पंडित श्रीलाल शुक्ल : रवीन्द्र कालिया

Pandit Shrilal Shukla : Ravinder Kaliya

मैं हिंदी के उन खुशनसीब लेखकों में हूँ, जिसने श्रीलाल जी के साथ जम कर दारू पी है, डाँट खायी है और उससे कहीं ज्यादा स्नेह पाया है। जाने मुझ पर क्या भूत सवार होता था कि दूसरे पेग के बाद ही मैं 'परिमल' का प्रसंग छेड़ देता। मेरी मान्यता है कि परिमल' ने हमेशा कथा साहित्य को द्वितीय श्रेणी की विधा माना है। 'परिमल' के कहानी सम्मेलन से यह बात स्पष्ट भी हो गयी थी। मेरे यह कहते ही कि श्रीलाल जी पर परिमल का गहरा प्रभाव रहा है - उनके तमाम मित्र परिमलियन थे, वे उन्हें हमेशा जीवन से कटे हुए जासूसी उपन्यास लिखने को प्रेरित करते रहे और जब 'राग दरबारी' प्रकाशित हुआ तो तमाम परिमलियनों ने उपन्यास को खारिज कर दिया - श्रीलाल जी के तनबदन में आग लग जाती। उनके हाथ में डंडा नहीं होता था, वरना वह मुझे पीट देते। इसी क्रम में वह मुझसे बहुत बुरा भला भी कह जाते। श्रीलाल जी में मुक्त कंठ से जितनी प्रशंसा करने की उदारता है उससे कहीं अधिक फटकारने की भी। हम दोनों कुतर्कों पर उतर आते। एक सीमा के बाद मैं सिर्फ चुप रह सकता था, श्रीलाल जी के प्रति मन में एक सराहना का भाव भी था, उर्दू का सहारा लिया जाये तो कहा जा सकता है कि मैं उनका मुद्दाह था। दारू के नशे में मैंने कभी छोटे बड़े की भी परवाह नहीं की थी, मगर श्रीलाल जी की भोली उत्तेजित सूरत के आगे मेरी बोलती बंद हो जाती। शराब के नशे में शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि मैं चुप रह जाऊँ। एक बार तो नरेश सक्सेना के यहाँ उन्होंने जी भर कर फटकारा और बगैर खाना खाये विदा हो गये। नशे में हुए तकरार अक्सर मुझे सुबह तक याद नहीं रहते थे। सुबह तक मैं सामान्य हो जाता और सोचता श्रीलाल जी भी इस प्रसंग को दुःस्वप्न की तरह भूल चुके होंगे! मगर ऐसा नहीं होता था। मेरे इलाहाबाद लौटते ही कुछ दिनों बाद श्रीलाल जी का स्नेह भरा पत्र प्राप्त होता कि उम्मीद है मैंने उनकी बात का बुरा न माना होगा, वगैरह वगैरह।

मगर यह नोकझोंक कभी हमारे संबंधों में आड़े नहीं आयी। हम लोग जब जब मिले, सामान्य रूप में ही। 'बिस्रामपुर का संत' उपन्यास के कुछ अध्याय श्रीलाल जी ने इलाहाबाद में ही लिखे, हमारे घर के पास ही आवास विकास के एक गेस्ट हाउस में। श्रीलाल जी के माध्यम से मेरा परिचय उनके मित्र एस.एन. वाजपेयी से हुआ। उन्हें राग दरबारी जैसे आज भी कंठस्थ है। वह एक उच्च अधिकारी हैं, मगर अपने को रंगनाथ से कम नहीं समझते। उन्हें श्रीलाल जी की कोई बात पसंद न आती तो कहते, मुझे आशा नहीं थी कि रंगनाथ का सर्जक ऐसा व्यवहार करेगा। वाजपेयी जी आज भी श्रीलाल जी के मित्र हैं, रंगनाथ आज भी उनकी नस नस में प्रवाहित है और रंगनाथ अपने सर्जक से प्रायः खफा भी हो जाता है। रंगनाथ कभी ऐसा समझौता न करता, या रंगनाथ से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती थी, अपनी बात वह रंगनाथ के चरित्र के माध्यम से ही स्पष्ट करते। इलाहाबाद में श्रीलाल जी वाजपेयी जी के मेहमान थे। गिरिजा जी भी उनके साथ आयी हुई थीं। लखनऊ में किसी पारिवारिक उलझन से क्षुब्ध होकर मियाँ बीवी इलाहाबाद चले आये थे। गिरिजा जी पक्षाघात के हल्के से झटके से उन्हीं दिनों उबरी थीं। वह दिन भर विश्राम करतीं और श्रीलाल जी उपन्यास में जुटे रहते। शाम को गिरिजा जी को सहारा देते हुए वह टहलने निकलते तो प्रायः हमारे यहाँ भी चले आते। श्रीलाल जी एक शिशु की तरह गिरिजा जी की देखभाल करते। कभी कभार ममता, मैं, वसु, यश आदि गेस्ट हाउस में चले जाते। श्रीलाल जी के सान्निध्य का आनंद उठाते और साहित्य, जीवन, जगत, नौकरशाही, राजनीति पर उनकी बेबाक टिप्पणियाँ सुनने को मिलतीं। श्रीलाल जी अपने 'फार्म' में हों तो उनसे बेहतर साहचर्य की कल्पना नहीं की जा सकती।

'सृजन के सहयात्री' में मेरा श्रीलाल जी पर भी एक संस्मरण प्रकाशित हुआ है। उस संस्मरण की शुरुआत कुछ इस प्रकार होती है : "लखनऊ में मेरे एक आई.ए.एस. मित्र हैं, एक बार उनसे मिलने उनके निवास स्थान पर गया। बाहर एक चौकीदार तैनात था। मैंने उससे पूछा, "साहब हैं?"

"हाँ हैं।"

"क्या कर रहे हैं?"

