पातिव्रत्य की हत्या (कहानी) : गुडिपाटि वेंकटचलम्

Pativratya Ki Hatya (Telugu Story in Hindi) : Gudipati Venkata Chalam

उस वर्ष फसल अच्छी हुई थी, इसीलिए वीरा रेड्डी को गत वर्ष की अपेक्षा तीन हजार रुपए अधिक मिले। पूरे परिवार ने बड़ी खुशी से दुर्गा माता का उत्सव मनाया। वीरा रेड्डी ने मद्रासी फैशन का एक चंद्रहार अपनी पत्नी रंगम्मा के लिए बनवाया। इस हार के लिए सुनार को पचास रुपए मजदूरी अधिक दी थी। अपनी पत्नी और बहन जनकम्मा के लिए बहुमूल्य रेशमी साड़ियाँ भी खरीदी थीं। दूध-दही के लिए एक अच्छी गाय ली गई। वीरा रेड्डी नेल्लूर के मेले में प्रतिवर्ष जाता था। उसने इस वर्ष मेले में चलने के लिए पत्नी को भी विवश किया। स्त्रियाँ स्वभावतः गाँव छोड़कर शहर जाने से कतराती हैं। रंगम्मा कई बार इस मेले में जाने से इनकार कर चुकी थी। उसके विचार में पीहर और ससुराल के दो गाँवों के अलावा संसार में तीसरा गाँव नहीं था। गाँव में रंगम्मा ने शहर की बहुत सी दुर्घटनाओं के बारे में सुन रखा था। आए दिन चोरी–चपाटी, विधवाविवाह, धोखा–धड़ी, मोटर साइकिल की टक्करें, खून-खराबा आदि।

किसी तरह रंगम्मा मेले में जाने के लिए तैयार हुई। पति-पत्नी दोनों दस मील का कच्चा रास्ता पैदल पार करके सड़क के किनारे बस की प्रतीक्षा में खड़े थे। वीरा रेड्डी के लिए शहर आना-जाना कोई नई बात नहीं थी, किंतु रंगम्मा पहली बार किसी नगर में जा रही थी। उसका मन उत्साह और उमंगों से भरा था। भर-भर की आवाज करती मोटर वहाँ आई और खड़ी हो गई। औरत को मोटर में सवार होता देखा तो ड्राइवर ने कुछ नम्रता दिखाई। औरत के लिए अपने पास की सीट खाली कराई। रंगम्मा ने आदर के साथ पति की ओर देखा, जैसा कह रही हो, आप इस सीट पर बैठिए। वीरा रेड्डी उस सीट की ओर बढ़ा तो कंडक्टर ने उपेक्षापूर्वक कहा, "कहाँ चले आ रहे हो? पीछे चले जाओ। तुम्हारी औरत को कोई उठा नहीं ले जाएगा।"

रंगम्मा की धमनियों में रेड्डियों का खून खौल उठा। उसने मन-ही-मन सोचा-यदि नौकर या अन्य कोई व्यक्ति मेरे पति का इस तरह अपमान करता तो मेरा पति उसे जीवित न छोड़ता। इस कंडक्टर का भी वह खून पी जाएगा। आश्चर्य, उसका पति कंधे पर अपनी गठरी रखे दुम दबाकर भागनेवाले कुत्ते की तरह मोटर के पिछले हिस्से में स्थान पाने के लिए चल दिया। रंगम्मा की आँखों में खून उतर आया। शत्रुओं में फँसी हुई वीर वनिता के समान दिखाई दे रही थी वह। रंगम्मा के तिरस्कार भरे नेत्रों से ड्राइवर सहम गया। कुछ व्यंग्य के स्वर में धीरे से बोला, "संभवतः तुम अपने पति के बिना मोटर पर सवार नहीं होना चाहती हो।"

फिर ड्राइवर ने रंगम्मा के पति के लिए भी जगह खाली कराई। पति-पत्नी दोनों सामने की ओर बैठे।

रंगम्मा ने पहली बार देखा कि इतने सारे लोगों के सामने उसका कंधा पति के कंधे से सटा हुआ है। वह मारे लज्जा के गड़ी जा रही थी। उसकी व्याकुलता भी देखने लायक थी। आँखें लज्जा से झुक गई। दोनों हाथों को जाँघों के बीच समेटकर वह चुपचाप बैठ गई। पों—पों करती मोटर चल दी। रंगम्मा ने अनुभव किया कि नीचे की जगह सरकती जा रही है। वह चौंक पड़ी। उसने पति से पूछा, "यह घिर—घिर की आवाज कैसी है? मोटर इतनी तेज कैसे चल रही है?" पति ने उत्तर दिया-"मोटर को पहिए जो लगे हुए हैं!" पति भी कुछ अधिक नहीं जानता था। उत्तर देता? ।

