प्रेमजोगिनी : भारतेंदु हरिश्चंद्र

Prem Jogini : Bharatendu Harishchandra

काशी के छायाचित्र या दो भले बुरे फोटोग्राफ नाम से प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ था। हरश्चिंद्र चंद्रिका में इसका प्रकाशन 1874 ई. से आरम्भ हुआ था। प्रस्तुत पाठ ‘चंद्रिका’ के अनुसार है।

बैठ कर सैर मुल्क की करना
यह तमाशा किताब में देखा ।।

प्रेमजोगिनीं ।। नाटिका ।।
श्रीहरिश्चन्द्रलिखिता

नान्दी मंगलपाठ करता है-
भरित नेह नवनीर नित बरसत सुरस अथोर।
जयति अपूरब धन कोऊ लखि नाचत मन मोर ।।
और भी-
जिन तृन सम किय जानि जिय कठिन जगत जंजाल।
जयतु सदा सो ग्रंथ कवि प्रेमजोगिनी बाल ।।
(मलिन मुख किए सूत्रधार और पारिपाश्र्वक आते हैं)
सू : (नेत्रों से आँसू पोंछ और ठंडी साँस भरकर) हा! कैसे ईश्वर पर विश्वास आवै।
पा : मित्र आज तुह्मैं क्या हो गया है और क्या बकते हो और इतने उदास क्यों हो।
(नेत्रों से जल की धारा बहती है और रोकने से भी नहीं रुकती)
पा : (अपने गले में सूत्रधार को लगाकर और आँसू पोंछकर) मित्र आज तुह्मै हो क्या गया है? यह क्या सूझी है? क्या आज लोगों को यही तमाशा दिखाओगे।
सू : हो क्या गया है क्या मैं झूठ कहता हूँ-इस्से बढ़कर और दुःख का विषय क्या होगा कि मेरा आज इस जगत् के कत्र्ता और प्रभु पर से विश्वास उठा जाता है और सच है क्यों न उठे यदि कोई हो तब न उठे हा! क्या ईश्वर है तो उसके यही काम हैं जो संसार में हो रहे हैं? क्या उसकी इच्छा के बिना भी कुछ होता है? क्या लोग दीनबन्धु दयासिन्धु उसको नहीं कहते? क्या माता पिता के सामने पुत्र की स्त्री के सामने पति की और बन्धुओं के सामने बन्धुओं की मृत्यु उसकी इच्छा बिना ही होती है। क्या सज्जन लोग विद्यादि सुगुण से अलंकृत होकर भी उसके इच्छा बिना ही दुखी होते हैं और दुष्ट मूर्खों के अपमान सहते हैं, केवल प्राण मात्र नहीं त्याग करते पर उनकी सब गति हो जाती है, क्या इस कमलवनरूप भारत भूमि को दुष्ट गजों ने उसकी इच्छा बिना ही छिन्न भिन्न कर दिया? क्या जब नादिर चंगेज खाँ जैसे ऐसे निर्दयों ने लाखों निर्दोषी जीव मार डाले तब वह सोता था? क्या अब भारतखंड के लोग ऐसे कापुरुष और दीन उसकी इच्छा के बिना ही हो गए? हा! (आँसू बहते हैं लोग कहते हैं कि ये यह उसके खेल हैं। छिः ऐसे निर्दय को भी लोग दयासमुद्र किस मुँह से पुकारते हैं?)
पा : इतना क्रोध एक साथ मत करो। यह संसार तो दुःख रूप आप ही है इसमें सुख का तो केवल आभास मात्र है।
सू : आभासमात्र है तो-फिर किसने यह बखेड़ा बनाने कहा था और पचड़ा फैलाने कहा था, उस पर भी न्याव करने और कृपालु बनने का दावा (आँख भर आती है)।
पा : आज क्या है? किस बात पर इतना क्रोध किया है भला यहाँ ईश्वर का निर्णय करने आए हौ कि नाटक खेलने आए हौ?
सू : क्या नाटक खेलैं क्या न खेलैं ले इसी खेल ही में देखो। क्या सारे संसार के लोग सुखी रहें और हम लोगों का परम बन्धु पिता मित्र पुत्र सब भावनाओं से भावित, प्रेम की एकमात्र मूर्ति, सत्य का एक मात्र आश्रय, सौजन्य का एकमात्र पात्र, भारत का एकमात्र हित, हिन्दी का एकमात्र जनक, भाषा नाटकों का एकमात्र जीवनदाता, हरिश्चन्द्र ही दुखी हो (नेत्रों में जल भर कर) हा सज्जनशिरोमणे! कुछ चिन्ता नहीं तेरा तो बाना है कि कितना ही भी ‘दुख हो उसे सुख ही मानना’ लोभ के परित्याग के समय नाम और कीत्र्ति तक का परित्याग कर दिया है और जगत से विपरीत गति चलके तूने प्रेम की टकसाल खड़ी की है। क्या हुआ जो निर्दय ईश्वर तुझे प्रत्यक्ष आकर अपने अंक में रख कर आदर नहीं देता और खल लोग तेरी नित्य एक नई निन्दा करते हैं और तू संसारी वैभव से सूचित नहीं है। तुझे इनसे क्या, प्रेमी लोग जो-तैरे और तू जिन्हें सरबस है वे जब जहाँ उत्पन्न होंगे तेरे नाम को आदर से लेंगे और तेरी रहन सहन को अपनी जीवन पद्धति समझेंगे (नेत्रों से आँसू गिरते हैं) मित्र! तुम तो दूसरों का अपकार, और अपना उपकार दोनों भूल जाते हौ तुम्हैं इनकी निन्दा से क्या इतना चित्त क्यों क्षुब्ध करते हौ स्मरण रक्खो ये कीड़े ऐसे ही रहैंगे और तुम लोक बहिष्कृत होकर भी इनके सिर पर पैर रख के बिहार करोगे, क्या तुम अपना वह कवित्त भूल गए-”कहैंगे सबैं ही नैन नीर भरिभरि पाछे प्यारे हरिचंद की कहानी रहि जायगी“ मित्र मैं जानता हूँ कि तुम पर सब आरोप व्यर्थ है; हा! बड़ा विपरीत समय है (नेत्रों से आँसू बहते हैं)।
पा : मित्र, जो तुम कहते हौ सो सब सत्य है पर काल भी तो बड़ा प्रबल है। कालानुसार कम्र्म किए बिना भी तो काम नहीं चलता।
सू : हाँ न चलै तो हम लोग काल के अनुसार चलैंगे,-कुछ वह लोकोत्तर चरित्र थोड़े ही काल के अनुसार चलैगा।
पा : पर उसका परिणाम क्या होगा?
सू : क्या कोई परिणाम होना अभी बाकी है? हो चुका जो होना था।
पा : तो फिर आज जो ये लोग आए हैं सो यही सुनने आए हैं?
सू : तो ये सब सभासद तो उसके मित्र वर्गों में हैं और जो मित्रवर्गों में नहीं है उनका जी भी तो उसी की बातों में लगता है ये क्यौं न इन बातों को आनन्दपूव्र्वक सुनैंगे।
पा : परन्तु मित्र बातों ही से तो काम न चलैगा न। देखो ये हिंदी भाषा में नाटक देखने की इच्छा से आए हैं इन्हें कोई खेल दिखाओ।
सू : आज मेरा चित्त तो उन्हीं के चरित्र में मगन है आज मुझे और कुछ नहीं अच्छा लगता।
पा : तो उनके चरित्र के अनुरूप ही कोई नाटक करो।
सू : ऐसा कौन नाटक है यों तो सभी नायकों के चरित्र किसी किसी विषय में उससे मिलते हैं पर आनुपूव्र्वी चरित्र कैसे मिलैगा।
पा : मित्र मृच्छकटिक हिन्दी में खेलो क्योंकि! उसके नायक चारुदत्त का चरित्रमात्र इनसे सब मिलता है केवल बसन्तसेना और राजा की हानि है।
स : तो फिर भी आनुपूव्र्वी न हुआ और पुराने नाटक खेलने इनका जी भी न लगैगा कोई नया खेलैं।
पा : (स्मरण करके) हाँ हाँ वह नाटक खेलौ जो तुम उस दिन उद्यान में उनसे सुनते थे,-वह उनके और इस घोर काल के बड़ा ही अनुरूप है उसके खेलने से लोगों का वर्तमान समय का ठीक नमूना दिखाई पड़ेगा और वह नाटक भी नई पुरानी, दोनों रीति मिलके बना है।
सू : हाँ हाँ प्रेमजोगिनी-अच्छी सुरत पड़ी-तो चलो यों ही सही इसी बहाने उसका स्मरण करैं।
पा : चलो ।। (दोनों जाते हैं)
अद्ध्र्र जवनिका पतन
।। इति प्रस्तावना ।।

