे बड़ी खीज-सी हुई। ऐसी भी चीज कोई कभी पैसे के लिए दे सकता है? इतने अरमान से बनाया हुआ मेरा पहला रोबो, उसे मैं हाइडेलबर्ग के इस अधपगले वैज्ञानिक के हाथ बेच दूंगा? किसलिए? रुपयों की मुझे ऐसी क्या जरूरत पड़ी है? और उस हिसाब लगानेवाली बात में ही तो मेरा सबसे बड़ा कृतित्व है। वोर्गेल्ट ने जैसा भी रोबो क्यों न बनाया हो, अपने से वह चाहे जो भी कहें, मैं जानता हूँ कि मेरे जैसा गजब का मशीनी आदमी उन्होंने हरगिज नहीं बनाया है।

मैंने सिर हिलाकर कहा, "मुझे माफ कीजिए वोर्गेल्ट, यह चीज में बेच नहीं सकता। सच पूछिए तो आप जब इतने बड़े वैज्ञानिक हैं तो और थोड़ी-सी मेहनत करके आप ऐसी चीज क्यों नहीं बना पाएँगे, जो मैंने बनाई है?"

"उसकी वजह?" वोर्गेल्ट सोफे पर से उठ खड़े हए, "हर कोई हर चीज नहीं बना सकता। यही दुनिया का नियम है। कोशिश करने पर मैं भी बना सकता हूँ, यह मैं भी जानता हूँ, क्योंकि मेरे लिए असाध्य कुछ भी नहीं। लेकिन समय कम है। मेरे पास जो पूँजी थी, वह भी चुक गई। कर्ज से मेरा घर गिरवी पड़ा है। उस एक रोबो को बनाने में मेरा सब स्वाहा हो गया। मैंने उसके पीछे करोड़ों-करोड़ मार्क खर्च किया है। लेकिन एक उसी गुण की कमी से वह अधूरा-सा है। वह मुझे चाहिए। उसे पा लेने से अपने रोबो से ही मैं अपनी सारी लागत वापस पा जाऊँगा। लोग कहेंगे, 'हाँ, वोर्गेल्ट ने जो किया है, उससे ज्यादा कर सकना आदमी के बस के बाहर की बात है। मेरे सन्दूक में सोने के आभूषण रखे हुए हैं, चार सौ साल पुराने। वह सोना मैं आपको दे देता हूँ, आप अपना रोबो मेरे हाथ बेच दीजिए।"

मुझे सोने का लालच दिखा रहे हैं! इस लोभ नाम की चीज को मैं कितना पहले जीत चुका हूँ, यह तो वोर्गेल्ट को मालूम नहीं है न! इस बार मैंने अपने स्वर को भरसक गम्भीर करके कहा, “आपकी बातचीत का लहजा मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है, वोर्गेल्ट ! सोना तो क्या, हीरे की खान भी मिले तो मैं अपना रोबू नहीं बेचूँगा।"

"फिर तो आपने मेरे लिए कोई रास्ता ही नहीं रहने दिया।"

यह कहकर वोर्गेल्ट ने सबसे पहले जो काम किया, वह था सीढ़ी की तरफ के दरवाजे को बन्द कर देना। उसके बाद दूसरी तरफ को जो दरवाजा था-शायद खाने के कमरे में जाने का उसको भी बन्द कर दिया। काँच की खिड़कियाँ यों ही बन्द थीं। खुला रह गया सिर्फ लाइब्रेरी का किवाड़ और मेरा रोबू उसी लाइब्रेरी में था। मेरे मन में यहीं पहली बार सन्देह हुआ कि अब मैं अपने रोबू को शायद देख नहीं पाऊँगा। शायद और कई दिनों के बाद ही वह दूसरे मालिक का काम करेगा, उसके सख्त-सख्त सवालों को हल करेगा। और पामर? मेरे मन में रत्तीभर भी सन्देह नहीं कि वोर्गेल्ट पामर से साजिश करके मेरा सत्यानाश करने पर उतारू है।

दुम् दुम् दुम्-फिर वही आवाज सुनाई दी। लगा, आवाज यह धरती के नीचे से आ रही है। किसकी आवाज? वोर्गेल्ट के रोबो की? सोचने का समय नहीं था। वोर्गेल्ट मेरे सामने आकर खड़े हो गए। आँखों में वही अपलक दृष्टि। ऐसी कठोर निगाह मैंने और किसी की आँखों में नहीं देखी। इस बार वोर्गेल्ट ने बात की, तो देखा, तब उनके स्वर में वह मुलायमियत नहीं है। उसकी जगह इस्पात जैसी एक सख्ती थी।

"प्राण को बनाने से उसका नामोनिशान मिटाना कितना आसान है, आप नहीं जानते हैं, शंकू!" बन्द कमरे में उनके गले की आवाज गम-गम गूंज उठी। "बस, बिजली का एक ही शॉक। कितने वोल्ट का, मालूम है? तुम्हारा रोबू जान सकता है। वह शॉक देने का उपाय भी बड़ा सहज है...।"

मेरे बदन पर उस शॉक को रोकनेवाली कार्बोधीन की बनियाइन थी। शॉक से मुझे कुछ भी नहीं होगा। लेकिन ताकत से मैं इस जर्मन से कैसे पार पाऊँगा?
मैं चीख उठा, “पामर! पामर!"

