पार्टी का भूत : फणीश्वरनाथ रेणु

Party Ka Bhoot : Phanishwar Nath Renu

यारों की शक्ल से अजी डरता हूँ इसलिए किस पारटी के आप हैं? वह पूछ न बैठे।

सूखकर काँटा हो गया हूँ। आँखें धँस गई हैं, बाल बढ़ गए हैं। पाजामा फट गया है।चप्पल टूट गई है। आशिकों की-सी सूरत हो गई है। दिन में चैन नहीं, रात में नींद नहीं आती। आती भी है तो बुरे सपने देखकर जग पड़ता हूँ। जी नहीं, आप जो सोचते हैं-वह बीमारी नहीं। यदि वह रहती तो कम-से-कम बेकारी और इन्तजारी में मजे तो लूटता। यह तो 'राँची' का टिकट कटानेवाला रोग है। चूँकि यह दिन दूर नहीं, इसलिए अपनी बीमारी का इतिहास प्रकाशित कर देना, मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। क्योंकि इसके बाद 'न जाने मैं कहाँ और तू कहाँ, की दशा में यह सम्भव नहीं। बात यह है कि मेरे सिर पर 'पार्टी का भूत' सवार है। इसने मुझे कहीं का न रखा। बहुत कम उम्र से ही इसने मुझे अपना शिकार बना लिया है।

पाठशाला से ही प्रारम्भ करता हूँ।

एक दिन पिताजी के पास बैठकर 'आमोद-पाठ' पढ़ रहा था। गाँव की पाठशाला के गुरुजी आए। बहुत देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद गुरुजी ने नम्रतापूर्वक दाँत निपोरते हुए पिताजी से कहा- "लड़ाई-झगड़ा जो कुछ भी है, आप लोगों में है। मेरा क्या कसूर है। आप लोग बड़े आदमी ठहरे। जिस प्रकार एक जंगल में दो सिंह, उसी प्रकार एक गाँव में दो...हें ...हें ...यह तो भगवान का नियम है। लेकिन पाठशाला तो कुछ उनकी (विरोधी पार्टी के नेता की) नहीं है। पाठशाला में तो मैं हूँ, मेरे लिए जैसे आपके बच्चे..."

"आप नहीं समझते पंडितजी," पिताजी ने बात काटते हुए कहा-"पाठशाला उसी पार्टी की है। अपने लड़के की बात छोड़िए, गाँव के लड़कों को भी मैं उसमें नहीं भेज सका तो इसमें हमारी पार्टी की बेइज्जती है।"

गुरुजी ने पुनः दाँत निपोरते हुए कहा-"सो तो है, सो तो है।

मैं तो... आप विश्वास कीजिए...में तो आपकी सेवा करना चाहता हूँ।" गुरुजी बलपूर्वक खाँसकर, इधर-उधर देखकर पिताजी से निम्न स्वर में कुछ तथ्य की बातें करने लगे। फল यह हुआ कि मुझे और मेरे गाँव के लड़कों को पाठशाला. में पढ़ने जाने की आज्ञा मिल गई।

दूसरे दिन मैं अपने साथियों के साथ पाठशाला में दाखिल हुआ।

गाँव-समाज, पास-पड़ोस, टोले-मुहल्ले, जाति-बिरादरी में, यहाँ तक कि कचहरी की 'बार लाइब्रेरी' में भी यह खबर बिजली की तरह फैल गई। तरह-तरह के प्रश्न पूछे जाने लगे।

"तो क्या अब गाँव में एकता हो गई?" गाँव के गवाही पेशा करनेवालों ने माथा ठोंक लिया।

"अब खान-पान, शादी-ब्याह भी चलेगा ?"-बिरादरी के कर्णधारों के पेट में चूहे कूदने लगे।

"यह जो फौजदारी चल रही है, इसको उठा लिया जाएगा-क्या?" बकीलों ने लम्बी साँस ली।

किन्तु हुआ कुछ भी नहीं। पार्टियाँ बनी रहीं और पाठशाला में पार्टी कायम हुई।

छुट्टी के बाद ढेलेबाजियाँ, छोटी-मोटी लड़ाइयाँ, मार-पीट होने लगी।

गुरुजी की छड़ी, जहाँ तक कर सकती, शान्ति स्थापित करती।

लड़ाई-झगड़े में मैं सक्रिय रूप से न तो भाग ही लेता था और न मुझ पर गुरुजी की छड़ी ही पड़ती थी, पर इसमें सन्देह नहीं कि मैं अपनी पार्टी की विजय चाहता था । मन्त्रणा दिया करता था। इसलिए मेरे लड़ाके, मुझे अपना 'हीरो' समझते थे।

इन लड़ाई-झगड़ों के बीच, एक दिन पाठशाला में दाखिल हुई 'चन्दू', विरोधी पार्टी की एकमात्र कन्या उस दिन छुट्टी के बाद मैंने अपनी पार्टी के लड़कों को समझा दिया कि लड़ाई-झगड़े से कोई फायदा नहीं, उसी दिन से लड़ाई-भिड़ाई बन्द हो गई। उसी पार्टी की ओर से एक आध बार इसकी चेष्टा हुई भी, पर इस पार्टी की लापरवाही देखकर वे हतोत्साहित होकर चुप रह गए।

आज 'यौन विज्ञान' की कुछ पुस्तकों को पढ़कर अच्छी तरह समझ गया हूँ कि उन दिनों 'चन्दू' की ओर मैं इतना आकर्षित क्यों हुआ था। 'लैला मजनूँ' की कहानी तो पाठ्य-पुस्तकों में नहीं थी, पर इतिहास कथामाला में 'पृथ्वीराज-संयुक्ता' की कहानी मैंने अवश्य पढ़ी थी।

मैं पृथ्वीराज की तरह 'चन्दू' को प्राप्त करना चाहता था। एकान्त में एक दिन मौका पाकर, मैंने चन्दू से कहा - "चन्दू! पृथ्वीराज और संयुक्ता की कहानी...

