प्रतिहिंसा (बांग्ला कहानी) : मनोज बसु

Pratihinsa (Bangla Story) : Manoj Basu

कालाचंद चाचा ने अमावट के साथ एक चिठ्ठी भेजी है। बहुत खोजने के बाद मकान मिला। देर तक खटखटाने के बाद किसी की आवाज़ आयी – ‘कौन?’

उसने पहचान लिया, रीना की ही आवाज़ थी। उसने अपना नाम धाम बतला कर यह भी बतलाया कि तुम्हारे मामाजी ने तुम्हारे लिए अमावट और चिठ्ठी भेजा है।

रीना की आवाज़ आयी – ‘अरे ओ गगन, दरवाजा खोल कर बैठक में बैठा, मैं अभी आ रही हूँ पंकज दादा।'

फिर वही निःस्तब्धता। कहां गगन और कहा धरती? कहीं कोई नहीं। इतने में एकाएक पानी बरसने लगा। संभावना पहले से ही थी। बादल छाया हुआ था। अच्छा हुआ रेनकोट लाया था। खोल कर ओढ़ लिया। इच्छा हुई, लौट जाऊँ, पर रीना को शादी के बाद एकबार देखने की बड़ी इच्छा थी। विवाह के ५ साल हो गये, न जाने उसमें क्या-क्या परिवर्तन हुआ है? कैसी है वह? आदि बातें जानने की बड़ी इच्छा हुई। योग्य लड़के के साथ रानी की शादी हुई है। बड़े कुशल इंजीनियर हैं। वेतन भी काफी है। उनका दांपत्य जीवन बड़ा सुखी होगा। कालाचंद चचा ने ही सारी बातें बतलायीं थीं। इस कारण सुख-ऐश्वर्यपूर्ण रीना को एक बार देखने की काफी दिनों से इच्छा थी। जब मिलने का मौका मिला तो क्यों लौट जाऊं? थोड़ी तकलीफ ही सही। रीना के भाग्य का मन ही मन मैं सराहना करने लगा। अच्छा हुआ मेरे साथ उसकी शादी नहीं हुई, न जाने कितना कष्ट होता, कितनी तकलीफ होती।

मैंने उस समय हाई स्कूल की परीक्षा दी थी। कालाचंद चाचा की माँ के श्राद्ध के समय रीना अपनी माँ के साथ वहां गयी थी, तरुणी रीना, राजकन्या सी सुन्दर, देखने से अनायास ही दॄष्टि आकर्षित हो जाति थी। श्राद्ध समाप्त हुआ। उनलोगों के घर जाने से पहले माँ ने कालाचंद चाचा से मेरे विवाह के बारे में बात की। पिता को बहुत शौक था मुझे विदेश भेजे। उनका लड़का वहां से बैरिस्टर बन कर आये। इसलिए चाहते थे विदेश यात्रा से पूर्व यह शुभ कर्म समाप्त हो जाय। नहीं तो उनका पुत्र विदेश से मेम शादी करके ले आएगा।

रीना के लिए मैं हर तरह से योग्य था, इस कारण उनलोगों को कोई आपत्ति नहीं थी। मेरे पिताजी ने कहा - मुहं की बात ठीक नहीं है, मैं गहने से तिलक करूंगा। दिन निश्चित हुआ। ठीक उसके तीन दिन पहले हमलोगों के ऊपर वज्रपात हो गया। पिताजी का अचानक हार्टफेल हो गया। रीना और उसकी माँ लौट गयी। पिताजी के नवाबी ठाट-बाट का यह नतीजा निकला की सब लोग खोद-खोद कर यह जानने की कोशिश करने लगे कि पिताजी कितने लाख रुपये की संपत्ति छोड़ गए हैं? पहाड़ खोदा, निकली चुहिया। और तो कुछ नहीं छोड़ गए, पर छोड़ गए ऋण का बड़ा भारी बोझ। बड़ी चतुराई से काम किया था। इतना अधिक ऋण, पर किसी को पता तक नहीं लगने दिया था, माँ तक को ज्ञात न था।

