पिता (कहानी) : राजनारायण बोहरे

Pita (Hindi Story) : Rajnarayan Bohare

हम सब हैरान थे ।

वर्मा दम्पत्ति का सदा उजाड़ और फीका सा रहने वाला मकान इस वक्त हमारे कस्बे के सबसे चतुर ठेकेदार की देख-रेख में अपना श्रृंगार कर रहा था। आज बड़े भोर चार मजदूर अचानक प्रकट हुए थे और मकान में उगे झाड़- झंकाड़ उखाड़ने में जुट गए थे।

दस बजते-बजते एक नई नकोर वाइक वर्माजी के दरवाजे पर आकर ठिठकी। हम सब खिड़कियों से झांकने लगे-इस तनहा और वीरान मकान के सामने रूकने की ज़ुर्रत और ज़रूरत भला किसको हुई !

मकान को टटोलती निगाहों से ताकता एक नौजवान को वर्माजी ने आगे बढ़ कर रिसीव्ह किया था और अब अपने साथ भीतर ले जा रहे थे । बाद में निगम साब ने बताया यही है हमारे कस्बे का नया और चतुर ठेकेदार-वरदान कपूर । वरदान कपूर घूम-घूम कर वर्मा साब का मकान देखने लगा।

मोहल्ले की औरतों में उत्सुकता बढ़ी। कई घरों के फोन बजे।
बाहर कई महिलाऐं इकट्ठी हुईं तो उनकी खुसर-पुसर आरंभ हुई ।
घर लौट कर सत्या बोली-‘ सुना है इनके अमरीका वाले बेटे आ रहे हैं ।’

‘ वे तो हर दो साल में आते हैं । उधर दिल्ली और भोपाल में रहके लौट जाते हैं । लेकिन इधर झांकते ही कहां है ? ‘
‘सुना है इस दफा घर पर ही रूकेंगे। कई दिन के लिए आ रहे हैं , सो यहीं कस्बे में रहेंगे ।’

घरेलू औरतों का सूचना तंत्र बड़ा सशक्त और ऐसा अदृश्य है,कि वे चाहे घर से भी न निकलें, लेकिन दुनिया जहान की सारी बातें घर बैठे उन्हे पता चल जाती हैं ।

सांझ तक इस ‘गृहणी संचार सेवा’ की बदौलत कई बातें पता चलीं।....अमेरिका में रहने वाले दोनों बेटे पन्द्रह दिन के लिए इस बार अपनी जनम भूमि में रहने का विचार बना के आ रहे हैं ! ....खर्च के लिए एडवांस पैसा भेज दिया है-डॉलरों मे । बड़े बेटे ने कहा है कि पूरा घर एयरकंडीशंड करा लो ।जितनी जल्दी हो , दो चार नये कमरे बनबा लो ।

निगम भैनजी ने बताया था कि एक डॉलर के बदले पूरे उनचास रूपया आते हैं, अमरीका से अगर पांच हजार हजार डॉलर भी भेजे गये होंगे तो इंण्डिया आकर पूरे दो लाख पैंतालीस हजार रूपये हो गये होंगे ।
सूचनाऐं तो और भी थीं । मसलन-
....इतनी जल्दी नये कमरे बनाने की मना करदी है ठेकेदार ने ।
...रूई की जगह डनलप के गद्दे खरीदे गये हैं हर बिस्तर पर ।
...घर में विदेशी पद्धति के बाथटब और लेटिन पॉट लग रहे हैं
....पाखाने में पानी की टोंटी की जगह कागज के रौल लगवा रहे है वर्माजी ।

कॉलोनी में हम सब लोग मध्यवर्गीय वित्तीय स्थिति वाले थे। सबके हौसले थे कि अपनी तो जैसे-तैसे गुजरी , आगे की पीढ़ी की पढ़-लिख कर जिंदगानी सुधर जाए। इस कारण दर्जन भर लड़के कोटा में रहकर कोचिंग कर रहे थे और मां-बाप की आंखों में पलते सुनहरे सपनों के सच होने के इंतजार में थे ।

रजनीश का आगमन हम सबके मन को हरषाया । हम सबने सुन रखा था कि अमेरिकी सरकार ओर वहां का फोर्ड फाउण्डेशन भारत वर्ष के प्रतिभाशाली किशोरों को छात्रवृत्ति देकर अपने देश में तालीम दिलाता है और बाद में नौकरी भी। हमने सोचा-चलो रजनीश जी से इस बारे में कुछ और जानकारी ली जाय, शायद उनका कही कोर्इ परिचय हो तो अपने बेटे-बेटियों में से किसी के भाग जाग जायें और भविष्य में उनकी बदौलत हम भी उस सुख को भोगें जो सुख वर्मा दादी और वर्मा बब्बा भोग रहे हैं आज ।
वर्मा बब्बा का सुख !