"मुझसे मत बोलो! तुम उस पार्टी के हो। हटो ।" -उसने डाँट बताई।

"नहीं, नहीं-मैं उस पार्टी का नहीं हूँ।" मैंने गिड़गिड़ाकर कहा।

"तब?"-वह जाते-जाते रुक गई।

"मैं तुम्हारी पार्टी का हूँ।"-मैंने कह दिया।

"सच?"-वह मैरे पास चली आई। मैंने उसका हाथ पकड़कर कहा-"सच ।

फूल की झाड़ी में, मेरी पार्टी का हट्टा-कट्टा लड़ाकू रजना छिपा हुआ बैठा था । उसने प्रकट होकर, दाँत पीसते हुए मेरी ओर देखकर कहा- "धोखेबाज!"

मेरी संयुक्ता और पृथ्वीराज की कहानी अधूरी रह गई। चन्दू हाथ छुड़ाकर चली गई।

पृथ्वीराज के बदले, इतिहास में सिर्फ रामकथा पढनेवाले भी, मुझे जयचन्द कहने लगे।

हाई. स्कूल ।

पाठशाला की पढ़ाई समाप्त करके शहर के हाई. स्कूल में पहुँचा।

सौभाग्यवश या दुर्भाग्यवश मेरे पिताजी के वकील एक बंगाली सज्जन थे। अपने मुवक्किल के पुत्र को आपने सहर्ष अपने परिवार में सम्मिलित कर लिया। बंगालियों से घनिष्ठता तो हुई ही, साथ ही बंगला भाषा और बंगला-संगीत की ओर भी मैं झुका। दो-तीन बर्षों के बाद तो स्वयं मुझे सन्देह होने लगा कि मैं अ-बंगाली हूँ! कुछ दिन के बाद ही 'बंगाली-अबंगाली' की लड़ाई छिड़ी। दोनों ओर से खुलकर गालियाँ दी जाने लगीं ।

अबंगाली कहते-"बंगाली जाति डरपोक! नीच!"

बंगाली प्रत्युत्त्र में कहता-"छातूखोर, खोट्टा। "

क्रोधित अ-बंगाली सीमा का उल्लंघन कर जाते।

गालियाँ सुनकर मैं सिहर पड़ता।

छीः रवीन्द्र, जगदीश वसु, शरत और सुभाष भी तो बंगाली हैं!!

बंगाली भी ईंट का जवाब पत्थर से देता। मेरे अन्दर का अ-बंगाली बंगाली को डाँट देता।

बंगाली मित्रों ने मेरे सम्बन्ध में राय दी-"जाइ होक, हिन्दुस्तानी शेषे हिन्दुस्तानी ई!"

अ-बंगाली दोस्तों ने मेरी पीठ कोंचते हुए कहा, कहो-"देख लिया न इनकी दोस्ती! कमीना कौन..."

चुप भी रहो।-झल्लाकर इनका भी मुँह बन्द कर दिया।

"यह बात है?"-कहकर अ-बंगालियों ने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पास कर ही दिया-"बंगालियों की गाली की हम परवाह नहीं करते क्योंकि वे जो कुछ कहते या प्रान्तीयता के नाम पर ।

किन्तु, अ-बंगाली होकर भी जो बंगालियों का पक्ष लेते हैं, वे दगाबाज हैं, मक्कार हैं, मीरजाफर हैं। हमें वैसे व्यक्तियों से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए।"

कॉलेज की कहानी जरा लम्बी है, मगर है दिलचस्प।

स्कूल से इन विशेषणों से विभूषित होकर कॉलेज में पदार्पण किया।

प्रान्तीयता के फेर में न पड़ने की प्रतिज्ञा मैंने पहले ही कर ली थी।

'फर्स्ट-ईयर' तो देखते-सुनते बीत गया। सेकंड-ईयर में पहुँचकर मैंने चोला बदलने की सोची। विशेष कोई परिवर्तन नहीं, सिर्फ धोती छोड़कर पाजामे में आ गया और डेढ़ इंच गले की पट्टीवाला लम्बा कुर्ता बनवा लिया। एक शुभ दिन को वेश बदलकर सिनेमा-हाउस की यात्रा मैंने की। ताँगे पर बैठे हुए मेरे सहयात्री सज्जन ने।

मेरा नाम, इयर, कम्बीनेशन, होस्टल और रूम नम्बर पूछने के बाद जब पूछा कि आप किस पार्टी को 'बिलोंग' करते हैं!" तो मैं घबरा गया।

"सी.पी. (कम्यूनिस्ट पार्टी)?" उन्होंने मुस्कुराकर पूछा ।

"जी हाँ।" मैंने पाँच मिनट का मामला समझकर कह दिया।

"आई-सी"-कहकर हँसते हुए उन्होंने बेरहमी से एक धौल जमा दिया। मैं चौंक पड़ा।

"वी आर कामरेड्स, डरो मत।"-वे, मेरे कन्धे पर हाथ रखकर प्यार-भरे शब्दों में, बोले ।

उस दिन 'काश्मीर-केबिन' का बिल तो उन्होंने चुकाया, सिनेमा के फर्स्ट-क्लास का टिकट भी खरीद दिया।

दूसरे दिन ज्यों ही क्लास में पहुँचा, मेरे अन्तरंग मित्र विनोद ने आकर मुस्कुराते हुए कहा-"वाह! पक्के सोशलिस्ट मालूम पड़ते हो?"