वोर्गेल्ट अपने दाएँ हाथ को बढ़ाकर उसकी पाँचों उँगलियाँ सामने की ओर सीधी करके मेरी ओर बढ़ते जा रहे थे। उनकी आँखों में हिंसक उल्लास की चमक थी।
पीछे हटने में मुझे सोफे से रुकावट हुई। पीछे हटने का कोई उपाय नहीं था।
वोर्गेल्ट की उँगलियाँ मेरे कपाल से महज छह इंच की दूरी पर थीं।
ठन् ठन् ठन्!

एक आवाज सुनकर मेरी निगाह दाईं तरफ फिरी। वोर्गेल्ट ने भी गोया घबड़ाकर अपनी गरदन घुमाई। उसके बाद एक गजब की, विश्वास न करने योग्य घटना घटी। लेबोरेटरी के दरवाजे से होकर हमारे कमरे में मेरे ही हाथ का बनाया हुआ मशीनी आदमी रोबू आ पहुँचा। उसकी आँखें वही ऐंचाताने की। उसके मुँह पर वही मेरी दी हुई हँसी।

पलक मारने-भर की देर में इस्पात की आँधी की नाई आगे बढ़कर उसने अपने दोनों हाथों से वोर्गेल्ट को कसकर पकड़ लिया।
उसके बाद जो गुजरा उस जैसी अजीब और वीभत्स बात मैंने और कभी नहीं देखी।

रोबू के हाथों के दबाव से वोर्गेल्ट का सिर बिलकुल पेंच-जैसा पीठ की तरफ घूम गया। उसके बाद रोबू के ही खींचने से वह सिर धड़ से एकबारगी अलग होकर जमीन पर छिटककर जा गिरा और शरीर के अन्दर से गले की फाँक में से बिजली के तारों का एक ढेर निकल पड़ा।
मुझसे और खड़ा नहीं रहा गया। अवश, अचेत-सा धप्प से सोफे पर बैठ गया। आँखें, मन, मस्तिष्क, मेरा सब मानो चौंधिया गया था।
प्रायः बेहोशी की हालत में मैंने समझा, सीढ़ी की तरफ के दरवाजे पर धक्का पड़ रहा है।
"शंकू, दरवाजा खोलो, दरवाजा खोलो।" आवाज पामर की थी।

एकाएक मेरी शक्ति और होश जैसे लौट आया। सोफे से झटपट उठा। दौड़कर जाकर दरवाजा खोला, जो देखा तीन आदमी हैं-पामर, वोर्गेल्ट का बूढ़ा नौकर रुडी और हाँ, कोई शक नहीं, तीसरे थे असली वैज्ञानिक गाटफ्रीड वोर्गेल्ट!

इसके बाद की घटना ज्यादा कुछ नहीं। मेरे मन के कई प्रश्नों में पामर की बात से एक पल में साफ हो गया-

"उस दिन आधी रात को लेबोरेटरी में दाखिल होकर मैंने तुम्हारे रोबू के माथे के अन्दर अपना आविष्कार किया हुआ एक यन्त्र भर दिया था। उसके फलस्वरूप तुमसे उसके मन का एक टेलिपैथिक योग हो गया था। तुम पर आफत आई है, यह जानकर वह चुप खड़ा नहीं रह सका।"

वोर्गेल्ट ने कहा, "इन यान्त्रिक मनुष्यों का यन्त्र जैसा होना ही ठीक है। अपने रोबो को मैंने इतना ज्यादा अपने जैसा बना दिया था कि वह मुझे और बरदाश्त नहीं कर सका। उसने यह नहीं चाहा कि ठीक उसी के जैसा और कोई दूसरा रहे। सोचा था, मेरी मृत्यु के बाद वह मेरा काम चलाता जाएगा, मगर ब्रेन की मति-गति को क्या आदमी ठीक रख सकता है? मैंने जैसे ही उसका बन्धन खोल दिया, उसने मुझे कैद कर दिया। उसने मुझे मारा नहीं, इसलिए कि वह जानता था, बिगड़ जाने पर उसके लिए मेरे सिवाय कोई गति नहीं है।"

पामर ने कहा, "रुडी सबकुछ जानता था, लेकिन डर के मारे वह कुछ कर नहीं सकता था। फोन का यह चकमा रुडी की ही कारसाजी थी। उसने यह चाहा था कि मुझे बाहर बुलाकर वह वोर्गेल्ट के कैद होने की बात बताए। उसके बाद दोनों मिलकर उसे उद्धार करने की कोशिश करें। इसी बीच में आपकी जिन्दगी ऐसे खतरे में पड़ जाएगी, यह मैं सोच नहीं सका था।"

एक चीज समझ में आने से मेरा मन खुशी से भर गया। मैंने कहा, "रोबू ने उस दिन वोर्गेल्ट का नाम क्यों नहीं बताया, समझ रहे हैं न? जो दरअसल वोर्गेल्ट नहीं है, वह उसका नाम वोर्गेल्ट कैसे बोलता? हम लोग नहीं समझ सके थे, लेकिन उसने ठीक समझ लिया था। यन्त्र ही यन्त्र को ठीक-ठीक पहचानता है।"

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