प्रथम अंक

पहिले गर्भांक के पात्र
टेकचंद : एक महाजन बनिये
छक्कूजी : ऐ
माखनदास : वैष्णव बनियाँ
धनदास 
बनितादास 
मिश्र : कीर्तन करने वाला
झापटिया : कोड़ा मारकर मंदिर की भीड़ हटाने वाला
जलघरिया : पानी भरने वाला
बालमुकुन्द 
मलजी 
रामचन्द्र : नायक
दो गुजराती

पहिला गर्भांक

स्थान - मंदिर का चौक
(झपटिया इधर उधर घूम रहा है)
झ : आज अभी कोई दरसनी परसनी नाहीं आयें और कहाँ तक अभहिंन तक मिसरो नहीं आयें अभहीं तक नींद न खुली होइहै। खुलै कहाँ से आधी रात तक बाबू किहाँ बैठ के ही ही ठी ठी करा चाहैं फिर सबेरे नींद कैसे खुलै।
(दोहर माथे में लपेटे आँखें मलते मिश्र आते हैं-देखकर)
झ : का हो मिसिरजी तोरी नींद नहीं खुलती देखो शंखनाद होय गवा मुखिया जी खोजत रहे।
मि : चले त्तो आई थे; अधियै रात के शंखनाद होय तो हम का करै तोरे तरह से हमहू के घर में से निकस के मंदिर में घुस आवना होता तो हमहू जल्दी अउते। हियाँ तो दारानगर से आवना पड़त है। अबहीं सुरजौ नाहीं उगे।
झ : भाई सेवा बड़ी कठिन है, लोहे का चना चबाए के पड़थै, फोकटै थोरे होथी।
मि : भवा चलो अपना काम देखो। (बैठ गया)
(स्नान किये तिलक लगाये दो गुजराती आते हैं)
पहिला : मिसिरजी जय श्रीकृष्ण कहो का समय है।
मि : अच्छी समय है मंगला की आधी समय है बैठो।
प : अच्छा मथुरादास जी वैसी जाओ। (बैठते हैं)
(धोती ओढ़े छक्कूजी आते हैं और उसी बेस से माखनदास भी आये)
छ : (माखनदास की ओर देखकर) काहो माखनदास एहर आवो।
मा : (आगे बढ़कर हाथ जोड़कर) जै सी किष्ण साहब।
छ : जै श्रीकृष्ण बैठो कहो आलकल बाबू रामचंद का क्या हाल है।
मा : हाल जौन है, तौन आप जनतै हौ, दिन दूना रात चौ गूना। अभईं कल्हौ हम ओ रस्ते रात के आवत रहे तो तबला ठनकत रहा। बस रात दिन हा हा ठी ठी बहुत भवा दुइ चार कवित्त बनाय लिहिन बस होय चुका।
छ : अरे कवित्त तो इनके बापौ बनावत रहे कवित्त बनावै से का होथै और कवित्त बनावना कुछ अपने लोगन का काम थोरै हय ई भाँटन का काम है।
मा : ई तो हुई है पर उन्हैं तो अैसी सेखी है कि सारा जमाना मूरख है और मैं पंडित थोड़ा सा कुछ पढ़ वढ़ लिहिन हैं।
छ : पढ़िन का है पढ़ा वढ़ा कुछ भी नहिनी, एहर ओहर की दुइ चार बात सीख लिहिन किरिस्तानी मते की अपने मारग की बात तो कुछ जनबै नाहीं कर्तें अबहीं कल के लड़का हैं।
मा : और का।
(बालमुकुन्द औ मलजी आते हैं)
दोनों : (छक्कू की ओर देखकर) जय श्रीकृष्ण बाबू साहब। 
छ : जय श्रीकृष्ण, आओ बैठो कहो नहाय आयो।
बा : जी भय्या जी का तो नेम है कि बडे़ सबेरे नहा कर फूलघर में जाते हैं तब मंगला के दर्शन करके तब घर में जायकर सेवा में नहाते हैं और मैं तो आज कल कार्तिक के सबब से नहाता हूँ तिस पर भी देर हो जाती है रोकड़ मेरे जिम्मे काकाजी ने कर रक्खा है इससे बिध बिध मिलाते देर हो जाती है फिर कीर्तन होते प्रसाद बँटते ब्यालू बालू कुर्ते बारह कभी एक बजते हैं।
छ : अच्छी है जो निबही जाय कहो कातिक नहाये बाबू रामचंद जाथें कि नाहीं!
बा : क्यों जाते क्यों नहीं अब की दोनों भाई जाते हैं कभी दोनों साथ कभी आगे पीछे कभी इनके साथ मसाल कभी उनके मुझको अकशर करके जब मैं जाता हूँ तब वह नहाकर आते रहते हैं।
छ : मसाल काहे ले जाथै मेहरारुन का मुँह देखै के?
बा : (हँसकर) यह मैं नहीं कह सकता।
छ : कहो मलजी आज फूलघर में नाहीं गयो हिंअई बैठ गयो?
म : आज देर हो गई दर्शन करके जाऊँगा।
छ : तोरे हियाँ ठाकुर जी जागे होहिहैं कि नाहीं?
म : जागे तो न होंगे पर अब तैयारी होगी मेरे हियाँ तो स्त्रिाये जगाकर मंगल भोग धर देती है। फिर जब मैं दर्शन करके जाता हूँ तो भोग सरासर आरती कत्र्ता हूँ।
छ : कहो तोसे रामचंद्र से बोलाचाली है कि नाहीं?
म : बोलचाल तो मैं पर अब यह बात नहीं है आगे तो दर्शन करने का सब उत्सवों पर बुलावा आता था अब नहीं आता तिस्में बड़े साहब तो ठीक ठीक, छोटे चित्त के बड़े खोटे हैं।
(नेपथ्य में)
गरम जल की गागर लाओ।
झ : (गली की ओर देखकर जोर से) अरे कौन जलघरिया है एतनी देर भई अभहीं तोरे गागर लिआवै को बखत नाहीं भई?
(सड़सी से गरम जल की गगरी उठाये सनिया लपेटे जलघरिया आता है।)
झ : कहो जगेसर ई नाहीं कि जब शंखनाद होय तब झटपट अपने काम से पहुँच जावा करो।
ज : अरे चल्ले तो आवथई का भहराय पड़ीं का सुत्तल थोड़े रहली हमहूँ के झापट कंधे पर रख के एहर ओहर घूमै के होत तब न। इहाँ तो गगरा ढोवत कंधा छिल जाला। (यह कहकर जाता है)
(मैली धोती पहिने दोहर सिर में लपेटे टेकचंद आए)
टे : (मथुरादास की ओर देखकर) कहो मथुरादास जी रूडा छो?