मैंने कहा-जो भी कह डालो?" विनोद बोला-"जो भी कह डालो नहीं, होना होगा"

"क्या होना होगा?"- मैंने आश्चर्यित होकर पूछा।

"मेम्बर! और क्या? मैं तो समझता था कि तुम किसी पार्टी-पालटिक्स से दिलचस्पी नहीं रखते।

लेकिन देखता हूँ तुम कोरे नहीं हो वह मुस्कुराने लगा।

मैं आज भी नहीं समझ पाया हूँ कि विनोद ने मुझमें किन गुणों को देखकर पार्टी से दिलचस्पी रखनेवाला पक्का व्यक्ति समझा ।

जो भी हो, जिस दिन मेरा नाम स्टूडेंट फेडरेशन (कम्यूनिस्ट-गरुप) के रजिस्टर में दर्ज हुआ उसी दिन मेरे पास यह भी सूचना आ गई कि मैं स्टूडेंड फेडरेशन (सोशलिस्ट-प्रुप) की वकिंग कमिटी में ले लिया गया हूँ।

सिर्फ दो ही पार्टियों की बात रहती तो कोई बात नहीं थी, एक दिन तीसरी पार्टी के भी चक्कर में पड़ गया।

"क्यालक्याटा-क्याफे (साइनबोर्ड के अनुसार) में बैठकर चाय पी रहा था।

मेरे हाथ में बंगला की एक मासिक पत्रिका थी। मेरी बगल में मेरी ही उम्र के एक सज्जन चाय पी रहे थे। उन्होंने कई बार मुझे और मेरी हाथ की पत्रिका को घूरकर देखा और अन्त में पूछ ही लिया-"आपनी बांगाली?" छातुखोर की उपाधि से बचने के लिए मैंने कह दिया-"आग्ये हाँ।"

ओ! एखाने पोड़ेन? की पोड़ेन:?"

सेकेंड इयर आर्ट्स ।"

"भालो" कहकर उन्होंने काफे के एक कोने में बैठकर बहस करते हुए युवकों को पुकारकर कहा-"उहे! हाबू, भोला, कालू नीलू, फेला! तोमरा से दिन बलले जे सेकेंड इयर आर्ट्स से कोनों मेम्बर नाय । एइजे इनी..."

"ताइना की ताइना की"-कहते हुए ये सबके सब बहस छोड़कर दौड़ आए और मुझे घेरकर बैठ गए। फिर चाय का आर्डर हुआ, बातें हुई, मिलने-मिलाने के वादे हुए। आ्गेनाइज करने पर जोर दिया गया सबसे मजे की बात तो यह रही कि मैं उन लोगों की पार्टी का नाम जाने बिना भी, हाँ-हाँ, करता गया।

उसमें से एक युवक ने बढ़कर मैनेजर से कुछ कहा फिर मेरे पास आकर धीरे-से बोला-आज धेके कनसेशन। बुझलेन! पार्टीर काफे तो! एरा जानतो ना जे आपनी ब्लाकेर मेम्बर । उस दिन से फारवर्ड ब्लाक के नाम पर 'क्यालक्याटा क्याफे में मैं कनसेशन रेट पर 'चाय कटलेट' पाने लगा।

रविवार को आराम से लेटकर 'गोदान' पढ़ रहा था कि विनोद ने, धड़धड़ाते हुए, आकर कहा-"अजी ओ वर्किंग कमिटी के मेम्बर साहब! कुछ पता भी है? कामरेड रामप्रताप आ रहे हैं।

आज कमिटी की अर्जेंट मीटिंग है, चार बजे । समझे! और कल पार्क में सभा होगी।..अरे! यह क्या पढ़ रहे हो, गोदान? सिली!" *क्यों? मैंने महान आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा।

"इट्स ए रिएक्शनरी बुक!...अच्छा चार बजे आते हो तो?" - कहकर वह जैसे आया था वैसे ही चला गया और मैं डिक्शनरी उठाकर 'रिएक्शनरी" का अर्थ ढूँढ़ने गया। ठीक साढ़े तीन बजे मैं सज-धजकर निकला ।

फाटक पर एक प्रियदर्शिनी अप-टु-डेट' युवती माली से पूछताछ कर रही थी। मैंने अपनी चप्पल से लेकर पंजाबी तक पर सरसरी निगाह डाल ली ।

माली ने मुझे देखते ही मेरी ओर दिखाकर कहा-"वही हैं।" बह मुस्कुराती हुई बढ़ी, मेरे पास आकर एक 'कामरेडी अभिवादन करके मेरे हाथ में एक पत्र देकर बोली, "अरजेंट लेटर"।

मैंने पत्र खोलकर पढ़ा- .सोशलिस्ट लीडर रामप्रताप आ रहे हैं ।

अपनी पार्टी ने उसे चार स्टेशन बढ़कर

काला झंडा दिखाने का प्रस्ताव पास किया है। आप मिस रोस्सा के साथ अभी चले जाइए। कल सुबह से ही वहाँ के मेम्बरों को लेकर प्लेटफार्म पर तैयार रहिएगा। पंजाब मेल के आते ही 'रामप्रताप मुर्दाबाद' आदि पार्टी के नारों के साथ काला झंडा दिखा दीजिएगा।

सेक्रेटरी।" पत्र समाप्त करके मैंने प्रतिवाद के लिए, आँखें जो उठाईं, तो सारा शरीर पुलकित होकर रह गया। मैंने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी कि मिस रोस्सा जैसी सुन्दरी, मेरी ओर कभी उस मोहक दृष्टि से देखेंगी। नेपोलियन एक आला दिमाग का आदमी था, मानना पड़ा। मैंने फिर एक बार आँखें उठाईं। वह मुस्कुराती हुई, मिश्री से भी मधुर स्वर में बोली- "चल रहे हैं न?"

"चलिए। मैंने मस्ती में झूमते हुए कहा। ताँगे पर बैठकर हम लोग स्टेशन की ओर चल पड़े। कुछ क्षण के लिए मानों मुझे। होश हुआ-यह मैं क्या करने जा रहा हूँ। जिनके लिए मेरे हृदय में अगाध श्रद्धा है। उन्हीं का अपमान...? वह भी बेमतलब का। नहीं-नहीं, यह मुझसे नहीं होने का। "आप सिगरेट नहीं पीते?"

"... ... ... " "जी?...जी नहीं।-मेरा ध्यान भंग हुआ। "क्या सोच रहे थे कामरेड?"-उसने मेरी-ऑँखों में आँखें डाल दीं। "सोच रहा था कि...जी मैं कुछ नहीं सोच रहा था।" मेरी आँखें बरबस झजक गई। "जाइए, मैं नहीं विश्वास करती। आप सोच तो कुछ जरूर रहे थे। मुझसे मन। की बात क्यों छिपाते हैं? खैर, आप जो भी सच रहे हो।...क्या आप सिगरेट...एकदस

नहीं पीते?"