कालाचंद चाचा ने कहा, - ‘कोई बात नहीं। इतना योग्य लड़का है पंकज, इसके पढ़ने का सारा खर्च रीना के पिताजी ही देंगे। पर मेरी माँ आनाकानी करने लगी। बोली - 'इस लड़की से मैं अपने लड़के की शादी नहीं करुँगी, शादी तय होते-होते उन्हें खा गयी, अब घर में आकर न जाने क्या-क्या रंग दिखाएगी?’ उधर रीना की माँ ने भी आपत्ति की, बोली – ‘भाग्य अच्छा था जो पहले ही पोल खुल गयी, नहीं तो उस घर में हमारी लड़की जाति तो न जाने क्या दशा होती उसकी।'

मेरी भी पढ़ाई का इतिश्री यहीं हो गयी। तीन छोटे भाई-बहन और माँ, सब की जिम्मेदारी मेरे सिर पर। गांव के स्कूल में नौकरी कर ली, पर वेतन बहुत कम था, उससे घर का खर्चा चलना संभव न था। इसलिए नौकरी की खोज में कलकत्ता आया हूँ। मेरे बचपन का दोस्त असित है, उसी के घर ठहरा हूँ।

लेकिन कब तक वहां दरवाजे पर खड़ा-खड़ा भीगता रहूँगा, अब गुस्से से जोर-जोर से दरवाजे पर आवाज़ करने लगा। रीना की आवाज़ आयी, - ‘अरे अभी तक दरवाजा नहीं खोला? मैं आयी पंकज दा, जरा-सा रुकिए ।'

न जाने क्यों मुझे कुछ संदेह हुआ, इतनी देर से दरवाजा ही नहीं खोल रही, क्या बात है? रास्ते से कमरे की खिड़की कुछ ऊँची थी। मैं छड़-पकड़कर जार उचककर देखने लगा। रीना जी - जान से दौड़ दौड़ कर काम कर रही थी। बिस्तरे पर सफ़ेद धुला चद्दर बिछा दी। गीले कपडे से कुर्सी पोंछ रही थी, एक कोने में इधर-उधर से कुछ बोतलें इकट्ठी कर एक टोकरी से ढांक दी और उसपर एक धोती तह कर के डाल दिया। जब देखा रीना दरवाज़े की ओर आ रही है, मैं उत्तर कर यथास्थान खड़ा हो गया।

दरवाजा खोलकर मुझे अंदर बुलाते हुए वह लज्जित होकर बोलने लगी -'आपने बुरा तो नहीं माना, पंकज दा? मैंने सोचा नौकर ने दरवाजा खोल कर आपको अंदर बैठाया है, जरा सो गयी थी, मौका पाकर वह गोल हो गया है। एक नौकर के घरपर उसका बाप बीमार पड़ा है, वह चला गया। दूसरे की खुद की शादी है, वह भी गया, यह निकम्मा इतना दुष्ट है। एक ओर नौकर की तलाश में हूँ, रूपया चाहे जितना ले, पर ढंग से रहकर जरा काम तो करे।

हंसकर मैंने पूछा - 'सो गयी थी क्या रीना? कब से दरवाजा खटखटा रहा था।‘

‘पंकज दा, दिन भर क्या करुँ? वे तो ऑफिस चले जाते है, अकेले-अकेले सिवा सोने के काम ही क्या है? अगर जल्दी आये तो पिक्चर चले गए, नहीं तो लेटे-लेटे उपन्यासों के पृष्ट पलटकर समय गुजारती हूँ।‘

बातें करते-करते एकाएक उसकी बाँहों पर मेरी नज़र गयी, साथ ही साथ माथे पर भी। माथे पर लम्बा कटा घाव का निशान और बाँहों पर काले-काले दाग। आश्चर्य से मैंने पूछा- 'यह दाग किसका है रीना?' बाँहों को ढकती हुई वह जोर से हंस पड़ी। बोली- 'कुछ मत पूछिए पंकज दा, सिनेमा देखकर दोनों लौट रहे थे, नाईट शो में गए थे। बस से उत्तर कर पैदल आ रहे थे। मुझे बेहद नींद आ रही थी। सामने पत्थर पड़ा था, ख्याल नहीं किया, ठोकर खा कर बगल के काँटों के तारों के ऊपर गिर गयी। उसी से जगह जगह पर कट गया है। डॉक्टर साहब सुनकर मुँह दबा कर हंसने लगे, शर्म के मारे में गड़ी जा रही थी।‘

अमावट की पोटली उसके हाथों पर रखकर मैंने कहा- ‘पेड़ के आमों का अमावट है। में कलकत्ता आ रहा था, जान कर कालाचंद चाचा ने तुम्हारे लिए भेजा है। यह अमावट बहुत पसंद करती हो न?’ ‘सच मामा कितना प्यार करते हैं। याद भी कितना करते हैं। आप कलकत्ते में कुछ काम से आये हैं क्या?'

