प्रतिबिंब (उड़िया कहानी) : सरोजिनी साहू

Pratibimb (Oriya Story) : Sarojini Sahu

जब वे पहुँचे थे, तब नीपा अपनी दिनचर्या में अत्यंत व्यस्त थी। एक हाथ में उसके टोस्ट था, तो दूसरे हाथ में पानी का गिलास। डाइनिंग-टेबल के पास खडी होकर, वह किसी भी तरह टोस्ट को गटक लेना चाहती थी। इस प्रकार उसने सुबह का नाश्ता खत्म कर लिया। फिर शेल्फ से निकाल कर चप्पलें पहन ली, हाथ-घड़ी बाँध ली, नौकरानी को दो-तीन कामों के बारे में आदेश भी दे दिये और सोने के कमरे का ताला भी लगा दिया।

अब वह सोच रही थी कि घर से निकल कर ड्यूटी पर चले जाना चाहिये। ऐसे हड़बड़ी के समय में शरीर की तुलना में मन कुछ ज्यादा ही सक्रिय होता है। मन के साथ ताल-मेल मिलाकर काम करते समय अगर कोई उसे रोक दे, यहाँ तक कि अगर टेलिफोन की घंटी भी बज उठे तो उसके लिये असहनीय हो जाता है, वह तुरंत ही तनाव-ग्रस्त हो जाती है और मन ही मन नाराज हो उठती है और भीतर का यह द्वंद्व उसके बाहरी व्यवहार में भी छुपाए नहीं छुपता। कभी-कभी तो वह इतनी झुँझला उठती है, कि नौकरानी को ही रिसीवर उठाने के लिये बोल देती है और खुद काम पर निकल जाती है। कभी-कभी ऐसा भी हुआ है, जब अनजाने में रिसीवर उठा लेने पर इधर-उधर की असंगत बातें करके जल्दी जल्दी जल्दी काम के लिए निकलना पडा है। परन्तु वह दिन कुछ और था। दहलीज पर उनको खड़ा देखकर नीपा बाहर निकल नहीं पाई। नमस्कार के साथ उनका अभिवादन किया, अपने कंधे पर लटके पर्स को उतारकर सेन्ट्रल-टेबल पर रख दिया और बोली-
"आइये, पधारिए।"
"क्या आप आफिस जा रही थीं?"
"जी, जी हाँ।"
"दिवाकर घर में नहीं है क्या?"
"बस पन्द्रह मिनट हुए, आफिस चले गए हैं।"
"आपके ऑफिस का भी समय हो गया होगा, कहीं इस समय आकर आपको परेशान तो नहीं कर रहा?"
"नहीं" नीपा हँसकर बोली।
इस ‘नहीं’ के कई मतलब हो सकते थें, जैसे उन्होने इस समय आकर कोई गलती नहीं की थी, या नीपा को कोई परेशानी नहीं थी, या लोक-लाज के हिसाब से जैसे "नहीं" बोलना ही पड़ता है, उसी भाव से उसने बोल दिया। वे उनके कोई सगे-संबंधी नहीं थे और उसके या दिवाकर के बॉस भी नहीं थे। यहाँ तक कि, दोनों के परिवार वालों में भी कोई विशेष-दोस्ती के संबंध नहीं थे। इसके उपरांत भी वे कभी-कभी उनके घर मिलने आते थे, बैठकर बात-चीत करते थे, चाय पीते थे और फिर लौट जाते थे। विगत पन्द्रह सालों से नीपा उनको जानती थी। नीपा ने फिर पूछा-
"चाय पिएँगे?"
"चाय बनाएँगी? आप तो ऑफिस जा रही थीं, ना?"
"हाँ, जाना तो था पर, चाय बना देती हूँ।"
नीपा रसोई-घर में जाकर चाय के लिये पानी गरम करने लगी। जितनी जल्दी कर सकती थी, उसने चाय, चीनी और दूध एक साथ मिलाकर एक कप चाय बना दी। चाय के साथ कुछ बिस्कुट तथा नमकीन रख दिए टेबल के ऊपर। गरम चाय उन्होंने तुरंत नहीं पी। टेबल पर ठंडी होने के लिये रख दी थी। मन-मसोस कर नीपा सामने के सोफे पर बैठकर चाय खत्म होने का इंतजार करने लगी।
"बच्चे दिखाई नहीं दे रहे हैं?"
"स्कूल गये हैं। आपकी तबीयत कैसी है?" पूछ तो लिया, मगर बाद में उसको अफसोस होने लगा कि कहीं उसने गलती तो नहीं की। इस समय उसको बात बढाने का सिलसिला आरंभ नहीं करना चाहिए था। पहले से ही उसे विलंब हो रहा था। जैसे ही उनकी चाय पूरी हो जाएगी, वैसे ही नीपा वहाँ से चली जाएगी।
"तबीयत तो ठीक ही है पर बाएँ पैर और कमर में झुनझुनाहट बनी रहती है।" बोलते समय उनकी जीभ तालू से लग रही थी इसलिए उनका उच्चारण स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। वे बोल रहे थे-
"मैं गाँव छोडकर चला आया।"
"हाँ, आपके भाई-साहब ने फोन पर बताया था।"
"फोन किया था? क्या कह रहे थे?" वह आश्चर्य-चकित होकर पूछने लगे थे।
"आपके बच्चों को समझाने के लिये कह रहे थे।"
"कौन? आप समझायेंगी?"
"हाँ, ऐसा ही तो कह रहे थे दिवाकर"
वे हँसने लगे थे। चाय के साथ बिस्कुट डुबो-डुबोकर खा रहे थे तथा धीरे से चुसकी लेते हुए चाय पी रहे थे। नीपा दीवार की घड़ी की तरफ देख रही थी। घड़ी का काँटा देखते ही उसका मन व्यग्र हो उठा। आज जरुर ऑफिस पहुँचने में विलंब हो जाएगा। फिर स्वाँई बाबू, जरुर दो-चार बातें सुनाएँगे। कहेंगे-
"सिर्फ प्रमोशन माँगने से नहीं होगा, मिसेज मोंहंती। इसके लिये सबसे पहले तो आपको अपने समय का पक्का होना पड़ेगा, नियत समय पर आना होगा, कार्य में नियमित होना होगा। और मुझे यह भी पता चला है कि आप मुझे न बताकर सीधे मैनेजिंग-डायरेक्टर से अपने प्रमोशन के लिए कह रही थीं।"
वे हाथ में कप लेकर चाय पीने लगे। उनका हाथ कमजोरी से काँप रहा था, इसलिये कप भी हिल रहा था। नीपा को मन ही मन बड़ा खराब लगने लगा। चेहरे पर पसीने की बूँदें भी छलक आईं। उसने अपने पर्स की ज़िप खोल कर रूमाल निकाला और मुँह पोछने लगी। काम का बहाना कर रसोई-घर के भीतर चली गई। फिर कुछ समय बाद बाहर लौट आई। तब तक उन्होंने चाय पी ली थी, मगर वे उठने का नाम नहीं ले रहे थे। यह देखकर नीपा से रहा नहीं गया और बोली,
"लग रहा है आप थके हुए हैं, थोड़ा-सा विश्राम कर लीजिए। आफिस में मुझे जरूरी काम है, अब जाना होगा। मेरी टेबल पर एक महत्त्वपूर्ण फाईल आई हुई है। उसको आज ही मैनेजिंग-डायरेक्टर के पास भेजना है तो, मुझे जाने की अनुमति दें।"
"ठीक है, मैं भी जा रहा हूँ।"
"कहाँ जाएँगे आप?"
"कहाँ जाऊँगा?" वे हँस दिये थे।
"आप कहीं मत जाइए। आप यहीं रुक जाइए। दिवाकर दोपहर में खाने के समय घर आते हैं। आपसे भेंट भी हो जाएगी। साथ ही साथ, आप दोनों लंच भी ले लीजियेगा। ठीक है, अब मैं चलूँ?"
वह सेन्ट्रल-टेबल पर रखे अखबार को उठाकर पढ़ रहे थे। नीपा बरामदे से अपनी स्कूटी निकालकर आफिस जाने की तैयारी कर रही थी। तब भी वे वहीं पर बैठे हुए थे। नीपा को उन्हें ऐसे अकेले छोडकर जाना अच्छा नहीं लग रहा था मगर इसके अलावा उसके पास कोई चारा भी नहीं था। उसे याद आया कि कुछ समय बाद घर का काम निपटाकर कामवाली भी चली जाएगी, फिर वे घर में बिल्कुल अकेले बैठे रहेंगे। इसलिये उसे घर में ताला नहीं लगाना चाहिए। सूने-घर में अकेले बैठकर वे क्या करेंगे? नीपा कल्पना करने लगी कि घर में वे अकेले चुपचाप बैठे हैं। एक ही अखबार को आरंभ से लगाकर अंत तक, ऊपर से नीचे तक दो-तीन बार पढ़ चुके हैं। यद्यपि ड्राइंग-रूम में टेलीविजन है, मगर उन्होंने टेलिविजन को चालू तक नहीं किया है।
बुढ़ापा आने पर मनुष्य का यह हाल हो जाता है! उनके पास समय की कोई कमी नहीं है। यह अनन्त समय, क्या सिर्फ मृत्यु की चिंता में बीत जाएगा? अथवा एक गाय की भाँति अपनी पुरानी स्मृतियों की जुगाली करते-करते पूरा समय पार हो जाएगा? दोपहर को दिवाकर हर दिन की भाँति जरूर घर आएँगे। माइक्रोवेव में खाना जरूर गरम करेंगे। अपने सुख-दुख की बातें करेंगे। दिवाकर के पास तो कहने के लिये कुछ भी नहीं होगा, वह तो सिर्फ श्रोता बनकर सुनते रहेंगे।

यह अलग बात है, आजकल वे नीपा के घर पहले जितना नहीं आते थे। साल में एकाध बार आकर कुशल-क्षेम पूछकर चले जाते थे। मगर नीपा को यह अच्छी तरह से याद है कि जब वह शादी करके नई-नई आई थी, वे सप्ताह में प्रायः एक-दो बार आ ही जाते थे। एक कप चाय लेकर पीते-पीते एक घंटा, उससे भी ज्यादा दो घंटे तक बैठ जाते थे गप-शप करने के लिए।
उनकी गप्पों में घर-परिवार या बाल-बच्चों के बारे में तनिक भी चर्चा नहीं होती थी, सिर्फ राजनीति से संबंधित बातें होती रहती थीं। तत्कालीन जितने नामी-धामी नेता थे, उनके गुण-अवगुण, उनके अँधेरे-उजाले, सभी पक्षों पर विस्तारपूर्वक बातें करते थे। कभी-कभी नीपा भी अपना काम-धाम छोड़कर उनकी बातें सुनने के लिये बैठ जाती थी। राजनीति में ऊँची पहुँच रखने के बावजूद भी वह निर्वाचन में कभी खड़े नहीं हुये थे। वे दूसरे नेताओं की तरह भी नहीं थे, जो मौके का फायदा उठाकर अपने काम बना लेते थे। एक बार नीपा को उनके घर घूमने का सौभाग्य मिला था। वहाँ उसने देखा बैठने के लिये बिछी हुई थी- बिना किसी बिस्तर के रस्सी वाली खाट। इस खाट के अलावा कुछ भी नहीं था। पास में थी पत्थर की मूरत बन बैठी एक अधेढ़-उम्र की औरत। सुख-दुःख से परे, अविचलित भाव-भंगिमा से ताक रही थी शून्य की तरफ। वह उनकी धर्म-पत्नी थी। दस, बारह, चौदह और सोलह साल के कुछ बच्चे आँगन में इधर-उधर घूम रहे थे। कोई कोयले की सिगडी जला रहा था, तो कोई बरतन माँज रहा था। इनमें से कोई एक बच्चा मेहमानों के सामने दो कप चाय रखकर चला गया था।

बाद में नीपा को पता चला था कि उनकी पत्नी का दिमाग खराब हो गया था, इसलिये उनको भारी-भारी दवाईयाँ खानी पड़ती थी। इन्हीं दवाईयों की वजह से धीरे-धीरे वह इतनी निष्क्रिय हो गई थीं मानो वह जिंदा लाश हों। बच्चे आधे-दिन होटलों से आलू-चॉप या वड़ा मँगाकर खाते थे क्योंकि कई दिनों तक उनके पिताजी वहाँ नहीं रहते थे। और माँ का तो कहना ही क्या? वह तो जिंदा होते हुए भी निर्जीव अवस्था में थी। उस दिन के बाद नीपा कभी भी उनके घर नहीं गई थी। बच्चे खुद ही अपना संघर्ष करते-करते अपने पाँव पर खड़े हुए। अखबार में विज्ञापन के माध्यम से उन्होंने अपना जीवन-साथी भी चुन लिया था। एकाध बार दावत पर गई थी, नीपा उनके घर।

चार-पाँच साल हुए होंगे, उनके व्यापारी लड़के ने पुराना घर तुडवाकर नया आशियाना बनवाया था। उस समय तक भी वह भुवनेश्वर में ‘एम.एल.ए क्वार्टर’ में रहते थे। इस कारण से उनके साथ कभी भी मुलाकात नहीं हो पाती थी। पुनः जब निर्वाचन का समय आया, तो वे अपने अँचल को लौट आए थे। कभी-कभार रास्ते में उनसे मुलाकात हो जाती थी, पर वे इतने व्यस्त नजर आते थे कि बात करने का वक्त भी नहीं मिल पाता था। अक्सर उस समय वे किसी न किसी राजनैतिक व्यक्ति से घिरे रहते थे।

दिवाकर उनका कोई लंगोटिया दोस्त नहीं था, इसलिये भुवनेश्वर से आने के बाद वे उनके घर मिलने भी नहीं आए। लेकिन इस बार उनकी पार्टी का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रत्याशी हार गए थे और उनको भुवनेश्वर जाने की जरुरत नहीं थी। अब वे कहाँ जाते? मियाँ की दौड़ मस्जिद तक। इस छोटे से शहर से अपने घर तक वह सीमाबद्ध होकर रह गए थे। इसी दौरान उनका सबसे छोटा बेटा भी जवान हो गया था। बहुत ही बदमाश था। कालेज की पढाई बीच में छोड़कर दिनभर पान की दुकान पर बैठा रहता। वे उसको खूब समझाते थे। प्रिंसिपल से विनती कर एक बार फिर से कालेज में दाखिला दिलवा दिया था। वह कालेज तो जाने लगा था, मगर बुरी संगत में फँसकर गाँजे व दारू का नशा करने का आदी हो गया था। रास्ते में जब भी दिवाकर से भेंट होती तो अपने छोटे बेटे की हरकतों के बारे में जरूर बताते। दिवाकर उनको समझाने का प्रयास करता था।

"आपने कभी भी अपने जीवन में बच्चों के भविष्य के बारे में तो सोचा नहीं, अब क्यों इतना परेशान हुए जा रहे हैं?"
वे हँसते-हँसते कहते थे, "ठीक है। सब बच्चे अपने बलबूते पर धीरे-धीरे खड़े हो गए हैं। मेरा छोटा बेटा नहीं हो पाया। इसी बात का मुझे दुःख लग रहा है।"

घर-संसार में इससे बढ़कर और क्या चिंता हो सकती है? उनके छोटे वाले बेटे ने जैसे हठ पकड़ ली थी कि वह दुबई जाएगा ही जाएगा। उसके लिये रूपये-पैसों की व्यवस्था कहाँ से करें! वीसा-पासपोर्ट के बारे में किसी को चिन्ता करने की जरूरत नहीं थी। ये सब कहीं से जुगाड़ किए जा सकते हैं, वह भलीभाँति जानता था। वैसे भी वह लड़का रोज पच्चीस-तीस रुपये माँगकर ले रहा था, और रूपये देते-देते वे थक गए थे। हर प्रकार के नशे का वह आदी हो गया था। उनके दिमाग में यह भी आ रहा था कि यह लड़का बाहर जाना चाहता है, तो भले ही जाए। दुनिया भर के लोग वहाँ जाकर कुछ न कुछ काम करते ही हैं, यह भी जाएगा तो अपना पेट पाल ही लेगा, परन्तु उनके सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी कि जाने के लिये इतना सारा रूपया कहाँ से लाया जाएगा।

वे सोच रहे थे कि बाकी तीन बेटों से कुछ-कुछ रुपये माँगकर छोटे बेटे को दे देंगे। उन्हें लगा था कि आसानी से रूपये मिल जाएँगे। मगर ऐसा नहीं था। उतनी सहजता से रूपयों का जुगाड़ नहीं हो पाया। दो बड़े बेटों को इस बाबत चिट्ठी लिखी थी, उसका जवाब नहीं आया। फोन भी किया था उनको, मगर उनका जवाब सुनकर वे हताश हो गए थे। बडे बेटे के अनुसार उसको चौक में चाय की दुकान खोलनी चाहिए। मँझले बेटे का कहना था, दुबई जाकर वह क्या करेगा? उसको कहिये कि वह खेती-बाड़ी करे। तीसरे बेटे के क्रोधी स्वभाव को वे अच्छी तरह जानते थे, इसलिये उससे तो उनहोंने बिल्कुल भी नहीं माँगा। उनके पास और कोई रास्ता नहीं था। अपनी एक जमीन बेच दी थी- पचास हजार में और इस धन-राशि को छोटे-बेटे को अपनी इच्छापूर्ति के लिये दे दिया।

रूपये लेकर छोटा बेटा कुछ दिनों के लिये अंतर्ध्यान हो गया। दो महीने के बाद लौटा था, पहनकर मैली पोशाक, बिना तेल के उलझे बाल, उस पर पिचका हुआ चेहरा। जब कोई दुबई की बात पूछता था, तो हर किसी को नई-नई कहानी सुनाता था। "रूपयों का क्या हुआ?" पूछने पर नाराज होकर झगड़ने लगता था। छोटे बेटे की इस करतूत से वे पूरी तरह से टूट गए थे। मगर उनके इस दुख से छोटे बेटे का कोई वास्ता न था। वह हर रोज पूर्ववत धमकी-चमकी देकर कुछ न कुछ रूपये माँगकर ले जाता और रुपये न मिलने पर घर का सामान जैसे घड़ी, साइकिल, टेपरिकार्डर आदि बेच देता। उसके इस व्यवहार से तंग आकर, ज्येष्ठ व्यापारी भाई पुश्तैनी घर छोडकर दूसरी जगह किराए पर मकान लेकर रहने लगा था। पुश्तैनी घर में रह गए थे केवल एक निर्जीव-सी नारी, एक बूढ़ा इंसान और उनका एक नालायक बेटा। उनका छोटा बेटा दिन भर बाहर घूमता रहता और रात को चुपचाप घर में आकर सो जाता। दिन भर कहाँ था? खाना खाया अथवा नहीं? पूछने की भी उनकी हिम्मत नहीं होती थी। इसलिए एक दिन उन्होंने तय कर लिया कि एक मटका पानी तथा थाली में रोटी-सब्जी डालकर उसके कमरे में उठने से पहले ही रख दिए जाएँ। इतनी भीषण गर्मी के दिनों में कैसे सोता होगा? यही सोचकर उनको नींद नहीं आती थी, क्योंकि उस लडके ने अपने कमरे का टेबल फ़ैन बहुत पहले ही बेच दिया था। उनका मन बहुत ही दुखी होने लगा था। इसलिए एक सीलिंग-फ़ैन खरीदकर उसके कमरे में फिट करवा दिया था। मगर एक दिन उन्होंने देखा कि वह सीलिंग-फ़ैन भी वहाँ से गायब हो गया। इस बार वह खुद को रोक नहीं पाए। बेटे को पूछने लगे, "सीलिंग-फ़ैन किसे दे दिया? कितने रूपयों में? मैंने तो यही सोचकर खरीदा था कि तुमको गरमी लगती होगी और तुमने तो एक ही महीने में उसे पार कर दिया।"

बेटा बहुत ही क्रोध भरे स्वर में बोला था, "आप मुझे हाथ-खर्च तो देते नहीं है। अगर नहीं बेचूँगा तो हाथ-खर्च के लिये पैसा कहाँ से आएगा?" वह गुस्से से आग-बबूला हो गए थे, मगर उन्होंने नील-कंठ शिव की भाँति गुस्से का सारा जहर अपने अंदर ही पी लिया। एक दो रोज तक बेटे की तरफ देखा भी नहीं, मगर फिर तीसरे दिन से उनका मन उसको देखने के लिये छटपटाने लगा था। कुछ नहीं तो, एक हाथ-पंखी लाकर उसके कमरे में रख दी थी। उसके कमरे में कुछ भी नहीं था, रस्सी की खटिया और हाथ-पंखी को छोड़ कर। कुछ दिन बीतने के बाद फिर एक दिन उन्होंने देखा, उनका छोटा बेटा सब्बल लेकर खिड़की तोड़ रहा था । उनसे यह देखकर रहा नहीं गया और पूछने लगे-
"खिड़की क्यों निकाल रहा है?"
"खिड़की को बेचूँगा।"
"तुम क्या कंगाल हो गए हो? घर की खिडकी तोड़कर बेचोगे? कितने रूपये चाहिए तुम्हें?" उस लड़के ने उनकी बात को अनसुना कर दिया और अपने काम में लगा रहा। कुछ उपाय न पाकर वह सीधा थाने चले गए। यही सोचकर कि पुलिस आकर धमकाएगी तो शायद डरकर खिडकी तोडने का काम बंद कर देगा। मगर पुलिस ने उनको ‘यह घर का मामला है’ कहकर समझा-बुझाकर घर लौटा दिया। घर लौटकर उन्होंने देखा कि खिड़की की जगह एक टूटी हुई दीवार उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। अब से वह उसके कमरे को बाहर से ताला लगाते थे, कहीं ऐसा नहीं हो जाए कि दूसरा कमरा भी सुरक्षित न रह जाए। इसके बाद से छोटा बेटा उसी टूटी खिड़की के रास्ते से आता-जाता था। रात के अँधेरे में घर घुसता था, और सुबह होते ही निकल जाता था। एक दिन किसी बात को लेकर उनका छोटे बेटे के साथ जोरदार झगड़ा हो गया था। उसी दौरान वह मूर्छित होकर जमीन पर गिर पडे थे। यह देखकर छोटा बेटा खिडकी से भाग गया यह कहते हुए ‘बुढ़ापे में भी बहाना बनाने से बाज नहीं आते है!’ आस-पडोस के लोग उनको उठाकर अस्पताल ले गए थे। अपनी दुर्दशा के बारे में सबको इतला भी कर दिए थे, परन्तु कोई भी उन्हें देखने नहीं आया था।
शहर में किराए पर रहने वाले तीसरे बेटे ने लोक-लज्जा के मारे अपने पिताजी की सेवा कुछ दिन तक जरूर की थी। इस वजह से वह मृत्यु के दरवाजे तक जाकर पुनः इस संसार में लौट आए थे। उनका इस प्रकार लौट आना अपने बुरे दिनों को बुलाना था। अगर मर जाते तो शायद अच्छा होता! जिस प्रकार से दोनो देशों की सीमा पर खड़े रहने से जो दुर्दशा होती है, ऐसा ही हाल उनका था। न इधर के, न उधर के, न तो संसार को छोड़ पाए थे, न ही उनको यहां शांति मिल पाई थी। जरा-व्याधि की कंबल ओढकर वह बैठे तो बैठे ही रहे। ऐसी ही बीमारी की अवस्था में, एक दिन काँपते हुये वह नीपा के घर आए थे। उनका चेहरा कांतिहीन लग रहा था जैसे घिसे हुए पुराने सिक्कों की तरह दिख रहे हों। बात भी स्पष्ट रूप से नहीं कर पा रहे थे। वह दिवाकर के सामने अपना दुखडा सुना रहे थे। नीपा रसोईघर में व्यस्त थी। वह सोच रही थी, क्या कोई और सुनने वाला नहीं मिलता है उनको? जो इतनी दूर से पैदल चलकर आते हैं अपना दुख-दर्द सुनाने. अचरज की बात तो यह है कि दिवाकर तो उनकी कभी भी, किसी भी तरह से, सहायता नहीं करते हैं। फिर भी क्यों आते हैं?

वह कहते थे, "संसार में कोई किसी का नहीं है। बड़े बेटे अमिय के पास रहने की सोच रहा था, तो वह कह रहा था कि आप मुंबई जैसे शहर में नहीं रह पाएँगे। यहाँ काफी परेशान हो जाएँगे। मँझले बेटे के घर में पाँच दिनों तक रूका था, मगर किसी ने मुझसे बात नहीं की, न बेटे ने, न बहू ने। बड़ा ही खराब लग रहा था, इसलिए छोड़कर चला आया। रही छोटे बेटे की बात, वह क्या बोलता है जानते हो, आप मर क्यों नहीं जाते हैं? आपके मर जाने से धरती का एक बोझ हल्का हो जाएगा। मैं तो आपको मार भी देता, मगर पुलिस मुझे अंदर कर देगी। एक आदमी को सुपारी दे देता तो किसी गाड़ी के चक्के के नीचे दबाकर आपका काम तमाम कर देता। मगर सुपारी देने के लिये मेरे पास दस-पन्द्रह हजार रूपये नहीं हैं। अच्छा सही-सही बताओ तो दिवाकर, क्या मैं सचमुच इस संसार के लिए बोझ बन गया हूँ? मैं मरना चाहता हूँ, पर चाहने से तो मौत भी नहीं आती है। आत्म-हत्या करने की मुझमें हिम्मत नहीं है।"

उस दिन उनकी बातें सुनकर नीपा का हृदय हाहाकार करने लगा। उसका मन बहुत उदास हो गया था। उनकी इस मुलाकात के तीन-चार दिन बाद, नीपा और दिवाकर की बाजार में उनके व्यापारी लड़के से भेंट हो गई। दिवाकर उससे कहने लगा, "तुम अपने पापा को अपने साथ क्यों नहीं रखते हो? वह इधर-उधर भटक रहे हैं। रहने के लिए एक कोठरी भी नहीं है। तुम्हारा छोटा भाई उनको बहुत सता रहा है। और इतनी उम्र में वह जाएँगे भी कहाँ?"
"मेरे पास वह नहीं रह पाएँगे। मेरी पत्नी के साथ उनकी पटती नहीं है ।"
"क्यों?"
"उनको पता है।"
"अरे! तुम तो हो, तुम्हारी पत्नी के साथ नहीं पटने से भी क्या है? उनको समझा-बुझाकर घर ले आओ, और इधर अपनी पत्नी को भी थोडा-बहुत समझा दो।"
"आप भी कैसी बाते करते हैं? दूसरे भाइयों का कुछ कर्त्तव्य नहीं बनता है क्या? बड़ा भाई तो कन्नी काट रहा है, मँझला भाई हमारे ही शहर में मकान किराये पर लेकर रह रहा है। वे दोनों क्यों नहीं रखते हैं? पापा को जब हृदयाघात हुआ था, तब भी उनको फुर्सत नहीं थी देखने आने की। पापा को केवल फोन पर समझा रहे थे कि खाने-पीने में क्या-क्या सावधानी बरतनी है? पापा, क्या सिर्फ मेरे ही हैं? उनके कुछ भी नहीं हैं? और ऐसा उन्होंने मुझे दिया भी क्या है? जब मैं छोटा था, तब मेरा बचपन बीता अध-पगली माँ के साथ। कई दिन तक होटल से आलू-चॉप, वडा खाकर मैं स्कूल जाता था। एक दिन प्रधानाध्यापक ने मेरे पापा को स्कूल बुलाया था। मगर वह एक महीने तक स्कूल नहीं गए। प्रधानाध्यापक ने मुझे बुलाकर क्या कहा था, जानते हो? छोडिए, बीती हुई इन बातों को। यहीं नहीं, एक बार एक अनजान आदमी हमारे घर आया था। मुझे देखकर पूछने लगा था क्या यह आपका बेटा है? क्या नाम है उसका? पापा तुरंत उस आदमी के सामने मुझे पूछने लगे थे, तुम्हारा नाम क्या है? उस दिन मुझे ऐसा लगा था मानों किसी ने मेरे गाल पर जोरदार तमाचा मार दिया हो! उनके पार्टी-आफिस में चाय बेचने वाले लड़के से अल्प-सूद पर दस हजार रूपये मैंने उधार लिए थे। उन्हीं उधार पैसों से मैंने यह दुकान खोली थी। पाई-पाई जोड़कर, बड़े ही कष्ट के साथ वह ऋण अदा किया था और जी-तोड मेहनत कर इस दुकान को इतना आगे बढ़ाया है।"

(रूपांतरकार : दिनेशकुमार माली)

  • सरोजिनी साहू : उड़िया कहानियाँ हिन्दी में
  • उड़िया कहानियां और लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां