पंडुक की बोली : खासी/मेघालय की लोक-कथा

Panduk Ki Boli : Lok-Katha (Khasi/Meghalaya)

खासियों में प्रचलित एक मान्यता के अनुसार, प्राचीनकाल में अन्य पक्षियों की तरह पंडुक भी मधुर स्वर में गान किया करते थे, परंतु एक दुःखद घटना के कारण वे अपने सुमधुर गीतों को भूल गए। प्राचीनकाल में पंडुकों के परिवार में का पारो नामक एक बहुत सुंदर पंडुक पुत्री थी। उसके माता-पिता अपनी पुत्री पारो से बहुत प्रेम करते थे और एक क्षण के लिए भी उसका वियोग उन्हें बर्दाश्त नहीं होता था। वे उसे एक क्षण के लिए भी अपनी नजरों से ओझल नहीं होने देते थे। उन्हें डर था कि अपनी सरलता और दीन-दुनिया की रीति-नीति से अनभिज्ञ होने के कारण वह किसी शिकारी पक्षी या बहेलिया का शिकार न हो जाए। जब भी का पारो घोंसले से बाहर निकलती तो पहले उसके माता-पिता चारों ओर उड़कर देख लेते कि कहीं कोई खतरा तो नहीं है। वास्तव में का पारो घर में सबसे छोटी होने के कारण सबकी लाडली थी।

एक दिन का पारो अपने घोंसले से निकलकर आसपास के जंगलों में प्रसन्नता से उड़ती हुई और दूर आगे उड़ने के लिए अपने माता-पिता के संकेत की प्रतीक्षा कर रही थी कि अचानक उसे रसीले फलों से लदे हुए वृक्षों का समूह दिखाई दिया। उन वृक्षों की सुंदरता से मोहित होकर वह आगे उड़ना भूलकर एक वृक्ष की एक डाल पर जा बैठी। पंडुक पक्षी सामान्यतः अनाज के दानों को खाना अधिक पसंद करते हैं। उसने भी रसीले फलों की ओर बहुत ध्यान नहीं दिया और डाल पर बैठे-बैठे अपने परों को खुजलाती दूसरे पक्षियों को देखती रही। अचानक उसकी निगाह एक बहुत सुंदर पक्षी पर पड़ी, जिसका नाम जेल्लेइत था और जो उसी डाल पर बैठा बड़े चाव से रसीले फलों को खा रहा था। उसके पंख हरे-सुनहरे रंग के थे। का पारो ने इतना सुंदर पक्षी पहले कभी नहीं देखा था, इसलिए उसे अपनी ओर आकर्षित करने के लिए का पारो मधुर स्वर में एक गीत गाने लगी। जेल्लेइत उसके मीठे गान को और शरमीले व्यवहार को देखकर उसकी ओर आकर्षित हो गया और शीघ्र ही दोनों में मधुर बात होने लगी।

अब तो का पारो प्रतिदिन उसी वृक्ष पर अपने पंखों को साफ करने आने लगी। वहाँ वह रोज मीठे-मीठे गीत गाती और अपने प्रिय पक्षी को रिझाती। जेल्लेइत भी उसके गान की बहुत प्रशंसा करता और मीठे-मीठे फल खाता। समय ऐसे ही बीतता रहा। एक दिन उसने का पारो से अपने माता-पिता से शादी की बात करने के लिए कहा। पहले तो वे दोनों अपनी बेटी की बात को अनसुना करते रहे, लेकिन जब का पारो ने बहुत जोर देना शुरू किया तो उन्होंने अपनी बेटी के सुखमय जीवन के लिए प्रेमी पक्षी की परीक्षा लेने की सोची। पंडुक माता-पिता को यद्यपि अपनी बेटी की बुद्धिमत्ता पर विश्वास था, फिर भी वे अपनी पुत्री को किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं सौंपना चाहते थे, जिसके बारे में उन्हें कुछ भी पता नहीं हो। साथ ही उन्हें इस बात का भी खतरा था कि अजनबी जातियों के बीच के संबंध बहुत स्थायी नहीं होते, इसलिए युवा प्रेमी के प्रेम की गहराई को मापने के लिए उन्होंने का पारो से शीत ऋतु तक रुकने के लिए कहा। माता-पिता को मालूम था कि शीत ऋतु में वृक्षों के फल पूरी तरह समाप्त हो जाते हैं। वे देखना चाहते थे कि क्या तब भी जेल्लेइत फलों के अभाव के काल में उसकी पुत्री के लिए सबकुछ छोड़कर उस वृक्ष पर आता है या नहीं। क्या वह तब रुखे-सूखे फल खाकर भी उसकी पुत्री के साथ जीवन निर्वाह करना चाहता है। ऐसा तो नहीं कि अच्छे फलों की खोज में कहीं वह दूर दूसरे वृक्षों की ओर चला जाए।

का पारो को अपने प्रेमी पर पूरा विश्वास था। वह निश्चिंत थी कि उसका प्रेमी हर हालत में उसके साथ रहेगा और उसका साथ कभी नहीं छोड़ेगा, परंतु ऐसा नहीं हुआ। वृक्षों के रसीले फल जैसे ही समाप्त हुए, जेल्लेइत बिना उससे विदा लिये ही उड़कर दूसरे फलदार वृक्षों के वनों की ओर चला गया। पारो ने उसे फिर कभी नहीं देखा। का पारो का हृदय दुःख और पीड़ा से भर उठा और उसके गले की मीठी आवाज मानो उसके गले में ही फँसकर रह गई, अब वह अपने सभी रसीले गीतों को भूल चुकी थी। उसके गले से अब केवल पीड़ा और दर्द से भरी ‘गूँ-गूँ’ की आवाज ही निकल पाती थी, तभी से सभी पंडुक पक्षी गीत गाना भूलकर केवल ‘गूँ-गूँ’ की आवाज के माध्यम से अपने भावों की अभिव्यक्ति करते हैं।

(साभार : माधवेंद्र/श्रुति)

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