मैंने कहा -'हां! वैसे तो गांव के स्कूल में पढ़ाता हूँ। ये भी अच्छी ही है, पर वहां पढ़ाने की कोई सुविधा नहीं है, और न कोई अच्छी लाइब्रेरी है। तुम्हें तो पता ही है, कि मैं बिना खाये जी सकता हूँ, पर बिना पढ़े नहीं।'

बात करती हुई रीना उठ खड़ी हुई, बोली - 'देखिये न, नौकर अभी तक लौट कर आया नहीं। मोड़ पर एक पान की दुकान है, मौका मिलते ही आंख बचाकर वहां जा कर अड्डा भरता है।' जाऊँ, जरा उन्हें बुला लाऊँ।'

'लेकिन पानी जो बरस रहा है रीना?'

'आपका यह रेनकोट लिए जाती हूँ।' कहकर सहज, स्वाभाविक, निःसंकोच भाव से उठा कर चल दी। अकेले बैठे-बैठे में अपने ही बारे में सोचने लगा। पिताजी की इच्छा थी बैरिस्टर बनकर हजारों रुपये कमाऊंगा, और आज २५ रुपये की नौकरी भी नहीं मिल रही। बहुत जगह कोशिश की, जब कुछ नहीं मिला तो असित के पिताजी से अनुरोध किया। असित मेरा लंगोटिया दोस्त है। उसके पिताजी बोले - 'देखो मेरे दफ्तर में दो ही जगह खाली होने की सम्भावना है, एक जनरल मेनेजर का, पर यह पद तुम्हें नहीं मिल सकता क्योंकि और दूसरी योग्यताएं भी चाहिए। और दूसरी जगह है मेनेजर के चपरासी की, ये २५ रुपये। एक दूसरी नौकरी है टाइमकीपर की, ७५ रुपये, पर उसके लिए ३०० रुपये घूस चाहिए। उन्होंने कहा जल्दी चले जाओ, देर करने से नहीं मिलेगी।

३०० रुपये, पर ३ रुपये का तो प्रबंध नहीं है। असित से अनुरोध किया - 'मुझे उधार दे दो, पाई-पाई चुका दूंगा। अगर यह नौकरी चली जाएगी तो सपरिवार मर जायेंगे।'

जवाब में उसने लिखा -'कलकत्ते चले आओ।' जाते ही १० रुपये के दो नोट मेरे हाथ पर रख कर बोला - 'लो, एक महीने के सिनेमा और चाय के पैसे बचा कर दे रहा हूँ। आजकल के ज़माने में अकेला कोई इतना रूपया नहीं दे सकता। यह लो एक चिठ्ठी और कुछ संभ्रांत अमीर लोगों का पता।

यह चिठ्ठी दिखाकर इन लोगों से सहायता लेकर इकठ्ठा कर लो। पिताजी के पास चले जाओ वे भी २०-२५ रुपये दे देंगे। रीना के पति अमीर है, सुना था, उससे भी कुछ सहायता मिलने की आशा थी, पर नतीजा उल्टा हुआ। मैं इन्हीं बातों को सोच ही रहा था - इतने में एक वृद्ध व्यक्ति दरवाजे से झांककर पूछने लगा - 'घर मैं कोई है क्या?'

मैं निकल कर बोला -'हिमांशु बाबू तो दफ्तर में है और ....।'

बात पूरी नहीं हो पायी थी, वे हा-हा-हा कर के जोर से हंस पड़े - 'किस दफ्तर में? किसने उन्हें नौकरी दी है? अच्छा उस लड़की ने कहा है क्या? वह भी कहां गई? बड़ी मुसीबत है, देखते ही सब के सब भाग जाते हैं।'

'भागी नहीं है, नौकर न जाने कहां चला गया, उसे बुलाने गयी है।' मैंने कहा।

'यह लीजिये, नौकर भी रख लिया है? आप को देख कर सब की याद आ गयी है। बेचारी दिनभर गधे के सामान काम करती है, रात को शराब पी कर नशे में उस लक्ष्मी जैसी स्त्री को बेधड़क पीटते पीटते बेहोश कर देता है। सारे शरीर पर घाव ही घाव है दो महीने का किराया बाकि है, नोटिस देकर घर में ताला बंद करने में कितनी देर लगती है? पर केवल इस लड़की का मुहं देखकर ही नहीं कर पाता।' पास बैठ कर उनसे सारी बातें सुनी। वह बोला- 'कम से कम एक महीने का किराया भी दे देता, पर देंगे कहां से? पर मैं क्या कर सकता हूँ? मैं तो मकान मालिक का नौकर हूँ, वे कहते हैं - किराया न मिलने पर ताला बंद कर दो। पर एक गरीब दूसरे गरीब का सर्वनाश कैसे कर सकता है?'

२२ रुपये एक महीने का किराया है, असित के २० रुपये जेब में हैं। गाड़ी का किराया जो कुछ था उसी में से मिला के एक महीने का किराया चुका दूँ। रीना की माँ सब से कहती रहती थी – ‘पंकज के हाथ में पड़ते-पड़ते बच गई।‘

प्रतिशोध लेने का यह बड़ा अच्छा मौका है। ‘रसीद बनाइये, यह लीजिये एक महीने का किराया।‘

रसीद बना कर वह आदमी चला गया। मन में प्रतिहिंसा की भयंकर ज्वाला थी। रसीद के उलटे तरफ मैंने लिखा - 'रीना, मैंने किराया दे दिया है। बुरा मत मानना। अगर सारा उत्तरदायित्व मेरे ऊपर आता तो फिर किराया मैं ही देता। तुम्हारा भाग्य अच्छा था जो तुम्हें मेरे हाथ नहीं पड़ना पड़ा।‘

उधर उठकर तकिये के नीचे ज्यों ही चद्दर का कोना उठाया देखा - छी -छी, उतना गन्दा तकिया? मुझे उत्सुकता हुई। घूमकर इधर उधर देखने लगा। एक उलट कर रखी बाल्टी को उठाते ही शराब की बदबू से उलटी आने लगी। शराब की बोतलों को जल्दी में रीना ने इसी से ढक कर रख दिया था। खिड़की से रीना को आते देखकर उसे ज्यों का त्यों ढक कर जल्दी से यथास्थान बैठ गया।

रीना दोने में मिठाई लेकर आयी है। बोली- 'नौकर नहीं मिला। आजकल नौकरों की इतनी परेशानी है, खुद ही ले आयी हूँ।'

मैंने कहा, -'बहुत अच्छा किया है रीना, अपना हाथ जगन्नाथ। मुझे भूख भी लगी थी। मिठाई खाकर चलने लगा।

रीना ने कहा - 'फिर आइयेगा पंकज दादा।'

ट्राम में बैठने के बाद रेन कोट उतार कर रखने लगा, जेब में हाथ डालते ही कड़ा कड़ा सा कुछ लगा, अरे, असित की वह चिठ्ठी तो इसी जेब में रखी थी, कहीं रीना ने देख तो नहीं ली?

झट चिठ्ठी खोली, उसके अंदर रीना के कान की बहुत सुन्दर दो बालियां थीं। एक ओर लिखा हुआ था - ‘इस समय आप इतनी बड़ी मुसीबत में हैं, लेकिन रुपये सब बैंक में रहते हैं। वे भी दफ्तर से लौटे नहीं हैं। ये बालियां दे रही हूँ, बेच कर काम चला लीजियेगा, बुरा मत मानियेगा, अन्यथा मत सोचियेगा। अगर आज आपका हाथ पकड़ कर आपकी ही होती तो क्या जरूरत के समय मेरे गहने नहीं लेते?'

(अनुवाद : शोभा घोष)

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