निवाला (कहानी) : इस्मत चुग़ताई

Nivala (Story in Hindi ) : Ismat Chughtai

पूरी चाल में एक द्वन्द्व मचा हुआ था। ऐसा मालूम हो रहा था, जैसे किसी खोली में साँप निकल आया है या किसी के बाल-बच्चा हो रहा है। औरतें एक खोली से दूसरी खोली में घुस रही थीं। शीशियाँ, बोतलें, डिब्बे लिये सब की सब सरला बेन की खोली की तरफ़ तक रही थीं, जैसे सरला बेन का आखिरी वक्त हो और सारी पड़ोसिनें अपनी-सी करने पर तुली हों।

एक तरह से तो सरला बेन का वाक़ई आख़िरी वक़्त था।

उनकी ट्रेन बस छूटने ही वाली थी। पूरे तैंतीस बरस की होती, अगर उनके दूरंदेश वालिदैन ने प्रभाकर के सर्टीफ़िकेट में उनकी उम्र के पूरे पाँच साल न हड़प कर लिये होते।
मगर काग़ज़ की उम्र ऐसा ज़बरदस्त सहारा नहीं होती।

वह यू.पी. के किसी गुमनाम से गाँव की पैदावार थीं, मगर बम्बई में इतने साल रहीं कि वतन को भूल-भाल के बम्बई की ही हो गई थीं। उन पर किसी सूबे का ठप्पा नहीं था। कोई उन्हें गुजराती समझता, कोई मारवाड़ी और सिंधी। बस, जगत सरला बेन हो गई थीं। सरला बेन के.ई.एम. हॉस्पिटल में नर्स थीं। महँगाई अलाउंस मिला के दो सौ चालीस रुपए मिलते थे। बारह रुपए कमरे का किराया देकर इतना बच जाता था कि बड़े ठाठ से रहती थीं। हॉस्पिटल से मरहम-पट्टी का सामान, ए.पी.सी. की गोलियाँ, मरक्यूरीक्रोम, अस्ली ग्लीसरीन और पेटेंट दवाओं के सैम्पल लाकर मुफ़्त तकसीम किया करती थीं। उनका कमरा आस-पास के इलाके के लिए अच्छा-भला हॉस्पिटल था।

सरला बेन बड़े काम की चीज़ थीं। ऊपर से शक्ल-सूरत के साथ-साथ चाल-चलन ऐसा था कि कभी किसी की गृहस्थी पर शह पड़ने का खदशा नहीं हुआ। यही वजह थी कि वह बेइन्तिहा हरदिल-अज़ीज़ थीं। जिधर निकल जाती, उनके जनाए हुए बच्चे कुलबुलाते, रोतेबिसुरते नज़र आते। लोग उनके क़दमों में आँखें बिछाते। हर सौदे वाला, हर दुकानदार उन्हें रिआयत से माल देता। वह मोल-तोल करती जातीं और मरीजों के हाल-चाल पूछती जाती।

“क्यों रे तुलसी, बहू की कमर का दर्द कैसा है...अरे शाकिर मियाँ, आमना बीबी के पैरों की सूजन उतरी कि नहीं। शाम को ले आना। इंजेक्शन दे दूंगी। अरे ओ रजनी, तेरे घुटनों के दर्द का क्या हआ? तेरा मर्द फिर दारू पीकर आने लगा है?"
वह खैर-खबर पूछती गामदेवी के नुक्कड़ वाले बस-स्टॉप पर पहुँच जातीं और उनके मरीज़ उनको दुआएँ देते रह जाते।

बस सबको यही दुख था कि सरला बेन अब तक कुँआरी बैठी थीं। अगर शादी के बाद बेवा हो गई होती या मियाँ छोड़कर चला जाता, तो भी सब्र आ जाता, मगर यह तो निरा अँधेर था कि उनकी रेल छूट रही थी और जीवन-साथी का दूर-दूर तक निशान न था। सबके सिर उनके एहसानों के बोझ से झुके हुए थे। वह सबके लिए करती थीं, लेकिन उनके लिए कोई कुछ नहीं कर सकता था। यह शहर बम्बई है। यहाँ ज़िन्दगी सरपट दौड़ती है। यहाँ मश्शाता और नाइन का फ़ैशन ख़त्म हो चुका है। यहाँ तो बस आँख लड़ जाती है और ब्याह हो जाता है।