म : हाँ साहब, अच्छे हैं। कहिए तो सही आप इतने बड़े उच्छव में कलकत्ते से नहीं आए। हियाँ बड़ा सुख हुआ था, बहुत्त से महाराज लोग पधारे थे। षट रुत छपन भोग में बडे़ आनंद हुए।
टे : भाई साहब, अपने लोगन का निकास घर से बड़ा मुसकिल है। येक तो अपने लोगन का रेल के सवारी से बड़ा बखेड़ा पड़ता है, दूसरे जब जौन काम के वास्ते जाओ जब तक ओका सब इन्तजाम न बैठ जाय तब तक हुँवा जाए से कौन मतलब है और कौन सुख तो भाई साहब श्री गिरिराज जी महाराज के आगे जो देखा है सो अब सपने में भी नहीं है। अहा! वह श्री गोविंदराय जी के पधारने का सुख कहाँ तक कहें।
(धनदास और बनितादास आते हैं)
ध : कहो यार का तिगथौ?
व : भाई साहेब, थोड़ी देर से देख रहे हैं, कोई पंच्छी नजर नाहीं आया।
ध : भाई साहेब, अपने तो ऊ पच्छी काम का जे भोजन सोजन दूनो दे।
ब : तोहरे सिद्धांत से भाई साहेब काम तो नहीं चलता।
ध : तबै न सुरमा घुलाय के आँख पर चरणामृत लगाए हौ जे में पलक बाजी खूब चले, हाँ एक पलक एहरो।
ब : (हँसकर) भाई साहेब अपने तो वैष्णव आदमी हैं, वैष्णविन से काम रक्खित है।
ध : तो भला महाराज के कबौं समर्पन किए हौ कि नाहीं?
ब : कौन चीज?
ध : अरे कोई चौकाली ठुल्ली मावड़ी पामरी ठोली अपने घरवाली।
ब : अरे भाई गोसाँइयन पर तो ससुरी सब आपै भइराई पड़ थीं पवित्र होवै के वास्ते, हमका पहुँचौबे।
ध : गुरु इन सबन का भाग बड़ा तेज है, मालो लूटै मेहररुवो लूटैं।
ब : भाई साहब, बड़ेन का नाम बेचथैं और इन सबन में कौन लच्छन हैं, न पढ़ना जानैं न लिखना, रात दिन हा हा ठी ठी यै है कि और कुछ?
ध : और गुरु इनके बदौलत चार जीवन के और चौन है एक तो भट दूसरे इनके सरबस खबा तिसरे बिरकत और चौथी बाई।
ब : कुछ कहै की बात नाहीं है। भाई मंदिर में रहै से स्वर्ग में रहै। खाए के अच्छा पहिरै के परसादी से महाराज कव्वौ गाढ़ा तो पहिरबै न करियैं, मलमल नागपुरी ढाँकै पहिरियैं, अतरै फुलेल केसर परसादी बीड़ा चाभो सब से सेवकी ल्यौ, ऊपर से ऊ बात का सुख अलगै है।
ध : क्या कहैं भाई साहब हमरो जनम हियँई होता।
ब : अरे गुरु गली गली तो मेहरारू मारी फिरथीं तौहें एहू पर रोनै बना है। अब तो मेहरारू टके सेर हैं। अच्छे अच्छे अमीरनौ के घर की तो पैसा के वास्ते हाथ फैलावत फिरथीं।
ध : तो गुरु हम तो ऊ तार चाही थै जहाँ से उलटा हमैं कुछ मिलै।
ब : भाग होय तो ऐसिसो मिल जायँ। देखो लाड़लीप्रसाद के और बच्चू के ऊ नागरानी और बम्हनिया मिली हैं कि नाहीं!
ध : गुरु, हियों तो चाहे मूड़ मुड़ाये हो चाहे मुँह में एक्को दाँत न होय पताली खोल होय, पर जो हथफेर दे सो काम की।
ब : तोहरी हमारी राय ई बात में न मिलिये।
(रामचन्द्र ठीक इन दोनों के पीछे का किवाड़ खोलकर आता है)
छ : (धीरे से मुँह बना के) ई आएँ। (सब लोगों से जय श्री कृष्ण होती है)।
बा : (रामचंद्र को अपने पास बैठाकर) कहिए बाबू साहब आजकल तो आप मिलते ही नहीं क्या खबगी रहती है?
रा : भला आप ऐसे मित्र से कोई खफा हो सकता है? यह आप कैसी बात करते हैं?
बा : कार्तिक नहाना होता है न?
रा : (हँसकर) इसमें भी कोई सन्देह है!
बा : हँहँहँ फिर आप तो जो काम करैंगे एक तजबीज के साथ ऐं।
(रामचन्द्र का हाथ पकड़ के हँसता है)
रा : भाई ये दोनों (धनदास और बनितादास को दिखाकर) बड़े दुष्ट हैं। मैं किवाड़ी के पीछे खड़ा सुनता था। घंटों से ये स्त्रियों ही की बात करते थे।
बा : यह भवसागर है। इसमें कोई कुछ बात करता है, कोई कुछ बात करता है। आप इन बातों का कहाँ तक खयाल कीजिएगा ऐं! कहिए कचहरी जाते हैं कि नहीं?
रा : जाते हैं कभी कभी-जी नहीं लगता, मुफत की बेगार और फिर हमारा हरिदास बाबू का साथ कुकुर झौंझो, हुज्जते-बंगाल माथा खाली कर डालते हैं। खांव खांव करके, थूँथ थूँथ के, बीभत्स रस के आलंबन, सूर्यनंदन-
बा : (हँसकर) उपमा आप ने बहुत अच्छी दिया और कहिए और अंधरी मजिसटरों का क्या हाल है?
रा : हाल क्या है सब अपने अपने रंग में मस्त हैं। काशी परसाद अपना कोठीवाली ही में लिखते हैं सहजादे साहब तीन घंटे में इक सतर लिखते हैं उसमें भी सैंकड़ों गलती। लक्ष्मीसिंह और शिवसिंह अच्छा काम करते हैं और अच्छा प्रयागलाल भी करते हैं, पर वह पुलिस के शत्रु हैं। और विष्णुदास बड़े बवददपदह बींच हैं। दीवानराम हुई नहीं, बाकी रहे फिजिशियन सो वे तो अँगरेज ही हैं, पर भाई कई मूर्खों को बड़ा अभिमान हो गया है, बात बात में तपाक दिखाते और छः महीने को भेज दूँगा कहते हैं।
बा : मैं कनम चाप नहीं समझा।
रा : कनिंग चौप माने कुटीचर!
(नेपथ्य में)
श्री गोविंदराय जी की श्री मंगला खुली (सब दौड़ते हैं)
(परदा गिरता है)
इति मंदिरादर्श नामक प्रथम गर्भांक