"जी" एकदम माने...एकदम नहीं।

पीने का आदी यानी 'हैविच्युएटेड' नहीं हैं।

"तो पीजिए न!"-उसने अनुनय-भरे स्वर में कहा।

ताँगेवाले ने उतरकर सिगरेट का टीन ला दिया। टीन काटकर अदा से मेरी ओर सिगरेट बढ़ाने और माचिस जलाने तक की क्रिया उन्होंने ही की। सिगरेट सुलगाकर मैंने पूछा-"और आप?"

मैं नहीं पीती। किसी खास सिनेमा स्टार की तरह उसने बड़े अन्दाज से गरदन हिलाई। मैं मुँह बाये देखता रहा।

"आपके आश्चर्यित होने का कारण मैं समझ रही हैँ। बात यह है कि कई चीजों के सम्बन्ध में मेरी खास राय है।"-पूछिए तो कहूँ की मुद्रा बनाकर वह मुस्कुराती रही।

"जैसे?"- मैंने, सिगरेट का धुआँ बाहर की ओर फेंकते हुए, पूछा। "धुआँ उधर क्यों फेंक रहे हैं?"-उसने उलाहना दिया। "तो किधर फेंकू?"

"नहीं। मेरी ओर फेंकिए!-बच्चों की भाँति वह मचलकर बोली। "आपकी ओर?" ति ।

"जी हाँ। मैंने अभी कहा न कि कुछ चीजों के सम्बन्ध में मैं खास राय रखता हूँ।

सिगरेट को ही लीजिए न । मैं तो बिना सिगरेट के धुएँ की सुगन्ध के, पुरुषा के साथ की आशा भी नहीं कर सकती।

सिगरेट पुरुषों के पीने की चीज है और उसका सुगन्ध स्त्रियों के उपभोग की चीज है।" अपनी राय नम्बर एक को वह दड़ग गम्भीरतापूर्वक सुना गई। मैं सिगरेट की फिलासफी में इबकियाँ लेने लगा । दुनिया को भूल गया। वह फिर बोली-"और दूसरी राय मैं नहीं बताती। मैं रूठ गई, मनाओ साजन' की मुद्रा उसने बनाई।

"बतलाइए न!" मेरी बोली में भी रंग उतर आया ।

"पहले आप बतलाइए कि आप उस समय क्या सोच रहे थे?"

मैं सोच रहा था...

"हाँ-हाँ, कहिए।"

"क्या बताऊँ?"-मैंने उसकी ओर देखकर मुस्कुरा दिया।

"आप बड़े वो हैं। ऐसी बातें करते हैं, मानो नए और कोरे मेम्बर हों ।" मैं सोच रहा था कि मैं...आप..."

"बस, मैं समझ गई।"-वह खिलखिला पड़ी । इतनी देर के बाद मुझे दुनिया, सड़क, राही, दुकान और ताँगेवाले की याद आई। अप्रतिभ होकर इधर-उधर देखने लगा।

"बगल क्या झाँक रहे हैं। आप बताना तो खूब जानते हैं।

बड़े आए हैं दुनिया की ओर इशारा करके मेरी परीक्षा लेने । सुनिए, मेरी दूसरी राय पुरुषों की दाढ़ी के सम्बन्ध में है। मैं 'डेली शेव' (दैनिक हजामत) के पक्ष में नहीं।

एक दिन के बाद एक दिन की बनी हुई दाढ़ी...।"

'सिगरेट-धुआँ-फिलासफी' से बह 'दाढ़ी-फिलासफी' जरा कम गहरी थी । मैं गड़ाप से जमीन तक पहुँच गया। मेरे मुँह से निकल ही पड़ा- "माई गॉड..." फिर तुरन्त स्मरण हुआ कि हम कम्युनिस्ट हैं और भगवान की लीला देखिए कि आप ही आप शब्द पूरा हो गया ...रेज' पर जाकर। माइ-गाडरेज! मतलब?"- वह पूछ बैठी।

"गाडरेज! गाडरेज नम्बर एक, चाबी ट्रेड मार्क, स्वदेशी याने 'गाडरेज शेविंग-स्टीक' - मैंने अपनी हाजिर-जबाबी के लिए मन-ही -मन भगवान को धन्यवाद दिया। "ओ! दाढ़ी बनाने की बात सुनकर आपको शेविंग-स्टीक की बात याद आ गई। क्या आप गाडरेज यूज करते हैं?"

"जी।-मैंने थककर संक्षिप्त उत्तर दिया। "लेकिन..." ताँगा स्टेशन पर पहुँच चुका था। ताँगेवाले ने टोका-हुजूर, गाड़ी प्लेटफारम पर लग गई। ट्रेन में बैठकर, कुली को पैसे देने के पहले उन्होंने सिगरेट का टीन मेरी ओर बढ़ाया। गाड़ी ने सीटी दी और मैंने 'भक्क' से खिड़की के बाहर धुआँ फेंका तथा अपनी गलती के लिए आँखों से ही क्षमा माँगकर, लगातार चार-पाँच बार उनके चेहरे पर धुएँ का गुब्बारा फेंक दिया। उसकी आँखें धुएँ के मीठे अत्याचार को सहती हुई, झिप गई, पर उसकी लम्बी नुकीली नाक, पुलकित होकर सिगरेट-सौरभ उपभोग करती रही।

दूसरे दिन प्रातःकाल।

गाड़ी आकर प्लेटफार्म पर लगी। और मैंने, अपनी पार्टी के दो दर्जन मेम्बरों (जिनमें अधिकांश किशोर और किशोरियाँ थी) के साथ नारा लगा ही दिया "रामप्रताप मुर्दाबाद ।" काले झंडों से प्लेटफार्म भर गया।

रामप्रताप, कांग्रेस का पुछल्ला!"-यह नारा मिस रोस्सा ने लगाया। "रामप्रताप, कांग्रेस का दुम!" मैंने इसका हिन्दुस्तानी अनुवाद कर दिया। यह तो नारा लगाने और झंडा दिखाने की बात थी, मिस रोस्सा के इशारे पर जो मैं किसी की गर्दन तक मरोड़ सकता था। एक-से-एक वजनी नारे लग रहे थे कि पक कम्पार्टमेंट का दरवाजा खुला ।

भव्य ललाट और प्रभावोत्पादक व्यक्तित्व लिए एर व्यक्ति दरवाजे के पास आकर खड़ा हो गया तथा मन्द-मन्द मुस्काने लगा। उस मुस्कान को पवित्र मुस्कान कह सकते हैं। "यही है, यही है।" रोस्सा बोली। "हूँ...।"

"रामप्रताप मुर्दाबाद । रोस्सा ने नारा लगाया। "....." मैंने क्या दुहराया, यह मेरी समझ में नहीं आया। गाड़ी चल पड़ी। वह व्यक्ति, उसी तरह मुस्काता, खड़ा रहा। "लेकिन चेहरे पर जरा भी शिकन... ।" मैं कह ही रहा था कि रोस्सा बात काटकर बोली-"अरे गांधी का चेला है न! सब पोपबाजी गांधी से इन लोगों ने सीखी है। जूते खाकर मुस्कुराना। हिस्! रंगे सियार!! बड़े चले हैं समाजवादी बनने! क्रान्ति करेंगे। ढोंगी।"

होस्टल पहुँचने के बाद मैं दो बातों की आशंका कर रहा था । प्रथम , विनोद से मैत्री-विच्छेद की, दूसरे इस पार्टी की ओर से अपने नाम 'रटी-स्टाई', 'छपी-छपाई' गालियों की। कुछ हो जाता तो कम-से-कम पिंड छूटने की उम्मीद थी। पर हुआ कुछ भी नहीं। विनोद ने आकर अनुपस्थिति के लिए उलाहना-भर दिया और घंटों सभा की सफलता की बातें करता रहा।

एक-दो महीने तक यही रवैया जारी रहा। कभी-कभी तो पढ़ाई-लिखाई छोड़कर भाग जाने की इच्छा होती। एक ही साथ तीन-तीन पार्टियों का मेम्बर होकर आखिर कब तक कोई अपनी इज्जत को सलामत रख सकता है।

'कलकटा काफे' के कनसेशन और क्रेडिट के आगे सभी पार्टियों को कुबान करने जाता, तो मिस रोस्सा की रसभरी आँखें राह रोककर खड़ी हो जातीं । एक दिन 'ब्लाक के एक मेम्बर ने मुझे एकान्त में ले जाकर एक बंगला हैंड बिल' दिया और उसका हिन्दी अनुवाद करने का भार सौंप दिया। मैंने अनुवाद कर दिया। रात-भर में ही उसकी छपाई-सफाई भी हो गई। दूसरे दिन सुबह-सुबह मैं चौक से वापस आ रहा या। ताँगा रोककर हँड बिल' का दो गट्ठर मुझे चुपचाप सुपुर्द कर दिया गया। बँटवाना भी पड़ेगा।

बाँटनेवाले न मिलें, तो खुद बाँटना भी पड़ेगा, यह था पार्टी का आदेश।

एक जमाना था, जबकि माता-पिता के आदेश को विशेष महत्त्व दिया जाता था, माता-पिता के आदेश पर लोग जंगल की खाक तक छानते थे।

पर इस वैज्ञानिक युग में पार्टी के आदेश को ही विशेष महत्त्व दिया गया है। माता-पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना तो क्रान्तिकारियों का धर्म ही है। सो इन परचों में गर्मागर्म बातें हों या 'एटम-बम' हों, बाँटना या बँटवाना पड़ेगा ही। ताँगा दूसरे चौराहे के पास भी नहीं पहुँचा था कि किसी की मीठी पुकार सुनाई पड़ी-'कामरेड।"

मिस रोस्सा! वह अपने ताँगे पर से उतरकर मेरे ताँगे पर आ गई। मानो मेरे ही लिए जोगन-सी वन-वन भटक रही थी। हम लोग सिलसिले से बात करने का पोज बना ही रहे थे कि दस कदम पर फिर ताँगा रोका गया। इस बार की रुकावट आखिरी रुकावट थी। सी.आई.डी. इंस्पेक्टर महोदय थे। हम दोनों को साथ पाकर आपने बेहद खुशी जाहिर की।

उन्होंने आवश्यकता से अधिक नम्र होकर फर्माया-"माफ कीजिए, आप लोगों की तलाशी लूँगा।" पास ही कोतवाली का एक छोटा दफ्तर था। हम लोग वहीं ले जाए गए। बाजाप्ता तलाशी होने लगी। मिस रोस्सा के हैंड बेग से कुछ सुगन्धित चिट्ठियाँ मय लिफाफे के निकलीं। मैंने आँखें बचाकर एक पत्र को देखा। शीर्षक था 'मेरी रानी' । कलेजा तो धड़क रहा था ही, आँखों की रोशनी भी गायब हो गई। जब गट्ठरों की बारी आई तो मैं धम्म से एक टूटी कुर्सी पर बैठ गया। गट्ठर खुलने लगे। पुलिसवालों की बाँछे खिल गईं-"हियर यू आर।" “कहिए साहब, इन गट्ठरों में शृंगार की सामग्रियाँ और साड़ियाँ थीं न? ये पर्चे कहाँ से आ गए"-इंस्पेक्टर साहब ने मुस्कुराते हुए चुटकी ली। मैं चुप रहा। रोस्सा पीली पड़ गई, उसके मुँह से एक हल्की-सी चीख निकल पड़ी-“मेन्सेविख!!"

हम लोग स्थानीय जेल में पहुँचा दिए गए। 'लेडिज-वार्ड' की ओर जाती हुई क्रान्ति की मूर्ति मिस रोस्सा फूट-फूटकर रो पड़ी। जेल में पहुँचकर मैंने राहत की साँस ली। दूसरे दिन एक पत्र में निकला-“स्टुडेंट-फेडरेशन (कम्यु. ग्रुप) के सदस्य कामरेड पी. राय तथा मिस रोस्सा आपत्तिजनक पर्यों के साथ गिरफ्तार!" दूसरे पत्र में खबर छपी-"स्टुडेंट-फेडरेशन (सोशलिस्ट ग्रुप) की कार्यकारिणी तीसरे पत्र ने लिखा-“अग्रगामी दल के प्रसिद्ध बंगाली कार्यकर्ता मिस्टर राय यदि सच पूछा जाए तो प्रथम श्रेणी के राजनैतिक बन्दियों को घर से भी बढ़कर जेल में आराम रहता है। खाना-सोना, पढ़ना-लिखना। किसी बात की फिक्र नहीं। समिति के सदस्य कामरेड प्रफुल्ल आपत्तिजनक पर्यों के साथ गिरफ्तार ।"

तीसरे पत्र ने लिखा-"अग्रगामी दल के परस्थिद बंगाली कार्यकर्त्ता मिस्टर राय सरकार के मेहमान बना लिए गए। " यदि सच पुछा जाए तो प्रथम राजनैतिक बंदियों को घर से भी बढ़कर जेल में आराम रहता है। खाना-सोना पढ़ना-लिखना। किसी बात की फ़िक्र नहीं। सो जिन्दगी के दिन चैन से कटने लगे। रोस्सा तो दो दिन के बाद ही छोड़ दी गई। पर अदालत ने मुझे तीन वर्ष की लम्बी सजा दे दी। सोचा था, पार्टी के भयंकर भूत से पीछा छूटा। लेकिन 1942 का देशव्यापी आन्दोलन छिड़ा।

जेल खचाखच भर गई। देखते ही देखते पार्टी की बीमारी भी फैल गई। मुफ्त का खाना, आराम से सोना और गला फाड़कर बहस करना-बस। जेल में कम्युनिस्टों की संख्या नहीं के बराबर थी। वे अपनी दाल गलाने की चेष्टा करने की भी हिम्मत नहीं करते थे। गांधी बाबा के भक्तगण तो चर्खा चलाने के सिवा अध्ययन, पठन-पाठन को भी पार्टी की ही चीज समझते थे।

अतः वे इन झंझटों से कोसों दूर रहते थे। बहस करना तो दूर, जेल अधिकारियों के दुर्व्यवहारों के खिलाफ आवाज उठाने को भी वे हिंसा करार देते थे। सोशलिस्टों का बहुमत था और मैंने अपने को सोशलिस्ट कहने में ही अपना कल्याण समझा। कुछ दिनों के बाद मालूम हुआ कि कम्युनिस्ट पार्टीवाले अपने मेम्बरों की रिहाई के लिए अथक परिश्रम कर रहे हैं। उनके सुकर्मो को देख-सुनकर पूरा भरोसा हुआ कि वे अपने मेम्बरों को अवश्य छुड़ा लेंगे। अतः एक दिन छिपकर कम्युनिस्टों को याद दिला आया कि वे मुझे भूल न जाएँ। यों तो जेल में किसी प्रकार की तकलीफ नहीं थी फिर भी अपनी मुक्ति के लिए दिन-रात छटपटाया करता था। जेल से मुक्ति का अर्थ था पार्टी के दलदल से मुक्ति।

इस दलदल से निकलने के लिए मैं जितनी ही चेष्टा करता था, उतना ही उसमें फँसता जाता था। दिन-भर भौतिकवाद पढ़कर ईश्वर की सत्ता को मिटाया करता था और रात में मसहरी के अन्दर भगवान से अपनी मुक्ति के लिए घंटों रो-रोकर प्रार्थना किया करता था। भगवान ने मुझ जैसे अनन्य भक्त की प्रार्थना सुन ली।

मैं बीमार पड़ा। बीमारी ने रंग दिखलाया। पत्रों ने बारी-बारी से मेरी मुक्ति की माँग की। सरकार का ध्यान आकर्षित हुआ और मुझे, समुचित चिकित्सा के लिए जेनरल हॉस्पिटल भेज दिया गया। चिकित्सा होने लगी। वजन बढ़ने लगा, बुखार घटने लगा और सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि पार्टी के भूतों से पिंड छूटा। ए.आर.पी. ट्रोनंग के लिए आई हुई सुशिक्षित प्रियदर्शिनी बंगालिन नर्से मेरी तीमारदारी करती थीं। मैंने देखा कि वे सबकी सब मुझसे खिंची रहती हैं। एक दिन बड़ी चतुराई से इस मन-मुटाव के कारणों को जानने की चेष्टा की तो-पंचतन्त्र की उस चक्रवाली कहानी की तरह- सिर पर पार्टी का चक्र सवार होकर नाचने लगा। मुझे गांधीवादी समझकर वे मुझसे चिढ़ती थीं क्योंकि गांधीवादियों ने सुभाष बोस को धोखा दिया था। मैंने, एक अज्ञात प्रेरणा से प्रेरित होकर गांधीवादियों की जरा निन्दा कर दी और उन लोगों ने मुझसे सैकड़ों प्रश्न पूछकर पता लगा ही लिया कि मैं फारवर्ड-बलाकिस्ट हूँ। फिर क्या था, क्षण-भर चैन न पाऊँ सजनवाँ तोरे बिना के सभी लक्षण प्रकट होने लगे।

सरकार ने मुझे शीघ्र ही छोड़कर बुद्धिमानी का परिचय दिया वरना मैं एक नई बीमारी का शिकार हो जाता।

मुक्ति पाकर मैंने प्रतिज्ञा की कि किसी पार्टी की चर्चा छिड़ते ही वहाँ से भाग खड़ा होऊँगा।

चेष्टा तो मैंने खूब की पर एक पार्टी के हिमायती से भेंट हो ही गई। पुरानी जान-पहचान थी, टालना आसान नहीं था। बातें करते-करते आपने पार्टी की पिटारी खोल ही दी। 'बम्बई योजना' के विरुद्ध-राय योजना का घोषणा पत्र मेरे हाथ में देते हुए आपने फर्माया-"देखिए! यह रही कामरेड राय की योजना। बहस करने से ही कैँस जाने की पूरी आशंका थी और अपनी राय दिए गिना रायिस्ट महोदय से पल्ला छूटने की आशा नहीं। मेरे मुँह से-'अच्छी है' सुनकर ही आपने दम लिया।

घर पहुँचते-पहुँचते ही मैंने पत्रों में पढ़ा-"कामरेड प्रफुल्ल ने रिहा होकर बम्बई योजना पर वक्तव्य देते हुए बताया कि यह शोषकों की योजना है। राय योजना से इसकी कोई तुलना ही नहीं हो सकती। राय योजना सही अर्थों में शोषितों की योजना है।"

पढ़ाई-लिखाई की तो इतिश्री हो ही गई थी, घरवालों ने शादी का राग अलापना शुरू कर दिया। जेल जाने के पहले तो कन्या पक्षवालों का ताँता लगा रहता था, मैं एक कीमती सौदा समझा जाता था। किन्तु अब तो लोग मुझ-जैसे बेमतलब जेल चले जानेवाले को लड़की देना और लड़की को कुएँ में डाल देना, बराबर था। माँ और पिताजी की आरजू-मिन्नतों को मानकर मैंने अपनी राय दे दी। वुलाहट हुई। सज-धजकर पहुँचा एक दिन। भावी जामाता के अनुकूल ही आवभगत हुई। कन्या के पिता आधुनिक विचारों के कायल थे और वर्तमान संसार में रखते थे। कन्या देखने-दिखाने के बाद उन्होंने संसार की राजनीति पर भाषण देना कुछ अपनी भी राय शुरू कर दिया। वे सुना रहे थे, मैं सुन रहा था।

कुछ देर के बाद मैंने अनुभव किया कि पर्दे के उस पार खड़ी जनता मेरा प्रवचन सुनने को अधीर हो रही है । मैंने सोचा कि कहीं ऐसा न हो कि मुझे 'हाँ में हाँ' मिलानेवाला समझकर लोग छाँट दें। अपनी भावी पत्नी को देखकर मैंने कल्पना के संसार में, नए डिजाइन के कितने बंगले बना डाले थे। मुझे मैदाने-जंग में उतरना ही पड़ा। बातों का सिलसिला 'क्विट-इंडिया' तक पहुँच चुका था। मेरे भावी स्वसुर की राय थी कि कांग्रेस ने क्विट-इंडिया प्रस्ताव पास करके बच्चों की-सी गलती की। मुझे इसका विरोध करना ही पड़ा। वातावरण गर्म हो गया। पर्दे के उस पार की गर्मी का भी मैंने अनुभव किया। मेरी आवाज चौगनी हो गई और मैंने यहाँ तक कह डाला कि--"हमारी मंजिल अब दूर नहीं। 1942 के बाद देश ने..."

"सुनिए!" मेरे एकमात्र भावी साले साहब ने अपनी कोठरी से निकलकर मके रोका, मैंने उनकी जवानी पर विश्वास करते हुए कहा- "कहिए मोहन बाबू! मैं गलत कह रहा हूँ।"

वे बैठ गए और बड़ी गम्भीरतापूर्वक बोलने लगे- "देखिए प्रफुल्ल बाबू! अव तक मैं चुपचाप आपकी बातें सुनता रहा। जहाँ तक मेरी शक्ति थी मैंने अपनी आत्मपा को धोखा दिया यानी अपने को रोके रहा। लेकिन बातें यहाँ तक बढ़ गईं कि चुपचाप रहना मैंने सरासर नमकहरामी समझी।.."

"जरूर! अवश्य!"- मैंने उत्साहित होकर कहा।

"आपने अन्तिम कई बातें ऐसी कही हैं कि जो सोशलिस्टों की बातें हैं। और एकदम भारत रक्षा कानून में आ जाती हैं। मेरा जहाँ तक अनुमान है कि आप किसी की ड्यूटी की महत्ता को अवश्य महसूस करते होंगे, इस अवस्था में भी मैं अपनी इ्यूटी नहीं बजा रहा हूँ यह मेरी नमकहरामी के सिवाय और कुछ नहीं तो..."-वे अपने पिता के सिगरेट केस से एक सिगरेट निकालकर सुलगाने लगे ।

वृद्ध ने मुस्कुराते हुए मेरी ओर देखकर कहा- "वास्तव में यह पहला मौका है कि मैंने लल्लू को गम खाते देखा।"

"किस मुँह से बोलते हैं" पर्दे के उस पार से आवाज आई-"लड़के की नई नौकरी है, तरक्की के लिए कोशिश करना तो दूर, बैठे-बिठाए बमवालों से रिश्ता जोड़कर नौकरी भी ले डूबने की तैयारी कर रहे हैं। मेरी लड़की क्वाँरी रहेगी, नहीं चाहिए मुझे ऐसा रिश्ता ।"

सम्भवतः यह मेरी सास साहिबा की क्रुद्ध वाणी थी। मेरी समझ आया कि माजरा क्या है। मुझे तुरन्त ही समझा दिया गया कि मोहन बाबू को खुफिया विभाग में नौकरी मिल गई है-1943 से। यह उनके दास-जीवन में पहला मौका था कि वे अपनी आँख-कान से देख-सुनकर भी भारत रक्षा विधान के मुजरिम को छोड़ रहे थे। मेरे साथ उन्होंने इतनी-सी रियायत अवश्य की कि मुझे दो घंटे का समय दिया।

मैंने सिर्फ पन्द्रह मिनट में ही तैयार होकर उनका घर तो 'क्विट' कर ही दिया साथ ही शादी की रही-सही आशा को खिड़की पर खड़ी दयनीय मुद्रा बनाकर देखती रही। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में ऑँसू स्पष्ट दिखाई पड़ रहे थे; पर एक लम्बी साँस छोड़कर वापस आने के सिवाय और चारा ही क्या था! इस छोटे-से 'व्यापारिक कस्बे' को पार्टी पालटिक्स से परे समझकर मैंने यहाँ एक ओोटी-सी नौकरी कर ली। किन्तु अब आटे-दाल का भाव मालूम हो रहा है।

यहाँ तो कैकडों पार्टियोँ हैं। अपने को किसी पार्टी से अलग रखकर एक कदम भी चलना मुश्किल है। महाशय 'क से जरा हैँसकर वात कर ली कि मिस्टर 'ख' की आँखों में चढ़ जाता है। पंडित 'ग' के यहाँ ट्यूशन करने जाता हूँ तो मुंशी 'घ' मुँह फुला लेते हैं। श्रीमान 'त' एक मिल-मालिक हैं, एक दिन मैंने उनका निमन्त्रण स्वीकार कर उनके यहाँ जरा खीर क्या चख ली, कालर्ल मार्क्स का सारा 'कैपिटल' कलंकित हो गया। बड़ी-बड़ी दुकानों की बात तो जाने दीजिए, फेरी लगानेवालों की भी पार्टी है। एक दिन बाजारे से सिंगरेट अचानक गायब हो गया सिगरेट पीनेवाले लोहे की दुकानों में भी सिगरेट तलाश करते पाए जाते थे। मैंने अपने चाय और सिगरेटदाता श्री शिवजी से पूछा कि भाई तुम कहाँ से सिगरेट ले आते हो? तो उसने दाँत निपोड़कर कहा-"जी, अपनी पार्टी के लोगों के लिए क्या करें.. हें. हें ब्लेकमार्केट से... ।" समझने में देर नहीं लगी कि पार्टी की बदौलत ही मैं सिगरेट पी रहा हूँ और मैं उसकी पार्टी का ही हूँ।

जब से कांग्रेस ने चुनाव लड़ने की घोषणा की है, यार लोग रंग बदल रहे हैं। जिन्होंने सरकार बहादुर के सामने प्रतिज्ञा की थी कि कभी किसी पार्टी में भाग नहीं लँगा, उन्होंने भी 1942 की धुली हुई, बक्स में बन्द, गांधी टोपी निकालकर पहनना शुरू कर दिया। 'कांग्रेस' शब्द को उच्चारण करने के पहले जो इधर-उधर देख लेते थे, वे ही आज राह रोककर चुनाव की चर्चा करने लग गए हैं। मैं भी अब अपने को किसी पार्टी का घोषित कर सकता हूँ। कम्युनिस्टों से मेरी कोई दिलचस्पी नहीं रह गई, क्योंकि मिस रोस्सा ने एक अमेरिकन सैनिक से शादी करके अपने अन्तर्राष्ट्रीय सिद्धान्त को कार्य में परिणत कर दिया है। सोशलिस्टों को लोग दामन पसारकर दुआएँ दे ही रहे हैं। ब्लाक और कांग्रेस में कोई मतभेद अब रहा ही नहीं । रास्ता साफ है। लेकिन पार्टी की चर्चा छिड़ते ही हदय की गति बन्द होने को हो जाती है । दिमाग चक्कर खाने लगता है। कुछ स्थिर भी करूँ तो कैसे दिन-भर में हजार बार प्रश्न पूछे जाते हैं-

"मि. 'ड' और 'ढ' दोनों इस बार कांग्रेस के टिकट पर खड़े होने की सोच रहे हैं। आपकी राय में दोनों में से कौन 'फिट' है?"

"मिस्टर 'म' पर तो अनुशासन की कार्रवाई हुई थी?" "सुनते हैं? राजा साहब कांग्रेस के विरोध में खड़े हो रहे हैं!" "अरे साहब! श्रीयुत 'श' तो हिन्दू सभा के टिकट पर खड़े होंगे। वे तो आपके घनिष्ठ मित्र हैं। मदद तो करनी ही पड़ेगी।" आदि-आदि।

मैं एकदम चुप्पी साध लेता हूँ। मेरी चुप्पी को इतना महत्त्व दिया जाने लगा है कि प्रत्येक पार्टी के मेम्बर मुझे अपनी विरोधी पार्टी का भेद जाननेवाला समझने लगे हैं। नाकों में दम है। मैं सभी पार्टियों का हूँ, मैं किसी भी पार्टी का नहीं हैं। बिसन एक पार्टी को वरण किए बिना गुजर नहीं, पर जब प्रश्न उठता है कि 'किस को?' तो सिर चक्कर खाकर रह जाता है।

दिन में चैन नहीं, रात में नींद नहीं आती। आती भी है तो बुरे सपने देखने। लगता हूँ। देखता हूँ कि मैं सड़क पर भागा जा रहा हूँ! शहर के आवारा लड़के मे पीछे टीन बजा-बजाकर दौड़ रहे हैं। सब चिल्ला रहे हैं-"आप किस पार्टी के? आ किस पार्टी के?" मैं चिढ़कर उन लोगों को मारने दौड़ता हूँ, लड़के ढेले फेंकते हैं। तालियाँ पीटकर हैँसते हैं सड़क पर दौड़ रहा हूँ। दर्जी चिल्लाकर कहता है-"सड़क 'क' पार्टी की है!" सड़क छोड़कर पगडंडी पकड़ लेता हूँ। नाई आवाज देता है "पगडंडी 'ख' पार्टी की!"

पगडंडी छोड़कर नाले में गिर पड़ता हूँ... चौकी पर से नीचे गिरकर नींद टूट जाती है। उठने की शक्ति शेष नहीं रह जाती है। काला ज्वर से पीड़ित सेवक बुद्धन किसी तरह उठाकर चौकी पर बैठा देता है। सान्त्वना देता यह कुछ नहीं है। वह एक दिन गॉँव जाकर अपने चर्चा को बुला लाएगा। वह झाड़-फूँककर सब ठीक कर देगा। मुझे भूत लगा है। आदि-आदि।

मैं भी मानता हूँ कि मुझे भूत सता रहा है । भूत-प्रेत को नहीं माननेवालों से मेरी प्रार्थना है कि वे कम-से-कम इस भूत पर अवश्य विश्वास करें।

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