थोड़ी देर बाद रंगम्मा का ध्यान ड्राइवर की ओर गया। मोटर की गति उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही थी। जादूगर की भाँति ड्राइवर शैतान जैसी मोटर को दौड़ाता जा रहा है। सामने से एक बैलगाड़ी आती दिखाई दी।

रंगम्मा ने सोचा, बैलगाड़ी मोटर से टकरा जाएगी। वह तत्काल ड्राइवर के कंधे पर हाथ रखकर चिल्लाई "रोक दो मोटर।"

मोटर के सभी यात्री खिल-खिलाकर हँस पड़े। ड्राइवर भी अपनी हँसी नहीं रोक सका। मोटर बैलगाड़ी से बचकर आगे बढ़ी। रंगम्मा ने पीछे की ओर देखा। बैलगाड़ी धूल में दौड़ी जा रही है। रंगम्मा चकित रह गई। यात्रियों के हँसने से उसे लज्जा भी कम नहीं हुई। वह एक धनी-मानी रेड्डी-वंश की पुत्री है। उसके पिता लक्ष्मी रेड्डी इस वंश के मुखिया माने जाते हैं। गाँव के सभी लोग रंगम्मा के निर्मल और पवित्र आचरण की चर्चा करते हैं, किंतु मोटर के यात्रियों ने उसकी तो क्या, उसके पति की भी परवाह नहीं की। उसके और उसके पति के प्राण इस समय ड्राइवर के हाथ में थे-कैसी विडंबना!

मोटर रुकी। लंबी पगड़ी और काला कोट पहने हुए एक बूढ़ा आदमी सामने आ खड़ा हुआ। बड़ी-बड़ी मँछे थीं उसके। उसने कहा, "मेरी रोज की सीट दो।"

कंडक्टर ने वीरा रेड्डी से कहा, "तुम पीछे चले जाओ।"

वीरा रेड्डी चुपचाप उतरने लगा तो रंगम्मा भी उठ खड़ी हुई।

"बहनजी, तुम्हारे लिए पीछे जगह नहीं है। तुम यहीं बैठो।" ड्राइवर ने कहा।

रंगम्मा हिली-डुली नहीं। यात्री उत्सुकता से उसकी ओर देख रहे थे। रंगम्मा लज्जा से गड़ी जा रही थी। सिर ऊपर नहीं उठ रहा था। कई क्षण बीत गए। मोटर खड़ी रही।

"तुम बस पर चढ़ो।" वीरा रेड्डी ने कहा। पतिदेव की अनुचरी रंगम्मा अपनी सीट पर जा बैठी। वीरा रेड्डी पीछे की सीट पर बैठने के लिए आगे बढ़ा।

'गठरी, लाठी, कैसा विचित्र मनुष्य है यह!'

'गँवार है, गँवार!'

सब यात्री हँस पड़े। रंगम्मा का मस्तक चकराने लगा। खून जम सा गया। वह पीछे की ओर घूम गई। कहना चाहती थी-अरे, अंट-संट मत बको। क्या समझ रखा है हम लोगों को! हम लोग तुम्हारे दाँत तोड़ देंगे!

न जाने कितनी पीढ़ियों से रेड्डी-रमणी अपनी आज्ञा का विरोध सहन नहीं करती आ रही है। इसीलिए रंगम्मा प्रयत्न करके भी अपना रक्त ठंडा नहीं रख सकी। उसने पति की ओर देखा। कौरवों की द्यूत-सभा में द्रौपदी जिस तरह लज्जा के मारे मरी जा रही थी, वही हाल रंगम्मा का था। लज्जित द्रौपदी की भाँति उसे अपनी स्थिति पर क्रोध आ रहा था। उसने सिर झुका लिया। मोटर आगे बढ़ी। रंगम्मा ने अनुभव किया—इस संसार में दुःख के अतिरिक्त कुछ नहीं है। उसने अपनी स्थिति के संबंध में अनुभव किया, जैसे वह उस स्नेह –पालित बछड़े के समान है, जिसे अचानक हिंसक पशुओं से भरे जंगल में छोड़ दिया गया हो। रंगम्मा आँख बंद करके निर्विकार बैठी रह गई।

मोटर रुकी। रंगम्मा ने इस आशा से आँख खोलकर देखा कि संभवतः नेल्लूर आ गया है। किंतु उसकी संभावना ठीक नहीं निकली। लोग उतरकर इधर-उधर टहलने लगे। यात्रियों को कुछ सुविधा मिले, इसीलिए मोटर ठहराई गई थी। रंगम्मा उतरने लगी तो उसका आँचल कीले में फँस गया। पास के खड़े हुए एक व्यक्ति ने आँचल निकाला। आँचल निकालकर वह व्यक्ति हँस पड़ा। उसे हँसता देख कुछ अन्य यात्री भी हँस दिए। रंगम्मा का स्त्रीत्व आहत हो गया। वह जल्दी-जल्दी पास ही खड़े इमली के पेड़ के नीचे आड़ में जा खड़ी हुई। वीरा रेड्डी भी वहाँ आ गया। रंगम्मा बड़ी दीनता से बोली, "हम लोगों को अब घर चलना चाहिए।"

"क्यों?" वीरा रेड्डी ने पूछा।

"यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता।"

"नेल्लूर बहुत पसंद आएगा।"

"नहीं।"

"अब हम घर कैसे जा सकते हैं?"

"पैदल।"

"चालीस मील है यहाँ से अपना घर! जानती हो?"

"कोई बात नहीं!"

"रास्ते में रात हो जाएगी।"

"हो जाने दीजिए।"

"रास्ते में चोर-लुटेरे मिल सकते हैं।"

"हमें उनका डर नहीं!"

"यह बात है तो तुम आई ही क्यों? अकारण ही लौटना चाहती हो। औरतों को साथ लाने में यही बखेड़ा है।" खीज भरे स्वर में वीरा रेड्डी ने कहा।

वीरा रेड्डी नेल्लूर के मेले में सम्मिलित हुए बिना नहीं रह सकता। साल भर मेहनत करके एक दिन तो आनंद करता है।

पति उसके प्रस्ताव से दुःखित हुआ है, यह जानकर रंगम्मा चुप हो गई। नारी न जाने कब से अपने पति की आज्ञा को पूरा करना अपना कर्तव्य मानती आई है। पति की इच्छा चुपचाप पूरा करने के अतिरिक्त उसके पास दूसरा उपाय क्या है?

मोटर फिर चल पड़ी। हॉर्न की आवाज, और वेग से मोटर का दौड़ना, रंगम्मा के लिए सबकुछ विचित्र था। उसने अपने सहज भोलेपन के साथ ड्राइवर से पूछा, "यह कौन सा गाँव आ रहा है भैया? मोटर कैसी तेज चल रही है। एक बार पों—पों बजाओ न।"

रंगम्मा अपने आसपास बैठे यात्रियों को भूलकर स्वाभाविक भोलेपन के साथ कहती गई"मोटर चलाने के लिए क्या करते हैं? इसमें आग तो कहीं दिखाई नहीं देती, फिर भी किसी चीज के जलने की दुर्गंध आ रही है। तुम्हें कितने रुपए मिलते हैं? तुम बड़े हो या वकील?"

मोटर रुकी तो वीरा रेड्डी ने मोटर से उतरकर रंगम्मा को आवाज दी। पति की आवाज सुनकर रंगम्मा ने आँखें खोलकर देखा। वह भी मोटर से नीचे आ गई। उसने देखा, ड्राइवर कितनी अच्छी धोती पहने है, उसके कपड़े कितने साफ-सुथरे हैं। पूँछे कितनी सुंदरता से काटी गई हैं। वह ड्राइवर किस चतुरता से मोटर चलाता है। इन सब बातों पर वह चकित रह गई। उसने अपने पति की ओर देखा। पति कितना भोला-भाला है, कितने मोटे कपड़े हैं उसके? पति की असहाय स्थिति पर उसे दया आ गई। गहरी साँस लेकर वह वीरा रेड्डी के पीछे हो ली।

गाड़ियाँ, आने-जानेवाले लोग, दुकानें, इन सब चीजों से पूरा शहर खचाखच भरा है। यहाँ का प्रत्येक निवासी, प्रत्येक दुकानदार और पुलिस का सिपाही, फकीर, गाड़ीवान सभी तो बड़े हैं। लोग किस तरह अंग्रेजी -तेलुगु और हिंदी बोल रहे हैं। सभी लोग प्रसन्न दिखाई देते हैं। रंगम्मा ने अनुभव किया कि नेल्लूर का मामूली-से-मामूली आदमी भी उसके पति से बड़ा है।

रंगम्मा ने बड़ी जिज्ञासा से पूछा, "लोग हमें इस नगर में रहने देंगे?"

"क्यों नहीं? क्यों नहीं रहने देंगे? पगली, देख तो यहाँ कितने लोग रहते हैं। ये लोग भी तो हमारी ही तरह मनुष्य हैं।"

"तब तो हम लोग भी इसी नगर में..."

रंगम्मा को इस कल्पना से रोमांच हो आया कि वह घर के दरवाजे पर बैठी बिजली का प्रकाश देखते हुए अपने को बहला सकेगी। उसका कुतूहल बढ़ता गया।

"यहाँ के लोग किस तरह जीवन व्यतीत करते हैं?"

"जैसे हमारे गाँव के लोग करते हैं।"

"यहाँ खेती-बाड़ी कौन करता है?"

"खेती-बाड़ी की जरूरत क्या है? यहाँ लोगों को काम मिल जाता है। काम करके लोग जीवन-यापन करते हैं।"

"मुझे तो कोई काम आता नहीं है।"

रंगम्मा की यह धारणा बहुत दृढ हो गई कि उसका पति खेती के अतिरिक्त कोई दूसरा काम नहीं जानता। रंगम्मा अपने पति को साहसी और सर्वश्रेष्ठ मनुष्य समझती रही है। गाँव के लोग उसके पति का सम्मान करते हैं। नौकर-चाकर उसके पति के आगे थर-थर काँपते हैं। किंतु उसका वही पति, यहाँ भीड़ में, सड़क पर या मोटर में कितना असहाय बन गया है। बाजार में जब पति-पत्नी कपड़ा खरीदने गए, तो कपड़े की एक दुकान पर रेशमी कपड़े का भाव–ताव होने लगा। दुकानदार ने एक रुपया गज कहा तो वीरा रेड्डी ने चार आने गज भाव लगाया। इस पर दुकानदार ने व्यंग्य से कहा, "कभी रेशमी कपड़ा देखा है?" रंगम्मा ने तब अनुभव किया रेड्डी वंश के एक प्रतापी सदस्य का अपमान हो रहा है।

होटल में जाने पर रंगम्मा ने देखा कि सभी लोगों को टेबुल के पास करसियों पर बैठाया गया है, किंतु उसके प्राणेश्वर को एक कोने में जमीन पर जगह दी गई। वहीं उसे नाश्ता दिया गया। रंगम्मा ने अनुभव किया, विवाह के अवसर पर उसका पति फूलों से सजे रथ पर आया था। तब उसके पीहर के लोगों ने उसकी कीर्ति का बखान किया था। वास्तव में रंगम्मा को धोखा दिया गया था। रंगम्मा को यह याद ही नहीं रहा कि जिन दिनों विवाह हुआ था, वीरा रेड्डी की छाती चालीस इंच चौड़ी थी। उसकी आँखों में कितनी सरलता थी। खेल-खेल में वह दस आदमियों को पछाड़ देता था। वह सच्चरित्र होने के साथ-साथ प्राणियों पर कितनी दया करता था। यहाँ नगर में उसने मुँह में पान दबाए धीरे-धीरे सिगरेट का धुआँ छोड़नेवाले नायडू को तिरछी नजर से अपनी ओर ताकते देखकर मन-ही-मन सोचा–नायडू की पत्नी कितनी सौभाग्यशाली है।

रंगम्मा की आँखों के सामने उसके गाँव का जीवन घूम गया। ग्रामवासी उसके प्रति कितनी श्रद्धा रखते हैं, किंतु यहाँ उसे कोई जानता तक नहीं। इस शहर का एक व्यक्ति भी तो यह नहीं जानता कि रंगम्मा बहुत पतिव्रता स्त्री है, सास-ससुर पर उसकी अगाध भक्ति है, व्रत-उद्यापन में उसकी दृढनिष्ठा है और उसके पास दो सौ एकड़ जमीन है। हाँ, नगर का प्रत्येक व्यक्ति केवल उसके सौंदर्य पर मुग्ध दिखाई देता है। रंगम्मा ने पहली बार यह अनुभव किया कि उसमें आकर्षण की शक्ति है। एक-दो बार उसने भी देखनेवालों की आँख-से-आँख मिलाकर देखा तो एक प्रकार की पुलक सी हुई, उसके होंठों पर मुसकान नाचने लगी। वह अपने पति के पीछे इस तरह चलने लगी, जैसे अहल्या गौतम के पीछे चलती थी।

अचानक बत्तियाँ जल उठीं। इंपीरियल सिनेमा घर का पहला शो समाप्त हो गया। दो-ढाई घंटे तक रंगम्मा खेल की नायिका के सुख-दुःख में डूबी रही। खेल समाप्त होते ही वह आँखें मलती बाहर आई। उसे आरंभ में इस बात पर आश्चर्य हुआ था कि सिनेमाघर की बत्तियाँ एक साथ जलीं और एक साथ बंद हो गई। परदे पर किस तरह ऐसी तसवीरें नाचती हैं। किंतु कुछ ही देर बाद वह खेल में तल्लीन हो गई थी। उसने अनुभव किया, जैसे चलचित्र में दिखाई देनेवाली मोटरें, बड़े-बड़े बँगले, नहर, बाग-बगीचे, रेलगाड़ी, सुंदर युवतियाँ सब नेल्लूर नगर से संबंधित हैं। जब धोखा देकर चोर नायिका को उठाकर ले चला तो रंगम्मा बीच में ही चिल्ला उठी—'चोर के हाथ से छुरा छीन लो और उसका यह छुरा उसी की छाती में घुसा दो।' जिस समय नायक ने अपनी प्रेमिका को आलिंगन में जकड़ा, रंगम्मा का रोम-रोम पुलकित हो गया। उसने अनुभव किया था कि वह भी आलिंगन में बँधी हुई है। खेल समाप्त होने पर पति ने चलने के लिए कहा था तो वह चौंक पड़ी थी। उसने प्रश्न किया...

"कहाँ चलना होगा?"

"अब नाटक देखने चलेंगे।" रंगम्मा के पति ने उत्तर दिया था।

रात में एक बजे रंगम्मा अपने पति के साथ नाटक-घर से बाहर निकली। बीस वर्ष की आयु में रंगम्मा पहली बार नगर में आई थी। न जाने फिर कब इस शहर में आने का सौभाग्य प्राप्त हो। गाँव लौटते ही उसे देहाती जीवन व्यतीत करना पड़ेगा। उसने जो नाटक देखा था, उसमें भगवान् कृष्ण की कहानी थी। उस नाटक में जो अभिनेता कृष्ण बना था, उसका स्मरण करते ही रंगम्मा का हृदय भारी हो गया। पाँव काँपने लगे। रंगम्मा बचपन से भगवान् कृष्ण को अपना आराध्य देवता मानती आई थी। उसने कभी कृष्ण को अपना पति माना था। कृष्ण के चित्र के सामने न जाने कितनी बार उसने अपने मन की गुप्त बात प्रकट की थी। उसने पोतन्ना की भागवत के कई अंश और क्षेत्रय्या के पद याद कर लिये थे। कृष्ण के सम्मुख रंगम्मा अपनी इच्छाएँ खोलकर रख देती थी। आज नाटक में जो अभिनेता कृष्ण बना हुआ था, वह रंगम्मा को आराध्य दिखाई दिया। इससे पहले जब कभी उसका पति रात में घर आता, रंगम्मा उसे कृष्ण मानकर आँख बंद कर लेती थी और इस तरह अपने को धोखा दिया करती थी।

कृष्ण रसिक शिरोमणि हैं, वीरों के वीर हैं, करुणा के सागर हैं। वे रंगम्मा का तिरस्कार नहीं करेंगे। उसने नाटक में देखा था कि कृष्ण ने फटी-फटी आँखोंवाली सत्यभामा को प्रेम के साथ देखा था। कृष्ण ने सत्यभामा की गालियाँ सही थीं। तब क्या भगवान् कृष्ण उसका अपमान करेंगे। रंगम्मा इतना तो जानती थी कि एक मनुष्य कृष्ण का अभिनय कर रहा है, वह वास्तविक कृष्ण नहीं है, किंतु वह अपना भ्रम दूर करना नहीं चाहती थी। भ्रम टूटने पर सारा माधुर्य, सारी भावुकता समाप्त हो जाती, इसीलिए वह अभिनेता को कृष्ण समझ रही थी, उसने कृष्ण को नमस्कार किया, कृष्ण ने, हाँ कृष्ण ने ही उसकी ओर देखा है, उसी के लिए तो कृष्ण ने गीत गाया है। कृष्ण ने इतनी औरतों में उसे पहचान लिया है। गाँव के लोगों से उसका क्या संबंध है? वह कृष्ण के चरणों में आश्रय लेगी। मानो उस समय मीरा रंगम्मा के हृदय में विराजमान हो गई थी।

उस दिन रंगम्मा के हृदय में क्रांति मच गई। प्राचीन गौरव का अभिमान लुप्त हो गया था और नए जीवन का आनंद उमड़ पड़ा था। आज तक रंगम्मा एक छोटे से घोंसले में पंख समेटे बैठी थी, किंतु आज वह पंख खोलकर अंतहीन आकाश में उड़ने के लिए प्रस्तुत थी।