दूसरा गर्भांक

दूसरे गर्भांक के पात्र
दलाल
गंगापुत्र तीर्थस्थ ब्राह्मण
भंडेरिया लिंगिया
दुकानदार
सुधाकर रामचंद (नाटक के नायक) का मुसाहब
झूरी सिंह बदमाश
परदेसी
स्थान-गैबी, पेड़, कुआं, पास बावली
(दलाल, गंगापुत्र, दुकानदार, भंडेरिया और झुरीसिंह बैठे हैं)
द : कहो गहन यह कैसा बीता? ठहरा भोग बिलासी-
माल वाल कुछ मिला, या हुआ कोरा सत्यानाशी?
कोई चूतिया फँसा या नहीं? कोरे रहे उपासी?
ग : मिलै न काहे भैया, गंगा मैया दौलत दासी ।।
हम से पूत कपूत की दाता मनकनिका सुखरासी।
भूखे पेट कोई नहिं सुतता, ऐसी है ई कासी ।।
दू : परदेसियौ बहुत रहे आए?
ग : और साल से बढ़कर।
भ : पितर सौंदनी रही न अमसिया,
झू : रंग है पुराने झंझर ।।
खूब बचा ताड़ो, का कहना,
तूँ हौ चूतिया हंटर।
भ : हम न तड़वै तो के तड़िये? यही तो किया जनम भर ।।
द : जो हो, अब की भली हुई यह अमावसी पुनवासी।
ग : भूखे पेट कोई नहिं, सुतता, ऐसी है ई कासी ।।
झू : यार लोग तो रोजै कड़ाका करथैं ऐ पैजामा।
ग : ई तो झूठ कहौ, सिंहा,
झू : तू सच बोल्यो, मामा ।।
ग : तोहैं का, तू मार पीट के करथौ अपना कामा।
कोई का खाना, कोई की रंडी, कोई का पगड़ी जामा ।।
झू : ऊ दिन खीपट दूर गए अब सोरहो दंड एकासी।
ग : भूखे पेट कोई नहिं सुतता, ऐसी है ई कासी ।।
झू : जब से आए नए मजिस्टर तब से आफत आई।
जान छिपावत फिरीथै खटमल-
दू : ई तो सच है भाई ।।
झू : ई है ऐसा तेज गुरू बरसन के लिए देथै लदाई।
गोविन पालक मेकलौडो से एकी जबर दोहाई ।।
जान बचावत छिपत फिरीथै घुस गई सब बदमासी।
ग : भूखे पेट तो कोइ नहिं सुतता, ऐसी है ई कासी ।।
झू : तोरे आँख में चरबी छाई माल न पाया गोजर।
कैसी दून की सूझ रही है आसमानों के उप्पर ।।
तर न भए हौ पैदा करके, धर के माल चुतरे तर।
बछिया के बाबा, पँडिया के ताऊ, घुसनि के घुसघुस झरझर ।।
कहाँ की ई तूँ बात निकास्यो खासी सत्यानासी।
भूखे पेट कोई नहिं सुतता, ऐसी है ई कासी ।।
(गाता हुआ एक परदेसी आता है)
प : देखी तुमरी कासी, लोगो, देखी तुमरी कासी।
जहाँ विराजैं विश्वनाथ विश्वेश्वरी अविनासी ।।
आधी कासी भाट भंडोरिया बाम्हन औ संन्यासी।
आधी कासी रंडी मुंडी राँड़ खानगी खासी ।।
लोग निकम्मे भंगी गंजड़ लुच्चे बे-बिसवासी।
महा आलसी झूठे शुहदे बे-फिकरे बदमासी ।।
आप काम कुछ कभी करैं नहिं कोरे रहैं उपासी।
और करे तो हँसैं बनावैं उसको सत्यानासी ।।
अमीर सब झूठे और निंदक करें घात विश्वासी।
सिपारसी डरपुकने सिट्टई बोलैं बात अकासी ।।
मैली गली भरी कतवारन सड़ी चमारिन पासी।
नीचे नल से बदबू उबलै मनो नरक चौरासी ।।
कुत्ते भूँकत काटन दौड़ैं सड़क साँड़ सों नासी।
दौड़ैं बंदर बने मुछंदर कूदैं चढ़े अगासी ।।
घाट जाओ तो गंगापुत्तर नोचैं दै गल फाँसी।
करैं घाटिया बस्तर-मोचन दे देके सब झाँसी ।।
राह चलत भिखमंगे नोचैं बात करैं दाता सी।
मंदिर बीच भँड़ेरिया नोचैं करैं धरम की गाँसी ।।
सौदा लेत दलालो नोचैं देकर लासालासी।
माल लिये पर दुकनदार नोचैं कपड़ा दे रासी ।।
चोरी भए पर पूलिस नोचैं हाथ गले बिच ढांसी।
गए कचहरी अमला नोचैं मोचि बनावैं घासी ।।
फिरैं उचक्का दे दे धक्का लूटैं माल मवासी।
कैद भए की लाज तनिक नहिं बे-सरमी नंगा सी ।।
साहेब के घर दौड़े जावैं चंदा देहि निकासी।
चढ़ैं बुखार नाम मंदिर का सुनतहि होंय उदासी ।।
घर की जोरू लड़के भूखे बने दास औ दासी।
दाल की मंडी रंडी पूजै मानो इनकी मासी ।।
आप माल कचरैं छानैं उठि भोरहिं कागाबासी।
बाप के तिथि दिन बाम्हन आगे धरैं सड़ा औ बासी ।।
करि बेवहार साक बांधैं बस पूरी दौलत दासी।
घालि रुपैया काढ़ि दिवाला माल डेकारैं ठांसी ।।
काम कथा अमृत सी पीयैं समुझैं ताहि विलासी।
रामनाम मुंह से नहिं निकसै सुनतहि आवै खांसी ।।
देखी तुमरी कासी भैया, देखी तुमरी कासी।
झू : कहो ई सरवा अपने शहर की एतनी निन्दा कर गवा तूं लोग कुछ बोलत्यौ नाहीं?
गं : भैया, अपना तो जिजमान है अपने न बोलैंगे चाहे दस गारी भी दे ले।
भं : अपनो जिजमानै ठहरा।
द : और अपना भी गाहकै है।
दू : आर भाई हमहूँ चार पैसा एके बदौलत पावा है।
झू : तूं सब का बोलबो तूं सब निरे दब्बू चप्पू हौ, हम बौलबै। (परदेसी से) ए चिड़ियावाली के परदेसी फरदेसी। कासी की बहुत निन्दा मत करो मुँह बस्सैये का कहैं के साहिब मजिस्टर हैं नाहीं तो निन्दा करना निकास देते।
प : निकास क्यों देते? तुमने क्या किसी का ठीका लिया है?
झू : हाँ हाँ, ठीका लिया है मटियाबुर्ज।
प : तो क्या हम झूठ कहते हैं?
झू : राम राम तू भला कबौं झूठ बोलबो तू तो निरे पोथी के बेठन हौ।
प : बेठन क्या।
झू : बे ते मत करो गप्पों के, नाहीं तो तोरी अरबी फारसीं घुसेड़ देवै।
प : तुम तो भाई अजब लड़ाके हो, लड़ाई मोल लेते फिरते हौ। वे ते किसने किया है? यह तो अपनी अपनी राय है कोई किसी को अच्छा कहता है कोई बुरा कहता है। इससे बुरा क्या मानना।
झू : सच है पनचोरा, तू कहै सो सच्च, बुढ्ढी तू कहे सो सच्च।
प : भाई अजब शहर है, लोग बिना बात ही लडे़ पड़ते हैं।
(सुधाकर आता है)
(सब लोग आशीर्वाद, दंडवत, आओ आओ शिष्टाचार करते हैं)
गं : भैया इनके दम के चौन है। ई अमीरन के खेलउना हैं।
झू : खेलउना का हैं टाल खजानची खिदमतगार सबै कुछू हैं।
सु : तुम्हैं साहब चर्रिये बूकना आता है।
झू : चर्री का, हमहन झूठ बोलील; अरे बखत पड़े पर तूँ रंडी ले आव; मंगल के मुजरा मिले ओेमें दस्तूरी काट; पैर दाबः रुपया पैसा अपने पास रक्खः यारन के दूरे से झाँसा बतावः। ऐ! ले गुरु तोहीं कहः हम झूठ कहथई।
गं : अरे भैया बिचारे ब्राह्मण कोई तरह से अपना कालच्छेप करथै ब्राह्मण अच्छे हैं।
भं : हाँ भाई न कोई के बुरे में न भले में और इनमें एक बड़ी बात है कि इनकी चाल एक रंगै हमेसा से देखी थै।
गं : और साहेब एक अमीर के पास रहै से इनकी चार जगह जान पहिचान होय गई। अपनी बात अच्छी बनाय लिहिन हैं।
दू : हाँ भाई बाजार में भी इनकी साक बँधी है।
सु : भया भया यह पचड़ा जाने दो, हो यह नई मूरत कौन है?
झू : गुरु साहब हम हियाँ भाँग का रगड़ा लगावत रहें बीच में गहन के मारे-पीटे ई धूआँकस आय गिरे।
आके पिंजडे़ में फँसा अब तो पुराना चंडूल।
लगी गुलसन की हवा दुम का हिलाना गया भूल ।।
(परदेशी के मुँह के पास चुटकी बजाता है और नाक के पास से उँगली लेकर दूसरे हाथ की उँगली पर घुमाता है)
प : भाई तुम्हारे शहर सा तुम्हारा ही शहर है, यहाँ की लीला ही अपरंपार है।
झू : तोहूँ लीला करथौ।
प : क्या?
झू : नहीं ई जे तोहूँ रामलीला में जाथौ कि नाहीं?
(सब हँसते हैं)
प : (हाथ जोड़कर) भाई तुम जीते हम हारे, माफ करो।
झू : (गाता है) तुम जीते हम हारे साधो तुम जीते हम हारे।
सु : (आप ही आप) हा! क्या इस नगर की यही दशा रहेगी? जहाँ के लोग ऐसे मूर्ख हैं वहाँ आगे किस बात की वृद्धि की संभावना करें। केवल इस मूर्खता छोड़ इन्हें कुछ आता ही नहीं! निष्कारण किसी को बुरा भला कहना। बोली ही बोलने में इनका परम पुरुषार्थ! अनाब शनाब जो मुँह से आया बक उठे न पढ़ना न लिखना! हाय! भगवान् इनका कब उद्धार करैगा!!
झू : गुरु, का गुड़बुड़-गुड़बुड़ जपथौ?
सु : कुछ नाहीं भाई यही भगवान का नाम।
झू : हाँ भाई, भई एह बेरा टें टें न किया चाहिए रामराम की बखत भई तो चलो न गुरू।
सब : चलो भाई।
(जवनिका गिरती है) (इति गैबी ऐबी नामक दूसरा गर्भ अंक)

तीसरा गर्भांक

स्थान-मुगलसराय का स्टेशन
(मिठाई वाले, खिलौने वाले, कुली और चपरासी इधर उधर फिरते हैं। 
सुधाकर एक विदेशी पंडित और दलाल बैठे हैं)
द : (बैठ के पान लगाता है) या दाता राम! कोई भगवान से भेंट कराना।
वि. पं. : (सुधाकर से)-आप कौन हैं। कहाँ से आते हैं।
सु : मैं ब्राह्मण हूँ, काशी में रहता हूँ और लाहोर से आता हूँ।
वि. पं : क्या आपका घर काशी ही जी में है?
सु : जी हाँ।
वि. पं : भला काशी कैसा नगर है?
सु : वाह! आप काशी का वृत्तान्त अब तक नहीं जानते भला त्रौलोक्य में और दूसरा ऐसा कौन नगर है जिसको काशी की समता दी जाय।
वि. पं. : भला कुछ वहाँ की शोभा हम भी सुनैं?
सु : सुनिए, काशी का नामांतर वाराणसी है जहाँ भगवती जद्द नंदिनी उत्तरवाहिनी होकर धनुषाकार तीन ओर से ऐसी लपटी हैं मानो इसको शिव की प्यारी जानकर गोद में लेकर आलिंगन कर रही हैं, और अपने पवित्र जलकण के स्पर्श से तापत्रय दूर करती हुई मनुष्यमात्र को पवित्र करती हैं। उसी गंगा के तट पर पुण्यात्माओं के बनाए बड़े-बड़े घाटों के ऊपर दोमंजिले, चौमंजिले, पँचमंजिले और सतमंजिले ऊँचे ऊँचे घर आकाश से बातें कर रहे हैं मानो हिमालय के श्वेत शृंग सब गंगा सेवन करने को एकत्र हुए हैं। उसमें भी माधोराय के दोनों धरहरे तो ऐसे दूर से दिखाई देते हैं मानों बाहर के पथिकों को काशी अपने दोनों हाथ ऊँचे करके बुलाती है। साँझ सबेरे घाटों पर असंख्य स्त्री पुरुष नहाते हुए ब्राह्मण लोग संध्या का शास्त्रार्थ करते हुए, ऐसे दिखाई देते हैं मानो कुबेरपुरी की अलकनंदा में किन्नरगण और ऋषिगण अवगाहन करते हैं, और नगाड़ा नफीरी शंख घंटा झांझस्तव और जय का तुमुल शब्द ऐसा गूंजता है मानों पहाड़ों की तराई में मयूरों की प्रतिध्वनि हो रही है, उसमें भी जब कभी दूर से साँझ को वा बड़े सबेरे नौबत की सुहानी धुन कान में आती है तो कुछ ऐसी भली मालूम पड़ती है कि एक प्रकर की झपकी सी आने लगती है। और घाटों पर सबेरे धूप की झलक और साँझ को जल में घाटों की परछाहीं की शोभा भी देखते ही बन आती है।
जहाँ ब्रज ललना ललित चरण युगल पूर्ण परब्रह्म सच्चिदानंद घन बासुदेव आप ही श्री गोपाललाल रूप धारण करके प्रेमियों को दर्शन मात्र से कृतकृत्य करते हैं, और भी बिंदुमाधवादि अनेक रूप से अपने नाम धाम के स्मरण दर्शन, चिन्तनादि से पतितों को पावन करते हुए विराजमान हैं।
जिन मंदिरों में प्रातःकाल संध्या समय दर्शनीकों की भीड़ जमी हुई है, कहीं कथा, कहीं हरिकीर्तन, कहीं नामकीर्तन कहीं ललित कहीं नाटक कहीं भगवत लीला अनुकरण इत्यादि अनेक कौतुकों के मिस से भी भगवान के नाम गुण में लोग मग्न हो रहे हैं।
जहाँ तारकेश्वर विश्वेश्वरादि नामधारी भगवान भवानीपति तारकब्रह्म का उपदेश करके तनत्याग मात्र से ज्ञानियों को भी दुर्लभ अपुनर्भव परम मोक्षपद-मनुष्य पशु कीट पतंगादि आपामर जीवनमात्र को देकर उसी क्षण अनेक कल्पसंचित महापापपुंज भस्म कर देते हैं।
जहाँ अंधे, लँगड़े, लूले, बहरे, मूर्ख और निरुद्यम आलसी जीवों को भी भगवती अन्नपूर्णा अन्न वस्त्रादि देकर माता की भाँति पालन करती हैं।
जहाँ तक देव, दानव, गंधर्व, सिद्ध चारण, विद्याधर देवर्षि, राजर्षिगण और सब उत्तम उत्तम तीर्थ-कोई मूर्तिमान, कोई छिपकर और कोई रूपांतर करके नित्य निवास करते हैं।
जहाँ मूर्तिमान सदाशिव प्रसन्न वदन आशुतोष सकलसद्गुणैकरत्नाकर, विनयैकनिकेतन, निखिल विद्याविशारद, प्रशांतहृदय, गुणिजनसमाश्रय, धार्मिकप्रवर, काशीनरेश महाराजाधिराज श्रीमदीश्वरीप्रसादनारायणसिंह बहादुर और उनके कुमारोपम कुमार श्री प्रभुनारायणसिंह बहादुर दान धम्र्मसभा रामलीलादि के मिस धर्मोन्नति करते हुए और असत् कम्र्म नीहार को सूर्य की भाँति नाशते हुए पुत्र की तरह अपनी प्रजा का पालन करते हैं।
जहाँ श्रीमती चक्रवर्तिनिचयपूजितपादपीठा श्रीमती महारानी विक्टोरिया के शासनानुवर्ती अनेक कमिश्नर जज कलेक्टरादि अपने अपने काम में सावधान प्रजा को हाथ पर लिए रहते हैं और प्रजा उनके विकट दंड के सर्वदा जागने के भरोसे नित्य सुख से सोती है।
जहाँ राजा शंभूनारायणसिंह बाबू फतहनारायणसिंह बाबू गुरुदास बाबू माधवदास विश्वेश्वरदास राय नारायणदास इत्यादि बड़े बड़े प्रतिष्ठित और धनिक तथा श्री बापूदेव शास्त्री, श्रीबाल शास्त्री से प्रसिद्ध पंडित, श्रीराजा शिवप्रसाद, सैयद अहमद खाँ बहादुर ऐसे योग्य पुरुष, मानिकचंद्र मिस्तरी से शिल्पविद्या निपुण, वाजपेयी जी से तन्त्रीकार, श्री पंडित बेचनजी, शीतलजी, श्रीताराचरण से संस्कृत के और सेवक हरिचंद्र से भाषा के कवि बाबू अमृतलाल, मुंशी गन्नूलाल, मुंशी श्यामसुंदरलाल से शस्त्राव्यसनी और एकांतसेवी, श्रीस्वामि विश्वरूपानंद से यति, श्रीस्वामि विशुद्धानंद से धम्र्मोपदेष्टा, दातृगणैकाग्रगण्य श्रीमहाराजाधिराज विजयनगराधिपति से विदेशी सर्वदा निवास करके नगर की शोभा दिन दूनी रात चौगुनी करते रहते हैं।
जहाँ क्वींस कालिज (जिसके भीतर बाहर चारों ओर श्लोक और दोहे खुदे हैं), जयनारायण कालिज से बड़े बंगाली टोला, नार्मल और लंडन मिशन से मध्यम तथा हरिश्चंद्र स्कूल से छोटे अनेक विद्यामंदिर हैं, जिनमें संस्कृत, अँगरेजी, हिन्दी, फारसी, बँगला, महाराष्ट्री की शिक्षा पाकर प्रति वर्ष अनेक विद्यार्थी विद्योत्तीर्ण होकर प्रतिष्ठालाभ करते हैं; इनके अतिरिक्त पंडितों के घर में तथा हिंदी फारसी पाठकों की निज शाला में अलग ही लोग शिक्षा पाते हैं, और राय शंकटाप्रसाद के परिश्रमोत्पन्न पबलिक लाइब्रेरी, मुनशी शीतलप्रसाद का सरस्वती-भवन, हरिश्चंद्र का सरस्वती भंडार इत्यादि अनेक पुस्तक-मंदिर हैं, जिनमें साधारण लोग सब विद्या की पुस्तकें देखने पाते हैं।
जहाँ मानमंदिर ऐसे यंत्रभवन, सारनाथ की धंमेक से प्राचीनावशेष चिद्द, विश्वनाथ के मंदिर का वृषभ और स्वर्ण-शिखर, राजा चेतसिंह के गंगा पार के मंदिर, कश्मीरीमल की हवेली और क्वींस कालिज की शिल्पविद्या और माधोराय के धरहरे की ऊँचाई देखकर विदेशी जन सर्वदा रहते हैं।
जहाँ महाराज विजयनगर के तथा सरकार के स्थापित स्त्री-विद्यामंदिर, औषधालय, अंधभवन, उन्मत्तागा इत्यादिक लाकद्वयसाधक अनेक कीर्तिकर कार्य हैं वैसे ही चूड़वाले इत्यादि महाजनों का सदावत्र्त और श्री महाराजाधिराज सेंधिया आदि के अटल सत्र से ऐसे अनेक दीनों के आश्रयभूत स्थान हैं जिनमें उनको अनायास भी भोजनाच्छादन मिलता है।