यह सुख याद आते ही बहुत कुछ याद आया। हम तब नये-नये इस कॉलोनी में आये थे, तो सबसे दीन-हीन आदमी लगे थे वर्माजी। इकलमिजाजी सा वास था उनका। न कोई आता न जाता। वे भी किसी के यहां न जाते। मोहल्ले के ब्याह-शादी तीज-त्यौहार बीत जाते, लेकिन वर्मा लोगों का घर भला और वे दोनों भले-न ऊधो का लेना न माधो का देना ! लेकिन मुझे बड़े भले लगे वे, मेरे अपने पिता और चाचा की तरह सन्तोषी,शांत औऱ दिखावे से बहुत दूर। मैं जब भी उनसे मिलता पिता की ही तरह उनके पाँव छूता।

बाद में किसी से पता लगा कि जैसे दिखते हैं, वैसे गरीब और निराश्रित नहीं हैं वे दोनों। तीन संतानें हैं-तीनों विदेश में हैं। सुना कि हर महीने दोनों बेटे इतना पैसा भेजते है कि राज के राम करें बुढऊ ! लेकिन तपस्वीयों की तरह जीवन शेली है उनकी ।

मन में तमाम प्रश्न थे-ऐसे आदमी के घर उस जमाने में ऐसे दूरदर्शी बेटे कैसे जनम गये ? जो न केवल प्रतिभाशाली थे, बल्कि अपने कैरियर के प्रति भी इतने जागरूक थे कि प्रोफेशनल कोर्स पूरा करते ही विदेश का रास्ता पकड़ गए। किसने सिखाया होगा उन्हें विदेश का रास्ता और सही अवसर पहचान कर अपना ठांव छोड़ हवा में छलांग लगा देना ।

हवा ! हां हवा में ही तो छलांग लगाना होता था यह। जहां कल का पता न हो, जहां रिश्तेदार-गोतिया तो दूर रहे हितू पड़ौसी, जाति-विरादरी का भी कोई आदमी न हो।पूरी जिंदगानी का खतरा उठाए ,पीठ पर बिस्तर बांध कर यूरोप भर में बदनाम अमरीका के लिए कैसे अपना घर छोड़ गये थे वे दोनों भाई ।

कोई कहता था कि मां-बाप की दिन रात की सख्ती से उकताए बच्चों को देश छोड़ जाना अच्छा लगा ; तो किसी का कहना था कि बच्चों ने जब अपने मां-बाप को तपस्वियों की तरह हर स्वाद, हर सुख, हर मनोरंजन और हर

लालसा को दबा इतना समर्पित देखा तो उन्हें खुद ही ऊंचा उठने की प्रेरणा मिली और वे उस देश , उस नौकरी और उस स्टेटस पर जा बैठे , जहां पहुंचने की हर बेटा ख्वाहिश करे, हर मां-बाप प्रार्थना करे ।

हमारे सामने ही एक बार बूढ़े-बुढ़िया के लिए बेटों ने बीजा भिजवा दिया । अब समस्या यह थी कि ऐसे पुराने जमाने के आदमी अपना मकान किस के भरोसे छोड़ें...? हम सब से बहुत सोच-विचार हुआ तब एक नौकर को घर की चाभी देकर वे लोग परदेश जाने को तैयार हुए ।