नए जीवन का यह उद्वेग उसके अभिनेता कृष्ण में मूर्तिमान हुआ। उसके लिए हृदय कमल पर वह कृष्ण विभिन्न रूपों में नृत्य कर रहा था। इस जगत् से रंगम्मा का कोई संबंध नहीं था। कृष्ण साक्षात् परमेश्वर हैं, वे भक्तवत्सल हैं। कुछ भी हो, भगवान् कृष्ण की सेवा में गए बिना उद्धार नहीं है। रंगम्मा अपनी जगह से उठ खड़ी हुई और रंगमंच पर पहुँचकर बगल के परदे की आड़ में खड़ी हो अंदर ताकने लगी।

भगवान् कृष्ण बैकुंठ में रहते हैं। उनकी नगरी कितनी सुंदर होगी। वे वहाँ लक्ष्मी के साथ विहार करते होंगे।

रंग-मंच के नेपथ्य में अनेक कक्ष दिखाई दिए। उन कक्षों में दर्पण लगे हुए थे। रंगम्मा ने सोचा, कृष्ण इन्हीं कक्षों में तो गोपियों के साथ शयन करते होंगे। यदि वह भी चुपचाप अंदर चली जाए तो कृष्ण के निकट पहुँच जाएगी, इस कल्पना से ही रंगम्मा को रोमांच हो आया।

रंगम्मा का हृदय कह रहा था—'कृष्ण तेरी प्रतीक्षा में यमुना के किनारे बिरहा गा रहे हैं। चल, शीघ्रता कर।' किंतु दूसरे क्षण उसके मन में विचार आया-मेरे पति का क्या होगा?

इतने में वीरा रेड्डी ने उसे आवाज दी। वह आवाज सुनकर भी चुप रही। तब वीरा रेड्डी गरजकर बोला, "तुम्हारा चंद्रहार कहाँ गया?" रंगम्मा ने पति की ओर नेत्र उठाए। उसने उलटा प्रश्न किया, "कैसा चंद्रहार?"

"सोने का चंद्रहार। अभी तो तुम्हारे गले में था।"

रंगम्मा कल्पना-लोक से धरती पर उतर आई। बोली, "क्या चीज नहीं है? क्या कह रहे थे?"

वीरा रेड्डी को आश्चर्य हुआ। "तुम्हें कुछ पता नहीं? जरा अपना गला तो देखो।"

"कहीं गिर गया होगा?"

"पाँच सौ रुपए का हार कहाँ गिर गया?"

"मैं कुछ नहीं जानती। सच कहती हूँ, कुछ भी नहीं जानती।"

"अपने शरीर की सुध-बुध भी खो बैठी। चल अभागिन कहीं की।"

रंगम्मा को कुछ भी सुनाई नहीं दिया। कुछ सुनने की स्थिति में उसका मन था भी नहीं, यंत्र–चालित सवारी की तरह वह अपने पति के पीछे चलने लगी। मार्ग के दोनों ओर पंक्तिबद्ध बड़े-बड़े भवन, मार्ग पर चलनेवाली गाड़ियाँ, आने-जानेवाले मनुष्य सब कुछ नदी के प्रवाह की भाँति बहे चले जा रहे हैं। रंगम्मा के पाँव धरती पर नहीं पड़ रहे थे। वह किसी अनिर्वचनीय सुख के लिए छटपटा रही थी। पति-पत्नी नाट्यशाला की बगल में जा खड़े हुए। वीरा रेड्डी ने कहा, "तुम यहीं खड़ी रहो, मैं चंद्रहार की खोज करता हूँ।"

रंगम्मा को वहाँ खड़ा करके वीरा रेड्डी चंद्रहार ढूँढ़ने लगा।

किससे मिलना चाहती हो?

रंगम्मा ने घूमकर देखा। कोई आदमी उससे पूछ रहा है। रंगम्मा ने सोचा-मैं रंग-मंच के पास हूँ और इस रंग-मंच के नेपथ्य में ही तो उसके कृष्ण हैं। यदि इस समय कृष्ण बाहर आ जाएँ तो? उसे इस तरह अँधेरे में खड़ा देखकर वे क्या करेंगे? रंगम्मा का दिल धड़कने लगा।

उसने मन-ही-मन निश्चय किया, किंतु इस निश्चय पर उसे स्वयं भय लगने लगा।

"कृष्ण से मिलना चाहती हूँ।"

"कृष्ण! कौन कृष्ण?" उस आदमी ने आश्चर्य से पूछा।

रंगम्मा ने सोचा, कितना मूर्ख है? कृष्ण को नहीं जानता? फिर उसके मन में आया, संभवतः कृष्ण का अभिनय करनेवाला किसी दूसरे नाम से संबोधित किया जाता होगा। यह सोचकर बोली, "जिसने अभी कृष्ण का अभिनय किया था, उसी से मिलना चाहती हूँ।"

"तो तुम नारायण से मिलना चाहती हो?"

रंगम्मा चुप रही। उस आदमी ने दूसरा प्रश्न किया—"उसे जानती हो?"

रंगम्मा उसे अच्छी तरह जानती है। रंगम्मा ने अभी उत्तर नहीं दिया था कि वह आदमी बोला, "इस ओर आओ।"

रंगम्मा के पाँव काँपने लगे। क्या सचमुच कृष्ण के दर्शन होने जा रहे हैं? और इसी समय?

"यहाँ खड़ी रहा।"-उस आदमी ने रंगम्मा को आदेश दिया। वह स्वयं भीतर चला गया। रंगम्मा ने चारों ओर दृष्टि डाली। रंगमंच के भीतरी भाग में रस्से, परदे, अंधकार। उसने सोचा यह क्या है? क्या कृष्ण यहीं रहते हैं? फिर उसने स्वयं उत्तर दिया, नहीं कृष्ण ऐसी जगह नहीं रह सकते। उससे कुछ भूल हुई है। फिर उसने मन में सोचा, यदि कृष्ण उसके सामने आ खड़े हों तो वह क्या कहेगी? वह उनके चरणों पर गिरकर आँसुओं से उन्हें धो डालेगी। इसी से वह अपने को धन्य मानेगी। उसके बाद...कृष्ण के मुख कमल की ओर देखकर...एक बार...।

"अरे भाई, तुम्हारी खोज करता हुआ कोई आया है।"

"कौन है रे, वेंकटराम तो नहीं आया है? मैंने उससे चार आने लिये थे। इन चार आनों के लिए वह मेरी जान खाए जा रहा है।"

"अबे नहीं, कोई आदमी नहीं है।' गोपिका है, गोपिका! बाहर जाकर देख तो सही।"

रंगम्मा को ये बातें ज्यों-की-त्यों सुनाई दे रही थीं; किंतु जैसे उसके कान बंद थे।

आ रहे हैं, कृष्ण आ रहे हैं। रंगम्मा ने मारे लज्जा के मुँह मोड़ लिया और एक कोने में सिमट गई। उसका पूरा शरीर काँप रहा था। कृष्ण का अभिनय करनेवाला नटराज सोंपल्लि नारायणराव वहाँ आ गया। उसने पीतांबर खोल दिया था, किंतु मुँह का रंग नहीं धोया था। लाल रंग से रंगे होंठों में बीड़ी थी और धीरे-धीरे बीड़ी का धुआँ बाहर निकल रहा था।

"कौन हो तुम! बात क्या है? ...बोलती क्यों नहीं? तुम कौन हो?"

रंगम्मा का स्वप्न भंग हो रहा था। उसे वास्तविकता का ज्ञान होने लगा। उसके मन में आया, संभवतः कृष्ण का अभिनय करनेवाला किसी दूसरे नाम से संबोधित किया जाता होगा।

किंतु जब अभिनेता प्रश्न कर रहा है, तो उसे उत्तर देना ही होगा। वह यहाँ आई ही क्यों?

“आपने अभी बहुत अच्छा गाया था।" आगे क्या कहना चाहिए रंगम्मा को सूझा ही नहीं। चकित और भीत मृगी की भाँति वह इधर-उधर ताकने लगी।"

"किस गाँव की रहनेवाली हो? तुम्हारा परिचय क्या है?"

रंगम्मा ने कोई उत्तर नहीं दिया। क्या यही कृष्ण है? क्या और भीतर चलकर देखा जाए? रंगम्मा का मन विकल होने लगा। यत्न करके उसने साहस बटोरा-"आपके दर्शन करने आई हूँ।"

"इधर आओ, बैठो।"

"मुझे जाना चाहिए।" रंगम्मा ने कहा।

"इतनी जल्दी!” "हाँ, वे मेरी प्रतीक्षा करते होंगे।"

"कौन? वे कौन? कहाँ हैं वे? ...रहने दो...अभी जा सकती हो।"

रंगमंच पर जलनेवाली बत्तियों के प्रकाश में लज्जा के भार से झुकी उस नारी की पतली कमर, कपोलों की स्निग्धता और सुंदर केश–राशि ने अभिनेता को आकर्षित किया। 'आओ' कहकर अभिनेता रंगम्मा के निकट आया। रंगम्मा पीछे हट गई। अभिनेता ने सोचा, यह युवती लौट रही है। इसीलिए उसने हँसते हुए रंगम्मा की भुजा पकड़ ली और उसे अपनी ओर खींच लिया।

उफ यह क्या? यह तो असह्य है। यह कैसा कृष्ण है? यह करने क्या जा रहा है?

"ठहरिए, मेरी बात तो सुनिए।"

"मेरी खोज में आई हो न! फिर इतनी जल्दी क्या है? आओ।"

"आप भूल रहे हैं। मुझे छोड़ दीजिए।"

रंगम्मा का माथा शराब की बू से फटा पड़ रहा था। इतने में अभिनेता ने उसे अपने पास खींचा। यह पसीना, वह दुर्गंध, मैल, बीड़ी की बू, विकट हास, जानवर की आँखें। रंगम्मा सहन नहीं कर सकी। उसे वीरा रेड्डी का स्मरण हो आया। उसने सोचा, वह चंद्रहार ढूँढ़ रहा होगा? उसे स्थान पर न पाकर उसका पति कितना घबरा रहा होगा? वीरा रेड्डी की आँखों में सदैव दया का भाव रहता है। उसने आज तक भूल से भी पत्नी का मन नहीं दुखाया। रंगम्मा को अपने पति की उदारता, सज्जनता और दया स्मरण हो आई। उसका पूरा शरीर काँप रहा है। इधर अभिनेता शैतान की तरह उसे अपनी ओर खींचता जा रहा है।

"रेड्डी जी, वीरा रेड्डीजी!"

आज रंगम्मा ने जीवन में पहली बार पति को नाम लेकर पुकारा।

भीतर से कुछ आहट सुनाई देते ही अभिनेता पुकारा–“कोई बात नहीं, तुम यहाँ आई किसलिए थी। मेरे लिए यहाँ आई और अब यह अभिनय कर रही हो। यदि तेरा पति सुन भी लेगा तो क्या बिगाड़ सकता है? तुम्हीं तो मेरी खोज में आई हो। भूल तुमने की है।"

रंगम्मा की रही-सही आशा जाती रही। वह अपने पति से क्या कहेगी? उसका हृदय विषादमग्न हो गया। पति उसे गालियाँ देंगे? उसे छोड़ देंगे, नहीं, नहीं किंतु यह शैतान, उफ! यह कितना अनर्थ है। इसे मैं कैसे सहन करूँगी? वह छटपटाने लगी। उसने अभिनेता पर लात से प्रहार किया, किंतु...

उस रंगमंच पर द्रौपदी की मान रक्षा के लिए न जाने कितनी बार कृष्ण आए थे। हरिश्चंद्र के सत्य व्रत से प्रसन्न नारायण भी वहाँ कई बार प्रकट हो चुके थे, किंतु आज रंगम्मा के लिए सारे देवता आँख-कान बंद किए हुए थे। जिन भगवान् पर विश्वास करके रंगम्मा रंगमंच पर चली आई, उसी भगवान् का अभिनय करनेवाला व्यक्ति उसके साथ क्या करने जा रहा है? क्या भगवान् को रंगम्मा का आर्तनाद सुनाई नहीं दे रहा है? संभवतः वे उस समय लक्ष्मी के साथ वार्तालाप में संलग्न हों। संभवत: वे गंधर्वो का संगीत सुन आँखें बंद किए, आनंद में निमग्न हों। यह भी हो सकता है कि इंद्र का स्वार्थ भरा स्तोत्र सुनकर वे फूले न समा रहे हों? "मुझे छोड़ दीजिए। आपके पाँव पड़ती हूँ। मैं मूर्ख हूँ। मुझे छोड़ दीजिए। मैं इस कार्य के लिए यहाँ नहीं आई हूँ। क्या मेरी रक्षा करनेवाला यहाँ कोई नहीं है?"

असहाय रंगम्मा की प्रार्थना सुनने के लिए सचमुच वहाँ कोई नहीं था। अगल-बगल के परदों पर लटकनेवाले चित्रों में सरस्वती और पार्वती इस अन्याय को चुपचाप देख रही थीं। रंगम्मा के किसी आराध्य देव ने रक्षा नहीं की।

शहरी सभ्यता के हाथों ग्रामीण रंगम्मा के पातिव्रत्य की हत्या हो ही गई।