पड़ोसी (डैनिश कहानी) : हैंस क्रिश्चियन एंडर्सन

Padosi (Danish Story in Hindi) : Hans Christian Andersen

बत्तखों के तालाब में इतनी हलचल थी कि लगता था, जैसे कोई बड़ी बात होने वाली है। पर ऐसा नहीं था। बत्तखों के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, कि वे आगे क्या करने वाली हैं। सारी बत्तखें जो आराम से तैर रही थीं या सिर के भार पानी में खड़ी थीं-यह सिर्फ बत्तखें करना जानती हैं-सहसा एक साथ किनारे की तरफ तैरने लगीं, और फिर किनारे पहुँचकर भाग गईं। किनारे की मिट्टी पर उनके पैरों के निशान देखे जा सकते थे। एक पल पहले तालाब का पानी शीशे की तरह साफ था, उसमें किनारे के सारे पेड़ों, झाड़ियों को देख सकते थे। पीछे एक पुरानी इमारत की मुंडेर का तिकोना कोना था जिसके छज्जे के नीचे अबाबील का घोंसला था वह भी पानी में दिखता था, पर सबसे साफ वह गुलाब का पेड़ दिखता था जिसकी शाखाएँ पानी के ऊपर झुकी हुई थीं। वह उल्टी टँगी तसवीर जैसा लगता था। अब सब कुछ हिल रहा था, रंग मिल गए थे, और तसवीर गायब हो गई थी। एक उड़ते हुए हंस के दो पंख जो पानी की सतह पर गिर गए थे, तैर रहे थे; वे ऐसे उलट-पलट रहे थे जैसे हवा चल रही हो जबकि ऐसा नहीं था। जल्दी ही पानी फिर शीशे की तरह चमकने लगा और पंख भी सीधे लेट गए। फिर से वही उल्टी तसवीर दिखने लगी-इमारत के छज्जे से लटकता अबाबील का घोंसला और गुलाब का पेड़। हर खिलता गुलाब बहुत सुंदर था, पर वे खुद कुछ नहीं जानते थे, क्योंकि किसी ने उन्हें बताया नहीं था। सूरज उनके खुशबूदार पत्तों के बीच चमकता था, और हर गुलाब ऐसा लगता था जैसे हम अच्छा सपना देखने पर खुश होते हैं।

एक गुलाब बोला, 'जिंदा रहना कितना अच्छा है। काश मैं सूरज को चूम पाता। वह कितना सुंदर है। पानी में जो गुलाब हैं, मैं उन्हें भी चूमना चाहता हूँ। वे बिल्कुल हमारे जैसे लगते हैं। घोंसले में जो चिड़ियाँ हैं वे कितनी प्यारी हैं, जल्दी ही चहचहाने लगेंगी हालाँकि उनके अपने माता-पिता की तरह पंख नहीं हैं। छज्जे वाला घोंसला और पानी वाला घोंसला दोनों हमारे अच्छे पड़ोसी हैं।"ओह, जिंदा होना कितना अच्छा है!'

घोंसले की छोटी चिड़ियाँ-ऊपर वाली और पानी वाली, जो कि सिर्फ परछाईं थीं-अबाबील थीं और उनके माता-पिता भी। उन्हें यह खाली घोंसला मिला था जिसे उन्होंने अपना घर बना लिया था।

तालाब के पानी पर तैरते दो बत्तख के पंखों को देखकर छोटी चिड़ियों ने पूछा, 'क्या वे बत्तखों के बच्चे तैर रहे हैं?'

माँ ने डाँटकर कहा, 'कुछ पूछते वक्त अक्ल से काम लिया करो। क्या तुम देख नहीं सकते कि ये पंख हैं, ठीक वैसे जैसे मेरे हैं? तुम्हारे भी पंख उगेंगे, पर हमारे पंख बत्तखों के पंखों से ज्यादा सुंदर होते हैं। हालाँकि मुझे लगता है कि काश वे हमारे घोंसले में होते तो ठंडी रात में आराम देते। पता नहीं बत्तख किससे डर गईं। शायद पानी में कुछ होगा। पर यह मैं भी हो सकती हूँ। आखिरी बार जब मैं बोली तो आवाज़ कुछ ऊँची निकल गई थी। यह मोटे दिमाग वाले गुलाब बता सकते थे. पर उनकी तो कछ समझ में ही नहीं आता; न वे कुछ करते हैं, सारा दिन सिर्फ शीशे में खुद को देखते हैं और सँघते रहते हैं... मैं तो अपने पड़ोसियों से तंग आ गई हूँ!'

गुलाबों ने कहा, 'उन छोटी चिड़ियों को सुनो शायद वे गाना शुरू करने वाली हैं। अभी पूरी तरह सुर नहीं पकड़ा है पर पकड़ लेंगी। गा सकना ज्यादा अच्छा होता है। ऐसे खुश पड़ोसी मिलना भी कितना अच्छा है।'

उसी वक्त दो घोड़े तालाब तक पानी पीने आए। एक पर किसान का लड़का सवार था। उसने अपने कपड़े उतार रखे थे और सिर पर एक चौड़े किनारे वाले काले हैट के अलावा वह नंगा था। वह ऐसे सीटी बजा रहा था जैसे वह भी एक चिड़िया हो; और वह तालाब के सबसे गहरे हिस्से में घुसता चला गया। वह गलाब के पेड के पास से गुजरा तो उसने एक फल तोडकर अपने हैट में लगा लिया। जब वह आगे चलता गया तो बाकी गुलाब सोचने लगे वह कहाँ जा रहा है पर कोई भी अंदाज़ा नहीं लगा सका।

गुलाब आपस में कहने लगे, 'हम भी दुनिया भर की यात्रा करना चाहेंगे, पर घर पर भी अच्छा लगता है। दिन में सूरज हम पर गरमाई से चमकता है और रात में वह आसमान के छेदों में से और भी सुंदर ढंग से चमकता है।' गुलाब तारों को आसमान के छेद समझ रहे थे वे कुछ नहीं समझते थे।

अबाबील की माँ बोली, 'हमारा घर के आसपास होना अच्छा माना जाता है। लोग कहते हैं हमारे घोंसले से खुशकिस्मती आती है और इसलिए उन्हें हमें आसपास पाकर खशी होती है। पर दीवार के पास गलाब का पेड उगे तो सीलन आ जाती है। शायद वे इसे काट देंगे, फिर वे यहाँ एक दाना बो सकते हैं। गुलाब तो सिर्फ देखने, सूंघने या ज्यादा से ज्यादा हैट में लगाने के लिए होते हैं। मेरी माँ ने बताया कि वे हर साल झर जाते हैं। किसान की औरत उन्हें नमक लगाकर रखती है और फिर उन्हें फ्रेंच में कुछ कहती है, जो न मैं बोल सकती हूँ, न बोलने की परवाह करती हूँ; कभी-कभी उन्हें कमरे की अंगीठी में डाला जाता है ताकि अच्छी खुशबू आए। यही उनकी जिंदगी है, वे सिर्फ आँखों और नाक के लिए होते हैं। अब तुम्हें उनके बारे में सब पता चल जाएगा।'

शाम को जब तालाब के पानी पर मच्छर नाच रहे थे तब एक बुलबुल आई। वह गुलाबों के लिए गाने लगी। उसके गीत में गर्म धूप की बात थी और यह भी कि सुंदर चीजें मरती नहीं हैं। पर गुलाबों को लगा, कि बुलबुल अपने बारे में गा रही थी और उसमें कुछ अजीब भी नहीं था। उन्होंने पलभर को भी नहीं सोचा था कि वह शाम का गीत उनके लिए हो सकता था पर फिर भी वे उनकी कम तारीफ नहीं कर रहे थे। वे सोच रहे थे कि घोंसले वाली सारी अबाबील कहीं बुलबुल ही न बन जाएँ।

छोटी अबाबील बोली, 'पूरा गाना हमारी समझ में आ गया सिवाय एक शब्द के, खूबसूरती! उसका क्या मतलब होता है?'

'कुछ नहीं!' उनकी माँ बोली। 'यह सिर्फ दिखने की बात होती है। ... किले में जहाँ कबूतरों के अपने घर हैं-वहाँ चिड़ियों को हर दोपहर में मटर और नाज के दाने खिलाए जाते हैं। कभी-कभी मैं भी उनके साथ खाती हूँ, और जैसे ही तुम उड़ने लगोगे मैं तुम्हें वहाँ ले जाऊँगी, क्योंकि अच्छे लोगों के साथ दिखना ज़रूरी होता है : तुम मुझे अपने दोस्तों के बारे में बताओ तो मैं तुम्हें बता दूंगी कि तुम कैसे हो-खैर, जैसा कि मैं बताने जा रही थी, किले में दो चिड़ियाँ हैं, दोनों की हरी पूँछ है और सिर पर मुकुट है; दोनों की पूँछ एक बड़े पहिये की तरह फैल सकती है। उसमें इतने चटकीले रंग होते हैं कि आँखों को तकलीफ देते हैं। वे मोर हैं और उन्हें सुंदर कहा जाता है। पर अगर तुम उनके पंख नोच लो तो वे हमारे जैसे ही दिखेंगे। अगर वे इतने बड़े न होते तो मैं उनके पंख नोच डालती।'

उस घर में एक जवान जोड़ा रहता था जो एक-दूसरे से बहुत प्यार करता था। वे संतुष्ट, मेहनती लोग थे और अपने घर को साफ-सुथरा और गरम रखते थे-उनकी हर चीज अच्छी थी। इतवार की सुबह पत्नी ने गुलाबों का एक गुच्छा तोड़ा और पानी के गिलास में रखा फिर उसे उस बड़ी आलमारी पर रख दिया जिसमें सर्दियों के कपड़े रखे थे।

पति ने हँसकर उसे चूमते हुए कहा, 'अब मुझे पता चला कि आज इतवार है।' दिन में वह उसे धर्मग्रंथ में से पढ़कर सुनाता रहा। सूरज उनकी खिड़की से अपनी गरमाई फेंक रहा था और वे दोनों हाथ में हाथ डाले बैठे थे।

माँ अबाबील बोली, 'यह देखने से भी बोरियत होती है, और उड़ गई।

अगले इतवार को फिर वही हुआ, क्योंकि गर्मियों में इतवार को वह युवती ऐसे ही गुलाब तोड़ती थी, इसके बावजूद न उस पेड़ पर फूल कम होते थे, न उसकी खूबसूरती कम होती थी। छोटे अबाबीलों के लिए यह इतवार अलग था। उनके पंख आ गए थे और वे अपनी माँ के साथ घोंसला छोड़कर जाना चाहते थे।

माँ ने हुक्म दिया, 'तुम यहीं रहो!' और उड़ गई।

अचानक उसका उड़ना बंद हो गया, वह पंख हिलाए जा रही थी। बदकिस्मती से वह पेड़ की डाल से लटके हुए उस जाल में फंस गई थी जो कुछ लड़कों ने फैलाया था। वह जाल घोड़े के बालों से बना था और उसके पंजों पर कस गया था। उसे लगा जैसे उसकी बाईं टाँग कट जाएगी। बहुत दर्द हो रहा था, और बेचारी अबाबील अपने पंख मारे जा रही थी। लड़के जहाँ छिपे थे वहाँ से भाग कर आए, उनमें से एक ने चिड़िया को पकड़कर दबाया।

वह निराश होकर ज़ोरों से बोला, 'यह तो सिर्फ अबाबील है' पर उन्होंने उसे छोड़ा नहीं।

हर बार जब वह बोलती, लड़के उसकी चोंच पर हाथ मारते। जब वे खेत पर बने घर के अहाते में पहुँचे जहाँ एक लड़का रहता था, तो वहाँ एक घूमता हुआ फेरी वाला था। वह (आम साबुन और दाढ़ी बनाने वाला । साबुन-दोनों) बनाने की कला जानता था। वह एक खुशमिजाज बूढ़ा था जो लड़कों की तरह शैतानी करता था। जब उसने अबाबील को देखा और सुना कि लड़कों को उसकी परवाह नहीं थी, तो वह बोला, 'क्या इसे सुंदर बनाएँ?'

अबाबील उस शब्द को सुनते ही काँप उठी। बूढ़े ने अपने रंगों के बक्से से थोड़ा काँसे का रंग देने वाला पाउडर निकाला। उसने लड़कों को अंडा लाने के लिए भेजा जिसकी सफेदी चिड़िया पर मल दी जिससे बेचारी चिड़िया के पंखों पर पाउडर चिपक सके। फिर उसने अपने पुराने कोट के अस्तर में से मुरगे की कलगी निकाली और अबाबील के सिर पर चिपका दी।

'अब देखें यह सुनहरी चिड़िया कैसे उड़ती है, वह बोला और बेचारी चिड़िया को छोड़ दिया।

डरी हुई चिड़िया खुली धूप में उड़ने लगी। कितनी तेज़ धूप थी। दूसरी अबाबील चिड़िया और एक कौवा जो छोटा नहीं बड़ा था, उसे देखकर इतना डर गए कि वहाँ से उड़ गए, पर दूर नहीं गए। वे उस बेचारी का पीछा करते रहे।

कौवा चीखा, 'तुम कहाँ से आई हो? तुम कहाँ से आई हो?'

दूसरी अबाबील चिड़िया चिल्लाई, 'हमारा इंतज़ार करो, हमारा इंतज़ार करो!'

पर बेचारी अबाबील माँ इतनी डरी हुई थी कि इंतज़ार किए बिना अपने घोंसले की तरफ उड़ने लगी। चमकीले पाउडर के वजन से उसके लिए उड़ना मुश्किल हो रहा था। वह घरती के पास ही पास उतरती जा रही थी। छोटी-बड़ी बहुत-सी चिड़ियों ने उसका पीछा करना शुरू कर दिया, कुछ उसके पास तक जाती, चोंच मारती और चीखतीं, 'इसे देखो, इसे देखो!'

जब वह अपने घोंसले के पास पहुँची तो उसके अपने बच्चे चीखने लगे, 'इसे देखो! इसे देखो! यह मोर का बच्चा है ! इसके रंग देखो! उनसे आँखों में तकलीफ हो रही है, माँ ने यही बताया भी था। यह सुंदर है!'

और उसके अपने बच्चे माँ को घोंसले में नहीं आने दे रहे थे बल्कि अपनी चोंच से मार रहे थे। वह इतनी डरी हुई थी कि कुछ बोल कर अपने बच्चों को बता भी नहीं पायी कि वह उनकी माँ है। दूसरी चिड़ियों ने भी चोंच मारना शुरू कर दिया। जल्दी ही उसके काफी पंख गिर गये, खून निकलने लगा और वह गुलाब के पेड़ पर गिर गयी।

गुलाब बोले, 'बेचारी चिड़िया, हम तुम्हें छिपा लेंगे। हमारे ऊपर अपना सिर टिकाओ।'

अबाबील ने एक बार और अपने पंख फैलाए, फिर उन्हें अपने बदन से चिपका लिया और अपने पड़ोसी गुलाबों के बीच मर गई।

घोंसले में उसके बच्चे बोल रहे थे, 'पिप्प पिप्प हमारी माँ कहाँ गई? कहीं वह हमें यह तो नहीं बताना चाहती कि अब हम अपनी फिक्र खुद कर सकते हैं। वह हमारे लिए यह घर छोड़ गयी है। पर जब हम चारों के परिवार होंगे तब यहाँ कौन रहेगा?'

सबसे छोटा बोला, 'जब मेरी घरवाली और बच्चे होंगे तब तुम यहाँ नहीं रह सकोगे।'

दूसरा कहने लगा, 'मैं तुमसे कहीं ज्यादा बीवी और बच्चे रखूँगा।'

तीसरे ने कहा, 'पर मैं तो सबसे बड़ा है, ' यह बहस जल्दी ही लड़ाई में बदल गई, वे अपने पंख फटकारने और चोंच मारने लगे। तीनों घोंसले से बाहर गिर गए। वे गुस्से में भरे हुए, अपना सिर पंखों में ऐसे घुसाए हुए जैसे गरदन हो ही नहीं, बराबर आँखें झमकते ज़मीन पर पड़े रहे।

वे थोड़ा-थोड़ा उड़ सकते थे। कुछ देर अभ्यास करने के बाद उन्होंने तय किया कि वे दुनिया में जब भी आपस में मिलेंगे तो पिप्प कहेंगे, फिर बाएँ पंजे से तीन बार ज़मीन खुरचेंगे, जिससे एक-दूसरे को पहचान सकें।

जिस अबाबील ने औरों को बाहर कर दिया था, वह अब घोंसले का मालिक बनकर उस में फैला हुआ था, पर ज्यादा देर ऐसा नहीं रहा। उसी रात घर जल गया। घास-फूस वाली छत के नीचे से लपटें उठीं और जल्दी ही पूरा घर आग की चपेट में आ गया, पर जवान लोग बचकर निकल आए। अबाबील का घोंसला बच्चे समेत जलकर खाक हो गया।

उस हल्की गरम रात के बाद जब सूरज निकला तो झोंपड़ी के नाम पर कुछ जली हुई शहतीरें चिमनी के सहारे टिकी हुई थीं जो अकेली होने के कारण अपनी मालिक खुद थी। जले हुए घर से अब भी धुआँ निकल रहां था, पर गुलाब के पेड़ को कुछ नहीं हुआ था। वह वैसा ही हरा, फूलों से लदा और संदर, तालाब में अपनी परछाईं डाल रहा था।

एक जवान आदमी बोला, 'जले हुए घर के आगे वह गुलाब का पेड़ कितना सुंदर दिख रहा है। यह तो बहुत सुंदर दृश्य है।' वह चित्रकार था उसने अपनी कॉपी निकाली, और जली हई शहतीरों. नंगी चिमनी और राख से निकलते धुएँ का चित्र बनाया। उसके आगे गुलाब का पेड़ खिल रहा था, जो बहुत सुंदर लग रहा था। और उसी से प्रेरणा पाकर चित्रकार ने चित्र बनाया था।

दिन थोड़ा और बीतने पर, वहाँ पैदा होने वाले दो अबाबील उड़ते हुए आए। वे बोले, 'घोंसला कहाँ है? घर कहाँ है ? पिप्प सब कुछ जल गया और हमारा ताकतवर भाई भी जल गया; घोंसला लेने की सज़ा मिल गई। सिर्फ गुलाब बचे हैं; उनके लाल गाल देखो, वे अपने पड़ोसियों के लिए दुखी भी नहीं हैं। हम उनसे बात नहीं करेंगे। हमारे ख्याल से यह जगह गंदी है!' और वे उड़ गए।

पतझड़ की एक गरम दोपहर में सूरज ऐसे चमक रहा था जैसे गरमियाँ हों, किले के आँगन को झाड़ से बुहार दिया गया था। किले में घुसने वाली बड़ी ग्रेनाइट की सीढ़ियों के सामने फर्श पर कबूतर कुछ-कुछ चुगते हुए चल रहे थे।

कबूतरों की माँएँ बराबर उन्हें डाँटते हुए कहती जा रही थीं, 'झुंड बनाओ! झुंड बनाओ!' उन्हें लगता था कि वे उसी ढंग में सुंदर लगते हैं।

एक छोटी फाख्ता ने पूछा, 'हमारे बीच में ये छोटे-छोटे स्लेटी रंग के कौन हैं?'

बड़े कबूतर ने जिसकी आँखों में लाल-हरे धब्बे से थे, पूछा, 'छोटे स्लेटी रंग के? वे अबाबील हैं, किसी को नुकसान नहीं पहुँचाती। हमारी अच्छी इज़्ज़त है, इसलिए हम उन्हें खदेड़ कर भगाते नहीं हैं। पर वे अपनी जगह जानती हैं। अपनी छोटी टाँगों से इतने प्यारे ढंग से कुरेदती हैं।'

तीन छोटे अबाबील पास ही खड़े थे, उन्होंने बाईं टाँग से ज़मीन को तीन बार खुरचा और बोले, 'पिप्प!' फिर वे जान गए कि वे एक ही घोंसले में थे।

एक बोला, 'खाने के लिए अच्छी जगह है।'

फाख्ता एक-दूसरे के चारों तरफ चक्कर लगा रही थी, उन्होंने छाती फुलाई हुई थी। हर कोई दूसरे की बुराई ढूँढ़ने में लगा था।

'उसे देखो! कितने लालची ढंग से खा रही है ! इतनी मटर खाकर बीमार पड़ जाएगी।'

'कू! उसके पंख झर रहे हैं; जल्दी ही गंजी हो जाएगी! कू!' गुस्से से लाल आँखों से एक-दूसरे को घूर रही थी और अपने बच्चों पर चीख रही थी. 'झंड बनाओ! झंड बनाओ!'

खीझकर बोली, 'इन छोटी स्लेटी चिड़ियों को देखो! कू।' उन दिनों कबूतर ऐसे बोलते थे और ऐसे ही हजारों सालों तक बोलते रहेंगे।

अबाबील खा रहे थे और सुन रहे थे। उन्होंने भी झुंड बनाने की कोशिश की, पर नतीजा बहुत सुंदर नहीं था। जब उन्होंने पेट-भर कर खा लिया तब एक झुंड में इतनी दूर उड़ गए कि फाख्ता सुन नहीं सकें और अपनी बातें करने लगे। फिर वे उड़कर बगीचे की दीवार पर चले गए और उस पर से देखने लगे। एक कमरे का चौड़ा शीशे वाला दरवाज़ा खुला हुआ था। एक अबाबील उड़ा और सीधा दरवाज़े पर उतरा। उसने ज्यादा खा लिया था और इसलिए उसमें हिम्मत थी। 'पिप्प! मैं कितना बहादुर हूँ!' वह बोला। दूसरे ने जवाब दिया, 'पिप्प! मैं भी इतना और इससे कुछ ज्यादा करने की हिम्मत रखता हूँ।' और इतना कहकर वह किले में कछ फट अंदर चला गया।

कमरा खाली था, इसलिए तीसरा और अंदर तक जाते हुए बोला, 'या तो पूरा अंदर जाओ, नहीं तो क्या फायदा?'

'इंसान का घोंसला भी कितना अजीब होता है। पर वह क्या है? उसे देखो।'

वह फूलों से लदा गुलाब का पेड़ था, जो घर के उस खंडहर के सामने था जिसकी चिमनी अब भी खड़ी थी और जिसकी जली हुई शहतीरें उसी के सहारे खड़ी थीं, यह किले की दीवार में कैसे आया?

तीनों उस तक जाना चाहते थे, पर पहला जो गया वह दीवार से टकरा गया, क्योंकि वह तो सिर्फ तसवीर थी। चित्रकार ने पहले पेंसिल से जो चित्र बनाया था, उसको रंग कर लगाया था। वह बहुत सुंदर चित्र था।

अबाबील बोले, 'पिप्प ! यह कुछ नहीं है! सिर्फ दिखता है कि कुछ है। यही वह होगा जिसे सुंदर कहते हैं, इसका जो भी मतलब होता हो; हमारी तो समझ से परे है!' इतना कहकर तीनों कमरे से बाहर उड़ गए, क्योंकि किसी के आने की आवाज़ आ रही थी।

दिन और साल बीतते गए। सारे पक्षी उस उपजाऊ ज़मीन पर रहते रहे। उन सबकी सगाई, शादी, जो भी पक्षियों में कहा जाता हो, हो गई थी। उनके बच्चे हुए और हर जोड़ा अपने बच्चों को ही सुंदर और होशियार बताता था। एक घोंसले वाले वे तीनों अबाबील जब भी मिलते, तो तीन बार पैर से ज़मीन खुरचकर 'पिप्प' बोलने की वजह से एक-दूसरे को पहचान जाते थे। अब तक सबसे बड़ी अबाबील इतनी बड़ी हो चुकी थी कि उसका न साथी था, न बच्चे, न घोंसला, सो उसने तय किया कि वह किसी शहर में जाकर देखेगी कि वह कैसा होता है। वह कोपेनहेगेन की तरफ उड़ी।

वहाँ भी एक बड़ा किला था जिसके पास एक रंगी हुई दीवारों वाली इमारत थी। वह जगह अच्छी थी, वहाँ एक नहर थी जिसमें सेवों और मिट्टी के बरतनों से भरी नावें थीं। बूढ़ी अबाबील ने उस अजीब घर की खिड़की में से झाँका; हर बार उसे लगता कि वह किसी फूल में झाँक रही है क्योंकि हर कमरा एक अलग सुंदर रंग में रंगा था। बीच में कुछ सफेद आकृतियाँ थीं। उनमें से कुछ संगमरमर की थीं, तो कुछ प्लास्टर की, पर यह फर्क अबाबील नहीं देख सकती थी। इमारत में ऊपर काँसे की बनी विजय की देवी की मूर्ति थी जो घोड़ों से सजा रथ चला रही थी। वह चिड़िया एक महान् डेनिश मूर्तिकार थोरवालसन के अजायबघर में पहुँच गई थी।

चिड़िया बोली, 'यह कैसा चमक रहा है, यह कैसा चमक रहा है। मेरे ख्याल से यही सुंदर होगा! खैर, यह मोर से तो बड़ा है।' उसे अब भी माँ की सुंदरता के बारे में बताई बात याद थी। वह उस अजायबघर के आँगन में गई, यहाँ इमारत की बाहरी दीवारें खजूर के वृक्षों के चित्रों से सजी थीं। आँगन के बीच में एक गुलाब का पेड़ था। उसकी शाखाएँ एक कब्र के ऊपर झुकी थीं। वहाँ तीन अबाबील चिड़ियाँ ज़मीन कुरेद कर कुछ खाने को ढूँढ़ रही थीं। यह उनके पास गई।

'पिप्प!' यह बोली और तीन बार अपने बाएँ पैर से ज़मीन खुरची। उसे अपने परिवार से मिलने की उम्मीद नहीं थी पर उसने आदत की वजह से ऐसा किया। उसे पता था कि किसी का मिलना मुश्किल था।

'पिप्प!' दूसरी अबाबील चिड़ियों ने भी ठीक उसी की तरह जमीन खुरची।

सब एक-दूसरे से कहने लगे, 'ओह, फिर से मिलना कितना अच्छा लग रहा है।' दो उसके भाई थे और तीसरी भतीजी थी। 'मिलने के लिए यह बहुत बढ़िया जगह है! पिप्प! मेरे ख्याल से यही सुंदर होता होगा! हालाँकि यहाँ खाने के लिए कुछ खास नहीं है। पिप्प!'

लोग म्यूज़ियम के बगल वाले दरवाज़े से बाहर निकल रहे थे। वे अंदर मूर्तियाँ देख कर आये थे, जिन्हें देखकर उनके चेहरे खुशी से चमक रहे थे। फिर वे मर्तियों को बनाने वाले शिल्पी की कब्र तक गये। कुछ ने झुककर कब्र पर गिरी कुछ गुलाब की पत्तियाँ उठा लीं ताकि वे उन्हें यादगार के तौर पर रख सकें। वे लोग बहुत दूर-दूर से जैसे फ्रांस, जर्मनी, इंगलैंड से आए थे।

एक सुंदर युवती ने एक गुलाब तोड़कर अपने ब्लाउज में लगा लिया। अबाबील चिड़िया जो सब कुछ देख रही थी, उन्हें लगा कि पूरी इमारत गुलाबों के लिए बनाई गई थी। उनका ख्याल था कि इतनी इज़्ज़त देना जरा ज्यादा ही था, पर क्योंकि इंसान गुलाबों को बहुत पसंद करते थे, इसलिए उन्होंने अपनी बात कही नहीं।

'पिप्प! पिप्प!' वे बोले और एक आँख से गुलाब के पेड़ को देखते-देखते अपनी छोटी पूँछ से कब्र को बुहारते रहे।

अभी ज्यादा देर देखा भी नहीं था कि उन्हें लगा यह गुलाब तो उनका पड़ोसी ही है, और वे सही थे। जिस चित्रकार ने खंडहर इमारत और खिले हुए गुलाब के पेड़ का चित्र खींचा था, उसे उस पेड़ को खोद कर ले जाने की इजाजत मिल गई थी। उसे लगा था कि पेड़ बहुत सुंदर था, इसलिए वह उसे थोरवालसन की कब्र पर लगाना चाहता था। और वह यहाँ फूल रहा था, लाल फूलों से महक रहा था, खूबसूरती का साकार रूप था।

अबाबीलों ने पूछा, 'क्या तुम्हें हमेशा के लिए काम मिल गया है?' गुलाबों ने गरदन हिलाकर हामी भरी क्योंकि वे भी अपने छोटे पड़ोसियों को पहचान गए थे और उनसे दुबारा मिलकर खुश थे।

'फूल के रूप में जिंदा होना कितना सुंदर है। कितना अच्छा लगता है जब आपके आसपास दयालु चेहरे हों, और आपके पुराने दोस्त आपसे मिलने आएँ। हर दिन बड़ा अच्छा लगता है।'

'पिप्प!' अबाबील बोली, 'ये हमारे पुराने पड़ोसी हैं। हम इन्हें तब से जानते हैं जब ये गाँव के तालाब के पास उगे हुए थे। ये बड़ी दूर आ गए हैं। देखो, अब इन्हें कितनी इज्जत मिल रही है। पर यह कोई गुणों की बात नहीं बल्कि वक्त की बात है। एक लाल धब्बे में ऐसी क्या बड़ी बात है। हमें तो वह दिखाई भी नहीं देता, हम तो एक मरे हुए पत्ते को देख सकते हैं।'

एक अबाबील उड़ कर गया, उसने मुरझाए पत्ते को तब तक चोंच मारी जब तक कि वह गिर ही नहीं गया; और अब गुलाब का पेड़ पहले से ज्यादा हरा और सुंदर दिखने लगा। वह कलाकार की कब्र पर खिल रहा था, उसकी खूबसूरती और खुशबू, उसके अमर नाम के साथ आदमी की याद में बस गई।

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