हम सब उनके विदेश जाने के पूर्व उन्हें विदा देने घर पर गये तो उन्होंने खड़े-खड़े ही बात की । जब हमने उनके त्याग और तपस्या की सराहना की तो उन्होंने हम सबको कम शब्दों में अपनी संघर्षगाथा सुना डाली। जिस दिन से वर्माजी के बच्चों ने पांचवीं कक्षा पास की, उसी दिन से वर्माजी के घर से मनोरंजन के सारे साधन हटा दिये गए थे। घर में न कोई अखबार आता था, न बात वाला कोई आदमी। कभी किसी मेले-ठेले में मंदिर और पूजा पाठ नहीं गये थे वे उन बरसों में। बच्चों के साथ दोनों जन सुबह चार बजे उठ जाते और बैठे-बैठे अपने बच्चों को पढ़ता हुआ देखते , मानों उन्हें भी कोई इम्तहान देना हो। बच्चों के भविष्य के लिए हर रिश्ता-नाता, हर शौक और सारी पूजा-रचा तक बलिदान कर दी उन्होंने और कभी इस बात की चिन्ता नहीं की कि इस तरह वे धीरे-धीरे सबसे कटते जा रहे हैं...और बोले वर्माजी कि अब चाहे लोग हमे कंजूस कहें , चाहे एकाकी रहते कुछ और।

उस दिन इतना जाना कि उनके बड़े बेटे का नाम डॉक्टर रजनीश है, जो कि न्यूजर्सी में किसी अस्पताल में चिकित्सक और बीवी गायकोनोलॉजिस्ट है, छोटा बेटा मनीष कनाडा में साइकिटिक है ,और उसकी पत्नी एक कॉलेज में प्रोफेसर है। अब दोनों बेटों के पास छैः- छैः महीने रूकेंगे और जम गया तो हमेशा के लिए वहीं रम जायेंगे । क्योंकि अमेरिका तो स्वर्ग है, धूल-धक्कड़ है न कोई वायरस या वैक्टीरिया..., दुनिया की हर बुरी और दुख दायी चीज नदारद है वहां से। रह गया यह मकान सो वे जिस दाम में बिका इसे तत्काल बेच देंगे, लौटते में हम सब मन-ही-मन वर्मा साहब के मकान की कीमत का अनुमान लगा रहे थे, कि कदाचित उन्होंने यह मकान बेचा और हमको मौका मिला तो हम कितने में खरीद सकते हैं ।

तीन महीनों में ही बूढ़े-बुढ़िया घर लौट आये तो हम सब चकित थे। हम सब मिलने गये तो वर्मा बब्बा हमेशा की तरह बाहर ही उठ आये और बाहर खड़े-खड़े ही अमरीका के अनुभव सुनाना शुरू कर दिया....कि कैसे वहा एक डॉलर में पांच लीटर फ्रूट जूस मिलता है..... कि वहां कैसे सूखे मेवो की डलिया माटी के मोल कॉलोनी के हर नुक्कड़ पर बिकती है ।..... भारत से नया और अलग बताने के जोश में वे यह भी बताते चले गए कि कैसे उनके बेटे-बहू सुबह से लेकर देर रात तक व्यस्त रहते हैं और वीक-एण्ड के अलावा उनसे मिलना-बतियाना हो ही नहीं पाता था...कि कैसे उन्हें कुछ दिन बाद ही अपने देश की याद आने लगी और कैसे बेटों ने सहज भाव से उनके लौटने की व्यवस्था कर दी थी।

अलबत्ता तब से वर्माजी मशवरा देते थे कि बच्चों की खातिर काहे को अपनी जिन्दगी कुर्बान कर रहे हो, उमर बीत जाएगी तो दुनिया का हर सुख तुम्हारा मुंह चिढ़ाएगा और तुम जिनके लिए ये सब कुछ कर रहे हो वे पंछी जिस दिन उड़ना सीखेंगे हर समझदार परिन्दे की तरह अपना घोंसला अलग बना लेंगे-दुनिया का यही चलन है! जवानी में तो कम खाकर, कम सोकर और मोटा-सोंटा पहन कर भोग ही रहे हो, तुम बुढ़ापे में तकलीफ भोगोगे और ऐसे में हम जैसे लोग द्वंद्व में पड़ जाया करते हैं कि बच्चों की खातिर अपना वर्तमान स्थगित कर देना सही है या सहज तरीके से बच्चों का पालन-पोषण ।

लेकिन जब हमने वर्माजी के दोनों बेटों के ऐसे ठाठ देखे तो हम फिर उस आकर्षण में बंध गये जिसमें हमारे जमाने का हर बाप बंधा हुआ है ।

अकूत सामान से भरी तीन नई नकोर कारें वर्मासाहब के द्वार पर आकर रूकी तो मोहल्ले भर के लोग दरवाजों-खिड़कियों पर लद आये ।

जेवरों से लदी प्रौढ़ वय की तीन खाई-अघाई, औरतें कारों से निकलीं उनके पीछे तीन जैंटलमैन उतरे और अजनबियत भरी निगाहो से चारों ओर ताकने लगे । किशोरावस्था के पांच छै बच्चे कुछ अजीब सा शोरगुल करते वर्मा जी के अहाते का दरवाजा खोलकर घर में जा घुसे थे, और मोहल्ले के लोग अंदाजा लगा रहे थे कि वर्मा दादी इस शोरगुल से उत्तेजित होकर अभी नाराज होती बाहर निकलेंगी ।

लेकिन सबके अनुमानों को ध्वस्त करते वर्माजी क्षण भर बाद ही आत्मीयता दर्शाते आते दिखे , जिनके पीछे वर्मा दादी थीं ।

खिड़कियों से झांकती महिलाओं के परस्पर इशारे हुए । प्रश्न उछले । आंखें सिकुड़ीं । फिर एक-एक करके वे सब अपने द्वार खोलकर बाहर निकलने लगीं । पुरूष लोग भी उदासीन से बने बाहर आये तो बातों का दौर चल पड़ा । किसी ने बताया कि इन महिलाओं में सिर पर पल्लू लेने वाली दोनों औरतें बहुऐं हें और तीसरी वर्मा जी की बेटी है । तीनों स्टेटस् में रहती है । इन सबके लिए वर्माहाउस तैयार हो रहा था । कल सुबह दिल्ली आकर उतरे होंगे और नई कारें किराये पर ले कर कल सांझ ही चले होगे ।

यकायक जाने क्या हुआ कि तीनों पुरूष तीनों महिलाऐं वर्माजी के घर में से बड़बड़ाते हुए बाहर आये थे, और सबके पीछे घबराए से वर्माजी थे ।वे हताश से कुछ कहते रह गये और तीनों कारें उनके मुंह पर धूल उड़ाती हुई चली गई ।

सचाई को समझने में असमर्थ मोहल्ले की औरतों को गुन्नो का इंतजार था जो भीतर से सच्ची खबर लेकर आती और उन सबकी उत्कंठा मिटती ।

गुन्नो ने सुनाया कि दोनों बेटे और बेटी अपने जीवनसाथियों के साथ रहने को ही आये थे लेकिन उन सबने वर्माजी की कंजूसी देखी तो उन सबका पारा चढ़ गया ।...दरअसल इस छोटे से मकान में कुल मिलाकर पांच कमरा थे जिनमें से भीतरवाले कमरे में तो वर्माजी किसी को घुसने ही नहीं देते, बाकी कमरों में से एक बैठक है और तीन कमरे इतने बड़े नही थे कि इतने बच्चों समेत तीन फेमिलियां ठहरतीं । लेकिन वर्माजी ने कोई कमरे नही बनबाये न कहीं ए.सी.लगवाये सो परदेशी पंछी जैसे आये थे वैसे ही बाप का घर छोड़कर इसी कस्बे में रहने वाले दीगर रिश्तेदारों के यहां चले गए ।

गुन्नो अपनी खबरें सुना कर निकली ही थी कि वर्माजी की संतानें फिर से उनके दरवाजे पर खड़ी दिखीं । हम सब चौंके । निगम भैनजी के पति आत्मीयता दर्शाते उनकी ओर वढ़े- ‘आओ रजनीश भैया, हमारे यहां बैठ लें, कुछ चाय-वाय हो जायें ।’

रजनीश जी ने उनकी दावत को घुमा-फिरा के नकारा-‘ निगम साब, आपके यहां तो कल सुबह चाय पियेंगे, अभी तो हम वो पीछे वाले गुप्ता लोगों के गेस्टहाउस में शिफ्ट कर लें ।’
‘गुप्ता जी का गेस्ट हाउस ...?’

‘ हां, हम पिता के घर के पास ही रहना चाहते है। गुप्ता लोग अपना ए.सी. वाला पोरशन गेस्ट हाउस के तौर पर किराए पर उठाते हैं न ! हमने आठ-दस दिन के लिए वो ही किराए पर ले लिया । अब घर में एकोमोडेसन भी अच्छा न था कि बच्चे रह पाते, सुविधा के लिहाज से ठीक लगा हमे।’

निगम भैनजी ने अपने पति के साथ हुए रजनीश भैया के संवाद में कुछ चीजें और जोड़कर कॉलोनी वाली सखियों को बताईं-‘ रजनीश भाई साहब कह रहे थे कि इतनी दूर से हम लोग आये ही इसलिए हैं कि यहां एक कारज संपन्न करें, जिसमें अपने लंगोटिया यारों, कॉलोनी के पड़ौसियो से लेकर अमेरिका के उन साथियों को भी बुला सकें जो इन दिनों इंडिया आये हैं ।’

‘कारज‘ शब्द ने चौंकाया सबको । कारज माने क्या...? ब्याह-सगाई लायक तो उनके कोई बच्चे दिखते नही हैं ! फिर...? कारज माने क्या करेंगे वे ! ऐसा तो नहीं कि तीरथ-बीरथ हो आये हों और गंगभोज या भण्डारा कर रहे हों....! या फिर श्रीमदभागवत ...! लेकिन अमेरिका वासियों को तीर्थयात्रा और भागवत सप्ताह में भला कहां से आस्था होगी..? जरूर कोई बड़ा कारज कर रहे होंगे।

टैण्ट वाले के साथ हुए इक्कीस हजार रूप्ये के पण्डाल लगाने के करार और ग्वालियर से बुलाए गए कैटरिंग वाले से एक सौ पचास रूप्ये प्लेट के हिसाब से बना हजार प्लेट वी आई पी भोजन देने के समझौते के अलावा कारज शब्द का सही अर्थ कॉलोनी भर में किसी को कोई पता न चल सका ।

चौथे दिन का सूर्य उगा तो वर्मा जी के घर के पास आम रास्ता बंद कर बड़ी शान से मैदान रंग-बिरंगे पण्डाल से घिर चुका था ‘शुभागमन’ और ‘ वर्मा परिवार आपका स्वागत करता है ‘ के बैनर वाले महाराजा गेट लगाए जा चुके थे । सात बजते-बजते माईक चालू हो गया और उस बाकायदा लोकगीत गूंजना शुरू हो गये थे । पता नहीं कौन स्त्रियां कहां से आई थीं, जो ठेठ देहाती अंदाज में गा रहीं थीं-आज दिन सोने को महाराज! कस्बे के मीडिया के लिए एक एक्सक्लूसिव स्टोरी थी ।

‘ सात समंदर पार से आया यहां के एक नामालूम से रिटायर्ड प्रोफेसर का बेटा, अपने पुत्र का शास्त्रीय विधि- विधान से यज्ञोपवीत कर रहा था, और कहता था कि हमारी परंपराओं के मुताबिक यज्ञोपवीत यानी जनेउ संस्कार ब्याह से कुछ कम नही होता, आम के हरे पत्तों से आच्छादित किये गये मण्डप के नीचे बाकायदा तीन तीन हवन किये जाते हैं, बालक का मुण्डन होता है । अपने अभिभावकों से मोह तोड़कर बटुक वेष में अपने उन्ही अभिभावकों से भिक्षाटन करता है । वहां विदेशों में भी हाई स्कूल कर लेने वाले लड़के के अचीवमेंट भी कुछ इसी तरह सेलीब्रेट किया जाता है ।’

सांझ का समय था । पूजा और हवन संपन्न हुये और दावत की तैयारी थी। कस्बे के तमाम संवाददाता और पत्रकार इकट्ठा हो चुके थे । इस दावत में जिले के कलेक्टर और एस पी से लेकर थाने के छोटे दरोगा तक को आमंत्रित किया गया था, कस्बे के धन्ना सेठ से लेकर पंचर जोड़ने वाले घनश्याम तक को न्यौता गया था । इसी क्षण गेट पर कलेक्टर की कार की लाल बत्ती चमकती दिखी तो कुछ लोग उधर ही लपके । हम सबकी नजरें उधर ही थीं ।

इन दिनों कलेक्टर की सीट पर एक युवा महिला विराजमान थी ,जिसका तेज देखते ही बनता था। चालीस की उमर । गोरी सुचिक्कन देह। मेक अप से पुता मुहांसेदार लम्बोतरा चेहरा । बदन पर कीमती बनारसी साड़ी । गजब की फुर्ती । वे तेजी से नीचे उतरीं । बीच पंडाल में आकर खड़ी हुईं और चारों ओर का जायजा लेने लगी । किसी ने आवाज लगाई-‘ अरे रजनीश जी, इधर आइये, आपका परिचय कलेक्टर मैडम से करायें ।’

रजनीशजी आगे बढ़े-‘ हैं...हैं......हैं, आइये मेम ! सॉरी मैं आपको देख नहीं सका । आपका ही इंतजार हो रहा था यहां -वेलकम माय होम !’

वे भी मुसकराईं-‘ अरे सॉरी एक VVIP के साथ खाना लेना पड़ा। वैसे आप जैसे NRI के लिए हमारा क्या महत्व ?’

फिर वे बोलीं-‘ उस बच्चे से तो मिलवाइये, जिसका यज्ञोपवीत आई मीन जनेऊ हो रहा है! दैटस अ गुड एन कल्चर्ड बॉय । ही इज अवर प्राउड गेनर'
रजनीशजी ने आवाज लगाई -‘ अरे जनार्दन बेटे,.....इधर आओ !’

यज्ञोपवीत संस्कार के चलते अपना सिर घुटा लेने वाला जनार्दंन अपने घुटनों तक लम्बे कुर्ते और लड़कियों जैसे दुपट्टे में इतराता घूम रहा था । पापा की पुकार सुन कर वह वहीं से अमरीकी लहजे में चिल्लाया-‘ व्हाट इज हैपन्स डैड ! हू वांट टू मीट विद मी’
इस वाक्य ने रजनीशजी के चेहरे पर जनार्दन के गर्व के भाव उभार दिये ।
उनके इशारे पर जनार्दन ने झुक कर मैडम के पांव छूए तो वे गदगद हो गईं-‘ रहने दो बेटे’
फिर देर तक कलेक्टर और रजनीशजी कनबतियां करते रहे ।

बाद में निगम साब से पता लगा था कि कलेक्टर मैडम अपने छोटे भाई को पढ़ने के वास्ते अमरीका भेजना चाहती हैं, जिसके लिए रजनीश जी ने उन्हें कुछ वायदा किया है।

कलेक्टर मैडम ने वह घर देखने की इच्छा व्यक्त की, जिसमें रजनीशजी का बचपन बीता और जहां अब ( निराश्रित सा जीवन बिताते) उनके बूढ़े मां-बाप रह रहे हैं ।

बड़े उत्साह से अपने साथ रजनीशजी उन्हे घर के भीतर ले चले, तो बीच में खड़े मेहमान उन्हें रास्ता देने के लिए इधर-उधर खिसकने लगे । पत्रकारों का हुजूम उनके पीछे-पीछे था ।
‘ मैम, ये है मेरा स्टडी रूम !’
‘ हाउ, इतना छोटा !’
‘ हां मैम, उस वक्त टेबल लैम्प भी नहीं था मेरे पास । बस एक बल्ब जलता था छत के बीच मे और उसकी रोशनी में ही हम दोनो भाई पढ़ते थे ।
‘ मैडम, ये है हमारा सोने का कमरा ।’
‘ हूं..’

‘आइये मैडम, मैं आपको अपना बचपन का सबसे प्यारा रूम दिखाऊं । पढ़ाई से थक कर मैं यहीं छुपकर बैठ जाता था ।’ कहते रजनीश भीतर वाले कमरे में घुसे ।

बचपन की आदत थी उन्हें , सो अंधेरे में ही ढूढ़कर स्विच दबाया और कमरे में भक से उजाला छा गया । पूरा कमरा रोशनी से नहा उठा । लेकिन सब चौंके-कमरा क्या था, जाने कहां कहां का कबाड़ इकट्ठा था वहां । धूल की मोटी परत के नीचे फटे-पुराने कपड़े, जूते, टेड़े-पिचके पीतल और तांबे के बर्तन, पुराने अनुपयोगी हो चुके मिटटी के बर्तन, टूटा बेकार फर्नीचर, जाने कब बनाये गये गौरैया के घोंसले व उसमे से गिरे तिनके वगैरह ।

कलेक्टर मैडम सकुचा के पीछे हट गईं , शर्मिन्दा से होते लाईट बुझाते रजनीशजी उनके पीछे ही बाहर की तरफ चले आये ।

बहुत निहोरे करने पर भी मैडम ने कुछ नहीं खाया, बल्कि वे तुरंत ही चल दी। उनकी कार का दरवाजा पूरे अदब से बंद करके लौटते रजनीश जी की आंखों मे आँसू झलक उठे थे । वे वर्माजी के अहाते की तरफ चले गये और हम अपने घर चले आये।
रात को देर तक नींद नही आई जैसे तैसे झपका लगा शायद।

देखा मैं , निगम साब और दूबे जी की तिकड़ी आहिस्ता से वर्माजी के अहाते में घुसी ही थी कि बंद खिड़की- दरवाजों से गूंजते रजनीश के स्वर ने हमारे पांव जकड़ लिए ‘ आप लोग गंदे बन कर ही रहना जानते हो। आपके तो स्वभाव में कंजूसी है...और उस भीतर वाले कमरे में इतनी गंदगी काहे को इकट्ठा कर रखी है आपने.....?.‘
‘ बेटा हमारी पुरानी चीजें.....‘ वर्माजी रिरियाये।

‘ अरे घूरे पर फेंको अपनी पुरानी चीजें। आप लोगों ने कलेक्टर और सारे मीडिया के सामने नाक कटा दी।....मैंने जब फोन पर सब क्लियर कर दिया था कि यह सब ठीक करा लेना, तो क्यो कुछ नही करवाया ?...मैं पूछता हूं कि कहां गया रूपया और डालर?

‘ पूरा रुपया और डालर बचा के रखा है बेटा!’ भीतर के कमरे से वर्माजी की पत्नी की लाढ़ में भरी आवाज आई-‘ हम तो इसलिए ऐसे रहे कि घर में रूपया रुक सके ! तुम्हे पता है धरती और लक्ष्मी सदा कम सफाई में ही रहती है! भगवान विष्णु ने भी हिरण्याक्ष की विष्टा की कैद में बंद वसुंधरा को बचाने के लिए वराह तक का रूप् लिया था। ।’

कहते हुए सहसा उन्होंने कबाड़ के बीच में गढ़ा किसी धातु का एक पुराना सा पात्र निकालकर अपने हाथ में ले लिया उसमें से गिर रहे थे-रुपया, डालर और निखालिस सोने की पुरानी मोहरें। पात्र में से आती हुई अजीब सी बदबू के भभके ने रजनीश को पीछे हटने को मजबूर कर दिया ।

...और घबरा के मेरी नींद खुल गयी। बुरा सपना था। पसीना पसीना होते मैने महसूस किया कि वर्मा बब्बा मेरे अवचेतन पर हावी हो गए थे।
बड़े जतन के बाद दुबारा नींद आयी।

मैं , निगम साब और दूबे जी रजनीश भई के पास बैठे थे और वे बड़े दुःखी हो के कह रहे थे " आप लोग जानते हो कि हम दोनों भाई हर महीने बहुत सा पैसा भेजते हैं , लेकिन पिता जी छदाम भी खर्च नही करते, सोने की मोहरें खरीद लेते हैं या बैंक में पटक देते हैं । मेरी हिम्मत नही कि उनसे कुछ कहूँ। उन्होंने अपना सारा जीवन और सारे सुख हम लोगों के लिये नष्ट कर दिए हैं । कभी-कभी बड़ी पीड़ा होती है कि हम लोगों की यह प्रोग्रेस किस काम की? किस काम का है हमारा सुख? जब हमारे माँ बाप ही हमारे पैसे से कोई सुख ही नही उठा पा रहे।
मैं कुछ बोलना ही चाह रहा था कि मेरी नींद खुल गयी,एक और दुःस्वप्न में दब गया था मैं।

बिस्तर से उठ कर सीधा बाहर आ गया। सुबह हो चुकी थी वर्मा बब्बा का घर यहां से साफ दिख रहा था,ऊपर छत पर रजनीश और घर के सब लोग खड़े थे ,जो जाने किस बात पर ठहाका लगा रहे थे, जिसे सुन के मुझे चैन

आया, और प्रसन्न मन मैं घर के अंदर की तरफ चला आया । मैं समंझ गया था कि मैं नाहक चिंता करता हूँ, इस घर से दुख और अशांति सदा दूर रहेगी। आमीन।

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