पहले देखी जटाधारी : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा

Pehle Dekhi Jatadhari : Lok-Katha (Oriya/Odisha)

पहले देखी जटाधारी
झूठी माया संसार।
यहाँ न कोई किसी का यार॥

कौन कितने दिन रहे, क्यों इतना लोभ, रात-दिन भाग-दौड़? सोचते-सोचते हरि की नींद उड़ गई। एक दिन घर-बार बेचकर चला गया बाबाजी होने।

चलते-चलते राह में बाबाजी मिले। सिर पर जटा, सारी देह में राख मली, हाथ में चिमटा। दिव्यमूर्ति, देख चरणों में लोट गया, कहा, “संसार में फँसा हूँ, मेरी रक्षा करो, महाराज!”

बाबाजी, “चिंता न कर, चल मेरे साथ। मैं हूँ पापनहारी। तुम कैसे चलोगे? खैर, देखा जाएगा। आ!”

रात हुई। बाबाजी ने बरगद के पेड़ के नीचे आसन लगाया। शिष्य ने धूनी जलाई। कुछ साधन-भजन। फिर लेट गया। चलने की थकान। कमर सीधी की, पर पेट में हलचल। गुरु को लगा सो रहा है, पर नींद किसे?

बरगद के पेड़ पर बगुले का ठिकाना। दो बच्चे चीं-चीं कर रहे। पेड़ पर चढ़ दोनों को पकड़ लाया। पंख उखाड़े, धूनी की आग में डाला। भूनकर खा गए। शिष्य देख रहा गुरु को। सुबह हुई। रात बीतने से पहले उठकर चला आया।

राह में एक और बाबाजी मिले। पाँव में पड़कर कहा, “इस जन्म में बहुत पाप किए। त्राहि करें प्रभु!”

गुरु, “चिंता न कर। मनोकामना पूरी होगी। मेरे साथ चल।”

एक बकुल के पेड़ के नीचे गुरु साधना में बैठे। शिष्य ऊँघते-ऊँघते सो गया। रुपयों का थैला लेकर गुरु चंपट। सुबह टटोला तो थैला व गुरु भी नहीं। शिष्य ने जाकर घुड़साल में आसरा लिया। घुड़सालवाले और रानी का गहरा भाव। सईस खूब पीता। उस दिन दासी देर से आई। सईस ने दो-चार मुक्के पीठ पर लगाए।

श्रीअंग को चोट हुई। उससे रानी को ज्वर हुआ। वैद्य आए, पर ठीक न कर सके। रानी पाट चादर ओढ़े थी। मार का चिह्न देखा, नीला स्याह पड़ गए।

राजा चिंता में पड़ गए। ढिंढोरा पिटा, “जो रानी को ठीक कर दे, एक गाँव और राज्य का मंत्री होगा।”

हरि ने कहा, “मुझे मंत्र मालूम है।” फूँक से ज्वर ठीक करने का हुकम, अंतःपुर गया। मंत्र बोला—

पहले देखा जटाधारी
बगुला मांस भूनकर खाया।
दूसरा देखा जटाधारी
रुपया थैला कर गया चोरी।
तीसरा देखा राज नारी
सईस ने मार चोट चारि।”

सुन रानी का पसीना छूटा। रानी के पसीने छूट गए। विकल हो बोली, “जो माँगो, दूँगी। किसी के आगे न कहना। मेरा ज्वर छूट गया, राजा से कहूँगी।”

रानी, “अच्छे बैद हैं। एक फूँक में ज्वर उतार दिया।” सुन राजा ने खूब धन दिया। सिर पर मंत्री का सिरोपाव बाँधा।

बाबाजी न हो सका।

(साभार : डॉ. शंकरलाल पुरोहित)

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