"शराब पी रहे हैं।" उसने निहायत सादगी से जवाब दिया।

श्रीलाल शुक्ल जब इलाहाबाद नगर निगम के प्रशासक थे, तो अक्सर उनसे भेंट होती थी, उनका चौकीदार भी कुछ कुछ लखनऊ के मित्र के चौकीदार जैसा था। एक बार उनसे मिलने गया और चौकीदार से यह पूछने पर कि श्रीलाल जी घर पर हैं या नहीं, उसने बताया, "साहब हैं।"

"क्या कर रहे हैं?" मैंने पूछा।

"बाहर बागीचे में बैठे हैं और टकटकी लगा कर चाँद की तरफ देख रहे हैं।" उसने बागीचे की ओर संकेत करते हुए कहा। इसी प्रकार लखनऊ में श्रीलाल जी के एक अन्य पड़ोसी से भेंट हुई थी। वे भी वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी थे। श्रीलाल जी की तरह ही मस्त मलंग। शाम को छह सात बजे घर से गाड़ी लेकर निकले और रात बारह बजे तक न लौटे। परिवार के तमाम लोग परेशान हो उठे। उनके मित्रों के यहाँ फोन किये गये लेकिन उनका अता पता नहीं मिल रहा था। तमाम रेस्तराँ और 'बार' देख डाले, निराशा ही हाथ लगी। आखिर पुलिस को सूचना दी गयी। पुलिस भी सक्रिय हो गयी। वायरलेस से तमाम थानों को इसकी सूचना प्रेषित कर दी गयी। खबर मिलते ही कुछ पत्रकार भी उनके निवास पर पहुँच गये। रात भर अटकलों का बाजार गर्म रहा। कुछ लोग किसी माफिया सरगना का नाम ले रहे थे कि जब वे गृह मंत्रालय से संबद्ध थे तो एक माफिया सरगना को पकड़वाने में अहम भूमिका निभायी थी। कुछ लोग उसे किसी प्रेम प्रसंग से जोड़ रहे थे। रात भर प्रशासन परेशान रहा, पुलिस सक्रिय रही। भोर होने पर पाया गया कि उनका गैरेज खुला है। गैरेज में कार भी है और कार में वह भी हैं। स्टीयरिंग पर माथा टेके इत्मीनान से सो रहे हैं।

"जब जब श्रीलाल जी का ख्याल आता है, ये दोनों घटनाएँ जेहन में कौंध जाती हैं।"

संस्मरण प्रकाशित होते ही श्रीलाल जी का एक पोस्टकार्ड मिला। मुझे हमेशा उनका पोस्टकार्ड ही मिला है। लगता है हिंदी के तमाम व्यंग्य लेखक पोस्टकार्ड का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। रवींद्रनाथ त्यागी का पत्र भी हमेशा पोस्टकार्ड पर ही मिला है। और भी अनेक लेखकों की पोस्टकार्ड पर अनन्य आस्था है, उनकी लंबी फेहरिस्त है। गनीमत यही है कि श्रीलाल जी ने अपने नाम पते की रबर स्टैंप नहीं बनवा रखी वर्ना कई लेखक तो अपठनीय रबर स्टैंप चस्पाँ किये बगैर पत्राचार नहीं कर पाते। शायद वे थोक में पत्र लिखते हों। श्रीलाल जी का उक्त पोस्टकार्ड मेरे आसपास नहीं है वरना मैं यहाँ उद्धृत करता। उस पोस्टकार्ड का लब्बोलुबाब यह था कि मैंने श्रीलाल जी की शील रक्षा की कसरत अनावश्यक ही की, अगर मैं उनके काल्पनिक मित्र की आड़ न लेकर सीधे सीधे ये प्रसंग उनके नाम से लिख देता तो उनकी छवि पर कोई बट्टा न लग जाता।

वास्तव में श्रीलाल जी हिंदी के उन लेखकों में हैं, जिन्हें अपने प्रति कभी कोई गलतफहमी नहीं रही। इस दृष्टि से अपने प्रति उनका दृष्टिकोण अत्यंत वस्तुपरक है। मैंने पाया है कि जरूरत से ज्यादा तारीफ से भी वह क्षुब्ध हो जाते हैं और आलोचना से भी। वह खुद ही अपना मूल्यांकन करते रहते हैं। लखनऊ में पहल सम्मान के अवसर पर मैंने इस बात को रेखांकित किया था कि उनकी यथार्थपरक गहरी समझ के बावजूद प्रगतिशील और रूपवादी दोनों खेमों के समीक्षकों ने 'राग दरबारी' के साथ न्याय नहीं किया था। श्रीलाल जी को समीक्षकों का पूर्वाग्रह नहीं, मेरी बात खल गयी। उन्होंने अध्यक्षीय भाषण में कहा, "रवींद्र कालिया मुझे जितना उपेक्षित लेखक मान रहे हैं, उतना मैं हूँ नहीं।" मेरा कदापि आशय यह नहीं था कि श्रीलाल जी हिंदी के इतने उपेक्षित लेखक हैं कि इन्हें 'पहल' सम्मान दिया जाना चाहिए।

वास्तव में जिन दिनों राग दरबारी प्रकाशित हुआ था, उन्हीं दिनों अनायास इलाहाबाद में खुसरोगबाग के निकट मेरी उनसे प्रथम भेंट हुई थी। इस बात को भी तीस बरस हो चुके हैं। उन दिनों 'राग दरबारी' चर्चा में आया ही था और उस पर तरह तरह की विचित्र किस्म की समीक्षाएँ प्रकाशित हो रही थीं। मार्कण्डेय ने 'कथा' में श्रीपत राय की समीक्षा प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था 'बहुत बड़ी ऊब का महाग्रंथ'। श्रीपत जी ने उपन्यास के परखचे उड़ा दिये थे। मैं उन दिनों अश्क जी के यहाँ रहता था। अश्क जी ने उपन्यास पढ़ने के लिए मुझे दिया। मैं रात भर जग कर पूरा उपन्यास पढ़ गया। बदलते हुए भारतीय गाँव का ऐसा सटीक चित्रण इससे पूर्व न हुआ था। लंगड़ की त्रासदी देर तक मन को सालती रही। मैंने छूटते ही श्रीलाल जी से उपन्यास की भूरि भूरि प्रशंसा की। वे आश्चर्यचकित से मेरी तरफ देख रहे थे, क्योंकि उनके मित्रों और 'परिमल' के सदस्यों की राय ठीक इसके विपरीत थी। उनके लिए शायद 'परिमल' के सदस्यों की राय अधिक महत्वपूर्ण थी। वस्तुतः 'परिमल' मूल रूप से कवियों की संस्था थी, जहाँ गद्य लेखन को दूसरी कोटि का साहित्य कर्म माना जाता था। शायद यह 'परिमल' के मित्रों का ही परामर्श था कि बीच में श्रीलाल जी जिंदगी से कटे हुए जासूसी उपन्यास भी लिखने लगे थे। जहाँ तक 'राग दरबारी' का प्रश्न है, वह समकालीन यथार्थ से कुछ इस प्रकार संबद्ध था और ऐसी सफाई से उतरा था कि 'परिमल' के गले से नीचे नहीं उतर रहा था।

श्रीलाल जी मेरी राय जान कर बोले, "क्या सचमुच ऐसा महसूस करते हो?"

"मेरा तो आपसे परिचय भी नहीं था न कोई स्वार्थ है, जो मैं झूठमूठ आपकी तारीफ करूँ।"

बाद में देखा गया, ज्यों ज्यों उपन्यास के खिलाफ समीक्षाएँ प्रकाशित होती गयीं, उपन्यास स्थापित होता गया। यह एक नयी तरह का विरोधाभास था। श्रीलाल जी आलोचकों के बल पर आगे नहीं बढ़े, पाठकों ने उन्हें पहले मान्यता दी। आलोचकों समीक्षकों द्वारा प्रक्षेपित बहुत से लेखक अपने समीक्षकों की साहित्यिक मौत के साथ मर जाते हैं। पाठकों का प्रिय लेखक एक लंबे अरसे तक पारी खेलता है।

वास्तव में श्रीलाल जी का व्यक्तित्व और लेखन बहुत पेचीदा नहीं है। उसका सौंदर्य उसकी सहजता और मौलिकता में है। श्रीलाल जी में अफसरी बू भी बहुत कम है, नहीं के बराबर, अवकाश प्राप्ति के बाद तो एकदम नहीं है। यह दूसरी बात है कि उनके ही मित्र कई बार यह कहते सुनायी देते हैं कि श्रीलाल जी अफसरों के बीच साहित्यकार और साहित्यकारों के बीच अफसरों का सा व्यवहार करते हैं। यह आरोप गोविंद मिश्र, अशोक वाजपेयी, गिरिराज किशोर वगैरह पर भी लगते रहे हैं। अधीनस्थ (पाठक वर्ग?) उन पर ऐसे बेबुनियाद आरोप लगा कर प्रायः अपनी कुंठा को ही उजागर करते हैं। श्रीलाल जी और गिरिराज की वेशभूषा से ऐसा भ्रम फैल सकता है; कोट, पतलून, टाई और चमचमाते जूते। मैंने श्रीलाल जी को धोती कुर्ते में भी देखा है, तब उनकी छटा ही निराली होती है। इस लिबास में भी वह साहित्यकार कम बिगड़े हुए नवाब अधिक लगते हैं।