अहोबल शास्त्री, जगन्नाथ शास्त्री, पंडित काकाराम, पंडित मायादत्त, पंडित हीरानंद चौबे, काशीनाथ शास्त्री, पंडित भवदेव, पंडित सुखलाल ऐसे धुरंधर पंडित और भी जिनका नाम इस समय मुझे स्मरण नहीं आता अनेक ऐसे ऐसे हुए हैं, जिनकी विद्या मानों मंडन मिश्र की परंपरा पूरी करती थी।
जहाँ विदेशी अनेक तत्ववेत्ता धार्मिक धनीजन घरबार कुटुंब देश विदेश छोड़कर निवास करते हुए तत्वचिंता में मग्न सुख दुःख भुलाए संसार की यथारूप में देखते सुख से निवास करते हैं।
जहाँ पंडित लोग विद्यार्थियों को ऋक्, यजुः साम, अथर्व, महाभारत, रामायण, पुराण, उपपुराण, स्मृति, न्याय, व्याकरण, सांख्य, पातंजल, वैशषिक, मीमांसा, वेदांत, शैव, वैष्णव, अलंकार, साहित्य, ज्योतिष इत्यादि शास्त्र सहज पढ़ाते हुए मूर्तिमान गुरु और व्यास से शोभित काशी की विद्यापीठता सत्य करते हैं।
जहाँ भिन्न देशनिवासी आस्तिक विद्यार्थीगण परस्पर देव-मंदिरों में, घाटों पर, अध्यापकों के घर में, पंडित सभाओं में वा मार्ग में मिलाकर शास्त्रार्थ करते हुए अनर्गल धारा प्रवाह संस्कृत भाषण से सुनने वालों का चित्त हरण करते हैं।
जहाँ स्वर लय छंद मात्र, हस्तकंपादि से शुद्ध वेदपाठ की ध्वनि से जो मार्ग में चलते वा घर बैठे सुन पड़ती है, तपोवन की शोभा का अनुभव होता है।
जहाँ द्रविड़, मगध, कान्यकुब्ज, महाराष्ट्र, बंगाल, पंजाब, गुजरात इत्याादि अनेक देश के लोग परस्पर मिले हुए अपना-अपना काम करते दिखाते हैं और वे एक एक जाति के लोग जिन मुहल्लों में बसे हैं वहाँ जाने से ऐसा ज्ञान होता है मानों उसी देश में आए हैं, जैसे बंगाली टोले में ढाके का, लहौरी टोले में अमृतसर का और ब्रह्माघाट में पूने का भ्रम होता है।
जहाँ निराहार, पयाहार, यताहार, भिक्षाहार, रक्तांबर, श्वेतांबर, नीलांबर, चम्र्माम्बर, दिगंबर, दंडी, संन्यासी, ब्रह्मचारी, योगी, यती, सेवड़ा, फकीर, सुथरेसाई, कनफटे, ऊध्र्ववाहु, गिरि, पुरी, भारती, वन, पर्वत, सरस्वती, किनारामी, कबीरी, दादूपंथी, नान्हकसही, उदासी, रामानंदी, कौल, अघोरी, शैव, वैष्णव, शाक्त गणपत्य, सौर, इत्यादि हिंदू और ऐसे ही अनेक भाँति के मुसलमान फकीर नित्य इधर से उधर भिक्षा उपार्जन करते फिरते हैं और इसी भाँति सब अंधे लँगड़े, लूले, दीन, पंगु, असमर्थ लोग भी शिक्षा पाते हैं, यहाँ तक कि आधी काशी केवल दाता लोग के भरोसे नित्य अन्न खाती है।
जहाँ हीरा, मोती, रुपया, पैसा, कपड़ा, अन्न घी, तेल, अतर, फुलेलक, पुस्त खिलौने इत्यादि की दुकानों पर हजारों लोग काम करते हुए मोल लेते बेचते दलाली करते दिखाई पड़ते हैं।
जहाँ की बनी कमखाब बाफता, हमरू, समरू; गुलबदन, पोत, बनारसी, साड़ी, दुपट्टे, पीताम्बर, उपरने, चोलखंड, गोंटा, पट्ठा इत्यादि अनेक उत्तम वस्तुएँ देशविदेश जाती हैं और जहाँ की मिठाई, खिलौने, चित्र टिकुली, बीड़ा इत्यादि और भी अनेक सामग्री ऐसी उत्तम होती हैं कि दूसरे नगर में कदापि स्वप्न में भी नहीं बन सकतीं।
जहाँ प्रसादी तुलसी माला फूल से पवित्र और स्नायी स्त्री पुरुषों के अंग के विविध चंदन, कस्तूरी, अतर इत्यादि सुगंधित द्रव्य के मादक आमोद संयुक्त परम शीतलकण तापत्रय विमोचक गंगाजी के स्पर्श मात्र से अनेक लौकिक अलौकिक ताप से तापित मनुष्यों का चित सर्वदा शीतल करते हैं।
जहाँ अनेक रंगों के कपड़े पहने सोरहो सिंगार बत्तीसो अभरन सजे पान खाए मिस्सी की धड़ी जमाए जोबन मदमाती झलझमाती हुई बारबिलासिनी देवदर्शन वैद्य ज्योतिषी गुणी-गृहगमन जार मिलन गानश्रावण उपवनभ्रमण इत्यादि अनेक बहानों से राजपथ में इधर-उधर झूमती घूमती नैनों के पटे फेरती बिचारे दीन पुरुषों को ठगती फिरती हैं और कहाँ तक कहैं काशी काशी ही है। काशी सी नगरी त्रौलोक्य में दूसरी नहीं है। आप देखिएगा तभी जानिएगा बहुत कहना व्यर्थ है।
वि.पं : वाह वाह! आपके वर्णन से मेरे चित्त का काशी दर्शन का उत्साह चतुर्गुण हो गया। यों तो मैं सीधा कलकत्ते जाता पर अब काशी बिन देखे कहीं न जाऊँगा। आपने तो ऐसा वर्णन किया मानो चित्र सामने खड़ा कर दिया। कहिए वहाँ और कौन-कौन गुणी और दाता लोग हैं जिनसे मिलूं। 
सु : मैं तो पूर्व ही कह चुका हूँ कि काशी गुणी और धनियों की खान है यद्यपि यहाँ के बडे़-बड़े पंडित जो स्वर्गवासी हुए उनसे अब होने कठिन हैं, तथापि अब भी जो लोग हैं दर्शनीय ओर स्मरणीय हैं। फिर इन व्यक्तियों के दर्शन भी दुर्लभ हो जायेंगे और यहाँ के दाताओं का तो कुछ पूछना ही नहीं। चूड़ की कोठी वालों ने पंडित काकाराम जी के ऋण के हेतु एक साथ बीस सहस्र मुद्रा दीं। राजा पटनीमल के बाँधे धम्र्मचिन्ह कम्र्मनाशा का पुल और अनेक धम्र्मशाला, कुएँ, तालाब, पुल इत्यादि भारतवर्ष के प्रायः सब तीर्थों पर विद्यमान हैं। साह गोपालदास के भाई साह भवानीदास की भी ऐसी उज्ज्वल कीत्र्ति है और भी दीवान केवलकृष्ण, चम्पतराय अमीन इत्यादि बडे़-बड़े दानी इसी सौ वर्ष के भीतर हुए हैं। बाबू राजेंद्र मित्र की बाँधी देवी पूजा बाबू गुरु दास मित्र के यहाँ अब भी बड़े धूम से प्रतिवर्ष होती है। अभी राजा देवनारायणसिंह ही ऐसे गुणज्ञ हो गए हैं कि उनके यहाँ से कोई खाली हाथ नहीं फिरा। अब भी बाबू हरिश्चंद्र इत्यादि गुणग्राहक इस नगर की शोभा की भाँति विद्यमान हैं। अभी लाला बिहारीलाल और मुंशी रामप्रताप जी ने कायस्थ जाति का उद्धार करके कैसा उत्तम कार्य किया। आप मेरे मित्र रामचंद्र ही को देखिएगा। उसने बाल्यावस्था ही में लक्षावधि मुद्रा व्यय कर दी है। अभी बाबू हरखचंद मरे हैं तो एक गोदान नित्य करके जलपान करते थे। कोई भी फकीर यहाँ से खाली नहीं गया। दस पंद्रह रामलीला इन्हीं काशीवालों के व्यय से प्रति वर्ष होती है और भी हजारों पुण्यकार्य यहाँ हुआ ही करते हैं। आपको सबसे मिलाऊँगा आप काशी चलें तो सही।
वि. पं : आप लाहोर क्यों गए थे।
सु : (लंबी साँस लेकर) कुछ न पूछिए योंही सैर को गया था।
द : (सुधाकर से) का गुरु। कुछ पंडितजी से बोहनीवांड़े का तार होय तो हम भी साथै चलूँचैं।
सु : तार तो पंडितवाड़ा है कुछ विशेष नहीं जान पड़ता।
द. : तब भी फोंक सऊडे़ का मालवाड़ा। कहाँ तक न लेऊचियै।
सु. : अब तो पलते पलते पलै।
वि. : यह इन्होंने किस भाषा में बात की?
सु. : यह काशी ही की बोली है, ये दलाल हैं, सो पूछते थे कि पंडितजी कहाँ उतरेंगे।
वि. : तो हम तो अपने एक सम्बन्धी के यहाँ नीलकंठ पर उतरेंगे।
सु. : ठीक है, पर मैं आपको अपने घर अवश्य ले जाऊँगा।
वि. : हाँ हाँ इस्में कोई संदेह है? मैं अवश्य चलूँगा।
(स्टेशन का घंटा बजता है और जवनिका गिरती है)
इति प्रतिच्छवि-वाराणसी नाम तीसरा गर्भाकं
समाप्त हुआ 