सरला बेन फ़िल्म-हीरोइन न सही, डरावनी भी न थीं कि कोई अल्लाह का बन्दा उन पर आशिक़ ही न हो जाए। आदमी का बच्चा थीं। बाप बचपन ही में मर गए। माँ हमेशा की रोगी सिंगर मशीन के बल-बूते पर उन्हें पालती रहीं। फिर जब बेटी कमाने लगी, तो वह बिल्कुल ही टूट गईं। दो-एक बार उचटता हआ उन्हें बेटी के ब्याह का ख़याल आया, मगर इस खयाल के कोई माकूल सूरत इख़ितयार करने से पहले ही वह चल बसीं। वह दिन और आज का दिन सरला बेन ऐसी अपने काम में जुटी कि शादी का ख़याल तक न आया। ख़याल आया भी होगा, तो उन्होंने किसी से तक़ाज़ा नहीं किया। और था भी कौन, जिससे तक़ाज़ा करतीं कि भई हमारा ब्याह करा दो?

कहते हैं, अगर कोई कुँआरी कन्या बैठी रहे, तो धरती की छाती पर बोझ होता है और धरती के इस कर्ब का पाप सबको लगता है। कम-अज़-कम सरला बेन के जाँनिसारों का तो यही अक़ीदा था। उनकी नेकी और पारसाई क़ाबिले-सिताइश थी मगर नेकी की भी एक हद होती है। यह तो उनसे कोई नहीं कहता था कि बाबा, किसी भी ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे के गले में बाँहें डालकर झूल जाओ, मगर औरत के चन्द गुर हैं, जिन्हें अगर सलीके से इस्तेमाल किया जाए, अच्छी शरीफ़ज़ादियाँ भी अब तो चिड़िया खुद ही घेरती हैं। फिर शरमाकर सिर झुकाकर डोर वालिदैन के हाथ में थमा देती हैं। कोई दाग नहीं लगता। किसी को पता भी नहीं चलता। वालिदैन सुर्खरू, दूल्हा-दुल्हन भी मग्न! यों हुआ करती हैं शादियाँ, मगर नहीं हो पातीं, तो बेचारी सरला बेन जैसी मुसमुसी गालों की, जो दुनिया के ज़ख्मों पर फाहा रखने में ऐसी गुम हैं कि अपना कुछ होश ही नहीं। सबके दुख बाँटती हैं। रातें आँखों में काट देती हैं। नौ-ज़ाईदा! बच्चे हथेलियों पर झेलती हैं...और फिर अपनी नीम-तारीक खोली में उलटा-सीधा निगलकर सूनी खाट पर पड़ जाती हैं। कोई इतना नहीं, जो उनकी तन्हाई के रिसते हुए ज़ख़्मों पर फाहा रखे।

यह इतना बड़ा चीख़ता-चिंघाड़ता बम्बई! क्या यहाँ कोई अकेला किसी औरत के प्यार का भूखा नहीं? किसी औरत के लम्स की चाहत नहीं? सरला बेन किसी की मुहताज नहीं, अपनी कमाई खाती हैं। सारी चाल में एक नगीना-सा कमरा है, जो किसी फ़्लैट से कम नहीं...सोफ़ाकुर्सी भी हैं, अपना अलग संडास भी...अब और क्या चाहिए इस दुनिया में...

