पारदर्श (तेलुगु कहानी) : अडिवि बापिराजु

Paardarsh (Telugu Story) : Adivi Bapiraju

उस दिन मैं त्रिवेणी-संगम के समीप पहुँचा। यमुना नदी की श्यामल-धारा में तैरने वाले बड़े-बड़े कछुए नावों पर से यात्रियों द्वारा फेंकी जाने वाली खीलों को निगलते, जलधारा के नीचे मोतियों जैसे बुल-बुलों में अदृश्य होने लगते। कितने युगों से ये कूर्म यमुना की जल-धारा में विहार कर रहे हैं, ज्ञात नहीं, पर इसी के कारण यमुना माई का नाम कूर्मवाहिनी पड़ गया है। सफेद भँवरों वाली गंगा की धारा नील-सवंती रमणीमणि का आलिंगन करने वाले प्रदेश पर नाव पहुँची। मैं एक अच्छा तैराक हूँ। नाव जब यमुना की कृष्णा-धारा पर सरकती जा रही थी, तभी हठात मैं प्रवाह में कूद कर उसकी गहराई में पहँचा। नील मणिमय कांति वाले स्वच्छ गगनांशुजाल में मैं पैर पटकने लगा। मंद गजयान कच्छप मुझे देख इधर-उधर हो गए। उस निर्मल शीतला जल-धारा में मैं छोटे शिशु-मीन की भाँति हाथ-पैर हिलाते विहार करने लगा।

जल-धारा की गहराई में थोड़ी दूर आगे बढ़ने के उपरांत श्वेतरेखा-पंख अत्यंत वेग के साथ मेरी ओर बढ़ते दिखाई दिए। मैं निस्तब्ध हो ठहर गया। उन भंवरों में फंस कर एक निमेष तक मैं छटपटाता रहा, दूसरे ही क्षण ऊपर आ पहुँचा। मेरे मित्रों ने विस्मय के स्वर में पूछा, "अरे! हमने सोचा कि तुम हमें अब दिखाई नहीं दोगे।"

"इतनी देर तक तुम पानी के भीतर कैसे रह सके?" नाव मेरे निकट पहुँची। उसका किनारा पकड़ कर नाव के साथ गंगा-यमुना के संगम पर पहुँचा। गंगा नदी की गहराई कम है, और यमुना की अधिक। यात्रियों के स्नानार्थ नगरपालिका ने वहाँ पर नदी में दूर तक बाँस गाड़ कर पानी पर रास्ता बनाया है। एक पुरोहित वहाँ पर-"त्रिवेणी संगम स्थाने सकल पाप परिहरणार्थ गंगा-यमुना-सरस्वती संगम स्नान करिष्ये" मंत्रोच्चार कर रहा था। हम सब स्नान करके पवित्र हो गए।

त्रिवेणी संगम के दृश्य ने मेरे मन को विचलित कर दिया। दूसरे दिन शाम को भी अन्तःसलिला सरस्वती माता के दर्शन करने के विचार से मैं पानी में कूद पड़ा। उस पवित्र प्रदेश को ढूँढा। साँस छूटते देख बाहर आने की कोशिश करते-करते उस स्वर्णिम प्रवाह में माता के दर्शन करने की उत्कट अभिलाषा से मैंने पुनः डुबकी लगाई। एक प्रहर तक प्रयत्न कर थक गया और संगम स्थान के पास, जहाँ बाँस गाड़े गए थे, ऊपर आया। शिरोभाग से टपकने वाले जल-बिंदुओं को पोंछते-पोंछते उस प्रवाह में तैरती एक बाला दिखाई पड़ी।

मैंने आँखें मल कर पुनः देखा। काले रेशमी जूड़ों वाली वेणी यमुना की नील-धारा में तैरती, नेत्रों को चकित कर रही थी। वह बाला अपनी स्वर्णलता रूपी बाँहों से पानी को पीछे हटाते हुए प्रसन्नमुख तैर रही है। इधर-उधर नाव होगी, यह सोचकर मैंने दूर तक दृष्टि दौड़ाई, पर मुझे कहीं मनुष्यों का पता न लगा। मैं आश्चर्यचकित हुआ। उसी क्षण मुझे दुर्ग का स्मरण हो आया कि इलाहाबाद के किले में कुछ अंग्रेज परिवार हैं। मैंने यह सोच कर गहरी साँस ली कि कोई अंग्रेज युवती तैर रही है, भारत की स्त्रियों को इस प्रकार आनंद लूटने का अवसर ही कहाँ दिया जाता है ! मैं कुछ देर तक वैसे ही आश्चर्य के साथ जल में खड़े होकर उस कन्या की ओर देखता रह गया।

इसी बीच उस युवती ने मुझे अपने पास आने का संकेत किया। मेरा हदय तीव्रगति के साथ धड़कने लगा, आखिर बात क्या है? मेरे पीछे खड़े किसी व्यक्ति को तो नहीं बुला रही है, मैंने पीछे की तरफ देखा। लेकिन वहाँ कोई नहीं था। पुनः मैंने उसकी ओर देखा। इस बार उसने स्पष्ट रूप से मेरी ओर हाथ हिलाया। उस सायंकाल की शीतल धारा पर सूर्य भगवान की स्वर्णिम किरणें उस बाला की बाहों की कांति के समक्ष पीली दिख रही थी। घबराते हृदय को लेकर मकर की भाँति तैरता हुआ मैं उस युवती के निकट पहुँचा।

वह अंग्रेज युवती न थी। उसके कानों में अत्यंत प्रकाशमान मणिमय कर्णाभरण चमक रहे थे। मनोज्ञ मेघों की आड़ से आँखमिचौनी खेलने वाले बालभानु के बिम्ब जैसे उसके भाल भाग पर मोतियों की माँग-बिंदी सुशोभित थी।

मैंने उसे एक ब्रह्मसमाजी परिवार की कन्या समझा। यह सोच कर कि अंग्रेजी न जानने वाली युवती कभी तैर नहीं सकती; अंग्रेजी में प्रश्न किया, "तुमने क्यों बुलाया?" उसने उत्तर दिया, “मैं सब भाषाएँ जानती हूँ। तुम्हारी तेलुगु बहुत ही मधुर एवं मीठी भाषा है। उसी में तुम मुझसे बोल सकते हो!" मेरे आश्चर्य की कोई सीमा न थी।

मैं-"तुम कौन हो! मुझे बुलाया किसलिए?"
बाला-"घबराओ नहीं, तो बताऊँगी।"
मैं-"मैं बड़ा साहसी हूँ।"
बाला-“मैं सूर्यसुता हूँ।"

मैंने मन ही मन सोचा, शायद यह मेरा परिहास कर रही है। तेलुगु जानने वाली यह बाला है कौन? इस प्रयाग में निवास करने का कारण? मेरा मन कई प्रकार के विचारों में डूबता-उतराता रहा।

बाला-"महाशय ! मैं आंध्र-युवती नहीं हूँ। तुम तो सरस्वती नदी का प्रवाह देखने आए हो। शिक्षित भी हो। क्या सरस्वती-प्रवाह कहानियों में ही है? यहाँ पर दिखाई देगा। अभी तक तुम पानी की गहराइयों में किसकी खोज कर रहे थे?"

मेरे हृदय में कोई अव्यक्त ध्वनि प्रतिध्वनित होने लगी। मेरे मन की बातें इसे कैसे मालूम हुई? मेरा हृदय जोर से लहरों में झूलने लगा। मैंने उद्विग्न होकर पूछा, “तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आईं?"

"मैं सूर्य भगवान की पुत्री हूँ। यमुना मेरी बहन है। मैं रंगीन बाला हूँ। कभी-कभी मैं बहन की तरंगों पर खेला करती हूँ। तुम वास्तव में अंतर्वाहिनी सरस्वती को देखना चाहते हो तो मेरे साथ चलो।" यह कह कर वह पानी में डूब गई। मेरा हाथ पकड़कर अपने साथ खींचती हुई पानी की गहराइयों में पहुंची। उसके कोमल कर-स्पर्श मात्र से मेरे शरीर में बिजली दौड़ने लगी। उसके कर-स्पर्श ने मुझे परवश कर दिया। उससे आकर्षित होकर मैं उसके साथ तैरते हुए जल के भीतर चला गया।

हम दोनों तैरते हुए कितनी गहराइयों में पहुँचे, स्मरण नहीं। थोड़ी देर के बाद वह बाहर आकर पृथ्वी पर खड़ी हो गई। मैं भी उसके पार्श्व में खड़ा हो गया। उसने मेरे सर्वस्व को लूट कर मुस्कराते हुए मेरे भाल को चूम लिया। अंगुलियों से मेरा चिबुक ऊपर उठा कर खिल-खिलाकर हँस पड़ी और कहा, “हे रसपिपासी! तुम्हारे हृदय में सरस्वती की धारा के दर्शन करने की दिव्याकांक्षा है न? मैं सूर्यसुता हूँ। चंद्र-सूर्यमण्डल मध्यस्थ शीतलधारा में सर्व रसात्मक सूर्य भगवान अधिवास करते रहते हैं। उनसे मेरा और मेरी यमुना का उद्भव हुआ है। गंगा तो सूर्य की सहोदरी है। सरस्वती तो पवित्रात्मा सूर्य-तनया है। गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम काव्य, चित्र और गान का संगम ही है ! इस त्रिवेणी संगम के रहस्य को जानने के जिज्ञासु तुझमें मेरा मन मग्न हुआ है। इसलिए मैं तुम्हारे समक्ष प्रत्यक्ष हो गई हूँ।"

मुझे यह सब विचित्र-सा मालूम हुआ। उस बाला का इन दिनों प्रत्यक्ष होना कैसे संभव है? यह तो कहानियों की बात है।
"स्वामी! संकोच क्यों कर रहे हो?"
"अभी तक मुझे यह सब माया-सा प्रतीत हो रहा है, या तैर न सकने के कारण मेरे प्राण-पखेरू के उड़ जाने पर तुम्हारे यह दिव्य-दर्शन हुए हैं?
संकोच के कारण वैसा ही चुपचाप खड़ा रह गया हूँ।"
“पागल ! तुम कला-तपस्वी नहीं हो?"
"कला और कला के परमार्थ का, अनेक वर्षों से मैं अपने मन में, भौतिक जीवन में तथा हृदय में अन्वेषण कर रहा हूँ।"
"इसीलिए तो मैं तुम्हारे सामने प्रकट हुई हैं। रात को त्रिवेणी संगम के पवित्र दर्शन कर सकोगे।"
हे सूर्यसुता! तुम ललित कला-स्वरूपिणी हो और काव्यानन्द हो। तुम्हारा रूप ही गीत है। तुम्हारा मधुर स्वप्न ही छन्द है। तुम्ही भावना हो तथा तुम्हारे प्रेम ने ही रस बन कर मुझे दर्शन दिए।

हे सूर्यसुता! मेरी प्रणय देवी ! इस त्रिवेणी संगम पर तुमने मुझे कैसे दर्शन दिए ? मैं मानव हूँ। तुम देव-वनिता हो! यह सम्भवतः मेरा स्वप्न होगा। हम दोनों सरस्वती नदी के दर्शन कर उस अंधकार में कुछ समय तक तैरते रहे, तदनंतर उससे आज्ञा पाकर में इलाहाबाद के अपने मुकाम पर पहुंचा।
"कहाँ गए थे? अभी तक तैरते ही रहे? क्या अक्ल मारी गई?" मेरे मित्रों ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
मैं अपना रहस्य किसे बताऊँ? बाला मेरे अन्य मित्रों के समझ क्यों प्रत्यक्ष नहीं हुई? उनसे ये बातें उसने क्यों नहीं कहीं?

पर यह सत्य है कि मैं उससे मिला! उस अथाह जलराशि में स्वर्णिम प्रकाश में कनकपद्म को अपनी वेणी में धारण कर शुभ्र शरदिनी हो, मकरवाहिनी सरस्वती ने, श्वेत कमलधारिणी जाह्नवी का दायाँ हाथ पकड़, नील कुमुद वेणीधारिणी तथा कूर्मवाहिनी यमुना के बाएँ हाथ को अपने हाथ में ले, दर्शन दिए। उस त्रिवेणी का दर्शन क्या सत्य नहीं?

उनके दर्शन होते ही पानी की गहराइयों में घुटने टेके, उन्होंने हमें आशीर्वाद दिए। उसके बाद वे तीनों अदृश्य हो गईं। हम दोनों जल के ऊपर आए।
"हे शिल्पी! हम दिव्य वनिताएँ हैं। हममें से कुछ लोगों का मानवों से प्रेम हो जाता है। मैंने तुमसे प्रेम किया है। इसे विचित्र मत मानो। मेरे प्रणय की सच्चाई कवि होने के कारण क्या तुम्हें मालूम न होगी?" उस बाला ने कहा। तब मैंने कहा-

"मर्त्यवासी मैं हूँ।
अमरकांता तुम हो,
मेरी-तुम्हारी मैत्री कैसी?
स्वप्न में डूबा हुआ मैं,
स्वप्न में तुम रहीं। मेरा-तुम्हारा प्रणय कैसा? देह-बंधन से जकड़ा हुआ मैं। देहातीत बन कर तुम रहीं। मेरा-तुम्हारा आलिंगन कैसा!"

एक ध्येय कांता ज्योत्सना के रूप में दूर अपने स्वप्नों में दर्शन करता, जब मैं गोदावरी के तट पर अंग्रेजी पढ़ा करता था, गाया करता था। उस गीत को आज पुनः गाने पर उस युवती ने मुस्कुराते यमुनाजल पर विहार करते , गीत गाया। उसका सारांश है-एक नक्षत्र टूट कर धरती पर गिरा। वह कांतिपुंज दो टुकड़े हुआ। एक किरण मैं और दूसरी तुम। तुम मर्त्यवासी हो और मैं दिविजा। जन्म-जन्मांतरों से तन्मय हो, शिल्पी, चित्रकार, कवि इत्यादि द्वारा कला की उपासना हुई। एक समय अजंता ने मेरे चित्र व शिल्प बना कर मेरी आरती उतारी, मुझे अपनी आत्मा समर्पित की, शिल्पियों ने मेरा अन्वेषण करते, जागते, स्वप्न देखते मेरे ही गीतों का आलाप किया, मेरा ही अभिनय किया। मैं इस जन्म में, इस रूप में इस त्रिवेणी के पास आ गई हूँ। यहाँ पर केवल तुम और मैं, और कोई नहीं!" गीत समाप्त कर वह हँस पड़ी। यह समाचार मैं अपने मित्रों को कैसे दूँ?

मेरे इस यौवन को किसी अज्ञात शक्ति ने परवश बना कर मेरे हदय में रागालाप करते हुए इस त्रिवेणी-संगम पर पहुंचा दिया है। वहाँ पर यह बाला प्रत्यक्ष हो गई। विश्वास करूँ कि नहीं? विश्वास कर करूँगा ही क्या? उस युवती ने अपनी वेणी में गुँथे नील कुमुद को प्रेम के साथ मुझे समर्पित किया। उस कुमुद को लेकर मैं अपने डेरे पर आया। मेरे मित्रों ने पूछा, “अरे, ऐसा सुंदर नील कुमुद आंध्र-भर में नहीं है, कहाँ से लाए हो?" पुष्प तो आंध्र में नहीं है और न वह बाला।

उस रात्रि को जब हम दोनों अलग हुए, उस युवती ने मुझे अपने हदय से लगा कर मेरे नेत्रों के बीच एक चुंबन किया और पानी में कूद पड़ी।
दूसरे दिन शाम को मैं अकेला ही रह गया। उसके दर्शन नहीं हुए। “सूर्यसुता! सूर्यसुता!" कई बार पुकारा मैंने। कोई अव्यक्त वेदना ! मैं शायद मूर्छित हो गया।
मेरे मित्र मुझे ढूँढ़ते आए। मुझे होश में लाने का उन लोगों ने प्रयत्न किया। आखिर । एक ताँगे में मुझे अपने मुकाम पर ले गए। डाक्टर भी असफल रहे।
सबेरे मैं जाग पड़ा। कमज़ोरी नहीं, ज्वर भी नहीं। एक मित्र ने कुमुद को दिखाते हुए पूछा-"अरे! तुमने इसे कहाँ पाया? इसकी पँखुरियाँ अभी तक वैसी ही हैं।"

मेरा हृदय वेग से धड़कने लगा। मैंने अपने मित्रों को एक मास तक प्रयाग में रोके रखा, पर उस युवती के दर्शन नहीं हुए। त्रिवेणी में तैरता रहता था। उन दिनों घंटों तक तैरने वाला में आज एक मिनट भी पानी में रह नहीं पाता हूँ।
हम सब धूम-धाम से अपने गाँव पहुँचे । लोग कहते हैं-मैं कमजोर हो गया हूँ। मेरी आँखें धंस गई हैं, और मेरे अधरों की हँसी चली गई है!

मेरा प्रणय! वह दैहिक नहीं! क्या मैंने कभी वासना की तृप्ति की आकांक्षा व्यक्त की? वह परमसुंदरी बचपन से स्वप्न में दूर से मेरे सामने दिखाई देने वाली ज्योत्स्ना रानी है। त्रिवेणी संगम पर अपने दिव्य सौंदर्य रूप को लेकर प्रत्यक्ष हुई और अदृश्य हो गई। उस बाला की भौतिक देह की कामना मैं कैसे करूँ? यदि उस युवती को असत्य मानें तो उससे प्रदत्त यह नील कुमुद बिना मुरझाए, परिमल को बिना खोए कैसे रह गया?

तीर्थयात्रा करने वाले मेरे सामने यह परम रहस्य क्यों प्रकट हुआ, यह वेदनामय जीवन अंततः क्या है? हाँ! ठीक ही तो है। बचपन से ही मैंने ज्योत्सना-बालिका से प्रेम किया है। उस पर कई गीत रचे हैं। वह मेरे हृदय में सौंदर्य की परम उपलब्धि है। मैं अपने समक्ष जिन युवतियों को देखता हूँ, उनमें से कुछ साधारण श्रेणी की हैं और कुछ विशेष श्रेणी की!
क्या मनुष्य अपने जीवन में केवल दैहिक-सौंदर्य ही चाहता है?

मनुष्य अपने आशय को साकार रूप देना चाहता है। लेकिन किसी एक दिव्य मुहूर्त में कोई एक बाला उसे दर्शन देती है। मनुष्य के प्रेम करने से पूर्व उसके हृदय में, स्वप्नों में, प्रत्यक्ष होने वाली युवती का रूप अलग है और आज अपने सर्वस्व को अद्भुत एवं शक्तिशाली प्रेमाकर्षण से बद्ध करने वाली अलग है।

मेरी स्वप्न-बाला धुंधले अंधकार की आड़ में थी। आज त्रिवेणी-संगम पर प्रत्यक्ष हुई वह युवती उन दिनों की पर्दे की ओट वाली नारी ही है!
यह मूर्ति कौन है? सूर्यसुता नाम कैसा? मैं वर्ण-विन्यास-लीला योगी हूँ और वह वर्ण-विन्यास कलाधिपा देवी ! मैं अपने कंठ में मधुर रागों का आलाप करते हुए, पुलकित होते हुए गीतों का गान करने वाला युवक हूँ, वह सूर्य भगवान की पुत्री!

हम बालक हैं। एक नया लोक, एक नूतन वेग, एक नई शक्ति सामने, पीछे हटने को मन नहीं मानता, आगे बढ़ने का साहस नहीं होता! आगे त्रिवेणी, पीछे त्रिवेणी है। आज मैंने जिस त्रिवेणी के दर्शन किए, उसका अर्थ?

नदियों के रूप में बहने वाले हमारे हृदय-नद ही पश्चिमी दिशोन्मुख हो गए। हिमालयशिखर-सौंदर्य के भागी मैदान, जंगल, रोग, क्षुधा इत्यादि के सिद्धार्थ के जैसे हमें भी दर्शन हुए। खेत में काम करने वाला कृषक, मिल का मजदूर, प्रकृति को अपने अधीन करने का प्रयास करनेवाला प्रजा-हदय! सूर्यसुता! अग्निस्वरूपिणी! कहाँ हो तुम?

उस समय की पढ़ाई क्या? आज मेरे गुरुदेव ने गंगा, यमुना और सरस्वती के संगमसौंदर्य का रहस्य उस शुभ्र ज्योत्स्ना में अपनी कमल की कली-जैसी अंगुली से दिखाया।


मेरी सूर्यसुता बहुत दूर होते हुए भी मुझे ऐसा लगता कि वह मेरी बगल में बैठी है। कोई माधुर्य का नशा जैसा मुझ पर छा गया है। दिव्य सौरभ ने मुझे विवश बनाया। थोड़ी देर तक काँपता रहा, फिर धीरे से बगल की ओर प्रयत्नपूर्वक देखा। मेरी बगल में सूर्यसुता मेरी ओर प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखते हुए बैठी थी। गद्गद् स्वर में मैंने पूछा-"तुम...तुम...ही हो?"
“काँप क्यों रहे हो स्वामी?" यह प्रश्न कर उसने मेरे कंठ में अपनी ज्योत्सना की किरणों-सी बाँहें डाल दी।
वह प्रणय है या अद्भुत सौंदर्यानुभव ! अथवा सर्वमानव-हृदय का परिणय! "स्वामी देखो, आ गई हूँ! व्याकुल क्यों होते हो?"
"तुम देव-वनिता हो, मेरी पूजा स्वीकार करोगी! देवी ! मेरी सहधर्मिणी बन सकती हो!"
"अबोध ! वरना त्रिवेणी-संगम पर मैं तुम्हें दर्शन ही क्यों देती।"
"दर्शन देकर मेरे हृदय को फूल की भाँति कुचल दिया।"

"हे कला-तपस्वी ! सुनो, संकोच ने तुम्हारे हृदय में प्रवेश किया, मैं अदृश्य हो गई। विश्व-कलाकार के निकलने वाले और पहुंचने वाले दोनों प्रदेश पर्दे के पीछे हैं। पीछे के प्रदेश ज्ञात हैं, दिखाई देने वाले प्रदेश आँखों के समक्ष हैं। बस, लेकिन त्यागी हुई मंजिल पर पुनः पहुँच जाओगे"

मैंने कहा-“हे देवी! मैं वेदांत नहीं जानता हूँ। पर कला-तपस्वी हूँ। तुम से प्रेम कर सकता हूँ। तुम्हारे दिव्य विनील लोचनों के परम-सौंदर्य के दर्शन करते हुए युगों तक रह सकता हूँ देवी!"
"ओह ऐसी बात है! तो संदेह किसलिए? मैं कला हूँ और तुम कला के तपस्वी हो। हमारा संयोग लोक-कल्याणप्रद क्यों नहीं होगा?" ।
पिपासात हो, मैंने उस सुधा-कलश को अपने आलिंगन में ले लिया।