चतुर्थ गर्भांक : ।। प्रथम अंक ।।

स्थान-बुभुक्षित दीक्षित की बैठक
(बुभुक्षित दीक्षित, गप्प पंडित, रामभट्ट, गोपालशास्त्री, चंबूभट्ट, माधव शास्त्री आदि लोग पान बीड़ा खाते और भाँग बूटी की तजबीज करते बैठे हैं; 
इतने में महाश कोतवाल अर्थात् निमंत्रण करने वाला आकर चौक 
में से दीक्षित को पुकारता है)
महाश : काहो, बुभुक्षित दीक्षित आहेत?
बुभुक्षित : (इतना सुनते ही हाथ का पान रखकर) कोण आहे? (महाश आगे बढ़ता है) वाह, महाश तु आहेश काय? आय बाबा आज किति ब्राह्मण आमच्या तड़ांत देतो? सरदारनी किती सांगीतलेत! (थोड़ा ठहरकर) कायर ठोक्याच्या कमरान्त सहस्रभोजन कुणाच्या यजमानाचे चाल्ले आहे?
महाश : दीक्षित जी! आज ब्राह्मणाची अशी मारामार झाली कि मी माँहीं सांगूँ शकत नाहीं-कोण तो पचड़ा!!
बु.भु. : खरें, काय मारामार झाली? अच्छा ये तर बैठकेंत पण आखेरीस आमचे तड़ाची काय व्यवस्था? ब्राह्मण आणलेस की नाहीं? काँ हात हलवीतच आलास?
महाश : (बैठक में बैठकर जल माँगता है) दीक्षित जी थोडे़ से पाणी द्या, तहान बहुत लागली आहे।
बुभु. : अच्छा भाई, थोड़ा सा ठहर अत्ता उनातून आजा आहेस, बूटी ही बनतेच आहे। पाहिजे तर बूटीचच पाणी पी। अच्छा साँग तर कसे काय ब्राह्मण किती मिलाले?
महाश : गुरु, ब्राह्मण तो आज 25 निकाले, यार लोग आपके शागिर्द हैं कि और किसके?
चंबूभट्ट : (बडे़ आनंद से) क्या भाई सच कहो-25 ब्राह्मण मिलाले?
महाश : हो गुरु! 25 ब्राह्मण तर नुसते सहस्रभोजनाचे, परंतु आजचे वसंतपूजतेचे तर शिवाय च-आणखी सभेकरतां तर पेष लावलाच आहे पण-
गोपाल, माधव शास्त्री : (घबड़ाकर) काय महाश पण काँ? सभेचें काम कुणाकड़े आहे? अणखी सभा कधीं होणार? आँ?
महाश : पण इतवें$च कीं हा यजमान पाप नगरांत रहतो, आणि याला एक कन्या आहे ती गतभर्तृका असून सकेशा आहे आणि तीर्थ-स्थलीं तर क्षौर करणें अवश्य पण क्षौरेकरून कनयेंची शोभा जाईल या करितां जर कोणी असा शास्त्रीय आधार दाखवील तर एक हजार रुपयांची सभाकरण्याचा त्यांचा विचार आहे व या कामांत धनतुंदिल शास्त्रीनी हात घातला आहे।
गप्प पंडित : अं: , तो ऐसी झुल्लक बात के हेतु शास्त्राधार का क्या काम है? इसमें तो बहुत से आधार मिलेंगे।
माधव शास्त्री : हाँ पंडित जी आप ठीक कहते हैं, क्योंकि हम लोगों का वाक्य और ईश्वर का वाक्य समान ही समझना चाहिए ”विप्रवाक्ये जनार्दनः“ ”ब्राह्मणो मम दैवतं“ इत्यादि।
गोपाल : ठीकच आहे, आणि जरि कदाचित् असल्या दुर्घट कामानी आम्ही लोकदृष्टया निन्द्य झालों तथापि वन्द्यच आहों, कारण श्री मभागवतांत ही लिहलें आहे ”विप्रं कृतागसमपि नैव द्रुह्येत कश्चनेत्यादि।“
गप्प पंडित : हाँ जी, और इसमें निंद्य होने का भी क्या कारण? इसमें शास्त्र के प्रमाण बहुत से हैं और युक्ति तो हई है। पहिले यही देखिए कि इस क्षौर कर्म से दो मनुष्यों को अर्थात् वह कन्या और उसके स्वजन इनको बहुत ही दुःख होगा ओर उसके प्रतिबंध से सबको परम आनंद होगा। तब यहाँ इस वचन को देखिए-
”येन केनाप्युपायेन यस्य कस्यापि देहिनः।
संतोष जनयेत् प्राज्ञस्तदेवेश्वर पूजनं ।।“
बुभु. : और ऐेसे बहुत से उदाहरण भी इसी काशी में होते आए हैं। दूसरा काशीखंड ही में कहा है ‘येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसीगतिः।’
चंबूभट्ट : मूर्खतागार का भी यह वाक्य है ‘अधवा वाललवनं जीव- नाद्र्दनवद्भवेत्’। संतोषसिंधु में भी ‘सकेशैव हि संस्थाप्या यदि स्यात्तोषदा नृणां’।
महाश : दीक्षित जी! बूटी झाली-अब छने जल्दी कारण बहुत प्यासा जीव होऊन गेला अणखी अझून पुष्कल ब्राह्मण सांगायचे आहेत।
बुभु. : (भांग की गोली और जल, बरतन, कटोरा, साफी लेकर) शास्त्री जी! थोड़े से बढ़ा तर।
माधव शास्त्री : दीक्षित जी! हें माँझ काम नह्नं, कारण मी अपला खाली पीण्याचा मालिक आहे, मला छानतां येत नाहीं। (गोपाल शास्त्री की ओर दिखलाकर) ये इसमें परम प्रवीण हैं।
गोपाल शास्त्री : अच्छा दीक्षित जी, मीच आलों सही।
चंबूभट्ट : (इन सबों को अपने काम में निमग्न देखकर) बरें मग महाश अखेरीस तड़ाचे किसी ब्राह्मण सहस्रभोजनावे व बसंत पूजेचे किती?
महाश! : दीक्षिताचे तड़ांत आज एकंदर 25 ब्राह्मण; पैंकीं 15 सहस्र भोजनाकड़े आणि 10 वसंतपूजेकड़े-
माधव शास्त्री : आणि सभेचे?
महाश : सभेचे तर भी सांगीतलेंच कीं धनतुंदिल शास्त्रीचे अधिकारांत आहे, आणि दोन तीन दिवसांत ते बंदोबस्त करणार आहेत।
गप्प पंडित : क्यों महाश! इस सभा में कोई गौड़ पंडित भी हैं वा नहीं?
महाश : हाँ पंडित जी, वह बात छोड़ दीजिए, इसमें तो केवल दाक्षिणात्य, द्राविण और क्वचित् तैलंग भी होंगे, परंतु सुना है कि जो इसमें अनुमति करेंगे वे भी अवश्य सभासद होंगे।
गप्प पंडित : इतना ही न, तब तो मैंने पहिले ही कहा है, माधव शास्त्री! अब भाई यह सभा दिलवाना आपके हाथ में है।
माधव : हाँ पंडित जी, मैं तो अपने शक्त्यनुसार प्रयत्न करता हूँ, क्योंकि प्रायः काका धनतुंदिल शास्त्री जो कुछ करते हैं उसका सब प्रबंध मुझे ही सौंप देते हैं। (कुछ ठहर कर) हाँ, पर पंडित जी, अच्छा स्मरण हुआ, आपसे और न्यू फांड ;छमू विदकद्ध शास्त्री से बहुत परिचय है, उन्हीं से आप प्रवेश कीजिए, क्योंकि उनसे और काका जी से गहरी मित्रता है।
गप्प पंडित : क्या क्या शास्त्री जी? न्यू-क्या? मैंने यह कहीं सुना नहीं।
गोपाल : कभी सुना नहीं इसी हेतु न्यू फांड।
गप्प पंडित : मित्र! मेरा ठट्टा मत करो। मैं यह तुम्हारी बोली नहीं समझता। क्या यह किसी का नाम है? मुझे मालूम होता है कि कदाचित् यह द्रविड़ त्रिलिंग आदि देश के मनुष्य का नाम होगा। क्योंकि उधर की बोली मैंने सुनी है उसमें मूर्द्धन्य वर्ण प्रायः बहुत रहते हैं।
माधव शास्त्री : ठीक पंडित जी, अब आप का तर्कशास्त्र पढ़ना आधा सफल हुआ। अस्तु ये इधर ही के हैं जो आप के साथ रामनगर गए थे, जिन्होंने घर में तमाशे वाले की बैठक की थी-
गप्प पंडित : हाँ, हाँ, अब स्मरण हुआ, परंतु उनका नाम परोपकारी शास्त्री है और तुम क्या भांड कहते हो?
गोपाल शास्त्री : वह पंडित जी, भांड नहीं कहा फांड कहा-न्यू फांड अर्थात् नये शौखीन। सारांश प्राचीन शौखीन लोगों ने जो जो कुछ पदार्थ उत्पन्न किए, उपभुक्त किए उन ही उनके उच्छिष्ट पदार्थ का अवलंबन करके वा प्राचीन रसिकों की चाल चलन को अच्छी समझ हमको भी लोक वैसा ही कहे आदि से खींच खींच के रसिकता लाना, क्या शास्त्री जी ऐसा न इसका अर्थ?
माधव शास्त्री : भाई, मुझे क्यों नाहक इसमें डालते हो-
गप्प पंडित : अच्छा, जो होय मुझे उसके नाम से क्या काम। व्यक्ति मैंने जानी परंतु माधव जी आप कहते हैं और मुझसे उनसे भी पूर्ण परिचय है और उनको उनका नाम सच शोभता है, परंतु भाई वे तो बड़े आढ्य मान्य हैं और कंजूस भी हैं-और क्या तुमसे उनसे मित्रता मुझसे अधिक नहीं है। यहाँ तक शयनासन तक वे तुमको परकीय नहीं समझते।
माधव शास्त्री : पंडित जी! वह सर्व ठीक है, परंतु अब वह भूतकालीन हुई। कारण ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’-
बुभु. : हाँ पंडित जी! अब क्षण भर इधर बूटी को देखिए, लीजिए। (एक कटोरा देकर पुनः दूसरा देते हैं)
गप्प पंडित : वाह दीक्षित जी, बहुत ही बढ़िया हुई।
चंबूभट्ट : (सब को बूटी देकर अपनी पारी आई देखकर) हाँ-हाँ दीक्षित जी, तिकड़ेच खतम करा भी आज कल पीत नाहीं।
गोपाल माधव : काँ भट जो! पुरे आतां, हे नखरे कुठे शिकलात, या-प्या-हवेने व्यर्थ थंडी होते।
चंबूभट्ट : नाहीं भाई भी सत्य साँगतों, भला सोसत नाहीं। तुम्हाला माझे नखरे वाटतात पण हे प्रायः इथले काशीतलेच आहेत, व अपल्या सारख्यांच्या परम प्रियतम सफेत खड़खड़ीत उपर्णा पाँघरणार अनाथा बालानींच शिकविलेंन बरें।
(सब आग्रह करके उसको पिलाते हैं)
महाश : कां गुरु दीक्षित जी अब पलेती जमविली पाहिजे।
बुभु. : हाँ भाई, घे तो बंटा आणि लाव तर एक दोन चार।
महाश : (इतने में अपना पान लगाकर खाता है और दीक्षित जी से)
दीक्षित जी, 15 ब्राह्मण ठोक्याच्या कमर्यांत पाटावा, दाहा बाजतां पानें माँडलो जातील, आणि आज रात्री बसंतपूजेस 10 ब्राह्मण लवकर पाठवा कारण मग दूसरे तड़ाचे ब्राह्मण येतील (ऐसा कहता हुआ चला जाता है)
बुभु. : (उसको पुकारते हुए जाते हैं) महाश! दक्षिणा कितनी?
(महाश वहीं से चार अंगुली दिखाकर गडा कहकर गया)
माधव : दीक्षित जी! क्या कहीं बहरी ओर चलिएगा?
गोपाल : (दीक्षित से) हाँ गुरु, चलिए आज बड़ी वहाँ लहरा है।
बुभु. : भाई बहरीवर मी जाऊन इकडचा बन्दोबस्त कोण करील?
गोपाल : अं: गुरू इतके 15 ब्राह्मण्यांत घबड़ावता। सर्वभक्षास साँगीतले ब्राह्मण जे झाले। न्यू फांड की पत्ती है।6
गप्प पंडित : क्या परोपकारी की पत्ती है? खाली पत्ती दी है कि और भी कुछ है? नाहीं तो मैं भी चलूँ।
माधव शास्त्री : पत्ती क्या बड़ी-बड़ी लहरा है, एक तो बड़ा भारी प्रदर्शन होगा और नाना रीति के नाच, नए नए रंग देख पड़ेंगे।
गप्प पंडित : क्यों शास्त्री जी, मुझे यह बड़ा आश्चर्य ज्ञात होता है और इससे परिहासोक्ति सी देख पड़ती है। क्योंकि उसके यहाँ नाच रंग होना सूर्य का पश्चिमाभिमुख उगना है।
गोपाल : पंडित जी! इसी कारण इनका नाम न्यू फांड है। और तिस पर यह एक गुह्य कारण से होता है। वह मैं और कभी आप से निवेदन करूँगा, वा मार्ग में-
बु.भु. : (सर्वभक्ष नाम अपने लड़के को सब व्यवस्था कहकर आप पान पलेती और रस्सी लोटा और एक पंखी लेकर) हाँ भाई, मेरी सब तैयारी है।
माधव गोपाल : चलिए पंडित जी वैसे ही धनतुंदिल शास्त्री जी के यहाँ पहुँचेंगे। (सब उठर बाहर आते हैं।)
चंबूभट्ट : मैं तो भाई जाता हूँ क्योंकि संध्या समय हुआ।
(चला जाता है)
गप्प पंडित : किधर जाना पड़ेगा?
माधव शास्त्री : शंखोध्यारा क्योंकि आजकल श्रावण मास में और कहाँ लहरा? धराऊ कजरी, श्लोक, लावनी, ठुमरी, कटौवल, बोली ठोली सब उधर ही।
गप्प पंडित : ठीक है शास्त्री जी, अब मेरे ध्यान में पहुँचा, आजकाल शंखोध्यारा का बड़ा माहात्म्य है। भला घर पर यह अब कहाँ सुनने में आवेगा? क्योंकि इसमें धराऊ विशेषण दिया है।
गोपाल : आः हमारा माधव शास्त्री जहाँ है वहाँ सब कुछ ठीक ही होगा, इसका परम आश्रय प्राणप्रिय रामचंद्र बाबू आपको विदित है कि नहीं? उसे यहाँ ये सब नित्य कृत्य हैं।
गप्प पंडित : रामचंद्र हम ही को क्या परंतु मेरे जान प्रायः यह जिसको विदित नहीं ऐसा स्वल्प ही निकलेगा। विशेष करके रसिकों को; उसको तो मैं खूब जानता हूँ।
गोपाल : कुछ रोज हमारे शास्त्री जी भी थे, परंतु हमारा क्या उनका कहिए ऐसा दुर्भाग्य हुआ कि अब वर्ष वर्ष दर्शन नहीं होने पाता। रामचंद्र जी तो इनको अपने भ्राते के समान पालन करते थे और इनसे बड़ा प्रेम रखते थे। अस्तु सारांश पंडित वहाँ रामचंद्र जी के बगीचे में जाएँगे। वहाँ सब लहरा देख पड़ेगी और इस मिस से तौ भी उनका दर्शन होगा।
बुभु. : अरे पहिले नवे शौखिनाचे इथे जाउँ तिथे काय आहे हें पाहूँ आणि नंतर रामचंदाकड़े झुकूं।
माधव शास्त्री : अच्छा तसेच होय आजकल न्यू फांड शास्त्री यानी ही बहुत उदारता धरली आहे बहुत सी पाखरें ही चारती आहेत तो सर्वदृष्ट्रीस पड़तील पण भाई भी आँत यायचा नाहीं। कारण मला पाहून त्यांना त्रास होतो।
गोपाल. : अच्छा तिथ वर तर चलशील आगे देखा जायगा।
(सब जाते हैं और जवनिका गिरती है)
(इति) घिस्सधिसद्विज कृत्य विकर्तनी नाम चतुर्थ गर्भाकं
।। प्रथम अंक समाप्त हुआ ।।

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