लोगों का क्या है! कुँआरे तो आँखों में खटकते हैं। हर दम शादी की दुआएँ, शादी के तक़ाज़े। लो भई, शादी कर लो। बच्चे की फ़रमाइश! एक बच्चा हुआ, तो यह उलाहना है कि ऐ है, बस एक ही...चलो दूसरा पैदा कीजिए, मगर सरला बेन को भी यक़ीन न हआ था कि वह सदा कुँआरी ही रहेंगी। कोई तो होगा, उनका यहाँ से वहाँ तक फैली दुनिया में। कोई एक अल्लाह का बन्दा है, जिसे खुदा ने उनकी ज़िन्दगी का हिस्सेदार बनाया होगा। यह और बात है कि वह उसे ढूँढ़ नहीं पाईं। लोगों के कहने से उन्हें और भी ख़याल आने लगे, मगर जब भी उन्होंने किसी को इस ख़याल से देखा, वह शजरे-ममनूआ साबित हुआ और अपनी बीवी की पोशीदा बीमारियों का रोना ले बैठा। कुछ वक़्त साथ गुज़ारने को तो बहुत से तैयार मिले, मगर हाथ पकड़कर निभाने के ख़याल से बरात लेकर घोड़ी चढ़ने का अरमान किसी के दिल में न झाँका।

हॉस्पिटल में कभी किसी ने गहरी-गहरी पुर-असरार आँखों से उन्हें न देखा। कभी किसी ने उन्हें हटकर रास्ता देने की ज़रूरत तक न महसूस की। लोग दनदनाते निकल जाते और वह आड़ी होकर दीवार से लग जातीं।
गामदेवी के नाके से वह रोज़ सुबह को पौने आठ बजे वाली बस पकड़ा करती थीं। बस में सब ही रोज़ के जाने-पहचाने हुआ करते थे। सबकी सीटें कुछ मुकर्रर-सी हो गई थीं। उस दिन वह बेख़याली में अपनी सीट की तरफ़ बढ़ीं। एक अजनबी को वहाँ बैठा हुआ देखकर उन्होंने ठसाठस भरी हुई बस पर एक ताइराना नज़र डाली और बस के बीच में लटकी हुई रकाब पकड़कर खड़ी हो गईं। अजनबी ने उन्हें सिर से पैर तक देखा और खड़ा हो गया।
"बैठ जाइए..." वह रकाब पकड़कर खड़ा हो गया और अख़बार पढ़ता रहा।

उन्होंने पहले तो बौखलाकर झट से अपना बटुआ दबोचा कि कहीं कोई चोर-उचक्का तो नहीं। फिर समझीं, किसी पेशेंट का शौहर होगा और अभी पैरों के वरम और कमर के दुख-दर्द का क़िस्सा शुरू कर देगा, मगर रकाब पकड़े वह खड़ा झूलता रहा और अख़बार पढ़ता रहा। जब उन्हें यक़ीन आ गया कि वह ख़ुद भी किसी मुहिलक मरज़ में मुब्तला नहीं, तो वह सन्नाटे में रह गईं। ऐसा तो कभी होता नहीं!

मगर दूसरे दिन जब फिर वही हुआ कि वह बस पर चढ़ीं, और उसने अपनी जगह छोड़ दी और खड़ा हो गया, तो वह बैठने को तो बैठ गईं, मगर बड़ी कसमसाईं। उनकी समझ में नहीं आया, क्या करें। जी चाहा कि उसे मुट्ठी भर सल्फे की गोलियाँ ही दे दें। कहीं ज़ख़्म तलाश करके मरक्यूरीक्रोम का फाहा रखकर सफ़ेद झक-सी पटटी बाँध दें, मगर उसकी मुकम्मल सेहत से उन पर ओस पड़ गई। एक खरोंच तक का निशान न था। वह बस में बेतअल्लुक़-सा खड़ा झूलता रहा और अखबार पढ़ता रहा।

तीसरे दिन जब यही हादसा हुआ, तो सरला बेन के छक्के छूट गए। 'निगोड़े काहे को मुझे रोज़-रोज़ सीट देता है। क्या तेरी अम्माँ-बहनें नहीं कलमुँहे!' उनका जी चाहा, उसे किसी बात पर खूब जली-कटी सुनाएँ, मगर वह ऐसा बेतअल्लुक-सा खड़ा झूल रहा था कि उन्हें बात बेतुकी-सी लगी।