श्रीलाल जी का कई भाषाओं पर अधिकार है; अवधी, हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी आदि पर। इनमें से किसी भी भाषा में फर्राटे से बातचीत कर सकते हैं। मगर उनका गद्य हिंदी का विशुद्ध गद्य है, उसमें उर्दू अथवा अंग्रेजी की घुसपैठ नहीं हो सकती। महादेवी जी और नरेश मेहता के गद्य की यह विशेषता थी, मगर श्रीलाल जी के बाद इस प्रकार का विशुद्ध हिंदी गद्य शायद ही बाद की किसी पीढ़ी के किसी लेखक में मिले। विशुद्ध भाषा में व्यंग्य लेखन करना टेढ़ी खीर है। वह जीवन की विसंगतियों और यथार्थ की विडंबनाओं और परस्पर विरोधी स्थितियों की परतें उघाड़ते जाते हैं जब कि परसाई, शरद जोशी और रवींद्रनाथ त्यागी बीच बीच में उर्दू का तेवर अख्तियार कर अभिव्यक्ति को पैना करते दिखायी पड़ते हैं। भाषा शैली की भाँति उनका व्यक्तित्व भी 'क्लासिकी' है, कभी कभी ठीक इसके विपरीत बज्र 'देहाती' भी। अवकाश प्राप्ति के बाद वह और उन्मुक्त हुए हैं। पहले से कहीं अधिक लिख रहे हैं। हिंदी लेखकों की एक जमात ऐसी भी है जो अवकाश प्राप्ति के बाद साहित्य पर पिल जाती है। ऐच्छिक अवकाश ग्रहण कर पूर्ण रूप से लेखन को समर्पित एक लेखक की कहानी पढ़ कर भैरव प्रसाद गुप्त ने टिप्पणी की थी कि आप लेखन की बजाय नौकरी करते रहते तो साहित्य और समाज का अधिक कल्याण कर सकते थे। श्रीलाल जी पर यह जुमला चस्पाँ नहीं किया जा सकता। श्रीलाल जी पहले से कहीं अधिक लिख रहे हैं, प्रासंगिक लेखन कर रहे हैं, मगर यह उनकी त्रासदी है कि वह जाने सिर्फ 'राग दरबारी' से जाते हैं। श्रीलाल जी की ही नहीं तमाम लेखकों की कोई न कोई रचना उनका 'ट्रेड मार्क' बन जाती है, चाहे वह लाख उससे बेहतर लिख लें। कृष्णा सोबती की तरह बहुत कम लेखक होते हैं, जिनका 'ट्रेड मार्क' बदलता रहता है। 'ऐ लड़की' ने उन्हें 'मित्रों मरजानी' के शाप से मुक्त कर दिया। 'जिंदगीनामा' से 'दिलो दानिश' तक उनका अभूतपूर्व सफरनामा है। ज्ञानरंजन आज तक 'बहिर्गमन' की कारा से मुक्त नहीं हो पाये। इस चक्कर में उनका कहानी से ही बहिर्गमन हो गया। श्रीलाल जी ने 'राग दरबारी' के बाद 'मकान', 'पहला पड़ाव' और 'बिस्रामपुर का संत' तीन उपन्यास और लिखे। प्रत्येक उपन्यास अलग मनोभूमि पर खड़ा है। प्रत्येक उपन्यास में वे अलग, एकदम अछूते विषय उठाते हैं, मगर उनके कालर पर आज भी 'राग दरबारी' का तमगा झिलमिला रहा है। मुझे अनेक बार श्रीलाल जी की नयी कृतियों के अंश सुनने का अवसर मिला है। हिंदी के कम उपन्यासों में ही गद्य का ऐसा लालित्य देखने को मिलेगा। वह अपनी रचनाओं का पाठ भी अद्भुत करते हैं। बीच बीच में शेर की तर्ज पर दाद देने की इच्छा होती है। इस कला में शरद जोशी का कोई सानी नहीं था। कवि सम्मेलनों में उनका गद्य बाजी मार ले जाता। श्रीलाल जी भी काव्य की तरह गद्य की अदायगी करते हैं। वह देर तक आपको एकाग्रचित रख सकते हैं। अपनी बात कहने का उनका निराला अंदाज है। 'राग दरबारी' की रचना प्रक्रिया पर वह कुछ इस अंदाज में अपने विचार प्रकट करते हैं : "किताब लिखना दिमाग के लिए कठोर और शरीर के लिए कष्टप्रद कार्य है। इससे तंबाकू की लत पड़ जाती है। काफीन और डेक्सेड्रीन का जरूरत से ज्यादा सहारा लेना पड़ता है। बवासीर, बदहजमी, अनवरत् दुश्चिंता और नामर्दी पैदा होती है। फिर राग दरबारी, इसने मुझे लगभग छह साल बीमारी की हालत में रखा। उन गँवार चरित्रों के साथ दिन रात रहते हुए मेरी जबान खराब हो गयी। भद्र महिलाएँ खाने की मेज पर कभी कभी मुझे भौंहें उठा कर देखने लगीं, मैं परिवार से परिवार मुझसे कतराने लगा। मेरी मुसीबत यह है कि किताब लिखने के लिए कोई जगह वाजिब ही नहीं जान पड़ती। अतः अपना मकान, बीवी, बच्चों, रिश्तेदारों, कृपाकांक्षियों आदि के लिए छोड़ कर अलग से दूसरा फ्लैट लिया। वीराने में मोटर खड़ी करके उसकी सीट का महीनों इस्तेमाल किया, दूर दूर के डाक बँगलों के चक्कर काटे (यानी वह सब किया जो जिम्मेदार गृहस्थ कोई प्रेमिका रख कर उसके लिए करते हैं)।"

श्रीलाल जी का व्यक्तित्व अत्यंत पारदर्शी है। कोष्ठक वाले 'जिम्मेदार गृहस्थ' की भूमिका निभाने की उनकी इच्छा होती है तो वह इसे छिपाते नहीं, अपने आत्मीय जनों के बीच इसका खुला इजहार कर सकते हैं। एक जमाने में तो उनकी दृढ़ धारणा थी कि जिस लेखक की 'मिस्ट्रेस' में आस्था नहीं है वह अच्छा लेखक हो ही नहीं सकता। बात करते करते वह अचानक पूछ सकते हैं, "अमुक महिला को मिस्ट्रेस रख लिया जाये तो कैसा रहे?" वह अपने अधीनस्थ डाक्टर को तलब करके यौन समस्याओं का खुलासा कर सकते हैं। कोई लेवेंस्की उनको ब्लैकमेल करने का प्रयत्न करती तो वह बिल क्लिंटन की तरह क्षमायाचक न हो जाते, कोई आश्चर्य नहीं, विवाद छिड़ने से पूर्व ही वह इस्तीफा देकर अलग हो जाते और उनके पेपर्स लेवेंस्की से अधिक विस्फोटक और रोचक होते। मगर वह उन्हें प्रकाशित न कराते। सच उनके यश की गंगा के समानांतर अपयश की गटर गंगा कभी प्रवाहित नहीं हुई। उनके भीतर एक पुरातनपंथी धर्मभीरु ब्राह्मण भी आलथी पालथी लगा कर विराजमान रहता है। जब तक वह सरकारी सेवा में रहे, सरकारी कायदे कानून का उन्होंने निष्ठापूर्वक पालन किया। वह हर काम को विधिसंगत रूप में करने के पक्षधर हैं, वरना 'राग दरबारी' के प्रकाशन की सरकार से अनुमति लेने की कोई विशेष अनिवार्यता नहीं थी। उन्होंने स्वयं ही उपन्यास की पांडुलिपि प्रशासन को प्रस्तुत कर दी। यह एक दिलचस्प विरोधाभास है कि सरकार ने उन्हें वर्षों तक 'राग दरबारी' के प्रकाशन की अनुमति नहीं दी और वह प्रकाशित हुआ तो सर्वप्रथम प्रतिष्ठान की प्रमुख एजेंसी साहित्य अकादमी ने ही उसे पुरस्कृत किया। आज सरकारी अधिकारियों की व्यवस्था विरोधी कृतियाँ बगैर किसी रोकटोक और अनुमति के प्रकाशित होती हैं। हो सकता है तब दूसरे नियम रहे हों। बहरहाल, श्रीलाल जी ने अपनी सरकारी सेवा से भी बहुत अनोखे अनुभव प्राप्त किये और उन्होंने कच्चे माल की तरह इस अनुभव संपदा का उपयोग किया। शासन के वरिष्ठ अधिकारी हाने के नाते अनेक मुख्यमंत्रियों, विधायकों और उनके दलालों का अध्ययन करने का उन्हें अवसर मिला। यही कारण है कि एक से एक दिग्गज राजनेताओं की जन्मपत्री उनके पास है। उनकी योग्यताओं, अयोग्यताओं, आशाओं, आकांक्षाओं और उनके अंतर्विरोधों को वह बखूबी समझते हैं। 'राग दरबारी' में ही नहीं, उनके नवीनतम उपन्यास 'बिस्रामपुर का संत' में भी उनके अनुभव झलकते हैं। ये रचनाएँ सिविल सेवा से ही संभव हो सकती थीं। आज के राजनीतिक माहौल और प्रशासन तंत्र का भी कच्चा चिट्ठा उनके पास है। तंत्र की भृगुसंहिता उन्हीं के पास है।

श्रीलाल जी पाठक भी बहुत अच्छे हैं। एक बार ममता के यह पूछने पर कि वह खाली समय कैसे बिताते हैं, श्रीलाल जी कहा, "उनके पास कोई खाली समय नहीं होता (तभी पुत्री विनीता कह उठी कि पापा पढ़ते बहुत हैं।) तालस्ताय, टामस मान, सौल बैलो उनके प्रिय लेखक हैं। वह नये से नये लेखकों की कृतियाँ पढ़ने की फिराक में रहते हैं। आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि मैंने या ममता ने कोई पुस्तक भेंट की हो या भेंट न की हो, उन्होंने न पढ़ी हो। इस दृष्टि से गिरिजा जी भी उनसे पीछे नहीं थीं। वह आप की कोई पुस्तक पढ़ कर अचानक लखनऊ से फोन घुमा सकते हैं और उस पर देर तक बातचीत कर सकते हैं। गिरिराज किशोर की उतनी पुस्तकें मैंने नहीं पढ़ी होंगी, जितनी श्रीलाल जी ने पढ़ रखी हैं, जबकि गिरिराज मेरी पीढ़ी के रचनाकार हैं। उन्हें पुस्तक का नाम ही नहीं, पात्रों के नाम तक याद रहते हैं। अभी हाल में ममता ने अपना नया कथा संकलन श्रीलाल जी के पास भिजवाया।

पुस्तक प्राप्त होते ही उन्होंने फोन किया और पढ़ कर लिखा : "बच्चा कहानी नोबल प्राइज स्टफ है।

वाह! वाह!! सुभान अल्लाह!!!" श्रीलाल जी का पत्र पढ़ कर ममता ने बड़ी मासूमियत से मुझसे पूछा, "श्रीलाल जी दाद दे रहे हैं या मजाक उड़ा रहे हैं?"

यह श्रीलाल जी का अंदाज है। अश्क जी के बाद श्रीलाल जी ही इतने मुक्त भाव से प्रशंसा कर सकते हैं। रचना पसंद न आये तो वह यह भी कह सकते हैं कि यह दो कौड़ी की रचना है और चूल्हे में फेंकने लायक है।

श्रीलाल जी प्रशासक होकर इलाहाबाद आ गये तो मुझे उनसे सत्संग के अधिक अवसर मिलने लगे। मदिरापान हम दोनों का मिलन बिंदु था। उनके पुराने मित्रों में विजय देव नारायण साही का निधन हो चुका था, केशव जी ने दाढ़ी बढ़ा ली थी और सूफियाना अंदाज में जीने लगे थे। भारती जी बहुत पहले शहर से बहिर्गमन कर चुके थे। हर मदिरा प्रेमी की तरह हमप्याला दोस्तों में अनौपचारिक रिश्ते सहज ही कायम हो जाते हैं। इलाहाबाद के अधिसंख्य कथाकारों को इससे परहेज नहीं था। गर्ज यह कि पहली फुर्सत में हम एक दूसरे के यहाँ आया जाया करते थे। अन्य लेखकों से उनका औपचारिक संबंध ही बना रहा। केशव जी उनके बाल सखा रहे हैं, जब कि मुझे केशव जी और श्रीलाल जी एक दूसरे के विलोम ही लगते हैं। व्यंग्य और संगीत में दोनों की समान रुचि है। अफसरों के प्रति इलाहाबाद में केवल उन लेखकों की रुचि रहती है जो लघु पत्रिकाएँ प्रकाशित करते हैं और विज्ञापन पाने की जुगाड़ में रहते हैं। ऐसे संपादकों से भी उनकी दूरी बरकरार रही। वैसे ही इलाहाबाद के लेखकों में दिल्ली के लेखकों की तरह सुविधाओं के पीछे भागने की होड़ नहीं है। अधिसंख्य लेखक फकीराना अंदाज में रहते हैं। बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्होंने जीवन में कभी जम कर नौकरी नहीं की, अगर की भी तो किसी छोटी मोटी नौकरी में जिंदगी बिता दी। पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वाह सबको करना पड़ता है। श्रीलाल जी को किसी लेखक की मजबूरी का एहसास होता तो वह नेपथ्य से सहायता अवश्य करते।

उन्हीं दिनों हिंदी के एक बहुचर्चित कथाकार की बिटिया की शादी थी। अपने समस्त स्रोतों को जुटाने के बाद भी वे असमर्थ अनुभव कर रहे थे। मैंने श्रीलाल जी से इसकी चर्चा की। उन्होंने तुरंत सहायता का आश्वासन दिया और कहा, "देखो उनसे इसका भूल से भी जिक्र न करना कि मैंने कुछ सहायता की है।"

"आपका जिक्र क्यों न करूँ?" मुझे जिज्ञासा हुई।

"अव्वल तो जरूरत नहीं है। दूसरे मैं नहीं चाहता कि अकारण किसी को अपने एक टुच्चे एहसान से लाद दूँ।"

मुझे एक से अधिक बार 'दूरदर्शन' लखनऊ की परिचर्चाओं में श्रीलाल जी के साथ भाग लेने का अवसर मिला है। 'दूरदर्शन' लखनऊ की यह परंपरा है कि अगर रिकार्डिंग ग्यारह बजे निश्चित हुई है, तो कोई न कोई ऐसा व्यवधान आ जायेगा कि रिकार्डिंग तीन चार बजे से पूर्व संपन्न न होगी। वे लोग पहला काम यह करते हैं कि ग्यारह बजे आपका मेकअप जरूर कर देंगे। अब आप मुँह पर उबटन का लेप किये बैठे रहिए। अक्सर ही श्रीलाल जी ऊब कर मुँह धो लेंगे और कहेंगे, "चलिए जरा तर हो आयें। थोड़ा मिष्ठान्न का सेवन कर लिया जाये।" उस समय बीस बरस पहले के ज्ञानरंजन की याद आना स्वाभाविक है। एक जमाने में ज्ञान का मन इसी प्रकार गर्भवती महिलाओं की तरह खट्टी मिट्ठी चीजों पर मचला करता था। एकाध घंटे के बाद लौटने पर पता चलेगा कि अभी कैमरे तैयार हो रहे हैं और इस बीच दो एक लेखक और आ गये हैं और उबटन मल कर बैठे हुए हैं।

परिचर्चा में भाग लेने के लिए श्रीलाल जी पूरी तैयारी के साथ आते हैं। छोटी छोटी पर्चियों पर बिंदु लिखे रहते हैं। किसी भी चर्चा को भक्तिकाल और रीतियुग की ओर मोड़ने में उन्हें ज्यादा समय नहीं लगता। वे अपनी बात की पुष्टि में एक के बाद एक उद्धरण प्रस्तुत करते जायेंगे। एक बार चर्चा के दौरान मैंने दाद देने की गुस्ताखी कर दी। गुस्ताखी इसलिए कहूँगा कि हिंदी के कथाकार दाद के आदी नहीं हैं, वे सोचते हैं कि दाद देकर उनकी टाँग खींची जा रही है। वैसे कई बार दाद इसलिए दी भी जाती है कि विषय से भटका हुआ वक्त विषय की तरफ लौट आये। श्रीलाल जी दाद से खिन्न हो जाते हैं। वे नोट्स पर से आँख उठा कर असहमति में आपकी ओर कुछ इस प्रकार देखेंगे जैसे कह रहे हों, नहीं चाहिए आपकी दाद, क्या आप कृपापूर्वक चुप रह सकते हैं? वैसे मैंने प्रायः अनुभव किया कि वे घर से होमवर्क करके नहीं आते, तो अधिक उन्मुक्त होकर बातचीत करते हैं, वरना बातचीत की गुंजाइश कम होती है। आप चुपचाप उन्हें सुनते जायें और उनकी पूरी बात समाप्त होने पर जो चाहें कहें।

श्रीलाल जी कई बार लेखन और एकांतवास के लिए पहाड़ पर भी जाया करते हैं। पिछली बार तो बरेली से लौट आये। पूछने पर पता चला कि उन्हें एहसास हुआ कि यह एक महँगा सौदा है। उन्होंने बताया : "रास्ते भर मैं सोचता रहा कि नैनीताल तक आने जाने और दो एक महीने रहने में चार छह हजार रुपये खर्च हो जायेंगे। अब अगर उपन्यास लिखने में सफल हो गया तो जानते हैं रायल्टी में क्या मिलेगा, वही चार छह हजार। बंधुआ मजदूर की तरह जो परिश्रम किया, वह बेगार में बदल जायेगा। मैंने बरेली उतर कर वापिस लखनऊ की गाड़ी पकड़ ली। आराम से अपने घर में रहेंगे, जी चाहा लिखेंगे, नहीं जी चाहा, नहीं लिखेंगे।" लेखन का एक और पक्ष भी है। श्रीलाल जी को लेखन से उतनी रायल्टी न मिली होगी, जितनी राशि के पुरस्कार मिल चुके हैं। साहित्य अकादमी का पुरस्कार उन्हें बहुत पहले मिल गया था। उसके बाद तो जैसे पुरस्कारों की झड़ी लग गयी। मुझे तो लगता है कि हिंदी में अगर कोई एकाध पुरस्कार उन्हें मिलने से रह गया है तो वह भी मिलने ही वाला होगा। हिंदी में पुरस्कार प्राप्त करने वालों की एक अलग ही श्रेणी बनती जा रही है। आज श्रीलाल जी उसी पंक्ति में खड़े हैं। लगातार पुरस्कार ग्रहण करते हुए धीरे धीरे श्रीलाल जी पुरस्कारों की चयन समितियों में भी शामिल हो चुके हैं। यशःप्रार्थी लेखकों की जमात उनकी घेराबंदी करने में जुट सकती है, मगर श्रीलाल जी ने व्यूह में घिरना सीखा हीं नहीं। लखनऊ जरूर उनकी कमजोरी है। अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करना वह जानते हैं। ऐसा न होता तो श्रीलाल जी अब तक उसी कोष्ठक वाले 'जिम्मेदार गृहस्थ' की ही भूमिका में सीमित होकर रह जाते।

श्रीलाल जी वय में भी मुझसे लगभग पंद्रह बरस बड़े हैं लेकिन उनसे बात करते हुए हमेशा यही महसूस हुआ है जैसे किसी हमउम्र दोस्त से बात कर रहा हूँ। उनकी बातों में लाग लपेट नहीं रहती, एक खुलापन रहता है। उनसे प्रेम प्रसंग पर ही नहीं, काम संबंधों पर भी चर्चा की जा सकती है। कई बार तो एक शिशु सा भोलापन भी महसूस होता है। एक बार मैं लखनऊ गया था तो उस रोज गिरिजा जी बाहर से लौटने वाली थीं। गिरिजा जी ने घर में प्रवेश किया तो श्रीलाल जी ने एक शिशु की तरह चहकते हुए उन्हें बताया, "गिरिजा, नैनीताल से हम लोग जो पौधा लाये थे, उसमें अंकुर निकल रहे हैं।" और पति पत्नी पौधे के पास बैठ कर देर तक उस अंकुरित पौधे को निहारते हुए प्रसन्न होते रहे।

श्रीलाल जी नियम धर्म का भी बहुत विचार करते हैं। उन्हें कुँवारी कन्याओं और विधवा स्त्रियों से भी अधिक व्रत करते हुए देखा जा सकता है। नवरात्रि में वे और कुछ तो क्या पानी भी पीते होंगे या नहीं, यह बताना मुश्किल है।

श्रीलाल जी के साथ बितायी एक दोपहर तो भुलाये नहीं भूलती। गिरिजा जी एकदम असहाय, असमर्थ और चेतनाशून्य हो चुकी थीं। श्रीलाल जी पूर्ण समर्पण के साथ उनकी तीमारदारी में मशगूल थे। दिसंबर का महीना था। अखिलेश, रमेश दीक्षित और मैं गिरिजा जी को देखने इंदिरानगर गये। बाहर लान में गुनगुनी धूप के बीच गिरिजा जी का बिस्तर लगा था। सफेद शफ्फाक चादर बिछी थी। शायद स्पंज के बाद उनके कपड़े बदले गये थे। ऐसा लग रहा था, वह अभी अभी नहा कर धूप में सुस्ता रही हैं। उनकी देखभाल के लिए दो नर्सें तैनात थीं। पास ही कुर्सी पर श्रीलाल जी बैठे थे। बहुत उदास, बहुत अकेले। हमें देख कर अचानक उनका ध्यान टूटा। हमें पास पाकर उन्हें बहुत राहत मिली। चेहरा सामान्य हुआ। गिरिजा जी की खाट पर झुकते हुए बोले, "गिरिजा देखो रवींद्र आया है इलाहाबाद से।"

गिरिजा जी जैसे गहरी नींद में थीं। "गिरिजा रवींद्र आया है तुम्हें देखने।"

गिरिजा जी उसी प्रकार शांत, मौन और निश्चल।

"गिरिजा तुमने ममता का बेघर पढ़ा था। याद है वह प्रसंग? देखो वह कितनी दूर से चल कर आया है।"

गिरिजा जी अधखुली भावशून्य आँखों से जैसे इस नश्वर संसार का जायजा ले रही थीं।

"गिरिजा जी नमस्कार!" मैंने भर्रायी हुई आवाज में कहा।

"सुनो गिरिजा रवींद्र तुम्हें नमस्कार कर रहा है।" श्रीलाल जी ने हम लोगों की ओर मुड़ कर कहा, "देखो पहचान रही हैं, तुम देख रहे हो रवींद्र, हल्की सी मुस्कुराहट आ गयी है गिरिजा के चेहरे पर।"

मैं देख रहा था, अखिलेश देख रहा था, रमेश देख रहा था। होंठों पर खिंची वह अदृश्य मुस्कुराहट केवल श्रीलाल जी देख पा रहे थे। मुझे लगा गिरिजा जी के चेहरे पर आयी उस मुस्कराहट को केवल श्रीलाल जी ही देख पा रहे हैं। वह मोनालिजा की दिव्य, मायावी और रहस्यमयी मुस्कराहट थी। त्यानादॉ के बाद की अनेक पीढ़ियाँ आज तक उस मुस्कुराहट की व्याख्या में हजारों पन्ने स्याह कर चुकी हैं।

हम लोग भीतर ड्राईंगरूम में चले गये। श्रीलाल जी के बालसखा उपाध्याय जी पहले से विराजमान थे। इस कठिन समय में उनका साथ देने के लिए ही शायद वह फतेहपुर से आये हुए थे। उन्हें देख कर लग रहा था, वह चुपचाप जैसे विष्णु सहस्रनाम का पाठ कर रहे हैं। श्रीलाल जी देर तक गिरिजा जी के स्वास्थ्य का ब्योरा देते रहे। वह बदले हुए श्रीलाल थे। आज मस्त, मलंग और बेफिक्र रहने वाले श्रीलाल उद्वेलित थे। गिरिजा जी की बीमारी ने उनकी दिनचर्या ही बदल डाली थी। महीनों से शराब नहीं छुई थी। नशे में नींद लग गयी तो गिरिजा को कौन देखेगा? वह कहते। इस समय उनकी एक ही मुराद थी कि किसी तरह गिरिजा जी स्वस्थ हो जायें। गिरिजा जी को देख कर लगता था कि वह जैसे पहले ही विदा ले चुकी हैं। एक औपचारिकता शेष है। इस समय श्रीलाल जी लेखक थे न आरामपसंद अवकाश प्राप्त अधिकारी, वह मात्र पति थे, प्रेमी थे, दोस्त थे। पास ही मेज पर कई दिनों के समाचारपत्र और पत्र पत्रिकाएँ पड़ी थीं। लगता था, समाचारपत्रों की तह भी नहीं खुली। एक कोने में लावारिस सी डाक पड़ी थी।

श्रीलाल जी का समर्पण भाव मेरे लिए एकदम नया अनुभव था। मैं उन्हें मूल रूप से एक रसिक व्यक्ति ही मानता था। कई बार तो श्रीलाल जी से बात करके उस भौरे की याद आ जाती थी, जो किसी पुष्प वाटिका में उन्मुक्त विहार कर रहा हो। एक बार लखनऊ दूरदर्शन पर हिंदी उपन्यास पर आयोजित एक परिचर्चा में डा. शिव प्रसाद सिंह, कामतानाथ, गिरिराज और मैं भाग ले रहे थे। हस्बेमामूल हम लोग चेहरों पर उबटन मल कर सहायक केंद्र निदेशक उदयभानु मिश्र के कमरे में बैठे थे। उदयभानु मेरे पुराने मित्र हैं। कभी दिल्ली में हम लोग साथ थे और रोज रात को रीगल से अंतिम बस में साथ साथ घर लौटा करते थे। उस समय मिश्र जी के कमरे में देश की राजनीति पर धुआँधार चर्चा चल रही थी। इसी बीच मुद्राराक्षस भी आ गये। वे सांप्रदायिकता के प्रश्नों को लेकर उत्तेजित थे। मैंने लक्षित किया, श्रीलाल जी किसी चर्चा में भाग नहीं ले रहे हैं और शायद ऊब रहे हैं। मैं सोच ही रहा था कि श्रीलाल जी अभी नरही चल कर मिष्ठान्न सेवन करने का प्रस्ताव रखेंगे लेकिन उन्होंने अचानक प्रस्ताव रखा कि कुछ नहीं रखा इन फिजूल की चर्चाओं में अगर बात ही करनी है तो नायिका भेद पर बात कीजिए। बहुत हो चुका मंडल कमंडल। श्रीलाल जी अगर मूड में होंगे तो अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, संस्कृत साहित्य के बीसियों रोमांटिक पद सुना सकते हैं। गीत गोविंद सुना सकते हैं, कालिदास का कोई अत्यंत रागात्मक उद्धरण प्रस्तुत कर सकते हैं। कई बार तो लगता है उनके जीवन में अगर कोई अभाव है तो केवल एक ठो प्रेमिका का। उसके बगैर जीवन अधूरा है, निष्प्रयोजन है। कई बार तो वे इस हद तक उदार हो जायेंगे कि कहेंगे, "प्रत्येक लेखक को एक मिस्ट्रेस रखनी चाहिए, किसी पर्वतीय क्षेत्र में लेखन की सुविधा होनी चाहिए। यह क्या कि पसीना बहे जा रहा है और आप झक मार रहे है।"

आज रीतिकाल से उतर कर श्रीलाल जी वर्तमान के शुष्क वीरान टीले पर खड़े थे।

"रवींद्र तुमने बहुत अच्छा किया जो चले आये।" वह कुछ देर रुक कर बोले, "तुम्हारे आने से बहुत राहत मिली है, कुछ हो जाना चाहिए।"

उन्होंने जेब से पर्स निकाला। सौ सौ के कुछ नोट रमेश को देते हुए बोले, "एक जिन ले आओ और अमुक रेस्तराँ से खाना पैक करा लाओ।"

रमेश पैसा लेने में संकोच कर रहे थे, "मैं ले आता हूँ।" "नहीं, नहीं", श्रीलाल जी ने उसकी जेब में रुपये ठूँस दिये और खाने का मीनू बताने लगे। अखिलेश और रमेश रवाना हो गये। श्रीलाल जी बाहर गिरिजा जी के साथ पास जाकर बैठ गये। मैं उपाध्याय जी से बतियाता रहा।

"आज कुछ ज्यादा ही परेशान हैं।" उपाध्याय जी ने बताया, "इधर महीनों से, जब से गिरिजा जी की यह हालत है, मदिरापान से परहेज ही रखते रहे। जाने आज क्या चक्कर हो रहा है।"

रमेश, अखिलेश लौटे तो श्रीलाल जी उनके साथ ही भीतर आये। पानी, ग्लास और बर्फ की व्यवस्था हुई। नीबू काटे गये। श्रीलाल जी ने बोतल खोल कर रमेश को थमा दी, "डालो।"

हम लोगों ने ग्लास टकराये और सत्र शुरू हो गया, "उपाध्याय कुछ सुनाओ।"

उपाध्याय जी अतीत में चले गये। पुराने संस्मरण सुनाने लगे। गाँव, देहात और श्रीलाल से संबंधों का एक सिलसिला। एक ताबील सफर। कोई भी बात जम नहीं रही थी न साहित्य, न राजनीति, न नायिका भेद। श्रीलाल जो बीच बीच में उठ कर बाहर जाते और गिरिजा जी को देख कर लौट आते।

कमरे में जैसे गिरिजा जी की बीमारी के बादल घिर आये थे। या कोहरा छा गया था। सिवाय 'जिन' के कुछ भी आगे नहीं बढ़ रहा था। तूफान से पहले की खामोशी व्याप्त थी। जिन कब तले में लग गयी पता ही न चला।

अचानक जैसे हम लोग तूफान में घिर गये। सहसा श्रीलाल जी ने गिलास खाली किया और फफक कर रोने लगे। मेज पर खाना लग चुका था। किसी की हिम्मत न हुई कि श्रीलाल जी से मुखातिब होता। यह संभव ही न था। वह उठे और जाकर बेडरूम में लेट गये। मैं सहमा सहमा पीछे गया। तब तक उन्होंने सर तक रजाई ओढ़ ली थी। लग रहा था तकिया तर हो रहा है।

मेज पर खाना लगा था। श्रीलाल जी की पसंद का मीनू। मगर एक भी कौर निगलना मुहाल था। महफिल उखड़ गयी थी। बाहर धूप में गिरिजा जी उसी करवट लेटी थीं। चेहरे पर कोई शिकवा, कोई शिकायत नहीं। एकदम जैसे कोई शिशु निर्विकार लेटा हो। दोनों नर्सें वैसे ही तैनात थीं। हम लोग उपाध्याय जी से विदा लेकर बस अड्डे की तरफ चल दिये। मुझे अब पहली उपलब्ध बस से इलाहाबाद लौटना था।

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