जब हफ्ता भर यही दस्तूर चलता रहा, तो सरला बेन बिल्कुल उथल-पुथल हो गईं। ख़िदमत-गुज़ारियों की तो वह आदी हो चुकी थीं। किसी का एहसान उठाने की उनमें आदत न थी। उनके दिल पर बोझ बढ़ने लगा। ड्यूटी पर उन्हें बार-बार खयाल आता कि क्या करें। दूसरी बस पर चलें, तो वक़्त पर पहुँचना नामुम्किन! - सरला बेन की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है। वह दुनिया से रूठीरूठी रहने लगीं, जैसे कोई उनके साथ सख्त ज़्यादती कर रहा हो। उनका मिज़ाज बड़ा नाजुक हो गया। अब वह बात-बात पर उलझ पड़तीं। बेबात के रोने लगतीं। ड्यूटी से लौटतीं, तो आँखें बन्द करके खाट पर पड़ जाती, खाने की भी सुध-बुध न रहती, किसी को कुछ दुख-दर्द भी होता, तो पास आते डरता...

"सरला बेन को इश्क हो गया है..” सत्तो गिरहकट ने राम दई को बताया।
"दुर मुए! तेरी खाट कटे। सरला बेन तो देवी हैं देवी!" राम दई ने सत्तो की सात पुश्तें तूम डालीं।
“मैं जो कह रहा हूँ।"
“क्या कह रहा है! तेरे मुँह में भूभल!"

मगर जब सत्तो गिरहकट ने बताया कि गामदेवी के नाके पर उसकी बिज़नेस होती है। हर एक को तोलना, परखना, उसकी जेब को हल्का करना, उसका रोज़ का काम है। एक अदद बाबू रोज़ाना अपनी सीट सरला बेन को दे देता है और खुद खड़ा सफ़र करता है। आज से नहीं, हफ़्तों से यह किस्सा चल रहा है और मुआमला क़तई पटता नज़र आ रहा है।
“हाय! मैं मर जाऊँ!" राम दई ने छाती कूट ली और दौड़ी-दौड़ी शब्बो के पास गई। शब्बो भी सन्नाटे में रह गई। फिर दोनों मिलकर सआदत की बहू के यहाँ गईं। सआदत की बहू मुंडेर पर लौंडे को लटकाए इजाबत करा रही थी।
"खुदा की कुदरत!" लौंडा मोरी में गिरते-गिरते बचा।
फिर यह बात आग की तरह सारी चाल में घूम गई।

"ऐसा ही होता है।" लक्ष्मी घाए ने कहा। वह रेडीमेड कपड़ों में काज-बटन बनाती थी और बड़ी जहाँ-दीदा थी। उसका मियाँ लापता था। एक लड़की थी, वह उसने मिशन स्कूल में दे दी थी। सब उसे गालियाँ देते थे कि उसने लौंडिया को ईसाई बनवा दिया है, लेकिन लक्ष्मी एक कान सुनती थी, दूसरे कान उड़ा देती थी। काज-बटन से कहीं पेट पलते हैं? सब जानते थे। वह रातों को जाया करती है। लाला के डर से गाहकों को चाल पर नहीं लाती, मगर किसी को क्या? उसने दारू पीकर कभी लफ़ड़ा नहीं किया, जैसे आए दिन एंटरी किया करती थी। नाम उसका एड था, मगर एंटरी होकर रह गया था। वह खुले बन्दों दारू का धन्धा करती थी। लाला को डरकर बख़िशश देती थी। पुलिस से भी हफ्ता मुकर्रर था। कोई उसके मुंह नहीं लगता था, क्योंकि वह आए दिन दारू चढ़ाकर अंग्रेजी में गालियाँ दिया करती थी। कम से कम चाल वालों का तो यही ख़याल था। कई बार भँवर में आ चुकी थी और सरला बेन की शुक्रगुज़ार थी कि उन्होंने उसकी नैया पार लगाई थी। चाल में कई आबरू-बाख़्ता औरतें रहती थीं, मगर किसी को ताने देने और एतिराज़ करने की फुरसत न थी। हर एक की कोई न कोई रग दबती थी।
"तो ब्याह क्या चाल में ही रचेगा?"
“और क्या? सामने के मैदान में तम्बू तन जाएगा। बम्बई में तो बड़ी-बड़ी शादियाँ तम्बू तान के की जाती हैं।" शब्बो ने फैसला दिया।

“हाय! मज़ा आवेगा! अपनी सरला बेन दुल्हन बनेगी!” राम दई को शादियों का बड़ा शौक़ था। वह हर मौसम में नई शादी रचाती थी। कुछ दिन बाद दूल्हा उसकी ठुकाई करके कभी-कभी कपड़े-लते तक चुराकर भाग जाता। अभी पिछली शादी तो उसने बाक़ायदा की थी। तम्बू तानने में बहुत ख़र्चा आता, इसलिए बस खोली ही में पंडित लोहे की अँगीठी जैसा हवन लेकर आ गया, और फेरे डाल दिए। राम दई खूब सजकर दुल्हन बनी। चाल पर अजब अरुसाना मूड छा जाता। खूब-सी मेहँदी घोलकर सबने थोपी। टीन बजाकर फ़िल्मी गाने गाए गए। रुख्सती के वक़्त जो हाथ लग गया, राम दई उससे गले लग-लग रोई, “मेरा बैरन...हाय मेरा बाबुल...हाय, मुझे मत अपनी ड्योढ़ी से निकालो!" वह किसी फ़िल्मी सीन की याद में चिंघाड़ती रही। पनवाड़ी ने तेज़-तेज़ आवाज़ में ग्रामोफ़ोन लगा दिया, “काहे को ब्याही बिदेस!" गो निहायत सरपट चिनचिनाती आवाज़ में बेहद बेसुरी औरतें गा रही थीं, मगर यह कम्बख़्त गीत ही कुछ ऐसा है कि जी भर आता है। बेटी की रुख्सती का समाँ भी अजीब होता है, हालाँकि राम दई रुख्सत नहीं हुई। उसका भैंगा दूल्हा भी ब्याह कर चाल ही में आ गया।

कई दिन राम दई शरमाती, लजाती, पायल बजाती फिरती रही। फिर दूल्हे ने उसकी पिटाई शुरू कर दी, रोज़ दारू पीकर हड्डियाँ तोड़ता। महीने भर के अन्दर-अन्दर वह उसके चाँदी के कड़े और नाक की लौंग लेकर भाग गया। राम दई थोबड़ा सुजाए कई दिन तक लँगड़ाती रही और उसकी जान को कोसती रही।
इन तल्ख तज़ों के बावुजूद लफ़्ज़ शादी से राम दई के दिल में लड्डू फूटने लगते। अपने अलावा भी किसी की शादी हो, तो मज़ायका नहीं। मौक़ा ख़ुशी का है।
डरते-डरते सरला बेन को छेड़ा गया। और जब वह ज़रा झेंप गई, तो बस धर लिया गया।
"सरला बेन, ब्याह कर डालो..."
"हाँ जी, यही उम्र है,खेलने-खाने की!"
"तुम्हारे माता-पिता की आत्मा को भी शान्ति मिलेगी!"
"हाय राम! हम तो खूब हलचल मचाएंगे!"
"चौक में तम्बू तनेगा।”
“दूल्हा घोड़े पर चढ़कर आवेगा!"
"सरला बेन, घूँघट काढ़ोगी?"
“ऐ भला, क्यों न काढ़ेंगी! कहीं बिना घूँघट दुल्हन बनी है।" राम दई ने राय दी। वह इस लाइन में एक्सपर्ट मानी जाती थी।
“हाय, चाल सूनी हो जाएगी।”
“सआदत की बहू का बच्चा कौन जनेगा?" हर साल सआदत की बहू को सरला बेन की ख़िदमत की ज़रूरत पड़ती थी।
“सूत न कपास, कोल्हू से लट्ठम-लट्ठा!” सरला बेन चिढ़ गईं, “किसने कह दिया तुमसे शादी-ब्याह का?"
"ऐ है, तो फिर रोज़ सीट बस में क्यों देते हैं?" शब्बो तनतनाई।
"यह तो उनकी भलमनसाहत है," सरला बेन नर्मी से मुस्कराई!
“ऐ, तेल देखो, तेल की धार देखो। आज सीट देते हैं, कल दिल भी देंगे।" सआदत की बहू ने गोदी के लौंडे को कूल्हे पर ठसककर फैसला किया। इस पर सब चहक उठीं।

इन प्यारी-प्यारी बातों से सरला बेन की आँखों में भी ख़्वाब झूम उठे। उन्हें इन मद्कूक, आबरू-बाख़्ता, हर्राफा औरतों पर प्यार आ गया। दिल शुक्रगुज़ारी के एहसास से लबरेज़ हो गया।

“अबकी बार दूध कम उतरने की शिकायत तो नहीं।" वह बात बदलने को एकदम नर्स बन गईं।
“अभी तक तो नहीं!” सआदत की बहु मिनमिनाई।
“और देख एडिथ, अबके जो कुछ लफड़ा हुआ, तो कसम से पुलिस में दे दूंगी!"
"बाबा, वह लोग हस्बैंड का नाम पूछते।" एडिथ भिन्नाई!
“एंटरी, सिद्दीक बाबू का नाम दे दे।" राम दई ने मश्वरा दिया।
“बट, हम कैथोलिक हैं, वह लुच्चा ...”
"तो सरमा जी का नाम दे दे...”
"चुप रहो चुडैलो...” सरला बेन ने सबको डाँटा, और सआदत की गोद के लौंडे को चुप कराने के लिए चमचा भर सीरप उसे चटा दिया, “दूर हो यहाँ से!"
“पहले यह बताओ, शादी कब होगी?" शब्बो अड़ गई।
“हाँ, तारीख मुकर्रर हो जाए।” लक्ष्मी ने मतालबा किया।
"किसकी शादी? कैसी तारीख? कोई बात न चीत!" सरला बेन बिगड़ गईं।
"बात न चीत, यह कैसे? क्या दूल्हा गूंगा है?" कहक़हा पड़ा।

और फिर सबने बौखलाई हुई सरला बेन को समझाया कि उनकी ढील ही से यह हुआ है कि उन जैसी गुणवंती कुँआरी बैठी है। मर्द की ज़ात तो ठलुवा होती है, जब तक मुँह में निवाला न ठूँसो, बात नहीं बनती। सब सरला बेन के बहीख़्वाह हैं, दुश्मन नहीं। कहो तो अपनी जानें भी तुम्हारे लिए दे दें। यह चिड़िया अब हाथ से नहीं जानी चाहिए!
"कहो, तो उनसे बात करने को बोलूँ!" सआदत की बहू ने पूछा।
"अरे, हम खुद बात करने को तैयार हैं उनसे कि बाबा. लडकी पसन्द है. तो ऐसा बात करो!"

मगर राम दई की इस राय से सबको इख़्तिलाफ़ पैदा हो गया। उसे मर्दो को फाँसने में मलिका हासिल है, मगर कम्बख़्त को शादी का चस्का पड़ चुका है। अगर अमानत में खयानत की गई, तो?...न बाबा, राम दई से अल्लाह बचाए।
"शायद बेचारों की हिम्मत नहीं पड़ती। यह रोब-दाब से चश्मा चढ़ा के जाती हैं। वह सोचते होंगे मीठी नज़र से देखा और जूते पड़े।" शब्बो ने तश्खीस की।
“कपड़े-लते का असर तो पड़ता है!"
"ड्यूटी की और बात हुई, पर यह हर घड़ी डॉक्टरनी बनी रहवें हैं।"
"औरत को कुछ सिंगार तो करना ही पड़ता है। अरे, यह मुखड़ा, इस पर मेकअप हो, तो क़सम से श्रीमान के छक्के छूट जाएँ!"
"और कपड़े भी भड़कदार हों।"
“थोड़ा-बहुत तेल-फुलेल!”
"हाथों में चूड़ियाँ।"
"कानों में आवेजे...फिर देखते हैं, बाबू जी कहाँ जाते हैं!"

सरला बेन ने उस वक्त तो सबको झिड़क दिया, मगर सोच में पड़ गईं। यह दुनिया का दस्तूर है। बम्बई में एक से एक भड़कदार औरत घूमती है...सूनी-सादी औरतों पर नज़र ही नहीं टिकती।
जैसा मौक़ा, वैसा भेस!
मगर उसके पास तो सादी कन्नी की साड़ियाँ थीं, दो-चार बदरंग-सी खटाऊ की होंगी। गले में तार-सी जंजीर तो पड़ी रहती है, अगरचे उसे जेवर कहना ज़्यादती है। माँ की यादगार है।
रात के सन्नाटे में उनके दिमाग में रंग-बिरंगे कपड़े और ज़ेवर थिरकते रहे।
"शायद ब्याहता है।" दूसरे दिन शब्बो ने फ़िक्रमन्द होकर कहा।
"नहीं, ब्याहे तो नहीं!"
"कैसे मालम!"
"बस में कोई दोस्त मिले, तो पूछ रहे थे, 'कमरा मिला?' वह बोले, 'हाँ मिला।' कहने लगे, 'अब शादी कर डालो!''
"फिर क्या बोले?" राम दई करीब खिसककर बोली।
"हँसने लगे!"
"चलो, इधर से तो इत्मीनान हुआ। ज़ात के तो ठीक हैं?"
"हाँ, बैग पर रामस्वरूप भटनागर लिखा है। वह तो पहले ही दिन देख लिया था।"
"बस फिर क्या बात रह गई है, जो टाल-मटोल कर रही हो!"
"मुँह से जो नहीं बोलते!"
"कुछ मीठी नज़रों से कहते होंगे?"
"नहीं...” जो कहते भी होंगे, तो...सरला बेन के काहे को पल्ले पड़ेगा...राम दई हुई, एडिथ हुई, शब्बो ही होती, तो फट समझ जाती। दो दिन में बाबू जी मुट्ठी में होते।"
"ठंडी साँस भरी!"
"नहीं...!"
"तो यह मर्दुआ कौन-सी मिट्टी का बना है?" सआदत की बहू बिगड़ गई।

बड़ी काँय-काँय के बाद तय हुआ कि सरला बेन दूरंदेशी पर तैयार हों। तीर-तफंग से लैस होकर मुँह में निवाला दें, तब ही नैया पार लगेगी।

बस इसी कारण औरतें अपने-अपने तर्कशों से सामान निकाल-निकालकर सरला देवी की कुमक को पहुँचने लगीं। शबाना कभी फ़िल्मों में एक्स्ट्रा का काम भी ले लेती थी। वह वहाँ से न जाने क्या अटरम-सटरम लाया करती थी। हैज़लीन स्नो तो सआदत की बहु के पास भी साल भर से पड़ी थी। एडिथ के पास तो तमाम स्मगल किया हुआ कॉस्मेटिक था। वह एक हेयरड्रेसर को भी जानती थी, और खुद भी फ़स्ट-क्लास गुब्बारे-नुमा ऊँचे, तूंबी जैसे बाल बना लेती थी। उसके पास ऐसे-ऐसे छोटे-बड़े कपड़े थे, जो अगर खपच्ची को पहना दो, तो बुते-क़ाफ़िर बन जाए।

बस सब की सब मरम्मत पर जुट गईं। सरला बेन ने बहुत न-न की, मगर शब्बो ने अपनी प्याज़ी नाइलोन जार्जेट की साड़ी, जिस पर सीकुएंस का काम बना था, उन्हें पहनाई। ब्लाउज़ पर बहुत झगड़ा पड़ा। शब्बो कहती थी, ताज़ातरीन फैशन के मुताबिक़ सुर्ख ब्लाउज़ और सुर्ख पेटीकोट होना चाहिए, नीचे से चलका मारेगा और लाल ही सैंडल हों, तब आएगा मज़ा।
सरला बेन निगोड़ी को न फ़िटिंग का पता, न मैचिंग के राज मालूम! उनके हाथों में खेल बनती रहीं।

मुँह पर पहले क्रीमें थोपी गईं, सआदत की बहू की हैज़लीन स्नो के, जो सूख चुकी थी, क्योंकि वह बुरा माने जा रही थी। फिर रोज़ और पाउडर के पलस्तर चढ़े। खूब-सा स्याह सूत लेकर तूंबी की शक्ल का जूड़ा बना, फिर ज़ेवर की बारी आई। इस पर ख़ानाजंगी होते-होते बची। हर शख्स यही चाहता था कि उसका चन्दा ज्यादा से ज्यादा हो।
जब ऊँची एड़ी के कारचोबी सैंडल पहनकर सरला बेन बस स्टॉप पर लहराती-डगमगाती पहुंची, तो उनकी बगैर ऐनक की आँखों में तिरमिरे नाच रहे थे। पसीने के शरारे छूट रहे थे।
"क्या औरत होना काफ़ी नहीं। एक निवाले में इतना अचार, चटनी, मुरब्बा क्यों लाज़िमी है।" उनकी आँखों में आँसू चलने लगे।
और फिर उस निवाले को बचाने के लिए सारी उम्र की घिस-घिस!
जब थोड़ी ही देर बाद लोगों ने सरला बेन को लश्तम-पश्तम वापस लौटते देखा, तो सबके हाथों के तोते उड़ गए। वह बगैर दूल्हा के डगमगाती-लरज़ती चली आ रही थीं। गालों पर काजल की लकीरें बहाती, वह गटर में गिरते-गिरते बचीं।
“निवाला थूक दिया गया!”
“यह कैसे हुआ? क्यों हुआ?” सरला बेन सवालों की बौछार से बेदम होकर पलंग पर गिर पड़ीं।
वह जब बस में दाखिल हई, तो वह उनसे क़तई गाफ़िल अखबार पढ़ता रहा। वह रकाब पकड़े सीट के पास खड़ी झूलती रहीं और वह बस के दरवाज़े की तरफ़ बार-बार देखता रहा, जैसे किसी का मुन्तज़िर हो।
उन्होंने नजरों के सारे तीर उसके कलेजे में झोंक दिए, मगर वह उनकी तरफ़ से मुँह मोड़े दरवाजे को तकता रहा।
उन्होंने कान्ता की महक में बसा हुआ गुलाबी आँचल ढलकाया, मगर उसने अख़बार से नज़रें न उठाईं।

उन्होंने एक भरपूर अँगड़ाई ली, मगर उसकी आँखों में मस्तियाँ न लहराईं। उसने एक पथराई हुई नज़र उन पर डाली और उनके धूम-धड़क्के को बे-एतिनाई से ठुकराता हुआ अख़बार पर झुक गया।
सामने की सीट खाली हो गई। और वह उस पर ढह गई।...सारे तीर सनसनाते हए वार खाली दे गए और खाली तर्कश लरज़ता रहा, काँपता रहा।

डरते-डरते उन्होंने अपनी सीट से मुड़कर देखा। वह बस से उतरकर जा रहा था। उतरते वक्त उसने बस-स्टैंड पर धन्धा चलाते हुए सत्तो गिरहकट से पूछा, "क्यों रे पाजी, आज सरला देवी नहीं आईं?"
सत्तो गिरहकट हकलाता रह गया और अजनबी लम्बे-लम्बे डग भरता, सामने गली में गुम हो गया।

  • मुख्य पृष्ठ : इस्मत चुग़ताई की कहानियाँ हिन्दी में
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां